Sunday, December 29, 2019

मानवता के लिए सबसे बड़ा खतरा है मनुष्यता


बहुजन समाज पर सदियों से हर संभव तरीके से अत्याचार होता आ रहा है। बहुजन समाज (मानव) के लोग भी अपनी यथासंभव शक्ति के अनुसार उसका विरोध करते आ रहे हैं।

यदि इतिहास पर गौर करें तो हम पाते हैं कि मानवता (बहुजन समाज) के खिलाफ अत्याचार कर रही मनुष्यता (ब्राह्मवाद) पर प्रहार करते हुए गौतम बुद्ध सम्राट, चार्वाक, अशोक, संत रैदास, संत कबीर दास, गुरु घासीदास, फुले-शाहू-आंबेडकर, पेरियार, कांशीराम से लेकर बहन जी समेत सकल दानव समाज (बहुजन) अपने-अपने स्तर पर मनुष्यता का सदा से विरोध करता रहा है।

जब-जब मानवता का आंदोलन प्रबल व प्रखर हुआ है तब-तब मानव समाज अक्सर अपने नायकों को स्थापित कर अपने आंदोलन की परंपरा को आगे बढ़ाकर मानवता के आंदोलन को ऊंचाई के अगले पायदान पर पहुंचाया है। लेकिन यदि हम आज के दौर की बात करें, जहां पर मनुष्यता को मानने वाले और मानवता के मानने वाले, समरसता बनाम समता की लड़ाई लड़ रहे हैं वहीं दूसरी तरफ मानव समाज में भी कुछ लोग मनुष्य बनने का प्रयास कर रहे हैं। मनुष्यों को समरसता में अटूट विश्वास है। ऐसे में मानव से मनुष्य बने लोगों का देश के मानव आंदोलन के लिए हानिकारक सिद्ध होना लाजिमी हैं।

ऐसा देखा जाता रहा है कि जब-जब मानव समाज का आंदोलन आगे बढ़ता है तब-तब यदि कोई मनुष्य मानव के हक का मुखौटा ओढकर इनके सुर में सुर मिला दे तो ये मानव लोग उस मनुष्य को अपना हितैषी समझ लेते हैं, और अपने महानायकों और अपने साथ संघर्ष करने वाले मानव को भूलकर के मनुष्यों की जय-जयकार करने लगते हैं।

ऐसे में हमारा स्पष्ट मानना है कि यदि कोई भी मनुष्य मानव के मुद्दों पर अपनी आवाज बुलंद करता है, और यदि आप उस मनुष्य को अपने नायक के तौर पर प्रोजेक्ट करते हैं तो कहीं ना कहीं आप अपने आंदोलन में सहयोग कर रहे अग्रणी मानव को किनारे कर के अपने शत्रु मनुष्य को आगे बढ़ा रहे हैं। यही वजह है कि गुमराह बहुजन समाज अपने नायक गढ़ने के बजाय मनुष्य की वाहवाही में अपना ऊर्जा व्यर्थ कर रहा है जिसका ताजा उदाहरण एनआरसी-सीएए पर ढोंगी समर्थन करने वाले कुछ मनुष्यों का मानव समाज द्वारा किये गये महिमामंडन के रूप में स्पष्ट दिखाई पड़ता है।

ऐसे नाजुक दौर के संदर्भ में हमारा स्पष्ट मानना है कि यदि मानव समाज यह चाहता है कि उसका अपना आंदोलन अपने वाजिब मुकाम तक पहुंचे तो मानव समाज को चाहिए कि वह अपने आंदोलन में अहम योगदान दे रहे मानव को ही अग्रणी रूप से पेश करें। यदि वह अपने समाज के अग्रणी मानव को किनारे कर मानवता का चोला पहनकर मनुष्यता को बढ़ावा दे रहे मनुष्य को अपने लीडर के तौर पर प्रोजेक्ट करते हुए उसका महिमामंडन करेगा तो मानवता का पूरा का पूरा आंदोलन मनुष्यों द्वारा हाईजैक कर लिया जाएगा। परिणाम स्वरूप देश में मानवता स्थापित होने के बजाय मनुष्यता की स्थापना हो जाएगी।

याद रहे,
समाज में मनुष्यता की स्थापना मानवता के लिए सबसे बड़ा खतरा है। मनुष्यता का दहन करके ही मानवीय मूल्यों पर आधारित भारत का सृजन किया जा सकता है।
जय भीम नमो बुद्धाय

✒✒✒रजनीकान्त_इन्द्रा✒✒✒

Tuesday, November 12, 2019

आरएसएस मुस्लिम विरोधी नहीं, बहुजन विरोधी हैं। 


किसी भी देश या समाज का आधार उस समाज को चलाने वाली विचारधारा होती है। इसी तरह से विविधता पूर्ण भारत में अनेकों विचारधाराएं हैं। इनमें कुछ प्रबल विचारधाराएं हैं जिन्होंने अलग-अलग संस्कृतियों को संरक्षित किया हुआ है। इसमें कुछ प्रमुख संस्कृतियों हैं जैसे कि इस्लामिक संस्कृति ब्राह्मणवादी संस्कृति जैनी संस्कृति, ईसाइयत और अंबेडकरवादी बुद्धिस्ट संस्कृति।

बाबा साहब कहते हैं कि भारत का इतिहास कुछ और नहीं बल्कि दो संस्कृतियों का द्वंद रहा है। यदि हम प्राचीन इतिहास की तरफ रुख करें तो हम पाते हैं कि ब्राह्मणों सवर्णों के भारत आगमन के बाद भारत का इतिहास बुद्धिज्म बनाम ब्राह्मणवाद था।

इस द्वंद के दरमियान बुद्धिज्म में ब्राह्मणवाद की विनाशक पद्धतियों के घालमेल हो जाने के चलते बुद्धिज्म कमजोर हुआ और ब्राह्मणवादी शक्तियां पूरे मुल्क पर काबिज हो गए। इसके बाद आने वाले अलग-अलग राज राजाओं के संरक्षण में ब्राह्मणवादी संस्कृति पलती रही, प्रबल होती रही।

