Tuesday, February 26, 2019

पैर-प्रच्छालन नहीं, अधिकार चाहिए

ऐसी ब्राह्मणी मान्यता है कि कुम्भ में स्नान करने से सारे पाप धूल जाते है। इसी मान्यता के तहत भारत के माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुम्भ स्नान करके इलाहाबाद में कुछ सफाई कर्मियों का पैर प्रच्छालन किया। भारत की मुखधारा (ब्राह्मणी) मिडिया वंचित जगत के प्रति किये गए इस अपमान को वंचित जगत के प्रति एनडीए-२ के प्यार के रूप में परोस रही है। क्यों मोदी वंचितों के पैर धोने का नाटक करते है? उनका ये नाटक दलितों-वंचितों के कार्यों की महत्ता बताने के लिए नहीं, बल्कि दलित-वंचित समाज को नीच सिद्ध करने के लिए है। 




यदि साफ-सफाई का कार्य इतना ही पवित्र है तो इस कार्य को ब्राह्मणी व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर रखें लोगों के लिए ही सामाजिक-धार्मिक रूप से आरक्षित क्यों कर दिया गया है? इस कार्य में ब्राह्मणों-सवर्णों की भागीदारी क्यों नहीं है? माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी ने सामाजिक सशक्तिकरण करने के बजाय दलितों-वंचितों को स्थापित तौर पर एहसास कराया है कि दलित-वंचित लोग नीच है। नरेंद्र मोदी जी पैर धोकर महान बनाने की फ़िराक में है, मीडिया उनकों महान बनाने के कार्य में लगी हुई है लेकिन क्या इससे देश के वंचित जगत की हालत में कोई बदलाव आएगा?

फ़िलहाल, सवाल यह उठता है कि आज़ादी से लेकर अब तक, चंद महीनों के कार्यकाल को छोड़ दिया जाय तो, केंद्र की सत्ता पर ब्राह्मणों-सवर्णों ने ही शासन किया है। आखिर इन ब्राह्मणों-सवर्णों और उनके राजनैतिक दलों ने क्यों वंचित जगत को उनका संविधान सम्मत स्थान नहीं दिलाया? ऐसी क्या वजह है कि नरेंद्र मोदी को वंचित जगत के पैर धोने पड़े? जिन लोगों के पैर धोये गए क्या वो वाकई में दलित-वंचित समाज के थे? सामाजिक न्याय पर ब्राह्मणों-सवर्णों ने कार्य क्यों नहीं किया? भारत में राजनैतिक लोकतंत्र कुछ हद तक स्थापित हो भी चुका है लेकिन भारत में आर्थिक-सामाजिक लोकतंत्र को क्यों स्थापित नहीं किया गया? इन सवालों की पड़ताल जरूरी है। 

१९४७ से लेकर आज तक देश पर ब्राह्मणों-सवर्णों का ही शासन रहा है। इन लोगों ने देश में सामान शिक्षा, स्वास्थ, आधारभूत संरचनात्मक विकास के साथ-साथ भारत के सामाजिक ताने-बाने को बदल कर समानता स्थापित करने का कार्य क्यों नहीं किया? आज यदि प्रधानमंत्री मोदी ने दलित-वंचित समाज के पैर धो भी दिए तो क्या इससे दलित-वंचित समाज की मुक्ति मुक्ति संभव है? इन्होने दलित-वंचित समाज के लिए कितने स्कूल खुलवाएं है? प्राथमिक पाठशाला में जब तक सवर्णों के बच्चे पढ़ते थे तब तक वहां पढाई का माहौल ठीक था लेकिन जब से पब्लिक स्कूल (हास्यास्पद है कि भारत में प्राइवेट स्कूल को पब्लिक स्कूल कहते है) अस्तित्व में आ गए तब से सभी ब्राह्मणो-सवर्णों के बच्चे पब्लिक स्कूल में जाने लगे, प्राथमिक पाठशाला में बचे वंचित जगत के बच्चे। इन प्राथमिक स्कूलों में अध्यापक सामान्यतः सवर्ण ही है। ब्राह्मणों-सवर्णों के बच्चे इन स्कूलों में पढ़ते नहीं, इस लिए प्राथमिक पाठशालाओ पर कब्ज़ा जमाये ब्राह्मण-सवर्ण अध्यापक पढ़ाना बंद ही कर दिए है। नतीजा, पब्लिक स्कूलों के आने से नौकरियाँ तो बढ़ी है, जिसका फायदा सबसे ज्यादा ब्राह्मणो-सवर्णों को ही मिला है, लेकिन वंचित जगत के शिक्षा का भविष्य पूरी तरह से अंधकारमय हो गया है। 

