Thursday, August 18, 2016

रक्षाबन्धन का बहिष्कार करों, नारी का सम्मान करों। - Quotes









समरसता-यथास्थिति को बनाये रखना

बीजेपी सरकार और इसके हिन्दू संगठन अनेक अवसरों पर संविधान निहित समानता शब्द का प्रयोग करने के बजाय बार-बार समरसता शब्द का इस्तेमाल कर रहे है। भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी भी अपने तमाम भाषणों में समरसता शब्द का ही इस्तेमाल करते है। हिन्दू आतंकी संगठन जैसे कि आरएसएस और इसके जैसे अन्य हिन्दू संगठन भी बार-बार समरसता शब्द का ही इस्तेमाल करते है। टीवी चैनेल हो या फिर अख़बार के कॉलम, हर जगह ये हिन्दू ब्राह्मणी लोग समरसता शब्द का ही इस्तेमल करते है, क्यों? आखिर ऐसा क्या है समरसता में जो समानता में नही है या फिर ऐसा क्या मकसद है जो समरसता शब्द के इस्तेमाल से हल हो सकता है लेकिन समता शब्द से नहीं। भारत भविष्य और भारत में समतामूलक समाज की स्थापना के लिए मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी लोगों द्वारा इस्तेमाल लिए जाने वाले समरसता शब्द की पड़ताल जरूरी है।

समरसता का मतलब होता है Harmony. दो भिन्न तरह के चीजों या विचारों के बीच परस्पर द्वन्द ना होकर एक दूसरे का अपने-अपने दायरे में रहते हुए एक दूसरे के विचार व वज़ूद का सम्मान करना ही समरसता है। यहाँ गौर तलब बात ये है कि समरसता सिर्फ वही तक ही सीमित है जहाँ तक अन्तर। जहाँ पर अंतर खत्म हो जाता है वहां पर समानता का सिद्धांत अपने आप ही लागू हो जाता है। उदाहरण के तौर पर जहाँ तक धर्म के बात है, धर्मग्रंथों की बात है, हिन्दू और मुसलमानों में समरसता होनी चाहिए लेकिन दो व्यक्ति जिसमे एक हिन्दू हो और दूसरा मुस्लमान हो, इनके शहरी और मानवीय हकों में समरसता नहीं, समानता होनी चाहिए। लेकिन जब से बीजेपी सरकार सत्ता में आयी है तब से समरसता-समरसता ही अलाप रही है। इन मनुवादी वैदिक ब्रह्मणीं लोगो द्वारा इस्तेमाल किये जाने वाला समरसता शब्द दो बातों की तरफ इसारा करता है। एक, हिन्दू धर्म के भीतर समरसता और दूसरा हिन्दू धर्म के बाहर समरसता है।

हिन्दू धर्म के भीतर समरसता का मतलब है हिन्दू सामाजिक व्यवस्था द्वारा स्थापित चातुरवर्ण और जातीय व्यवस्था को बनाये रखना। मतलब कि जातियों के बीच में समरसता होनी चहिये। मतलब कि जाति-पाँति द्वारा स्थापित सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखना। जिसका अर्थ होता है सामाजिक विषमता को अंगीकारकर ब्राह्मणी सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखना। मतलब कि समानता, जो कि संविधान निहित है और भारत में समतामूलक समाज की स्थापना के लिए नितांत आवश्यक है, को इंकार करना। यदि सीधे तौर पर कहें तो ब्राह्मणी सामाजिक व्यवस्था के भीतर समरसता शब्द का मतलब है ब्राह्मणवाद को बढ़ावा देना, मनुवाद को बढ़वा देना, समाज में विषमता को बढ़ावा देना, जाति-पाँति को बनाये रखना, ऊंच-नीच की खाई को पाटने के बजाय और गहरी करना, ब्राह्मणों के वर्चश्व को कायम रखना, दलित, आदिवासियों और पिछड़ों द्वारा ब्राह्मणवाद की गुलामी को सहर्ष स्वीकार करना।

