Tuesday, June 23, 2020

पंजाब की सियासत और बामसेफ का विघटन

पंजाब की सियासत और बामसेफ का विघटन
प्रश्तावना 
बुद्ध-फुले-शाहू-अम्बेडकरी वैचारिकी को आगे बढ़ाने और देश के दलित-आदिवासी-पिछड़े एवं अल्पसंख्यक समाज को गुलामी से मुक्ति दिलाकर सिंहासन पर बैठाने के लिए मान्यवर साहेब ने प्रतिज्ञा कर चुके थे। मान्यवर साहेब का बहुजन आन्दोलन चारों तरफ फ़ैल रहा था। मान्यवर साहेब पूर्व निर्धारित योजना के मुताबिक बहुजन समाज को तैयार कर रहे थे। इस योजना के तहत मान्यवर साहेब बहुजन समाज से मैन-मनी-माइण्ड के सिद्धांत की मदद से सबसे पहले सरकारी अधिकारियों-कर्मचारियों को तैयार कर रहे थे।
मान्यवर साहब कहते हैं कि "जिन समाजों की गैर-राजनीतिक जड़ें कमजोर होती हैं उनकी राजनीति कभी सफल नहीं हो सकती है[1]"। इसलिए मान्यवर साहेब ने बहुजन समाज की गैर-राजनैतिक जड़ों को मजबूत करने के उद्देश्य से ०६ दिसम्बर १९७८ को बामसेफ (BAMCEF) का गठन किया। इसके बाद मान्यवर साहेब कहते हैं कि "सत्ता संघर्षों का प्रतिफल है[2]।" इसलिए संघर्ष करने के उद्देश्य से मान्यवर साहेब ने ०६ दिसम्बर १९८१ को डीएस-4 (DS-4) का गठन किया। संघर्ष कर समाज को तैयार करने के पश्चात् मान्यवर साहेब कहते हैं कि "जो लोग विरोध करते हैं, आपकी सफलता के बाद वह लोग आपसे वैकल्पिक व्यवस्था पूछते हैं कि सत्ता में आने के बाद आप क्या करेगें? आपको इस वैकल्पिक व्यवस्था पर अपने दृष्टिकोण को स्पष्ट करना होगा[3]।" इसलिए देश को वैकल्पिक व्यवस्था देने के उद्देश्य से मान्यवर साहेब ने १४ अप्रैल १९८४ को बीएसपी (BSP) का गठन किया।
फिलहाल, गठन के तकरीबन सात सालों बाद ही बामसेफ में विघटन शुरू हो गया। बामसेफ के विघटन के कई छोटे-मोटे कारण गिनाये जा सकते हैं। परन्तु, इसके दो महत्वपूर्ण कारण हैं। एक, पंजाब की सियासत और झल्ली साहब का स्वार्थ एवं प्रबल होती महत्वाकांक्षाएं। दो, महाराष्ट्र की महत्वाकांक्षी तिकड़ी। इस लेख का मुख्य उद्देश्य इन दो प्रमुख कारणों को बहुजन समाज तक पहुँचाना हैं।
संक्षेप में १९७५ से १९८५ तक की राजनैतिक उथल-पुथल
१९८४ का दौर पंजाब के साथ-साथ पूरे भारत के लिए बहुत ही उथल-पुथल का दौर रहा हैं। १९८४ की इस उथल-पुथल की पृष्ठभूमि इंदिरा गाँधी के चुनाव (रायबरेली लोकसभा) रद्दीकरण से शुरू होता हैं।[4] जिसके बाद भारत में इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल घोषित कर दिया जाता हैं। इस दौरान देश के तमाम लोगों को सलाखों के पीछे कर दिया गया। इसके विरोध में लोगों द्वारा आवाज़ उठाई गयी जिसमे स्कूल-कॉलेज के छात्रों समेत तमाम लोग शामिल हुए। बाद में, १९७७ के लोगसभा चुनाव में ये सभी लोग लामबन्द हुए, और जनता पार्टी के बैनर तले चुनाव लड़ा। इस प्रकार पहली बार देश में गैर-कांग्रेस की सरकार बनी। हालाँकि जनता पार्टी के नीति-निर्धारण कमेटी में स्वघोषित उच्च जातीय लोग ही शामिल रहे, जो इसके पहले कांग्रेस के सदस्य थे और जनता पार्टी के विखण्डन के बाद ये लोग (कालान्तर में उनकी सन्तान तक) फिर कांग्रेस में ही शामिल हो गये। साथ ही भारी तादात में अनुसूचित जाति व पिछड़े वर्ग के तमाम युवा भी जनता पार्टी का हिस्सा बने जिसमे से कुछ लोग मुख्यमंत्री, मंत्री व विधायक रहे। कुछ केंद्र में कई बार मंत्री और सांसद रहे। लेकिन, खास बात यह हैं कि आपातकाल की परिस्थितियों के परिणामस्वरूप पैदा हुए सभी अनुसूचित जाति व पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखने वाले नेता परतन्त्र राजनीति[5] का हिस्सा रहे हैं। ये प्रतिक्रिया के परिणामस्वरुप पैदा हुए नेता थे। इसलिए इन्होने राजनीति को थोड़ा-बहुत प्रभावित जरूर किया लेकिन देश के अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़े वर्ग और अल्पसंख्यक समुदाय के लिए कुछ खास नहीं कर सके कि इनकों याद किया जाय।
फिलहाल संक्षेप में कहें तो आपातकाल के दौरान ही दलित-पिछड़े वर्ग के कुछ लोग जनता दल के बैनर तले सक्रिय हो चुके थे। एक बड़ी गोलबन्दी साफ़-साफ़ दिखाई पड़ रहीं थी। ब्राह्मणों-सवर्णों को लगा कि ये लोग भविष्य में ब्राह्मण-सवर्ण समाज को सत्ता से बेदखल कर सकते हैं, जो कि ब्राह्मणों-सवर्णों का कोरा भय मात्र था। जिसमे कोई सच्चाई नहीं दिखती हैं, क्योंकि ये सभी नेता अनुसूचित जाति व पिछड़े वर्ग आदि से जरूर थे लेकिन ये सब ब्राह्मणी रोग के शिकार थे, परतन्त्र राजनीति का हिस्सा मात्र थे।। इसके बावजूद सतर्कता, सावधानी एवं भविष्य के प्रति सचेत ब्राह्मणों-सवर्णों ने भविष्य में किसी भी चुनौती की सम्भावना को पनपने से पहले ही ख़त्म करने के इरादे से ब्राह्मणों-सवर्णों ने अपने राजनैतिक दल कांग्रेस के खिलाफ भाजपा[6] के रूप में एक नया विकल्प खड़ा किया, जिसका उद्देश्य ये था कि भारत में भाजपा-कांग्रेस में से ही कोई एक दल सत्ता में रहें। इस प्रकार सत्ता में भी ब्राह्मण-सवर्ण और विपक्ष में भी ब्राह्मण-स्वर्ण। परिणामस्वरूप, सत्ता हमेशा ब्राह्मणों-सवर्णों के ही हाथों में रहेगी।
