Wednesday, February 27, 2019

युद्ध नहीं, संविधान सम्मत सत्ता चाहिए

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी राफेल-रक्षा, नोटबादळी, किसान विकासपत्र, जनधन योजना, व्यापम जैसे घोटालों से पूरी तरह जकड गए है। जनता में रोष है। ऐसे में सत्ता उनकी आँखों से ओझल नज़र आ रही है। ऐसे सरकार ने मास्टर स्ट्रोक लगाया है। धर्म- अन्धविश्वास-ढोंग-पांखण्ड के शिकंजे में कैद समाज बहुत डरपोक और भावुक होता है। ऐसे में सरकार ने देशभक्ति का मास्टर स्ट्रोक खेला है। इन सारे मुद्दों के मद्देनज़र पुलवामा अटैक की टाइमिंग ने बहुत से प्रश्न खड़े कर दिए है।

पुलवामा अटैक के सन्दर्भ में लोगों ने बहुत से सवाल सरकार के सामने रख दिए है। बामसेफ के राष्ट्रिय अध्यक्ष माननीय वमान मेश्राम और देश की जनता सरकार से जानना चाहती है कि जब सरकार को इस अटैक से सम्बंधित जानकारी एक हफ्ते मिल इनकों मिल गयी थी तो इन्होने ने उसको रोकने का प्रयास क्यों नहीं किया? जवानों ने हवाई सेवा मांगी तो उनकों हवाई सेवा मुहैया क्यों नहीं कराइ गयी? ३५० किलों बिस्फोटक देश में कैसे आया, इसकी सप्लाई किसने की, सरकार उन लोगों को पकड़ने में नाकाम क्यों रहीं है। जब हुकूमत को इस हमले की जानकारी थी तो उन्होंने इसको रोकने का प्रयास क्यों नहीं किया? वमान मेश्राम जी कहते है कि इन सभी सैनिकों को राजनीति के चलते मरवाया गया है। उन्होंने बताया कि हताहत होने वाले सैनिकों में ज्यादातर सभी बहुजन समाज के ही थे।

यदि हम पुलवामा अटैक के संदर्भ में पर्दे के पीछे गौर करने पर कुछ नए सवाल खड़े हो जाते है कि पुलवामा अटैक से सबसे ज्यादा फायदा किसको मिलेगा? सैनिकों की तश्वीरों से सजे होर्डिंग, बैनर, पोस्टर कौन लगवा रहा है, क्यों लगवा रहा है? सैनिकों की लाशों को कन्धा देकर सैनिकों की लाशों की नुमाइश कौन और क्यों कर रहा है? देश की जनता को सोचना चाहिए कि इधर अभी सैनिकों को दफ़न भी नहीं किया जा सका उधर उनकी लाशों को मुद्दा बनाकर चुनावी रैलियाँ कौन कर रहा था? देश पुलवामा में शहीद होने वालों के गम डूबा था तो पूरे देश में रैलियां और गठबंधन कौन कर रहा था, किस दल के थे ये लोग?पोखरण-२ को देशभक्ति का लिबास पहनकर खुद की पीठ ठोककर सत्ता की चाहत कौन रखता था, वह किस राजनैतिक दल से था? कारगिल के वार में सबसे पहले सैनिकों की लाशों का टीवी पर पहली बार नुमाइश की गयी, और इसी नुमाइश के पीछे सैनिकों के ताबूत तक बेंच लिए गए। इस कारगिल युद्द से सबसे ज्यादा फायदा किस राजनैतिक दाल को हुआ? ठीक आज बीस साल बाद पुलवामा अटैक के बहाने सत्ता हथियाने के षड्यंत्र वाले इतिहास को क्या दुहराया नहीं जा रहा है?

यदि पूरे पृष्ठिभूमि पर गौर किया जाय तो स्पष्ट है कि भारत बहुसंख्यक हिन्दू जनता के मन में एक फिरके विशेष की नफरत, उनकी देशभक्ति से भी ज्यादा प्रबल है। ये वो जनता है जो मुसलमान मतलब पाकिस्तान और पाकिस्तान मतलब मुसलमान समझती है। ये वो जनता है जो आतंकवादी मतलब मुसलमान और मुसलमान मतलब आतंकवादी समझती है। ये वो जनता है तो अपने तथाकथित हिन्दू समाज के ही दलित-आदिवासी और पिछड़े समाज से बेइंतहां नफ़रत करती है। ये नफ़रत इस कदर हावी है कि ये उनकों उनके संवैधानिक हक़ तक को नहीं देना चाहते है। ये लोग अपने हिन्दू समाज के ही लगभग ८५-९०% आबादी को गुलाम समझते है। ऐसे नफ़रत दौर में देशभक्ति की आग को भड़काकर सत्ता की रोटी सेकना बहुत ही आसान है। कारगिल वॉर के बाद की सत्ता इसी का प्रमाण है। यदि ब्राह्मणी सरकार के इस कार्यकाल पर गौर तो हम पाते है कि ये देशभक्ति का उन्माद ब्राह्मणी लोगों द्वारा  देश के बहुसंख्यक आबादी के प्रति अपने मन की नफ़रत को देशभक्ति का लिबास पहनाकर अपने देश की बहुसंख्यक आबादी के मुद्दों और हकों को दफ़न करने के लिए एक षड्यंत्र तौर पर अपनाया गया है।

डॉ राहत इंदौरी साहब कहते है कि "सरहद पर तनाव है, लगता है चुनाव है।" राहत साहेब का ये सेर आज के हालत बयां करता है। पुलवामा अटैक और तेरहवें दिन भारत की कार्यवाही बयां करती है कि इन सबका चुनावों से काफी गहरा रिश्ता है। अन्तर्राष्ट्रीय मामलों की विशेषज्ञ प्रो क्रिस्टीन फेयर कहती है कि "मैं बार-बार ये कहती रही हूं कि इन हमलों का संबंध भारत में होने वाले आम चुनावों से भी है! भारत में हुए किसी भी हमले की व्याख्या चुनाव नहीं कर सकते हैं क्योंकि भारत में हमले होते रहे हैं! लेकिन जिस तरह का हमला पुलवामा में हुआ है उससे पता चलता है कि हमले को काफ़ी सोच-समझकर अंजाम दिया गया है!" आगे प्रो. फेयर कहती है कि "मैं बार-बार ज़ोर देकर ये कहती रही हूं कि हमले का समय और तरीक़ा भारतीय चुनावों में मोदी की जीत सुनिश्चित करने के लिए हुआ दर्शाता है! इससे पहले भारतीय चुनावों में मोदी की जीत सुनिश्चित नहीं थी लेकिन अब जो हालात हैं उनमें मोदी का जीतना लगभग तय है और यही पाकिस्तानी ख़ुफ़िया तंत्र चाहता है!"

भारत के लोगों के सन्दर्भ में प्रो. क्रिस्टीना फेयर कहती है कि "भारत के लोग भले ये ना सुनना चाहें लेकिन सच ये है कि भारत के चुनावों में मोदी की जीत से सबसे ज़्यादा फ़ायदा पाकिस्तान के डीप स्टेट को ही होता है! इसकी वजह ये है कि पाकिस्तान में इस समय कई तरह के घरेलू दबाव हैं! सबसे बड़ी समस्या पश्तून आंदोलन की है जो पाकिस्तान की अखंडता के लिए बड़ा ख़तरा है! बलूचिस्तान में चल रहा संघर्ष भी पाकिस्तान के लिए ख़तरा है! एक मज़बूत भारत की ओर से ख़तरा पाकिस्तान को आंतरिक तौर पर एकजुट करता है!"

इसका मतलब साफ़ है कि इस तरह के हमले या फिर युद्ध आदि से भारत में सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणी ताक़तों, बीजेपी और नरेंद्र दामोदर मोदी को हो सकता है। यदि ऐसा हुआ तो भारत के बहुजन समाज के ऊपर होने वाले ब्राह्मणी अत्याचारों में घोर वृद्धि होगी। देश में साम्प्रदायिकता को बल मिलेगा। अल्पसंखयक में असुरक्षा की भावना लगातार बढ़ती जाएगी। दलितों पर होने वाले अत्याचारों में अप्रत्याशित वृद्धि होगी। संविधान की मनुस्मृति आधारित व्याख्या कर देश को बाबा साहेब रचित संविधान के बजाय मनुस्मृति से ही चलाया जायेगा। चुनाव आयोग, न्यायपालिका, रक्षा, सीबीआई आदि सभी संवैधानिक और अन्य सभी सरकारी संस्थाएं अपना वज़ूद खो देगीं। बहुजन आरक्षण पूरी तरफ से निष्प्रभावी कर दिया जायेगा। दलितों और आदिवासियों को ब्राह्मणी अत्याचारों से बचने वाले एससी-एसटी (प्रिवेंशन ऑफ़ एट्रोसिटी) एक्ट को ख़त्म कर दिया जायेगा। एयरपोर्ट, लालकिला आदि की तरह ही देश के सारे सरकारी उपक्रम उद्योगपतियों को बेच दिए जायेगें। लगभग सरकारी नौकरियां ख़त्म कर दी जायेगीं। बहुजन समाज भविष्य अंधकार सकंट में खड़ा है। इसलिए हमें युद्ध नहीं, बुद्ध चाहिए, सुख-शान्ति-समृद्धि और अपने सभी संवैधानिक व लोकतान्त्रिक अधिकार चाहिए, सम्यक लोकतंत्र और बाबा साहेब रचित संविधान सम्मत शासन चाहिए।। 

लोकसभा चुनाव-२०१९, पुलवामा अटैक-२०१९ और सर्जिकल स्ट्राइक-२०१९ को ध्यान में रखते हुए भारत के सन्दर्भ में हमारी स्पष्ट राय है कि युद्ध हुआ तो सबसे ज्यादा नुकसान भारत, भारत, भारत के संविधान व लोकतंत्र को होगा! युद्ध हुआ तो ब्रहम्णी ताकते फिर से सत्ता पर कब्जा कर लेगीं, नतीजा भारत संविधान व लोकतंत्र की निर्मम हत्या! याद रहे कारगिल युद्ध के बाद ब्रहम्णी ताकते सत्ता पर काबिज हो गई थी, यदि बहुजन नहीं समझा तो 20 साल पुराना इतिहास खुद को दुहरायेगा! युद्द से सबसे ज्यादा फायदा नरेंद्र मोदी व बीजेपी जैसी ब्राह्मणी तक़तों व पाकिस्तान की हुकूमत का होगा। सबसे ज्यादा नुक्सान भारतीय बहुजन समाज व पाकिस्तानी आवाम का होगा। इसलिए हमें हम युद्ध नहीं चाहते हैं, हम भारत में बुद्धिज़्म-अम्बेडकारिज्म की बहुजन सत्ता चाहते हैं।

विषैले देशभक्ति के उन्माद में डूबे भारत के लोगों की सोच पर सवालियां निशान के चलते ही अन्तर्राष्ट्रीय मामलों की विशेषज्ञ प्रो क्रिस्टीन फेयर प्रो क्रिस्टीना फेयर कहती है कि "अमरीका में जब आम लोग मारे जाते हैं तब जनता भड़कती है, इसके उलट भारत में जब सैनिक मारे जाते हैं तब जनता भड़क उठती है!" भारतीय जनता की भावुकता को देखकर ही सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिक मार्कण्डेय काटजू ने कहा था कि भारत की ९०% आबादी मूर्ख है। जिस तरह से लोग भारत के लोकतंत्र और संविधान पर हो रहें ब्राह्मणी प्रहार को नज़रअंदाज कर देशप्रेम के बजाय देशभक्ति में डूब कर युद्ध की पैरवी कर रहें है, पाकिस्तान मुर्दाबाद कर रहे है, उससे तो ये प्रमाणित हो जाता है कि जस्टिक मार्कण्डेय काटजू सही कहते है।

युद्ध के सन्दर्भ में आर्थर पोन्सोन्बी कहते है कि "युद्ध झूठ के कोहरे में लड़े जाते हैं, इसके एक बड़े हिस्से का पता नहीं लगाया गया होता है और वह सत्य के रूप में स्वीकृत होता हैI यह कोहरा भय से पैदा होता है और संत्रास से पोषित होता हैI सर्वाधिक अतिकाल्पनिक कहानी पर भी संदेह करने या उसे खारिज़ करने की किसी कोशिश की तत्काल अगर देशद्रोह नहीं तो देशभक्ति-विरोधी कार्रवाई के रूप में भर्त्सना की जाती हैI इससे झूठों के फैलाव के लिए एक खुला मैदान मिल जाता हैI" ये सबकों याद रखना चाइये कि मामला युद्ध और नफ़रत से नहीं बातचीत से ही हल हो सकता है। सबकों ये जानना चाहिए कि युद्ध के बाद भी बातचीत से ही मसला हल होता है तो पहले ही बातचीत कर ली जाय।