समरसता शब्द देखने सुनने में बहुत ही कर्णप्रिय लगता है लेकिन इसका मकसद भारत में विषमता को बनाये रखना है। ये समरसता जैसे शब्द ही है जो भारत में हिंदूवादी दलों और संगठनों की मंशा को जाहिर करते है। ये शब्द ही है जो इसके संगठन अधिकतर इस्तेमल करते है जिससे समाज में जाति के पोषक वर्ग को बल मिलता है। जिसके चलते बीजेपी सरकार के संसद, विधायक और इसके कार्यकर्ता खुले आम जातिवादी टिप्पणी करते है, दलितों और आदिवासियों के खिलाफ हो रहे हिंसा को सपोर्ट करते है, जातिवादी हमले करते है जिसके ताजा उदहारण उत्तर प्रदेश में हुयी जातीय हिंसा, गुजरात, राजस्थान, मध्यप्रदेश और अन्य प्रान्तों में दलितों और आदिवासियों पर लगातार हमले हो रहे है। राष्ट्रिय अनुसूचित जाति आयोग और राष्ट्रिय क्राइम रिकार्ड ब्यूरो की रिपोर्ट भी भारत में दलितों और आदिवासियों के खिलाफ हो रहे जातीय हमले और इनके बढ़ती संख्या की पुष्ठि करते है।

हिन्दू धर्म के बहार समरसता शब्द का मतलब है हिन्दू सम्प्रदाय द्वारा अल्पसंख्यकों पर अपनी बात थोपना। हिन्दू, खासकर ब्राह्मण-सवर्ण, एससी-एसटी-ओबीसी आधारित किराये के संख्याबल को मोहरा बनाकर मुस्लिमो में आतंक पैदा करना चाहता है। जब से बीजेपी सरकार सत्ता में आयी है अल्पसंख्यकों पर हुए हमलों में इजाफा हुआ है। कुछ हिन्दू ऐसे है जो कि चाहते है कि मुस्लिम भारत माता की जय कहे, वन्देमातरम कहें, पाकिस्तान मुर्दाबाद के नारे लगायें, लेकिन क्या एक लोकतान्त्रिक देश में ये सब जायज है? यहाँ पर समरसता का मतलब है हिन्दू, खासकर ब्राह्मण-सवर्ण, के वर्चश्व को स्वीकार कर खुद को दूसरे दर्जे का नागरिक घोषित करना। भारत का हिन्दू ब्राह्मणी समुदाय यही चाहता है। इस तरह से समरसता शब्द भारत में भय और आतंक का प्रयाय बन चुका है। हिंदुओं ने अभी तक मुस्लिमों के साथ जो व्यहवार किया है वो पूरी तरह से अमानवीय, नाजायज और असंवैधानिक है। देश के किसी भी कोने में कहीं पर कोई हिंसा हो जाये या कोई बम फट जाये तो इसका ठीकरा मुस्लिमों के ही सर फूटता है जबकि समझौता एक्सप्रेस, मालेगाव, अजमेर ब्लास्ट आदि के दोषी हिन्दू आतंकी आज भी खुले आम घूम रहे है। गौरक्षा और बीफ के नाम पर मुस्लिमों पर हो रहे अत्याचार को बनाये रखने का नाम है बीजेपी की समरसता है। ऐसे में ये स्पष्ट है कि भारत में समरसता के नाम पर साम्प्रदायिकता का माहौल तैयार किया है। छूटे-छोटे बच्चों संग नवयुवकों को देशभक्ति के नाम पर गुमराह कर मानसिक तौर पर मानव बम बनाया जा रहा है। आम तौर पर लोगों के जहन में ये स्थापित किया जा रहा है कि आतंकवादी मतलब मुसलमान और मुसलमान मतलब आतंकवादी। नफ़रत का चश्मा पहनकर अपने आपको राष्ट्रभक्ति के तमगे से नवाजने वालों का मानना है कि पाकिस्तान मतलब मुसलमान और मुसलमान मतलब पाकिस्तान। इसी का नतीजा है कि भारत में संविधान निहित धर्म निरपेक्षता की बात करने वालों को, भारत के अल्पसंख्यक समुदाय के संविधान नहीं मूलभूत मानवाधिकारों की बात करने वालों को पाकिस्तान भेजने की बात की जाती है। ऐसे में ये स्पष्ट है कि समता को नकारकर भारत राष्ट्र कभी नहीं बन सकता है। हमारा स्पष्ट मत है कि समता को नकारना संविधान को नकारना है, लोकतंत्र व भारत में मानवता को नकारना है।