इस प्रकार भाजपा के उदय के साथ ही जनता दल में विखंडन शुरू हो गया। कालान्तर में, इस जनता दल के कई टुकड़े हो गये। इसका परिणाम ये हुआ कि दलित-पिछड़े समाज की एक संभावित गोलबंदी, जो शायद भविष्य में सशक्त विपक्ष बनकर उभर सकती थी, भाजपा के उदय के साथ ही क्षेत्रीय दल बनकर ही रह गए। ये कहना ज्यादा बेहतर होगा कि ये सभी क्षेत्रीय दल चंद जातियों की निजी मिलकियत बन कर रह गयी।[7] जनता दल से टूटे दल व नेता, ये सब परतन्त्र राजनीति का हिस्सा थे। ये लोग बहुजन समाज में जन्मे जरूर थे लेकिन इनका सारा ताना-बाना ब्राह्मणी था। 
फिलहाल, इन सबसे अलग बुद्ध-फुले-शाहू-अम्बेडकरी वैचारिकी पर आधारित स्वतन्त्र भारत में पहली बार बसपा के रूप में पिछड़े-दलित-आदिवासी-धार्मिक अल्पसंख्यकों की अपनी स्वतंत्र राजनीति[8], राजनैतिक दल, संस्कृति-इतिहास, नायक-नायिकाएं, नारे, एजेंडा, रणनीति और नेतृत्व तैयार हो चुका था। बसपा पूरी प्रबलता और प्रखरता से भारत के राजनैतिक ही नहीं, बल्कि सामाजिक समीकरण को नया आयाम देने के लिए कदम- दर-कदम आगे बढ़ रहीं थी।
बामसेफ, डीएस-4 व बसपा - शोषितों की उभरती एकमात्र बुलन्द आवाज़
आपातकाल के बाई-प्रॉडक्ट के तौर पर उभरी परतन्त्र राजनीति के विपरीत पूरी प्लानिंग के साथ बुद्ध-फुले-शाहू-अम्बेडकर की वैचारिकी पर आधारित स्वतन्त्र आन्दोलन[9] पूरे भारत में मान्यवर काशीराम साहेब के नेतृत्व में कार्य कर रहा था। इस बुद्ध-फुले-शाहू-अम्बेडकर बहुजन आन्दोलन की अपनी वैचारिकी थी, अपने नायक थे, अपना एजेण्डा था। और, ये आन्दोलन खुद देश के दलित-शोषित बहुजन समाज के आर्थिक सहयोग से देश के कोने-कोने में बहुजन समाज (दलित-पिछड़े-आदिवादी और धार्मिक अल्पसंख्यक समाज) के लोगों में चेतना का संचार कर बहुजन समाज की गैर-राजनैतिक जड़ों को मजबूत करते हुए बहुजन समाज को ब्राह्मणवाद को जड़ से उखाड़ फेंकने के लिए तैयार कर रहा था।
 इसके तहत ही जैसा कि सर्वविदित हैं कि मान्यवर साहेब देश की तमाम शोषित जातियों को जोड़कर बहुजन समाज का सृजन करने में लगे हुए थे। इसके लिए मान्यवर साहेब ने सबसे पहले एससी-एसटी-ओबीसी और कन्वर्टेड मॉयनॉरिटीज़ समाज के अधिकारीयों-कर्मचारियों को एक मंच पर लाने के लिए ०६ दिसंबर १९७८ को बामसेफ का गठन किया। साथ-साथ, मान्यवर साहेब ने बहुजन संगठक, ओप्रेस्ड इंडियन, अनटचेबल इण्डिया आदि का सम्पादन भी किया।
इसके बाद बहुजन समाज व भारत के हित में सामाजिक परिवर्तन और आर्थिक मुक्ति आन्दोलन के दायरे को बढ़ाने के लिए ०६ दिसंबर १९८१ को डीएस-4 बनाया, जिसमे साहब ने देश के जमीनी स्तर पर जाकर गांव-खेड़ा और नगरों की मलिन बस्तियों में शोषण को अपनी किश्मत मानकर सदियों से पशुवत जिन्दगी जीते आ रहे दलित-शोषित समाज को जोड़ने का कार्य किया।
डीएस-4 के बैनर तले ही मान्यवर साहेब ने दो पैरों और दो पहिओं का अदभुद उदहारण[10] देते हुए पूरे भारत में साईकिल यात्रा कर पूरे देश के शोषित समाज को जोड़ने का कार्य किया। बरेली में शराब बन्दी आन्दोलन[11] चलाया, जिसके तहत साहेब ने बहुजन समाज को बताया कि ब्राह्मणी सरकारों ने किस कदर बहुजन समाज को बर्बाद किया हैं। इसको बकायदा चिन्हित करते हुए मान्यवर कांशीराम साहेब बताते हैं कि "सवर्णों की बस्ती में स्कूल, मुस्लिमों की बस्ती में थाना, दलितों की बस्ती में शराबखाना।" डीएस-4 के बैनर तले ही मान्यवर साहेब संसद भवन के सामने बोट क्लब दिल्ली में पीपल्स पार्लियामेन्ट का आयोजन करते हैं। लिमिटेड पोलिटिकल एक्शन के तहत लोगों को टिकट देकर चुनाव लड़वाते हैं, और, टिकट को प्लेटफॉर्म टिकट कहते हैं क्योंकि इससे तो विधानसभा या संसद में तो नहीं पहुँच सकते हैं लेकिन चुनाव जरूर लड़ सकते हैं। इसी दरमियान साहेब चमचा युग का प्रकाशन करते हुए चमचों की शिनाख्त करने का ढंग बताते हैं। और, साहेब कहते हैं कि "Hit the Hand who Holds the Chamcha." यही से साहेब अपनी पुस्तक चमचा युग में बाकायदा चित्र के माध्यम से 15 बनाम 85 के नारे को मुखर करते हैं।[12]