सनद रहें, युद्ध वही चाहते है जो ब्राह्मणी आतंकी ताक़तों के साथ साथ हैं। युद्ध किसी भी समस्या का हल नहीं है। युद्ध से सदा नुकसान ही होता है। युद्ध में शहीद होने वाले ज्यादातर सैनिक बहुजन समाज के ही होते है तो ऐसे में ब्राह्मणी लोगों का कोई नुक्सान नहीं होता है। देशभक्ति के जहरीले उन्माद में डूबी जनता "जियो और जीने दो" (बुद्ध) के सिद्धांत को भूलकर खून के बदले खून चाहती है!ब्राह्मणी भी यही चाहती है। मौजूदा सरकार भी यही चाहती है और इसीलिए जनता को यही ये लोग परोस रहे हैं। लेकिन ये मत भूलिए कि जो खून बहेगा वो खून व लाशे देश के दलित-बहुजनों की होंगी, खेतिहर मजदूरों, व किसानों की होंगी! इसमें किसी अम्बानी-अडानी-माल्या-मोदी की लाश नहीं होगी। ऐसे में देश की जनता को हालत समझने होंगें। देश की बहुजन जनता को अपने हकों के लिए ब्राह्मणी ताक़तों के खिलाफ लड़ना होगा, देशभक्ति का लिबास ओढ़कर सत्ता पर नज़र गड़ाये बैठी ब्राह्मणी ताक़तों को मिटाना होगा, आदिवासियों के लिए हकों के लिए ब्राह्मणी पूँजीवाद के अजगर से लड़ना होगा, भारत में मानवता, संविधान व लोकतंत्र को बचाने के लिए मनुष्यों (सनद रहें मनु की वंशजों को मनुष्य कहते है) से लड़ना होगा। यही भारत के सच्चे प्रेमियों का भारत, भारत के संविधान व लोकतंत्र के प्रति सर्वोपरि कर्तव्य है।
रजनीकान्त इन्द्रा, इतिहास छात्र, इग्नू-नई दिल्ली

Tuesday, February 26, 2019

पैर-प्रच्छालन नहीं, अधिकार चाहिए

ऐसी ब्राह्मणी मान्यता है कि कुम्भ में स्नान करने से सारे पाप धूल जाते है। इसी मान्यता के तहत भारत के माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुम्भ स्नान करके इलाहाबाद में कुछ सफाई कर्मियों का पैर प्रच्छालन किया। भारत की मुखधारा (ब्राह्मणी) मिडिया वंचित जगत के प्रति किये गए इस अपमान को वंचित जगत के प्रति एनडीए-२ के प्यार के रूप में परोस रही है। क्यों मोदी वंचितों के पैर धोने का नाटक करते है? उनका ये नाटक दलितों-वंचितों के कार्यों की महत्ता बताने के लिए नहीं, बल्कि दलित-वंचित समाज को नीच सिद्ध करने के लिए है। 




यदि साफ-सफाई का कार्य इतना ही पवित्र है तो इस कार्य को ब्राह्मणी व्यवस्था के सबसे निचले पायदान पर रखें लोगों के लिए ही सामाजिक-धार्मिक रूप से आरक्षित क्यों कर दिया गया है? इस कार्य में ब्राह्मणों-सवर्णों की भागीदारी क्यों नहीं है? माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी ने सामाजिक सशक्तिकरण करने के बजाय दलितों-वंचितों को स्थापित तौर पर एहसास कराया है कि दलित-वंचित लोग नीच है। नरेंद्र मोदी जी पैर धोकर महान बनाने की फ़िराक में है, मीडिया उनकों महान बनाने के कार्य में लगी हुई है लेकिन क्या इससे देश के वंचित जगत की हालत में कोई बदलाव आएगा?

फ़िलहाल, सवाल यह उठता है कि आज़ादी से लेकर अब तक, चंद महीनों के कार्यकाल को छोड़ दिया जाय तो, केंद्र की सत्ता पर ब्राह्मणों-सवर्णों ने ही शासन किया है। आखिर इन ब्राह्मणों-सवर्णों और उनके राजनैतिक दलों ने क्यों वंचित जगत को उनका संविधान सम्मत स्थान नहीं दिलाया? ऐसी क्या वजह है कि नरेंद्र मोदी को वंचित जगत के पैर धोने पड़े? जिन लोगों के पैर धोये गए क्या वो वाकई में दलित-वंचित समाज के थे? सामाजिक न्याय पर ब्राह्मणों-सवर्णों ने कार्य क्यों नहीं किया? भारत में राजनैतिक लोकतंत्र कुछ हद तक स्थापित हो भी चुका है लेकिन भारत में आर्थिक-सामाजिक लोकतंत्र को क्यों स्थापित नहीं किया गया? इन सवालों की पड़ताल जरूरी है। 

१९४७ से लेकर आज तक देश पर ब्राह्मणों-सवर्णों का ही शासन रहा है। इन लोगों ने देश में सामान शिक्षा, स्वास्थ, आधारभूत संरचनात्मक विकास के साथ-साथ भारत के सामाजिक ताने-बाने को बदल कर समानता स्थापित करने का कार्य क्यों नहीं किया? आज यदि प्रधानमंत्री मोदी ने दलित-वंचित समाज के पैर धो भी दिए तो क्या इससे दलित-वंचित समाज की मुक्ति मुक्ति संभव है? इन्होने दलित-वंचित समाज के लिए कितने स्कूल खुलवाएं है? प्राथमिक पाठशाला में जब तक सवर्णों के बच्चे पढ़ते थे तब तक वहां पढाई का माहौल ठीक था लेकिन जब से पब्लिक स्कूल (हास्यास्पद है कि भारत में प्राइवेट स्कूल को पब्लिक स्कूल कहते है) अस्तित्व में आ गए तब से सभी ब्राह्मणो-सवर्णों के बच्चे पब्लिक स्कूल में जाने लगे, प्राथमिक पाठशाला में बचे वंचित जगत के बच्चे। इन प्राथमिक स्कूलों में अध्यापक सामान्यतः सवर्ण ही है। ब्राह्मणों-सवर्णों के बच्चे इन स्कूलों में पढ़ते नहीं, इस लिए प्राथमिक पाठशालाओ पर कब्ज़ा जमाये ब्राह्मण-सवर्ण अध्यापक पढ़ाना बंद ही कर दिए है। नतीजा, पब्लिक स्कूलों के आने से नौकरियाँ तो बढ़ी है, जिसका फायदा सबसे ज्यादा ब्राह्मणो-सवर्णों को ही मिला है, लेकिन वंचित जगत के शिक्षा का भविष्य पूरी तरह से अंधकारमय हो गया है। 

यदि ब्राह्मणी सरकारों ने समाज में स्वस्थ सुविधा सभी को सामान रूप से उपलब्ध कराया होता तो भारत दुनिया के टीबी कैपिटल, कैंसर कैपिटल, कुपोषण कैपिटल, डायरिया कैपिटल आदि ना बनता। जंग में भी उतने सैनिक शहीद नहीं होते है जितने कि भारत के सीवरों में दलित मार दिए जाते है। डिजिटल इण्डिया की बात करने वाले पीएम ने क्या सीवर की सफाई के लिए किसी तकनीकी के इस्तेमाल को किसी भी रूप में किसी भी स्तर पर कोई बढ़ावा दिया? नहीं, पैर-प्रच्छालन के बजाय सीवरों को मानव सफाई से मुक्त करना होगा, सफाई कर्मियों के स्वास्थ और उनके काम के चलते होने वाले खतरों के मद्देनज़र रखकर से सैलरी देनी चाहिए। क्या इसके लिए मोदी ने कोई काम किया? 

सत्ता में काबिज दल कोई भी रहा हो लेकिन उन दलों पर कब्ज़ा ब्राह्मणो-सवर्णों का ही रहा है। ये सभी ब्राह्मण-सवर्ण जातिवादी नारीविरोधी मनुवादी सनातनी वैदिक ब्रह्माणी हिन्दू धर्म व व्यवस्था के पोषक है। इसी से इनकों देश के ८५% बहुजन समाज के शोषण का राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक-धार्मिक हक़ मिला मिला है। हमारे विचार से, यदि भारत सामाजिक न्याय स्थापित हो गया होता तो नरेंद्र मोदी को ये चुनावी नाटक नहीं करना पड़ता जो नाटक ये कर रहें है। ऐसे में प्रधानमंत्री को जवाब देना चाहिए कि ब्राह्मणी सरकारों ने सामाजिक लोकतंत्र को क्यों स्थापित नहीं किया? 

देश में गरीबी की मार से पीड़ित लगभग पूरी आबादी दलित-वंचित-आदिवासी और अन्य बहुजनों की ही है। ब्राह्मणी सरकारों ने देश के धन-धरती के बॅटवारे के लिए कौन सा कदम उठाया है? यदि देश में आर्थिक लोकतंत्र लागू हो गया होता तो आज देश का दलित-वंचित-आदिवासी-बहुजन समाज गरीबी-बीमारी-शोषण-दुत्कार की मार ना झेल रहा होता? यदि ब्राह्मणी रोग से पीड़ित हुक्मरानों दलित-वंचित हितैसी है तो उन्होंने आर्थिक लोकतंत्र लागू करने के अपने संवैधिक कर्तव्य का पालन क्यों नहीं किया? यदि ब्राह्मणी सरकारों ने ये किया होता तो आज किसी ब्राह्मणी रोगी को प्रतीकात्मक तौर दलितों-वंचितों का पैर ना धोना पड़ता।  

फ़िलहाल, मोदी जी ने जिन सफाईकर्मियों के पैर धोये है वो उत्तर प्रदेश सरकार के लोग रेगुलर सफाईकर्मी नहीं है। कोई छत्तीसगढ़ से है तो कोई उड़ीसा व अन्य जगहों से। मोदी जी ने जिन लोगों के पैर धोये है वो सब लोग कुम्भ में मोदी जी की ही तरह अपने पाप धोने आये थे। ये लोग अपने पापों की मुक्ति के ब्राह्मणी संकल्पना के तहत बस कुछ ही दिनों से कुम्भ में साफ-सफाई का कार्य कर रहे थे। और, सबसे बड़ी बात ये है कि ये सभी ब्राह्मण थे। सोशल मिडिया से प्राप्त जानकारी के अनुसार इनके नाम होरीलाल मिश्रा, प्यारेलाल चौबे, ज्योति द्विवेदी, नरेश चंद्र त्रिपाठी है। फ़िलहाल ब्राह्मणी षड्यंत्र के तहत मुखधारा ब्राह्मणी मीडिया इन लोगों का पूरा नाम नहीं बता रही है। हकीकत में देखा जाय तो मोदी जी ने सफाईकर्मियों के नहीं, बल्कि ब्राह्मणों के पैर धोये है। और, ब्राह्मणी व्यवस्था में ब्राह्मणों-सवर्णों और ब्राह्मणी रोग से पीड़ित लोगों द्वारा ब्राह्मणों के पैर पड़ना या धुलना बहुत ही आम बात है। इससे सिद्ध होता है कि ये सिर्फ और सिर्फ एक चुनावी स्टंट मन्त्र है। 

बाबा साहेब ने कहा है कि जब लोकतंत्र की तलवार गर्दन पर लटकेगीं तो ब्राह्मण-सवर्ण वो भी करेगें जो ये कभी नहीं करना चाहते हैं। बहुजन समाज को समझना होगा कि कोई भी ब्राह्मणी रोग से संक्रमित रोगी दलितों के पैर आसानी से नहीं धोएगा। यदि लोकतंत्र की मजबूरी के चलते कोई ब्राह्मण-सवर्ण या ब्राह्मणी रोग से ग्रसित ऐसा कर भी देता है तो इसका क्रेडिट उसको नहीं, बल्कि बाबा साहब, उनके बनाये संविधान, लोकतंत्र और बाबा साहब द्वारा दिखाए गए रास्ते को जाता है। इसका क्रेडिट मान्यवर काशीराम साहब को जाता है जिन्होंने बहुजन समाज के दलित वर्ग को सियासत में वो मुकाम दिला दिया है कि ब्राह्मण-सवर्ण व ब्राह्मणी रोग से संक्रमित रोगी दलितों के पैर पड़ने तक को मजबूत हो गए है। इसका श्रेय भारत में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका बहन जी को भी जाता है कि जिन्होंने भारत की राजनीति में वो भूचाल ला दिया है कि ब्राह्मणी रोग से संक्रमित लोग दलित-वंचित जगत को रिझाने के लिए मजबूरन कभी रामनाथ कोबिंद (जन्मजात दलित लेकिन मानसिक तौर पर संघी) को राष्ट्रपति बना देते है, और इनकों प्रतीकात्मक तौर पर सफाइकर्मयों के पैर प्रच्छालन का चुनावी नाटक तक करना पड़ता है। 

