Sunday, March 29, 2020

कोरोना महामारी में विश्वास को चुकी सरकार और बदतर जीवन जीने को मजबूर जनता

कोरोना महामारी में विश्वास को चुकी सरकार और बदतर जीवन जीने को मजबूर जनता
दुनिया कोरोना कोविद-१९ वॉयरस की महामारी से गुजर रहीं हैं। भारत में भी ये अमीरों द्वारा आयातित बीमरी गरीबों को मौत के मुँह में लेकर खड़ा कर दिया हैं। विदेशों में पढ़ रहे अमीर घरों के छात्रों को सरकार हवाई जहाज से देश में वापस ला रहीं हैं लेकिन देश के विभिन्न शहरों में पढ़ रहें गरीब छात्रों पर सरकार लाठियां भाँज रहीं हैं। 

जिस तरह से लोग १९४७ में सिर पर बोझा लादे पाकिस्तानियों के खौफ में परिवार समेत छुपाते-छुपाते अपने लिए सुरक्षित जगह ढूढ़ रहें थे, ठीक उसी तरह से आज २०२० में भारतीय जनता अपने ही देश में अपने ही पुलिस कर्मियों और सरकार के खौफ में छुपते-छुपाते नंगे पैर बिना भोजन-पानी खेतों, जंगलों आदि से होकर अपने घर की तरफ जाने को मजबूर हो चुके हैं। 

जिस तरह से बच्चे १९४७ के दौरान भूख से बिलखते हुए खौफ में पैदल चलते जा रहे थे ठीक उसी तरह से आज २०२० में भी बच्चे भूख से बिलख रहें हैं। बच्चे का वीडियों वायरल हो रहा हैं। बच्चे बता रहें हैं कि किस तरह से उनकों चार-चार से अन्न का एक दाना तक नहीं मिला। उनके परिवार वाले जब राशन के लिए निकलते हैं तो किस तरह बेरहमी से पुलिस वाले पीटते हैं। किस तरह से लोग अपने ही देश के बड़े-बड़े शहरों में या तो पूरी तरह से कैद हो चुके हैं या फिर छुपाते-छुपाते अपने जान की खैर मानते हुए एक एक कदम अपने घर की खौफ में बढ़ा रहें हैं।

कोरोना की इस महामारी में लॉक्ड डाउन करना गलत नहीं हैं लेकिन इस कार्य को पूरी तैयारी के साथ करना चाहिए था। अब कोई ये दलील दे कि सरकार को समय नहीं मिला तो ऐसे भक्तों (मानसिक रोगियों) को समझाना होगा कि कोरोना जैसी महामारी से देश व विदेश के विशेषज्ञ शुरू से ही सरकार को चेतावनी  थे। देश के बड़ी विपक्षी राजनैतिक पार्टियाँ भी लगातार सरकार को आगाह कर रहीं थी। ऐसे में यदि सरकार यदि समय रहते तैयारी करती तो इस महामारी को हराना भारत के लिए बहुत आसान था। यदि सरकार एअरपोर्ट पर सख्ती बरतती तो कोरोना को काफी हद तक नियंत्रित किया जा सकता हैं। दैनिक भास्कर (२८.०३.२०२० पटना) लिखता हैं की १८ जनवरी से २३ मार्च तक "विदेश से आए १५ लाख लोगों पर नजर नहीं रखी, इससे खतरा बढ़ा।" एम्स के पूर्व निदेशक डॉ एमसी मिश्रा कहते हैं कि "सिस्टम की घोर लापरवाही की कीमत चुकानी पड़ेगी। भारत में फ़ास्ट डायग्नोस्टिक किट नहीं हैं। इससे ३० मिनट में रिपोर्ट मिल जाएगी। उसके बाद संक्रमितों का इलाज किया जा सकता हैं। वॉयरस फ़ैल चुका हैं। ऐसे में जाँच बेहद जरूरी हैं"। 

