Monday, December 14, 2020

बहुजन आंदोलन के लक्ष्य व ऐजेण्डें से पुनः भटकता बहुजन समाज

2014 में हुए सत्ता परिवर्तन से लगभग 3 साल पहले 5 अप्रैल 2011 को भ्रष्टाचार के नाम पर एक आंदोलन शुरू किया गया था जिसका लक्ष्य भ्रष्टाचार को कम करना या खत्म करना नहीं बल्कि बहुजन विरोधी व गैर-बराबरी पसन्द मनुवादी समाज की "ए" टीम मतलब कि कांग्रेस को कुछ वर्षों तक के लिए सत्ता से हटाकर बहुजन विरोधी व गैर-बराबरी पसन्द मनुवादी समाज की ही "बी टीम" भाजपा को सत्ता में लाना था।

ठीक इसी तरह से 2024 में होने वाले सत्ता परिवर्तन से लगभग 3 साल पहले किसान आंदोलन के रूप में बहुजन विरोधी व गैर-बराबरी पसन्द मनुवादी समाज की "ए" टीम मतलब कि कांग्रेस को पुनः सत्तारूढ़ करने तथा इनकी "बी" टीम मतलब कि बीजेपी को मुख्य विपक्ष के रूप पुनः स्थापित करने का जाल बुना जा चुका है।

बहुजन समाज के लोगों ने भ्रष्टाचार विरोधी अनशन के दौरान बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। उन्हें उम्मीद थी कि इससे उनको और देश को फायदा होगा। लेकिन, भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन का लक्ष्य और इस को क्रियान्वित करने की रणनीति भ्रष्टाचार को कम करने या खत्म करने के लिए बिल्कुल नहीं थी।

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में बहुजन समाज के लोगों ने बढ़-चढ़कर कर हिस्सा लिया था लेकिन इस आंदोलन से फायदा किसको हुआ?

बहुजन समाज को याद होना चाहिए कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को हथियार बनाकर एक बनिया दिल्ली में मुख्यमंत्री बन गया, एक मनुवादी पुलिस अधिकारी रही महिला गवर्नर बन गई, तमाम बहुजन विरोधी समाज के लोग सांसद व विधायक बन गए, और केंद्र में कांग्रेस की बी टीम ने पूरी तरह से कब्जा कर लिया।

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन में बहुजन समाज के लोगों ने अपनी सक्रिय भागीदारी निभाई परंतु इससे उनको सिर्फ और सिर्फ नुकसान ही हुआ है।

इस भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के परिणामस्वरूप जहां केंद्र, राज्य व निकाय तक में पक्ष-विपक्ष दोनों पर मनुवादी ताकतों का कब्जा हो गया वहीं दूसरी तरफ बहुजन समाज केंद्र, राज्य व निकाय तक से बेदखल हो गया।

2011 में शुरू हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन व इससे जुड़े लोगों का उद्देश्य सिर्फ और सिर्फ केंद्र व राज्य सहित निकाय स्तर तक, हर जगह से बहुजनवादी विचारधारा वाले लोगों को पूरी तरह से हटाकर भारतीय सामाजिक व्यवस्था में विशेषाधिकार प्राप्त जातियों के वर्ग व इनकी गैर-बराबरी वाली मनुवादी विचारधारा के लोगों को पक्ष और विपक्ष के रूप में स्थापित करना था।

इसमें वे सफल भी हुए जिसका परिणाम यह हुआ कि भारतीय समाजिक व्यवस्था के उच्च पायदान पर बैठा बहुजन विरोधी समाज समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व के पोषक बुद्ध-अम्बेडकरी विचारधारा वाले लोगों को शासन-प्रशासन के हर संभव स्तर से हटाकर सत्ता व विपक्ष दोनों पर पूर्णरूप से काबिज हो गया।

इस प्रकार से भारत के केंद्र, राज्य व निकाय स्तर की सरकारों में सिर्फ और सिर्फ बहुजन विरोधी ताकते सत्ता व विपक्ष बनकर राज कर रही हैं।