इन सब घटनाओं के मद्देनज़र, बहुजन समाज को समझना होगा कि ब्रह्मण-सवर्ण सांस्कृतिक तौर पर एक अपराधी जाति है। जब ये मजबूर होती है तो ये सुदामा बनकर आपके पैरों में नतमस्तक हो जाती है लेकिन जब उसको सत्ता मिलती है तो वो परशुराम बनकर आपकी गर्दन काट देता है। यहीं ब्राह्मण है जिसने बहुजन नायक एकलव्य का अँगूठा काटवा लिया था। यही ब्रह्मण है जिसने शम्भूक की गर्दन कटवा दी थी। यही ब्राह्मण है जिसने मीराबाई, संत रैदास और कबीर की हत्या करवाई थी। जब तक गाँधी ब्रह्माणी धर्म के लिए काम करते रहें तब तक ब्रह्मण गाँधी के पैरों में नतमस्तक रहा लेकिन जैसे ही गाँधी थोड़ा से विचलित हुए ब्राह्मण ने उनकी भी हत्या कर दी। याद रहें, गाँधी के पैर पड़ने वाला ब्रह्मण गाँधी का हत्यारा है। इतिहास से सीखने की जरूरत है कि यदि ये ब्राह्मण या ब्राह्मणी रोग से संक्रमित कोई भी आपके पैर धो रहा है तो आपके अधिकार खतरे में है। आपके अधिकारों की हत्या निश्चित है। इसलिए बहुजन समाज को किसी के झांसे में ना आकर अपने हकों को समझते हुए केंद्र में अपनी हुकूमत को पूर्ण बहुमत के साथ स्थापित कर अपनी सामाजिक परिवर्तन के लिए जद्दोजहद करते रहना होगा। इसी में बहुजन समाज की और भारत देश की भलाई है। यही देशप्रेमियों का देश और संविधान के प्रति सच्चा कर्तव्य है।
रजनीकान्त इन्द्रा, इतिहास छात्र, इग्नू-नई दिल्ली

Monday, February 25, 2019

संविधान सम्मत शासन और सामाजिक परिवर्तन के लिए जद्दोजहद ही है बसपा का एजेंडा : रजनीकांत इन्द्रा

पिछले काफी समय से बसपा प्रमुख मायावती पर पार्टी की मूल विचारधारा से समझौता करते हुए बहुजन समाज के हितों को ताक पर रखकर काम करने, पैसे के लिए टिकट बेचने, पार्क तथा स्मृति स्थल के नाम पर सरकारी पैसे का दुरुपयोग करने, पार्टी को अपनी इच्छानुसार बिना किसी एजेंडे के संचालित करने आदि जैसे आरोप लगते रहे हैं। हाल ही में सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का समर्थन करने के बाद अब तक मायावती का समर्थन करते आये दलितों के अंदर भी उनसे कुछ नाराज हैं। ऐसे में मायावती के नेतृत्व में बसपा की नीतियों, कार्यप्रणाली, उसके अब तक के प्रदर्शन तथा भावी संभावनाओं पर बहिष्कृत भारत ने एलीफ के संस्थापक और बहुजन समाज पार्टी को करीब से जानने वाले श्री रजनीकांत इन्द्रा से लम्बी बातचीत की जिसका सम्पादित अंश यहाँ प्रस्तुत किया जा रहा है। 
बहिष्कृत भारत : इन्द्रा जी सबसे पहले तो आपका हम स्वागत करते हैं और इस साक्षात्कार के लिए समय निकालने के लिए आपके प्रति आभार प्रकट करते हैं.
रजनीकांत इन्द्रा : जी धन्यवाद. मेरी तरफ से आपको और आपके सभी पाठकों को जय भीम, नमो बुद्धाय।
बहिष्कृत भारत : इन्द्रा जी पिछले काफी समय से बसपा प्रमुख पर पार्टी की नीतियों, कार्यप्रणाली तथा रणनीति को लेकर तमाम तरह के आरोप लगते रहे हैं. इस बार तो ऐसा लगता है कि परंपरागत तौर पर उनके साथ खड़े लोगों में भी कुछ के स्वर बदले हुए हैं. इसके बारे में आपकी प्रारंभिक टिप्पणी क्या है?
रजनीकांत इन्द्रा : बहन जी को गलत कहने वाले दो तरह के लोग हैं। एक, जो बहन जी को और उनके काम करने के तौर तरीकों को बिलकुल भी नहीं जानते और दूसरे जो इससे बखूबी परिचित हैं। पहले तरह के लोग अज्ञानतावश जबकि दूसरे तरह के लोग भयवश ऐसा करते हैं। निजी स्वार्थ के चलते भी बहुजन समाज के ही कुछ लोग हैं जो ना सिर्फ बहन जी पर आरोप लगाते हैं बल्कि बहन जी को दोषी की तरह देखते हैं, और दूसरे बहुजन साथी को गुमराह करने का जतन करते हैं। ऐसे लोगों के कुछ सवाल हैं जो खुद इनके नहीं है बल्कि ब्राह्मणों व सवर्णों द्वारा इनको अपने ही समाज की इमारत में सेंध लगाने के लिए दिये गये हैं।
बहिष्कृत भारत : आप कह रहे हैं कि बहुजन समाज के लोग ब्राह्मणों या सवर्ण समाज के बहकावे में आकर बसपा प्रमुख पर आरोप लगाते हैं लेकिन मायावती तो खुद ब्राह्मणों और सवर्णों को टिकट देती हैं. अगर आपका कहना सही है तो मायावती सवर्णों को टिकट क्यों देती हैं?
रजनीकांत इन्द्रा : बाबा साहेब कहते हैं कि राजनैतिक सत्ता ही वो मास्टर चाभी है जिससे बहुजन समाज अपने लिए अवसरों के सारे दरवाजे खोल सकता है। इन दरवाजों को खोलने के लिए सत्ता चाहिए। सत्ता के लोकसभा व विधानसभा में सीट चाहिए। राजनीति पर सामाजिक ढांचे का गहरा प्रभाव है। ब्राह्मण-सवर्ण का इतना प्रभाव है कि आज भी पिछड़ा वर्ग उनके चंगुल में पूरी आजाद नहीं हो पाया है। सामान्यतः यही होता है कि पिछड़ा वर्ग अपने वर्ग के उम्मीदवार को वोट ना करे, दलित समाज दलित उम्मीदवार को वोट ना करे, ब्राह्मण-सवर्ण तो पिछड़े-दलित दोनों को वोट नहीं करेगा लेकिन अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता व प्रभाव क्षेत्र के चलते ब्राह्मण-सवर्ण अपने ब्राह्मण-सवर्ण के वोट के साथ-साथ दलित व पिछड़े वर्ग का वोट पाने में सफल हो जाता है। पिछड़े वर्ग की गुलामी के चलते ही बहन जी ब्राह्मण-सवर्ण को टिकट देती हैं ताकि कम से कम पिछड़ा वर्ग ब्राह्मणों-सवर्णों के प्रभाव के चलते ही बसपा को वोट कर दे। 2007 में इसी तरह की सोशल इंजिनीरिंग हुई थी और बसपा सत्ता में आयी थी।
बहिष्कृत भारत: क्या सोशल इंजीनियरिंग को ही ध्यान में रखकर बहन जी ने हाथी को गणेश बना दिया है ?
रजनीकांत इन्द्रा : जहाँ तक रही बात हाथी को गणेश करने की, तो ये बहन जी ने कभी नहीं कहा है कि हाथी नहीं गणेश है, और सैद्धांतिक तौर पर ना ही कभी स्वीकारा है। हाँ, सोशल इंजीनियरिंग के दरमियान ब्राह्मणों-सवर्णों व खासकर आज के नव ब्राह्मण पिछड़े समाज को बसपा से जोड़ने के लिए उनके लोगों ने इस नारे को गढ़ा है और प्रचारित किया है, लेकिन यह कभी भी बसपा के सिद्धांत में नहीं रहा है। बहन जी के शासन काल में हुए कार्यों पर नजर दौड़ाये तो आप पायेगें कि हर निर्माण पर आपको बहुजन विरासत की छाप नजर आएगी, बुद्ध-रैदास-कबीर-फुले-अम्बेडकर-मान्यवर काशीराम साहेब नज़र आएंगे। ऐसे में कोई कैसे कह सकता है कि बहन जी ने सिद्धांतों से समझौता कर लिया है।
बहिष्कृत भारत: क्या आपको नहीं लगता कि बसपा सुप्रीमो मायावती ने पार्कों और स्मारकों की बजाय सरकारी पैसे से विश्वविद्यालय और अस्पताल बनवाये होते तो अधिक बेहतर होता? हाथी और पार्क बनवाने किये गए व्यय को आप फिजूलखर्जी मानेंगे या नहीं?
रजनीकांत इन्द्रा : बहन जी के कार्यकाल में हुए निर्माण पर गौर कीजिए। बहन जी ने गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, महामाया प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, मेडिकल कॉलेज, इंजिनीरिंग कॉलेज, पॉलिटेक्निक कॉलेज, इण्टर कॉलेज आदि बनवाये हैं। रही बात बहुजन नायकों के नाम पर बने पार्कों की तो भारत के इतिहास से मिटा दिए गए बहुजन संतों-गुरुओं-समाज सुधारकों, विद्वानों, महानायकों-महनायिकाओं व स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को बहन जी ने पहली बार इस देश में वास्तविक सम्मान और स्थान देने का कार्य किया है। उन्होंने बहुजन इतिहास को पत्थरों पर उकेरा है। हमारी नजर में बहुजन पार्क भारत के सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालों से भी बेहतरीन हैं क्योंकि भारत के विश्वविद्यालय पढ़े-लिखें लोगों को पढ़ाते हैं लेकिन बहुजन पार्क उन लोगों को भी पढ़ाते हैं, उनको उनके अपने बहुजन संतों-गुरुओं-समाज सुधारकों, विद्वानों, महानायकों-महनायिकाओं व स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से साक्षात्कार करवाते हैं, उनको उनका इतिहास बतलाते हैं, उनको उनकी अपनी जीवन-शैली (बुद्धिज़्म) से मिलवाते हैं, उनको अपनी मूल विरासत से परिचय करवाते हैं, जिन्होंने कभी स्कूल का मुँह तक नहीं देखा है। हकीकत में बहन जी ने ब्राह्मणवाद की छाती पर ताण्डव करते हुए देश की 85 प्रतिशत आबादी के इतिहास, गौरवगाथा, संघर्ष और वज़ूद को भारत के ही नहीं बल्कि दुनियां के फलक पर स्थापित किया है। ऐसे में तमाम बहुजन स्मारक विरोधियों के लिए यह एक सन्देश भी हैं कि जब-जब बहुजन संतों-गुरुओं-समाज सुधारकों, विद्वानों, महानायकों-महनायिकाओं व स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की गौरवगाथाओं और इतिहास को इतिहास के पन्नों से मिटाने की कोशिश की जाएगी तब-तब बहुजन समाज अपने संतों-गुरुओं-समाज सुधारकों, विद्वानों, महानायकों-महनायिकाओं व स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों की गौरवगाथाओं और इतिहास को संगमरमर के कठोर निर्दयी पत्थरों पर दर्ज़ करने को मजबूर होगा। यहीं इतिहास में सम्राट अशोक ने किया था, और आज यही भारत में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका ने किया है। इसके लिए आप बहन जी को कसूरवार नहीं ठहरा सकते। साथ ही एक और बात मैं कहना चाहूंगा कि बहन जी द्वारा बनवाये गए बहुजन स्मारकों पर हुए खर्च की बात तो सभी करते हैं लेकिन इन स्मारकों से सरकार को हर साल जो करोड़ों की आय होती हैं उसकी बात कोई नहीं करता. यह स्मारक और पार्क आज की तारीख में सरकार की आय का एक बहुत बड़ा स्रोत बन चुके हैं. इसके लिए तो कोई बहन जी को श्रेय नहीं देता।
बहिष्कृत भारत: बसपा का एजेंडा क्या हैं?
रजनीकांत इन्द्रा : जहाँ तक बसपा जैसी पार्टी की बात है तो लोगों को ये स्पष्ट होना चाहिए कि बसपा एक राजनैतिक दल मात्र नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन के लिए राजनीति को माध्यम बनाकर नए भारत के निर्माण की संकल्पना की साथ कार्य करने वाली एक संस्था है। इसका एजेंडा अत्यंत दीर्घकालिक और व्यापक हैं। बसपा संविधान सम्मत शासन और सामाजिक परिवर्तन के उद्देश्यों के साथ राजनीति में है। यह बिना किसी भेदभाव के समाज के सभी वर्गों के लिए सत्ता और संसाधनों की न्यायोचित भागीदारी सुनिचित करने के एजेंडे के साथ राजनीति में है।
बहिष्कृत भारत: बसपा यदि बिना किसी भेदभाव के समाज के सभी वर्गों के लिए सत्ता और संसाधनों की न्यायोचित भागीदारी सुनिचित करने के एजेंडे के साथ राजनीति में है तो इसने सवर्णों के लिए 10 प्रतिशत आरक्षण का विरोध क्यों नहीं किया? सवर्ण तो पहले से ही आबादी के अनुपात में काफी अधिक स्थानों पर काबिज हैं। 
रजनीकांत इन्द्रा : जैसा कि सर्वविदित है कि एनडीए-2 के पहले भी छह बार आर्थिक आधार पर सवर्ण आरक्षण का विधेयक पारित हुआ था लेकिन संविधान के मूल ढाँचे के उल्लंघन व आरक्षण को लेकर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा लगाए गए 50 फीसदी का बैरियर पार होने कारण न्यायपालिका द्वारा असंवैधानिक करार दिया जा चुका है।  इसलिए बहन जी इस बात को जानती थी कि ये सवर्ण आरक्षण कोर्ट ऑफ़ लॉ में स्टैण्ड नहीं करेगा। इसलिए समर्थन व विरोध का कोई मायने नहीं बनता है। यह पूरी तरह से एक पोलिटिकल स्टंट मात्र लगता है। और, यदि सुप्रीम कोर्ट द्वारा संविधान के मूल ढांचे के उल्लंघन व 50 फीसदी का बैरियर पार होने के बावजूद 10 प्रतिशत सवर्ण आरक्षण को संवैधानिक करार दिया जाता है तो इससे दो नतीजे सामने होगें। एक, सुप्रीम कोर्ट बहुजन समाज के मामले में आरक्षण के खिलाफ फैसले देता है और जब बात सवर्ण आरक्षण की आयी तो उसी सुप्रीम कोर्ट ने इसे संवैधानिक करार कर दिया, मतलब कि खुलेआम जातिवाद। इससे जमीनी स्तर पर बहुजन मोबलाइज होगा और उच्च न्यायपालिका में समुचित आरक्षण की माँग के लिए सड़क पर होगा. दूसरा, 50 फीसदी का बैरियर पार होते ही ओबीसी के आरक्षण को 27 फीसदी से बढाकर 54 फीसदी करने का रास्ता साफ़ हो जायेगा। परिणामस्वरूप जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी भागीदारी का रास्ता खुल जायेगा। इसलिए इस सन्दर्भ विशेष में बहन जी को दोष देने की बजाय जमीनी स्तर पर देश की 85 फीसदी आबादी को सड़क पर लाने की तैयारी होनी चाहिए। इसके लिए समाज को भी अपनी जिम्मेदारी समझनी होगी. हमारा मानना है कि नेतृत्व का काम है मार्गदर्शन करना, रास्ता दिखाना, भटकाव के समय, बिखराव की परिस्थिति में सामने आकर समाज को एकजुट करते हुए परिवर्तन के कारवां को आगे बढ़ाना. वह हमेशा, हर विषय पर, हर जगह सक्रिय नहीं हो सकता। नेतृत्व से इतर भी बहुजन समाज को अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए आगे आना होगा, तभी समाज में परिवर्तन हो सकता है।
बहिष्कृत भारत: बहन जी पर टिकट बेचने के आरोप लगते रहे हैं. आप इस पर क्या कहना चाहेंगे?
रजनीकांत इन्द्रा : सतही तौर पर देखें तो लगता है कि बहन जी नोट के लिए बहुजनों का वोट बेचती हैं या पैसे लेकर टिकट देती हैं लेकिन जब हम इसके जड़ में जाकर पड़ताल करते हैं तो यह बात सही नहीं लगती। ऐसे में सबसे पहले बहुजन समाज को जानना होगा कि बसपा एक राष्ट्रीय पार्टी है। इसका कार्यालय इतना आलिशान है कि सदियों से गुलाम रही कौम इस पर गर्व करती है कि जिस कौम को आज़ादी से पहले इंसान भी नहीं समझा जाता था आज वही गुलाम कौम बाबा साहेब के दिखाए रास्ते पर चलकर देश की हुक्मरान कौम में शुमार हो चुकी है। यह सर्वविदित है कि पार्टी को चलने के लिए रूपये की जरूरत होती है। अन्य राष्ट्रीय पार्टियों की तरह बसपा ने किसी उद्योग घराने से सम्बन्ध नहीं बनाये है। इसने पैसा या तो सीधे अपने कार्यकर्ताओं और समर्थकों से माँगा है या फिर बहन जी के काम से प्रभावित होकर लोग बसपा के मिशन को आगे बढ़ाने के लिए कुछ उपहार दे देते हैं। जिसे बहन जी वापस बहुजन समाज की अपनी राजनीति व इसके आधारभूत ढांचे एवं प्रचार-प्रसार के लिए इस्तेमाल करती हैं।  और, आज इसी राजनीतिक दल की बदौलत सकल बहुजन समाज की आवाज भारत के संसद में गूँजती है।
बहिष्कृत भारत: देश के सबसे बड़े सूबे की चार बार मुख्यमंत्री रह चुकी मायावती ने बहुजन समाज को सबसे महत्वपूर्ण कौन सी चीज दी है?
रजनीकांत इन्द्रा : इसका जवाब है – देश का शासक बनने का सपना. ऐसे समय में जबकि 47 लोकसभा सीट वाली कांग्रेस भी श्योर नहीं है कि अगला प्रधानमंत्री उसी का होगा, शून्य सीट वाली बहुजन समाज पार्टी के बहुजन बहन जी को पीएम बनाने का सपना देख रहे हैं। यह बहुत बड़ी बात है। बहुजन समाज के देश पर हुकूमत करने का रास्ता बाबा साहेब ने बनाया, हुकूमत की कुर्सी तक पहुँचाने का हुनर मान्यवर काशीराम साहेब ने सिखलाया, बाबा साहेब के बनाये रास्ते और मान्यवर साहेब के सिखलाये की बदौलत बहुजन समाज को भारत पर हुकूमत करने का सपना बहन जी ने देखना सिखाया है। याद रहें, सपने उसी के साकार होते हैं जिनमे सपने देखने की हिम्मत हो।
बहिष्कृत भारत: अन्य राजनेताओं की तरह मायावती को कभी किसी मुद्दे को लेकर सड़क पर उतरते नहीं देखा गया है. इसके पीछे क्या कारण है?
रजनीकांत इन्द्रा : मेरा मानना है कि बहन जी बुद्ध और अम्बेडकर की वारिस हैं. वो अच्छी तरह से जानती और समझती है कि क्या बहुजन हित में है, क्या नहीं ? बाबा साहेब ने ही कहा है जब तक हमारे पास लोकतान्त्रिक और संवैधानिक रास्ते हैं तब ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जाना चाहिए जिससे कि समाज के लोगों को कोई नुकसान होने की सम्भावना भी हो। बहन जी अपने बहुजन समाज की माली हालत से अच्छी तरह वाकिफ हैं। बहन जी बेहतर तरीके से जानती हैं कि एक तरफ हमारे नवयुवक स्कूलों और कालेजों की तरफ उन्मुख हैं, तो दूसरी तरफ केंद्र और सूबे में बहुजन विरोधी सरकार है। ऐसे में यदि हमारे लोग सड़क पर आते हैं तो उन्हें गलत तरीके से कोर्ट केसेस में उलझा दिया जायेगा। इससे समाज के लोग परेशान होंगे। अपने लोगों को मुसीबत में डाल कर कौन सा हल निकलने वाला है? हमारे पास अभी भी लोकतान्त्रिक रास्ते हैं, चुनाव का रास्ता है। हमें पूरा विश्वास है कि यदि बहुजन समाज अपने हितों और हकों को समझ जाय तो संवैधानिक व लोकतान्त्रिक तरीके से ही बहुजन विरोधी सरकार और व्यवस्था को नेस्तनाबूद किया जा सकता है, वो भी हमेशा के लिए। 
बहिष्कृत भारत: आपने बहिष्कृत भारत को इतना समय दिया और इतनी बेबाकी से बसपा से जुड़े विभिन्न विषयों पर अपनी राय रखी इसके लिए धन्यवाद। 
रजनीकांत इन्द्रा : धन्यवाद. जय भीम, नमो बुद्धाय। 
(फरवरी २५, २०१९ बहिष्कृत भारत में छपा साक्षात्कार)