यदि सरकार विधायकों की खरीद-फरोख्त और मन्दिर-निर्माण आदि कार्यों से फुरसत निकलती तो देश को अमीरों द्वारा भारत में आयातित कोरोना जैसी महामारी से देश की गरीब लाचार दिहाड़ी मजदूरी करने वाली जनता को बचाया जा सकता था। लेकिन दुखद हैं कि सरकार ने अपनी पूँजीवादी मानसिकता को जमीन पर उतारने के चक्कर में पूरे देश को कोरोना जैसी महामारी के मुँह में झोक दिया। 

सत्तारूढ़ भाजपा के संघी राकेश सिन्हा ने संविधान की प्रश्तावना से "समाजवाद" शब्द हटाने के लिए मूव किये गए मोशन से यह समझा जा सकता हैं कि सकरार किस कदर अपने उद्योग घरानों की फरमाइस को पूरी करने के लिए कटिबद्ध हैं। यदि इनकों जनता की परवाह होती तो ये समाजवाद शब्द को हटाने की बात ना करते। यदि इनको देश की और देश की गरीब लाचार और भुखमरी में जी रहीं जनता की परवाह होती तो ये सरकारी उपक्रमों का निजीकरण करने के बजाय निजीक्षेत्र में देश के दलित-वंचित-पिछड़े समाज के समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी के संवैधानिक व लोकतान्त्रिक अधिकार को लागू करते। 

यदि इस सरकार को देश, जनता, संविधान, लोकतांत्रिक व संवैधानिक मूल्यों की परवाह होती तो ये सरकार निजीकरण करने के बजाय शिक्षा और स्वस्थ जैसी मूलभूत क्षेत्रों का राष्ट्रीकरण करती। लेकिन इस साकार ने ऐसा कुछ भी नहीं किया। क्यों, क्योकि ये सरकार चंद पूँजीपतियों और मुट्ठीभर ब्राह्मणो-सवर्णों के लिए कार्य कर रहीं हैं। इसलिए देश की ८५% से अधिक जनता की कोई परवाह नहीं हैं। इस लॉक्ड डाउन में यदि कोई मौत के मुँह में खड़ा हैं तो वह ब्राह्मण-सवर्ण नहीं हैं, बल्कि देश का दलित-आदिवासी-पिछड़ा वर्ग हैं। इसलिए सरकार सिर्फ अपने मन की बात करती हैं, उसको देश के ८५% से अधिक आबादी वाले बहुजन समाज के मन की पीड़ा सुननी ही नहीं हैं। 

आज राकेश सिन्हा जैसे संघी संविधान से समाजवाद जैसे शब्द हटाने के लिए पुरजोर पैरवी कर रहे हैं। ये देश में कैपिटलिज़्म नहीं, बल्कि क्रोनी कैपिटलिज़्म लाना चाहते हैं। ऐसे में क्या संघी राकेश सिन्हा या फिर सरकार ये जबाब देगी कि देश की दौलत से निर्मित सरकारी मेडिकल कालेजों से पढ़कर बड़े-बड़े निजी अस्पताल खोलकर देश की ग़रीब जनता को लूटने वाले निजी अस्पतालों के डाक्टर अपनी क्लिनिक बंद कर फरार क्यों हो हैं? जब देश हेल्थ एमरजेंसी से गुजर रहा हैं तो ये लोग देश के साथ क्यों नहीं खड़े हैं? निजीकरण की पैरवी और राष्ट्रीकरण की मुखालफत करने वाले क्या इस बात पर प्रकाश डालेगें कि जब देश आपातकाल से गुजर रहा हैं तो कोरोना की जाँच के लिए रूपये ५००० या फिर इससे अधिक क्यों उसूला जा रहा हैं? 