समावेशी समाज, समावेशी राजनीति, समावेशी अर्थजगत, समावेशी संस्कृति बनाने के लिए हमारा संविधान हज़ारों जातियों में बंटे समाज को स्वतंत्रता प्रदान कर समानता के धागें में पिरोंकर उनमें बंधुत्व की भावना पैदा करना चाहता है, लेकिन अपनी अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक अवैध कब्जात्मक सत्ता की बदौलत आरएसएस और ब्राह्मणी बीजेपी ने समानता को ही नकार कर दिया। अब शासन सत्ता का पूरी तरह से दुरूपयोग करके ये ब्राह्मण-सवर्ण और इनके गुलाम देश भर में समरसता की बात रहे है। समरसता को ही प्रचारित-प्रसारित कर रहे है। ये हर शहरी को सोचना चाहिए कि आखिर ब्राह्मणों-सवर्णों द्वारा समता को नकार कर समरसता का प्रचार-प्रसार क्यों किया जा रहा है?

हमारे विचार से, समता को नकार कर समरसता की बात करना मतलब कि यथास्थिति को बनाये रखना। मतलब कि जाति, जातिवाद को मज़बूत करना, आज़ादी के बजाय गुलामी को बढ़ावा देना, बंधुत्व के बजाय जातिवादी अत्याचार, अनाचार, व्यभिचार व आक्रमण की संस्कृति को सहर्ष स्वीकार करना, सम्प्रदायिकता व इस पर आधारित दंगों व हमलों का समर्थन करना, धार्मिक उन्माद व धार्मिक कट्टरता को सींचना, बहुजन द्वारा चंद मुट्ठीभर ब्राहम्णो-सवर्णों की गुलामी को अपना भविष्य बनाना, पुरुष-प्रधानता को स्वीकार करना, नारी अस्मिता को बेदर्दी से कुचलना, भारत संविधान के बजाय मनुवादी विधान के तहत जीवन-यापन करने की संस्कृति को अपनाना, निकृष्टतम सनातनी संस्कृति की दासता को आत्मसात करना, क्रूरतम वैदिक शैली में जीना, ब्राह्मणी षड्यंत्रों की साज़िस का शिकार बन अपने स्वाभिमान, आत्मसम्मान और अस्मिता को भूलकर ब्राह्मणों-सवर्णों की दासता को स्वीकार करना।

समता को नकार कर समरसता की बात करना, भारत द्वारा खुद के गले में खुद ही फाँसी का फन्दा डालकर खुद की हत्या करना है। समता की हत्या करना मतलब कि स्वतंत्रता व बंधुत्व की हत्या करना। बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर ने नवम्बर २६, १९४९ को संविधान सभा में कहा था कि स्वतंत्रता को समता से अलग नहीं किया जा सकता है। समता को बंधुत्व से अलग नहीं किया जा सकता है। और, समता व बंधुत्व, दोनों को स्वतंत्रता से अलग नहीं किया जा सकता है। कहने का मतलब साफ है कि ये तीनों एक साथ ही रहते है। इनमें से किसी को भी किसी से भी किसी भी परिथिति में कभी भी अलग नहीं किया जा सकता है। इनमे से किसी एक की भी हत्या, तीनों की हत्या होगी। तीनों की हत्या, भारत संविधान की हत्या होगी। समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व के सिद्धांत पर आधारित भारत संविधान की हत्या, भारत में मानवता की हत्या होगी। क्या भारत यही चाहता है ?

