Friday, January 31, 2014

जाति व्यवस्था, छुआछूत और भेद-भाव : भारत के राष्ट्र बनने के मार्ग में बाधक

भारत, एक देश जहाँ विविधिता में एकता दिखाई पड़ती है। ऐसा देश जिसने कई संकृतियों को अपने आँचल में स्थान दिया, कई भाषाओ, धर्मों के मिलन और कई भाषा के जन्म का साक्षी बना है। ऐसा देश जिसको आकाश में उड़ती चिड़िया की नजरो से देखने पर "अनेकता में एकता" दिखाई पड़ती है। ऐसा दिलकश आयामी नजारा शायद ही किसी देश की मिटटी को नशीब हुआ हो, लेकिन इन सबके बावजूद, क्या आज का भारत एक राष्ट्र है? 
हमारे इतिहासकारों के अनुसार, भारत देश की इन्ही विविधता का गुणगान गाते-गाते कई देशभक्त शहीद हो गये । यह सही भी है क्योकि कुछ लोगों ने अपनी जान गंवाकर देश को आज़ाद कराने कोशिश की थी । लेकिन, ये गौर करने की बात है कि - क्या वे राष्ट्रभक्त थे ? जब भारत, आज भी एक राष्ट्र नहीं है तो फिर आज से दशकों पहेले राष्ट्रभक्त कैसे पैदा हो गये ? भारत, एक ऐसा भू-खंड है जो राजनीतिक रूप से स्वतंत्र और सम्प्रभु प्रान्त है भारत एक राष्ट्र नहीं बल्कि सैकड़ों राष्ट्रो का एक समूह है। प्रख्यात विद्धवान विश्वविभूषण बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर ने भी भारत को एक ऐसा ही प्रान्त बताया है जो कि राष्ट्र बनने की तरफ अग्रसर है।
भाषायी, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं अन्य विविधताओ से भरा, ये स्वतंत्र और सम्प्रभु राजनितिक भू-खंड, आज भी अपने राष्ट्र रुपी वजूद को बनाने के लिए लड़ रहा है। कहीं पर भाषा के नाम पर तो कहीं पर संस्कृति और संस्कार के नाम पर रोज विवाद हो रहा है। इस स्वतंत्र और सम्प्रभु राजनितिक भू-खंड पर, आज भी लोगों को अपने पूरे अधिकार प्राप्त नहीं है। भारत के इस धरती पर भेद-भाव और जाति-पाति जैसा कैंसर आज भी सुदृढ़तापूर्वक कायम है। इस स्वतंत्र और सम्प्रभु राजनितिक भू-खंड पर आज भी केवल कुछ चंद मुट्ठीभर सवर्ण वर्ग का ही वर्चस्व है। भारत एक ऐसा देश जहाँ पर, बोली अलग, पहनवा अलग, सस्कृति अलग, भौगोलिक दशाएं अलग, रहन-सहन अलग, खेती-बाड़ी के तरीके अलग, एक दूसरे पर विश्वास नहीं, धर्म, वर्ग, जाति, बोली, पानी आदि के लिए परस्पर और निरंतर द्वन्द है । क्या ऐसा देश एक राष्ट्र हो सकता है ।
विविधताओ का होना अच्छी बात है, लेकिन इन्ही विविधताओ का आपस में संघर्ष होना उससे भी ज्यादा हानिकारक बात है। सबसे बड़ी यह बात है- भारतीय समाज की सोच में ही छुआछूत और असमानता की भावना का होना। जाति-पाति का ये जहर आज भी आज के भारत की रगों में दौड़ रहा है। क्या, ऐसा देश जिसमे कोई समानता ही नहीं है, राष्ट्र कहलाने के योग्य है? ये कैसा राष्ट्र है…...जहाँ पर राष्ट्र को परिभाषित करने वाले अनेको तथ्यों में से सिर्फ और सिर्फ मुख्यत: दो ही तथ्य मौजूद है । पहला तथ्य, अंग्रेज प्रदत्त अंग्रेजी भाषा, जिसके लिए सभी भारतीयो को अंग्रेजो का शुक्रगुजार होना चाहिए । दूसरा तथ्य, बाबा साहेब आंबेडकर द्वारा दिया गया - बहुमूल्य उपहार, भारतीय संविधान। इन दोनों के अतिरिक्त कोई भी और ऐसा महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है जो भारत को राष्ट्रीयता के एक सूत्र में बांधता हो।
उपर्युक्त दो तथ्यों को छोड़कर, हर कोई तथ्य आज भारत को सिर्फ और सिर्फ सैकड़ो राष्ट्रो का एक बड़ा सा स्वतंत्र और सम्प्रभु राजनितिक भू-खंड ही साबित करता है । भारत में जितनी विविधता है, भारत में उतने ही राष्ट्र है। ये विवधता तभी उपयोगी होगी जब इनमे आपस में बराबरी, सहयोग, परस्पर प्यार -सम्मान और सौहार्द होगा, जो कि आज़ादी के छह दशको के बाद भी भारत को नशीब नहीं हुआ है ।
आज इस बड़े से स्वतंत्र और सम्प्रभु राजनितिक भू-खंड पर दो-तिहाई से भी ज्यादा तथाकथित हिन्दू रहते है, तो यह भी सही है कि स्वतंत्र और सम्प्रभु राजनितिक भू-खंड को एक राष्ट्र बनाने में हिन्दुओ का योगदान भी सबसे ज्यादा होना चाहिए, लेकिन ये हिन्दू वर्ग ही जाति-पाति और छुआछूत जैसी निकृष्ट बुराइयों को पाल कर भारत की राष्ट्रीयता में जहर घोल रहा है। अगर ये हिन्दू वर्ग, समता-सम्मान, न्याय, परस्पर प्रेम और सौहार्द को आत्मसात कर ले, तो भारत को राष्ट्र बनने में बहुत ज्यादा देर नहीं लगेगी क्योकि अन्य धर्मो के लोगो में उतने विषमता, वैमनश्यता, जाति और भेद-भाव नहीं है जितनी कि सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति व धर्म में है।
लेकिन, आज बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि ये हिन्दू धर्म ही भारत के राष्ट्र बनने में सबसे बड़ा बाधक है। ये वही हिन्दू धर्म है जिसने दुनिया को छुआछूत, जांति-पांति, ऊँच-नीच, लिंग-भेद, नफरत, जैसी सामाजिक बुराईयो का निकृष्ट उपहार दिया है। इसी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति व धर्म का बोया हुआ ब्राह्मणवाद का बीज, आज भी भारत को हजारों टुकड़ो में बाँट रहा है। क्या इस तरह का खंडित भारतीय भू-खंड एक राष्ट्र हो सकता है ? 
ये वही विविधिताओं से भरा स्वतंत्र और सम्प्रभु राजनितिक भू-खंड है जिस पर आज भी वंचितों पर सरेआम जातिवादी हमला, बलात्कार, देवदासी, छुआछूत, जांति-पांति, लिंग-भेद, बाल-विवाह, खाप पंचायत, मानवाधिकारो का हनन, गणेश का दूध पीना, कृष्ण का दही खाना, ब्राह्मणी आतंकवाद, ब्रह्मणो का वर्चश्व और बाहुबलियो का राज और धार्मिक सौहार्द के बजाय उनमे निरंतर परस्पर संघर्ष चल रहा है। क्या राष्ट्र ऐसा होता है ?