यदि ब्राह्मणी सरकारों ने समाज में स्वस्थ सुविधा सभी को सामान रूप से उपलब्ध कराया होता तो भारत दुनिया के टीबी कैपिटल, कैंसर कैपिटल, कुपोषण कैपिटल, डायरिया कैपिटल आदि ना बनता। जंग में भी उतने सैनिक शहीद नहीं होते है जितने कि भारत के सीवरों में दलित मार दिए जाते है। डिजिटल इण्डिया की बात करने वाले पीएम ने क्या सीवर की सफाई के लिए किसी तकनीकी के इस्तेमाल को किसी भी रूप में किसी भी स्तर पर कोई बढ़ावा दिया? नहीं, पैर-प्रच्छालन के बजाय सीवरों को मानव सफाई से मुक्त करना होगा, सफाई कर्मियों के स्वास्थ और उनके काम के चलते होने वाले खतरों के मद्देनज़र रखकर से सैलरी देनी चाहिए। क्या इसके लिए मोदी ने कोई काम किया? 

सत्ता में काबिज दल कोई भी रहा हो लेकिन उन दलों पर कब्ज़ा ब्राह्मणो-सवर्णों का ही रहा है। ये सभी ब्राह्मण-सवर्ण जातिवादी नारीविरोधी मनुवादी सनातनी वैदिक ब्रह्माणी हिन्दू धर्म व व्यवस्था के पोषक है। इसी से इनकों देश के ८५% बहुजन समाज के शोषण का राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक-धार्मिक हक़ मिला मिला है। हमारे विचार से, यदि भारत सामाजिक न्याय स्थापित हो गया होता तो नरेंद्र मोदी को ये चुनावी नाटक नहीं करना पड़ता जो नाटक ये कर रहें है। ऐसे में प्रधानमंत्री को जवाब देना चाहिए कि ब्राह्मणी सरकारों ने सामाजिक लोकतंत्र को क्यों स्थापित नहीं किया? 

देश में गरीबी की मार से पीड़ित लगभग पूरी आबादी दलित-वंचित-आदिवासी और अन्य बहुजनों की ही है। ब्राह्मणी सरकारों ने देश के धन-धरती के बॅटवारे के लिए कौन सा कदम उठाया है? यदि देश में आर्थिक लोकतंत्र लागू हो गया होता तो आज देश का दलित-वंचित-आदिवासी-बहुजन समाज गरीबी-बीमारी-शोषण-दुत्कार की मार ना झेल रहा होता? यदि ब्राह्मणी रोग से पीड़ित हुक्मरानों दलित-वंचित हितैसी है तो उन्होंने आर्थिक लोकतंत्र लागू करने के अपने संवैधिक कर्तव्य का पालन क्यों नहीं किया? यदि ब्राह्मणी सरकारों ने ये किया होता तो आज किसी ब्राह्मणी रोगी को प्रतीकात्मक तौर दलितों-वंचितों का पैर ना धोना पड़ता।  

फ़िलहाल, मोदी जी ने जिन सफाईकर्मियों के पैर धोये है वो उत्तर प्रदेश सरकार के लोग रेगुलर सफाईकर्मी नहीं है। कोई छत्तीसगढ़ से है तो कोई उड़ीसा व अन्य जगहों से। मोदी जी ने जिन लोगों के पैर धोये है वो सब लोग कुम्भ में मोदी जी की ही तरह अपने पाप धोने आये थे। ये लोग अपने पापों की मुक्ति के ब्राह्मणी संकल्पना के तहत बस कुछ ही दिनों से कुम्भ में साफ-सफाई का कार्य कर रहे थे। और, सबसे बड़ी बात ये है कि ये सभी ब्राह्मण थे। सोशल मिडिया से प्राप्त जानकारी के अनुसार इनके नाम होरीलाल मिश्रा, प्यारेलाल चौबे, ज्योति द्विवेदी, नरेश चंद्र त्रिपाठी है। फ़िलहाल ब्राह्मणी षड्यंत्र के तहत मुखधारा ब्राह्मणी मीडिया इन लोगों का पूरा नाम नहीं बता रही है। हकीकत में देखा जाय तो मोदी जी ने सफाईकर्मियों के नहीं, बल्कि ब्राह्मणों के पैर धोये है। और, ब्राह्मणी व्यवस्था में ब्राह्मणों-सवर्णों और ब्राह्मणी रोग से पीड़ित लोगों द्वारा ब्राह्मणों के पैर पड़ना या धुलना बहुत ही आम बात है। इससे सिद्ध होता है कि ये सिर्फ और सिर्फ एक चुनावी स्टंट मन्त्र है। 