इसके बाद भारत में इस्लाम का आगमन होता है। फिर हिंदू व्यवस्था के जातिवाद, छुआछूत, आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक और अन्य सभी संभव प्रकार के अत्याचारों से निजात पाने के लिए देश के बहुजन समाज के लोगों ने ब्राह्मणवादी व्यवस्था का बहिष्कार करके सूफी संतों के प्रभाव में इस्लाम को कबूल किया। ये और बात है कि ब्राह्मणवाद के जहर से इस्लाम भी बच नहीं पाया है। नतीजा यह हुआ कि समानता का संदेश देने वाले इस्लाम में भी ब्राह्मणवादियों ने जात-पात, ऊंच-नीच का जहर बो दिया, जिसका खामियाजा आज भी ब्राह्मण व्यवस्था का बहिष्कार करने के बाद इस्लाम को कबूल करने वाला बहुजन समाज मुसलमान बनने के बावजूद भी भुगत रहा है।

इसके बाद जब भारत में ईसाइयत का आगमन हुआ तो इन लोगों ने भी यहां के बहुजन समाज को एक नई दिशा व दशा के साथ एक बेहतरीन समझ देते हुए एक सम्मानीय जीवन जीने का मकसद दिया, जिसके चलते बहुत सारे बहुजन समाज के लोग ईसाइयत को कबूल करने लगे। जिसके चलते ब्राह्मण व्यवस्था में गुलामी कर रहा तबका धीरे-धीरे बंटना शुरू हो गया। इसके बाद इन सब ने देश के बहुजन समाज को आजादी दिलाने वाले भारत के दो प्रमुख विचारधाराओं को कुचलने का काम किया जिसमें इस्लाम और ईसाइयत प्रमुख है।

इतिहास पर गौर किया जाए तो देश के ब्राह्मण-सवर्ण तबके ने कभी भी इस्लामी राजाओं का विरोध नहीं किया, बल्कि उनके साथ तो इन्होंने रोटी-बेटी का संबंध रखा जैसे कि अकबर-जोधाबाई आदि। इसकी वजह यह रही कि इस्लामी राजाओं ने भी काफी हद तक ब्राह्मणी व्यवस्था को कायम रखने के लिए ब्राह्मणों-सवर्णों की मदद की। मतलब की ब्राह्मणी व्यवस्था में हस्तक्षेप कम से कम किया, लेकिन इसके बावजूद मुस्लिम शासकों ने इस्लाम के क्समता के संदेश के तहत शिक्षा जैसे अहम पहलू के लिए देश के दलित वंचित पिछड़े बहुजन समाज के लोगों के लिए मदरसों के दरवाजे खोल दिए। इसी का परिणाम था कि भारत की सरजमीं पर कबीर जैसे लोग पैदा हुए जिन्होंने खुलेआम ब्राह्मणवाद व उनकी व्यवस्था को चैलेंज किया। लेकिन वहीं दूसरी तरफ मुसलमानों में भी एक उदारता दिखती है क्योंकि कबीर की लेखनी में सिर्फ ब्राह्मण वादियों पर ही हमला नहीं हुआ है बल्कि कबीर ने इस्लाम में फैली रूढ़ियों पर भी कठोर प्रहार किया है।

इसके बाद जब भारत में ईसाइयत का आगमन हुआ तो अंग्रेजी हुकूमत ने एक समान शिक्षा नीति के तहत देश के हर तबके के हर वर्ग के लोगों को लिए शिक्षा के दरवाजे हमेशा हमेशा के लिए खोल दिए। अंग्रेजों की इन्हीं नीतियों का परिणाम था कि आधुनिक भारत में क्रांति के प्रतीक क्रांतिबां फूले ने शिक्षा अर्जित कर खुलेआम ब्राह्मणवाद को चैलेंज करते हुए एक नवीन समाज के सजन की कल्पना की। और इसी अंग्रेजी हुकूमत के दौरान महात्मा फुले की परंपरा को हकीकत की सरजमी पर बाकायदा स्थापित करने के लिए कानूनी व हकीकत का अमलीजामा पहनाने वाले बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर जैसे लोग शिक्षित हो पाए। उन्ही शिक्षा का परिणाम है कि आज इस देश का बहुजन समाज ना सिर्फ अपने मान-सम्मान के लिए सवर्णों को खुलेआम चैलेंज कर रहा है बल्कि देश की हुकूमत करने के लिए लगातार जद्दोजहद कर रहा है।

इस देश में इस समय ब्राह्मणवादी विचारधारा को पुनः स्थापित करने के लिए संघर्ष करने वाले RSS को सामान्य तौर पर इस्लाम का विरोधी समझा जाता है और कभी कभी ईसाइयत काफी विरोधी की समझा जाता है इसके पीछे दो कारण है हकीकत में ब्राह्मण व्यवस्था व RSS इस्लाम और ईसाइयत के विरोधी नहीं है बल्कि RSS ईसाइयत और इस्लाम का विरोध सिर्फ और सिर्फ इसलिए करता है क्योंकि इन दोनों ने देश के शूद्रों और बहिष्कृत समाज को शिक्षा के लिए दरवाजे खोल दिए जिसके चलते शूद्र और बहिष्कृत समाज ब्राह्मणवाद को खुली चुनौती देता आ रहा है।

फिलहाल यदि पर्दे के पीछे के षड्यंत्र को देखा जाए तो आज भी RSS इस्लाम का विरोधी नहीं है बल्कि इस्लाम को मुखौटा बना करके RSS दलित व शूद्रों के दमन के लिए षड्यंत्र कर रहा है। और देश का शुद्र और बहिष्कृत समाज इस षड्यंत्र को समझ पाने में नाकाम है। उसे लगता है कि RSS इस्लाम का विरोधी है और शूद्रों और बहिष्कृत समाज के लोगों के जेहन में भी ब्राह्मणवादी व्यवस्था के पोषकों ने मुसलमानों के प्रति इतनी नफरत भर दी है कि इस देश का शुद्र और बहिष्कृत समाज अपने असली शत्रु को पहचान ही नहीं पा रहा है।