भारत की राष्ट्रीयता को खंडित करने में जांति-पांति का सबसे अहम् स्थान है। आज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र में बँटा भारतीय बहुसंख्यक समाज अपने-अपने स्वार्थो व अधिकारों की लड़ाई मात्र लड़ रहा है। ये वर्ग विभाजन, यही ख़त्म नहीं होता है। ब्राम्हणो द्वारा फैलाया गया ये जहर, भारत के शुद्रो को आपसे में लड़ा रहा है। ब्राह्मणवाद की पैदाइस कुर्मी जांति जो सिर्फ बैलों की तरह खेतो में मजदूरी करता था, दिनभर जानवरो के साथ जानवरो की तरह विचरण करने वाला अहीर, दूसरों के बदन के कपड़ो को धोने वाला धोबी, गुह, निषाद, मलाह, जाट आदि जातियॉ जो कि एक ही मिटटी से बनी है, आज ये आपस में ही कुत्ते-बिल्ली की तरह लड़ रही है। ये वंचित जातियाँ अपने आपको एक दूसरे से ऊँचे होने की जद्दोजहद कर रही है। समानता को नकार चुका समाज एक राष्ट्र कैसे हो सकता है। समय के साथ और दूसरों धर्मो के भारत में आगमन के कारण, ब्राह्मणों ने ब्राह्मणवाद के षड्यंत्र के तहत अछूतों को भी शुद्रो के वर्ग में शामिल कर लिया। लेकिन फिर भी, आज दलितो के विरूद्ध शुद्र खुद ही ब्राह्मण बन बैठा है। नतीजा, शुद्रो के द्वारा भी दलितों के शोषण। क्या ऐसा समाज, किसी भी तरह से एक राष्ट्र हो सकता है? 
ये सारी जातियां उसी प्रकार से लड़ रही है जिस प्रकार से दो भाई आपसे में लड़ते है और उन्हें लड़ाने वाला पडोसी अपना फायदा उठता है। शुद्रो को आपस में बाँट कर लड़ाने वाला ब्राह्मण वर्ग आज भी अपने व्यापार को पूरी तरह से फैलाये हुआ है। ये व्यापर मंदिरों, भगवत और सत्य नारायण की कथाओ, जो कि असत्यों से भरा पड़ा है, के रूप में आज भी विधमान है। ये वही पुजारी और ब्राह्मण वर्ग है जो बच्चे की पैदाइस से लेकर मरण तक की भीख लेता है और बिना कर्म किये जीवन यापनं करते हुए षड्यंत्रों से परिपूर्ण ब्राह्मणवादी गीता में लिखे श्लोको को सार्थक करता है। आज इस वैज्ञानिक युग में भी कहीं गणेश दूध पीता है, कहीं कृष्ण दही खाता है। क्या इस तरह की निकृष्ट, अंधविश्वासी, कट्टरवादी सोच को लेकर भारत एक महान, समतापूर्ण, न्यायपूर्ण, समृद्धिशाली संपन्न राष्ट्र बन सकता है? क्या नारी व शुद्रो के साथ जानवरो जैसा, और जम्बारों (दलितों) के साथ जानवरो से भी बदतर बर्ताव करने वाला समाज राष्ट्रवादी हो सकता है? क्या ऐसी सामाजिक पृष्ठिभूमि पर बना देश एक राष्ट्र हो सकता है। 
आज के शूद्र (पहले के शूद्र और मूल-निवासी दलित) ये भूल चुके है कि भारत में जाति का आगमन ब्राह्मणवाद के साथ हुआ था इसके पहले भारत में कोई भी जाति नहीं थी, कोई भेद-भाव नहीं था। ब्राह्मणवाद के फलस्वरूप वर्णवाद, जातिवाद और छूआछूत आदि जैसी निकृष्ट और घिनौनी बुराइयों का जन्म हुआ। दूसरे देश (यूरेशिया ) से भगाया हुआ ब्राह्मण, जम्बारों को शूद्र करार करते हुए, शूद्रों को हज़ारों जातियो में बाँट कर आपस में लड़ते हुए वैदिक कल से लेकर आज तक इन शुद्रो और अछूतों पर राज करता आ रहा है। ये कैसी विडम्वना है जहाँ ब्राह्मण के बनाये ब्राह्मणवाद के कुचक्र में फँस कर मूल-निवासी अछूत और हिन्दू शुद्र आपस में ही लड़ रहे है। क्या इन्हे कभी अपने अस्तित्व का भान नहीं होगा? क्या इस भेदभाव के समाज में राष्ट्रवाद का कोई भी स्थान दिखाई देता है?
ब्राह्मणवाद ने ही पूरे जम्बूदेश में मूल -निवासियों को अछूत बनाया, तो कुछ को जंगल में रहने को मजबूर कर दिया (जन-जातियाँ), शुद्रो में कुछ को गाय-भैस जैसे जानवरो के तबेले से बांध दिया, कुछ को खेतों में मजदूर बना दिया, कुछ कोधोबी, कुछ को गुह, केवट और न जाने क्या - क्या बना दिया। ब्रह्मणो ने तो शुद्र को "फूट-डालो और राज करो" और मूल-निवासियों को अछूत बनाने की नीति के तहत अलग कर दिया है। इसी नीति के तहत आज भी ये तथाकथित स्वघोषित सवर्ण उच्च वर्ग, शूद्रों और अछूतो पर राज कर रहा है। हमारे देश के एकतरफा इतिहास लिखने वाले इतिहासकार कहते है कि "फूट डालो और राज करो" की प्रथा अंग्रेजों की देन है, जब कि ब्रह्मणो ने वर्ण और जांति व्यवस्था के साथ हजारो साल पहेले ही "फूट डालो और राज करो" की प्रथा शुरू कर दी थी। फिर इसका श्रेय अंग्रेजो को क्यों दिया जाता है? "फूट डालो और राज करो" की नीति का इजाद भारत की इसी धरती पर ब्रह्मणो द्वारा हजारो साल पहले ही किया गया था। जिसके नतीजे आज भी भारत की धरती भुगत रही है। क्या अनेक अवांछनीय विवादो और संघर्षो में बटा आज का भारत एक राष्ट्र हो सकता है?
ब्रह्मणो ने शुद्र और मूल-निवासियों के साथ जो कुछ किया, ये अपने निजी फायदे के लिए किया। लेकिन आज देश का हिन्दू शुद्र और मूल-निवासी (दलित-आदिवासी) वर्ग आपस में ही क्यों लड़ रहा है? देश का शुद्र और मूल-निवासी (दलित-आदिवासी) वेद-पुराण, रामायण-गीता और महाभारत को बिना पढे ही अपने जीवन का भाग्य विधाता और भगवान् की वाणी समझता है। जबकि ये हिन्दू धर्म शास्त्र ही भारतीय समाज में फैली हर बुराई का कारण है। वैश्यावृत्ति, जुआ, नियोग जैसी निकृष्ट रीति, देव-दासी की प्रथा, केरल में शुद्रो और मूल-निवासियों की औरतों को नग्न स्तन रहने का कानून, यज्ञ जैसे घिनौने कर्मकांड (जिसमे पशुओ की वलि दी जाती थी और ब्राह्मण इन पशुयों के मांस को यज्ञ की अग्नि में भून कर खाते थे, सूरा का पान करते थे, औरते के साथ व्यभिचार करते थे), ये सब इसी ब्राह्मणवाद की पैदावार है। इन सबके प्रमाण वेदो और पुरानो में सहज है। इतने अनाचार और शोषण के बाद, संघर्ष तो लाजमी है, जो लगातार चलता आ रहा है। जिस देश में कोई समानता ही नहीं, कोई स्वतंत्रता ही नहीं और आपस में कोई भाई-चारा ही नहीं है, वह देश एक राष्ट्र कैसे हो सकता है?
ब्राह्मणवाद जिसने सदियों से शुद्रो और अछूतो का दमन किया है। आज वही शुद्र और अछूत वर्ग शिक्षा, समानता, भाईचारा, आपसी मेलजोल के रास्ते पर ना चल कर कभी पत्थर पर माथा टेकता है, तो कभी किसी मंदिर के घंटे को बजाता है, कोई चारों धाम जाता है, त्रिपति जाता है तो कोई विजेथुआ जाता है, तो कोई अंध भक्ति में सब कुछ राम भरोसे कर देता है। एक देश जहाँ किसी की भी सोच में मूलभूत मानवीय समानता तक नहीं है वो देश राष्ट्र कैसे हो सकता है? एक देश जहाँ देश की जनसँख्या से ज्यादा देवताओ और उनके मंदिरो की संख्या है। एक देश जिसमे इंसान कम, देवता अधिक रहते है। एक देश जिसमे कोई समानता है ही नहीं। एक देश जो अभी भी जाति-पाति, छुआछूत और भेद-भाव के विरूद्ध संघर्ष रहा है। क्या ऐसा देश अभी एक राष्ट्र हो सकता है ?