बाबा साहेब ने कहा है कि जब लोकतंत्र की तलवार गर्दन पर लटकेगीं तो ब्राह्मण-सवर्ण वो भी करेगें जो ये कभी नहीं करना चाहते हैं। बहुजन समाज को समझना होगा कि कोई भी ब्राह्मणी रोग से संक्रमित रोगी दलितों के पैर आसानी से नहीं धोएगा। यदि लोकतंत्र की मजबूरी के चलते कोई ब्राह्मण-सवर्ण या ब्राह्मणी रोग से ग्रसित ऐसा कर भी देता है तो इसका क्रेडिट उसको नहीं, बल्कि बाबा साहब, उनके बनाये संविधान, लोकतंत्र और बाबा साहब द्वारा दिखाए गए रास्ते को जाता है। इसका क्रेडिट मान्यवर काशीराम साहब को जाता है जिन्होंने बहुजन समाज के दलित वर्ग को सियासत में वो मुकाम दिला दिया है कि ब्राह्मण-सवर्ण व ब्राह्मणी रोग से संक्रमित रोगी दलितों के पैर पड़ने तक को मजबूत हो गए है। इसका श्रेय भारत में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका बहन जी को भी जाता है कि जिन्होंने भारत की राजनीति में वो भूचाल ला दिया है कि ब्राह्मणी रोग से संक्रमित लोग दलित-वंचित जगत को रिझाने के लिए मजबूरन कभी रामनाथ कोबिंद (जन्मजात दलित लेकिन मानसिक तौर पर संघी) को राष्ट्रपति बना देते है, और इनकों प्रतीकात्मक तौर पर सफाइकर्मयों के पैर प्रच्छालन का चुनावी नाटक तक करना पड़ता है। 

इन सब घटनाओं के मद्देनज़र, बहुजन समाज को समझना होगा कि ब्रह्मण-सवर्ण सांस्कृतिक तौर पर एक अपराधी जाति है। जब ये मजबूर होती है तो ये सुदामा बनकर आपके पैरों में नतमस्तक हो जाती है लेकिन जब उसको सत्ता मिलती है तो वो परशुराम बनकर आपकी गर्दन काट देता है। यहीं ब्राह्मण है जिसने बहुजन नायक एकलव्य का अँगूठा काटवा लिया था। यही ब्रह्मण है जिसने शम्भूक की गर्दन कटवा दी थी। यही ब्राह्मण है जिसने मीराबाई, संत रैदास और कबीर की हत्या करवाई थी। जब तक गाँधी ब्रह्माणी धर्म के लिए काम करते रहें तब तक ब्रह्मण गाँधी के पैरों में नतमस्तक रहा लेकिन जैसे ही गाँधी थोड़ा से विचलित हुए ब्राह्मण ने उनकी भी हत्या कर दी। याद रहें, गाँधी के पैर पड़ने वाला ब्रह्मण गाँधी का हत्यारा है। इतिहास से सीखने की जरूरत है कि यदि ये ब्राह्मण या ब्राह्मणी रोग से संक्रमित कोई भी आपके पैर धो रहा है तो आपके अधिकार खतरे में है। आपके अधिकारों की हत्या निश्चित है। इसलिए बहुजन समाज को किसी के झांसे में ना आकर अपने हकों को समझते हुए केंद्र में अपनी हुकूमत को पूर्ण बहुमत के साथ स्थापित कर अपनी सामाजिक परिवर्तन के लिए जद्दोजहद करते रहना होगा। इसी में बहुजन समाज की और भारत देश की भलाई है। यही देशप्रेमियों का देश और संविधान के प्रति सच्चा कर्तव्य है।
रजनीकान्त इन्द्रा, इतिहास छात्र, इग्नू-नई दिल्ली

No comments:

Post a Comment