Saturday, February 23, 2019

जय श्रीराम बनाम जय भीम


आज भारत में दहशत का आलम है। चारों तरफ साम्प्रदायिकता और जातीय हिंसा का माहौल है। दलित-आदिवासी-पिछड़े और अल्पसंख्यकों को टारगेट किया जा रहा है। गाय-रक्षा और देशभक्ति के नाम पर मॉब लींचिंग बहुत ही आम हो गया है। पिछले पांच सालों में जातिगत हत्या, बलात्कार, लूट और भ्रष्टाचार में घातांकीय वृद्धि हुई है। ब्राह्मणी सरकार ने भ्रष्टाचार की सारी हदें पार कर दी है। राफेल घोटाला, ईबीएम घोटाला, नोटबादळी घोटाला, जनधन घोटाला, व्यापम घोटाला, बैंक घोटाला, सीबीआई पतन, आरबीआई पतन, न्यायपालिका पतन, आर्मी का राजनीतिकरण आदि अलोकतांत्रिक, असंवैधानिक, अवैध, अनैतिक और अमानवीय कृत्यों के बाद मौज़ूदा सरकार के कोई मुद्दा नहीं बचा है जिस पर वह राजनीति कर सके। 

आम तौर पर लोग ये समझते है कि भारत में लड़ाई राजनैतिक सत्ता मात्र की है, लेकिन ऐसा सोचना उचित निर्णय नहीं होगा। भारत के राजनैतिक फलक पर बहुत से राष्ट्रीय व क्षेत्रीय दल है। सबके अपने-अपने एजेंडे है। लेकिन भारत का मुख्या एजेण्डा है सामाजिक परिवर्तन है। ऐसे में हम भारत की राजनीति को दो दो हिस्सों में देखते है। 

एक, वे लोग और उनके राजनैतिक दल है जो भारत में या तो सामाजिक यथास्थिति को बनाये रखना चाहते है, या फिर वापस देश को पेशवाई ज़माने में ले जाना चाहते है। ये लोग संविधान को बदलने की जद्दोजहद कर रहे है। मनुस्मृति को दुबारा कब्र से खोदकर जीवित करने की अमानवीय कोशिस कर रहें है। ये लोग संविधान निहित समता को नकारकर समरसता को स्थापित करना चाहते है। जिसका मतलब है कि ब्राह्मणी व्यवस्था, जातिवाद, जाति-पाँति, ऊंच-नीच आदि को कायम रखना, अल्पसंख्यक समाज को दूसरे दर्जे का नागरिक बनाकर रखना, नारी समाज को सीता जैसी गुलाम व दासी बनाकर रखना। ये लोग लोगों की स्वतंत्रता को छीन कर उनकों गुलाम बनाना चाहते है, बंधुता को नकारकर वैमनस्य का राज़ स्थापित करना चाहते है। ऐसे दल, संगठन मानवता का सन्देश देने वाले राष्ट्र ध्वज को ब्राह्मणी आतंकवाद के प्रतीक भगवा ध्वज से रिप्लेस करना चाहते है। ये लोग देश में सदा रक्तपात-दंगा-फसाद, क़त्ल-ए-आम और ब्राह्मणवाद  जैसे भयानक सामाजिक कैंसर की वकालत करते है। हुकूमत पर अलोकतांत्रिक और अवैधानिक रूप से कब्ज़ा जमाये बैठे इनके लोगों द्वारा हाल-फिलहाल में तमाम ऐसे निर्णय लिए गए है जिससे कि बहुजन समाज व बहुजन आन्दोलन का बहुत नुकसान हुआ है। जैसे कि एससी-एसटी प्रिवेंसन ऑफ़ एट्रोसिटी एक्ट १९८९ को निष्प्रभावी बनाना, आदिवासियों को उनके ही जमीन-जंगल व अन्य मूलभूत हकों से वंचित करना, बहुजनों के मनोबल को कुचलकर उनकों दास बनाना, बहुजनों को अन्धविश्वास-ढोंग-पाखण्ड-भगवान-भक्ति और धर्म में उलझना, देश की शासन-सत्ता और संसाधन की संस्थाओं में समुचित स्वप्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी को एक सिरे से खारिज करना आदि प्रमुख है। ये लोग, ऐसे राजनैतिक दल और तमाम संगठन भारत में ब्राह्मणी आतंकवाद के जरिये भारत में ब्राह्मणवाद को स्थापित करना चाहते है। ये ब्राह्मणवाद को स्थापित करने वाला रामराज्य लाना चाहते है। ये ब्राह्मणी लोग, राजनैतिक दल और संगठन कोई और नहीं, बल्कि जय श्रीराम वाले ही है। 

दूसरे, ये वो लोग और वह राजनैतिक दल है जो भारत में संविधान का शासन स्थापित करना चाहते है। लोगों के ज़हन में समता-स्वतंत्रता-बन्धुता की भावना जगाना चाहते है, देश के हर तबके को देश के शासन-सत्ता और संसाधन के हर क्षेत्र के हर पायदान पर उनकों उनका समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी दिलाना चाहते है, अन्धविश्वास-पाखण्ड-भगवान्-भक्ति-धर्म की जहर को नेस्तनाबूद करके शिक्षा-तर्क की भावना स्थापित करना चाहते है। समाज में स्थापित हो चुके ब्राह्मणी मानसिक रोग का इलाज करके समाज में पुनः मानवता, तर्कवाद और वैज्ञानिकता को स्थापित करना चाहते है। ये लोग खून-खराबे की नहीं, बल्कि कलम-किताब की सभ्यता सत्यापित करना चाहते है। ये लोग समाज में हर किसी को मान-सम्मान, प्यार और भाईचारा देना चाहते है। ये लोग भारत में ही नहीं दुनिया में शांति-समृद्धि का साम्राज्य कायम करना चाहते है। ये लोग बुद्ध-रैदास-कबीर-फुले-बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर-पेरियार-काशीराम को अपना आदर्श मानते है। ये लोग जय भीम वाले है। 