क्या देशभक्ति का प्रमाण मांगने वाले इस बात पर गौर करेगें कि इस आपातकाल में रूपये १५-२० तक के मास्क को रूपये १५० में बेचने वाले किस जाति के लोग हैं? क्या आरक्षण का विरोध करने वाले लोग ये बताने का प्रयास करेगें कि आज इस महामारी में साफ़-सफाई का जिम्मा थामे लोगों के आरक्षण का विरोध क्यों जाता हैं। क्या ये बताने की जहमत उठायेगें कि सदियों से स्वच्छता का मिशन चलाकर भारत की माठी को स्वच्छ बनाने वाले दलितों को ठेके पर क्यों रखा गया हैं? 

क्या सफाई का सबसे महत्वपूर्ण कार्य वाले दलित समाज को सकरारी नौकरी नहीं मिलनी चाहिए? क्या देश में अमीरों द्वारा फैलाये गए कचरे को सुबह-सुबह उठकर साफ़ करने दलित समाज को मुफ्त स्वस्थ सेवा, जीवनबीमा और उनके काम के खतरे को मद्देनजर उनकों न्यायोचित वेतन नहीं मिलना चाहिए? फिलहाल, इसका जबाब संवैधानिक व लोकतांत्रिक मूल्यों को समझने और मानवीयता से ओत-प्रोत हुकूमत व लोग ही दे सकते हैं, जातिवाद के पोषक और देश की ८५% जनता के शोषक कतई नहीं।  

जनता के पैसे से उद्योग घरानों का घाटा तो पूरा कर दिया जाता हैं लेकिन क्या कभी उद्योग घरानों के मुनाफे से देश हित में कोई कार्य किया जाता हैं। यदि घाटे के दौरान जनता के पैसे से उनकी मदद की जा सकती हैं तो देश व जनता के हिट में, खासकर कोरोना जैसी महामारी के दौर में, इन उद्योग घरानों से वसूली क्यों नहीं की जा रहीं हैं। फ़िलहाल, क्रोनी कैपिटलिज़्म के पैरोकारों से जनहित की बात सोचना भी गुनाह हैं। 

कोरोना के चलते बुद्धिहीन तरीके से लॉक्ड डाउन के कारण बनारस के कोइरीपुर में दलित (मुसहर) घास खाने को मजबूर हैं। पत्नी के पैर में फ्रैक्चर के चलते पति अपनी पत्नी को कंधे पर उठाकर अहमदावाद से बनासकांठा के लिए २५७ किमी दूरी तय करने को मजबूर। इटली के बुद्धिजीवी वर्ग भक्तों (मानसिक रोगियों) से आह्वान कर रहे हैं कि अपनी भक्ति को टेस्ट करने के लिए उत्तरी इटली जाओ (Test Your Faith ! Visit Northen ITALY). इंडियन एक्सप्रेस (२२ मार्च २०२०, दिल्ली) लिखता हैं कि As per the data collected in the wake of the coronavirus outbreak, states there is One doctor per 11600 Indians, and One hospital bed per 1826 Indians. One Isolation bed per 84000 people, One Quarantine bed per 3600 people, as per Govt data.

इधर गोबरबुद्धियों का सरकार को सलाह हैं कि भारत आ रहें विदेशियों को एयरपोर्ट पर गौमूत्र पिलाये (हिन्दू महासभा)। श्री महाकालेश्वर मंदिर स्थित श्री पंचायती महानिर्वाणी अखाड़ा के गढ़पति गोबरबुद्धि विनीत गिरी महाराज का दवा हैं कि नारद संहिता ने दस हजार पहले ही कोरोना वॉयरस की भविष्यवाणी कर चुकी हैं। जनता कर्फ्यू और हेल्थ एमरजेंसी के बावजूद भी गोबरबुद्धि नृत्यगोपाल दास ा[आने भक्तों (मानसिक रोगियों) से कहता है कि रामनवमी पर आए भक्त, कुछ नहीं बिगाड़ेगा कोरोना। इस गोबरबुद्धि को समझाने में पूरा प्रशासन परेशान हो गया। अयोध्या में धर्म के ठेकेदारों ने अपनी मंदबुद्धि का बेहतरीन इस्तेमाल करते हुए अयोध्या में विशेष पूजा के साथ राम मंदिर का काम शुरू किया। 