डीएस-4 के बैनर तले लड़े कुछ चुनाव मे हरियाणा का विधानसभा चुनाव सबसे अहम हैं। १९८२ में हुए हरियाणा विधानसभा के इस चुनाव में डीएस-4 ने अपनी तैयारी का मुआयना किया। इस चुनाव में कांग्रेस को कुल ३६ सीटें, लोक दल को ३१ सीटें, भाजपा को ०६ सीटें, जनता पार्टी को ०१ सीट और निर्दलीय लोगों को १६ सीटें मिली। यदि प्रतिशत शेयर पर गौर करे तो हम पाते हैं कि इस चुनाव में कांग्रेस को ३७.८२ फीसदी, लोकदल को २४.१३ फीसदी, भाजपा को ०७.७५ फीसदी, जनता दल को २.९५ फीसदी, डीएस-4 को ०१.१९ फीसदी, सीपीआई को ०.७५ फीसदी, सीपीआई (मार्क्सवादी) को ०.३८ फीसदी और कांग्रेस (समाजवादी) को ०.१९ फीसदी वोट मिले।
इस चुनाव का महत्वपूर्ण पहलू ये रहा कि डीएस-4 ने उस समय की सात राष्ट्रिय पार्टियों में से तीन को पछाड़ते हुए पाँचवा स्थान हासिल किया। हालाँकि सीटें तो नहीं मिली, लेकिन गठन के चंद महीनों बाद ही हुए इस हरियाणा विधानसभा चुनाव में देश की तीन राष्ट्रिय पार्टियों को पछाड़ दिया। इस तरह से साहब ने ना सिर्फ एक सफल प्रयोग किया बल्कि अपनी तैयारी का मुक़म्मल मुआयना भी किया।
इस प्रयोग की सफलता और अपनी तैयारियों के मद्देनजर मान्यवर साहब सदियों से शोषित रहे समाज को सत्ता के सिंहासन तक पंहुचाने देश को एक बेहतरीन वैकल्पिक व्यवस्था देने के उद्देश्य से मान्यवर साहेब ने अन्तिम तौर पर १४ अप्रैल १९८४ को बहुजन समाज पार्टी (BSP) का गठन किया। पार्टी के गठन तक बामसेफ एकमुश्त तरीके से बसपा के साथ लगी रहीं। या यूं कहिये कि ये बसपा के रीढ़ की हड्डी थी। इस दरमियान बामसेफ बसपा को आर्थिक और मानव संसाधन उपलब्ध कराती रहीं।
कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनी बसपा
गौर करने वाली महत्वपूर्ण बात यह भी हैं कि डीएस-4 व बसपा के पहले देश का बहुजन समाज, खासकर दलित व मुस्लिम, कांग्रेस का एकमुश्त और बड़ा वोट बैंक था। इसलिए कांग्रेस के लिए बसपा सबसे बड़ी चुनौती थी। दलितों-पिछड़ों को राजनैतिक सत्ता के केंद्र से हासिये पर धकेलने के लिए ब्रहमणों-सवर्णों ने जनता दल को छिन्न-भिन्न कर दिया था। परन्तु, बुद्ध-फुले-शाहू-अम्बेडकरी वैचारिकी पर लगातार मजबूत होती बसपा ब्राह्मणो-सवर्णों के राजनैतिक सत्ता के लिए ही नहीं, बल्कि ब्राह्मणवाद के लिए भी चुनौती बन गयी। साथ ही हरियाणा चुनाव में जिस तरह से डीएस-4 ने तीन राष्ट्रिय पार्टियों को पछाड़ा था, उससे जाहिर था कि बसपा जल्द ही सत्ता पर काबिज हो जाएगी। इसलिए ब्राह्मणों-सवर्णों के लिए बुद्ध-फुले-शाहू-अम्बेडकर वैचारिकी की वाहक बसपा सबसे बड़ी चुनौती हैं।[13] इसलिए बसपा (एससी-एसटी-ओबीसी की स्वतन्त्र राजनीति) के खिलाफ कांग्रेस साजिश करने लगी, बामसेफ़ को तोड़ने का हर सम्भव प्रयास करने लगी। इसी बीच पंजाब में विधानसभा चुनाव की घोषणा होती हैं, साहेब काशीराम जी पंजाब के अकाली दल के साथ समझौते पर विचार करते हुए अकाली दल के तत्कालीन अध्यक्ष हरचन्द सिंह लोंगेवाल से वार्ता करना चाहते थे।
लोंगेवाल-मान्यवर भेंट और पंजाब विधानसभा चुनाव १९८५
पंजाब में बदलाव का एक नया दौर शुरू होता हैं। इंदिरा गाँधी की हत्या हो चुकी थी। पंजाब में 1985 का विधान सभा चुनाव होना था। राजीव गाँधी सक्रिय राजनीति का हिस्सा बन चुके थे। राजीव गाँधी 32 फीसदी दलित आबादी वाले पंजाब में अपनी पार्टी को फिर से खड़ा करना चाहते थे। मान्यवर काशीराम साहब दलित-शोषित समाज के हाथों में सत्ता की बागडोर देने की प्रतिज्ञा पहले ही कर चुके थे। ऐसे में तत्कालीन हालात को देखते हुए मान्यवर कांशीराम साहब उस समय के सबसे मजबूत शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष हरचंद सिंह लोंगेवाल के साथ राजनैतिक समझौते की जुगत में थे।
इस समझौते के लिए साहेब काशीराम जी ने पंजाब के तेजिन्दर सिंह झल्ली को आगे बढ़ाया, जो कि पंजाब बामसेफ के प्रान्तीय मुखिया थे। झल्ली जी ने मीडिएशन किया। साहेब काशीराम जी की हरचंद सिंह लोंगेवाल के साथ गुप्त मीटिंग तय हो गयी। अपनी बेटी को राजनैतिक तौर पर स्थापित करने के लिए पंजाब बामसेफ मुखिया तेजिंदर झल्ली इस मीटिंग में अपने साथ अपनी बेटी को भी ले गये। झल्ली जी जिस गाड़ी से मान्यवर साहब को ले जा रहे थे, उसमे सिर्फ तीन लोग (साहेब काशीराम जी, तेजिन्दर सिंह झल्ली और झल्ली जी की बेटी) ही थे, कोई ड्राइवर भी नहीं था। रास्ते में गाड़ी ख़राब हो गयी। ऐसे में झल्ली साहेब ड्राइवर की सीट पर, बगल में उनकी बेटी गाड़ी में बैठे रहे, और सरेआम काशीराम साहेब को अकेले ही गाड़ी को धक्का देना पड़ा। झल्ली जी का ये कृत्य मान्यवर काशीराम साहब को काफी अपमानित करने वाला था, क्योंकि लोग देख रहे थे। इसके बाद हरचंद सिंह लोंगेवाल के साथ की मीटिंग में भी झल्ली जी ने अपनी बेटी को अपने से आगे ही रखा। मान्यवर साहेब को ये बात बहुत नागवार गुजरी। फिलहाल, मान्यवर साहेब ने झल्ली जी के योगदान को देखते हुए उनके स्वार्थपूर्ण कृत्य को मॉफ कर दिया।[14]