इतिहास गवाह है शुरू से लेकर आज तक भारत में हजारों दंगे हुए हैं। इन सारे दंगों में मरने वालों की तादाद हमेशा शूद्र और बहिष्कृत समाज की ही होती है। और, दूसरी तरफ मुसलमानों में भी जो लोग दंगों में मारे जाते हैं। वह लोग कोई और नहीं बल्कि भारत के वह मूल निवासी हैं जिन्होंने कभी ब्राह्मण व्यवस्था के अत्याचार से तंग आकर इस्लाम को कबूल किया था। कहने का तात्पर्य है कि हिंदू मुस्लिम के नाम पर हो रहे दंगों में मारे जाने वाला तबका इस देश का मूलनिवासी बहुजन समाज ही है।

जहां तक रही बात संबंधों की तो भारत के ब्राह्मणों सवर्णों का मुसलमानों आदि के साथ रोटी बेटी तक का संबंध है तो जो समाज जिस समाज से हंसी खुशी के साथ रोटी बेटी का संबंध रख सकता है तो वह उस समाज का दुश्मन कैसे हो सकता है? ऐसे लोगों को तकलीफ तब होती है जब देश के शूद्र व बहिष्कृत समाज के लोग इस देश की मूलनु मुस्लिम तबके के छोटी जातियों के साथ, जो कि देश के मूल निवासी हैं, उनके साथ जब कोई इस तरह के संबंध की बात होती है तो वह इसे लव जिहाद के नाम से प्रचारित करके कुचलने का प्रयास करते हैं। जिसके परिणामस्वरूप कई बार दंगे हो जाते हैं और इन दंगों में मरने वाला तबका फिर वही इस देश का मूलनिवासी समाज ही होता है।

ऐसे में देश के शुद्ध व बहिष्कृत समाज को यह समझना होगा कि मुसलमान को मुखौटा बना करके धर्म के नाम पर उलझा करके इस देश की ब्राह्मणवादी शक्तियों ने शूद्र और बहिष्कृत समाज को उनके हकों से वंचित करने का पूरा का पूरा एक षड्यंत्र रचा है। यही वजह है कि जब मान्यवर कांशी राम साहब की अगुवाई में मंडल कमीशन को लागू करने के लिए भारत में एक आंदोलन चल रहा था तो इस बहुजन आंदोलन को कुचलने के लिए RSS ने देश में रथ यात्रा निकालकर पूरे के पूरे आंदोलन से बहुजनों को भड़काने का काम किया। इसलिए बहुजनों को यह समझना होगा कि भारत में असली लड़ाई फिलहाल के तौर पर मंडल बनाम कमंडल है और इस लड़ाई में बहुजन समाज को यह समझना होगा कि उसकी मुक्ति मंडल में निहित है, कमंडल तो उसके विनाश का कारण है।

इसी तरह से यदि साकेत में बुद्ध विहार के विवादित स्थल को देखा जाए तो वहां पर ब्राह्मणवादी शक्तियों ने जहां एक तरफ राम मंदिर के लिए विवादित जगह को देने का निर्णय कर लिया और राम के अस्तित्व को स्थापित कर दिया है, वहीं दूसरी तरफ मुसलमानों और इस्लाम का विरोध का ढोंग करने वाली ब्राह्मणवादी विचारधारा ने मुसलमानों को दूसरी जगह 5 एकड़ जमीन देकर के उनकी विचारधारा का भी खुलेआम समर्थन किया है लेकिन इन दोनों विचारधाराओं के बीच में बुद्ध की अस्तित्व को ही इन लोगों ने मिटा दिया है।

कहने का मतलब है कि साकेत बुद्ध विहार अयोध्या बाबरी मस्जिद विवाद में जहां एक तरफ राम को स्वीकृति मिली है वहीं दूसरी तरफ बाबरी मस्जिद को भी स्वीकृति मिली है। लेकिन बुद्ध को ना सिर्फ नकार दिया गया बल्कि उनके वजूद को ही कानून के सहारा लेकर हमेशा-हमेशा के लिए दफन कर दिया गया है।

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि R.S.S. और ब्राह्मणवादियों का एकमात्र लक्ष्य देश के शुद्र और बहिष्कृत समाज को आजादी दिलाने वाली अंबेडकरी बुद्धिस्ट विचारधारा है, मुसलमानों व इस्लाम का विरोध तो एक मुखौटा मात्र है। इसलिए देश के मुस्लिम समाज, ईसाई समाज व अन्य लोगों से यह अपील है कि वह किसी का माध्यम ना बने और देश में ज्ञान विज्ञान तर्क और बौद्धिकता की संस्कृति का समर्थन करने वाले संविधान निहित मूल्यों को हकीकत की सरजमी पर उतारने में देश के शूद्र व बहिष्कृत समाज के साथ कंधे से कंधा मिलाकर के संविधान विरोधी शक्तियों को कुचलने के लिए कदमताल करते हुए एक नए भारत का सृजन करने में सहयोग करें।

सनद रहे,
RSS मुसलमानों का दुश्मन नहीं, बल्कि दलित-बहुजनों का दुश्मन है। क्योंकि मंदिर-मस्जिद के विवाद में मंदिर को भी अस्तित्व मिला और मस्जिद के भी अस्तित्व को स्वीकार किया गया लेकिन वहां से बुद्ध के वजूद को ही हमेशा-हमेशा के लिए सुप्रीम कोर्ट का सहारा लेकर नेस्तनाबूद कर दिया गया।