संक्षेप में कहें तो बीजेपी, आरएसएस और अन्य हिन्दू आतंकी संगठनों के द्वारा बार-बार इस्तेमाल लिए जाने वाले समरसता शब्द का मतलब है यथा स्थिति को बनाये रखना है। फिर चाहे वो हिन्दू सामाजिक व्यवस्था के भीतर हो या फिर बाहर। इनका समरसता अभियान भारत के राष्ट्र निर्माण की प्रक्रिया में पूरी तरह से बाधक है। ये बाबा साहब के जाति उन्मूलन के सिद्धांत के खिलाफ है, ये समरसता संविधान के अनुच्छेद १४,१५,१६,१७, और २१ के खिलाफ है। ये हिन्दू संगठन नहीं चाहते है कि देश के दबे-कुचले समाज को आगे बढ़ने का मौका मिले, ये भारत में मुस्लिमों के वज़ूद को भी नकारने का प्रयास करते रहे है, ये इसिहास को सदा तोड़-मरोड़ कर पेश करते आये है और संविधान को भी अपने स्वार्थ के लिए तोड़-मरोड़ रहे हैं। इनकी ये समरसता देश को बाँटने का एक षड्यंत्र है। देश ने पहले भी गुलामी झेली है तो इसकी एक मुख्य वजह ये मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी लोग ही थे। १९४७ में देश बटता है तो इसके कर्ताधर्ता कोई और नहीं, बल्कि ये ब्राह्मणी लोग ही थे, जो आज सबसे देशभक्ति का सर्टिफिकेट मांगते फिर रहे है। यदि हम सावरकर, तिलक, उपाध्याय, अटल बिहारी, मालवीय, गोलवलकर जैसे लोगों के इतिहास पर नजर डाले तो ये सब के सब भगोड़े थे जिन्होंने अपने स्वार्थ के लिए देश से भी गद्दारी करने में नहीं चूके है। आज यही भगोड़े भारत रत्न और राष्ट्रप्रेम का प्रतीक बन चुके है। इन गद्दारों और भगोड़ों को देश का निर्माता साबित करना ही बीजेपी का राष्ट्रनिर्माण है, और लोगों द्वारा इनके एजेण्डे को स्वीकृति व नारीविरोधी जातिवादी मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म व इसकी व्यवस्था पर आधारित शोषणवादी-अत्याचारी-व्यभिचारी-अमानवीय-गैरबराबरी की इस स्थिति को बनाये रखना ही इनकी समरसता।

ऐसे में भारत के लोगों को आधुनिक भारत में चल रहे द्वन्द को समझना होगा। बाबा साहेब डॉ आंबेडकर कहते है कि यदि भारत के इतिहास पर नजर डाले हो हम पाते है कि भारत का इतिहास कुछ और नहीं बुद्धिज़्म बनाम ब्रह्मनिज़्म का द्वन्द मात्र रहा है। ब्राह्मणी षड्यंत्रों के कारण भारत की सरज़मी से बुद्धिज़्म का लगभग पूरी तरह से अंत हो चुका था। लेकिन बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर ने मानवता को ध्यान में रखते हुए भारत को भारत की मूल सभ्यता से परिचय कराया। भारत के मूलनिवासी बहुजन समाज को धम्म में पुनर्मिलन करवाया। बाबा साहेब ने अक्टूबर १४, १९५६ को नागभूमि की धरती पर अपने मिलियन्स अनुयायियों के साथ क्रूर अमानवीय ब्राह्मणी हिन्दू का परित्याग कर बौद्ध धम्म की दीक्षा ली। परिणाम स्वरुप भारत में बुद्धिज़्म का फिर से उदय हुआ।

