Thursday, August 31, 2017

Tuesday, August 29, 2017

ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति के खिलफ अपनी अस्मिता की लड़ाई लड़ने वाली मातृ शक्ति को सलाम

भारत की सरज़मी को ऋषिओं-मुनियों और बाबाओं की धरती कहा जाता है। भारत के प्राचीन इतिहास को ऋषिओं-मुनिओं से जोड़ा जाता है। कहा जाता है कि वे बहुत विद्वान लोग होते थे, महान लोग होते थे। साथ-साथ दुनिया को बनाने वाले भगवानों के सारे अवतार भारत में ही हुए। ये सब तथ्य नहीं बल्कि भ्रमित करने वाले मनगंढ़त किस्से है जिन्हें बड़ी ही धूर्तता से लिपिबद्ध करके इतिहास का रूप दे दिया गया। इसी अन्धविश्वास पर आधारित इतिहास ने आज के आधुनिक भारत में भी बाबाओं की सत्ता को जीवित रखा है।

भारत की इसी कुतर्कपूर्ण ब्राह्मणी संस्कृति की बदौलत आज मी हमारे भारत में आसाराम, रामपाल, गुरमीत राम-रहीम जैसे बलात्कारी बाबा घूम रहे है। यदि भारत की ब्राह्मणी संस्कृति पर नज़र डाले तो हम पाते है कि ब्राह्मणी संस्कृति महिलाओं के शोषण और शूद्रों व वंचितों की गुलामी पर ही आधारित है। ऋग्वेद हो या अन्य सब वेद-पुराण व भागवत गीता जैसे सभी शास्त्रों और उनमे वर्णित कर्मकाण्डों में महिलाओं का यौन शोषण आम है। यही पुरुषवादी नारी-विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति, धर्म व व्यवस्था का सार है।

यज्ञों परम्परा भी बलि, सुरापान और महिलाओं के साथ यौन-आनन्द पर आधारित है। यज्ञ की इसी यौन-आनन्द विधि के तहत ही वृद्ध दशरथ के चार पुत्र हुए। मतलब कि दशरथ के चारों पुत्र दशरथ की नहीं बल्कि दशरथ के दामाद, ऋषि श्रृंगी, के पुत्र थे। बाल्मीकि कहते है कि ऋषि श्रृंगी, जो कि दशरथ के दामाद थे, की कृपा से दशरथ की तीनों रानियों को गर्भ धारण हुआ था। वाल्मीकि रामायण के बालकांड के अनुसार –

इक्ष्वाकूणाम् कुले जातो भविष्यति सुधार्मिकः |

नाम्ना दशरथो राजा श्रीमान् सत्य प्रतिश्रवः || काण्ड 1 सर्ग 11 श्लोक 2

अर्थ - ऋषि सनत कुमार कहते हैं कि इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न दशरथ नाम के धार्मिक और वचन के पक्के राजा थे।

अङ्ग राजेन सख्यम् च तस्य राज्ञो भविष्यति |

कन्या च अस्य महाभागा शांता नाम भविष्यति || काण्ड 1 सर्ग 11 श्लोक 3

अर्थ - उनकी शांता नाम की पुत्री पैदा हुई जिसे उन्होंने अपने मित्र अंग देश के राजा रोमपाद को गोद दे दिया, और अपने मंत्री सुमंत के कहने पर उसकी शादी श्रृंगी ऋषि से तय कर दी थी ,

अनपत्योऽस्मि धर्मात्मन् शांता भर्ता मम क्रतुम् |

आहरेत त्वया आज्ञप्तः संतानार्थम् कुलस्य च || काण्ड 1 सर्ग 11 श्लोक 5

अर्थ - तब राजा ने अंग के राजा से कहा कि मैं पुत्रहीन हूँ, आप शांता और उसके पति श्रंगी ऋषि को बुलवाइए मैं उनसे पुत्र प्राप्ति के लिए वैदिक अनुष्ठान कराना चाहता हूँ।

श्रुत्वा राज्ञोऽथ तत् वाक्यम् मनसा स विचिंत्य च |

प्रदास्यते पुत्रवन्तम् शांता भर्तारम् आत्मवान् || काण्ड 1 सर्ग 11 श्लोक 6

अर्थ - दशरथ की यह बात सुन कर अंग के राजा रोमपाद ने हृदय से इस बात को स्वीकार किया, और किसी दूत से श्रृंगी ऋषि को पुत्रेष्टि यज्ञ करने के लिए बुलाया।

आनाय्य च महीपाल ऋश्यशृङ्गं सुसत्कृतम्।

प्रयच्छ कन्यां शान्तां वै विधिना सुसमाहित।। काण्ड 1सर्ग 9 श्लोक 12

अर्थ - श्रंगी ऋषि के आने पर राजा ने उनका यथायोग्य सत्कार किया और पुत्री शांता से कुशलक्षेम पूछकर रीति के अनुसार सम्मान किया।

अन्त:पुरं प्रविश्यास्मै कन्यां दत्त्वा यथाविधि।

शान्तां शान्तेन मनसा राजा हर्षमवाप स:।। काण्ड 1 सर्ग10 श्लोक 31

अर्थ - (यज्ञ समाप्ति के बाद) राजा ने शांता को अंतःपुर में बुलाया और और रीति के अनुसार उपहार दिए, जिससे शांता का मन हर्षित हो गया।

इसी तरह से कुन्ती और दुर्वासा भी कर्ण के नाज़ायज़ माँ-बाप थे। दुर्वासा ने सुन्दर कुंती की सुंदरता से मन्त्र-मुग्ध होकर ही कुन्ती को अपने यज्ञ के लिए राजा कुंतभोज से माँग लिया। फिर यज्ञ के यौन-आनन्द के तहत कर्ण का जन्म हो गया। अपने इस कृत्य को छिपाने के लिए सूर्य, जो कि आग के एक बड़े गोले के सिवा कुछ नहीं है, को कर्ण का बाप बना दिया। मतलब कि इन ब्राह्मणों ने अपने कृत्यों को छिपाने के लिए सूर्य चन्द्रमा और अन्य ग्रहों को भी नहीं बक्सा है।

कहने का तात्पर्य यह है कि मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी संस्कृति ही गुलामी और यौन-आनन्द पर आधारित है। तथाकथित महात्मा करमचंद गाँधी के बारे में "महात्मा और मधुबन" इंडिया टुडे ने अपने कवरपेज पर स्थान दिया है। इसमें अहमदाबाद से शत्रुघन शर्मा ने "अनेक लड़कियों के साथ निर्वस्त्र सोते थे बापू" नमक लेख लिखा है। ब्रिटेन के किसी म्यूजिम में रखी गाँधी-हरिमोहन चिट्ठी के हवाले से कुछ ऐसी ही कहानी दैनिक जागरण ने हरिमोहन के बारे में छपी थी जिसमे गाँधी अपने बेटे हरिमोहन को अपनी बेटी के साथ यौन-सम्बन्ध के लिए समझते है। फ़िलहाल गाँधी खुद सब कुछ करते थे तो ठीक था उनके बेटे ने अपनी बेटी से किया तो गलत, क्यों ? यही ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति है, गाँधी इसी के उपासक थे, इसी संस्कृति के लिए पूरी जिन्दगी बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा प्रतिक नारी-अस्मिता रक्षक बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर से लड़ते रहे।

ऐसे में यदि गुरमीत राम-रहीम जैसे धर्म धुरंधर किसी नाबालिक लड़कियों, अपनी मुँह बोली बेटियों के साथ, के साथ ही सही यदि यौन-सम्बन्ध बनाते है तो ये किसी भी तरह से मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी संस्कृति व धर्म के खिलाफ नहीं है। भारत की इसी ब्राह्मणी संस्कृति के चलते ही आरएसएस, विश्व हिन्दू परिषद्, बीजेपी, अन्य सभी ब्राह्मणी संगठन और इनके भक्त अदालत में आईपीसी के तहत गुनाह साबित होने के बाद भी इनके साथ पूरी निष्ठा से खड़े होते है। बीजेपी सांसद साक्षी महाराज, अमित शाह और सुब्रमणियम स्वामी आदि इसी कारण आशाराम, रामपाल, गुरमीत राम-रहीम जैसे बलात्कारियों के साथ खड़े होते है। यही इनकी संस्कृति है, यही इनका धर्म है, यही इनका ईमान है, यही इनका वज़ूद है।

यदि और गहराई में जाकर ब्राह्मणी संस्कृति को देखे तो मंदिरों की देवदासी प्रथा, जो कि आज भी दक्षिण भारत में सहज़ है, प्रमाणित करते है कि ब्राह्मणी मन्दिर कुछ और नहीं धर्म की आड़ में समाज के रईशों व ब्राह्मणों के भोग-विलास का केंद्र मात्र है। इसे और सरल भाषा में कहें तो ब्राह्मणी मंदिर कुछ और नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ धार्मिक वैश्यालय है। मंदिरों और मठों में आज भी समाज सेवा, अध्यात्म, भक्ति आदि के नाम यही वैश्यवृति का धंधा ही होता है। यही ब्राह्मणी मंदिरों और मठों की नंगी सच्चाई है।

मंदिरों और मठों (जैसे कि सोमनाथ मन्दिर, मथुरा के मन्दिर, आयोध्या आदि) को मुस्लिम शासकों द्वारा ध्वस्त किया जाना कोई आम घटना नहीं है। ग़ज़नवी ने इन सभी मंदिरों और मठों से हज़ारों-हजार देवदासियों को ब्राह्मणों और सामंतों के चंगुल से मुक्त करने के ही इन सभी ब्राह्मणी मन्दिरों व मठों पर हमला कर नेस्तनाबूत किया था। लेकिन, भारत के तब के पढ़े-लिखे लोग ब्राह्मण ही होते थे। इसलिए इन सभी ब्राह्मण व ब्राह्मणी इतिहासकारों ने सोमनाथ आदि मंदिरों व मठों पर हुए हमलों के मुख्य कारण को छिपाते हुए ग़ज़नवी द्वारा सोना लूटने की झूठी बात को इतिहास बनाकर परोस दिया। दुर्भाग्य है भारत के छात्रों को जो भारत की ब्राह्मणी संस्कृति से वाकिफ ना होकर गलत फहमी में जी रहे है, ग़लत इतिहास पढ़ रहे है।

यदि आगे शोषणवादी ब्राह्मणी संस्कृति के इतिहास को देखे तो तथाकथित हिन्दुओं की लडकी का जब विवाह होता था तो ब्राहमण द्वारा दूल्हा दुल्हन की अग्नि के फेरी लगवाकर अग्निपरीक्षा ली जाती थी और विवाह सम्पन्न मान लिया जाता था। शादी होने के पश्चात् दुल्हन के पिता द्वारा विष्णु को कन्यादान किया जाता था। जब कन्यादान विष्णु को हो जाता है तो मतलब की कन्या की शादी विष्णु के साथ हो जाती है तो फिर सुहागरात भी विष्णु ही मनाएगा। लेकिन विष्णु नाम का कोई है ही नहीं इसलिए ब्राह्मण अपने षड्यंत्र को जायज ठहरने के लिए कहता है –

देवों धीनम जगत, मंत्रो धीनम च देवता।

ते मन्त्रे ब्राह्मण धीनम, तस्मात् ब्राह्मण देवता।।

इस मन्त्र से ब्राह्मण ये सिद्ध करता है कि संसार का सबसे बड़ा देवता खुद ब्राह्मण ही है। अतः विष्णु के स्थान पर वह नव विवाहिता के साथ सुहागरात मानाने का अधिकारी है। और इसी अधिकार के तहत ब्राह्मण नव विवाहिता के साथ तीन रात सुहागरात मनाता है, नव विवाहिता को शुद्ध करता है। इसे ही शुद्दिकरण या डोला प्रथा कहा जाता है। शुद्दिकरण के दौरान दुल्हन व दूल्हे को ब्राहमण के घर की साफ-सफाई व अन्य घरेलू कार्य भी करने पडते थे। और फिर तीन-दिन-तीन रात पूरा होने पर नव विवाहिता को उसके पति को सौप देता है।

आज भी लडके-लडकी के विवाह के समय, पिता अपनी लडकी का कन्यादान विष्णु को करता है और पंडित से दुल्हन व दूल्हे का शुद्धीकरण करवाने के लिये, लडकी के पिता से "हां" करवाई जाती है। फिर व्राह्मण द्वारा दुल्हन के कान में और दूल्हे के पीठपीछे में फूंक मारी जाती है और दूल्हे व दुल्हन का शुद्धिकरण मान लिया जाता है। यह भी माना जाता है कि ब्राह्मणों द्वारा दुल्हन की शादी विष्णु से करवाई जाती है और दूल्हे को विष्णु का अंश(बीज) माना गया है। परन्तु प्रतीकात्मक रुप से शुद्धिकरण-प्रथा आज भी जारी है।लेकिन दक्षिण भारत के कुछ हिस्सों में प्रथा अब भी बदस्तूर जारी है बस उसका स्वरुप जरूर बदला गया है।

डोलाप्रथा जिसके तहत शादी के बाद लड़कियों को शादी के बाद पहले के तीन दिन और तीन रातें अपने पति के साथ ना रह कर ब्राह्मण के साथ रहना पड़ता था, सोना पड़ता था। इसे ब्राह्मण शुद्धिकरण का नाम देता है। कहने का मतलब यह है कि लड़किया अशुद्ध होती है। इसलिए शादी के बाद पहले तीन दिन-तीन रात ब्राह्मण लड़कियों को शुद्ध करता है फिर वो अपने पति के लायक होती है। ये शुद्धिकरण की डोला प्रथा क्या है? ब्राह्मणी संस्कृति में शादी भी एक अनुष्ठान है। ये एक यज्ञ की तरह है। ब्राह्मण अपने यौन आनन्द के लिए ही इस निकृष्ट प्रथा को जन्म दिया था। धन्यवाद, अंग्रेजी हुकूमत का जिसने सन 1819 में "अधिनियम 7" द्वारा इस शुद्धीकरण प्रथा पर रोक लगा दी थी।

यदि पुरुषवादी नारी-अस्मिता विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति, धर्म व व्यवस्था ही यही है तो ऐसे में इनके धर्म बाबाओं, गुरुओं, महात्माओं द्वारा करना, जो इनके तथाकथित महान ऋषियों, मुनियों और बाबाओं ने किया है, नाबालिक के साथ बलात्कार करना, अपनी मुँह बोलीबेटीयों और भक्तों संग यौन-आनन्द क्रीड़ा करना, अपनी पोतियों के साथ निर्वस्त्र सोना आदि कोई नयी बात नहीं है। यही पुरुषवादी नारी-अस्मिता विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति, धर्म व व्यवस्था है। इस पूरे व्यवस्था को छोटे और सरल भाषा में ब्राह्मणवाद कहते है।