याद रहे,
RSS is Not Anti-Muslim only,
RSS is Anti-Dalit
RSS is Anti-Tribes
RSS is Anti-OBC
जय भीम, जय भारत



रजनीकान्त इन्द्रा

Sunday, November 10, 2019

एक अहम मुलाक़ात - कंवल भारती जी के साथ

With Learned Kanwal Bharti, Prof Raj Kumar BHU, Prof Bajarang Bihari Tiwari Delhi University
@Guest House, PAC Headquarter, Lucknow....
10.11.2019







Tuesday, November 5, 2019

वैचारिकी में प्रतीकात्मता का महत्व


कुछ लोगों का मानना है कि व्यक्तिवाद से ढोंग और पाखंड का सृजन होता है। उनका मानना है कि ढोंग और पाखंड के चलते विचारधारा मर जाती है लेकिन हमारा स्पष्ट मानना है कि जो लोग इस तरह की तोहमत लगा रहे हैं उन लोगों को इस बात का इल्म नहीं है कि भारत में जितने भी बाहर से आए हुए संस्कृति के लोग थे उन पर भी यह ढोंग-पाखंड पूरी कट्टरता के साथ लागू हो गया है। तो ऐसे में सवाल यह पैदा होता है कि यदि उनके यहां इस तरह की मूर्तियों को प्रतीक तौर पर स्थान नहीं दिया गया तो इनमें इतना सारा ढोंग, पाखंड और अंधविश्वास कहां से आ गया?



सिद्धांतों को बिना किसी प्रतीक के स्थापित करना एक आदर्श सोच जरूर है, लेकिन व्यवहारिक नहीं है। उदाहरण के तौर पर देखा जाए तो भारत के जितने भी राजनीतिक दल हैं क्या कभी लोगों ने उनके मूल एजेंडे के बारे में जानते हैं या फिर कभी जानना चाहा? जितने भी क्षेत्रीय राजनीतिक दल हैं सब के सब सुप्रीमो के नाम से ही जाने जाते हैं या फिर उन सुप्रीमो के जैविक उत्तराधिकारियों के नाम से जाने जाते हैं। जिसके चलते ये राजनीतिक दल एक परिवार की निजी मिल्कियत बनकर रह गए हैं।



कहने का तात्पर्य है कि ये क्षेत्रीय दल भी व्यक्ति विशेष के ही नाम से जाने जाते हैं, हांलांकि ये लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है। इसके उलट राष्ट्रीय स्तर के जो तीन राजनीतिक दल हैं - बसपा कांग्रेस और भाजपा हैं, ये तीनों दल भी किसी ना किसी प्रतीक के तौर से ही जाने जाते हैं। जैसे कि बसपा को गौतम बुद्ध, संत शिरोमणि संत रैदास, कबीर दास, महात्मा ज्योतिबा फुले, नारायणा गुरु, ई वी रामास्वामी पेरियार नायकर, बाबा साहब डॉक्टर भीमराव रामजी आंबेडकर, मान्यवर कांशी राम और बहन जी के नाम से जाना जाता है। इन सभी महान बहुजन व्यक्तित्व की कार्यशैली व उनकी विचारधारा मतलब कि समतामूलक समाज के सृजन की विचारधारा बसपा के मूल को इंगित करते हैं।



कांग्रेस की बात करें तो कांग्रेस का नाम जहन में आते ही मोहनदास करमचंद गांधी से होते हुए नेहरू-गांधी परिवार बरबस ही सामने आ जाता है। और, इतिहास गवाह है कि जब-जब कांग्रेस की नैया डूब रही होती है तब-तब गांधी नेहरू परिवार की व्यक्तित्व वाली विरासत ही उसे बचाने के लिए सामने आती है, और कांग्रेस को इस परिवार के ही सदस्य का सहारा लेना पड़ता है। यदि किसी को यह भ्रम हो कि बीजेपी व्यक्तिवादी पार्टी नहीं है तो उनको यह मालूम होना चाहिए कि बीजेपी ने समकालीन के किसी भी इंसान को स्थापित नहीं होने दिया है क्योंकि वह अपने पहले से स्थापित राम-कृष्ण समेत 33 करोड़ देवी-देवताओं को प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल करते हुए अपनी विचारधारा को जन-जन तक पहुंचा रही है।



ऐसे में यह कहना कि व्यक्तित्व को पीछे छोड़कर सिर्फ सिद्धांतों के नाम पर लोगों को जोड़ा जा सकता है और समाज को बदला जा सकता है तो यह सुनने में, कहने में अच्छा लगता है। यह एक आदर्श कथन जरुर है लेकिन व्यावहारिकता में ये कथन पूरी तरह से गौड़ है। इसलिए लोगों को सिद्धांत और उस सिद्धांत को हकीकत की सरजमी पर उतारने वाले व्यक्तित्व के संबंधों को समझना होगा, और प्रतीकात्मक किस तरह से किसी भी सिद्धांत को जन-जन तक पहुंचाने और जन-जन द्वारा सिद्धांत को समझने में मददगार होती है इस बात को बाकायदा चिन्हित करना होगा।



सिद्धांत अदृश्य होता है, दिखाई तो नहीं पड़ता है लेकिन इसके परिणाम कालांतर में जरुर परिलक्षित होते हैं। इसीलिए आम जनमानस को सिद्धांतों से जोड़ने के लिए कुछ प्रतीकों की जरूरत पड़ती है। यही कारण है कि किसी भी देश की संस्कृति रही हो वहां पर प्रतीकों का हमेशा से इस्तेमाल रहा है, महत्व रहा है। यदि कुछ लोगों का यह मानना है कि व्यक्ति प्रतीक नहीं बन सकता है तो उन लोगों के समझना होगा कि व्यक्ति के विचार जब समाज को इस कदर प्रभावित करते हैं कि समाज का सारी की सारी व्यवस्था ही बदल जाती है, नयी सोच सृजित हो जाती हैं तो उस व्यक्ति को सिर्फ व्यक्ति कहना अनुचित होगा क्योंकि वह खुद अपने आप में उस वैचारिकी को प्रतिपादित कर अमली-जामा पहनाने वाला उस विचारधारा का एक प्रतीक बन जाता है। और, यह प्रतीक लोगों को आसानी से उन सिद्धांतों से जुड़ने में मदद करती है, जो सिद्धांत उस महान व्यक्ति ने स्थापित किए हैं।