बाबा साहेब के महापरिनिर्वाण के बाद बहुजन राजनीति में सन्नाटा हो गया। बहुजन पुनः कांग्रेस आदि के शिकंजे में फंस गया। लेकिन बाबा साहेब के परिनिर्वाण के बाद १९७० के दशक में मान्यवर काशीराम साहेब के रूप में एक नए बहुजन महानायक का आग़ाज़ हुआ। कालांतर में मान्यवर काशीराम साहेब ने बामसेफ, डीएस-4 और फिर बहुजन समाज पार्टी का गठन किया जिसकी बदौलत सदियों से गुलाम रही अछूत कौम देश की हुक्मरान जमात में शामिल हो गयी। भारतीय काशीराम के उदय के बाद राजनीति के नए समीकरण ने देश की ब्राह्मणी व्यवस्था को खुलेआम चुनौती दे दी। राजनीति के फलक पर आये परिवर्तन ने भारत में अमूल-चूल सामाजिक परिवर्तन को तीव्र वेग दे दिया। परिणामस्वरूप अम्बेडकर युग के बाद का इतिहास जय श्रीराम बनाम जय भीम बन गया।

ऐसे में लोगों, खासकर बहुजन समाज, को जय श्रीराम और जय भीम के अंतर को बारीकी से समझना होगा। जहां एक तरफ जय श्रीराम जातियों के बीच वैमनस्य की बात करता है वही दूसरी तरफ जय भीम जाति को बीमारी मानकर उसके शल्य चिकित्सा की बात करता है। जहां एक तरफ जय श्रीराम बहुजन को गुलामी में जीने को मजबूर करता है वही दूसरी तरफ जय भीम सभी के आज़ादी के लिए संघर्षरत है। जहां जय श्रीराम सम्रदायिकता का पैरोकार है वही दूसरी तरफ जय भीम सभी के लिए बंधुता स्थापित करना चाहता है। जहां एक तरफ जय श्रीराम का एजेंडा समरसता का है तो वही दूसरी तरफ जय भीम का एजेण्डा न्याय, समता, स्वतंत्रता व बंधुता का है। कहने का तात्पर्य यह है कि समरसता में व्यवस्था वही रही है, व्यवस्था को चलने वाले लोग भी वही रहते है। इससे स्पष्ट है कि समरसता का मतलब यथास्थति को बनाये रखना है।


हमारे विचार से, भारत को किसी भी हिन्दू आतंकी या अन्य अमानवीय संकल्पना और शब्दों की जरूरत नहीं है। भारत निर्माण और समतामूलक समाज की स्थापना के लिए हमें जो कुछ भी चाहिए बाबा साहेब ने अपने अथक परिश्रम से सब कुछ लिख दिया है। आज जरूरत है कि देश बाबा साहेब के संदेशों को समझें, देश के खिलाफ कार्य कर रहे हिन्दू बहुसंख्यकों को जाने-पहचाने। क्योकि भारत निर्माण और मानवीय समाज का मन्त्र न्याय, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व में निहित है। इसके अलावा हमें किसी भी अन्य समरसता जैसे शब्दों की फ़िलहाल कोई आवश्यकता नहीं है। इसलिए यदि आप सब भारत निर्माण और भारत में समतावादी सामाजिक व्यवस्था स्थापित करना चाहते हो तो आगे बढ़ो, उखड फेकों ब्राह्मणी सामाजिक व्यवस्था को, बहिष्कार करों मंदिरों का, जला डालों ब्राह्मणी धर्मग्रंथों को, तिरस्कार करों आरएसएस-बीजेपी जैसी आतंकी मानसिकता वाले सामाजिक व राजनितिक दलों का। यही भारत में मानवता और भारत देश के प्रति देश की जनता का मानवीय, लोकतान्त्रिक और संवैधानिक कर्तव्य है।
जय भीम, जय भारत ॥ 

रजनीकान्त इन्द्रा, इतिहास छात्र, इग्नू, अगस्त १८, २०१६
(Published in August 2018, Page No.-31, Depressed Express)

