Monday, August 31, 2020

Sunday, August 9, 2020

बसपा करेगी परशुराम मूर्ती निर्माण - क्या ये वैचारिक विचलन है ?

पिछड़े वर्ग की एकमात्र राष्ट्रिय नेता बहन जी द्वारा 09.08.2020 की प्रेस कॉन्फ़्रेंस में परशुराम की मूर्ती लगवाने व अन्य समाजों के नायकों के नाम पर अस्पताल बनवाने की बात कहीं हैं। बसपा विरोधियों के साथ-साथ बसपा का समर्पित कार्यकर्ता भी इस बयान को समझ नहीं पा रहा हैं। साथ ही बसपा के पदाधिकारी तो पहले से ही मिशन के संदर्भ में शून्य हैं, इसलिए उनके पास इस बात का कोई जस्टिफिकेशन नहीं हैं। इसलिए सोशल मिडिया पर बसपा द्वारा परशुराम मूर्ती लगवाने के संदर्भ में जो बात चल रहीं हैं, बसपा के किसी भी पदाधिकारी के पास अपने खुद के वोटर को संतुष्ट करने वाला जवाब नहीं हैं।

फिलहाल, इस पूरे बयान को अलग-अलग लोग अलग-अलग नजरिये से देख रहे हैं। हमारे विचार से बहन जी के बयान को इतना तूल नहीं दिया जाना चाहिए। लेकिन जनता तो स्वतंत्र हैं, स्वछंद हैं, उसको अपने विवेक से फैसला लेने का हक़ हैं, अपनी बात करने का अधिकार हैं। यहीं तो लोकतंत्र हैं।

अंधों के हाथ बटेर 

फिलहाल, बहुजन समाज में जो बसपा विरोधी फिरका हैं उसके हाथ तो बैठे-बिठाये एक बड़ा मुद्दा लग गया हैं। बहन जी के इस बयान से बसपा को ब्राह्मणों का उतना वोट नहीं मिलेगा जितना कि इस बयान के चलते दलित-बहुजन वोट काट सकता हैं। इस मामले में, फिलहाल, ज्यादा कुछ कहना जल्दबाजी होगी। परन्तु, सोशल मीडिया और यूट्यूब पर जिस तरह से ट्रेंड चल पड़ा हैं उससे देश का दलित-बहुजन समाज असमंजस में हैं। दलित-बहुजन समाज के इस असमंजस को दूर करने की काबिलियत बसपा के किसी भी पदाधिकारी में नहीं हैं। इसलिए इस पूरे प्रकरण का फायदा नई-नई बनी पार्टियों को आसानी से मिल सकता हैं।

इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि 09.08.2020 के बसपा के बयान से सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, शैक्षणिक और अन्य विधाओं के जरिये मिशन के लिए कार्य कर रहे लोगों में थोड़ा सा असमंजस हैं, लोग सोह्सल मिडिया पर खुलकर लिख रहे हैं। परशुराम के चरित्र के बारे में राष्ट्रपिता फुले की राय को नजरअंदाज नहीं कर सकते हैं। इसलिए इस संदर्भ में बुद्धिजीविओं की नाराजगी को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता हैं। इसका फायदा बहुजन विरोधी दलों को बहुजन समाज में जन्मे चमचों द्वारा मिल सकती हैं।

राजनीतिक क्रमचय-संचय मतलब सैद्धन्तिक समझौता नहीं होता हैं

सत्ता प्राप्त करने के लिए राजनैतिक क्रमचय-संचय करना पड़ता हैं। गैर-बराबरी वाले जाति आधारित सामाजिक व्यवस्था में २४ कैरेट खरी राजनीति संभव ही नहीं हैं। दूसरी महत्वपूर्ण बात हैं कि भारत की राजनीती पर सामाजिक संरचना के प्रभाव को कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता हैं। इसलिए सत्ता हाशिल करने के लिए ये राजनैतिक क्रमचय-संचय एक जरूरत हैं।

सनद रहें गठबंधन की सरकार के दौरान अपने मुख्यमंत्रित्व काल में बहन जी ने उस समय आरएसएस के लखनऊ स्थित एक आश्रम को दस लाख दान किया था, जब अटल बिहारी उसका लोकार्पण करने आये थे। इस मुद्दे को भी चमचे उछलते रहते हैं। लेकिन मालूम होना चाहिए कि वो गठबंधन का दौर था, कुछ राजनैतिक समझौते करने पड़ते हैं। यदि दस लाख का दान देने से पचास हजार करोड़ का बजट आपके हाथ आ जाय तो इसमें कोई नुक्सान नहीं हैं। बहन जी ने आरएसएस के एक आश्रम को दस लाख जरूर दिया लेकिन बीजेपी के समर्थन से बनी सरकार में ही अपने बहुजन नायकों-नायिकाओं को बाकायदा स्थापित कर दिया हैं।

इसलिए यदि बहन जी परशुराम की मूर्ती निर्माण करवा भी देती हैं तो उसके बदले बहुजनों को उसी तरह लाभ होगा जिस तरह आरएसएस को दस लाख का दान देकर बहुजन स्मारक स्थापित करके बहुजन इतिहास को संगमरमर के कठोर पत्थरों पर दर्ज़ करने से मिला हैं। यदि एक मूर्ती परशुराम की लग भी गयी तो साथ में बहन जी ने पिछड़े वर्ग के बचे हुए नायकों-नायिकाओं को भी स्थापित करने की बात कहीं हैं, जिसकी संख्या सैकड़ों में हो सकती हैं। इसलिए बहुजन समाज के लोगों को बहन जी के 09.08.2020 वाले बयान को राजनैतिक क्रमचय-संचय के तौर ही देखना चाहिए। इस पूरे प्रकरण में  सिद्धातों से समझौता करने जैसी कोई बात नहीं हैं।