यही कारण रहा है कि बुद्ध की मूर्तियां दुनिया में सबसे ज्यादा पाई जाती हैं, और दुनिया में बुद्धिज्म का परचम सबसे जुदा तौर पर सबसे ज्यादा बुलंद है। बुद्ध की नकल करके अन्य जगहों पर अलग-अलग फिरके की संस्कृतियों के लोगों द्वारा अपनी संस्कृति को जन-जन तक पहुंचाने के लिए मूर्तियों के स्थापना की शुरुआत की गई, क्योंकि यहीं से अन्य संस्कृतियों के लोगों ने संस्कृति में प्रतीकात्मकता के महत्व को समझा था।



फ़िलहाल यदि कोई मूर्ति और मूर्तिपूजा के सन्दर्भ में चर्चा करें तो बाबा साहेब का जिक्र लाज़मी हैं। बाबा साहब भी मूर्ति पूजा के खिलाफ थे लेकिन बाबा साहब ने खुद सिद्धार्थ कॉलेज के लिए गौतम बुद्ध की मूर्ति बनवाई थी और उसे स्थापित भी किया था। इसलिए यहां पर बहुजन महानायकों और महनायिकाओं की मूर्तियों और ब्राह्मणी मूर्तिपूजा के अंतर को समझना होगा। बहुजन महानायकों व महनायिकाओं की प्रतिमाएं पत्थर पर उकेरी गयी बहुजन संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, वैचारिकी और समतावादी समाज के सृजन का संदेशवाहक हैं। बुद्ध, संत शिरोमणि संत रैदास, कबीरदास, ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज, बाबा साहब, नारायणा गुरु, पेरियार, मान्यवर कांशीराम साहब और बहन जी की मूर्तियां बहुजन समाज को बुद्ध-अंबेडकर विचारधारा से जोड़ कर बहुजन अस्मिता को कायम करते हुए बहुजन आंदोलन के जरिए दुनिया में माननीय व वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर एक बेहतरीन समाज का सृजन करना है। जबकि मूर्तिपूजा से भक्ति, जो कि भारत को श्राप हैं, ढोंग, पाखण्ड, अन्धविश्वास और मानसिक गुलामी की वजह हैं। 


यही कारण है कि बहुजन महानायको एवं महानायिकाओं की मूर्तियों की पूजा नहीं की जाती है लेकिन ब्राह्मणी संस्कृति के गुलाम लोगों द्वारा बहुजन महानायकों व महानायिकाओं का प्रति भक्ति का रवैया अपनाकर के मूर्ति पूजा को बहुजन वैचारिकी के विपरीत लाया जा रहा है, जोकि बहुजन वैचारिकी व आंदोलन के लिए घातक है। ब्राह्मणी रोग से ग्रसित इन्हीं लोगों द्वारा ब्राह्मणी कर्मकांडओं के तहत बुद्ध से लेकर बहन जी तक की प्रतिमाओं के साथ भक्ति भावना से पूजा पाठ किया जा रहा है। ऐसा करना बहुजन विचारधारा का ही नहीं बल्कि दर्शन बन चुके बहुजन महानायकों एवं महानायिकाओं का घोर अपमान है। बहुजन महानायकों व महानायिकाओं के प्रति ब्राह्मण रोग से ग्रसित लोगों का भक्ति भाव बहुजन समाज की हत्या करने के समान है। ब्राह्मणीकरण के चलते मूर्तियों की पूजा की शुरुआत जरूर हुई हैं लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं हैं कि वैचारिकी को जन-जन से जोड़ने में प्रतीकों, सकेंतों व वैचारिकी को प्रतिपादित करने वाले व्यक्तित्व को नजरअंदाज किया जाय। मतलब हैं कि यदि व्यक्तित्व इतना महान है कि वो लोगों के जीवन को बेहतरी प्रदान करते हुए नए आयाम को अन्जाम दे तो वो व्यक्ति खुद एक वैचारिकी बन जाता हैं, दर्शन बन जाता हैं, जैसे कि बुद्ध, रैदास, कबीर, फुले, बाबा साहेब, मान्यवर साहेब और बहन जी। मतलब कि विकार मूर्तियों की वजह से नहीं, बल्कि लोगों के जहाँ पर राज कर रहीं भक्ति (ब्राह्मणवाद) की सोच हैं जिसे बुद्ध-अम्बेडकरी वैचारिकी से ही दूर किया जा सकता हैं। 


इसलिए यदि किसी को लगता है कि व्यक्ति को प्रतीक बनाने से सिद्धांत मर जाते हैं तो उन लोगों को यह भी समझना चाहिए कि प्रतीक के तौर पर ही सिद्धांतों को आसानी से जन-जन तक पहुंचाया जा सकता है, उनके जहन में उतारा जा सकता है। रही बात प्रतीकों के जरिए ढोंग, पाखण्ड, अंधविश्वास व भक्ति के आगमन की, तो यदि देखा जाए तो इस्लाम में किसी भी अल्लाह की कोई मूर्ति विद्यमान नहीं है लेकिन कट्टरता, अंधविश्वास और पाखंड इस्लाम में अन्य की तुलना सबसे ज्यादा है। तो इसलिए यह सिर्फ कह देना कि व्यक्ति को प्रतीक के तौर पर स्थापित करने से सिद्धांत गौण हो जाते हैं तो यह अपने आप में पूरी तरह से गौड़ कथन ही है।