राखी - नारी शक्ति का अपमान

साथियों,
हमारा भारत त्यौहारों के देश है। इस भारत में विभिन्न धर्म और मान्यताओं के मानने वाले लोग रहते है। इन सभी का अपने अलग-अलग त्यौहार है। इसी कड़ी में आज हम बात करते है राखी के त्यौहार का। वैसे तो राखी के त्यौहार के अलग-अलग मायने बताने का प्रयास किया गया है। कुछ लोग इसे हिन्दुओ का त्यौहार कहते है तो कुछ लोग भाई-बहन का त्यौहार कहते है तो कुछ लोग इसे पूरी तरह से सेक्युलर त्यौहार मानते है। ये लोगों की अपनी-अपनी मान्यता हो सकती है, लेकिन यदि हम राखी या रक्षाबंधन के मूल अर्थ को समझे और इसके ऐतिहासिक पृष्ठिभूमि को देखें तो निःसंदेह रक्षाबंधन हिन्दू का और खासकर ब्राह्मणों का त्यौहार है। हिन्दू के शास्त्रों में राखी का बाकायदा जिक्र है। 
हालांकि यह सच है कि भारत में जैन धर्म आदि के लोग भी राखी को एक अलग मायने के चलते  मनाते है। 
साथियों,
इस तरह से रक्षाबंधन के अनेक रूप दिखाई पड़ते है लेकिन यदि इसकी शुरुआत की बात करे तो राखी निसंदेह एक हिन्दू ब्राह्मणी त्यौहार है। अब यदि हम राखी के अलग-अलग पहलुओ को देखे तो देवासुर संग्राम के एक पत्नी अपने पति को राखी बढ़ती, गुरु-शिष्य एक दूसरे को राखी बांधते है, स्कन्ध पुराण, पद्मपुराण और श्रीमद्भागवत में वामनावतार नामक कथा में किये वर्णन के अनुसार बलि का साम्राज्य छीनने के वामन ब्राह्मण बलि को राखी बँधता है, ब्राह्मणों द्वारा रचित वैश्यावृति से ओत-प्रोत महाभारत में भी द्रौपदी द्वारा कृष्ण को और कुंती द्वारा अभिमन्यु को राखी बांधने का जिक्र मिलता है, पुरोहित अपने गुलाम यजमानों को राखी बांधता है, राजपूत महिलायें अपने राजपूतों को राखी बांधती है, कर्मावती-हुमायूँ और बंग-भंग के दौरान भी रक्षाबंधन का जिक्र मिलता है। इतने सारे अलग-अलग परिप्रेक्ष्य में राखी का अस्तित्व होने के बावजूद राखी भाई-बहन का त्यौहार माना जाता है।
यदि हम राखी के सामाजिक प्रभाव पर डालें तो हम कि राखी का त्यौहार एक सबल पक्ष द्वारा दूसरे पक्ष को निर्बल होने का एहसास जताना। मतलब साफ है कि पुरुष प्रधान समाज नारी को निर्बल और अबला बताने का प्रयास हर संभव ढंग से करता चला आ रहा है। समाज में रीति-रिवाज और त्यौहारों के नाम पर वर्चश्व पसन्द सामंती विचार धारा को बनाये रखने रखने के लिए मनुवादियों द्वारा गढ़ा गया एक और  रक्षा बंधन। 
बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा प्रतीक मानवता मूर्ती समता नायक बाबा साहेब डॉ आंबेडकर द्वारा रचित संविधान जहाँ नारी पुरुष के समानता की बात करता है वही ब्राह्मणी मनुवादी लोग पुरुष प्रधानता को कायम रखने के लिए रक्षबंधन जैसे त्यौहारों को बढ़ावा देते आ रहे है। 
साथियों,
इन्द्राणी ने इंद्र को रक्षा सूत्र बाँधा लेकिन कोई भी हिन्दू अपनी पत्नी से रक्षाबंधन नहीं बँधवाता है, आखिर क्यों? इसका जबाब यही हो सकता है कि यदि पत्नी पति की रक्षा के लिए राखी बांधती है तो पुरुष कमजोर नज़र आता है और नारी सशक्त क्योकि जब इंद्र कमजोर पड़ा था तब ही उसकी पत्नी इन्द्राणी ने उसे रक्षाबंधन का धागा बांध था। लेकिन जब पुरुष अपनी बहन से राखी बंधवाता है तो उसी समय ये साबित हो जाता है पुरुष प्रधान अहि और नारी एक आश्रित मात्र। इसी तरह जब बहन अपने भाई को राखी बांधती है तो वो बहन खुद को खुद ही कमजोर साबित कर देती है।
साथियों,
दुनिया में सबसे बड़ा बंधन है हमारे प्यार, विश्वास, मानवता और हमारे जैविक रिश्ते। यदि हमारे जैविक रिश्ते हम बही-बहनों को एक सूत्र में नहीं बांध सकता है तो मामूली रेशम का धांगा कैसे बाँध सकता है।
रजनीकान्त इन्द्रा 
इतिहास छात्र, इग्नू 