संक्षेप में कहें तो भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान बहुजन समाज को सिर्फ और सिर्फ नुकसान हुआ है। बहुजन समाज, बहुजन समाज के मुद्दों व बहुजन आंदोलन के उद्देश्यों से भटक कर बहुजन विरोधी ताकतों द्वारा षडयंत्रात्मक प्रायोजित भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के झलावे में आकर गुमराह हो गया। अंततः नतीजा यह हुआ कि केंद्र, राज्य एवं निकाय समेत, हर जगह बहुजन समाज ना तो सत्ता में रहा और ना ही विपक्ष में।

2014 के बाद भारत में फासीवादी सरकार के रवैए को जब आम बहुजन समाज पहचानने लगा तो बहुजन समाज के लोगों में एक गोलबंदी दिखाई देने लगी लेकिन तानाशाही ताकते बहुजन समाज के इस गोलबंदी को समझ गए।

इसलिए बहुजन विरोधी हिटलरशाही ताकतों ने बहुजन समाज को कश्मीर संबंधित अनुच्छेद 370, सी ए ए, एनआरसी, कोरोना महामारी, नोटबंदी, जीएसटी, पुलवामा अटैक, चीन व कश्मीर के मुद्दे आदि को हथियार बनाकर के बहुजन समाज को बहुजन आंदोलन के उद्देश्यों से पुनः गुमराह कर दिया।

बहुजन समाज के नेतृत्व को बदनाम करना शुरू कर दिया जिसमें मनुवादी ताकतों को गुमराह बहुजनों ने भरपूर समर्थन दिया। परिणाम यह हुआ कि 2014 के बाद फिर 2019 में बहुजन समाज विरोधी गैर-बराबरी पसंद मनुवादी ताकते दोबारा सत्तारूढ़ हो गई।

परंतु मनुवादी ताकते अच्छी तरह से जानती है कि यदि लगातार उनकी कोई एक टीम ही सत्तारूढ़ रहती है तो बहुजन समाज विद्रोह कर देगा। इसलिए एक निश्चित समय अंतराल पर सत्ता परिवर्तन करना जरूरी है।

अतः भाजपा ने स्वत: अपने आप को सत्ता से दूर करने के लिए किसान संबंधित बिल को लाया। कांग्रेस इस बिल के सहारे पूरे देश में अपने पक्ष में एक गोलबंदी शुरू कर माहौल बनाना शुरू कर दिया है।

फिलहाल ध्यान देने योग्य बात यह है कि यदि यह बिल लोगों ने स्वीकार कर लिया होता तो भी सरकार को फायदा होता क्योंकि इसस मनुवादी सरकार अपनी पूंजीवादी नीतियों को धरातल पर उतारने में सफल हो जाती। और यदि लोग इसे अस्वीकार कर देते, जैसा कि फिलहाल किसान आंदोलन के रूप में देखने को मिल रहा हैं, तो इससे भाजपा इस बिल के सहारे स्वत: अपने आप को सत्ता से दूर कर लेती और खुद मजबूत विपक्ष के रूप में स्थापित होकर सत्ता अपने मनुवादी समाज की ए टीम मतलब कि "कांग्रेस" को सौंप देती।

लोगों ने किसान बिल को अस्वीकार कर दिया, और इसका परिणाम यह होगा कि भाजपा मजबूत विपक्ष में और कांग्रेश सत्ता में स्थापित हो जायेगी। मतलब कि "चित हो या पट" सत्ता व विपक्ष में बहुजन विरोधी ताकतों का ही कब्ज़ा होगा। 