ऐसे में आज के वैज्ञानिकता वाले समाज में भी इस तरह की शोषणवादी व्यवस्था में आम इन्सान कैसे फँस जाता है? ये हमारे सामाजिक विचारकों, चिंतकों और विद्वानों के बहुत ही महत्वपूर्ण सवाल है। महानतम समाजशास्त्री बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर ने कहा है, "ब्राह्मणवाद ब्राह्मणों के ज्ञान पर नहीं बल्कि शूद्रों और अतिशूद्रों के अज्ञान पर टिका है।" यदि आज के समय में भी सजा याफ्ता बलात्कारी बाबाओं के भक्तों की फौज है तो इसका एक मात्र कारण है कि इनके भक्तों (जो कि प्रायः शूद्र और अतिशूद्र तबके से आते है) तक ज्ञान पहुँच ही नहीं पाया है। हमारी सरकारें वैज्ञानिक शिक्षा का चाहे जितना ढिढोरा पीट लेकिन सच्चई यही है कि भारत के डिग्रीधारक, जो अपने आपको आधुनिक और शिक्षित समझते हुए आधुनिक और शिक्षित होने की गलत-फहमी में जी रहे है, भी पूरी तरह से अंधविश्वासी और अज्ञानी है। क्योंकि गुरमीत राम-रहीम जैसे बाबाओं के आर्थिक तंत्र को देखे तो निःसंदेह हम कह सकते है कि ग़रीब समाज भीड़ तो जुटा सकता है लेकिन आर्थिक सहयोग नहीं कर सकता है। ऐसे में ऐसे बाबाओं के पास सोने का चढ़ावा, लाखों का दान, हज़ारों एकड़ में फैली ज़मीने कौन मुहैया करता है ? निःसंदेह, ये पढ़ा-लिखा डिग्रीधारक सम्पन्न वर्ग ही है।

बलात्कारी संस्कृति के तहत बलात्कारी बाबाओं के लिए जो भीड़ इकट्ठा होती है। उसके भी कई पहलु है। पहला, इनके मठ और आश्रम धर्म, अध्यात्म और समाज सेवा के नाम पर सबसे सुरक्षित वैश्यालय है। अध्यात्म की बात करते है। समाज के लिए अस्पताल आदि बनवा दिए जाते है। धर्म के नाम पर लोग शौक से बेहिचक जाते है। ब्राह्मणी व्यवस्था के तहत इन स्थानों पर जाना समाज के एक अच्छा चरित्र जाता है। माँ-बाप अपने बच्चों को, सास-ससुर अपनी बहुओं को, माँ-बाप अपनी बेटियों को, पति अपनी पत्नी को आदि सब यहाँ जाते है। ऐसे में ऐसे सभी स्थान सम्मान प्राप्त होते है। इन सबसे इनके मूल चरित्र को धर्म, अध्यात्म और समाज सेवा का सफ़ेद चादर मिल जाता है। इस सफ़ेद चादर के अन्दर इनका असली धन्धा चलता है-देवदासी प्रथा पर आधारित वैश्यावृति का आज का धन्धा। 

तमाम चारित्रिक रूप से भ्र्ष्ट समाज के रसूखदार, बड़े-बड़े राजनेता, शासन-सत्ता और अन्य सभी उच्च पदों पर बैठे लोग जो काम कहीं और नहीं कर सकते है वे लोग अपनी ऐय्यासी का बेहतरीन स्थान ऐसी जगहों पर ही पाते है। बाबाओं की कृपा से यहाँ पर उनकी सेवा में अनगिनत भक्त लड़कियाँ और भक्त औरते उपलब्ध रहती है। अक्सर ग़रीब और मज़बूर औरते बाबा के चमत्कार के चलते वहाँ जाती और बाद में उनके तिलस्म में फँसकर शोषण की आदि हो जाती है। 

ऐसे में जब बाबा इन वीआईपी लोगों की इतनी सेवा करते है तो बाबा के चमत्कार के लिए ये वीआईपी लोग भी अपना पूरा-पूरा योगदान करते है। ग़रीब जनता, जिसके पास खाने तक को नहीं है और जो इन बाबाओं के चंगुल में फसती है, उसकी समस्या कितनी बड़ी हो सकती है। आप अंदाज़ा लगा सकते है। ऐसे में वीआईपी लोगों के योगदान की बदौलत बाबा अपने आशीर्वाद से इन गरीबों की समस्या सुलझाकर वाह-वाही बटोरने में सफल हो जाते है। ये राजनेता किसी एक ही पार्टी विशेष के नहीं होते है क्योंकि वैवाहिक जीवन से परे स्त्री-सुख को लालायित नेता और दलाल हर पार्टी में मिल जाते है। जैसा कि हाल के ही दिनों में बीजेपी के नेताओं द्वारा सेक्स रैकेट में पकड़े जाना काफी सुर्ख़ियों में रहा है। इस प्रकार इन बाबाओं को अपार जन-समर्थन मिल जाता है। बाद में फिर, यही जन-समर्थन इन बाबाओं को ही वोट बैंक बना देती है। इससे इनकी पहुँच सत्ता के गलियारों तक कायम हो जाती है। 

उदहारण के तौर पर बाजपाई जब प्रधानमत्री थे तो भी बलात्कारी आशाराम बापू से आशीर्वाद लेते थे, मौजूदा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बलात्कारी बाबा गुरमीत राम-रहीम से सिर्फ आशीर्वाद ही नहीं लेता है बल्कि गुरमीत को सरकारी कार्यक्रम स्वच्छता अभियान का ब्रांड अम्बेस्डर बना देती है, खच्चर (खट्टर) जैसे नेता सदा बाबा की छत्रछाया में ही वास करता है। दंगे करवाता है जिसमे अरबों की सम्पति को आग के हवाले कर दिया जाता है, ३८ लोगों की जान चली जाती है। पूरी की पूरी कानून व्यवस्था पंगु हो जाती है। दंगाइयों को कंट्रोल करने के लिए बॉर्डर पर लड़ने वाले फौजियों को बुलाना पड़ता है। बलात्कार का दोषी पाए जाने पर एक मामूली गुरमीत जैसा गुण्डा सरकार तक को नतमस्तक कर देता है। अदालत द्वारा सज़ा होने के बाद बीजेपी के अध्यक्ष अमितशाह हिंसा के लिए अदालत को जिम्मेदार ठहराते है। 

नारी-विरोधी और मानसिक दीवालियापन का एक उदाहरण खुद आरएसएस के प्रवक्ता राकेश सिन्हा जी है। आरएसएस के विचारक राकेश सिन्हा कहते है कि व्यास केवट पुत्र था, बाल्मीकि भील पुत्र था, वशिष्ठ वेश्या पुत्र था, विदुर दासी पुत्र था। राकेश जी से हम यह जानना चाहते है कि मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू व्यवस्था तो पुरुष प्रधान व्यवस्था रही है तो व्यास, बाल्मीकि, वशिष्ठ और विदुर माताओं के पुत्र के रूप में ही क्यों जाने जाते है ? क्या ये व्यास, बाल्मीकि, वशिष्ठ और विदुर के नाजायज ब्राह्मण बापों, उनके कुकृत्यों व पुरुष प्रधान समाज में पुरुषों का नाम छुपा कर महिलाओं को ही नीच साबित करने का षड्यंत्र नहीं है। राकेश सिन्हा जिन व्यास, वाल्मीकि, वशिष्ठ और विदुर की बात कर रहे है वे उनकी माताओं के बारे में उनकी जाति और उनके पेशे को उजागर कर क्या साबित करना चाहते है। राकेश सिन्हा क्यों नहीं इन ऋषियों के नाज़ायज़ बापों और उनकी जाति का उल्लेख करता है। राकेश सिन्हा क्यों इन ऋषियों के बापों को छुपा रहा है। क्यों नहीं, राकेश सिन्हा इन ऋषियों के नीच बापों की जाति को छिपा रहा है। राकेश सिन्हा वशिष्ठ की माता का जिक्र तो करते है लेकिन अपने तथाकथित भगवन राम के जैविक पिता (श्रृंगी ऋषि) की बात क्यों नहीं करता है। राकेश सिन्हा भारत की संस्कृति की बात करता है। राकेश सिन्हा को पता होना चाहिए की दामाद (श्रृंगी ऋषि) और सासु माँओ (कैकेई, कौशल्या, सुमित्रा) के संसर्ग, भारत की संस्कृति का नहीं, सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणों की संस्कृति का हिस्सा है। इसलिए रामायण को भारत की संस्कृति का हिस्सा कहकर भारत संस्कृति को अपमानित करने का अधिकार किसी को नहीं है। ये सब राकेश सिन्हा जैसे मानसिक दीवालियापन के शिकार जातिवादी मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दुओं की सोच व चरित्र उजागर करता है। ये सब बताता है कि ये किस गिरी मानसिकता के शिकार है। यही है आरएसएस का महिलाओं के प्रति सम्मान। यही है बीजेपी मैदान में, महिलाओं के नहीं, ब्राह्मण पुरुषों के सम्मान में। 

बीजेपी सांसद साक्षी महाराज और सुब्रमणियम स्वामी जैसे निकृष्ट नेता साज़ याफ्ता मुज़रिम और बलात्कारी गुरमीत राम-रहीम की खुलेआम पैरवी करते है। देश का प्रधानमंत्री नरेडंरा मोदी भी चुप रहता है। मज़बूरन चंडीगढ़ हाईकोर्ट को ये कहना पड़ता है कि मोदी को पता होना चाइये कि वो देश का प्रधानमंत्री है, बीजेपी का नहीं। ये सब कोई संयोग नहीं है। ये सब एक दिन में नहीं हो जाता है। इतने सारे असलहे, गाड़ियाँ और भीड़ एक दिन में नहीं बनाई जा सकती है। इसके पीछे सत्ताखोरों का भरपूर साथ व सहयोग रहता है। या यूँ कहें कि सत्ताखोर और अन्य उच्च पदों बैठे लोग मन्दिरों, मठों और आश्रमों में चलने वाले इस वैश्यावृत्ति के धंधे के महत्पूर्ण अंग है, शेयरधारक है।

यदि बाबा के चमत्कारों और उनकी सत्ता के गलियारों में हनक को देखे तो इसकी डोर बाबाओं के वैश्यवृत्ति के धन्धे पर ही टिकी हुई है। मतलब कि महिलाओं के शोषण पर। हां यहाँ एक अंतर जरूर है जो लड़कियाँ और औरते आम बाज़ारों धन्धा करती है समाज उन्हें गिरी नज़र से देखता है, नीच, चरित्रहीन, बद्चलन और कुलटा कहता है जबकि जो लड़कियाँ और औरते बाबा की छत्रछाया में रहकर सेवा प्रदान करती है उन्हें समाज सम्मान से देखता है, इज़्ज़त करता है, सभ्य और भक्त या फिर साध्वी कहता है। धंधा वही है बस इंफ्रास्ट्रक्चर बदलने मात्र से ही कोई सभ्य तो कोई बद्चलन हो जाता है, कोई चरित्रवान तो कोई चरित्रहीन हो जाता है, कोई सम्मान योग्य बन जाता है तो कोई तिरस्कार। ये सब सिर्फ और इंफ्रास्ट्रक्चर का कमाल है। 

दूसरा, कुछ एक राज्य को कुछ समय के लिए छोड़ दिया जाय तो आज़ाद भारत पर शुरू से ही पुरुषवादी नारी-अस्मिता विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दुओं का ही कब्ज़ा रहा है। इन्होनें आज तक समाज को उनके मूलभूत स्वास्थ के अधिकार से वंचित रखा है। जिसके चलते लोगों को छोटी-छोटी बीमारियों से पीड़ित होकर काल के गाल में अकाल ही समाना पड़ता है। मेडिकल सुविधाओं का ग़रीब और आम जान तक ना पहुँच पाना तांत्रिकों और उनकी बढ़ते कारोबार का सबसे अहम् कारण है। ऐसे में ग़रीब और आम जनता इन बाबाओं के खैराती दवाखानों से दवा लेती है और इसे भी मेडिकल साइंस का योगदान समझने के बजाय बाबा का वरदान ही समझती है। 

इसी श्रेणी में वो मुद्दा भी आता है कि क्यों महिलाएं ही इन बलात्कारी बाबाओं की भक्त ज़्यादा होती है? इसमें निहित एक महत्वपूर्ण सवाल ये है कि आखिर क्यों जो पुरुष अपनी औरतों और लड़कियों को हमेशा परदे के पीछे रखता है वो क्यों अपने घर की लड़कियों और महिलाओ को बाबा के यहाँ खुला छोड़ देता है? विज्ञानं भी इस बात को स्वीकार करता है आज की भाग-दौड़ की जिन्दगीं में पुरुषों में लगातार प्रजजन क्षमता गिरती जा रही है। जिससे उनमें बच्चे पैदा करने की क्षमता गिरती जाती है। पुरुष प्रधान समाज में कुछ समय के लिए तो बहुओं और बेटियों को ही कोसा जाता है, ताना दिया जाता है कि वो बाँझ है। इस कार्य में महिलाएँ ही सबसे आगे रहती है। यहाँ पर महिला की दुश्मन है। 

बच्चे ना पैदा होने की स्थिति में प्रायः पत्नी की ही सारी मेडिकल जाँच कराई जाती है, पति की नहीं। क्योंकि पति की नपुंसकता की जाँच मतलब उसकी मर्दानगी पर हमला। ऐसे में पुरुष इसके लिए कभी तैयार नहीं होता है। लेकिन जब सभी तरह की मेडिकल जाँच में पत्नी फिट पायी जाती है तो ऐसे में साड़ी ज़िम्मेदारी पति पर ही आती है लेकिन फिर भी पुरुषवादी मानसिकता से ग्रसित पुरुष अपनी कमियों को स्वीकार नहीं करता है। ऐसे में, वो पति और खुद घर वालों अक्सर यही कहते है कि उसमे तो सब कुछ सही लेकिन फिर भी बच्चा नहीं पैदा हो रहा है, भूत-प्रेत की आशंका है। भूत-प्रेत की आशंका जताने से पहले ये पुरुषवादी पति और घर वाले इन पतियों की मेडिकल जाँच के नहीं सोच पाते है, क्यों। क्योकि, इससे पति की मर्दानगी को ठेस लगेगी। समाज के लोग क्या कहेगें। 

फिर इसी भूत-प्रेत की आशंका के पीछे अपनी कमियों को छुपाये ये लोग अपनी बेटियों और बहुओं को बाबाओं की शरण में ले जाते है। ऐसे में जब ये बाबा को बताते है कि मेडिकल जाँच के अनुसार उनकी बहु या बेटी में कोई कमी नहीं है तो बाबा भी समझ जाता है कि कमी कहाँ पर और किसमे है। मेडिकल साइंस ये प्रमाणित कर चुकी है कि बाबाओं के भभूत से बच्चे नहीं पैदा होते है। ये बात पति-पत्नी-घरवाले-बाबा और पूरी दुनिया जानती है। लेकिन पुरुषवादी लोग अपनी नपुंसकता को छुपाने के लिए अपनी बहन-बेटियों-पत्नियों आदि को बाबाओं के हवाले कर देते है। 

नतीज़न, फिर कुछ महीनों तक बाबा के दर्शन और पूजा-पाठ (पूजा-पाठ में क्या होता है, आप सब जानते है) करने से गर्भ ठहर जाता है और कुछ समय पश्चात् नपुंसक पति को औलाद मिल जाती है। ऐसे में उसकी नपुंसकता भी छिप जाती है, और वो पत्नी रोज-रोज बाँझ कहलाने से बच जाती है, और परिवार वालों को भी वंश चलाने वाला वारिस मिल जाता है। समाज में अपनी नपुंसकता छिपाकर औलाद पाने की परम्परा इसी पुरुषवादी नारी-अस्मिता विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति, धर्म व व्यवस्था का सबसे महत्वपूर्ण हिस्सा है। वाल्मीकि रामायण के बालकाण्ड में वर्णित राम-लक्ष्मण-भारत-शत्रुघ्न का जन्म इसी विधि से हुआ था। दशरथ ने अपनी नपुंसकता को छिपाने के लिए श्रृंगी नाम के बाबा को बुलाया था। हाँ अगर देखा जाय तो श्रृंगी ऋषि ने खुद अपने ससुर के कहने पर अपनी सासु माँओं को पुत्र दिया। मतलब कि श्रृंगी ने अपनी सासु माँओं कौसल्या, कैकेई और सुमित्रा के साथ वही किया जो मेडिकल साइंस कहती है। मतलब साफ है कि राम-लक्ष्मण-भारत-शत्रुघ्न का जन्म किसी भभूत या प्रसाद की वजह से नहीं हुआ था.....