पंजाब में दलितों की आबादी ३२ फीसदी हैं। इसके मद्देनजर हरचंद सिंह लोंगेवाल और मान्यवर साहेब के बीच हुई मीटिंग का रुख सकारात्मक दिखा। पूरी उम्मीद थी की बसपा और अकाली साथ में विधानसभा चुनाव लड़ेंगे। आगे की रणनीति के लिए मान्यवर साहब ने हरचंद सिंह लोंगेवाल के साथ हर डील के लिए झल्ली जी को जिम्मेदारी सौप दी।
कांग्रेस के हो गए झल्ली जी
इसके बाद नतीजा ये हुआ कि झल्ली जी ने अकालियों संग बसपा के गठबंधन की बात करने के बजाय वो खुद अर्जुन सिंह व कांग्रेस के सम्पर्क में आ गए। झल्ली जी की मदद से कांग्रेस बसपा की रीढ़ (बामसेफ) को पहचान गयी। इसलिए बसपा पर प्रहार करने के बजाय कांग्रेस ने सफलतापूर्वक बामसेफ में सेंध लगाने की शुरुआत की। इस सेंध की कड़ी बने पंजाब बामसेफ के मुखिया और मान्यवर साहेब के विश्वासपात्र रहे तेजिन्दर सिंह झल्ली।
तेजिंदर सिंह झल्ली, मान्यवर साहेब द्वारा सौपी गई जिम्मेदारी को निभाने के बजाय अर्जुन सिंह, राजीव गाँधी और कांग्रेस के करीब आ गये। झल्ली जी बसपा का अकालियों से समझौता कराने के बजाय हरचंद सिंह लोंगेवाल का समझौता कांग्रेस से कराने लगे। झल्ली जी कांग्रेस के हाथों की कठपुतली बन चुके थे। हरचंद सिंह लोंगेवाल हफ़्तों दिल्ली में रहें। और, राजीव गाँधी से गुप्त मुलाकात करते रहे। झल्ली जी ने ये सब जानकारी मान्यवर साहेब को देने के बजाय मान्यवर साहेब को ही नजरअंदाज कर गये।
अंत में हरचंद सिंह लोंगेवाल राजीव गाँधी के साथ समझौता कर बैठे। परिणामस्वरूप, २३ जुलाई १९८५ को दिल्ली में राजीव-लोंगेवाल अकॉर्ड साइन हुआ। हालाँकि, हरचंद सिंह लोंगेवाल का ये समझाता पंजाब के कट्टरपंथियों को नागवार गुजरा। अंततः, २० अगस्त १९८५ को पंजाब के कट्टरपथिंयों द्वारा हरचंद सिंह लोंगेवाल की हत्या कर दी गयी।
पंजाब में संभावित बड़े बदलाव पर लगा विराम 
हरचंद सिंह लोंगेवाल की हत्या के साथ ही पंजाब में होने वाले एक बड़े बद्लाव पर विराम लग गया। यदि झल्ली जी राजीव गाँधी और कांग्रेस के हाथों बिकने के बजाय पूरी निष्ठां और ईमानदारी से मान्यवर साहेब द्वारा सौपी गई जिम्मेदारी को सही से निभाते तो पूरी उम्मीद थी कि हरचंद सिंह लोंगेवाल कांग्रेस से समझौता ना कर पाते, और उनकी जिंदगी भी सुरक्षित रहती। परिणामतः अकालियों का बसपा से समझौता पूर्ण हो जाने पर पंजाब राजनीति में एक नए अध्याय की शुरुआत हो जाती। परन्तु, ये हो ना सका। चुनाव पश्चात् कांग्रेस के हाथों बिके तेजिन्दर सिंह झल्ली के स्वार्थ की वजह से अकालियों संग बसपा का होते-होते जो समझौता टूटा, उसका पूर्ण लाभ भाजपा ने उठाया।
पंजाब विधानसभा चुनाव परिणाम के परिणामस्वरूप अकालियों को ६० सीट, कांग्रेस को ३२ और भाजपा को ६ सीट मिली। यहीं से भाजपा की अकालियों से नज़दीकियां बढ़ी। यहीं से बीजेपी और अकाली दल का राजनैतिक सहयोग का सफर शुरू हुआ, जो आज भी जारी हैं। इसके साथ ही झल्ली जी के स्वार्थी रवैये के चलते पंजाब राजनीति में होने वाले एक बहुत बड़े बदलाव पर विराम लग गया। यही से झल्ली जी बामसेफ से अलग हो गये।
झल्ली, कांग्रेस, महाराष्ट्र की महत्वकांक्षी तिकड़ी और बामसेफ़ का प्रथम विघटन 
अम्बेडकरी आन्दोलन के नाम पर आर. पी. आई का हश्र देख चुके मान्यवर साहब के कुछ सहयोगी राजनैतिक दल के गठन से सहमत नहीं होने का दावा करते रहे। बावजूद इसके उनकी महत्वाकांक्षाएं बढ़ती जा रही थी। मान्यवर साहब द्वारा किये जा रहे कार्यों की जानकारी बोरकर एन्ड कम्पनी महाराष्ट्र के लोगों से छिपाती रहीं। इसलिए ही तो मान्यवर साहब महाराष्ट्र में दिए अपने एक भाषण में कहते हैं कि ये बोरकर आप लोगों को ये क्यों नहीं बताता हैं कि हमने उत्तर प्रदेश में क्या किया हैं? स्पष्ट हैं कि साहब की सफलता ने जहाँ एक तरफ बोरकर, खापर्डे और मेश्राम की तिकड़ी की महत्वाक्षांए बढ़ा दी थी तो वहीँ दूसरी तरफ ये तिकड़ी मान्यवर की लोकप्रियता से खफा थी। इसलिए ये लोग महाराष्ट्र में साहब की उपलब्धियों का जिक्र करने के बजाय अपने लिए मान्यवर साहेब से अलग जमीन तलाश रहे थे। इसी दरमियान, झल्ली जी की मदद से राजीव गाँधी, काँग्रेस, ने महाराष्ट्र की इस तिकड़ी का इस्तेमाल किया। कांग्रेस ने इन सबकों हर संभव मदद (आर्थिक, राजनैतिक व कानूनी सुरक्षा आदि) की।