हमें माँगने वाला नहीं, देने वाला समाज बनाना हैं। 

मान्यवर काशीराम साहेब कहते हैं कि हमें देश के वंचित जगत को मांगने वाला नहीं बल्कि देने वाला समाज बनाना हैं, शासक जमात बनाना हैं। मान्यवर अपने इसी मिशन के चलते १९८४ में गठित की हुई बसपा को १९९६ आते-आते राष्ट्रीय पार्टी बना देते हैं। साथ ही बसपा भारत के सबसे बड़ी आबादी वाले उत्तर प्रदेश की सरजमीं पर चार-चार बार हुकूमत करती हैं। बसपा किसी से बहुजन महानायकों-महनायिकाओं के नाम पर कभी स्कूल, कॉलेज, विशवविद्यालय या अन्य किसी संस्था की मांग नहीं की, ना ही ये इसके एजेण्डा में था। बसपा ने खुद अपनी सरकार बनाकर अपने एजेण्डा को पूरा किया, अपने नायकों-नायिकाओं को बाकायदा स्थापित किया हैं।

बसपा ने सत्ता हाशिल कर सबसे पहले देश के वंचितों को भरोसा दिलाया कि आप भी हुकूमत कर सकते हो। इसके बाद जो उच्च जातियां बहुजन हुकूमत को स्वीकार करने को तैयार नहीं थी, उन उच्च जातियों को स्वीकार करने पर मजबूर कर दिया कि वंचित भी सिर्फ हुकूमत ही नहीं, बल्कि सबसे उम्दा और संविधान अनुसार हकूमत कर सकता हैं। आज बसपा की स्वीकृति हैं। हर मुद्दे पर देश बहन जी के बयान का इन्तजार करता हैं। ऐसे में एक राष्ट्रिय पार्टी व बुद्ध-अम्बेडकरी विचारधारा वाली एकमात्र पार्टी होने के नाते बसपा को सभी लिए नकारात्मक भेदभाव से कोसों दूर लोकतान्त्रिक न्याय के तहत कार्य करना हैं। यही कारण हैं कि बहन जी कहती हैं कि "सर्वजन सुखाय, सर्वजन हिताय"। इसका ये मतलब नहीं हैं कि बसपा मिशन से भटक गयी। इसका मतलब ये हैं कि आज बसपा कोई छोटा सा संगठन नहीं बल्कि राष्ट्रीय पार्टी हैं, इसका आयाम लम्बा हो चुका हैं, फलक बड़ा हो चुका हैं। अम्बेडकरी मिशन का मतलब किसी का दमन करना नहीं हैं क्योकि दमन करके कभी समतामूलक समाज का निर्माण नहीं किया जा सकता हैं।

बहन जी योगी के नेतृत्व में ब्राह्मणों पर हो रहे अत्याचारों पर सवाल कर रहीं हैं। इसका मतलब हैं कि आज देश के शोषितों की पार्टी सिर्फ अपने लिए ही नहीं बल्कि शोषक जमात में पीड़ित लोगों के लिए भी आवाज उठा रहीं हैं। इस बात को इस तरह से देखा जाना चाहिए कि आज शोषक पर जब उसी की जाति वाले अत्याचार करते हैं तो शोषक जातियों का पीड़ित तबका भी शोषित वर्ग व उसके नेतृत्व की तरफ देख रहा हैं। मतलब कि बहुजन समाज के शासक जमात में पदार्पण का स्वागत कर रहा हैं।

फिलहाल, आज बसपा इस मुकाम पर पंहुच चुकी हैं कि वह मांगने वाली नहीं, बल्कि देने वाली पार्टी बन गयी हैं। आज बसपा खुल कर कह सकती हैं हमने बहुजन विरोधियों से कुछ अपने नायकों के नाम पर कुछ नहीं माँगा हैं लेकिन आज हम इस लायक हो चुके हैं कि गैर-बहुजन चाहे तो अपने लोगों के लिए बसपा से मांग सकता हैं। याद रहें मान्यवर साहेब कहते थे कि देने वाला समाज ही शासक समाज होता हैं। बहन जी के 09.08.2020 के बयान को यदि इस संदर्भ में देखा जाना चाहिए। 

इसलिए हमारे विचार से बहन जी के इस तरह के तमाम बयानों को इसी संदर्भ में समझा जाना चाहिए। बहन जी ने अपने कार्यकाल में बुद्ध-अम्बेडकरी वैचारिकी पर आधारित जितना कार्य किया, रामंदिर के संदर्भ में बहन जी का शानदार स्टैंड रहा हैं उसके मद्देनजर बहन जी के 09.08.2020 के बयान का पार्टी के मूलभूत सिद्धांतों से किसी भी तरह के कोम्प्रोमिज या विचलन के तौर पर देखना न्याय संगत नहीं माना जा सकता हैं।

रजनीकान्त इन्द्रा

इतिहास छात्र, इग्नू-नई दिल्ली