रजनीकान्त इन्द्रा

05.11.2019


फूट डालों, राज करों - दिल्ली पुलिस के धरने के सन्दर्भ विशेष में 


Sunday, November 3, 2019

धम्म छठ - आत्महत्या को आतुर बहुजन समाज


गुमराह बहुजन समाज यह समझ रहा है कि मौजूदा समय में एक राजनीतिक जंग चल रही है जबकि उसके कृत्यों से यह बाकायदा सिद्ध होता है कि वह ये समझ ही नहीं पाया है कि आज भी भारत में दो संस्कृतियों का वही द्वंद चल रहा है जिसकी चर्चा बाबा साहब ने भारत के वास्तविक इतिहास के संदर्भ में किया है। आज भी भारत में चल रहा द्वंद ब्राह्मणवाद बनाम बुद्धिज्म का ही है।

यह अपने आप में पूरी तरह से एक सांस्कृतिक जंग है। और, इस जंग में बहुजन समाज खुद अपनी कब्र खोद रहा है। बहुजन समाज समझ रहा है कि ब्राह्मण को गाली देकर कि वह ब्राह्मणवाद के खिलाफ अपनी युद्ध को जीत जाएगा जबकि हकीकत में ब्राह्मणवाद खुद बहुजन समाज के लोगों के जहन में समाया हुआ है। बहुजन समाज के गुमराह लोग अपनी जाहिलियत का प्रदर्शन इस कदर कर रहे हैं कि खुद बहुजन समाज के लिए काम करने वाले लोग भी संकट में आ चुके हैं। बहुजन समाज के लोग दिन रात की परवाह किए बगैर अपने मेहनत की कमाई से समाज को जागरूक करने का काम कर रहे हैं लेकिन बहुजन समाज के जाहिल लोग दीपावली के बदले दीपदान उत्सव का इजाद कर डाले हैं, होली के बदले धम्म होली का इजाद कर डाले हैं। इसी तरह से छठ पूजा के बदले धम्म छठ का इजाद कर डाले हैं। बहुजन समाज के लोगों को इतना भी समझ नहीं आ रहा है कि इसका भविष्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा? समाज के लोगों को अभी तक ये समझ नहीं आई है कि ब्राह्मण को गाली देने मात्र से कोई ब्राह्मणवाद से अंबेडकरवादी नहीं बन जाता है। अंबेडकरवाद अपने आप में एक ऐसी विचारधारा है जो एक नई संस्कृति, रीति-रिवाजों, परंपरा की बात करता है, ना कि ब्राह्मणवादी, रीति रिवाज और परंपराओं में ब्राह्मणी देवी देवताओं की जगह बाबा साहब और बुद्ध की तस्वीर रख कर उसी ब्राह्मण परंपरा का पालन करना।


ऐसे में सकल बहुजन समाज अपनी सांस्कृतिक जंग को भूल कर के ब्राह्मण को गाली देने को ही अंबेडकरवाद का मिशन समझता है। इसी संदर्भ में नीचे दिया गया तस्वीर ब्राह्मणवादी छठ पूजा के बदले गुमराह जाहिल बहुजन समाज के लोगों द्वारा धम्म छठ का इजाद किया गया है। यदि इस पर बहुजन समाज जागरूक नहीं हुआ तो आने वाले समय में जिस तरह से गौतम बुद्ध का ब्राह्मणीकरण कर दिया गया था, ठीक उसी तरह से बाबा साहब का भी ब्राह्मण करण कर दिया जाएगा। और, ऐसे में बहुजन समाज की वह गुलामी फिर से शुरू हो जाएगी जिसकी खिलाफत गौतम बुद्ध, संत कबीर, रैदास, फूले, साहू, बाबा साहब, पेरियार, मान्यवर कांशीराम साहब, बहन कुमारी मायावती जी व अन्य सभी जागरूक बहुजन लगातार कर रहे हैं।
रजनीकान्त इन्द्रा 


03.11.2019

राजनीति - सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त माध्यम


भारत एक स्वतंत्र व लोकतांत्रिक देश है। यहां पर हर शहरी को संविधान में कुछ मूलभूत अधिकार दिए गए हैं। इन मूलभूत अधिकारों के अलावा भी कुछ ऐसे अधिकार हैं, जो संविधान के पार्ट 3 से अलग दिए गए हैं, जो कि अपने आप में मूलभूत अधिकारों से कम नहीं है। इन्हीं अधिकारों में एक अहम अधिकार है-वोट देने का अधिकार।

देश के हर शहरी को मिले वोट के अधिकार का मतलब होता है कि उस शहरी को अपने वोट का इस्तेमाल अपने विवेक के अनुसार करना। संविधान प्रदत्त वोट के अधिकार का इस्तेमाल करना हर शहरी का संवैधानिक व लोकतांत्रिक दायित्व है। जब कोई नागरिक अपने इस अधिकार का प्रयोग करता है, तो वह किसी ना किसी दल विशेष के पक्ष में वोट करता है। कहने का तात्पर्य है कि देश का हर शहरी किसी ना किसी राजनैतिक दल के साथ खड़ा है। यह और बात है कि आमतौर पर लोग अपनी इस मंशा को खुलेआम जाहिर करते हैं लेकिन सरकारी सेवाओं व संविधान निहित तमाम संवैधानिक पदों, जैसे कि न्यायपालिका, चुनाव आयोग, लोक सेवा आयोग, कैग इत्यादि, पर बैठे लोग अपने इस मत के संदर्भ में खुलेआम अपनी मंशा जाहिर नहीं करते हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि पब्लिक की निगाह में उनकी निष्पक्षता वाली कायम रहे, और पब्लिक को विश्वास दिलाया जा सके कि इन पदों पर आसीन लोग निष्पक्ष हैं, दलगत राजनीति से परे होते हैं जो कि हकीकत से परे हैं। लेकिन अपने वोट का इस्तेमाल करने वाले ये लोग, जो कि विभिन्न संवैधानिक पदों पर बैठे हुए हैं, जो निष्पक्षता का चोला ओढ़े हुए हैं, क्या वाकई वह राजनैतिक इंटेरेस्ट से ऊपर उठकर कार्य करते हैं? क्या कोई बिना किसी राजनैतिक इंटरेस्ट के लोकतंत्र में एक जिम्मेदार नागरिक हो सकता है? हमारा मानना हैं कि यदि आप किसी राजनीतिक दल का पक्ष नहीं लेते हैं तो भी आप अपने संवैधानिक व लोकतांत्रिक दायित्व को निभाने में कोताही बरतते हैं।