अहिंसा के पुजारी भी गीता का गीत ऐसे गाते है जैसे कि उन्हें सचमुच का ज्ञान भंडार प्राप्त हो गया हो। ये वही गीता है जिसमे अर्जुन अपने सगे-सम्बन्धियों की हत्या करने से इंकार कर देता है, तो षड्यंत्रकारी कृष्ण अर्जुन को अपनी बातों के मोह जाल में फसाकर, अर्जुन द्वारा उसके अपने ही परिवार के लोगो की हत्या करवा देता है। ये नरसंहार, वो भी उस राज्य के लिए जिसे पांडव खुद जुए में हार गए थे। क्या जुए में हारे राज्य के लिए लड़ना जायज था? इसी महाभारत में एक पांडव अपनी पत्नी तक को जुए में दाँव पर लगता है - उसे ही लोग धर्मात्मा कहते है! जिस इंसान को प्रजा, राज्य, स्त्री आदि की गरिमा और महिमा का भान तक नहीं था, क्या वो किसी भी कारण राजा बनने के योग्य था? "यदि फिर भी, पांडव द्वारा किया कृत्य धर्म था, तो उस समय का अधर्म बेहतर था।" ये वो समय था - जब नारी की कीमत एक वस्तु मात्र से ज्यादा कुछ भी नहीं थी। षड्यंत्र पर षड़यंत्र करके महाभारत का युद्ध जीतने के पश्चात् इन्ही पांडवो ने सुयोधन का नाम बदल कर दुर्योधन कर दिया, क्यों? ये सब सिर्फ और सिर्फ पांडव द्वारा अपने बुराइयों को ढकने का एक तरीका मात्र था। ये सब पांडव की सारी बुराइयों को न्याय और धर्म का जामा पहनने के लिए किया गया था। इतिहास हमेशा विजेता द्वारा लिखा जाता है। महान चिंतक और दार्शनिक मैक्वेली ने कहा है कि अपनी छवि बनाए रखने के लिए कुछ भी करना पड़े तो करो क्योकि छवि ही सब कुछ है। यही पांडव ने भी किया था। अपनी छवि को सुधारने के लिए सुयोधन को दुर्योधन बना दिया, बीबी और राज्य को जुए में दांव पर लगाने वाले को धर्मात्मा और महात्मा बना दिया। जो इंसान अपनी पत्नी तक को जुए में दांव पर लगाये, क्या वो धर्मात्मा कहलाने के योग्य था? ये पूरी की पूरी महाभारत (यदि सच है तो) तथाकथित धर्मात्माओं और षड्यंत्रकारियों द्वारा कौरवो के विरुद्ध किये गए अधर्मो का संग्रह मात्र है। जहाँ पर एक षड्यंत्रकारी दूसरों को धर्म का पाठ पढ़ाता है। क्या ऐसे अमानवीय आतंकवादी विचारों व उपदेशो पर चल कर, हमारा भारत देश एक राष्ट्र हो सकता है?
तुलसी रचित रामचरित मानस - जो कि नारी और शुद्रो को पशुओ के सामान और भारत के मूल-निवासियो (दलितों) को जानवरों से भी बद्तर समझता है। इसी तुलसी का राम, जो महात्मा शम्भूक की हत्या सिर्फ और सिर्फ इसलिए करता है क्योकि अछूत संत शम्भूक जी शुद्रो और अछूतो में शिक्षा का प्रचार-प्रसार कर रहे थे। क्या ऐसा राम या कोई भी ऐसा इंसान भगवान् कहलाने के योग्य है? ब्राह्मण कर्मकांडी ऋषि उस समय यज्ञ करते थे जिसमे पशुओ की वलि दी जाती थी, और ये ब्राह्मण पशुओ का मांस, यज्ञ की अग्नि में भून कर खाते थे, जनजातियों और अन्य की स्त्रियों संग व्यभिचार करते थे, सूरा का पान करते थे (बाद में यही सूरा का पान करने वाले सुर कहलाये जबकि सूरा को नकारने वाले असुर)। इसलिए महाराज महात्मा धर्मात्मा रावण ने जंगलों में पशुओ, जन-जातियों और उनकी औरतों की रक्षा के लिए अपने भाई और सैनिक तैनात कर रखे थे। लेकिन ऋषिओ ने राम द्वारा उन सबकी हत्या करवा दी। मानवाधिकारो की हत्या करने वाले, औरतों की इज्जत के साथ खिलवाड़ करने वाले, धर्म के नाम पर बेजुबान जानवरो की वलि चढ़ाने वाले कर्मकाण्डी ब्राह्मणों का साथ देने वाला राम भगवान् कैसे हो सकता है? जो राम अपनी पत्नी का गर्भवस्था के दौरान घर से बहार मरने के लिए भेज देता है, क्या वह भगवान् कहलाने के योग्य है? हिन्दू, सिर्फ और सिर्फ दुनिया का एक मात्र धर्म है जिसमे लोगों ने भगवान् को देखा है, जबकि इस्लाम, क्रिश्चियन और अन्य धर्मो में भगवान् निराकार है। सिर्फ हिन्दू ब्राह्मण ही जमीन पर बैठे-बैठे सीधे भगवान् से वार्तालाप करता है, वो भी बिना किसी मोबाईल फोन के। ऐसे देश में जहाँ धर्म के नाम पर एक वर्ग, दूसरे वर्ग का शोषण करता हो, अन्धविश्वास का लालन-पालन करता हो, जिसमे समानता, न्याय, प्रेम और सौहार्द की कोई जगह ही न हो, एक देश जिसमे सिर्फ और सिर्फ संघर्ष हो, कलह को, मानवाधिकारो का हनन हो…क्या वो देश, एक राष्ट्र हो सकता है ?
मनु इंसानो को इंसान नहीं समझकर नियोग जैसी प्रथा, नारी को व्यभिचारी, शूद्रों और अछूतों को जानवर जैसी अवस्था में रखने वाला, मानवाधिकारों का दमन करने वाला, आज सदियो बाद भी तथाकथित हिन्दुओ का पुरोधा बना बैठा है। आर्य समाज का संस्थापक दयानंद ने भी नियोग द्वारा हर स्त्री को दस पुत्र पैदा करना अनिवार्य बताया है। इन सब ने वेदो और अन्य धर्मशास्त्रो में लिखे सारे बुराइयों को समाप्त करने के बजाय सारी बुराइयों को सिर्फ और सिर्फ बढ़ावा दिया है  क्या ये किसी भी मायने में इंसान भी कहलाने के योग्य है? जो इंसान मूलभूत मानवाधिकार को नहीं समझता, उसे ही इस देश के लोगो ने भगवान्, महात्मा, पंडित और ज्ञानी का नाम दिया। जिस देश के धर्म शास्त्रो में छुआछूत, जाति -पाति, भेद-भाव, लिंग-भेद आदि को बढ़ावा दिया गया हो, उस देश में मानवाधिकार और समानता की भावना बहुत दूर की बात हो जाती है। क्या ऐसा भारत देश, इन सब धर्म-शास्त्रो को जलाये बिना एक राष्ट्र बन सकता है ? हमारे विचार से बिलकुल नहीं।
हमारा मानना है कि इस दुनिया के किसी भी धर्म की किसी भी किताब को कभी भी किसी भी भगवान् ने नहीं लिखा है। ये सब मनगढ़त है । ये सारे धर्मशास्त्र ब्राम्हणो या धर्म के ठेकेदारों द्वारा अपने धर्म रुपी व्यापार को बढ़ाने और अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए समाज की बदलती धारा और समय की जरूरत के अनुसार अलग-अलग समय पर विकसित की गयी है। लोग कहते है कि सबका भगवान् एक है, सब लोग एक ही भगवान् की संतान है तो फिर इनमें आपस में भेद-भाव क्यों? इतना वैमनश्य क्यों?