इसी प्रकार बाबाओं के आश्रम में जिस तरह से सम्मानित वीआईपी पुरुषों आदि को वैवाहिक जीवन से बाहर स्त्री-सुख मिल जाता है, ठीक उसी प्रकार से इन बाबाओं के आश्रम में वीआईपी और कुछ मनचली लड़कियों और औरतों को भी अपने वैवाहिक जीवन से परे पूरे सम्मान के साथ दूसरे पुरुषों से शारीरिक सुख मिल जाता है। कहने का मतलब बस इतना है कि बाबा के मन्दिर, मठ और आश्रम आदि ऐसे धन्धों के लिए सबसे उपयुक्त और सबसे सम्मानित जगह है। इसमें कोई रोक-टोक नहीं। धर्म का स्थान है, भगवान् का वास स्थान है। यहाँ पर धर्म और अध्यात्म की आड़ में मनचाहे तरीके से सब कुछ हासिल हो जाता है जो सामन्यतः तथाकथित स्वघोषित सम्मानित लोग चाहते है, वीआईपी लोग चाहते है। 

तीसरा, बेरोजगारी ने समाज में गरीबी को और बढ़ावा दिया है। इसके चलते लोगों में अशान्ति बढ़ती है। उनका चित्त एक जगह नहीं ठहरता है। वे इधर-उधर भ्रमण करते रहते है। भ्रमित है लोग। ऐसे में वे अक्सर इन बाबाओं के रूप इनकों एक शान्तिदाता मिल जाता है। बाबा का कॉर्पोरटे वर्ल्ड काफी बड़ा है तो उसमे कुछ को किसी भी तरह का छोटा-मोटा काम मिल जाता है। इससे ये पाखण्डी बाबा लोगों के दिलों में उदारता वाली छबि बना लेते है। ये लोगों के दिलो-दिमाग में बस जाते है। लोग इन पाखण्डियों के बस में हो जाते है। फिर ये पाखण्डी बाबा इन भक्तों को जो भी कहें ये ये भक्त उसकी तामील करने को हर पल तैयार रहते है। आगे चलकर यही भक्त इन बाबाओं के लठैत बन जाते है, ट्रेनिंग लेकर असलहाधारी गुण्डे बन जाते है, मानव बम बन जाते है जिसका ट्रिगर पाखण्डी बाबाओं के हाथ में ही होता है। ऐसे में ये भक्त अपने साथ-साथ अपने घर-परिवार और रिश्तेदारों को भी बाबा की इस मण्डली में जोड़ लेते है। धीरे-धीरे बाबा के पास जहाँ एक तरफ अपार भक्तों की भीड़ बन जाती है वही दूसरी तरफ इनकी अपनी सरकार के समानांतर एक खुद की भी फौज कड़ी हो जाती है। उदहारण - आशाराम, रामपाल और गुरमीत राम-रहीम जैसे पखड़ियों के पास अपनी खुद की फौज है, वो भी हथियारों से तैयार। आखिर इनको ये हथियार रखने की परमिशन कहाँ से मिलती है। इसका जबा सिंपल है - इनके आश्रम में वैवाहिक जीवन के बाहर स्त्री-सुख के लिए आने वाले वीआईपी से। 

चौथा, शिक्षा का आभाव। आज भी भारत में करोड़ों डिग्रीधारक है लेकिन उनमे शिक्षा बिलकुल नहीं है। वो विज्ञानं जरूर पढ़े हुए होते है लेकिन सिर्फ और सिर्फ परीक्षा पास करने के लिए। भारत का मौजूदा प्रधानमंत्री गोबर विज्ञानं, गौमूत्र विज्ञानं की बात करता है। इसरों का चीफ रॉकेट लॉन्च करने से पहले हवन करवाता है। मेडिकल साइंस वाला भी सुबह-सुबह क्लिनिक पहुँचने पर सबसे पहले मनगढ़न्त देवी-देवताओं की पूजा करता है। विश्वविद्यालयों में सीता की अग्नि-परीक्षा, हनुमान की उड़न-यात्रा आदि पर रिसर्च कराया जाता है। स्कूल पहुँचते ही देवियों और देवताओं के नाम की प्रार्थना करवाया जाता है। संविधान की वजह से मानवीय जीवन जी रहे लोग भी ब्राह्मणी अंधविश्वासों में पड़े है, इसके शिकार है तो इसका कारण भारत में ब्राह्मणी संस्कृति, धर्म और व्यवस्था बोलबाला है। आज भी भारत में जितने मन्दिर, और मस्जिद होगें उतने स्कूल नहीं होगें। 

भारत में साक्षरता जरूर बढ़ी है लेकिन शिक्षा आज भी भारत के लोगों से कोसों दूर है। विज्ञानं के क्षेत्र में हमने थोड़ी-बहुत उपलब्धि जरूर हासिल कर ली है लेकिन वैज्ञानिकता और वैज्ञानिक सोच की पहुँच हमारे लोगों तक आज भी सुलभ नहीं हो पायी है। कुतर्क करने माहिर ब्राह्मण और ब्राह्मणी रोगी कितना भी आधुनिक बनाने की कोशिस करे लेकिन ये तर्क से मीलों दूर है। देश में साक्षरता वाली डिग्रीधारकों की संख्या जरूर बढ़ी है लेकिन शिक्षा नहीं है। देश में कुशल और साक्षर लोगों की तादात बढ़ी है लेकिन शिक्षितों की नहीं। 

ये सब कोई संयोग नहीं है। ये अपने आपमें पूरा एक सिस्टम है। ये सिस्टम है पैसा-पॉवर-धर्म का। इनका केंद्र बिंदु है - वैश्यवृत्ति। इसी के इर्द-गिर्द पूरा का पूरा सिस्टम घूमता है। लेकिन आज़ाद भारत के मानवतावादी संविधान ने लोगों को रोज़गार, शिक्षा, स्वास्थ, वैज्ञानिक शिक्षा और मानवाधिकारों के लिए अधिकार देता है। लड़ने की साहस देता है। बाबा साहेब के संघर्षों ने पुरुषवादी नारी-अस्मिता विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति, धर्म व व्यवस्था की जड़े हिलाकर रख दिया है। जो मातृशक्ति कभी इनकी गुलाम थी, आज बाबा साहेब की बदौलत अपनी अस्मिता के लिए समरभूमि में कूद रही है। गति धीमी ही सही लेकिन जो कभी नारी-शक्ति पुरुषवादी नारी-अस्मिता विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति, धर्म व व्यवस्था की गुलाम थी, दासी थी, आज वही इस पूरी की पूरी व्यवस्था को चैलेंज कर रही है। जिस नारी शक्ति को ब्राह्मणी हिन्दू व्यवस्था ने पढ़ने तक का अधिकार नहीं दिया था, बाबा साहेब रचित संविधान के तहत ही वो नारी ना सिर्फ पढ़ रही है बल्कि कदम दर कदम ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति, धर्म व व्यवस्था को खुलेआम चुनौती दे रही है। 

बाबा साहेब रचित संविधान के चलते ही बलात्कारी गुण्डे गुरमीत राम-रहीम के चंगुल में कैद में दो मातृ शक्तियों ने गुरमीत के पूरे सिस्टम को ही चुनौती दे डाली। जहाँ जनता गुलाम हो चुकी है, अन्धविश्वास का बोलबाला है, भक्ति चरम पर है, भक्तों का ताण्डव आज का जलता हुआ सच है, गौमूत्र राज़ / गोबर राज़ / नरसंहार राज़ / बलात्कार राज़ क़ायम हो चुका है, बीजेपी शासित चारोँ राज्यों (हरियाणा, पंजाब, राजस्थान और यूपी) और खुद केंद्र सरकार जिस गुरमीत की मुट्ठी में कैद है, जिस गुरमीत की खुलेआम वकालत में खुद बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह, साक्षी महाराज, सुब्रमणियम स्वामी आदि जैसे सत्ता में बैठे लोग कर रहे है, ऐसे में भी प्रॉस्टिट्यूट मीडियालय, जिसने अपने जिस्म को ही नहीं बल्कि अपने ज़मीर को भी धंधे पर लगा दिया है, इनके ही गुणगान में व्यस्त है, जिन बलात्कारी गुण्डे बाबाओं और उनके तिलस्म को कन्ट्रोल करने के लिए बॉर्डर पर लड़ने वाली सेना को बुलाना पड़ा, ऐसे में, हम उन भारत बेटियों को सलाम करते है, उन मातृ शक्तियों का इस्तकबाल करते है जिन्होंने ने डेढ़ दशक तक, अपार मानसिक पीड़ा और यातना को सहते हुए इन खूंखार आदमखोरों से ना सिर्फ़ जंग लड़ा बल्कि ऐतिहासिक फ़तेह भी हासिल किया।

हमें इस मुद्दे पर सोचना होगा कि आखिर यह कैसी व्यवस्था जहां राम रहीम जैसों का ऐसा कद बन जाता है? राजनीति में भी अमूल-चूल परिवर्तन लाना होगा। धर्म के धन्धे को राजनीति से पूर्णतः अलग करना होगा। धर्म से कुतर्क, अंधविश्वास, कर्मकाण्ड आदि को चुन-चुनकर निकलना होगा। 

देश के हितैषियों को, साजशात्रियों को, विचारकों को, विद्वानों को यह सोचना होगा कि ब्राह्मणवाद की इस तिलस्म कैसे तोडा जाय? कैसे बुद्ध-अम्बेडकर को हर घर तक पंहुचाया जाय? कैसे बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर से लोगों को जोड़ा जाय? यदि आज बलात्कारी बाबाओं के भक्तों की संख्या में इज़ाफ़ा हो रहा है। इन पाखण्डी बलात्कारी बाबाओं का तिलस्म बढ़ता जा रहा है। इनका कॉर्पोरटे वैल्यू बढ़ती जा रही है तो इसका एक मात्र कारण यह है कि देश का बुद्धिजीवी, विचारक, विद्वान, शिक्षित वर्ग लोगों तक बुद्ध-अम्बेडकर के विचारों को ले जाने में असफल रहा है। इन सबके लिए कोई एक नहीं बल्कि पूरा का पूरा देश ज़िम्मेदार है, खासकर ज़िम्मेदार पदों पर बैठे लोग जो अपनी व्यक्तिगत मुक्ति के लिए देश को ब्राह्मणवाद, अन्धविश्वास, कर्मकाण्ड, पाखण्ड और पाखंडियों के हवाले कर देश की जनता को ब्राह्मणवाद की भट्ठी में धकेल रहा है। 

धन्यवाद 
जय भीम, जय भारत। 

(रजनीकान्त इन्द्रा, इतिहास छात्र, इग्नू-नई दिल्ली, अगस्त २९, २०१७)






Sunday, August 27, 2017

उन मातृ शक्तियों को सलाम...


नेता, लोग और जिम्मेदारियाँ




What is Article 35A?

Article 35A is a provision incorporated in the Constitution giving the Jammu and Kashmir Legislature a carte blanche to decide who all are ‘permanent residents’ of the State and confer on them special rights and privileges in public sector jobs, acquisition of property in the State, scholarships and other public aid and welfare. The provision mandates that no act of the legislature coming under it can be challenged for violating the Constitution or any other law of the land.
                                        
How did it come about?

Article 35A was incorporated into the Constitution in 1954 by an order of the then President Rajendra Prasad on the advice of the Jawaharlal Nehru Cabinet. The controversial Constitution (Application to Jammu and Kashmir) Order of 1954 followed the 1952 Delhi Agreement entered into between Nehru and the then Prime Minister of Jammu and Kashmir Sheikh Abdullah, which extended Indian citizenship to the ‘State subjects’ of Jammu and Kashmir.

The Presidential Order was issued under Article 370 (1) (d) of the Constitution. This provision allows the President to make certain “exceptions and modifications” to the Constitution for the benefit of ‘State subjects’ of Jammu and Kashmir.

So Article 35A was added to the Constitution as a testimony of the special consideration the Indian government accorded to the ‘permanent residents’ of Jammu and Kashmir.

Why does it matter?

The parliamentary route of lawmaking was bypassed when the President incorporated Article 35A into the Constitution. Article 368 (i) of the Constitution empowers only Parliament to amend the Constitution. So did the President act outside his jurisdiction? Is Article 35A void because the Nehru government did not place it before Parliament for discussion? A five-judge Bench of the Supreme Court in its March 1961 judgment in Puranlal Lakhanpal vs. The President of India discusses the President’s powers under Article 370 to ‘modify’ the Constitution. Though the court observes that the President may modify an existing provision in the Constitution under Article 370, the judgment is silent as to whether the President can, without the Parliament’s knowledge, introduce a new Article. This question remains open.

A writ petition filed by NGO We the Citizens challenges the validity of both Article 35A and Article 370. It argues that four representatives from Kashmir were part of the Constituent Assembly involved in the drafting of the Constitution and the State of Jammu and Kashmir was never accorded any special status in the Constitution. Article 370 was only a ‘temporary provision’ to help bring normality in Jammu and Kashmir and strengthen democracy in that State, it contends. The Constitution-makers did not intend Article 370 to be a tool to bring permanent amendments, like Article 35A, in the Constitution.

The petition said Article 35 A is against the “very spirit of oneness of India” as it creates a “class within a class of Indian citizens”. Restricting citizens from other States from getting employment or buying property within Jammu and Kashmir is a violation of fundamental rights under Articles 14, 19 and 21 of the Constitution.

A second petition filed by Jammu and Kashmir native Charu Wali Khanna has challenged Article 35A for protecting certain provisions of the Jammu and Kashmir Constitution, which restrict the basic right to property if a native woman marries a man not holding a permanent resident certificate. “Her children are denied a permanent resident certificate, thereby considering them illegitimate,” the petition said.

Why does it matter?

Attorney-General K.K. Venugopal has called for a debate in the Supreme Court on the sensitive subject.