ऐसे में देखा जाय तो भारत में सामाजिक द्वन्द चल रहा है। एक तरफ नफ़रत-लूटमार-हत्या-बलात्कार-जाति-पाँति-भेदभाव-ऊंच-नीच-अमानवीयता-क्रूरता-गुलाम पसन्द जय श्रीराम वाले है, तो दूसरी तरफ समता-स्वतंत्रता-बन्धुता-प्रेम-ज्ञान-शिक्षा-क्षमा-दया-करुणा-ममता-मानवता प्रतीक जय भीम वाले है। हालाँकि ये द्वन्द कोई नया नहीं है। ये द्वन्द पहले बुद्धिज़्म बनाम ब्राह्मणवाद था। आज भी वही द्वन्द जारी है। फ़िलहाल १९४७ के बाद भारत के हर क्षेत्र के हर पायदान पर लड़ी जा रही हर लड़ाई ब्रह्मनिज़्म बनाम बुद्धिज़्म ही है जिसे आज के सन्दर्भ में जय श्रीराम बनाम जय भीम कह सकते है। अब तय इस देश की जनता को करना है कि वो अपने लिए, अपने आने वाली नश्लों के लिए, कैसी विचारधारा, कैसी सभ्यता, कैसा समाज चाहते है? इसलिए अब निर्णय आपके हाथ में है कि आप जय श्रीराम के साथ हैं या फिर जय भीम के।
रजनीकान्त इन्द्रा, इतिहास छात्र, इग्नू-नई दिल्ली

Friday, February 22, 2019

गाँवों से शहरों तक आज भी जिन्दा है जाति


आज मैं (दीपशिखा इन्द्रा) और मेरी दो बहनें लखनऊ में विकास नगर की ओर सुबह नौ बजे से निकले फ्लैट देखने निकले। काफी समय घूमने के बाद एक फ्लैट पसंद आया तो हमने मकान मालकिन से बात की। हमने पूछा 2BHK रूम खाली है? मकान मालकिन ने कहा- हाँ खाली है. फिर उसने पूछा क्या करते हो? कहां से हो? कितने लोग हो? हमने बताया. फिर उसने पूछा- तुम्हारी जाति क्या है? जब जाति पूछा तभी हम समझ गये कि रूम नहीं मिलेगा. फिर भी हमने बताया – SC समाज से. इस पर उस महिला ने कहा- हम नीची जाति वालों को नहीं मकान नहीं देते हैं। ये सुनकर गुस्सा तो बहुत आया लेकिन हम कुछ कर नहीं सकते थे। इतने घटिया मानसिकता वाले लोग हैं. ऐसी अन्य घटनाएं पहले भी हमारे साथ हो चुकी हैं। जब हम लखनऊ आये थे तब एक मिश्रा जी थे। उनकी पत्नी से मकान देखने के बाद हमने पैसे तक की बात सब कुछ तय कर ली थी लेकिन बाद में वही बात आ गई थी। आप किस जाति से हो? और जाति सुनते ही उन्होंने मकान देने से मना कर दिया। सबसे दुखद बात तो यह है कि तब वह मिश्रा अंकल जी भी हमारे साथ ही थे जो हमें रूम दिखाने ले गये थे।

न सिर्फ लखनऊ में बल्कि देश की राजधानी दिल्ली तक में हमने इस तरह के भेदभाव को झेला है. यह घटना 26 नवम्बर 2017 की है। उस समय हम दिल्ली में Made Easy में कोचिंग करते थे जो साकेत में है. हम DLF में रहते थे वहां से साकेत कोचिंग तक आने-जाने में एक घंटा लग जाता था और कोचिंग क्लास का समय सुबह साढ़े सात का था और क्लास में सीट अच्छे जगह मिले इसलिए हमें जल्दी जाना पड़ता था तो हम रूम से साढ़े पांच बजे के आसपास निकल जाते थे। उस दिन हम कोचिंग के लिए रूम से निकले और आटो में बैठें और अपना फोन निकाला। मेरे फोन के स्क्रीन पर बाबा साहेब की फोटो लगी थी तो आटो में बैठे एक व्यक्ति ने हमसे पूछा – तुम अम्बेडकरवादी चमार हो क्या? हमने बोला – हाँ। यह सुन कर उसने हमें आटो से निकल जाने को कहा. सबसे अधिक हैरानी तो तब हुई जब आटो में बैठे अन्य लोगों, जिनमे महिलाएं तक शामिल थीं, ने भी इसका विरोध करने की बजाय उस व्यक्ति की हाँ में हाँ मिलाई। उन्होंने कहा- ये लोग बहुत ज्यादा सर पर चढ़ गये हैं. चमार हैं तो साफ़ सफाई क्यों नहीं करते. उनके ऐसा कहने पर हमने ऑटो से उतरना ही मुनासिब समझा. दिल्ली जैसे खुद को आधुनिक कहने वाले शहर में शरे राह हुई इस तरह की घटना ने हमें अंदर से झकझोर दिया था। 

वैसे तो मैंने और मेरी बहनों ने इस तरह की घटनाओं को बचपन से झेला है लेकिन तब हमारे अबोध मन में यह बात नहीं आती थी कि स्कूल में गृह विज्ञान के प्रैक्टिकल के दौरान हमारी थाली और ग्लास को क्यों फेंका गया या अपनी सहेली जो कि सवर्ण जाति से आती थी, के घर जाने पर हमें दूसरे लोगों से अलग ग्लास में पानी क्यों दिया जाता था। समय के साथ इस तरह के व्यवहार का रहस्य उजागर होता गया। समय ने एक अच्छे शिक्षक की तरह हमें भारत में जाति की वर्णमाला से परिचित करा दिया। हमने अब यह जान लिया है कि क्यों स्कूल से लेकर मोहल्ले तक हमारे साथ होने वाले किसी भी छोटे मोटे झगड़े में चमार, चमाईन या बहन जी का नाम स्वतः शामिल हो जाता था। यह दरअसल हमारे समाज की वह कड़वी हकीकत है जिसे सब जानते बुझते और अपने जीवन में उसका पालन करते हुए भी स्वीकार करने से कतराते हैं। हम चाहें जितना आधुनिक होने का दावा कर ले जाति आज भी व्यक्ति के जीवन का केंद्र बिंदु और परिधी दोनों है। बहुत से लोग मानते हैं कि शहरों में जातिवाद नहीं है लेकिन यह सही नहीं है। जातिवाद शहरों में भी है लेकिन यहाँ इसका स्वरुप गांवों से थोड़ा भिन्न है। यहाँ बहुत बारीक़ किस्म का भेदभाव होता है। अगर ऐसा नहीं होता तो आज शहरों ने गांवों तक को बदल दिया होता। हमने आज जो कुछ झेला वह हमारे लिए कोई नयी बात नहीं है लेकिन हमारा मानना है कि जब तक इस तरह कि बातें पुरानी नहीं होती नए भारत के निर्माण का सपना साकार नहीं हो सकता। जातिवाद आज भी हमारे देश की एक बड़ी समस्या है। दुर्भाग्य से शोषक जातियां जातिगत कारणों से शुतुरमुर्ग की तरह रेत में सर घुसाए इस समस्या के अस्तित्व तक को स्वीकारने को तैयार नहीं हैं। मगर इससे यह समस्या समाप्त नहीं होगी। हमें पहले इस मर्ज को स्वीकार करना होगा। एक बार मर्ज को जानने के बाद महात्मा बुद्ध और बाबा साहब अंबेडकर के समता, स्वतंत्रता और बंधुता के त्रिरत्न रुपी औषधि का प्रयोग कर हम इस बीमारी को जड़ मूल से समाप्त कर सकते हैं। यहाँ यह बात विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि शोषक जातियां स्वेच्छा से अपने विशेषाधिकार को नहीं छोड़ने वाली। उन्हें इसके लिए बाध्य करना होगा। इसके लिए बहुजन समाज को पहले खुद जागना होगा। जो खुद सोया हो वह दूसरों को नहीं जगा सकता। 
दीपशिखा इन्द्रा, बी.टेक, एम.एस.डव्लू

(Published on Bahishkrit Bharat web portal on Feb. 22, 2019)

बहन जी पर नाजायज आरोप लगते गुमराह बहुजन


जिन्होंने अपनी ज़िन्दगी के चार सेकेंड भी समाज को नही दिया है आज वही लोग आरामदेह कुर्सियों पर बैठकर भारत के राजनैतिक फलक पर अपनी जिंदगी के चार दशक से भी अधिक समय तक बहुजन आंदोलन को समर्पित, बहुजनों की आवाज और भारत में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका पर आरोप लगाते हैं! कितना दुःख होता है जब वो लोग आप पर आरोप लगाकर बिना सच्चाई जाने दोषी करार कर देता है जिनके लिए महानायिका ने अपना सब कुछ त्याग दिया!