हम खुद एक ऐसी ही घटना के साक्षी है - जहाँ पर एक शुद्र शिक्षक अपने अछूत शुद्र शिष्य के यहाँ खाने-पीने भी से इंकार कर देता है। क्या ये निक्रिष्ट लोग शिक्षक कहलाने के योग्य है? यहाँ पर तो शुद्र शिक्षकों का अपने अछूत शुद्र शिष्य के साथ किया गया वर्ताव ढोगीं द्रोण के वर्ताव से भी नीच और निकृष्ट है क्योकि कम से कम आज के भारत में तो अछूत, शुद्र वर्ग का हिस्सा है। जब एक शुद्र (अहीर) गुरु, जिसने अपने शिष्य को सालों तक पढ़ाया हो, उसी के साथ भेद-भाव करता है……तो क्या ऐसा इंसान किसी भी दृष्टिकोण से शिक्षक कहलाने के लायक है ? क्या द्रोण शिक्षक कहलाने के योग्य था ? ये सब कर्मकाण्ड ढोगीं, पाखंडी और चरित्रहीन लोगो द्वारा धर्म और जाति के नाम पर अपने कुकर्मो, अत्याचारो और व्यभिचारों को छिपाने का एक तरीका मात्र है। जब ये ज्ञान के मार्ग से अपनी योग्यता और श्रेष्ठता साबित नहीं कर पाते है तो जाति-पाति और छूआछूत से अपने आपको उच्च साबित करने की कोशिस करते है। ये शुद्र (अहीर, कुम्हार, कुर्मी) चरित्रहीन शिक्षक कुछ और नहीं, बल्कि जाति-पाति और छुआछूत का सहारा लेकर अपनी श्रेष्ठता मात्र साबित करने की नाकाम कोशिस कर रहे थे।
हमारे ख्याल से हमारे समाज में किसी भी गुणी, सदाचारी और विद्वान शिष्य या किसी इंसान को कभी भी ऐसे चरित्रहीन , कुकर्मी , ढोंगी , पाखंडी , अत्याचारी और व्यभिचारी शिक्षक की कोई जरूरत नहीं है। ऐसे चरित्रहीन, कुकर्मी, ढोंगी, पाखंडी, अत्याचारी और व्यभिचारी गुरु, जो खुद अपने शिष्य को अपने ही कर्मो से भेद-भाव और जाति-पाति, व्यभिचार और चरित्रहीनता की शिक्षा देते है, सिर्फ और सिर्फ त्याग के पात्र है। भारत देश में ऐसे शिक्षक के रहते राष्ट्र की भावना का आना दुष्कर है। यदि हमारा समाज भारत को राष्ट्र बनाना चाहता है तो ऐसे मानसिक रोगियों का सख्त इलाज़ अत्यंत आवश्यक है।
हम उस घटना के भी साक्षी है, जहाँ पर एक चमार ने अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय पडोसी गॉव के कुर्मियों और अहीरों के साथ दोस्ती और प्यार-मोहब्बत में बिता दी, हर जगह हर सम्भव साथ दिया, उन्ही कुर्मियों और अहीरों ने उसके घर खाने-पीने से इंकार कर दिया। आखिर क्यों?? सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि वो चमार है। जब उन्होंने आप का साथ दिया, वे साथ रहे तो वे चमार नहीं थे? जब आपका स्वार्थ था तो वे आपका भाई थे, दोस्त थे, आज उस इंसान के यहाँ खाने मात्र की बात आयी तो वे चमार हो गये, अछूत हो गए। क्या ऐसे निकृष्ट, हैवानियत और स्वार्थी मानसिकता और सोच वाले समाज के रहते भारत एक राष्ट्र बन सकता है? क्या इस तरह से जाति-पाति में बँटे भारत को एक राष्ट्र कहा जा सकता है ?
हमारे विचार से - कोई भी गुरु, मित्र, नातेदार, रिश्तेदार या अन्य कोई भी तभी तक सम्मान का अधिकारी है, जब तक वह " पंचसूत्रम् " ( प्रेम, सत्कर्म, आत्मविश्वास, न्याय और स्वाभिमान) के पथ पर चलते हुए " पंचसूत्रम् " को अपने जीवन कर्म में परिलक्षित करता है। गुरु, शिक्षक तभी तक है जब तक वो शिक्षक की गरिमा और शिक्षा के मायने को जनता है ।
हमारे ख्याल से, इस संसार में अपना गुरु खुद बनना ही सर्वथा वेहतर होगा, अन्यथा सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी व्यवस्था वाले समाज में गुरु भी थोपे जाते है। महात्मा बुद्ध, महात्मा सतगुरु रैदास, महात्मा ज्योतिबा फूले से लेकर विश्वविभूषण महात्मा लार्ड आंबेडकर तक ने कभी भी किसी थोपे गए इन्सान को अपना गुरु नहीं माना है। इन सभी ने अपने खुद की विश्लेषण और तर्क शक्ति का इस्तेमाल करके सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त किया। इन सब ने समाज में हो रही घटनाओं का विश्लेषण करके और इन सबका कुदरत की कसौटी पर रखकर अपने मस्तिष्क में अन्तरक्रिया के द्वारा ज्ञान का उद्पादन किया है। इस तरह की वैज्ञानिक, आधुनिक, तर्क सांगत, न्यायपूर्ण और पंचसूत्रम् पर आधारित सोच ही भारत को एक मजबूत राष्ट्र बना सकती है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि ये सभी, अभी के भारत से कोसो दूर है ।
इतिहास गवाह है, इस समाज के स्वघोषित उच्च जाति के लोगों ने ही सबसे ज्यादा औरतों का शोषण किया है। तुलसी, अपनी मनगढंत रामचरित मानस में, नारी को ताड़न का अधिकारी कहता है। मनु ने नारी को हर रूप में अपवित्र, दासी और व्यभिचारणी कहा है। क्या ऐसी सोच, जिसे खुद भारत की एक बड़ी आबादी के धर्म शास्त्र कहते है, के साथ भारत एक राष्ट्र बन सकता है? हमारे विचार से "जो धर्म विषमता, नफरत, जाति-पाति और भेद-भाव पर ही टिका हुआ है, उस धर्म में मानव के कल्याण की बात करना गोबर के ढेर पर महल बनाने जैसा है।"
क्या ब्राह्मणवाद द्वारा दलितो के साथ किया गया निर्मम कृत्य (थूकने के लिए गले में मटका डाल कर चलना, पद चिह्न मिटने के लिए कमर में छाडू बाध कर चलना, मरे हुए जानवरों के सड़ा -गला मांस खाने को मजबूर करना, अछूत के छाया मात्र को भी अपवित्र मानना, सड़ा हुआ पानी पीने को मजबूर करना आदि) किसी भी सूरत में क्षमा करने के योग्य है? ऐसा देश जो आज के आधुनिक युग में भी ब्राह्मणवाद को मनाता हो, क्या ऐसा समाज एक राष्ट्र कहलाने के योग्य है?