Recently, a Supreme Court Bench, led by Justice Dipak Misra, tagged the Khanna petition with the We the Citizens case, which has been referred to a three-judge Bench. The court has indicated that the validity of Articles 35A and 370 may ultimately be decided by a Constitution Bench.


(Source: The Hindu, 26-08-2017)


Baba Saheb Dr Ambedkar to Christians

Speaking to Christians at Sholapur in January 1938, Dr. Babasaheb Ambedkar declared that he could say from his study of comparative religion that only two personalities had been able to captivate him – the Buddha and Christ. Here are some parts of the Dr. Ambedkar’s speech.

Excerpt from the speech delivered to Indian Christians of Sholapur and published in ‘Janata’ on 05.02.1938, reproduced from ‘Dnyanodaya’ –

"From the available religions and personalities in the world, I consider only two- Buddha and Christ for conversion. We want a religion for me and my followers which will teach equality freedom among men, and how man must behave with men and God, how a child should behave with father etc.
Missionaries feel they have done their duty when they convert an untouchable to Christianity. They do not look after their political rights. I find this is a big fault in Christians because they have not entered into politics until now. It is difficult for any institution to survive without political support. We, Untouchables, though are ignorant and illiterate, we are in movement. That is why we have 15 seats in the Legislative Assembly. Students are getting scholarships, there are government hostels. Such is not the case of Christian students. If an untouchable student getting scholarship gets converted, his scholarship is stopped though his financial status remains same. If you were in politics, things would have been opposed.


Your society is educated. Hundreds of boys and girls are matriculated. These people have not agitated against this injustice, unlike the uneducated Untouchables. If any girl becomes a nurse or any boy becomes a teacher they are involved in their own affairs, they do not get involved in public affairs. Even clerks and officers are busy in their work, he ignores the social injustice. Your society is so much educated, how many are District judges or magistrates? I tell you, this is because of your neglect towards politics because there is nobody to talk of the fight for your rights. …” [Ganjare vol. III. p.142]

(Source:http://velivada.com/2017/08/26/dr-babasaheb-ambedkars-advice-christians-india-ignored/)

Thursday, August 24, 2017

ओबीसी वर्ग का उपवर्गीकरण - ओबीसी में फ़ूट डालने की साज़िस

आरएसएस, जो कि ब्राह्मणों का एक संगठन है जिसमे अन्य सवर्ण और कुछ ग़ुमराह शूद्र वर्णाश्रम आधारित व्यवस्था के तहत गुलामी कर रहे है, के नेतृत्व वाली ब्राह्मणी बीजेपी के मंत्री अरुण जेटली ओबीसी वर्ग के नीचले तबके को आरक्षण का लाभ पहुंचाने के लिए ओबीसी को दो या अधिक वर्गों में बाँटने लिए समिति के गठन की बात कर रहे है। इनका कहना है कि आरक्षण का लाभ सिर्फ और सिर्फ कुछ चंद जातियों जैसे कि अहीर-कुर्मी आदि तक ही सीमित रहा गया है जबकि आज जिनकों आरक्षण की वाकई जरूरत है उनकों इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है। इनके इस तथ्य इनकार नहीं किया जा सकता है। 

फिलहाल हमारा सवाल यह है कि संघियों के लिए आरक्षण के मायने क्या है? मण्डल कमीशन लागू करने के दौरान संघियों ने इसका तीव्रता से प्रखर विरोध किया था, क्यों? सदियों से लेकर आज तक जो बहुजनों का शोषक रहा है आज वो बहुजन पोषक कैसे बन गया है? सदियों से जिसने सामाजिक अन्याय किया है आज वो सामाजिक न्याय का पुरोधा कैसे हो सकता है? ये बहुजन नुमाइंदों, विचारकों और खुद बहुजन समाज, खासकर ओबीसी वर्ग, को सोचने की जरूरत है। 

ये भारत का अकाट्य सत्य है कि देश के हर क्षेत्र के हर स्तर (जैसे कि शासन-प्रशासन, सचिवालय, न्यायालय, उद्योगालय, मीडियालय, विश्वविद्यालय, विधनालय, सिविल सोसाइटी आदि जगहों) पर पुरुषवादी नारी-विरोधी मनुवादी सनातनी जातिवादी वैदिक ब्राह्मणी ब्राह्मणों-सवर्णों (ब्राह्मण-सवर्ण) और इनके गुलामों ने अवैध, अलोकतांत्रिक व असंवैधानिक कब्ज़ा जमा रखा है। अपने इस अवैध, अलोकतांत्रिक व असंवैधानिक सत्ता की बदौलत, इन लोगों ने संविधान और लोकतंत्र के मूलभूत मूल्यों की हत्या कर दी है। न्यायालय के माध्यम से इन मूल्यों को तरलतम कर दिया गया है। प्रेस्टीट्यूट मीडियालय की बदौलत इन मूल्यों को ग़लत ढंग से परोसा गया है। भारत में बहुजन समाज को मिला समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी का संविधान निहित मूलभूत लोकतान्त्रिक अधिकार, जिसे आरक्षण के नाम से प्रचारित किया गया, इसी ब्राह्मणी साज़िस का शिकार है। फ़िलहाल महत्वपूर्ण ये है कि आरक्षण क्या है ? इसके मायने क्या है ? इसका उद्देश्य क्या है ?

हमारे विचार से, आरक्षण को भारत की सामाजिक संरचना से अलग करके, कदापि, नहीं देखा जा सकता है। ये कहना ज्यादा उचित होगा कि आधुनिक आरक्षण सामाजिक गैर-बराबरी के गर्भ से ही जन्मा है। भारत की सामाजिक संरचना का वर्चश्व भारत की राजनीति , आर्थिक परिदृश्य, सामाजिक ढांचे और सांस्कृतिक पटल पर बहुत ही सरलता और सुलभता से कायम है। इसे किसी भी कीमत पर किसी भी परिस्थिति में इनकार नहीं किया जा सकता है। 

ऐसे में, देश के हर क्षेत्र के हर स्तर पर देश के हर वर्ग का स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करना ही आरक्षण का मूल उद्देश्य है। सरल भाषा में कहें तो जिस तरह से, हमारे घर का नक्सा कैसा हो, हमारे घर में किचेन किस तरफ हो, हमारे घर में कब क्या भोजन बनेगा, इन सब का निर्णय हमारा अपना परिवार करेगा, पडोसी नहीं। यही आरक्षण है। यही गणतंत्र की भावना है। यही बाबा साहेब रचित संविधान व लोकतत्र की मंशा है। 

ठीक इसी तरह, हमारे समाज (एससी-एसटी-ओबीसी और कन्वर्टेड माइनोरिटीज़) के लिए क्या नीतियां होनी चाहिए, नीतियाँ कैसी होनी चाहिए, नीतियों के लिए कितना बजट आवंटित होना चाहिए, नीतियाँ लागू करने वाली मशीनरी कौन होगी, कैसी होगी और कैसे लागू किया जायेगा, हमारे समाज की सुरक्षा के लिए कानून कैसा होना चाहिए, हमारे लोगों को न्याय देने वाले न्यायालय की संरचना कैसी होनी चाहिए, हमारे मुद्दों को हमारे लोगों तक ले जाने वाले मीडियालय की संरचना कैसी होनी चाहिए, शोध के मुद्दे क्या होगें, हमारे मुद्दे कौन है, जल-जंगल-जमीन का और अन्य संपत्ति का बटवारा कैसे होना चाहिए आदि, इन सभी मुद्दों पर होने वाले निर्णयों में हमारा पूर्ण समावेश, हमारी पूर्णतः समुचित स्वाप्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी होनी चाहिए। यही आरक्षण है। यही आरक्षण की रूह है। 

भारत के हर क्षेत्र के हर स्तर पर भारत के हर वर्ग, खासकर एससी-एसटी-ओबीसी और कन्वर्टेड माइनोरिटीज़, का समावेश, उनका समुचित स्वप्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी ही आरक्षण का मुक़म्मल मक़सद है। ऐसे में आरक्षण, भारत में भारत-निर्माण व राष्ट्र-निर्माण का एक महत्वपूर्ण टूल है, सामाजिक परिवर्तन व सामाजिक न्याय को हक़ीक़त की सरज़मी पर उतारने वाला एक अनोखा औज़ार है। दिन-प्रतिदिन, पल-हर पल, आरक्षण ने भारत को सिर्फ और सिर्फ मज़बूत ही नहीं किया है बल्कि बहिष्कृत व हाशिये के तबके को मुख्यधारा से जोड़कर भारत में लोकतंत्र की जड़ों को गहराई प्रदान किया है।

लेकिन जब हम हकीकत की सरज़मी पर नज़र दौड़ते है तो हम पाते है कि संसद व विधानसभाओं में हमारी नुमाइंदगी करने वाले लोग या तो ब्राह्मण है, या फिर ब्राह्मणों के गुलाम सवर्ण, या फिर हमारे समाज के लोग, जो व्यक्तिगत मुक्ति के चलते ब्राह्मणों की गोद में बैठकर हमारी नुमाइंदगी का ढ़ोग करने वाले बाबू जगजीवन राम, रामबिलास पासवान, रामदास अठावले, जीतनराम माँझी, उदितराज, रामनाथ कोबिंद, मुलायम सिंह यादव, नितीश कुमार आदि जैसे लोग है, जो अपने ही समाज की राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अस्मिता की कब्र खोद रहे है। 

इसी तरह, सचिवालय जहाँ नीति-निर्धारण होता है, ब्यूरोक्रेसी जो नीतियों का क्रियान्वयन करता है, सरकारों, न्यायालयों व अन्य संस्थाओं के आदेशों का तामील करता है, कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए कानून को लागू करता है, विश्वविद्यालय जहाँ शोध होता है, न्यायलय जहाँ से न्याय उम्मीद की जाती है, मीडियालय जो सही सूचना-प्रसारण के लिए जिम्मेदार, उद्योगलय जहाँ से पूँजी का उत्पादन होता है, सिविल सोसाइटी आदि सभी जगहों पर हमारे मुद्दों पर निर्णय लेने वाला हमारे समाज का ना होकर या तो ब्राह्मण-सवर्ण है या फिर हमारे समाज के ही कुछ ब्राह्मणी रोग से पीड़ित गुलाम-रोगी। 

ऐसे में जब हमारे मुद्दों पर भी हमारे लोगों का समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी है ही नहीं तो ऐसी स्थिति में भारत संविधान व भारत लोकतंत्र का इससे बड़ा मज़ाक और क्या हो सकता है। मुद्दे हमारे, भविष्य हमारा, नियम-कानून हमारे लिए और इन सब मुद्दों पर निर्णय ब्राह्मण-सवर्ण करता है। क्या यही लोकतंत्र है? 

हमारे मुद्दों पर शोध ब्राह्मण-सवर्ण करता है। क्या ये ब्राह्मण, जिसमे न्यायिक चरित्र होता ही नहीं है, जो सिर्फ भ्रष्ट ही नहीं बल्कि पक्षपाती (जातिवादी) भ्रष्ट है, हमारे मुद्दों को सही से उठा पायेगा ? क्या ये ब्राहण-सवर्ण, जो हमारा शोषक ही रहा है, हमारी जरूरतों को समझ पायेगा? पीड़ा हमारी लेकिन उसका दर्द ब्राह्मण-सवर्ण से पूँछा जाता है। क्या हमारी पीड़ा को हमारा शोषक बयान कर पायेगा ? कदापि नहीं। लेकिन हक़ीक़त की सरज़मी पर हो यही रहा है। क्या यही संविधान का उद्देश्य था? नहीं, बिलकुल नहीं। 

दुर्भाग्य है भारत का कि भारत-निर्माण व राष्ट्र-निर्माण और लोकतंत्र को मज़बूती प्रदान करने वाले, सभी वर्गों का मुख्यधारा में समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी को सुनिश्चित करने वाले, वंचित-शोषित, आदिवासी, पिछड़े और कन्वर्टेड माइनोरिटीज़ मूलनिवासी समाज को देश के विकास की मुख्यधारा में जोड़ने वाले एक महत्वपूर्ण औज़ार आरक्षण को ब्राह्मणों के षड्यंत्र, ब्राह्मणी जजों की व्याख्या और ब्राह्मण-सवर्ण मीडिया ने सिर्फ और सिर्फ एक ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रम बनाकर रख दिया है। इनके व्याख्या के मुताबिक, आरक्षण सिर्फ और सिर्फ नौकरी पाने का साधन मात्र है। इनको लगता है कि पूरा वंचित-शोषित, आदिवादी, पिछड़ा व कन्वर्टेड माइनोरिटी समाज आरक्षण से ही जीवन-यापन कर रहा है। क्या ये सही है?

भारत में यदि सिर्फ वंचित जगत को ही देखे तो जनगणना २०११ के अनुसार इनकी कुल जनसख्या लगभग 166,635,700 है। भारत के सरकारी क्षेत्र में कुल लगभग २.१५ करोड़ लोग नौकरी कर रहे है जिसमे से करीब ४५ लाख लोग एससी वर्ग के है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि एससी समाज के लोग आरक्षण की बदौलत पाए नौकरी से ही जीवन-यापन कर रहे है तो भी सिर्फ और सिर्फ ४५ लाख परिवार ही इससे लाभान्वित हो रहे है। अब ब्राह्मणों-सवर्णों व अन्य संघियों से अगला सवाल यह है कि बाकी बचे १६.१७ करोड़ वंचित समाज के लोग कैसे जी रहे है? 