इसी संदर्भ में कुछ नवयुवकों का मानना है कि जो लोग सामाजिकता की बात करते हैं, उनकों राजनैतिक इंटरेस्ट से दूर रहना चाहिए, लेकिन क्या ऐसा संभव है? बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षाप्रतीक मानवता मूर्ति बाबा साहब डॉक्टर बी आर अंबेडकर मानते हैं कि देश के वंचित-दलित समाज के लिए राजनीतिक सत्ता ही वह मास्टर चाबी है, जिसके द्वारा देश का दलित समाज अपने लिए 'अवसर और उन्नति' के सारे दरवाजे खोल सकता है। 

ऐसे में बाबा साहब यहां पर जब 'अवसर और उन्नति' की बात करते हैं तो यह उन्नति केवल राजनैतिक या फिर आर्थिक ही नहीं है। यहां पर 'अवसर और उन्नति' का मायने हैं कि देश का दलित-वंचित समाज राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल करते हुए ही समाज में अपनी 'अस्मिता, स्वाभिमान और सम्मान' को कायम रखने के लिए राजनीति को हथियार बनाकर के भारत की सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन कर सकता है। ऐसे में यदि हम सामाजिक परिवर्तन की बात करते हैं, समतामूलक समाज के सृजन की बात करते हैं, तो राजनीति जैसे महत्वपूर्ण माध्यम को कोई भी समाजसेवी नजरअंदाज कैसे कर सकता है।

कुछ बहुजन समाज के ही नवयुवकों का मानना है कि जब आप समाज को जोड़ने की बात कर रहे हैं तो राजनीति की बात करना उचित नहीं है। लेकिन जब हम भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों को देखते हैं, उनके क्रियाकलाप को देखते हैं, तो हम पाते हैं कि भारत में दो ही मात्र ऐसे दल हैं जो भारत में सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में अपनी राय स्पष्ट रखते हैं और उसके लिए कार्य कर रहे हैं। इसी बात को यूं कहे तो भारत के राजनैतिक फलक पर मात्र दो ही राजनीतिक दल ऐसे हैं जो नदी के दो किनारों की तरह अपने मूलभूत सिद्धांतों के साथ खड़े हैं। उनमें एक है, मान्यवर कांशी राम साहब द्वारा स्थापित की हुई विरासत जिसे भारत 'बहुजन समाज पार्टी' के नाम से जानता है, और जिसकी अध्यक्षा मान्यवर कांशीराम की एकमात्र उत्तराधिकारी और उनकी सबसे योग्य व प्रिय शिष्या भारत में सामाजिक परिवर्तन की मूर्ति बहुजन महानायिका बहन कुमारी मायावती जी हैं। दूसरी पार्टी है, समाज में यथास्थिति को बनाए रखने के लिए जद्दोजहद करने वाली भारतीय जनता पार्टी।

किसी भी समाज में सामान्य तौर पर दो विचारधाराएं होती हैं। एक परिवर्तनशील प्रगतिवादी होती है, तो दूसरी विचारधारा यथास्थिति को बनाए रखने वाली होती है। ऐसे में जहां 'बसपा' भारत में सामाजिक व्यवस्था का परिवर्तन चाहती है, वहीं दूसरी तरफ भाजपा देश में यथास्थिति को बनाए रखना चाहती है।

इन दोनों राजनीतिक दलों को छोड़कर के बाकी जितने भी राजनीतिक दल भारत के राजनैतिक फलक पर दिखाई पड़ते हैं, वे सभी दल नदी के पानी की तरह है जिनका सिर्फ सत्ता लोभ के सिवा ना कोई वाजिब भूत रहा है, ना ही कोई वाजिब भविष्य हैं। इसलिए जहां बसपा और भाजपा नदी के दो किनारों की तरह अपने मूलभूत सिद्धांतों के साथ पूरी प्रबलता से खड़े हैं वहीं दूसरी तरफ सिर्फ सत्ता मात्र के लिए जद्दोजहद कर रहे ये सभी दल नदी के पानी की तरह गुमनामी के अंधेरे में बहते जा रहे हैं।

भारत के सामाजिक ताने-बाने का जब हम विश्लेषण करते हैं तो हम पाते हैं कि यथास्थिति को बनाए रखने वाली विचारधारा देश के चंद मुट्ठी भर लोगों के हक में है, जो शोषक बन कर देश की सकल बहुजन आबादी का सदियों से शोषण करते आ रहे हैं। यदि देश और देश का बहुजन समाज देश में लोकतंत्र को स्थापित करना चाहता है तो उसको सामाजिक परिवर्तन के लिए जद्दोजहद करने वाली विचारधारा व उस विचारधारा को आगे बढ़ाने वाले राजनैतिक दल को माध्यम बना करके आगे बढ़ना होगा। इसी में बहुजन समाज की भलाई है, और इसी में देश के लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों को संविधान सम्मत लागू करने की हिम्मत है।

भौतिक विज्ञान में न्यूटन का एक सिद्धांत है जिसमें न्यूटन कहते हैं कि कोई भी वस्तु अपनी यथास्थिति को बनाए रखना चाहती है या फिर वह उसी स्थिति में तब तक रहना चाहती है जब तक कि उस पर उसकी सामर्थ से अधिक बल न लगाया जाए। ठीक यही चीज समाज में भी लागू होती है। सदियों-सदियों से जो समाज एक व्यवस्था के अंतर्गत जीता आया है वह इस व्यवस्था का इतना आदी हो चुका है कि वह खुद इस व्यवस्था के दल-दल से नहीं निकलना चाहता है।