भारतीय सुप्रीम कोर्ट के तमाम आदेशो के बावजूद आज भी दक्षिण भारत में देवदासी, छुआछूत और सर पर मैला ढोने की परंपरा जारी है। जहाँ एक तरफ शुद्रो की औरतों के साथ हुए शारीरिक उत्पीड़न का कोई सुनवाई नहीं होती तो वही दूसरी तरफ देश के किसी भी कोने में किसी सवर्ण औरत के साथ थोड़ी से भी छेड़खानी हो जाये तो पूरा का पूरा राजनीतिक कुनबा गर्म हो जाता। उड़ीसा, बंगाल, गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हरियाणा आदि में दलितों की औरतों के साथ हुए अत्याचार और उनकी पीड़ा की कोई मिशाल नहीं है और ना ही कोई सुनवाई। ये भेद -भाव क्यों? भ्रूण हत्या जैसे सामाजिक बीमारियों से घिरा भारत, दहेज़ के नाम पर बेटों की खरीद-फरोख्त और बेटियो को बोझ समझने वाला समाज, बेटियों की इच्छा के विरूद्ध शादी कराने वाले, बलात्कार करवाने वाले माता-पिता और बलात्कारी पति संग पुरुष प्रधान समाज में राष्ट्रवाद की भावना एक कल्पना मात्र है। लिंग-भेद और जाति-भेद के कुचक्र में लिप्त समाज, भारत को राष्ट्र बना रहा है या राष्ट्र बनने से रोक रहा है ?
कानून का शासन, आज भी पूरी तरह से लागू नहीं हो पाया है। जिसका सबसे बढ़िया उदाहरण - खाप पंचायत और फतवा है। कुछ निकृष्ट, रूढ़िवादी, कट्टरपंथी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू राजनेता हिन्दू राष्ट्रीयता की बात करते है। ऐसी कोई भी बात या विचार सिर्फ और सिर्फ भारत को बाँटने का काम करेगा। भारत को सिर्फ और सिर्फ संवैधानिक, लोकतान्त्रिक और भारतीयता रूपी एक ही राष्ट्रवादिता की आवश्यकता है जो कि हमारे देश को एक सूत्र में बांध सकती है। इसके आलावा, किसी भी तरह की साम्प्रदायिक, जातीय या इस जैसी कोई भी राष्ट्रवादिता हमारे देश के लिए सिर्फ और सिर्फ एक कैंसर होगा। देश का राजनेता धर्म और मंदिर-मस्जिद के नाम पर दंगे करवाता है, वोट मांगता है। क्या ये संविधान का उलंघन नहीं है? क्या ये भारत को एक राष्ट्र के सूत्र में बाधते है? क्या ये भारत के राष्ट्र बनने के मार्ग में बाधक नहीं है?
इस देश में एक भाषा के लोग दूसरे भाषा के लोगों को उसी नज़र से देखते है जैसे कि एक कट्टर मुस्लिम दूसरे कट्टर हिन्दू को देखता है। इसी देश में जहाँ एक तरफ तेलगू-तमिल से, कन्नड़-मलयाली से आपस में लड़ते है तो वही दूसरी तरफ मराठी राज्य के कुछ देशद्रोही उत्तर भारतियों को महाराष्ट्र में घुसाने से रोकने की कोशिस करते है। क्या इन भावनाओ के रहते भारत एक राष्ट्र हो सकता है? यहाँ पर हम अंग्रेजो द्वारा दी गयी अंग्रेजी भाषा के शुक्रगुजार है जिसने तमिल, मलयाली, तेलगू और कन्नड़ बोलने वाली देश की जनता को हिंदी, अवधी, भोजपुरी, मिथिली, बंगाली, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, उरिया, हरयाणवी, पंजाबी, डोंगरी, गढ़वाली, असमी आदि भाषा बोलने वाली देश की जनता के साथ एक सूत्र में बधती है।
आज देश भाषा, बोली, धर्म आदि के नाम पर लड़ रहा है। इस तरह से लड़ने वाला देश कभी राष्ट्र नहीं हो सकता है। यदि लोग भारत को राष्ट्र बनाना चाहते है तो यहाँ के लोगों को सबसे पहले हिन्दू धर्म-शास्त्रों को जलाना होगा क्योकि भारत में इंसान और इंसान के बीच भेद-भाव का मूल कारण ही सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति, धर्म और हिन्दू धर्म-शास्त्र है। यही कारण है कि दिसंबर १९२७ में बाबा साहेब अम्बेडकर ने मनुस्मृति जैसे भेद-भाव की जड़ को ही जला दिया था। वह रामचरित मानस जिसमे तुलसी कहता है कि नारी ताडन की अधिकारी है, वह वेद जो नियोग और यज्ञ जैसी निकृष्ट , नीच , कुप्रथा का बढ़ावा देता है और पशुओ संग इंसानो की वलि को बढ़ावा देता है........इस सब को जलना होगा, भूलना होगा, मिटाना होगा, नेस्तनाबूद करना होगा।
दूसरी तरफ अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाह को सहर्ष वढ़ावा देना होगा। अंतर-जातीय विवाह को सहर्ष वढ़ावा देने का एक मात्र तरीका है - प्रेम-विवाह। देश में नारी की स्थिति को सुधारने और दहेज़ जैसी कुप्रथा, भ्रूण हत्या जैसे महापाप और माँ-बाप, समाज व तथाकथित पति द्वारा बेटी के बलात्कार को रोकने का एक मात्र उपाय" प्रेम-विवाह" है। प्रेम विवाह, अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाह को बढ़ावा देने के साथ-साथ दहेज़ जैसी निकृष्ट प्रथा से देश और समाज को उबरने का इकलौता और एक मात्र महत्वपूर्ण हथियार है । 
भारत को एक सूत्र से बांधने वाली अंग्रेजी भाषा का प्रचार-प्रसार करना ही होगा। क्योकि अंग्रेजी में ही वह शक्ति है जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक और गुजरात से लेकर नागालैंड तक समूचे भारत को एक धाँगे में बांध सकती है। अंग्रेजी ही वो भाषा है जो भारत के हर वर्ग को दुनिया के बदलते परिवेश के साथ समुचित कदम-ताल करवा सकता है। 
धर्म के नाम पर हो रही राजनीति, सांप्रदायिक दंगों से बचने के लिए हर इंसान को ये समझना होगा कि यदि देश है तो हम है और यदि हम है तो ही देश है। हमारे लिए हमारे मानवाधिकारो के साथ-साथ देश की एकता और अखण्डता भी बहुत जरूरी है। हमें उन शैलियों को अपनाना होगा जो कि समूचे भारत को, समूची मानव जाति को सिर्फ और सिर्फ एक सूत्र में बांधती हो। रहन सहन का एक ऐसा तरीका हो जो हमारे देश को, पूरी मानव जाति को इंसानियत का पाठ सिखाये। इन सब का एक मात्र उत्तर होगा पंचसूत्रम् (प्रेम , सत्कर्म , आत्मविश्वास , न्याय और स्वाभिमान) पर आधारित जीवन ।
हमें अपने कुरीतियों, बुराइयों, तथाकथित भगवानो, रूढ़िवादी धर्मो, धर्म-शास्त्रो, धर्म के ठेकेदारो का परित्याग करके वैज्ञानिक, तर्कपूर्ण, न्यायपूर्ण, आधुनिक और मानवतावादी विचारो को अपनाना होगा। भारत राष्ट्र तभी बन सकता है जब भारतीय संविधान हमारा पथप्रदर्शक होगा, मानवाधिकार हमारा धर्म होगा, भारतीयता हमारी पहचान होगी और मानवता हमारी जाति होगी। यदि ये सब हुआ तभी हमारा भारत एक सशक्त, सुदृढ़ और महान राष्ट्र बन सकता है, अन्यथा....।
रजनी कान्त इन्द्रा
विधि छात्र, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ
जनवरी ३१, २०१४