बहुजन महानायिका पर बहुत सारे आरोप बहुजनों द्वारा ही लगाये जाते हैं! हम ये नहीं कहते हैं कि समीक्षा नहीं की जाय! बहन जी हो या कोई अन्य कोई भी समीक्षा के दायरे से बाहर नही हो सकता है। यदि मिशन व समय की नज़ाकत को समझते हुए समीक्षा की जाय तो मिशन को लाभ होगा, मिशन प्रबल व प्रखर होगा! लेकिन निजी स्वार्थ के चलते बहुजन समाज के ही कुछ लोग हैं जो ना सिर्फ बहन जी पर आरोप लगाते हैं बल्कि बहन जी को दोषी की तरह देखते हैं, और दूसरे बहुजन साथी को गुमराह करने का जतन करते हैं! ऐसे लोगों के कुछ सवाल है जो खुद इनके नहीं है बल्कि ब्राह्मणों व सवर्णों द्वारा इनकों अपने ही समाज की इमारत में सेंध लगाने के लिए दिया गया। चरों तरफ घटित हो रही राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक-सांस्कृतिक घटनाओं पर विश्लेषण करने के बाद कुछ ऐसे ही सवालों का जबाब देने का प्रयास करते है। जैसे -
१) बहन जी सवर्णों को टिकट क्यों देती है ?
बाबा साहेब कहते है कि राजनैतिक सत्ता ही वो मास्टर चाभी है जिससे बहुजन समाज अपने लिए अवसर के सारे दरवाजे खोल सकता है। इन दरवाजों को खोलने के लिए सत्ता चाहिए। सत्ता के लोकसभा व विधानसभा में सीट चाहिए। राजनीति पर सामाजिक ढांचे का गहरा प्रभाव है। ब्राह्मण-सवर्ण का इतना प्रभाव है कि आज भी पिछड़ा वर्ग उनके चंगुल में पूरी तरह से कैद। सामान्यतः यही होता है कि पिछड़ा वर्ग अपने वर्ग के उम्मीदवार को वोट ना करे, दलित समाज दलित उम्मीदवार को वोट ना करे, ब्राह्मण-सवर्ण तो पिछड़े-दलित दोनों को वोट नहीं करेगा लेकिन अपनी सामाजिक-सांस्कृतिक अस्मिता व प्रभाव क्षेत्र के चलते ब्राह्मण-सवर्ण अपने ब्राह्मण-सवर्ण के वोट साथ-साथ दलित व पिछड़े वर्ग का वोट पाने में सफल हो जाता है। पिछड़े वर्ग की गुलामी के चलते ही बहन जी ब्राह्मण-सवर्ण को टिकट देती है ताकी कम से कम पिछड़ा वर्ग ब्राह्मणों-सवर्णों के प्रभाव के चलते ही बसपा को वोट कर दे। २००७ में इसी तरह की सोशल इंजिनीरिंग हुई थी और बसपा सत्ता मी आयी थी।
२) बसपा ने हाथी को गणेश क्यों बना दिया है ?
जहॉ तक रही बात हाथी को गणेश करने की, तो ये बहन जी ने कभी नहीं कहा है कि हाथी नहीं गणेश है, और, सैद्धांतिक तौर पर ना ही कभी स्वीकारा है! हॉ, सोशल इंजिनीरिंग के दरमियान ब्राह्मणों-सवर्णों व खासकर आज के नव ब्राह्मण पिछड़े समाज को बसपा से जोड़ने के लिए उनके लोगो ने इस नारे हो गढ़ा है और प्रचारित किया है। लेकिन ये कभी भी बसपा के सिद्धांत में नही रहा है! बहन जी के शासन काल में हुए कार्यों पर नजर फेरिये तो आप पायेगें कि हर निर्माण पर आपको बहुजन विरासत नजर आएगी, बुद्ध-रैदास-कबीर-फुले-अम्बेडकर-मान्यवर काशीराम साहेब नज़र आयेगें। ऐसे में कोई कैसे कह सकता है कि बहन जी ने सिद्धांतों से समझौता कर लिया है।
३) बहन जी ने इतने सारे पत्थर और पार्क बनवाने के बजाय विश्वविद्यालय और अस्पताल बनवा दिया होता, हाथी और पार्क बनाने में पैसा क्यों खर्च किया?
बहन जी के कार्यकाल में हुए निर्माण पर गौर कीजिए बहन जी ने गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, महामाया प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय, मेडिकल कॉलेज, इंजिनीरिंग कॉलेज, पॉलिटेक्निक कॉलेज, इण्टर कॉलेज आदि बनवाये है। रही बात बहुजन पार्कों की तो भारत के इतिहास से मिटा दिए गए बहुजन संतों-गुरुओं-समाज सुधारकों, विद्वानों, महानायकों-महनायिकाओं व स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को बहन जी ने पहली बार बहुजन भारत में स्थापित किया है। बहुजन इतिहास को पत्थरों पर उकेरा है। हमारी नजर में बहुजन पार्क भारत के सबसे बेहतरीन विश्वविद्यालों से भी बेहतरीन है क्योंकि भारत के विश्वविद्यालय पढ़े-लिखें लोगों को पढ़ाते हैं लेकिन बहुजन पार्क उन लोगों को भी पढ़ाते है, उनकों उनके अपने बहुजन संतों-गुरुओं-समाज सुधारकों, विद्वानों, महानायकों-महनायिकाओं व स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों से साक्षात्कार करवाते है, उनकों उनका इतिहास बतलाते है, उनकों उनके अपनी जीवन-शैली (बुद्धिज़्म) से मिलवाते है, उनकों अपनी मूल विरासत से परिचय करवाते है, जिन्होंने कभी स्कूल का मुँह तक नहीं देखा है। हकीकत में बहन जी ने ब्राह्मणवाद की छाती पर ताण्डव करते हुए देश की ८५% आबादी के इतिहास, गौरवगाथा, संघर्ष और वज़ूद को भारत के ही नहीं बल्कि दुनियां के फलक पर स्थापित किया है। ऐसे में तमाम बहुजन स्मारक विरोधियों से हमारा पूरी सख्ती से ये कहना है कि जब-जब हमारे बहुजन संतों-गुरुओं-समाज सुधारकों, विद्वानों, महानायकों-महनायिकाओं व स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के गौरवगाथाओं और इतिहास को इतिहास के पन्नों से मिटाने की कोशिस की जाएगी तब-तब हम अपने बहुजन संतों-गुरुओं-समाज सुधारकों, विद्वानों, महानायकों-महनायिकाओं व स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के गौरवगाथाओं और इतिहास को संगमरमर के कठोर निर्दयी पत्थरों पर दर्ज़ करने को मजबूर होगें। यहीं इतिहास में सम्राट अशोक ने किया था, और आज यही भारत में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका ने किया है।
४) १०% सवर्ण आरक्षण पर बहन जी ने विरोध क्यों नहीं किया ?
जैसा कि सर्वविदित है कि एनडीए-२ के पहले भी छ बार आर्थिक आधार पर सवर्ण आरक्षण पारित हुआ था लेकिन संविधान के मूल ढाँचे के उलंघन व ५० फीसदी का बैरियर पार होने कारण न्यायपालिका द्वारा असंवैधानिक करार किया जा चुका है। इसलिए बहन जी इस बात को जानती थी कि ये सवर्ण आरक्षण कोर्ट ऑफ़ लॉ में स्टैण्ड नहीं करेगा। इस लिए समर्थन व विरोध का कोई मायने नहीं बनता है। ये पूरी तरह से एक पोलिटिकल स्टंट मात्र लगता है। और, यदि सुप्रीम कोर्ट संविधान के मूल ढांचे के उलंघन व ५० फीसदी का बैरियर पार होने के बावजूद १०% सवर्ण आरक्षण को संवैधानिक करार देती है तो इससे दो नतीजे सामने होगें। एक, सुप्रीम कोर्ट बहुजन के मामले में आरक्षण के खिलाफ फैसले देते है और जब बात सवर्ण आरक्षण की आयी तो उसी सुप्रीम कोर्ट इसे संवैधानिक करार कर दिया। मतलब कि खुलेआम जातिवाद। इससे जमीनी स्तर पर बहुजन मोबलाइज होगा और उच्च न्यायपालिका में समुचित आरक्षण की माँग के लिए सड़क पर होगा। दूसरा, ५० फीसदी का बैरियर पार होते ही ओबीसी के आरक्षण को २७ फीसदी से बढाकर ५४ फीसदी करने का रास्ता साफ़ हो जायेगा। परिणामस्वरूप जिसकी जितनी संख्या भारी, उतनी उसकी भागीदारी का रस्ता खुल जायेगा। इसलिए इस सन्दर्भ विशेष में बहन जी को कोसने के बजाय जमीनी स्तर पर देश की ८५ फीसदी आबादी को सड़क पर लाने की तयारी करों। आपके नेता होगें। हमारा मानना है कि नेतृत्व का काम है मार्गदर्शन करना, रास्ता दिखाना, भटकाव के समय, बिखराव की परिस्थिति में सामने आकर समाज को एकजुट करते हुए परिवर्तन के कारवां को आगे बढ़ाना। वह हमेशा, हर विषय पर, हर जगह सक्रिय नहीं हो सकता। नेतृत्व से इतर भी बहुजन समाज को अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए आगे आना होगा, तभी सामाजिक परिवर्तन हो सकता है.
५) बहन जी टिकट बेचती है, दलितों का वोट बेचती है ?
ऐसा कहना उचित नहीं लगता है। सतही तौर पर गौर करें तो लगता है कि बहन जी नॉट के लिए बहुजनों का वोट बेचती है। ऐसे में सबसे पहले बहुजन समाज को जानना होगा कि बसपा एक राष्ट्रीय पार्टी है। इसका कार्यालय इतना आलिशान है कि सदियों से गुलाम रही कौम इस पर फक्र करती है कि जिस कौम को आज़ादी से पहले इंसान भी नहीं समझा जाता था आज वही गुलाम कौम बाबा साहेब के दिखाए रास्ते पर चलकर देश की हुक्मरान कौम में शुमार हो चुकी है। ये सर्वविदित है कि पार्टी को चलने के लिए रूपये की जरूरत होती है। अन्य राष्ट्रीय पार्टियों की तरफ बसपा ने किसी उद्योग घराने से सम्बन्ध नहीं बनाये है। इसने पैसा या तो सीधे अपनी जनता से माँगा है या फिर बहन जी के चरणों में अपने वज़ूद को ढूढ़ने वालों से कुछ पैसा बहन जी को उसी नज़राने के तौर पर गिफ्ट किया करते है जैसे कि मुग़ल सल्तनत में बादशाह किया जाता था। ये नज़राना बहन जी बहुजन समाज की अपनी राजनीति व इसके आधारभूत ढांचे एवं प्रचार-प्रसार के लिए इस्तेमाल करती है। और, आज इसी राजनीतिक दल की बदौलत सकल बहुजन समाज की आवाज भारत के संसद में गूँजती है। जिनकों लगता है कि बहन जी ने अपने सिद्धांतों से समझौता किया है तो ऐसे लोगों को बसपा सरकार के दरमियान किये गए ऐतिहासिक कार्यों को देखना चाहिए, लखनऊ, नोएडा में बने बहुजन विरासत और विश्वविद्यालयों को देखना चाहिए, हर गली हर मोहल्ले में दलित-बहुजनों की हुंकार देखनी चाहिए, बहुजन समाज के आँखों पलने वाले सपनों चाहिए।।
६) बहन जी ने क्या दिया है ?
निजी स्वार्थों के चलते बसपा का विरोध करने वाले अक्सर बोल देते है कि बसपा ने क्या दिया है? ऐसे में सदियों से गुलाम रहें बहुजनों व अन्य लोगों से हम कहना चाहते है कि ४७ लोकसभा सीट वाली कांग्रेस भी श्योर नहीं है कि अगला प्रधानमंत्री उसी का होगा। ऐसे में शून्य सीट वाले बहुजन समाज पार्टी के बहुजन बहन जी को पीएम बनाने का सपना देख रहे है। बहुजन समाज को देश पर हुकूमत करने का रास्ते बाबा साहेब ने बनाया, हुकूमत की कुर्सी तक पहुँचाने का हुनर मान्यवर काशीराम साहेब ने सिखलाया। बाबा साहेब के बनाये रास्ते और मान्यवर साहेब के सिखलाये की बदौलत बहुजन समाज को भारत पर हुकूमत करने का सपना बहन जी ने देखना सिखाया है। बहुजन समाज को देश पर हुकूमत करने के सपने देखने की ताक़त बहन जी ने दिया है। याद रहें, सपने उसी के साकार होते है जिनमे सपने देखने की हिम्मत हो।
७) बसपा का क्या एजेण्डा है ?
लोकसभा चुनाव-२०१९ के एजेण्डे के सन्दर्भ में बात करते है। बसपा एक राष्ट्रीय पार्टी है। इसलिए ये सच है कि ऑफिसियल तौर पर राजनैतिक दलों को अपने एजेण्डे देश के सामने रखने चाहिए। ये बहन जी को भी करना चाहिए। यदि बहन जी ऐसा करती है तो देश को स्पष्ट सन्देश जायेगा। फ़िलहाल जहाँ तक बसपा जैसी पार्टी की बात है तो लोगों को ये स्पष्ट होना चाहिए कि बसपा एक राजनैतिक दाल नहीं बल्कि सामाजिक परिवर्तन के लिए राजनीति को माध्यम बनाकर भारत के लिए कार्य वाली एक संस्था है। बतौर सामाजिक परिवर्तन करके बुद्ध-अम्बेडकरी भारत के सृजन के लिए काम करने वाली ऐसे संस्था के बारे में हमारा निर्णय कहता है कि बसपा के संदर्भ में "एजेण्डा" शब्द को किसी एक कार्यकाल तक बांधना गलत होगा। क्योंकि सिर्फ सत्ता का सुख भोगने वाली राजनैतिक पार्टियों के लिए एजेण्डा सिर्फ और सिर्फ एक कार्यकाल तक सीमित हो सकता है लेकिन एक ऐसी पार्टी जिसका मूल मक़सद ही देश में अमूल-चूल सामजिक परिवर्तन है उसके संदर्भ में एजेण्डा का समय सिर्फ एक कार्यकाल विशेष तक सीमित करके देखना गलत होगा। ऐसे राजनैतिक दल के लिए उसका एजेण्डा उसके आन्दोलन का मूल होता है, और वो सतत अपने उस मूल को प्राप्त करने और अपने एजेण्डे को लागू करने के लिए संघर्षरत रहता है। इस सन्दर्भ में बसपा एक ऐसी ही राजनैतिक पार्टी जिसका मूल मक़सद ही भारत की सामाजिक संरचना को बदलना है, समता मूलक समाज की स्थापना करना है, भारत को उसके इतिहास से परिचित कराना है। 
यदि बसपा के कार्यकाल व बहन जी के प्रेस कॉन्फ्रेंस, संसद में दिए गए बयान, प्रेस विज्ञप्ति आदि पर गौर करें तो हम पाते है कि बसपा ने अपने कार्यकाल में संविधान सम्मत शासन, सामाजिक परिवर्तन के लिए जद्दोजहद, बहुजन संतों-गुरुओं-समाज सुधारकों, विद्वानों, महानायकों-महनायिकाओं व स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के गौरवगाथाओं और इतिहास की पुनर्स्थापना, ब्राह्मणवाद के खिलाफ खुली जंग, देश की शासन-सत्ता, संसाधन और निजी क्षेत्र के हर पायदान पर बहुजनों के समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी (आरक्षण) को तय करना, देश में कानून का राज़ स्थापित करना आदि क्या ये राष्ट्रहित व भारतकी जनता के लिए महत्वपूर्ण एजेण्डा नहीं है।
८) बहन जी को उच्चतम न्यायलय ने हाथी निर्माण में लगे गहन को वापस करने के लिए कहा है? बहन जी ने इस जनता पैसे को अभी तक वापस क्यों नहीं किया ?
यदि बहुजन संतों-गुरुओं-समाज सुधारकों, विद्वानों, महानायकों-महनायिकाओं व स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के गौरवगाथाओं, इतिहास व विरासत की पुनर्स्थापना जनता के पैसे की बर्बादी है तो ऐसे में सवाल ये उठता है कि 4200 करोड़ रूपये का कुम्भ बजट, 3000 करोड़ रूपये की पटेल मूर्ति, दिल्ली में सवर्ण नेताओं की समाधि, दीवाली में लाखों दीपों का वाराणसी व अयोध्या में जलाये जाना इत्यादि धन की बर्बादी क्यों नहीं है? ब्राह्मणी सरकारों के कार्यकाल में खर्च हुए धन का हिसाब आज तक क्यों नहीं माँगा गया? आज न्यायालय, सरकार और ब्राह्मणवादी मानसिकता से ग्रस्त लोग बहन जी को बहुजन स्मारकों के खर्च को वापस करने की बात कर रहे हैं लेकिन क्या कभी किसी अदालत ने ये पूछा कि बहुजन महापुरुषों से जुड़े स्मारकों का निर्माण तो दूर, क्या वजह है कि बहुजनों के गौरवशाली इतिहास, बहुजन क्रांतिकारियों की गौरवगाथाओं और बहुजनों के राष्ट्र-निर्माण में किये योगदान को स्कूल के पाठ्यक्रमों तक में शामिल नहीं किया गया? बहुजन समाज को उसके इतिहास से दूर क्यों रखा गया है? देश को, देश की अदालतों को ये जानकारी होनी चाहिए कि बहन जी के कार्यकाल में बने सभी बहुजन स्मारक कैबिनेट द्वारा प्रस्तावित और विधानसभा द्वारा पारित हैं। संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार यह सिर्फ और सिर्फ विधायिका का अधिकार है कि करारोपण या अन्य माध्यमों से राजस्व कैसे प्राप्त किया जाये और उसे कहाँ खर्च किया जाये। यह न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता कि विधायिका को वह यह निर्देश दे कि उसे पैसे कहाँ और कैसे खर्च करने हैं। क्या सुप्रीम कोर्ट के माननीय न्यायाधीश संविधान के अनुच्छेद 50 से परिचित नहीं हैं जो सरकार और न्यायपालिका कि हदों का निर्धारण करता है? यदि हैं तो फिर उनके इस फैसले का क्या अर्थ निकाला जाना चाहिए।
९) क्या हम बहन जी की आलोचना भी नहीं कर सकते है ?
बहन जी हो या कोई अन्य आलोचना या समीक्षा के दायरे में सब आते है। आलोचना और समीक्षा इंसान या संगठन को उसके मूल मकसद से बांधे रखती है। ऐसे में बहुजन आन्दोलन के विभिन्न पहलुओं के आंतरिक समीक्षा की, तो होती रहनी चाहिए लेकिन ये समीक्षा और आलोचना सृजन के लिए हो, बहुजन आन्दोलन को मजबूत करने के लिए हो, बहन जी या बहुजन आन्दोलन को सिर्फ गाली देने मात्र के लिए नहीं।
१०) बहन जी मुद्दों को लेकर सड़क पर क्यों नहीं उतर जाती है ?
ये सच है कि यदि बहन जी एक आवाज दे तो उत्तर प्रदेश व केंद्र सरकार उनकों रोक नहीं पायेगी। इसका ट्रेलर भारत बंद (०२ अप्रैल २०१८) के दरमियान देश देख चुका है। लेकिन हमारा मानना है कि बहन जी बुद्ध और अम्बेडकर की वारिस है। वो अच्छी तरह से जानती और समझती है कि क्या बहुजन हित में है, क्या नहीं ? बाबा साहेब ने ही कहा है जब तक हमारे पास लोकतान्त्रिक और संवैधानिक रास्ते है तब ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जाना चाहिए जिससे कि समाज के लोगों को कोई नुकसान होने की सम्भावना भी हो। बहन जी अपने बहुजन समाज के माली हालत से अच्छी तरह वाकिफ है। बहन जी बेहतर तरीके से जानती है कि एक तरफ हमारे नव युवक स्कूलों और कालेजों की तरफ उन्मुख है, तो दूसरी तरफ केंद्र और सूबे में ब्राह्मणी सरकार है। यदि हमारे लोग सड़क पर आते है तो उन्हें गलत तरीके से कोर्ट केसेस में उलझा दिया जायेगा। इससे समाज के लोग परेशान होगें। अपने लोगों को मुशीबत में डाल कर कौन सा हल निकलने वाला है। हमारे पास अभी भी लोकतान्त्रिक रास्ते है, चुनाव का रास्ता है। हमें पूरा विश्वास है कि यदि बहुजन समाज अपने हितों और हकों को समझ जाय तो संवैधानिक व लोकतान्त्रिक तरीके से ब्राह्मणी सत्ता को नेस्तनाबूद किया जा सकता है, वो भी हमेशा के लिए।
रजनीकान्त इन्द्रा, इतिहास छात्र, इग्नू नई दिल्ली