फिलहाल महाराष्ट्र में आरपीआई के कई टुकड़े होने के कारण, बुद्धिष्ट लीडरशिप काफी बदनाम हो गयी थी। इसलिए इस बदनामी के कलंक से बचने के लिए खापर्डे, बोरकर और मेश्राम की तिकड़ी ने १९८५ में ही बामसेफ से मान्यवर कांशीराम जी को अध्यक्ष पद से हटा कर, तेजिंदर सिंह झल्ली को अध्यक्ष बनाते हुए कांग्रेस के हर सम्भव सहयोग से बामसेफ का रजिस्ट्रेशन भी करवा लिया। महाराष्ट्र के इन तीन लोगों ने पंजाब के ही एक चमार सरदार (तेजिन्दर सिंह झल्ली) को दूसरे चमार सरदार (मान्यवर काशीराम साहेब) के सामने खड़ा कर दिया। मान्यवर साहब बहुत दुखी हुए, लेकिन बिना किसी विरोध के, अपने साथ आये लोगों को लेकर अनरजिस्टर्ड बामसेफ को जारी रखा, जो बसपा के लिए सतत काम रहीं हैं। जिसे आज "शैडों बामसेफ" के नाम से जाना जाता हैं।
बेगम हजरत महल पार्क की ऐतिहासिक सभा
दिनांक 3 दिसंबर 1986 को मान्यवर कांशीराम साहब श्री राम अवध, वरिष्ठ स्वास्थ्य निरीक्षक उत्तर रेलवे, चारबाग, के निवास हैदर कैनाल रेलवे कॉलोनी पहुंचे। मान्यवर कांशीराम साहब ने श्री राम अवध जी से लखनऊ बामसेफ के संयोजक और अन्य दो-तीन खास लोगों को बुलाने के लिए कहा। शाम को एक के बाद एक लगभग 30-32 कार्यकर्ता श्री राम अवध के निवास हैदर कैनाल रेलवे कॉलोनी स्थित क्वार्टर पर इकट्ठा हुए, क्योंकि दिनांक 7 दिसंबर 1986 को बेगम हजरत महल पार्क में एक सभा का आयोजन किया जाना था। इस सभा में दलित शोषित बहुजन समाज के लोगों को अधिक से अधिक संख्या में एकत्रित होना था। जानकारों के मुताबिक उस घटना में दो लाख से ज्यादा दलित शोषित बहुजन इकट्ठा हुए थे। मीडिया रिपोर्ट के अनुसार उस सभा में लगभग 75000 लोग एकत्रित हुए थे। फिलहाल, ये अपार जन-सैलाब अपने आप में उस समय की एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक घटना थी। दिनांक 7 दिसंबर 1986 को बेगम हजरत महल पार्क लखनऊ की इस ऐतिहासिक जनसभा में मान्यवर साहब ने तमाम मुद्दों पर अपनी बात रखते हुए बामसेफ का जिक्र किया। और, अचानक मान्यवर साहेब ने इस सभा में मंच से घोषणा कर दी कि आज से बामसेफ संगठन समाप्त किया जाता है। यह सुनते ही संगठन के सभी कार्यकर्ता स्तब्ध रह गये। बामसेफ को समर्पित कार्यकर्ता असहज हो गये। उनकी इस असहजता को भापकर मान्यवर साहेब ने अगले दिन यानि कि ०८ दिसम्बर 1986 को बामसेफ कार्यकर्ताओं की एक मीटिंग दारुलसफा में बुलाकर स्थिति को स्पष्ट करते हुए बताया कि बामसेफ का रजिस्ट्रेशन तेजिंदर सिंह झल्ली ने अपने नाम करा लिया है। इसलिए मैंने इस संगठन के समाप्ति की घोषणा कर दी है ताकि आप लोग शासन-प्रशासन की कुदृष्टि से बच सके।[15] इस संबंध में मैं आपको बाद में बताऊंगा। इसके पश्चात् मान्यवर साहेब दिल्ली रवाना हो गए।
अपने बाद के अलग-अलग तमाम भाषणों में मान्यवर साहेब ने बामसेफ के बिके हुए लोगों का अलग-अलग संदर्भ में जिक्र किया हैं। मान्यवर साहब दुबारा पंजाब में राजीव गाँधी के साथ हुए राजनैतिक समझौते की शर्त ही यही रखी थी कि राजीव गाँधी पहले बामसेफ के बिके हुए 110 लोगों की लिस्ट मान्यवर साहेब को दे। जिसके चलते राजीव गाँधी ने मान्यवर साहब को उन 110 लोगों की जानकारी दी, और राजनैतिक समझौता हुआ। फिलहाल 1991 में राजीव गाँधी की मृत्यु हो जाने के बाद मान्यवर साहब को दुबारा नरसिंह राव से राजनैतिक समझौता करना पड़ा, जिसका अपना एक अलग ही इतिहास हैं।
बामसेफ़ का पुनः विघटन
दिसंबर १९९१ में,  खापर्डे, बोरकर और मेश्राम की तिकड़ी ने अपने स्वार्थ व महत्वाकांक्षाओं को संतुष्ट करने के इरादे से झल्ली जी को भी बामसेफ से निकाल दिया, और अपने ग्रुप के बामसेफ का अध्यक्ष अपनी तिकड़ी में से ना बनाकर, साफ-सुथरी छवि दिखाने के लिए एस ऍफ़ गंगावणे को अध्यक्ष बना दिया। रजिस्टर्ड बामसेफ की पात्रता झल्ली जी के पास थी, इसलिए झल्ली जी ने अपनी बामसेफ को जारी रखा। इस तरह से गंगावणे जी की अपनी तीसरी अनरजिस्टर्ड बामसेफ शुरू हो गई। बाद में, झल्ली जी ने पैगाम नाम से पंजाब में अपना संगठन शुरू किया।