Monday, January 27, 2014

10 Most Abundant Compounds in the Earth's Crust

Silicon dioxide                   SiO2                           42.86% 428,600
Magnesium oxide                         MgO                           35.07% 350,700
Ferrous oxide                    FeO                            8.97% 89,700
Aluminum oxide              Al2O3                       6.99% 69,900
Calcium oxide                    CaO                            4.37% 43,700
Sodium oxide                     Na2O                         0.45% 4,500
Ferric oxide                        Fe2O3                       0.36% 3,600
Titanium dioxide              TiO2                          0.33% 3,300
Chromic oxide                   Cr2O3                       0.18% 1,800
Manganese dioxide                     MnO2                        0.14% 1,400


Source : Exploring Chemical Elements and their Compounds Compound Formula Abundance percent by weight Abundance

parts per million by weight

Hepatitis B

Key facts
·         Hepatitis B is a viral infection that attacks the liver and can cause both acute and chronic disease.
·         The virus is transmitted through contact with the blood or other body fluids of an infected person.
·         About 600 000 people die every year due to the consequences of hepatitis B.
·         Hepatitis B is an important occupational hazard for health workers.
·         Hepatitis B is preventable with the currently available safe and effective vaccine.
Hepatitis B is a potentially life-threatening liver infection caused by the hepatitis B virus. It is a major global health problem. It can cause chronic liver disease and chronic infection and puts people at high risk of death from cirrhosis of the liver and liver cancer.
More than 240 million people have chronic (long-term) liver infections. About 600 000 people die every year due to the acute or chronic consequences of hepatitis B.
A vaccine against hepatitis B has been available since 1982. Hepatitis B vaccine is 95% effective in preventing infection and its chronic consequences, and was the first vaccine against a major human cancer.