देश को ये समझने की जरूरत है कि आरक्षण नरेगा की तरह कोई गरीबी उन्मूलन रोजगार कार्यक्रम नहीं है। आरक्षण नौकरी और रोजगार का साधन मात्र नहीं है। आरक्षण संविधान निहित हमारा मौलिक अधिकार है। आरक्षण बहुजन समाज का लोकतान्त्रिक अधिकार है। आरक्षण बहुजन समाज की सत्ता में भागीदारी को तय करने वाला अमूल्य हथियार है। आरक्षण बहुजन समाज का देश की राजनीति, सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक तंत्र और सांस्कृतिक विरासत में अपनी अस्मिता, अपने वज़ूद, अपनी पहचान और अपने इतिहास को याद रखने और बनाये रखने का एक महत्वपूर्ण हथियार है।

हमारे कहने का सिर्फ इतना मतलब है कि आरक्षण को लेकर ब्राह्मणों-सवर्णों व अन्य गुलाम संघियों द्वारा पूरे देश में गलत विचार फैलाया जा रहा है, ग़लत प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। ब्राह्मणों-सवर्णों व अन्य गुलाम संघियों द्वारा ही आरक्षण को इसके मूल मायने और मक़सद से भटकाने का कार्य किया जा रहा है। मेरिट के नाम पर बहुजन समाज को शासन-सत्ता, ज्ञान, सम्पति-सम्पदा में उनकी भागीदारी को खुलेआम नकारा जा रहा है। मेरिट के नाम पर बहुजन समाज को दुत्कारा जा रहा है जबकि मेरिट और प्रतिस्पर्धा के शुरुआत की लाइन ब्राह्मणों-सवर्णों के लिए कुछ और, तथा वंचित जगत को सत्ता-संसाधन से दूर रखने के लिए कुछ और ही कर दी जाती रही है और आज भी यही किया जा रहा है। मेरिट के नाम पर बहुजन छात्रों का विश्विद्यालयों और अन्य सभी संस्थानों में खुलेआम शोषण किया जा रहा है। इस सामाजिक बहिष्कार और मानसिक उत्पीड़न द्वारा बहुजन छात्रों का सांस्थानिक हत्या की जा रही है। रोहित वेमुला, डेल्टा मेघवाल आदि इसके तमाम प्रखर उदाहरण है। 

ये बहुजन समाज को समझना है कि कौन उसका हितैषी है और कौन उसका शोषक? जहाँ तक रही ब्राह्मणों की बात तो ये गौर करने वाली बात है कि यदि ब्राह्मण आप का विरोध करे तो आप समझ जाओ कि आप सही रास्ते पर चल रहे हो। यदि ब्राह्मण चुप रहे तो समझ जाओ कि ब्राह्मण कोई षड्यंत्र कर रहा है। यदि ब्राह्मण आपके साथ खड़ा हो जाये, आपके हित की बात करे, आपका हितैषी बनने लगे तो सावधान हो जाओ क्योंकि खतरा आपके सर पर है। कहने का तात्पर्य यह है कि ब्राह्मण कभी भी किसी भी परिस्थिति में आपका हितैषी नहीं हो सकता है। ब्राह्मण-सवर्ण एक परजीवी है। ब्राह्मण अमरबेल की तरह होता है। जैसे अमरबेल जिस पेड़ पर लगता है, उसे ही सुखकर खुद हरा-भरा रहता है। ठीक उसी तरह से ब्राह्मण भी जिसके ऊपर निर्भर रहता है उसके ही खून को चूस-चूसकर ही खुद हरा-भरा, हृष्ट-पुष्ट व स्वस्थ रहता है। ऐसे में ब्राह्मण से सदा सावधान रहना चाहिए। 

ब्राह्मणों के ही बारे में ई. बी. रामास्वामी पेरियार नैयकर कहते है कि यदि रास्ते में चलते समय, एक साथ, एक तरफ कोबरा मिल जाय और दूसरी तरफ ब्राह्मण तो ब्राह्मण को पहले मरना कोबरे को बाद में। ऐसे में बहुजन समाज (वंचित-शोषित, आदिवासी, पिछड़े और कन्वर्टेड माइनोरिटीज़ मूलनिवासी समाज) को यह सोचने की जरूरत है कि बहुजन आरक्षण के ख़िलाफ़ शुरुआत से लेकर आज तक जहर उगलने वाला ब्राह्मण हमारे बहुजन का हितैषी कैसे हो सकता है? ये विचार करने की जरूरत है कि मण्डल कमीशन के खिलाफ कमण्डल की जंग छेड़ने वाला ब्राह्मण-सवर्ण हमारे बहुजन हितैषी कैसे हो सकता है? 

बहुजन समाज को सदा अपने ज़हन में याद रखना चाहिए कि आरक्षण के मायने और मक़सद को तरलतम करने वाला कोई और नहीं ब्राह्मण ही है। आरक्षण को ही नहीं बल्कि संविधान निहित मूल्यों को भी ये ब्राह्मण परजीवी ध्वस्त करने के लिए लगातार जंग छेड़े हुए है। इसलिए बहुजन समाज को सचेत होते हुए सदा विचारमय रहना चाहिए कि उसका सच्चा हितैषी कौन है? हमारे विचार से, अपने शत्रु की पहचान करने की समझ का होना भी शिक्षित होने का एक लक्षण है।  

१८ अगस्त २०१६ को हमारे द्वारा लिखे लेख "समरसता-यथास्थिति को बनाये रखना" के अनुसार - "समावेशी समाज, समावेशी राजनीति, समावेशी अर्थ जगत, समावेशी संस्कृति बनाने के लिए हमारा संविधान हज़ारों जातियों में बंटे समाज को स्वतंत्रता प्रदान कर समानता के धागें में पिरों कर उनमें बंधुत्व की भावना पैदा करना चाहता है, लेकिन अपनी अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक अवैध कब्जात्मक सत्ता की बदौलत आरएसएस और ब्राह्मणी बीजेपी ने समानता को ही नकार कर दिया। अब शासन सत्ता का पूरी तरह से दुरूपयोग करके ये ब्राह्मण-सवर्ण और इनके गुलाम देश भर में समरसता की बात रहे है। समरसता को ही प्रचारित-प्रसारित कर रहे है। आखिर ब्राह्मणों ने समता को नकार कर समरसता का परचा-प्रसार क्यों कर रहे है ?

हमारे विचार से, समता को नकार कर समरसता की बात करना मतलब कि यथास्थिति को बनाये रखना। मतलब कि जाति, जातिवाद को मज़बूत करना, आज़ादी के बजाय गुलामी को बढ़ावा देना, बंधुत्व के बजाय जातिवादी अत्याचार, अनाचार, व्यभिचार व आक्रमण की संस्कृति को सहर्ष स्वीकार करना, सम्प्रदायिकता व इस पर आधारित दंगों व हमलों का समर्थन करना, धार्मिक उन्माद व धार्मिक कट्टरता को सींचना, बहुजन द्वारा चंद मुट्ठीभर ब्राहम्णो-सवर्णों की गुलामी को अपना भविष्य बनाना, पुरुष-प्रधानता को स्वीकार करना, नारी अस्मिता को बेदर्दी से कुचलना, भारत संविधान के बजाय मनुवादी विधान के तहत जीवन-यापन करने को अपनाना, निकृष्टतम सनातनी संस्कृति की दासता को आत्मसात करना, क्रूरतम वैदिक शैली में जीना, ब्राह्मणी षड्यंत्रों की साज़िस का शिकार बन अपने स्वाभिमान, आत्मसम्मान और अस्मिता को भूलकर ब्राह्मणों-सवर्णों की दासता को स्वीकार करना। 

समता को नकार कर समरसता की बात करना, भारत द्वारा खुद के गले में खुद ही फाँसी का फन्दा डालकर आत्महत्या करना है। समता की हत्या करना मतलब कि स्वतंत्रता व बंधुत्व की हत्या करना। बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर ने नवम्बर २६, १९४९ को संविधान सभा में कहा था कि स्वतंत्रता को समता से अलग नहीं किया जा सकता है। समता को बंधुत्व से अलग नहीं किया जा सकता है। और, समता व बंधुत्व, दोनों को स्वतंत्रता से अलग नहीं किया जा सकता है। कहने का मतलब साफ है कि ये तीनों एक साथ ही रहते है। इनमें से किसी को भी किसी से भी किसी भी परिथिति में कभी भी अलग नहीं किया जा सकता है। इनमे से किसी एक की भी हत्या, तीनों की हत्या होगी। तीनों की हत्या, भारत संविधान की हत्या होगी है। समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व के सिद्धांत पर आधारित भारत संविधान की हत्या, भारत में मानवता की हत्या होगी। क्या भारत यही चाहता है ?"

ब्राह्मण-सवर्ण विदेशी है। इन्होने सदा सत्ता के सुख भोगने के लिए ही राजनीति की है। फूट डालों, राज़ करों, जिसका इज़ाद निकृष्ट सोच ब्राह्मणों ने ही की है, की नीति से बहुजनों को हज़ारों जातियों में बांटा है, इनको आपस में ऊंच-नीच बनाकर आपस में ही लड़वाया है, और सत्ता पर कब्ज़ा जमाया है। 

इन ब्राह्मणों-सवर्णों ने अपने फायदे के लिए विदेशियों को बुलाकर कर, भारत पर आक्रमण करवाया है। इन ब्राह्मणों-सवर्णों के चलते भारत विदेशियों के हाथों में गुलाम रह चुका है। इतिहास गवाह है कि विदेशी राज़ के ब्राह्मणो-सवर्णों पर मूलनिवासियों की तुलना में कोई अत्याचार हुआ ही नहीं है। बल्कि ये कहना ज्यादा उचित होगा कि इनकी सत्ता हमेशा बरक़रार रही है फिर चाहे विदेशी राज़ ही क्यो ना रहा हो। ब्राह्मणों-सवर्णों का सिर्फ और सिर्फ एक मक़सद है सत्ता हथियाकर मूलनिवासियों का शोषण करना। आज तक ये परजीवी यही करता आया है। आगे भी इसी के लिए षड्यंत्र कर रहा है। ओबीसी वर्ग का उपवर्गीकरण इनके इसी साज़िस का एक हिस्सा है। 

आज़ादी के बाद बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के कारवाँ को मान्यवर साहेब काशीराम ने जिस तरह से आगे बढ़ाया, वंचित-आदिवासी-पिछड़े-कन्वर्टेड माइनोरिटीज़ का जो गठजोड़ बनाया इससे सारा का सारा ब्राह्मण तंत्र ही नहीं बल्कि उसकी बुनियाद तक हिल उठा है। स्वतंत्र भारत में बाबा साहेब और भारत संविधान की बदौलत, वंचित जगत के साथ-साथ पिछड़ों ने भी कई बार सरकारें बनाई है। ब्राह्मणों-सवर्णों व अन्य ब्राह्मणी आतंकवादियों के आतंक ने समूचे बहुजन समाज को एक पटल की तरफ उन्मुख कर दिया है। 

आज बाबा साहेब की तश्वीर को छाती से लगाए बहुजनों (वंचित-आदिवासी-पिछड़े-कन्वर्टेड माइनोरिटीज़ समाज के छात्र व अन्य सभी लोग विश्वविद्यालयों में, संस्थानों में और अन्य सामाजिक-राजनैतिक मंचों पर जिस तरह से एक हो रहे है) ने ब्राह्मणों के सत्ता की जड़ों में खौलता हुआ तेज़ाब डाल दिया है। इस खौलते हुए तेज़ाब की शक्ति को क्षीण करने के लिए सामाजिक अन्याय के पुरोधा सामाजिक न्याय की बात करने लगे है। अपनी सामाजिक अन्याय की संस्कृति को जीवन देने के लिए सामाजिक न्याय का चोला ओढ़ लिया है। इस चोले की आड़ लेकर ये ब्राह्मण-सवर्ण, अब बहुजन, खासकर पिछड़े वर्गों, की एकता को खण्ड-खण्ड करने के लिए ही ओबीसी वर्ग के उपवर्गीकरण का षड्यंत्र कर रहा है। 

यदि सामाजिक न्याय ही करना चाहते है तो ये संघी क्यों नहीं पिछड़ों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण देते। क्यों नहीं, ओबीसी में से क्रीमी लेयर को हटा देते है। ये कहते है कि पिछड़े वर्ग के वर्गीकरण से उन जातियों को फायदा मिलेगा जो मोस्ट-बैकवर्ड है। लेकिन सघियों को ये भी मालूम होना चाहिए कि रोजगार के साधनों के निजीकरण होने के कारण सरकारी क्षेत्र में रोजगार के अवसर घटते जा रहे है। जबकि ये सर्वविदित है कि सरकारी पैसे से ही निजी क्षेत्र का विकास हो रहा है, सरकारी पैसा, जो कि आम आदमी का बैंकों में जमा धन है, उसे ही न्यूनतम ब्याज या शून्य ब्याज पर निजी क्षेत्र को बांटकर विकास की बात की जा रही है लेकिन इस विकास में विकास चंद मुट्ठीभर लोगों का ही हो रहा है जबकि पैसा आम आदमी का लग रहा है, जमीन आम आदमी की लग रही है। ऐसे में ये संघी, एसी-एसटी-ओबीसी के लिए निजी क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था क्यों लागू नहीं करते है ? 

जनगणना २०११ के अनुसार, देश में अनुसूचित जाति की जनसँख्या १६.२% हो गयी है तो ऐसे में आरक्षण को १५% से बढ़ाकर १६.२ % क्यों नहीं किया जा रहा है? सामाजिक अन्याय की संस्कृति वाले संघी यदि सामाजिक न्याय की बात करना ही चाहते है तो भारत की जातिवार जनगणना को सार्वजनिक क्यों नहीं करते है? इससे पता चल जायेगा कि किसका हिस्सा कौन खा रहा है?

सामाजिक अन्याय के पुरोधा ब्राह्मणों यदि अब जाग ही चुके है तो आये दिन वंचित जगत, आदिवासी, पिछड़ों को समाज में समानता का हक़ क्यों नहीं दिलाता है। आज भी मंदिरों में शूद्रों व वंचितों के प्रवेश की मनाही करता है। इसके खिलाफ जंग क्यों नहीं छेड़ता है ?

पूरी दुनिया जानती है कि भारत की बर्बादी का सिर्फ और सिर्फ एक ही मुख्य कारण है - जाति, जातिवाद, जाति-व्यवस्था। यदि ब्राह्मणी संघी बीजेपी सामाजिक न्याय की ही बात करना चाहता है तो जाति व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए कोई प्रावधान क्यों नहीं लाता है। आज देश को आज़ाद हुए सात दशक से भी ज्यादा का वक्त गुजर चुका है। देश पर सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणों व सवर्णों ने ही कांग्रेस व बीजेपी के रूप में शासन किया है। देश में आर्थिक स्तर पर गरीबी उन्मूलन का ढोंगी कार्यक्रम चलाया गया, राजनीति में सुधार के लिए पंचायती राज़ का ढोंग किया गया लेकिन सामाजिक व सांस्कृतिक गैर-बराबरी, जाती-पाँति, छुआछूत आदि को जन्म देने वाले मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म व हिन्दू संस्कृति को नेस्तनाबूत करने का नाम तक नहीं लिया, ढोंग तो बहुत दूर की बात होगी, क्यों? जाति उन्मूलन से बड़ा सामाजिक न्याय की बात और क्या हो सकती है? लेकिन ये सब इस सर्वाधिक महत्त्व के मुद्दे पर एक तरफ से खामोश है। इसका कारण यह है कि ये लोग समाज में बहुजन समाज को बराबरी, आत्मसम्मान व स्वाभिमान का स्थान देना ही नहीं चाहते है। 

ऐसे में इतने महत्वपूर्ण सामाजिक न्याय के मुद्दे को छोड़कर आरक्षण को ही सामाजिक न्याय मान लेना और इसे ही राजनैतिक रूप से भुनाने और बहुजन समाज को खण्ड-खण्ड करने ही अरुण जेटली द्वारा ओबीसी वर्ग के उपवर्गीकरण की बात की जा रही है। इनकी मंशा मोस्ट बैकवर्ड तक आरक्षण का लाभ पहुँचाना बिलकुल नहीं है। इनका मकसद एक हो रहे बहुजनों को फिर से बाँटकर, आपस में लड़वाकर राजनैतिक सत्ता पर कब्ज़ा करना है। ठीक उसी तरह जैसे तीन तलाक के मुद्दे को छेड़कर ब्राह्मणी संघी बीजेपी का मकसद मुस्लिम महिलाओ का कल्याण करना नहीं बल्कि हिन्दू को मुस्लिमों के प्रति भड़काना, नफ़रत को जगाना और एक दूसरे के प्रति तिरस्कार की भावना को भड़काकर राजनैतिक सत्ता की रोटी सेकना है। 