अगस्त १७, २०१६

Monday, August 15, 2016

आज़ादी

साथियों,
आज लालकिले के प्राचीर से, हमारे प्रधानमंत्री ने आज़ादी की शुभकामना दी लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आज़ादी को स्पष्ट नहीं किया। यहाँ हम प्रधानमंत्री से आज़ादी का मतलब इसलिए पूछ रहे है क्योकि मोदी के लिए आज़ादी का मतलब शायद वो नहीं है जो हम जानते है। यदि नरेंद्र मोदी के पृष्ठभूमि पर नजर डाले तो हम पाते है कि मोदी के लिए आज़ादी का मतलब आरएसएस द्वारा तय की गयी आज़ादी है। आरएसएस द्वारा परिभाषित आज़ादी का मतलब- एक राष्ट्र, एक भाषा, एक संस्कृति और एक प्रतीक वाले हिन्दू राष्ट्र का निर्माण करने की आज़ादी है। इस आज़ादी का सीधा सम्बन्ध मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी व्यवस्था को बढ़ावा देने से है। इसलिए नरेंद्र मोदी द्वारा आज़ादी की परिभाषा को स्पष्ट करने की नितान्त आवश्यकता थी लेकिन माननीय प्रधानमंत्री ने आज़ादी की बधाई तो दिया लेकिन आज़ादी को स्पष्ट नहीं किया। इसलिए लालकिले के प्राचीर से प्रधानमंत्री द्वारा बोले गए आज़ादी शब्द मतलब पूरी तरह से संदिग्ध है। 
साथियों, 
हम सब आज़ादी का पर्व बड़े धूम-धाम से मानते आ रहे है, लेकिन क्या हम सब के लिए आज़ादी का मतलब एक ही है? यह एक सोचने का विषय है। भारत जैसे विविधतापूर्ण समाज में, आज़ादी का मतलब अलग-अलग लोगों के लिए अलग हो सकता है। हम तो यहाँ तक कहेगें कि भारत में आज़ादी का मतलब हर फिरके के लिए अगल-अलग ही है। भारत में आज़ादी का मतलब भारत की विविधता के अनुसार अलग-अलग बिल्कुल स्पष्ट दिखाई पड़ती है। सवर्णों के लिए आज़ादी का मतलब है दलितों पर अपना दब-दबबा बनाये रखने की आज़ादी; ब्राह्मणों के लिए आज़ादी का मतलब है मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म को बढ़ावा देने की आज़ादी; पूजीपतियों के लिए आज़ादी का मतलब है समाज के दलित-आदिवासी लोगों को उनकी जंगल और जमीन से वंचित कर अपनी पूँजी का विस्तार करना इत्यादि। लेकिन हमारे लिए, हमारे देश के वंचित तबको के लिए और हमारे देश के संविधान के लिए आज़ादी का मतलब है- स्वाभिमान से जीने का हक, आत्मसम्मान से रहने का हक़, संविधान में निहित अधिकारों का हक़।
साथियों,
आज़ादी के इतने दशक बीत जाने के बाद भी हमारा समाज (दलित) अपने स्वाभिमान, सम्मान और हक़ लिए आज भी वही खड़ा नज़र आता है जहाँ वह सदियों पहले था। ऐसी क्या वजह है की देश के चंद मुट्ठी भर लोगों ने अपने ही देश की एक बड़ी आबादी पर आज भी वही अमानवीय अत्याचार कर रहे है जो सदियों पहले था। ये शोषणवादी सामंती वर्ग, क्यों इस व्यवस्था को बनाये रखने के लिए लड़ रहा है। 
साथियों,
मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी सामन्ती विचारधारा के लोगों के लिए आज़ादी का मतलब है- शोषणवादी व्यवस्था को किसी भी कीमत पर बनाये रखना; उनके लिए अधिकार का मतलब है शोषण करने का अधिकार; उनके लिए आज़ादी का मतलब है शोषण करने की आज़ादी, मनुवादी आतंकवाद को बढ़ावा देने की आज़ादी, छुआछूत और जातिपात को चरम पर पहुँचाने की आज़ादी, गरीब दलित आदिवासी महिलाओं की अस्मिता के साथ खेलने की आज़ादी। 
साथियों, 
भारत के मनुवादियों ने हर शब्द के मायने को बदलने का भरपूर प्रयास किया है और उनका ये प्रयास आज भी जारी है। यदि आप नजर डाले तो आप पाएंगे कि आज की मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी बीजेपी सरकार ने इतिहास का मायने बदलने के लिए सबसे पहले इतिहास पर प्रहार किया, इतिहास को मनुवाद की जमीं से खोदकर निकालने वाले विश्वविद्यालयों पर आघात, संविधान में निहित समानता शब्द को समरसता बताने की प्रयास, दलितों पर अत्याचार की ब्राह्मणी परम्परा को बढ़ावा देने का प्रयास, दलितों की आवाज दबाने का प्रयास, दलित महापुरुषों को इतिहास के पन्नो से हटाने का प्रयास। 
साथियों,
हमारे विचार से, आज़ादी का असली मतलब वही जान सकता है जिसको मूलभूत मानवीय अधिकारों से वंचित रखकर उसके साथ जानवरों से भी बद्तर व्यवहार किया गया हो। 
साथियों,
हमारे विचार से आज़ादी का मतलब होता है- देश के हर शहरी का अधिकारों के अधिकार के साथ जीने का अधिकार; हर इंसान को बिना किसी भी भेद-भाव के स्वाभिमान और आत्मसम्मान के साथ जीने का हक़, लोकतंत्र के हर क्षेत्र के हर स्तर पर हमारे समुचित प्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी का अधिकार और समानता का हक़। हमारा अधिकारों के जीने का अधिकार ही हमारी आज़ादी का आइना है। हमारे अधिकार ही हमारी आज़ादी का मापदंड है। 
साथियों,
हमारी आज़ादी सिर्फ तब तक ही सुरक्षित है जब तक कि हमारे अधिकार। यदि हमारे अधिकारों पर अतिक्रमण होता है तो हमारी आज़ादी पर अतिक्रमण होता है। हमारे निगाह में आज़ादी और अधिकार एक दूसरे के सम्पूरक है। यदि हम भारत में दलित-आदिवासी तबको की सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक स्थिति पर गौर करे तो हमें सिर्फ उनकी ही नहीं बल्कि भारत की भी आज़ादी और अधिकारपूर्ण जीवन संदिग्ध नज़र आता है क्योकि देश की एक बड़ी आबादी के सम्मनपूर्ण जीवन, स्वाभिमानमय अस्मिता, देश की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में इन तबकों की समुचित प्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी को नज़रअंदाज कर भारत कभी स्वतन्त्र नहीं हो सकता है। भारत की आज़ादी देश के दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक आज़ादी में ही निहित है। 
जय भीम, जय भारत! 
रजनीकान्त इन्द्रा 
इतिहास छात्र, इग्नू 
अगस्त १५, २०१६ 

Happy Independence Day 2016 - Quotes





भारत ये तेरा दुर्भाग्य है! - Quotes