Geographical distribution

Hepatitis B virus can cause an acute illness with symptoms that last several weeks, including yellowing of the skin and eyes (jaundice), dark urine, extreme fatigue, nausea, vomiting and abdominal pain. Hepatitis B prevalence is highest in sub-Saharan Africa and East Asia. Most people in these regions become infected with the hepatitis B virus during childhood and between 5–10% of the adult population is chronically infected.
High rates of chronic infections are also found in the Amazon and the southern parts of eastern and central Europe. In the Middle East and the Indian subcontinent, an estimated 2–5% of the general population is chronically infected. Less than 1% of the population in western Europe and North America is chronically infected.

Transmission

In highly endemic areas, HBV is most commonly spread from mother to child at birth, or from person to person in early childhood.
Perinatal or early childhood transmission may also account for more than one third of chronic infections in areas of low endemicity, although in those settings, sexual transmission and the use of contaminated needles, especially among injecting drug users, are the major routes of infection.
The hepatitis B virus can survive outside the body for at least seven days. During this time, the virus can still cause infection if it enters the body of a person who is not protected by the vaccine.
The hepatitis B virus is not spread by contaminated food or water, and cannot be spread casually in the workplace.
The incubation period of the hepatitis B virus is 75 days on average, but can vary from 30 to 180 days. The virus may be detected 30 to 60 days after infection and persists for variable periods of time.

Symptoms

Most people do not experience any symptoms during the acute infection phase. However, some people have acute illness with symptoms that last several weeks, including yellowing of the skin and eyes (jaundice), dark urine, extreme fatigue, nausea, vomiting and abdominal pain.
In some people, the hepatitis B virus can also cause a chronic liver infection that can later develop into cirrhosis of the liver or liver cancer.
More than 90% of healthy adults who are infected with the hepatitis B virus will recover and be completely rid of the virus within six months.

Who is at risk for chronic disease?

The likelihood that infection with the hepatitis B virus becomes chronic depends upon the age at which a person becomes infected. Children less than 6 years of age who become infected with the hepatitis B virus are the most likely to develop chronic infections:
·         80–90% of infants infected during the first year of life develop chronic infections;
·         30–50%% of children infected before the age of 6 years develop chronic infections.
In adults:
·         <5 adults="" are="" chronic="" develop="" healthy="" infected="" infection="" o:p="" of="" otherwise="" who="" will="">
·         15–25% of adults who become chronically infected during childhood die from hepatitis B-related liver cancer or cirrhosis.

Diagnosis

It is not possible, on clinical grounds, to differentiate hepatitis B from hepatitis caused by other viral agents and, hence, laboratory confirmation of the diagnosis is essential. A number of blood tests are available to diagnose and monitor people with hepatitis B. They can be used to distinguish acute and chronic infections.
Laboratory diagnosis of hepatitis B infection centres on the detection of the hepatitis B surface antigen HBsAg. WHO recommends that all blood donations are tested for this marker to avoid transmission to recipients.
·         Acute HBV infection is characterized by the presence of HBsAg and immunoglobulin M (IgM) antibody to the core antigen, HBcAg. During the initial phase of infection, patients are also seropositive for HBeAg.
·         Chronic infection is characterized by the persistence (>6 months) of HBsAg (with or without concurrent HBeAg). Persistence of HBsAg is the principal marker of risk for developing chronic liver disease and hepatocellullar carcinoma (HCC) later in life.
·         The presence of HBeAg indicates that the blood and body fluids of the infected individual are highly contagious

Treatment

There is no specific treatment for acute hepatitis B. Care is aimed at maintaining comfort and adequate nutritional balance, including replacement of fluids that are lost from vomiting and diarrhoea.
Some people with chronic hepatitis B can be treated with drugs, including interferon and antiviral agents. Treatment can slow the progression of cirrhosis, reduce incidence of HCC and improve long term survival. Treatment, however, is not readily accessible in many resource-constrained settings.
Liver cancer is almost always fatal and often develops in people at an age when they are most productive and have family responsibilities. In developing countries, most people with liver cancer die within months of diagnosis. In high-income countries, surgery and chemotherapy can prolong life for up to a few years.
People with cirrhosis are sometimes given liver transplants, with varying success.

Prevention

The hepatitis B vaccine is the mainstay of hepatitis B prevention. WHO recommends that all infants receive the hepatitis B vaccine as soon as possible after birth, preferably within 24 hours.
The birth dose should be followed by 2 or 3 doses to complete the primary series. In most cases, 1 of the following 2 options is considered appropriate:
1.     a 3-dose schedule of hepatitis B vaccine, with the first dose (monovalent) being given at birth and the second and third (monovalent or combined vaccine) given at the same time as the first and third doses of DTP vaccine; or
2.     4 doses, where a monovalent birth dose is followed by 3 monovalent or combined vaccine doses, usually given with other routine infant vaccines.
The complete vaccine series induces protective antibody levels in more than 95% of infants, children and young adults. Protection lasts at least 20 years and is possibly lifelong.
All children and adolescents younger than 18 years old and not previously vaccinated should receive the vaccine if they live in countries where there is low or intermediate endemicity. In those settings it is possible that more people in high risk groups may acquire the infection and they should also be vaccinated. They include:
·         people who frequently require blood or blood products, dialysis patients, recipients of solid organ transplantations;
·         people interned in prisons;
·         injecting drug users;
·         household and sexual contacts of people with chronic HBV infection;
·         people with multiple sexual partners, as well as health-care workers and others who may be exposed to blood and blood products through their work; and
·         travellers who have not completed their hepatitis B vaccination series should be offered the vaccine before leaving for endemic areas.
The vaccine has an excellent record of safety and effectiveness. Since 1982, over one billion doses of hepatitis B vaccine have been used worldwide. In many countries, where 8–15% of children used to become chronically infected with the hepatitis B virus, vaccination has reduced the rate of chronic infection to less than 1% among immunized children.
As of July 2011, 179 Member States vaccinate infants against hepatitis B as part of their vaccination schedules. This is a major increase compared with 31 countries in 1992, the year that the World Health Assembly passed a resolution to recommend global vaccination against hepatitis B. Furthermore, as of July 2011, 93 Member States have introduced the hepatitis B birth dose.
In addition, implementation of blood safety strategies, including quality-assured screening of all donated blood and blood components used for transfusion can prevent transmission of HBV. Safe injection - unnecessary as well as unsafe injections - practices can protect against HBV transmission. Furthermore, safer sex practices, including minimizing the number of partners and using barrier protective measures (condoms), protect against transmission.