आरक्षण सामाजिक न्याय का एक महत्वपूर्ण पहलू है। इसके अलावा भी कई पहलु है सामाजिक न्याय के, क्यों नहीं बीजेपी सरकार उन पहलुओं को लागू करती है। भूमि सुधार आज़ादी के बाद से एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है। आज भी देश में जमीने चंद जातियों के हाथों में ही कैद है। हाल ही में, वित्त मंत्री अरुण जेटली ने खुद कहा है कि भारत में ३०० मिलियन लोगों के ज़मीन नहीं है। बीजेपी के प्रवक्ता एम्. जे. अकबर ने अप्रैल ०५, २०१७ को टाइम्स ऑफ इण्डिया के एक लेख में खुद स्वीकारा है कि १०० मिलयन परिवारों के पास कोई ज़मीन नहीं है, जो हमारी कुल जनसँख्या में से ३०० मिलियन है। संघी सरकार क्यों नहीं जमीनों का फिर से आवंटन करवाती है। २००३-०४ के एनएसएसओ सर्वे पर आधारित अकड़े के आधार पर जुलाई २०१३ में आयी भूमि सुधार नीति में भी सरकार ने स्वीकारा है कि देश के ३१% लोगों के पास कोई ज़मीन नहीं है। 

शिक्षा संविधान प्रद्दत हर बच्चे का मूलभूल मानवाधिकार है। भारत में शिक्षा के क्षेत्र में बहुत ही विषमता है। भारत के प्राथमिक पाठशालों में सिर्फ और सिर्फ वंचित जगत के ही बच्चे मिलते है। इनके शिक्षा का स्तर ना के बराबर है। इस शिक्षण प्रणाली से गुज़र कर यदि कोई बहुजन का बच्चा स्नातक कर भी लेता है तो आगे चलकर उसे फिनिशिंग स्कूलों से पढ़े बच्चों से मुक़ाबला करना पड़ता है। ऐसे मेंउनकी असफलता तो लगभग उसी दिन तय हो जाती है जिस दिन वो प्राथमिक पाठशाला में कदम रखता है, जातिवादी मानसिकता के रोगी अध्यापक की शरण में जाता है। ऐसे परिस्थिति में बहुजन बच्चों का असफल होना लाज़मी है। 

फिर बाद में, ब्राह्मणी व अन्य संघी कहते है कि बहुजनों में मेरिट नहीं है। लेकिन ये ब्राह्मण-सवर्ण संघी ये भूल जाते है कि अवसर, समता-स्वतत्रता-बंधुत्व का परिवेश मिला तो आगे चलकर इसी वंचित जगत के एक बच्चे , जिसे बचपन में स्कूल ने दाखिला देने तक से इंकार था, दाखिला दिया भी तो इस शर्त पर कि वो अन्य बच्चों से अलग बैठेगा, जिसे पीने के लिए पानी तक नहीं दिया गया, ने सहस्त्राब्दियों से चली आ रही ब्राह्मण मनु की व्यवस्था को ध्वस्त कर समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व पर आधारित भारत संविधान का राज़ क़ायम कर दिया। 

बाबा साहेब के दिखाए रास्ते पर चलकर मान्यवर साहेब ने पूरे देश के बहुजन को समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व के धागे में पिरों कर एक ऐसा राजनैतिक भूचाल ला दिया कि ब्राह्मणी सत्ता की दीवारें ध्वस्त हो गयी, जड़ें चूर-चूर हो गयी। ऐसे में ब्राह्मणों को अपनी नीतियाँ तक बदलनी पड़ गयी। बाबा साहेब के अथक संघर्षों और भारत संविधान की बदौलत वंचित जगत की एक महिला ने भारत के सर्वाधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश की सरज़मी पर ऐसा हुकूमत किया कि जिसका मिशाल इतिहास के पास भी नहीं है। फिर भी संघी कहते है कि वंचितों के पास मेरिट नहीं है!

खुद संघियों में मेरिट तो है नहीं, इसीलिए ये बराबर की लाइन से रेस शुरू करने से डरते है। यदि सबके लिए एक समान मुफ्त शिक्षा नीति लागू कर दी जाय तब इनकी समझ आएगा में आएगा कि मेरिट क्या होता है। ब्राह्मणी बीजेपी सरकार यदि सामाजिक न्याय की बात कर ही रही है तो सिर्फ और सिर्फ आरक्षण पर ही क्यों? क्यों नहीं देश हित में निजी स्कूलों का सरकारीकरण करके एक समान शिक्षा का प्रावधान लागू करती है। क्यों नहीं सरकार, ब्राह्मणों-सवर्णों धन्नासेठों, भ्रष्टाचार से अमीर बने ब्राह्मण-सवर्ण ब्यूरोक्रैट्स, ब्राह्मण-सवर्ण जजों, ब्राह्मण-सवर्ण पुलिस वालों और अन्य ब्राह्मणों-सवर्णों के बच्चों को भी बहुजनों के बच्चों के साथ एक ही स्कूल में पढ़वाती है। 

शिक्षा की तरह ही स्वास्थ भी हर नागरिक का मूलभूत अधिकार है। ऐसे में सरकार क्यों नहीं सभी देशवासियों को बिना किसी भी तरह के भेद-भाव के सबको एक समान स्वास्थ सुविधा मुहैया कराती है। सरकार क्यों नहीं देश की जल-जंगल-जमीन व अन्य सम्पति-सम्पदा का समानुपाती व न्यायोचित तरीके से का वितरण करवाती है। जातिवार जनगणना को सार्वजनिक क्यों नहीं करती? निजी क्षेत्रों में बहुजन का अनुपातिक भागीदारी क्यों नहीं तय करती है। बहुजन समाज इन सबके लिए तैयार है लेकिन फिर भी सामाजिक न्याय के इन महत्पूर्ण मुद्दों पर ना तो संघी सरकार चर्चा करेगी और ना ही इसकी कोई मंशा है। प्रमोशन में आरक्षण का मुद्दा पड़ा है, संघी ब्राह्मणी सरकारें इसे क्यों नहीं लागू करती है? अभी तक जो आरक्षण मिला है उसे भी पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका है, क्यों ? इसे क्यों लागू नहीं किया जाता है ? क्या ये सामाजिक न्याय का मुद्दा नहीं है?

हायर ज्यूडासरी में बहुजन समाज की भागीदारी लगभग शून्य है और उसमें वंचित, आदिवादी समाज की पूरी शून्य है, क्यों ? न्यायालयों में आरक्षण लागू क्यों नहीं करते? क्या यह सामाजिक न्याय के दायरे में नहीं है ? सभी विश्वविद्यालयों में कुलपति व अन्य सभी महत्वपूर्ण पदों पर, प्रोफेसरों के पदों पर सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणो-सवर्णों का अवैध कब्ज़ा है, यहाँ पर आरक्षण आज तक लागू नहीं हो पाया। इसे लागू क्यों नहीं किया जा रहा है? ये भी तो इसी आरक्षण के तहत आता है। ये भी तो सामाजिक न्याय का महत्वपूर्ण मुद्दा है। सचिवालयों में, सरकारी उद्द्यमों में, मीडियालय में, सिविल सोसाइटी आदि संस्थानों में बहुजनों की भागीदारी शून्य है। यहाँ पर बहुजनों की भागीदारी क्यों सुनिश्चित नहीं की जा रही है? क्या ये राष्ट्र-निर्माण का हिस्सा नहीं है ? क्यों ब्रह्मण-सवर्ण व अन्य गुलाम ओबीसी के बॅटवारे पर ही तुले है? क्यों ये संघी व अन्य सभी ब्राह्मणी रोग से ग्रसित लोग बहुजन एकता को ही खण्ड-खण्ड करने पर अमादा है? 

आरक्षण के सिलसिले में, ब्राह्मणो-सवर्णों व अन्य सभी संघियों के अनुसार जिन गिनी चुनी जातियो ने ओबीसी के पूरे आरक्षण का फायदा उठाया है वो भी सचिवालयों, कार्यालयों, विश्वविद्यालयों, न्यायालयों, उद्योगलयों, मीडियालयों, सिविल सोसाइटी आदि जगहों पर नदारद ही है क्यों? हमारे विचार से, इसका मतलब साफ है कि अभी तक जो भी आरक्षण मिला है वो भी पूरी तरह से लागू नहीं हो पाया है। बावजूद इसके, ब्राह्मण-सवर्ण और अन्य सभी संघी चाहते है कि ओबीसी का बटवारा कर दिया जाय। ये संघी यदि सामाजिक न्याय के प्रति इतने ही चिंतित है तो क्यों नहीं ओबीसी वर्ग से क्रीमी लेयर हटा देते, क्यों नहीं पिछड़ों को उनके जनसंख्या के अनुपात में उनको स्वप्रतिनिधितव व सक्रिय भागीदारी दे देते? क्यों नहीं ऐसी-एसटी को भी जनगणना २०११ के अनुसार उनको भी देश के शासन-प्रशासन, सचिवालय, विश्वविद्यालय, न्यायालय, उद्योगलय, मीडियालय, सिविल सोसाइटी आदि में उनका समुचित प्रतिनिधित्व व उनकी सक्रिय भागीदारी दे देते? लेकिन हाफ़ पेंट से फुल पैंट में आये संघी ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि इनकी मंशा सामाजिक न्याय नहीं बल्कि ओबीसी वर्ग में फूट डालना है, उसमे बनी एकता में सेंध लगाना है, बहुजन सामजिक परिवर्तन के महाक्रान्ति को कमजोर करना है, मन्दिर का मुद्दा पुराना हो गया तो नया मुद्दा बनाना है। 

फ़िलहाल, हम ये बात पूरे भरोसे से कहेगे कि यदि कोई पार्टी पूरी लगन से अपने एजेंडे के प्रति निष्ठावान है तो वो आरएसएस और बीजेपी है। ये अपने ब्राह्मणी कुकर्मो के प्रति पूरी ईमानदारी, निष्ठा और लगन से लगे हुए है। इनका मक़सद बढ़ते वंचित जगत को रोकना है। इसीलिए तो ये वंचित जगत पर व अन्य बहुजनों पर खुलेआम स्कूलों में, कालेजों में, विश्वविद्यालयों में, अन्य संस्थानों में, कार्यालयों में, और अन्य सभी संभव जग़ह पूरी तन्मयता और लगन से अत्याचार, अनाचार,और आक्रमण कर रहे है। वंचितों, पिछड़ों और अन्य बहुजनों के संविधान निहित मूलभूत लोकतान्त्रिक स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी के अधिकार का ना सिर्फ विरोध कर रहे है बल्कि उसकी जड़ों में गर्म पानी डाल कर सुखा रहे है। बहुजन सांस्कृतिक क्रान्ति को रोकने के लिए जगह-जगह भजन-कीर्तन करवा रहे है। सामाजिक परिवर्तन रोकने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक को प्रेस्टिट्यूट्स की मदद से सामने लाकर जनता को उसके मुख्य मुद्दे से भटका रहे है। अन्य सभी मुद्दों के लिए नोट बदली जैसे षड्यंत्र कर रहे है। देश को विकास का सपना दिखाकर देश को विदेशियों के हाथों बेच रहे है, रेलवे स्टेशंस का बिकना इसी प्रखर उदाहरण है। बहुजनों को राजनैतिक सत्ता से दूर करने के लिए फूट डालों-राज़ करों के षड्यंत्र के तहत बहुजन समाज को विभिन्न उपवर्गों में बाँट रहे है। कुल मिलाकर येन-केन-प्रकारेण इन ब्राह्मणों-सवर्णों का मतलब सत्ता पर कब्ज़ा कर देश के बहुजन समाज का शोषण करना ही है। 

लोकसभा २०१४ के आम चुनाव, उत्तर प्रदेश विधासभा २०१७ व अन्य चुनावों में जिस तरह से लोगों ने आँख बंद करके निर्णय लिया है उसी का नतीजा है की ये मनुवादी सनातनी जातिवादी वैदिक ब्राह्मणी ब्राह्मण-सवर्ण व अन्य गुलाम और संघी, इतना ढ़ीठ बन गया है। फ़िलहाल अब गेंद फिर जनता के पाले में है। हमारा मानना है कि लोकतंत्र अपने घावों पर मरहम खुद ही करता है। अब देखना ये है कि जनता इनसे प्रभावित होती है या फिर जनता इनको ही प्रभावित करती है।

धन्यवाद 

जय भीम, जय भारत।

(रजनीकान्त इन्द्रा, इतिहास छात्र, इग्नू-नई दिल्ली, अगस्त २४, २०१७)

Wednesday, August 23, 2017

How Discriminatory Jwaharlal was ?

How Discriminatory Jwaharlal was ? Dr Ambedkar has written about it Himself -
“As a result of my being a Member of the Viceroy’s Executive Council, I knew the Law Ministry to be administratively of no importance. It gave no opportunity for shaping the policy of the Government of India. We used to call it an empty soap box only good for old lawyers to play with. When the Prime Minister made me the offer, I told him that besides being a lawyer by my education and experience, I was competent to run any administrative Department and that in the old Viceroy’s Executive Council, I held two administrative portfolios, that of Labour and C.P.W.D., where a great deal of planning projects were dealt by me and would like to have some administrative portfolio. The Prime Minister agreed and said he would give me in addition to Law the Planning Department which, he said, was intending to create. Unfortunately the Planning Department came very late in the day and when it did come, I was left out. During my time, there have been many transfers of portfolios from one Minister to another. I thought I might be considered for any one of them. But I have always been left out of consideration. Many Ministers have been given two or three portfolios so that they have been overburdened. Others like me have been wanting more work. I have not even been considered for holding a portfolio temporarily when a Minister in charge has gone abroad for a few days. It is difficult to understand what is the principle underlying the distribution of Government work among Ministers which the Prime Minister follows. Is it capacity? Is it trust? Is it friendship? Is it pliability? I was not even appointed to be a member of main Committees of the Cabinet such as Foreign Affairs Committee, or the Defense Committee. When the Economics Affairs Committee was formed, I expected, in view of the fact that I was primarily a student of Economics and Finance, to be appointed to this Committee. But I was left out. I was appointed to it by the Cabinet, when the Prime Minister had gone to England. But when he returned, in one of his many essays in the reconstruction of the cabinet, he left me out. In a subsequent reconstruction my name was added to the Committee, but that was as a result of my protest”.
(What Nehru did with Dr. Babasaheb Ambedkar [Vol. 14, Part Two, pages.1317-1327] is the full text of Dr. Ambedkar’s speech on his resignation speech from his Cabinet on September 27, 1951. In his speech he states)