कांग्रेस व भाजपा एक ही हैं इसके एक नहीं बहुत सारे उदहारण मौजूद हैं। जैसे कि निकाय चुनावों में राजस्थान के डूंगरपुर जिले में भारतीय ट्राइबल पार्टी को सत्तारूढ़ होने से रोकने के लिए कांग्रेस और भाजपा ने हाथ मिला लिया (दैनिक भास्कर, 10. 12. 2020)। नतीजा, आदिवासियों का संगठन निकाय की सत्ता से बाहर हो गया। इसके पहले मिजोरम में चकमा स्वायत्त जिला परिषद के लिए हुए चुनाव में भी मिजो नैशनल फ़्रंट को सत्ता से बाहर करने के लिए साँपनाथ व नागनाथ (कांग्रेस व भाजपा) ने हाथ मिला लिया (पत्रिका एवं जनसत्ता, 26. 04. 2018)। 

फिलहाल, भारत का दलित-शोषित, आदिवासी, पिछड़ा व अल्पसंख्यक समाज पुनः वही गलती दोहरा रहा है जो इसने 2011 में हुए भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन के दौरान की थी।

बहुजन समाज के लोगों को सोचने की जरूरत है कि देश के लगभग 90% जमीन पर सिर्फ 10% उच्च जातियों का ही कब्जा है। इस प्रकार से खेती योग्य भूमि पर भी सिर्फ और सिर्फ उच्च जातियों का ही कब्जा है। मतलब की उच्च जातियों के खेतों में काम करने वाले देश के 90% आबादी वाले बहुजन समाज के लोग हैं।

ऐसे में यदि किसान बिल रद्द हो जाता है तो भी क्या इससे सवर्ण समाज के खेतों में काम करने वाले भूमिहीन खेतिहर मजदूरों (बहुजन समाज) के जीवन में कोई बदलाव आएगा? भूमिहीन खेतिहर मजदूरों को खेती करने के लिए जमीन उपलब्ध हो जाएगी?

बहुजन समाज के लोग आज जिन जमींदारों के लिए पुलिस की मार खा रहे हैं, क्या उन जमींदारों ने कभी भी देश में आर्थिक व सामाजिक लोकतंत्र स्थापित करने के लिए आवाज उठाई है?

बहुजन समाज के लोग मनुवादी लोगों की एक आवाज पर भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन (2011) व किसान आंदोलन (2020) के लिए अपनी जान की बाजी लगा दी, क्या इन मनुवादी लोगों ने कभी भी देश में बहुजन समाज पर हो रहे अत्याचार के खिलाफ कभी कोई अनशन किया है?

बहुजन समाज के लोगों को सोचना चाहिए कि वे जिन जमींदारों के लिए सड़कों पर आंदोलन कर रहे हैं, उन जमींदारों व उनकी जाति व वर्ग ने ही 2 अप्रैल 2018 के बहुजन भारत बंद को असफल करने का प्रयास क्यों किया था?

बहुजन समाज के लोग आज बहुजन आंदोलन वह बाबा साहब के नाम पर चाहे जितना शोर मचा ले लेकिन हकीकत यह है कि बहुजन समाज की अधिकांश आबादी बहुजन आंदोलन के लक्ष्यों व बाबा साहब के मिशन से भटक चुका है।

बहुजन समाज अपने मुद्दों तक को नहीं पहचान पा रहा है जिसका नतीजा यह हुआ कि वह एक ही गलती बार-बार करता आ रहा है कि वह बहुजन विरोधी मनुवादी ताकतों के बहकावे में आकर खुद को गर्त में धकेल बहुजन आंदोलन को एक मात्र राष्ट्रीय नेता आदरणीया बहन जी को जिम्मेदार ठहरा रहा है जबकि दशकों से आदरणीया बहन जी बहुजन समाज को सांपनाथ (कांग्रेस), नागनाथ (भाजपा) हरे सांप (क्षेत्रीय मनुवादी दल), अजगर (कम्यूनिस्ट) व आस्तीन के सांपों (बहुजन समाज में जन्में चमचें वह उनके दल एवं सगंठन) से सचेत करती आ रही है।

भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन व किसान आंदोलन के संदर्भ में बसपा के समर्थन को कुछ चमचे मुद्दा जरूर बना सकते हैं। ऐसे में उन चमचों को स्पष्ट होना चाहिए कि बहुजन समाज जिन मुद्दों की तरफ ज्यादा आकर्षित होता है यदि उन मुद्दों को बसपा छोड़ देती है तो इससे नुकसान बसपा का नहीं बल्कि बहुजन समाज का होगा। और, बहुजन समाज को रेस में बनाए रखना, तथा उसको सत्ता में स्थापित कर बहुजन आंदोलन को क़दम दर कदम लगातार आगे बढ़ाना बहुजन समाज पार्टी का काम है। इसलिए सारी बातों को जानते-समझते हुए भी बहुजन समाज पार्टी बहुजन समाज के लोगों के रुख को देखते हुए कुछ ऐसे क्रमचय-संचय कर रही है।

फिलहाल, बहुजन समाज के लोगों का असली मुद्दा शासन-प्रशासन के हर स्तर के हर पायदान पर बहुजन समाज का समुचित स्व-प्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी एवं धन-धरती का समुचित बंटवारा हैं।

बहुजन समाज के लिए बहुजन आंदोलन ही महत्वपूर्ण है। बहुजन आंदोलन भारत के समग्र व सर्वांगीण विकास एवं हर नागरिक के मान-सम्मान और स्वाभिमान के साथ-साथ उन हक़ के रक्षा-सुरक्षा की गारंटी देता है। बहुजन आंदोलन को आगे बढ़ाने का एक सशक्त माध्यम राजनैतिक सत्ता है।

इसलिए बहुजन समाज के हर सदस्य का यह नैतिक दायित्व है कि वह बहुजन समाज की अस्मिता बहुजन समाज पार्टी को केंद्र, राज्यों व निकाय तक पर बखूबी स्थापित करते हुए बुद्ध-अंबेडकरी विचारधारा पर आधारित समतामूलक समाज के सृजन के लिए आगे बढ़े। इसी में भारत व समस्त भारतीयों का सुंदर व स्वस्थ भविष्य निहित है।

रजनीकान्त इन्द्रा

इतिहास छात्र, इग्नू-नई दिल्ली 

Saturday, December 5, 2020

दलितों, अपना नायक पहचानना सीखों

कुछ दलितों की निग़ाह में वी पी सिंह भी दलितों के मसीहा हैं। इनकों लगता हैं वी पी सिंह ने ख़ुशी-ख़ुशी बाबा साहेब को भारतरत्न से नवाज़ा था। ऐसे बहुजनों को सोचना चाहिए कि क्या वी पी सिंह के ह्रदय में बाबा साहेब के विचार थे, या वे बाबा साहेब को बहुत मानते थे जो इन्होने बाबा साहेब को भारतरत्न से नवाज दिया? अनुसूचित जातियों का ये अंधापन ही इनकों लेकर डूब रहा हैं।

सोचो, यदि वी पी सिंह इतने ही अम्बेडकरवादी थे तो वी पी सिंह का नाम मान्यवर काशीराम साहेब के साथ लिया जाना चाहिए लेकिन ऐसा नहीं हैं, क्यों? सोचों यदि वी पी सिंह इतने ही अम्बेडकरवादी हैं तो बहन जी ने इनकी भी मूर्ती क्यों नहीं लगवाई जबकि बहुजन आंदोलन में सहयोग देने वाले हर नायक-महानायक, नायिका-महानायिका को बहन जी ने जन-जन के जहन में स्थापित कर दिया हैं?

हमारे विचार से ये दलितों की मूर्खता हैं कि ये हर "जय भीम" कहने वाले एवं बाबा साहेब को माला फूल चढाने वाले को अम्बेडकरवादी समझ लेते हैं। यदि अम्बेडकरवादी होने का यही पैमाना हैं तो श्री नरेंद्र मोदी जी सबसे बड़े अम्बेडकरवादी होने चाहिए, लेकिन ऐसा नहीं हैं। फिलहाल, दलितों का ये अंधापन ही दलितों को उनके अपने मिशन से उनकों भटका रहा हैं।