सपा-बसपा गठबंधन के मायने


21वीं सदी में, जनवरी 12, 2018 का दिन बहुजन समाज में अपने हक व वजूद को लेकर बढ़ती चेतना का सबसे सशक्त प्रमाण है! आज बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर स्मारक के सामने स्थित ताज होटल उस महागठबंधन का साक्षी बना जिसने भारत के राजनैतिक हलके में भूचाल ला दिया है! ब्रहम्णवादी मीडिया बहुजन समाज की इस एकता को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा है! राजनैतिक विश्लेषक व दल आम चुनाव 2019 के बदलते समीकरण को लेकर असहज महसूस कर रहे हैं! राजनैतिक, सामाजिक-सांस्कृतिक और अर्थ जगत के विद्वान निगाहें लगाये बहुजन समाज के कदमों की आहट सुनने का प्रयास कर रहें हैं! ऐसे में सबसे अहम सवाल यह है कि इस ऐतिहासिक पल के भूत और वर्तमान का भारत, बहुजन समाज, के आने वाले भविष्य पर क्या प्रभाव पड़ेगा ?
एक नजर बहुजन राजनीति के बीते समय पर
सर्वविदित है कि आधुनिक भारत में बहुजन समाज के हकों के लिए लंदन तक अपनी आवाज बुलंद करने वाले बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के महापरिनिर्वाण के बाद बहुजन समाज की राजनीति में एक विराम सा लग गया था! लेकिन चंद सालों बाद भारत की सरजमीं पर मान्यवर काशीराम के रूप में एक ऐसे नेतृत्व का उदय हुआ जिसने भारत की धरती को साइकिल से नापकर भारत की राजनीति में इंदिरा गांधी जैसे शुरमाओं के हृदय गति में अवरोध पैदा कर दिया! इस बहुजन महानायक ने जहॉ एक तरफ बहुजन समाज को बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर से परिचित कराया वहीं दूसरी तरफ के फुले-अम्बेडकरी मिशन को परवान चढ़ाने के लिए बहुजनों में राजनैतिक चेतना का प्रसार किया! इस महामानव ने ब्रहम्णवादी सरकारों व संस्थानों द्वारा भूला दिये गये बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा प्रतीक मानवता मूर्ति बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर व बहुजन समाज की राजनैतिक अस्मिता को भारत की राजनीति में ही नहीं, बल्कि दुनियां के फलक पर स्थापित कर दिया!

बाबा साहेब के मिशन को समर्पित इस दूरदृष्टा ने बामसेफ, डीएस-4 जैसे बहुजन संगठन का सृजनकर बहुजन समाज के नौकरीपेशा व अन्य को अपने हकों के प्रति जगरूक कर भारत की राजनीति में आने वाली सुनामी की बुनियाद ऱखी! आखिर वह दिन, अप्रैल 14, 1984, आ ही गया जिस दिन बीएसपी की स्थापना कर भारत के राजनैतिक पट पर दस्तक दी! कॉरवॉ चलता रहा लोग जुडंते रहे! दो पैरों दो पहिए का ये बहुजन राजनीति का महाआन्दोलन आगे बढ़ता रहा! इसी दरमियान बहुजन समाज की अपनी हुकूमत और दलित समाज के मुद्दों पर खास तवज्जों देते हुए मुलायम यादव के साथ बसपा ने गठबंधन किया गया। मुलायम यादव मुख्यमंत्री बने और बहन जी को दोनों दलों के बीच सैद्धांतिक सामंजस्य बनाये रखने के लिए नियुक्त किया गया! लेकिन मुलायम यादव के मुख्यमंत्रित्व काल में दलित समाज के साथ अत्याचार बढ गया! मान्यवर साहेब के अनुसार अलीगढ में सपा से संरक्षण प्राप्त गुण्डों ने एक भट्टे पर काम करने वाले कुछ मजदूरों को जिंदा जला दिया, पंचायतीराज चुनाव में धांधली की गई आदि! भारतीय समाज के बहिष्कृत जगत के साथ अत्याचार, अनाचार, बलात्कार अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया! मुलायम यादव की इस संविधान विरोधी अमानवीय रवैया के चलते मान्यवर साहेब ने सपा से समर्थन वापस ले लिया जिसके चलते मुलायम के कार्यकर्ताओं ने लखनऊ के गेस्टहाउस में बहुन जी पर जानलेवा हमला कर दिया! नतीजा मुलायम सिंह यादव का नफरती रवैया, फॉरवर्ड की राजनीति और दलित समाज की नफ़रत ने बसपा-सपा की कड़वाहट को हमेशा बढ़ाने का ही काम किया है!

फिलहाल, अपने आप को सवर्ण समझने वाले पिछड़े समाज (ओबीसी) के राज में दलित समाज पर बढते अत्याचार के चलते मान्यवर साहेब जहॉ एक तरफ मुलायम यादव को सत्ता से बेदखल कर गुण्डाराज पर लगाम लगाई वहीं दूसरी तरफ आर्थिक राजनैतिक सामाजिक व सांस्कृतिक तौर पर बहुजन समाज के सबसे कमजोर दलित-वंचित-पीडित समाज को ओबीसी का पिछलग्गू बनने से रोकने के लिए ब्रहम्णी बीजेपी से सिर्फ राजनैतिक (ना कि सैद्धांतिक) समझौता करके दलित समाज को सत्तासीन कर दिया! सदियों से हिंदुओं द्वारा सतायें, सवर्णों द्वारा दबाये, मुस्लिमो-सिखों आदि द्वारा उपेक्षित दलित समाज की बेटी को भारत की सर्वाधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश की सरजमीं का हुक्मरान बनाकर भारत के राजनैतिक समीकरणों को छिन्न-भिन्न कर भारतीय राजनीति के नये समीकरण व मापदण्ड गढें!

हमारा स्पष्ट मानना है कि कोई किसी समाज को कब तक राजसत्ता के लिए प्रेरित कर सकता है? मान्यवर साहेब समाज की सामर्थ्य से बखूबी वाकिफ थे! वे अच्छी तरह से जानते थे कि बहुजन समाज, विशेष कर दलित-वंचित समाज, एक भूखा शेर है जो गरीबी की मार झेल रहा है, ब्रह्मणी समाज द्वारा बहिष्कार सहता चला आ रहा है, जिसने आज तक गाली, जलालत, अपमान, गरीबी की ही कसैला, कडुआ स्वाद चखा है लेकिन यदि इस दलित-वंचित समाज के मुख एक बार सत्ता का खून लग जायेगा तो ये समाज खुद सत्ता का शिकार करने को लालाइत हो जायेगा! मान्यवर साहेब ने बामसेफ, डीएस-4, बहुजन टाइम्स, चमचा युग और अम्बेडकरी विचारधारा को हर दलित-बहुजन तक पहुँचाकर सत्ता के शिकार का हुनर इस समाज को सिखा दिया है! इसी हुनर की बदौलत भारत में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका बहुजन मल्लिका बहन कुमारी मायावती जी अपने जोर-ए-बाजुओं की बदौलत भारत की सर्वाधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश की सरजमीं पर चार-चार बार हुकूमत कर चुकी है! बहन कुमारी मायावती जी ने सिर्फ हुकूमत ही नहीं की बल्कि तमाम नेताओं को बता दिया कि हूकुमत कैसे की जाती है! बहन जी सभी आईएएस-आईपीएस-पीसीएस समेत सभी अधिकारियों को बता दिया कि आप जनता के मालिक नहीं, नौकर है! कानून की ताकत क्या होती है पहली बार जनता को समझ आया! गुण्डों में कानून का दहशत कायम हो गया! नतीजा ये हुआ कि बहन जी की हुकूमत के दौरान माफिया, गुण्डे, असामाजिक तत्व उत्तर प्रदेश छोड़ कर या तो नेपाल, भूटान आदि पड़ोसी देशों में चले गये या भारत के अन्य राज्यों में शरण ले लिए! कुल मिलाकर बहन जी की हुकूमत के दौरान या तो गुण्डे, माफिया खुद जेल की शरण में चले गये या फिर प्रदेश छोड़कर अन्डरग्राउंड हो गए!

बसपा की ही हुकूमत में पहली बार बहुजन महानायकों के नाम पर जिलो का नामकरण किया गया, विश्वविद्यालय खोले गए, डिग्री कालेज, इण्टर कालेज, हाईस्कूल आदि खोले गए, अस्पताल बनवाये गए, छात्रवृत्ति बांटे गए, किताब, स्कूल में दाखिला, भूमिहीनों को पट्टा दिया गया, महिलाओं को पेंशन आदि का आदर्श व्यवस्था की गई! अम्बेडकर ग्राम योजना के तहत ब्रह्मणी व्यवस्था के चलते सदियों से गंदगी में रहने वाले दलित-बहुजन समाज को पहली बार पक्की सड़क, स्कूल, शौचालय, व हरियाली युक्त ग्राम का सपना पूरा किया हुआ! लखनऊ नोएडा में बहुजन प्रेरणा स्मारक बनवाये गए, हाइवे, आदि बनवाये गए! बसपा के हुकूमत ने जहॉ एक तरफ सरकारी नौकरों को उनकी जिम्मेदारियों का एहसास करा दिया गया वहीं दूसरी तरफ उनकी समास्शयाओं का शीघ्रता से संग्यान लेकर समाधान किया, भ्रष्टाचार की नाक में नकेल डालकर अंकुश लगा दिया गया! चारों तरफ समाजिक न्याय पर आधारित संविधान सम्मत शासन कायम हो गया, दलितों, आदिवासियों, गरीबो, किसानों आदि पर पर विशेष ध्यान दिया गया!