Tuesday, August 22, 2017

न्यायालय - एक न्यायिक संसद

न्याय की परिभाषा क्या है। न्याय के मापदण्ड क्या होने चाहिए। ये हमेशा से विद्वानों के लिए एक चुनौती रहा है। सभी विद्वानों ने अपने दौर में न्याय को परिभाषित करने के कोशिस की है। इन तमाम कोशिशों के बाद भी न्याय को आज तक उसकी मुक़म्मल परिभाषा नहीं मिल पायी है। हमारे विचार से, कभी मिल भी नहीं पायेगी क्योकि न्याय समय की माँग, मानव के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक वौद्धिकता के विकास पर निर्भर करती है। उदहारण स्वरुप, भारत में एक समय वो भी था जब नरबलि, सतीप्रथा, डोलाप्रथा, बाल-विवाह आदि जैसी घिनौनी निकृष्टतम बुराइयाँ भी न्याय संगत थी, लेकिन समय के साथ-साथ और मानव बौद्धिकता के सतत विकास के चलते, इस तरह की सारी प्रथाएँ आज ना सिर्फ अन्याय पूर्ण है, बल्कि अमानवीय भी है।
डी.डी. रैफल के अनुसार - "न्याय द्विमुख है, जो एक साथ अलग-अलग चेहरे दिखलाता है। वह वैधिक भी है और नैतिक भी। उसका संबंध सामाजिक व्यवस्था से है और उसका सरोकार जितना व्यक्तिगत अधिकारों से है उतना ही समाज के अधिकारों से भी है।.......वह रूढ़िवादी (अतीत की ओर अभिमुख) है, लेकिन साथ ही सुधारवादी (भविष्य की ओर अभिमुख) भी है।" (डी.डी. रैफेल, प्रॉब्लम्स ऑफ पॉलिटिकल फिलॉसफी, मैकमिलन, नई दिल्ली, 1977, पृ. 165)
यूनानी दार्शनिक अफलातून (प्लेटो) ने न्याय की परिभाषा करते हुए उसे सद्गुण कहा, जिसके साथ संयम, बुद्धिमानी और साहस का संयोग होना चाहिए। उनका कहना था कि न्याय अपने कर्त्तव्य पर आरूढ़ रहने, अर्थात् समाज में जिसका जो स्थान है उसका भली-भाँति निर्वाह करने में निहीत है (यहाँ हमें प्राचीन भारत के वर्ण-धर्म का स्मरण हो आता है जो पूर्णतः क्रूरतम व निकृष्टतम है लेकिन उस समय इस बुराई को भी न्याय संगत माना जाता था जबकि देश की सबसे बड़ी आबादी की सारी दुश्वारियों का कारण यही थी) उनका मत था कि न्याय वह सद्गुण है जो अन्य सभी सद्गुणों के बीच सामंजस्य स्थापित करता है। उनके अनुसार, न्याय वह सद्गुण है जो किसी भी समाज में संतुलन लाता है या उसका परिरक्षण करता है।
लॉक, रूसो और कांट जैसे विचारकों की दृष्टि में न्याय का मतलब स्वतंत्रता, समानता और कानून का मिश्रण था। कहने का मतलब यह है कि न्याय की परिभाषा समय की माँग के अनुसार बदलती रही है। लेकिन फिर भी, यदि न्याय को परिभाषित करे तो हम कह सकते है कि जो समाज और उसके हर नागरिक के हित में, समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व पर आधारित, जो सबसे अच्छा हो वही न्याय है। अब ये और बात है कि "हित" शब्द का दायरा बड़ा और छोटा हो सकता है। हित का ये दायरा आगे फिर समाज के बौद्धिक विकास पर ही निर्भर करता है।
बाबा साहेब के अनुसार न्याय के तीन मापदण्ड होते होते है - समता, स्वतंत्रता बंधुत्व। किसी भी क़ानून, विचारधारा, रीति-रिवाज़ या फिर धर्म आदि कितना मानव समाज व इसके नागरिकों के लिए हितकर है, इसका पैमाना समता, स्वतंत्रता बंधुत्व के सिद्धांत से ही तय होता है। यदि कोई भी क़ानून, विचारधारा, रीति-रिवाज़ या फिर धर्म आदि समता, स्वतंत्रता बंधुत्व के सिद्धांत पर खरे उतरते है तो वे न्यायपूर्ण है, अन्यथा नहीं।
फिलहाल, आम जनमानस तो कानून की किताबों में लिखे कुछ नियमों के पालन तक को ही या उलंघन करने पर एक व्यवस्थित संस्था द्वारा सुनाये गए निर्णय को ही न्याय समझता है। आमतौर पर ये सच भी है क्योंकि न्याय इसी रूप में लोगों के सामने आता है। जैसा कि बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षाप्रतीक मानवता मूर्ती बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर कहते है कि न्याय को तय करने का पैमाना समता-स्वतंत्रता बंधुत्व होना चाहिए। बाबा साहेब मानव जीवन में होने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आर्थिक नीतियों और परिस्थितियों को न्याय की इसी कसौटी पर देखते है। यहाँ तक कि धर्म को भी मानवीय धर्म कहलाने के लिए बाबा साहेब के इसी समता-स्वतंत्रता बंधुत्व पर आधारित न्याय के सिद्धांत पर खरा उतरना होगा। यदि कोई भी धर्म या मानव समाज द्वारा किया कोई भी कार्य चाहे वो राजनीतिक हो, सामाजिक-सांस्कृतिक हो या फिर आर्थिक हो इन सबको न्याय सम्मत होने के लिए समता-स्वतंत्रता बंधुत्व की कसौटी वाले इसी न्याय के सिद्धांत पर खरा उतरना होगा। यदि ऐसा नहीं होता है तो वह कार्य कृत्य किसी भी कीमत पर मानवीय नहीं हो सकता है।
फ़िलहाल, यदि आज की न्याय व्यवस्था न्यायालयों को देखे तो न्यायालयों का कार्य संविधान संसद द्वारा बनाये कानूनों के अनुसार सही या ग़लत का निर्णय करना (सिवाय कुछ बहुत सीमित क्षेत्र को छोड़कर जहाँ के लिए सीधे तौर पर कोई क़ानून दिखाई नहीं देता है, वहाँ अदालत विवेकाधिकार के आधार पर संविधान के मूल सिद्धांतों के दायरे में रहते हुए फैसला दे सकती है, कुछ नियम या गाइड लाइन जारी कर सकती (ज्यूडिसियल लेजिस्लेशन), लेकिन ये दायरा बहुत ही सीमित है। ये और बात है कि न्यायालयों में बैठे ब्राह्मण-सवर्ण जजों ने इसका ख्याल बहुत कम ही रखा है)। न्यायालयों को यदि हम भारत के परिप्रेक्ष्य में देखे तो हम पाते है कि न्यायालयों में एक ख़ास तबके का एक छत्र राज़ है - ब्राह्मण-सवर्ण फिरका। जबकि भारत में इस ब्राह्मण-सवर्ण-ब्राह्मणी समाज की तादात लगभग १२-१५% है और बहुजन समाज की आबादी ८५-८८% के क़रीब है। और तो और, अदालतों में तीन-चौथाई से काफ़ी अधिक मामले वंचित, आदिवासी, पिछड़े और अक़लियत समाज के खिलाफ है। कहने का तात्पर्य ये है कि भारत के जातिवादी समाज में जिस तबके के खिलाफ मुकदमे है उस तबके का न्यायलयों में प्रतिनिधित्व नगण्य है। मतलब कि भारत के न्याय व्यवस्था में शोषितों का प्रतिनिधित्व व भागीदारी नगण्य है और शोषकों का लगभग सौ फ़ीसदी है। भारत के न्यायलयों पर उस ब्राह्मण तबका का एक छत्र राज़ है जिसके पास न्यायिक चरित्र होता ही नहीं है (प्रिवी काउन्सिल, ब्रिटिश सरकार)। ऐसे में इन न्यायालयों में एक छत्र राज़ कर रहे ब्राह्मणो-सवर्णों, जो कि शोषक वर्ग है, वंचितों के लिए न्याय एक दिवा-स्वप्न के सिवा कुछ नहीं है। 
बाबा साहेब सरकारी पदों पर बैठे अधिकारीयों व कर्मचारियों के बारे में कहते है कि अधिकारीयों व कर्मचारियों का सिर्फ भ्रष्ट होना उतना खतरनाक नहीं है जितना कि उनका पक्षपाती (जातिवादी) भष्ट होना। बाबा साहेब कहते है कि यदि एक अधिकारी भ्रष्ट है तो उसे कोई भी अधिक बोली लगाकर खरीद सकता है लेकिन यदि वो पक्षपाती (जातिवादी) भ्रष्ट है तो उसे सिर्फ उसकी जाति वाला ही खरीद सकता है। और, यदि कोई ख़रीददार नहीं मिला तो भी वह बिना एक भी पैसा लिए, अन्याय ही करेगा क्योंकि वो पक्षपाती (जातिवादी) भी है। कहने का तात्पर्य ये है कि जाति, जातिवाद, जातिवादी अत्याचार, जातिवादी हमले आदि भारत की सच्चाई है। भारत के न्याययलयों में पुरुषवादी नारी-विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी बैदिक ब्राह्मणी हिन्दू आतंकवादी ब्राह्मणों-सवर्णों का ही अवैध, अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक कब्ज़ा है। इसे नज़रअंदाज़ करके न्याय नहीं किया जा सकता है। ये और बार है कि भारत के न्यायालयों में जाति को नज़रअंदाज़ करके की जातिवादी न्याय किया जा रहा है, और बेहतर शब्दों में कहें तो जातिवादी न्याय करके इसे खुलेआम बेचा जा रहा है।
भारत में अदालतों का जो जातिवादी पक्ष देखने को  मिलता है उसके मद्देनज़र, हमारे विचार से, न्यायलय एक न्यायिक संसद है। इसमें भी राजनीति होती है। इसमें भी फ़ैसला बहुमत से ही होता है, संविधान की मूल आत्मा कानून की मंशा से नहीं। यही कारण है कि अदालतों के फ़ैसले भी दो प्रकार के होते है - मेजॉरिटी जजमेन्ट और माइनॉरिटी जजमेन्ट। इसलिए न्यायालयों के हर क्षेत्र के हर स्तर पर वंचित जगत का समुचित प्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी (आरक्षण) अनिवार्य है। यही लोकत्रांतिक मूल्य और यही बाबा साहेब रचित भारत संविधान की मंशा है। 
भारत के न्यायलयों की जातीय संरचना के मद्देनज़र देखे तो हम पाते है कि भारत के न्यायलयों पर पुरुषवादी नारी-विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी बैदिक ब्राह्मणी हिन्दू आतंकवादी ब्राह्मणों-सवर्णों का ही अवैध, अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक कब्ज़ा है। यहाँ पर वंचित, आदिवासी, पिछड़े और अकलियतों की भागीदारी लगभग शून्य है, जबकि भारत के जनसंख्या में इनकी कुल भागीदारी ८५% से भी अधिक है। अदालतों में जो मुकदमे आते है उनमे वंचित जगत, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यों पर अत्याचार, आक्रमण, अतिक्रमण के मुकदमे होते है। ये अत्याचार, आक्रमण, अतिक्रमण करने वाले कोई और नहीं बल्कि वही पुरुषवादी नारी-विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी बैदिक ब्राह्मणी हिन्दू आतंकी ब्राह्मण-सवर्ण ही है। इस स्थिति में जब फ़ैसले बहुमत यानी कि संविधान कानून के आधार पर ना होकर जजों की निजी मंशा के अनुरूप होता है तो ऐसा न्याय कितना न्यायपूर्ण होगा इसको समझाना बहुत ही सरल सहज है। कहने का तात्पर्य ये है कि जब अदालतों के फ़ैसले लोकतंत्र संविधान निहित मूल्यों के बजाय बहुमत-अल्पमत से होते है।मतलब कि ब्राह्मणी जजों की निजी मंशा के अनुसार होते है। इन्हीं ब्राह्मणी जजों का देश के न्यायलयों पर एक छत्र राज़ है। देश के न्यायालयों में ब्राह्मणों-सवर्णों के एक छत्र राज़ के चलते देश की न्यायिक संसद के पटल पर सत्ता में भी वही है और विपक्ष में भी। तो साधारण सी बात है कि बहुमत भी उन्हीं ब्राह्मणों व सवर्णों का ही है। तो ऐसे में वंचित जगत को न्याय कैसे मिल सकता है।
भारत के पूरी न्याय व्यवस्था को देखे तो हम पाते है की वकील, जज, अधिकारी, मुंशी चपरासी सबके सब उसी ब्राह्मणी फिरके से आते है, सिवाय फरियादी के।उदहारण के लिए उत्तर प्रदेश की हायर ज्यूडिसियल सर्विसेस में लगभग पिछले उन्नीस सालों में वंचित जगत का चयन शून्य रहा है, क्यों। इसके पीछे के षड्यंत्रकारी कारण को समझने की जरूरत है। पहली बात तो ये है कि यही हायर ज्यूडिसियल सर्विस द्वारा चयनित जज ही जिला स्तर पर न्याय व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करते है और यही आगे चलकर हायर ज्यूडिसियरी में जज बनते है। ये कहने की जरूरत नहीं है कि किसी भी नियम या कानून की वैधानिकता व संवैधानिकता को तय करने का अधिकार हायर ज्यूडिसियरी को ही है। तो ऐसे में, इन अलोकतांत्रिकवादी ब्राह्मणों-सवर्णों ने न्यायपालिका के सबसे महत्वपूर्ण पदों को खुद तक सीमित कर लिया है। 
दूसरी बात ये है कि इन अलोकतांत्रिकवादी ब्राह्मणों-सवर्णों ने कैसे बड़ी ही धूर्तता से वंचित जगत को हायर ज्यूडिसियरी में जाने से रोक रखा है। उत्तर प्रदेश की हायर ज्यूडिसियल सर्विसेस में योग्यता के लिए एल.एल.बी. के साथ सात साल का वक़ालत का अनुभव होना चाहिए। सवाल यह उठता है कि जब जिलाधिकारी बनने के लिए सिर्फ़ स्नातक की डिग्री काफी है, पुलिस अधीक्षक बनने के भी स्नातक ही काफी है, इंजीनियर होने के लिए बी.टेक काफी है, तो फिर जिला जज बनने के लिए ही क्यों एल.एल.बी. के बाद सात साल का वकालत रिकार्ड चाहिए। इसके पीछे भी अलोकतांत्रिक व असंवैधानिक तरीके से सत्तासीन ब्राह्मणों का क्रूर व घिनौना षड्यंत्र है।