WHO response

WHO is working in the following areas to prevent and control viral hepatitis:
·         raising awareness, promoting partnerships and mobilizing resources;
·         formulating evidence-based policy and data for action;
·         preventing of transmission; and
·         executing screening, care and treatment.


WHO also organizes World Hepatitis Day on July 28 every year to increase awareness and understanding of viral hepatitis.

Thursday, January 23, 2014

The Marconi Prize

The Marconi Prize, whose winners include world wide web pioneer Tim Berners-Lee, Internet legend Vint Cerf, Google search maestro Larry Page, and cell phone inventor Martin Cooper and now  Arogyaswami Joseph Paulraj, simply known as ''Paul" with $100000 .
The Marconi Society, celebrating its 50th year in 2014, was founded by Gioia Marconi Braga, daughter of the legendary radio inventor Guglielmo Marconi. Winners typically include scientists whose mathematical theories and inventions have shaped the Internet and broadband access, public key encryption, Web search, wired and wireless transmission, multimedia publishing, optical fiber and satellite communications.

Monday, January 20, 2014

Bitcoins

Virtual currencies, or digital cash, are gaining popularity as a new way to purchase goods or services. They are not regulated or issued by a central bank. The most popular virtual currency is Bitcoin, which gaining popularity these days.

What is Bitcoin?
It is a digital currency that is created and exchanged independently of any government or bank. The currency is generated through a computer program and can be converted into cash after being deposited into virtual wallets.

When Bitcoin was launched?
In 2008, a programmer known as Satoshi Nakamoto – a name believed to be an alias – posted a paper outlining Bitcoin’s design and later in 2009 released software that can be used to exchange Bitcoins using the scheme. That software is now maintained by an open-source community coordinated by developers.

How does Bitcoin work?
It exists through an open-source software program and its supply is controlled by a computer algorithm. Once you download and run the Bitcoin client software, it connects over the Internet to the decentralized network of all Bitcoin users and also generates a pair of unique, mathematically linked keys, which you’ll need to exchange Bitcoins with any other client. One key is private and kept hidden on your computer. The other is public and a version of it dubbed a Bitcoin address is given to other people so they can send you Bitcoins.

How Bitcoins are generated?
The process of generating Bitcoins is quite complicated and involves solving complex algorithms and sharing the solution with the entire network. The “mining” is very computationally intensive and requires powerful computers.

How to transfer Bitcoins ?
When you perform a transaction, your Bitcoin software performs a mathematical operation to combine the other party’s public key and your own private key with the amount of Bitcoins that you want to transfer. The result of that operation is then sent out across the distributed Bitcoin network so the transaction can be verified by Bitcoin software clients not involved in the transfer.

How to trade Bitcoins ?
Exchanges like Mt. Gox provide a place for people to trade Bitcoins for other types of currency. Payments to a merchant who accepts Bitcoins are made from the wallet application, either on your computer or smartphone, by entering the recipient’s address, the payment amount.

Bitcoins

Who controls the Bitcoin network ?
It is controlled by all Bitcoin users around the world. While developers improve the software, they can’t force a change in the Bitcoin protocol because the virtual currency can only work correctly only if there is a consensus among all users.

Bitcom transactions ?

At the end of August 2013, the value of all Bitcoins in circulation exceeded $1.5 billion with millions of dollars worth of Bitcoins exchanged daily, according to Bitcom website.

Sunday, January 19, 2014

National Optical Fiber Network

Government had approved a project for National Optical Fiber Network in October, 2011 for providing Broadband connectivity to all 2.5 lakh Gram Panchayats at a cost of Rs. 20,000 crore. This was the starting point of a Rs 20,000 crore project of Bharat Broadband.

Objective

The plan is to extend the existing optical fiber network up to Panchayats. The Network will also be available to telecom service providers for providing various services to the citizens in non-discriminatory manner.
The Network will provide a highway for transmission of voice, data and video in rural areas. It will enable the broadband connectivity upto 2 Mbps, capable of providing various services like e-education, e-health, e-entertainment, e-commerce e- governance etc. to people and businesses.
The people in rural areas, students, entrepreneurs, various Government Departments providing services under e-governance projects will be benefited.
It will also provide connectivity to various public institutions like Gram Panchayats, Primary Health Centres (PHCs), schools etc. in rural areas. It will also result in investment from the private sector both for providing different services and for manufacturing of broadband related telecom equipment.
Funding:

The project will be funded by Universal Service Obligation Fund (USOF). The Universal Service Obligation Fund(USOF) was established with the fundamental objective of providing access to 'Basic' telegraph services to people in the rural and remote areas at affordable and reasonable prices.
Subsequently the scope was widened to provide subsidy support for enabling access to all types of telegraph services including mobile services, broadband connectivity and creation of infrastructure like OFC in rural and remote areas.
Implementation

The project is being executed by a Special Purpose Vehicle (SPV), a company incorporated under Indian Companies Act 1956, named 'Bharat Broadband Network Limited' (BBNL), owned by the Department of Telecom (DoT).
It is being fully owned by Central Government, with equity participation from Government and interested Central Public Sector Units (CPSUs) (BSNL, Railtel, Powergrid, GAILTEL, etc.) and action is being taken to establish and operationalize a Special Purpose Vehicle (SPV).
To grant right of way, a draft tripartite MoU (among GoI, the SPV and the State Government) has been sent to the State Governments and Union Territories for their concurrence. Pilots are also being tried in Ajmer, Vishakhapatnam and Goa to test the broadband infrastructure and adoption after being approved by MCIT. Universal Service Obligation Fund (DOT), BBNL, BSNL, Rail Tel, Power Grid and Telecom Players, USPs and content providers, along with State Governments, will work on the Pilot Trials.
Benefits to other service providers

Mobile, Internet and cable operators can then load their services on this fibre, paying Bharat Broadband a nominal sum.
N Ravi Shanker, the man spearheading this National Optic Fibre Network project, throws one big number to explain what the project can mean to the nation : for every 10% increase in broadband penetration, India's economic output increases by 1.38%.
Challenges


Right of way (approval from states to put down fibre) is the biggest challenge. So far, only 10 states have given their nod, including Rajasthan, Chhattisgarh, Jharkhand, Karnataka, Uttarakhand and Uttar Pradesh.