यह समाज इस व्यवस्था का एक आदर्श गुलाम बन चुका है, जो अपनी गुलामी को इंजॉय करता है, जिसे हैप्पी स्लेव कहते हैं।

भारत के समाज को अगर देखा जाए तो भारत की अधिकतर आबादी भारतीय सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में एक आदर्श गुलाम बन कर जी रही है। इसलिए वह व्यवस्था परिवर्तन में उस जरूरत के अनुसार बल नहीं पैदा कर पा रही है जिससे कि वह स्थिति को बदल कर एक नए समाज का सृजन कर सके। ऐसे में जो प्रगतिशील परिवर्तनकारी राजनीतिक दल (बसपा) है उसकी जिम्मेदारियां बढ़ जाती है। लेकिन जब ऐसे परिवर्तनशील व प्रगतिवादी राजनीतिक दल सामाजिक परिवर्तन करने वाले उस बल को क्रिएट करते हैं, जो कि समाज को यथा स्थिति में बनाए रखने वाले सामर्थ से अधिक बल दे कर के समाज को गतिमान करें, तो यथास्थिति को बनाए रखने वाला बल कभी-कभी हावी हो जाता है। और तथास्थिति को बनाये रखने वाला बल तब सबसे ज्यादा हावी हो जाता है जब देश का गुलाम समाज खुद यथास्थिति को बनाए रखने वाली विचारधारा व राजनीतिक दल के साथ खड़ा होता है। आज के मौजूदा हालत में देश का आदर्श गुलाम समाज खुद यथास्थिति को बनाए रखने वाले विचारधारा व राजनीतिक दल (भाजपा) के साथ खड़ा है जिसका दुष्परिणाम आज पूरा भारत देश भुगत रहा है।

ऐसे में इन दो विचारधाराओं व राजनीतिक दलों से इतर बाकी जितनी भी विचारधाराएं व राजनीतिक दल भारत के राजनीतिक फलक पर भटक रहे हैं उनका ना तो भारत की सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन से दूर-दूर तक कोई सरोकार है, ना ही देश की आम जनता से उनका कोई नाता है। उनका मकसद अपने जैविक उत्तराधिकारिओं के लिए सत्ता को हासिल करना है, वह भी किसी भी कीमत पर। ऐसे दल खुद मुद्दे पैदा करते हैं, देश में सांप्रदायिकता को बढ़ाते हैं, उनके शासनकाल में सांप्रदायिक दंगे होते हैं, और उन दंगों का उनको सीधा फायदा मिलता है जिसके चलते इन लोगों की जीविका चलती है, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि नदी के पानी की तरह रहने वाले इन राजनीतिक दलों को अगर देखा जाए तो यह राजनीतिक दल एक राजनीतिक दल होने के बजाय एक घर की पैतृक मिल्कियत बनकर रह गए हैं, उसके बावजूद यह लोग देश में बदलाव व सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन का दावा करते हैं। ऐसे में देश के वंचित-शोषित समाज का सबसे बड़ा नुकसान ये होता हैं कि ऐसे सभी राजनैतिक दल, जिनका सत्ता के सिवा किसी भी विचारधारा से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है, सिर्फ और सिर्फ देश की यथास्थिति को बनाए रखने वाले बल (आरएसएस-बीजेपी) का ही सहयोग करती है, और देश में सामाजिक परिवर्तन के लिए सतत संघर्षशील बहुजन राजनैतिक दल (बसपा) का ना सिर्फ राजनैतिक नुकसान करती हैं बल्कि सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलन को कुंद करने में यथास्थिति को बनाये रखने वाले दल का भरपूर सहयोह कराती हैं।


भारत की इन विचारधाराओं और सामाजिक संरचना को संदर्भ में रखते हुए कोई भी राजनीति से परे होकर समाज सेवा या समाजसुधार की बात नहीं कर सकता हैं। यदि फिर भी कोई ऐसे दवा करता हैं तो वह पूरी तरह से खोखला दवा ही होगा, जुमला होगा। इतिहास गवाह हैं कि जब महात्मा ज्योतिबा फुले थे तब उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत की वकालत की थी क्योंकि वह जानते थे कि देश की बहुतायत आबादी को जो स्कूल में दाखिला का हक मिला हुआ हैं वह अंग्रेजी हुकूमत में ही प्रगतिशीलता के साथ आगे बढ़ सकता हैं। खुद भारत में सामाजिक आंदोलन के पितामह बाबा साहब डॉक्टर भीमराव रामजी आंबेडकर भी राजनीति से अलग नहीं रह पाए हैं। उन्होंने राजनीतिक माध्यम का बखूबी इस्तेमाल करते हुए भारत में सामाजिक आंदोलन को आगे बढ़ाया है। और, बाबा साहब के इसी ढर्रे पर चलते हुए मान्यवर कांशीराम साहब और बहुजन महानायिका बहन कुमारी मायावती जी ने भी भारत में सदियों से चली आ रही गुलामी की प्रथा में देश के दलित-वंचित जगत को भारत की सरजमी के सबसे अधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश की सरजमी पर चार-चार बार हुकूमत कर भारत की स्थितिवादी विचारधारा व इसके दलों को ना सिर्फ खुली चुनौती दी बल्कि कदम दर कदम फतेह हासिल करते हुए बहुजन राजनीति, बहुजन अस्मिता, बहुजन सामाजिक व सांस्कृतिक पहचान को इस कदर आगे बढ़ाया कि आज बहुजन समाज खुद अपने वजूद को ढूंढते हुए अपनी अस्मिता को स्थापित करने की जद्दोजहद कर नए भारत का सृजन कर रहा है।

रजनीकान्त इन्द्रा
03.11.2019