ब्राह्मण ये जनता है कि वंचित, आदिवासी, पिछड़े जगत के लोग आर्थिक रूप से ग़रीब है, सामाजिक तौर पर कमज़ोर है। इसलिए यदि पढ़े तो कुछ पढ़े नहीं तो होश सभालते ही रोजी-रोटी में जुट जाना इनकी मज़बूरी है। यदि कुछ ने पढाई की भी तो दसवीं-बारहवीं के बाद से ही ये नौकरी के लिए भागने लगते है। बड़ी ही दुश्वारियों का सामना करने के बाद कुछ लोग किसी तरह से स्नातक कर पाते है। स्नातक करने बाद, घर की आवश्यकताओं और रोजी-रोटी के लिए नौकरी बहुत जरूरी हो जाती है। ऐसे में वंचित जगत के लोग स्नातक स्तर पर कुछ तैयारी करने के बाद जो भी नौकरी मिल जाये उसी से संतोष कर लेते है। इनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति इनको इससे ज्यादा का समय नहीं देती है। इसलिए वंचित जगत के लोगों के लिए पहले कम से कम तीन साल का स्नातक, फिर तीन की एल.एल.बी. और फिर सात साल का वक़ालत रिकार्ड उनकी आर्थिक सामाजिक पहुँच के बाहर की बात हो जाती है। जबकि सामाजिक रूप से वर्चश्वशाली और आर्थिक रूप से समृद्धि व संपन्न ब्राह्मण-सवर्ण समाज के लिए वही पढाई बहुत आसान होती है। ब्राह्मणों-सवर्णों को गाइड करने, नोट्स उपलब्ध कराने, वक़ालत करने में सहयोग देने वाला, सिफारिस करने वाले, जरूरत पड़े तो अन्य सभी सम्भव मदद करने वाले भैया-चाचा-ताऊ-मामा-फूफ़ा-जीजा-यहाँ तक कि ब्राह्मण-सवर्ण जाति वाला पड़ोसी भी मिल जाता है। जानकारी का आभाव, दिशा-निर्देश का आभाव, कॅरियर संबंधी जानकारी का आभाव, अपनों के सहयोग का आभाव आदि से महरूम वंचित जगत का अधिकांश समय इन अभावों की भरपाई करने में ही लग जाता है। इसके बाद तब कहीं जाकर इनको उचित जानकारी मिल पाती है। फ़िलहाल तब तक एक बहुत लम्बा समय बीत चूका होता है, उम्र भी बढ़ चुकी होती है, घर की आर्थिक परिस्थिति मजबूर कर रही होती है, सामाजिक बन्धन पैरों को बाँधने को तत्पर होते है, अपने से छोटों की जिम्मेदारियाँ उफ़ान पर होती है। ऐसे में तीन साल का स्नातक, फिर तीन साल की एल.एल.बी. और फिर कम से कम सात साल की वकालत बहुत ही मुश्किल हो जाता है। नतीजा, या तो वंचित जगत का छोटी-मोटी सरकारी ना सही तो प्राइवेट और प्राइवेट भी ना मिली तो मज़दूरी से घर की रोजी-रोटी और अपनों की जिम्मेदारियाँ उठाने में ही उम्र गुजर जाती है। ऐसे में वंचित जगत को सरकार की नीतियों और संसद-विधानसभा और न्यायालयों पर सवाल करने का समय तो नहीं मिल पाता है, सत्ता में अवैध, अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक तरीके से काबिज़ ब्राह्मणों-सवर्णों के षड्यंत्रों को जानना-समझना तो बहुत दूर की बात है। कहने का मतलब है कि बारहवीं के बाद तेरह साल तक लगातार मेहनत करने के बाद (यदि विश्वविद्यालयों में बैठा जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी प्रोफ़ेसर फेल ना करे तब) इनको उत्तर प्रदेश की हायर ज्यूडिसियल सर्विसेस में सिर्फ आवेदन करने के लायक़ बनती है। फिर इसके बाद इनका हायर ज्यूडिसियल सर्विसेस में चयन होगा, इसकी कोई गारण्टी नहीं है, क्योकि लोक सेवा आयोग और न्यायालयों में भ्रष्ट नहीं, पक्षपाती (जातिवादी) भ्रष्ट लोग बैठे हुए है।
अब सवाल ये उठता है कि ये अलोकतांत्रिक असंवैधानिक तरीके से सत्तासीन ब्राह्मण वंचित जगत को दुखी आत्मा से ही सही लेकिन जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक तो बनने देता है लेकिन जिला जज, हायर ज्यूडासरी के जज और प्रोफ़ेसर वाले पदों के मामलों में ये उदासीन भी नहीं रहता है बल्कि प्रखर विरोध करता है, क्यों? हमारे विचार से, लोकतंत्र में जहाँ एक आदमी-एक वोट और एक वोट-एक मूल्य है तो वहां पर ये वंचितों के अधिकारों को रोक नहीं पाते है, लेकिन इन्हीं न्यायालयों में एक छत्र अलोकतांत्रिक, असंवैधानिक व अवैध रूप से कब्ज़ा जमाये पुरुषवादी नारी-विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी ब्राह्मण-सवर्ण जजों की मदद से, ये ब्राह्मणी लोग वंचितों को ना सिर्फ वंचितों को उनके संविधान प्रदत्त मूलभूत मानवाधिकारों व लोकतान्त्रिक अधिकारों से रोक देते है बल्कि ये ब्राह्मण-सवर्ण मनचाहा रूप से वंचित का मनचाहा-मनमाना जातिवादी ब्राह्मणी मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी सामंती शोषण करते है कहने का मतलब यह है कि जो काम ये ब्राह्मण-सवर्ण संसद के द्वारा नहीं कर पाते है, ये लोग वही कार्य सरलतापूर्वक न्यायालयों में एक छत्र अलोकतांत्रिक, असंवैधानिक व अवैध कब्ज़ा जमाये ब्राह्मण-सवर्ण जजों के माध्यम से बड़ी ही सहजता से करवा लेते है। क्योकि, न्यायालयों में जजों के लगभग सभी पदों पर यही पुरुष-प्रधान नारी-विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी बैदिक ब्राह्मणी हिन्दू आतंकी ब्राह्मण-सवर्ण ही बैठे है। उदहारण स्वरुप - जब संसद के माध्यम से ब्राह्मण ब्राह्मणी रोगी मण्डल कमीशन को नहीं रोक पाए तो न्यायालयों के माध्यम से क्रीमी लेयर, रिज़र्वेशन अंडर फिफ्टी परसेंट का प्रावधान लागू करवा लिया अदालतों ने ही निर्णय दिया था कि मेडिकल इंजिनीरिंग सस्न्थानों आदि में यदि आरक्षण के तहत सुरक्षित सीट्स पर आरक्षित वर्ग से योग्य उम्मीदवार ना मिले तो उन स्थानों पर सवर्णों को भरा जा सकता है। संसद विधान सभाओं द्वारा पदोन्नति में आरक्षण का प्रावधान लागू हुआ था लेकिन इन्हीं न्यायायलों ने इसे असंवैधानिक करार कर निरस्त कर दिया।
इसीलिए एनडीए- की बाजपाई सरकार में, जब एक बहुजन विरोधी आतंकवादी संगठन आरएसएस के एक आतंकवादी ने बाजपेयी से आरक्षण को खत्म करने की बात कही तो बाजपेयी के जबाब दिया कि ये काम संसद द्वारा संभव नहीं है। इसके लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाओ। वहाँ से बड़ी आसानी से ये कार्य किया जा सकता है। ऐसा बाजपेयी इसलिए कहते है क्योकि बाजपाई जानते है कि एक आदमी-एक वोट और एक वोट-एक मूल्य वाली संसद में मजबूरी के कारण आरक्षण के ख़िलाफ़ कुछ नहीं हो सकता है लेकिन न्यायालयों में तो उन्हीं पुरुषवादी नारी-विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू आतंकवादियों का ही अवैध-अलोकतांत्रिक-असंवैधानिक कब्ज़ा है। इसलिए न्यायालयों के माध्यम से ये काम बहुत ही सुगमता करवाया जा सकता है और, ये कार्य हुआ भी और ये बहुजन विरोधी ब्राह्मणी आतंकवादी अपने मकसद में पूरी तरह से कामयाब भी हुए। मतलब साफ़ है कि न्यायलयों में बैठे ब्राह्मण ब्राह्मणी रोग से ग्रसित रोगियों ने वही किया जो वंचित जगत, आदिवासी जगत, पिछड़े जगत का धुर विरोधी ब्राह्मण-सवर्ण चाहता है।
ठीक इसी तरह से, ये पुरुषवादी नारी-विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी बैदिक ब्राह्मणी हिन्दू आतंकी ब्राह्मण-सवर्ण, वंचित जगत को प्रोफ़ेसर रिसर्च के पदों पर भी जाने से रोकता है। क्योकि, ये ब्राह्मण-सवर्ण अच्छी तरह से जनता है कि यदि वंचित जगत के लोग प्रोफ़ेसर रिसर्च के पदों पर आ गए तो ये अपने वज़ूद को खोजेगें, अपनी अस्मिता को ढूढ़ेगें, अपनी संस्कृति को खोदकर निकलेगें और, जब ये वंचित जगत अपनी पहचान, वज़ूद और संस्कृति और इतिहास को खोजेगा तो भारत का ये वंचित जगत इन ब्राह्मणों की सदियों से चली रही अमानवीय निकृष्टतम ब्राह्मणी सत्ता को हमेशा-हमेशा के लिए धरती के कोर में दफ़न कर देगा। इसीलिए देश के सभी प्रतिष्ठित मेडिकल, इंजिनीरिंग, विज्ञानं, सामाजिक-विज्ञानं के सभी संस्थानों विश्वविद्यालयों में आरक्षण को येन-केन-प्रकारेण नकार दिया जाता है। यदि फिर भी कोई वंचित पहुँच भी गया तो उसके साथ जातिवादी सलूक़ किया जाता है। वंचित जगत के शोध छात्रों (जैसे कि रोहित वेमुला, हैदराबद विश्वविद्यालय, जेएनयू, केंद्रीय विश्वविद्यालय अजमेर, बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर केंद्रीय विश्विद्यालय लखनऊ, आईआईटी-मद्रास आदि) पर हमले किये जाते है। विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों व अधिकारीयों (जैसे कि बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर केंद्रीय विश्विद्यालय लखनऊ में वंचित जगत से सम्बंधित महिला सहायक रजिस्ट्रार के साथ ब्राह्मण कनिष्ट रैंक के अधिकारी द्वारा बद्सलूकी, बदजुबानी, फ़िजकल अटैक किया जाता है, आदि) पर आक्रमण किये जाते है। जहाँ तक रही बात भारत के सरकारी गैर-सरकारी संस्थाओं में साइलेंट जातीय शोषण की तो वह भारत के ब्राह्मणी समाज का सांस्कृतिक हिस्सा ही है। 
कुल मिलाकर आज भारतीय न्यायलय, न्याय की संस्था होने के बजाय ब्राह्मणो ब्राह्मणी जजों की संस्था बनकर रह गयी है। यहाँ न्याय संविधान के अनुसार नहीं बल्कि मनुस्मृति के अनुसार होता है। यहाँ फ़ैसला कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत के बजाय जाति धर्म देखकर होता है। यहाँ कानून का नहीं बल्कि मनुवादियों का राज़ है। यहाँ न्याय मिलता नहीं है बल्कि पक्षपाती (जातिवादी) रूप से बिकता है। अदालतों में ज्यादातर मामलात वंचित, आदिवासी, पिछड़े और अकिलियत समाज से जुड़े है, सबसे ज्यादा अंडरट्रायल इसी वर्ग के लोग है, सबसे ज़्यादा फांसी इसी वर्ग के लोगों को होती है, जेलों में कैद लोग इसी बहुजन समाज के लोग है, सबसे ज्यादा अत्याचार और आक्रमण इसी बहुजन समाज पर होता है, लेकिन लगभग सभी वकील और जज सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मण-सवर्ण समाज है, क्यों? हमारे बहुजन समाज की भागीदारी न्याय व्यवस्था में नगण्य है, क्यों ? आज संविधान के बेसिक मूल्यों के मुद्दे पर, जो कि पूर्णतः स्पष्ट है, वहाँ पर भी ब्राह्मण ब्राह्मणी रोगी विवाद की स्थिति बनाकर न्यायालयों द्वारा बहुमत-अल्पमत वाले फैसले दे रहे है, क्यों? यदि हम गौर से देखे तो ये न्यायालय कम ब्राह्मणी सत्ता व ब्राह्मणी विपक्ष वाला संसद ज्यादा लगता है। यहाँ न्यायिक लेजिस्लेशन पारित होते है। ये भी उसी बहुमत-अल्पमत की थ्योरी पर आधारित है जिससे कि ब्राह्मणों द्वारा लिए गए एकतरफा ब्राह्मणी फैसले एकतरफा ना कहा जाय। ऐसे में ये न्यायालय, न्यायलय ना होकर ब्राह्मणी सत्ता-ब्राह्मणी विपक्ष वाला न्यायिक संसद बन चुका है। और जब ये न्यायालय, न्यायिक संसद बन चुके है तो ऐसे में लोकतान्त्रिक व संवैधानिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए इस न्यायिक संसद में हर वर्ग का समुचित प्रतिनिधित्व सक्रिय भागीदारी अनिवार्य हो जाती है। ऐसे में, न्यायिक संसद के हर क्षेत्र के हर स्तर पर बिना समुचित प्रतिनिधित्व सक्रिय भागीदारी के वंचित जगत को न्याय नहीं मिल सकता है।
हमारे विचार से, न्याय व्यवस्था के सभी जगहों पर हमारी समुचित प्रतिनिधित्व सक्रिय भागीदारी के नगण्य होने की वजह से ही बहुजन समाज के साथ अत्याचार, अनाचार व बहुजन समाज पर रोज आक्रमण हो रहे है, बहुजन ही फांसी पर चढ़ रहे है, अंडरट्रायल के रूप में पूरी की जिंदगी सलाखों के पीछे काट दे रहे है।
फ़िलहाल, समाज और उसके हर नागरिक के हित में, समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व के सिंद्धात पर आधारित, जो सबसे अच्छा हो वही न्याय है लेकिन "हित" के दयारात्मक पहलू की जटिलता व विशालता के दायरे को देखने से पता चलता है कि हम न्यायालयों में बहुमत-अल्पमत आधारित निर्णयों को नकार नहीं सकते है। ऐसे में जब अदालतों के फैसले भी संसद की तरह जनमत से ही हो रहे है तो भारत के न्यायालयों को न्यायिक संसद कहना सटीक रहेगा। इसलिए स्पष्ट तौर पर न्यायलयों को न्यायिक संसद कहना उचित है। हम सब जानते है कि संसद में हर तबके की भागीदारी। हर तबके का समुचित प्रतिनिधित्व होता है। हर तबके के लोग अपने प्रतिनिधियों द्वारा अपनी बात को निर्भीकता से रख सकते है। बहुमत-अल्पमत को मद्देनज़र, हमारे विचार से, न्यायलय एक न्यायिक संसद है। इसमें भी राजनीति होती है। इसमें भी फ़ैसला बहुमत से ही होता है, भारत के जातिवादी लोगों की जातिवादी मंशा के चलते संविधान की मूल आत्मा से नहीं। यही कारण है अदालतों के फ़ैसले भी दो प्रकार के होते है - मेजॉरिटी जजमेन्ट और माइनॉरिटी जजमेन्ट। इसलिए न्यायालयों के हर क्षेत्र के हर स्तर पर वंचित जगत का समुचित प्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी (आरक्षण) अनिवार्य है। यही देश के हर समुदाय के हर नागरिक के हित में है। यही लोकत्रांतिक मूल्य और यही बाबा साहेब रचित भारत संविधान की मंशा है।
(रजनीकान्त इन्द्रा, इतिहास छात्र, इग्नू-नई दिल्ली, अगस्त २२, २०१७)