गंगावणे जी बामसेफ को सफल बनाने के लिए काफी मेहनत किए लेकिन नकारात्मक भावनाएं कैडर में आ चुकी थी। जिसके चलते काम करना दिन-प्रतिदिन मुश्किल होता जा रहा था। इसके बाद में, इन्होने संगठन को पूरा समय देने के लिए सन् 1995 में नौकरी छोड़ दी। और, संगठन को मजबूत करने में लग गये। इधर खापर्डे जी बिना किसी पद के हतोत्साहित हो रहें थे। इतने लम्बे समय से काम करने के कारण महत्त्वाकांक्षायें बढ़ चुकी थी। और, गंगावणे जी के साथ इनका अहम् टकरा रहा था, क्योंकि इन सबने मिलकर ही तो गंगावणे को अध्यक्ष बनाया था। अंततोगत्वा, दिसंबर 1996 में मुम्बई के चूनाभट्टी मैदान के अधिवेशन में एस ऍफ़ गंगावणे जी को हटाकर, खापर्डे जी खुद अध्यक्ष बन गये। उधर गंगावणे जी भी फुलटाइमर होने के कारण अपनी बामसेफ अलग से जारी रखा।
फ़िलहाल, सन 2002 में खापर्डे साहब की मृत्यु हो गई। इसके बाद बामन मेश्राम ने स्वाभाविक तौर पर अध्यक्षता खुद ले ली। कुछ महीने बाद ही 2003 में बामन मेश्राम के ऊपर चरित्रहीनता का संगीन आरोप लगा। नतीजन, बामसेफ के चरित्र को साफ़ सुथरा बनाने के लिए बी डी बोरकर ने बामन मेश्राम को बामसेफ से निकाल दिया, और खुद अध्यक्ष बन गये।
बामन मेश्राम अपनी नौकरी छोड़कर बामसेफ पर ही पूरी तरह से निर्भर हो गए थे। इसलिए उनके लिए बामसेफ छोड़ना कठिन था, क्योंकि सवाल जीविका का था। इसके बाद यहाँ से फिर दो नई बामसेफ अस्तित्व में आ गयी, एक बामन मेश्राम की, और दूसरी, बोरकर की।
दोनों लोग अपना वार्षिक अधिवेशन अलग-अलग करते रहे। मान्यवर साहेब को राजनैतिक दल बनाने के लिए रात-दिन कोसने वाले लोगों में स्वघोषित मसीहा बामन मेश्राम[16] ने 2012 में एक खुद का राजनैतिक संगठन[17] बना लिया। ऐसे में, बोरकर[18] जी भी कहां पीछे रहने वाले। परिणामस्वरूप इन्होने भी सन् 2018 में अपना अलग राजनैतिक दल बना लिया। इस प्रकार आज लगभग सभी बामसेफ वाले, जो कभी राजनैतिक दल बनाने के कारण मान्यवर काशीराम को कोसते थे, आज एक-एक राजनैतिक दल लिए घूम-घूमकर अपनी रोजी-रोटी चला रहे हैं।
इस प्रकार पंजाब सियासत से शुरू हुआ बामसेफ विघटन, आज अनेक बामसेफ के रूप में चंद लोगों की जीविका का साधन बनकर उनका व उनके परिवार का पेट पाल रहा है। और, बामसेफ के इस इतिहास से अछूता बहुजन समाज हर बामसेफ को मान्यवर काशीराम साहेब की बामसेफ समझकर थोड़ा-बहुत चंदा देता रहता हैं जिससे इनके घरों के चूल्हे जल रहे हैं। रहीं बाकी कमी, तो कांग्रेस-बीजेपी वाले पूरी कर देते हैं। क्योंकि ये लोग उन प्रांतों में बहुजन समाज के लोगों को बहन जी और बसपा के खिलाफ भड़काते हैं जहां पर बसपा सशक्त हैं। जिससे की बसपा का दो-चार वोट इधर-उधर हो जाता हैं। नाम मात्र का ही सहीं लेकिन इसका सीधा फायदा ब्राह्मणवादी दलों को मिलता हैं।
यहीं कारण हैं कि ये सारे बामसेफ उत्तर प्रदेश में ज्यादा सक्रिय हैं क्योंकि यहाँ पर बसपा और बहन जी के खिलाफ बहुजन समाज को भड़काने के लिए इन सभी बामसेफियों को मोटी रक़म मिल जाती हैं।
ऐसे में स्वतः स्पष्ट हो जाता हैं कि बहुजन आन्दोलन चलाने का कार्य ये बामसेफी नहीं, बल्कि उत्तर प्रदेश में चार-चार बार हुकूमत कर चुकी मान्यवर काशीराम साहेब की राजनैतिक विरासत बहुजन समाज पार्टी (बहुजन समाज की एकमात्र राष्ट्रिय पार्टी) व भारत महानायिका बहन कुमारी मायावती जी ही कर रहीं हैं।
उपसंहार
यदि झल्ली जी पूरी निष्ठां और ईमानदारी से अपनी जिम्मेदारी निभाते तो संभव था कि उत्तर प्रदेश से पहले पंजाब में बसपा की सरकार बन चुकी होती। साथ ही साथ बामसेफ चंद स्वार्थी और चमचे किस्म के लोगों के रोजी-रोटी का सहारा बनने के बजाय बहुजन आन्दोलन को उसी तरह से सहयोग करती जैसा कि मान्यवर काशीराम साहब चाहते थे। यदि ऐसा सब कुछ हुआ होता तो आज बहन जी के नेतृत्व में बसपा और बामसेफ मिलकर ना सिर्फ भारत फ़तेह कर चुके होते बल्कि बाबा साहेब के सपनानुसार केंद्र पर अपनी हुकूमत को भी स्थापित कर सामाजिक परिवर्तन और बहुजनों की आर्थिक मुक्ति को साकार कर चुके होते। फिलहाल, गति मंद ही सही लेकिन जागरूक बहुजनों की लेखनी, बसपा व बहन जी के नेतृत्व और बहुजन समाज के सहयोग से कारवाँ निरन्तर आगे बढ़ रहा हैं।
रजनीकान्त इन्द्रा
इतिहास छात्र, इग्नू - नई दिल्ली

[1] प्रो विवेक कुमार, सुविख्यात समाजशास्त्री, जेएनयू
[2] प्रो विवेक कुमार, सुविख्यात समाजशास्त्री, जेएनयू
[3] प्रो विवेक कुमार, सुविख्यात समाजशास्त्री, जेएनयू
[4] पंजाब के राजनैतिक उथल-पुथल की पृष्ठभूमि 