पहली बार मूलभूत सुविधाओं से साक्षात्कार करने के बाद देश के दलित-बहुजन समाज को सत्ता की ताकत का एहसास गया! या यूं कहिए कि दलित-वंचित समाज रूपी भूखे शेर के मुख सत्ता रूपी शिकार का खून लग गया! दलित-बहुजन समाज की इसी बुद्ध-अम्बेडकरी चेतना का परिणाम है कि बसपा के लोकसभा में शून्य सीट होने के बावजूद भी देश का ओबीसी-एससी-एसटी समाज बहन जी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए जद्दोजहद कर रहा है!
बसपा-सपा गठबंधन 2019
आज के राजनैतिक गठबंधन की कहानी आज नहीं बल्कि तब लिखी गई थी जब पहली बार बहुजन महानायक मान्यवर काशीराम साहेब ने बहन कुमारी मायावती जी को मुख्यमंत्री बनाया था! उस समय लोग काशीराम साहेब की आलोचना कर रहे थे लेकिन मान्यवर साहेब भारत की सामाजिक व्यवस्था को बखूबी जानते थे! मान्यवर साहेब समाज के ताने-बाने से बखूबी वाकिफ थे! इसी दरमियान मुलायम सिंह यादव के दलित विरोधी चेहरों को भी देख लिया था!

राजनैतिक तौर पर पिछडा वर्ग भले ही आज एससी-एसटी को स्वीकार कर ले लेकिन सामाजिक तौर पर वंचित जगत के साथ इसका व्यवहार पेशवाई ही है! आज भी पिछडा वर्ग बहन जी को या किसी अन्य दलित-वंचित समाज के नेतृत्व को सहर्ष स्वीकार नही कर पा रहा है, या यूँ कहिए कि स्वीकार करते समय असहज महसूस करता है! ये असहजता ग्रामीण भारत में बड़ी ही सरलता व सहजता से देखि जा सकती है। राजनैतिक गठबंधन के बावजूद गाँवों में पिछड़ा वर्ग बहन जो सहजता से स्वीकार करने की स्थिति में है। और पिछड़े वर्ग की इस असहजता का कारण राजनैतिक नहीं बल्कि बहन जी की सामाजिक पृष्ठभूमि है, उनका दलित-वंचित-अछूत जगत से होना और पिछड़ों द्वारा खुद को सवर्ण समझना है।

मान्यवर साहब ये सब जानते थे कि यदि अवसर की मांग के अनुसार दलित-वंचित-अछूत जगत को सत्ताशीन नहीं किया तो नव ब्राह्मण रूपी पिछडा वर्ग दलित-वंचित समाज के हाथ में सत्ता नही जाने देगा! परिणामस्वरूप राजनैतिक-सामाजिक-आर्थिक रूप दलितों की तुलना में संपन्न ये पिछड़ा वर्ग भविष्य में दलित-वंचित जगत के लिए नव ब्राह्मण बनकर जायदा खतरनाक हो सकता है। ऐसे में जब तक दलित-वंचित समाज के मुख सत्ता का स्वाद नही लगेगा तब तक भारत के सामाजिक परिवर्तन की राह प्रशस्त नही होगी! हमारे विचार से, इसी के मद्देनजर मान्यवर साहेब ने समय की नजाकत व मांग के अनुसार ब्रह्मणी बीजेपी से राजनैतिक समझौता करके दलित-वंचित जमात को हुक्मरानों की कतार में खड़ा कर दिया!

इसी का नतीजा है कि आज नव ब्रह्मण रूपी पिछडां वर्ग बहुजन आन्दोलन के मायने, जरूरत और अपने व देश के हित को समझ रहा है! मंद वेग ही सही लेकिन आज पिछड़ा वर्ग बहुजन समाज को समझ रहा है, मुद्दों को जान रहा है और बहुजन एकता की तरफ उन्मुख होकर दलित-वंचित-आदिवासी समाज के साथ कंधें से कन्धा मिलाकर ब्राह्मणवादी विचारधारा को रौदते हुए फुले-अम्बेडकरी कारवां को एक-एक कदम करके आगे बढ़ता जा रहा है।

यदि राजनैतिक इतिहास पर गौर करें तो हम पते है कि बहुजन महानायक मान्यवर काशीराम साहेब ने बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर द्वारा बनाए गये रास्ते पर चलकर पिछडों को उनका वाजिब हक दिलाने की जंग छेड़ दी! इस जंग के परिणामस्वरुप ही मण्डल कमीशन पर आधारित पिछडों को आरक्षण दिलाकर बहुजन क्रांति को पंख दे दिया! इसके परिणामस्वरूप विश्वविद्यालयों व ब्यूरोक्रेसी की संरचना में अमूल-चूल परिवर्तन हुआ! पिछडें वर्ग की विश्वविद्यालयों में दस्तक पिछडों को अपने सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक हक के प्रति जागरूक कर दिया! ब्रहम्णों-सवर्णों द्वारा आरक्षण विरोधी प्रदर्शन का बहिष्कार कर पिछड़े वर्ग ने बहुजन आन्दोलन में अपनी जागरूक दस्तक को प्रमाणित कर दिया है! इसी का परिणाम है कि आज पिछड़े वर्ग के आम जन भी ब्रहम्णवाद व इसकी व्यवस्था का मुखर रूप से विरोध करना शुरू कर दिया है, आज पिछडा वर्ग भी बहुजन आन्दोलन को सीचने वाले दलित-वंचित समाज से जुड रहा है, बहुजन कारवॉ को सशक्त कर रहा है!

जमीनी स्तर पर बहुजन समाज की यही बहुजन चेतना ही है जिसके चलते आज पूरे देश का बहुजन समाज एक स्वर में भारत में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका बहुजन मल्लिका बहन कुमारी मायावती जी को देश का प्रधानमंत्री बनाने के लिए संघर्ष कर रहा है!

हमें सत्ता से ज्यादा खुशी इस बात की है कि सकल बहुजन समाज (ओबीसी-एससी-एसटी व कन्वर्टेड मायनॉरिटीज) में एक होने की भावना पैदा हो चुकी है जो कि इनमें सामाजिक-सांस्कृतिक एकता को जन्म दे रही है, ये कंधे से कंधा मिलाकर संघर्ष करने को तैयार है!

इसमें कोई संदेह नहीं है कि बसपा-सपा का ये राजनैतिक गठबंधन आज है, कल टूट जायेगा! लेकिन इस गठबंधन से बहुजन समाज में जो एकता बनी है, जो सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक-सांस्कृतिक समीकरण बने है उनका बहुजन आन्दोलन पर बहुत ही दूरगामी परिणाम होगा! हमारा मानना है कि राजनैतिक समीकरण कुछ मुद्दों पर बनते व बिगडते रहते है लेकिन बसपा-सपा गठबंधन - 2019 का बहुजन समाज के समाजिक व सांस्कृतिक एकीकरण पर बहुत सकारात्मक व गहरा प्रभाव होगा, जो कि तात्कालिक सत्ता से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण है!
रजनीकान्त इन्द्रा, इतिहास छात्र, इग्नू नई दिल्ली


Tuesday, February 19, 2019

देवदासी प्रथा: धर्म की आड़ में अधर्म

हिन्दू धर्म में धर्म और आस्था के नाम पर हज़ारों वर्षों से लोगों का तरह-तरह से शोषण होता रहा है। इस धर्म में ऐसी अनेक प्रथायें अस्तित्व में रही हैं और आज भी कायम हैं जो न सिर्फ बर्बर, अपमानजनक और शोषणकारी बल्कि अमानवीय भी हैं। ऐसी ही एक बेहद घृणित और अमानवीय प्रथा को हम देवदासी प्रथा के नाम से जानते हैं।

देवदासी प्रथा हिन्दू धर्म की अत्यंत प्राचीन और सबसे घिनौनी प्रथा है। आज भी यह समस्या खासकर दक्षिण के राज्यों में बनी हुई है। धर्म और आस्था के नाम पर महिलाओं का शोषण हो रहा हैं। जिन छोटी छोटी मासूम बच्चियों के खेलने और पढ़ने के दिन होते हैं उन बच्चियों को देवदासी बनाकर धर्म और आस्था के नाम पर दान कर देते हैं। और फिर उनका पूरा जीवन धर्म, आस्था और शारीरिक शोषण के बीच जूझता रहता है। भारत में देवदासी प्रथा के चलते आज भी धर्म के नाम पर मंदिरों में महिलाओं का दैहिक शोषण हो रहा है। यहाँ एक बात विशेष रूप से ध्यान देने योग्य है कि इस प्रथा में सवर्ण महिलाएँ नहीं हैं बल्कि सिर्फ अनुसूचित जाति, आदिवासी और ओबीसी जाति की महिलाएँ होती हैं।

असल में यह भी मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणों की कुटिल चाल है जिसके अंतर्गत वे बहुजन मूलनिवासी समाज की महिलाओं को गुलाम बनाने के लिए धर्म का सहारा लेते हैं। देवदासी प्रथा के तहत छोटी-छोटी मासूम बच्चियों को सजाया जाता है और उनका विवाह काल्पनिक भगवान की मूर्ति से कराया जाता है। विवाह संपन्न हो जाने के बाद इन बच्चियों के कपड़ों को लड़के उतारकर उन्हें निर्वस्त्र करते हैं जिसके बाद मंदिर का पुजारी या महंत उस बच्ची से शारीरिक संबंध बनाता है। ये सभी लड़कियां जो देवदासी होती हैं वो सब उस उम्र तक मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मण लोगों की हवस का शिकार बनती हैं जब तक कि उनका शरीर ढल नहीं जाता। तीस पार होने तक इनको देह व्यापार में धकेल दिया जाता है और इस तरह यह देवदासियां मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणों की आय का जरिया बनती हैं।

भारत में अभी भी ऐसे तमाम स्थान हैं जहाँ देवदासी प्रथा आज तक अस्तित्व में है। केरल, आन्ध्रप्रदेश, तेलंगाना, महाराष्ट्र, कर्नाटक के कोल्हापुर, शोलापुर, सांगली,उस्मानाबाद, बेलगाम, बीजापुर, गुलबर्ग एवं झारखंड, तमिलनाडु, ओडिशा, उड़ीसा आदि में आज भी हम इस घृणित प्रथा का अमानवीय रूप देख सकते हैं। देवदासी प्रथा के पुरे फलसफे को समझने की कोशिश करें तो यह बात शीशे की तरह साफ़ हो जाती है कि यह धर्म के नाम पर सनातनी मनुवादी ब्राह्मणों द्वारा चलाया जा रहा महिलाओं के दैहिक शोषण का धंधा है जिसका शिकार बहुजन मूलनिवासी समाज की महिलाएँ होती हैं।


यह हैरान करने वाली स्थिति है कि आज जबकि पूरा देश मंदिर में महिलाओं के प्रवेश की बात या मीटू अभियान की चर्चा कर रहा है किसी को भी हिन्दू धर्म की इस घृणित प्रथा के नाम पर यौन दासी बना दी गयी बेबस महिलाओं की चीख सुनाई नहीं सुन दे रही है। कहने को संविधान, कानून, अदालतें, मीडिया सभी हैं लेकिन इन देवदासियों को न्याय मिलना तो दूर इनकी व्यथा तक लोगों के सामने नहीं आती है। इसकी सबसे बड़ी वजह सत्ता में बैठे लोगों और शोषण में लिप्त लोगों के बीच का सम्बन्ध है जो समान सामाजिक वर्ग से आने के साथ साथ वैचारिक रूप से भी ब्राह्मणवादी व्यवस्था के समर्थक और पोषक हैं। यह स्थिति तब तक नहीं बदल सकती जब तक बहुजन समाज इस शोषणकारी व्यवस्था के मूल अर्थात हिन्दू धर्म की जड़ मान्यताओं पर प्रहार करने के लिए कृतसंकल्प नहीं होता। इसके लिए उसे बुद्ध और आंबेडकर की वैचारिकी को अपनाना होगा जो न सिर्फ समता, स्वतंत्रता व बंधुत्व के सिद्धांतों पर आधारित है अपितु न्यायपूर्ण समाज के निर्माण का सबसे महत्वपूर्ण और प्रभावी दर्शन भी है।
दीपशिखा इन्द्रा, बी.टेक, एम.एस.डव्लू  
(Published on Bahishkrit Bharat web portal on Feb. 19, 2019)