हुआ यूं कि माननीय उच्च न्यायालय इलाहाबाद द्वारा १९७५ में इंदिरा गाँधी का चुनाव (रायबरेली लोकसभा) रद्द किया जा चुका था। इसके बाद अपनी सत्ता को कायम और विपक्ष को खामोश रखने के लिए इंदिरा गाँधी द्वारा देश में आपातकाल घोषित किया जा चुका था। आपतकाल बीता और पंजाब में विधानसभा का चुनाव हुआ। इस चुनाव में कांग्रेस को ४९ सीटों का भारी नुकसान हुआ। नतीजा, अकाली दल (५८ सीट) ने कांग्रेस (१७ सीट) को सत्ता से बाहर कर दिया। ५८ विधानसभा सीटों के साथ प्रकाश सिंह बादल पंजाब के मुख्यमंत्री (२० जून १९७७ - १७ फरवरी १९८०) बने।
इसके बाद कांग्रेस के लिए जरूरी हो गया था कि अकालियों को सत्ता से बेदखल करने के लिए उनके ही बीच से किसी को उभारा जाय। इसके लिए कांग्रेस में उस समय के बड़े नेता ज्ञानी जैल सिंह ने संजय गाँधी की मुलाकात सवर्ण जाट जरनैल सिंह भिंडरवाला से कराया, जो कि एक कम पढ़ा-लिखा और कट्टर व बददिमाग आदमी था। संजय गाँधी को भिंडरवाला की कट्टरता बहुत पसंद आयी। नतीजा, कांग्रेस ने अकालियों के खिलाफ भिंडरवाला को आगे करके खेल शुरू किया।
१७ फरवरी १९८० को इंदिरा गाँधी ने पंजाब में राष्ट्रपति शासन लगाकर प्रकाश सिंह बादल की सरकार को बर्खास्त कर दिया। इसके बाद १९८० में पंजाब विधानसभा का चुनाव हुआ, जिसमे कांग्रेस ने भिंडरवाले का बखूबी इस्तेमाल किया। जरनैल सिंह भिंडरवाला, सवर्ण जाट, को कांग्रेस ने अपने फायदे के लिए आगे बढ़ाया। इसके तीखे तेवर पंजाब के नौजवानों और धर्म की राजनीति करने वालों को खासा पसन्द आया। इस चुनाव में ४६ सीटों के इजाफे के साथ कांग्रेस को कुल ६३ सीटें मिली। परिणामस्वरूप, कांग्रेस ने दरबारा सिंह के नेतृत्व में अपनी सरकार बनायीं।
कांग्रेस अपने मंसूबे में सफल तो हो गयी लेकिन जिस जरनैल सिंह भिंडरवाला की कट्टरता का सहारा लेकर कांग्रेस ने अपनी सरकार बनाई थी, वो भिंडरवाला अपने उम्र से भी बड़ा और अपने कद से भी ऊँचा हो चुका था। उसकी महत्वकांक्षाये इतनी बढ़ गयी कि वो दुश्मन मुल्क से मिलकर पृथक देश की माँग करने लगा। फिलहाल, अपने फायदे के लिए कांग्रेस ने जिस भिंडरवाला को खड़ा किया, उसे देश हित के नाम पर ऑपरेशन ब्लू स्टार के जरिये अपने फायदे के लिए ही हमेशा के लिए मिटा भी दिया।
[5] प्रो विवेक कुमार, सुविख्यात समाजशास्त्री, जेएनयू
[6] दलित-पिछड़े वर्ग रोकने के लिए बीजेपी का उदय   
आपातकाल के दौरान और उसके बाद जनता पार्टी के बैनर तले जिस तरह से दलित नेतृत्व में पिछड़े वर्ग के लोग सामने आ रहे थे, उससे सवर्णों को ये अन्देशा हो गया था कि यदि दलित-पिछड़ा वर्ग एक साथ होकर सशक्त विपक्ष तैयार करने में सफल हो जाता हैं तो जल्द ही देश का दलित-शोषित वर्ग सत्तारूढ़ हो जायेगा। जातिवादी मानसिकता से बीमार ब्राह्मण-सवर्ण देश के दलित-पिछड़े वर्ग को कभी भी सत्ता में नहीं देखना चाहता हैं। इसलिए जनता दल में शामिल ब्राह्मण-सवर्ण लोगों ने जनता दल से अलग होकर इन ब्राह्मणों-सवर्णों ने अपनी खुद की ब्राह्मण-सवर्ण राजनैतिक दल कांग्रेस के खिलाफ ०६ अप्रैल १९८० को भाजपा के रूप में एक नए विपक्ष को जन्म दिया, जिसने आगे चलकर सफलतापूर्वक दलित-पिछड़े नेतृत्व में पनपने वाले विपक्ष की सम्भावना को ख़त्म कर जनता दल को टुकड़ों में बाँट दिया। और कालान्तर में जनता दल के इन टुकड़ों को क्षेत्रीय दलित-शोषित राजनैतिक दलों में तब्दील कर इन सबकों हाशिये पर धकेल दिया।

[7] बीजेपी के उदय के साथ ही क्षेत्रीय स्तर पर सिमट गयी दलित-पिछड़ा राजनीति 
बीजेपी के उदय का परिणाम ये हुआ कि आगे के निकट भविष्य में जनता दल मुख्य विपक्ष के पटल से गायब हो गया। इसकी जगह अलग-अलग क्षेत्रीय राजनैतिक दल पनपने लगे। जनता दल (यूनाइटेड), राष्ट्रिय जनता दल, समाजवादी पार्टी, जनता दल (सेकुलर), बीजू जनता दल, लोक जन शक्ति पार्टी आदि क्षेत्रीय दलों का उदय हुआ। यदि और स्पष्ट किया जाय तो ये सभी क्षेत्रीय दल सकल बहुजन समाज की बात करने के बजाय खानदानी व जाति विशेष के दल बनकर रह गए। 
उदहारण के लिए - बिहार में जदयू नीतीश कुमार की निजी संपति व कुर्मियों की पार्टी बन गयी; राजद लालू यादव की निजी मिलकियत व यादवों की पार्टी बनकर रह गयी, जिसके सीईओ आज लालू यादव के बेटे तेजश्वी यादव हैं; लोक जन शक्ति पार्टी रामविलास पासवान की अपनी पार्टी हैं, और इन्होने भी अपने ब्राह्मण पत्नी के बेटे चिराग को राजनैतिक मैदान में उतार दिया हैं; उत्तर प्रदेश में सपा मुलायम यादव की खानदानी मिलकियत व अहीरों की पार्टी बन गयी, जिसके सीईओ आज मुलायम यादव के बेटे अखिलेश यादव हैं, इत्यादि। 
इस तरह से पिछड़ों व दलित समाज के लोगों ने अपने-अपने छोटे-छोटे दल बनाये, कुछ सीटें भी जीती लेकिन ब्राह्मणवाद को ना तो ये समझ पाये और और ना ही ब्राह्मणों की राजनैतिक चाल को जान पायें। क्योंकि यदि ये लोग ब्राह्मणवाद को समझ पाते तो बीजेपी के गठन के बाद ही ये लोग एक साथ होकर बीजेपी को किनारे करके भविष्य में मुख्य विपक्ष की भूमिका निभाते। लेकिन ऐसा नहीं हो सका क्योंकि ये सभी लोग राजनीति में व्यक्तिगत मुक्ति के लिए आये थे, ब्राह्मणवाद से लड़ने व समाज बदलने के लिए नहीं।
हालाँकि, ये भी सच हैं कि ये सब लोग शूद्र व बहिष्कृत समाज का हिस्सा होने के नाते ब्राह्मणवाद की मार से पीड़ित जरूर थे लेकिन इनका मसकद सिर्फ व्यक्तिगत मुक्ति मात्र ही था। ये इस बात से भी स्पष्ट हो जाता हैं कि जनता दल से टूट कर बने सभी दलों व उसके पूर्व व वर्तमान सीईओ द्वारा ब्राह्मणवाद का पूर्ण पालन, इस बात का पुख्ता प्रमाण हैं कि ये सभी दल सामाजिक बदलाव के लिए नहीं, बल्कि अपने-अपने सीईओ व उनके परिवार की व्यक्तिगत मुक्ति का जरिया मात्र हैं, धन उगाऊ प्राइवेट लिमिटेड कम्पनी हैं। 
उदहारण के तौर पर - लालू यादव ने बिहार में ब्राह्मणी कर्मकाण्ड के दूर रहने का आह्वान जरूर किया लेकिन खुद के पिता की मौत के बाद लालू यादव ने पिता के अंतिम संस्कार के लिए ब्राह्मणों की फ़ौज खड़ी कर दी; उत्तर प्रदेश में मुलायम यादव समय-समय पर अपने पाप धोने प्रयाग आते रहे। यहीं नहीं, मुलायम के बेटे और वर्तमान में सपा के सीईओ अखिलेश यादव भी प्रयाग में पाप धोने व अपनी ठकुराइन धर्मपत्नी डिम्पल यादव और अन्य परिवार के सदस्यों के जन्मदिन व अन्य सम्भव अवसरों पर बड़े-बड़े यज्ञ-हवन का आयोजन करते रहते हैं। स्पष्ट हैं कि ये सभी खानदानी राजनैतिक रियासते फौरी तौर पर दलित-पिछड़ों की बात करती नज़र जरूर आती हैं लेकिन सामाजिक बदलाव व आर्थिक मुक्ति ना तो इनका उदेश्य रहा हैं और ना ही इन्होने सोच-समझ कर कभी इसके लिए कोई काम किया हैं। हाँ, अपनी सत्ता को बनाये रखने के लिए इन्होने जो कुछ भी किया हैं उसके बाई-प्रॉडक्ट के तौर पर यदि दलितों-पिछड़ों को कुछ मिल गया हो तो और बात हैं।
[8] प्रो विवेक कुमार, सुविख्यात समाजशास्त्री, जेएनयू
[9] प्रो विवेक कुमार, सुविख्यात समाजशास्त्री, जेएनयू
[10] प्रो विवेक कुमार, सुविख्यात समाजशास्त्री, जेएनयू
[11] प्रो विवेक कुमार, सुविख्यात समाजशास्त्री, जेएनयू
[12] प्रो विवेक कुमार, सुविख्यात समाजशास्त्री, जेएनयू
[13] कांग्रेस के लिए सबसे बड़ी चुनौती बनी बसपा
भाजपा के उदय से जनता पार्टी के बैनर तले उभरती दलित-पिछड़ा राजनीति को छिन्न-भिन्न हो चुकी थी। लेकिन मन्यावर साहेब पूरे देश के दलितों, आदिवासियों, अन्य पिछड़ों और धार्मिक अल्पसंख्यकों को बसपा के बैनर तले इक्क्ठा कर रहे थे, जो कि इसके पहले कांग्रेस का एक मुश्त वोटर रहा हैं। ऐसे में कांग्रेस के सामने बसपा सबसे बड़ी चुनौती थी। बसपा के पहले उत्तर भारत में चंद दलित-पिछड़े नेताओं को मोहरा बनाकर कांग्रेस ने यहाँ दलितों-पिछड़ों के वोटों पर एकाधिकार स्थापित कर रखा था। मान्यवर साहेब पहले बामसेफ, फिर डीएस-4 और अब बसपा के माध्यम से सकल बहुजन समाज को इकट्ठा कर रहे थे। जिसका सीधा नुकसान बहुजन समाज के शोषक कांग्रेस व सवर्णों को होने वाला था। इसलिए बसपा को तोड़ने की जुगत में राजीव गाँधी और कांग्रेस लगातार काम कर रहे थे। ऐसे में जिस समय भरोसा करके मान्यवर साहेब ने तेजिन्दर सिंह झल्ली को हरचंद सिंह लोंगेवाल के साथ आगे की बात-चीत का जिम्मा सौपा, उस समय अर्जुन सिंह पंजाब के गवर्नर हुआ करते थे। इसी दौर में अर्जुन सिंह की मदद से कांग्रेस ने बसपा को तोड़ने की साजिस के तहत झल्ली जी तक अपनी पहुँच बनायीं।
[14] मान्यवर साहेब के साथ काम किये, मान्यवर साहेब द्वारा निकाले गए तमाम पत्र-पत्रिकाओं में सम्पादन सहयोगी, बसपा में लम्बे दौर तक सेवारत, बहन जी द्वारा शुरू किये गये मायायुग के सम्पादक रहे और उत्तर प्रदेश राज्य अनुसूचित जाति आयोग के सदस्य रहे माननीय राम प्रसाद मेहरा द्वारा बताई गयी इस घटना का जिक्र तेजिन्दर सिंह झल्ली के स्वार्थ और साहेब के प्रति अपमानजनक व्यवहार के मद्देनज़र आवश्यक हैं
[15] प्रो विवेक कुमार, सुविख्यात समाजशास्त्री, जेएनयू
[16] बहुजन मुक्ति मोर्चा
[17] इन सभी बामसेफियों से जब ये पूँछा जाता हैं कि इसके अधिवेशन व सभाओं में कांशीराम और बहन मायावती जी की कही कोई चर्चा क्यों नहीं होती है। तो इनका बस इतना ही जबाव होता हैं कि हम लोगों को राजनीति से दूर रहना हैं। ये और बात हैं कि इन सब ने अपनी-अपनी बामसेफ के साथ-साथ राजनैतिक दल भी बना रखा हैं।
[18] पीपल्स पार्टी ऑफ़ इंडिया (डी)