फिलहाल, जब देश, जनता, संविधान, लोकतंत्र के प्रति सरकार की मानसिकता ही दूषित हो जनता का सरकार पर अविश्वास लाज़मी हैं। ऐसे में माननीय नरेंद्र दामोदर मोदी का कहना हैं कि जनता ने जनता कर्फ्यू को गंभीरता ने नहीं लिया। उनकों सारी खामियां जनता में ही दिखाई पद रहीं हैं। लेकिन हमारे निर्णय में, जनता यदि कोरोना जैसी महामारी का गम्भीरता से नहीं ले रही है तो इसकी एक मात्र सरकार है। गौर करने वाली बात हैं कि -
१) जब मौजूदा सरकार महामारी के समय थाली पिटने को बोलेगी,
२) जब जिला प्रशासन (डीएम-एसपी, पीलीभीत) खुद थाली पीटते हुए
    जुलूस निकालेंगे,
३) जब सरकार के केंद्रीय मंत्री भीड़ इकट्ठा कर थाली पीटेंगे,
४) जब महामारी में सरकार सब कुछ ठप्प करके मंदिर बनवायेगी,
५) जब इसके मुख्यमंत्री मंदिरों में हवन करेंगे,
६) जब सरकार व इसके मंत्री (जबेडकर) ठोस कदम उठाने के बजाय
    दूरदर्शन पर रामायण देखते हुए रामायण का प्रचार करेंगे,
७) जब प्रशासन जनता को जागरूक करने व उनकी मदद करने के बजाय
     लाठी चार्ज करेगी,
८) जब बिना किसी योजना के आनन-फानन मेंपूरे देश में आपातकाल घोषित
     कर दिया जायेगा,
९) जब हेल्थ एमरजेंसी के बावजूद नवरात्र का जश्न मनाया जायेगा,
१०) जब कोरोना पर जागरूकता बढ़ाने के बजाय नवरात्र की बधाई दी
       जाएगी,
११) और, सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि २०१४ से लेकर आज तक      
       जुमलेबाजी, झूठ और फरेब के सिवा माननीय मोदी जी ने किया क्या है,
       जो जनता इन पर विश्वास करें, और इनकी बात माने। 
ऐसे में, मौजूदा सरकार, इसकी मंशा व इसके लोगों पर संदेह लाजमी है। फिर भी जिस तरह सरकार पर से जनता का भरोसा उठ गया है, उसके बावजूद भारतीय जनता का संकट की इस घड़ी में देश के लिए एकजुट होना जनता का देश के प्रति निष्ठा व समर्पण को दर्शाता है। ये बताता है कि ये देश के जिम्मेदार नागरिक हैं। इनकी नागरिकता और देश के प्रतिनिष्ठा पर सवाल उठाने वाला एक सच्चा देशद्रोही ही हो सकता हैं। 

यदि मीडिया की बात करें तो जनता भारत की गोदी मीडिया के गोबर-गौमूत्र थ्योरी से पहले से ही वाकिफ हैं। यहाँ पर पत्रकार पत्रकारिता करने नहीं चाटुकारिता करने के लिए आते हैं। इनकों भारत के लोगों से ज्यादा फ़िक्र पाकिस्तान की हो रहीं हैं कि पाकिस्तान सरकार क्या कर रहीं हैं। ये वो दलाल मीडया हैं जिसने अपने-अपने टेलीविजन चैनलों पर अमन के दौरान भी पाकिस्तान पर भारतीय हमले पर कार्यक्रम चलाती हैं। ये वो मीडिया हैं जो लगातार अपनी जातिवादी मानसिकता के तहत दलितों के हकों के खिलाफ जहर उगलती हैं लेकिन इस महामारी के दौरान अपनी जान हथेली पर लेकर देश सेवा में तत्पर दलितों के स्वस्थ, भुखमरी, शिक्षा, नौकरी आदि मुद्दे पर चुप्पी साध लेती हैं। दलितों और उनके आरक्षण के हकों का विरोध करने वाले ये गोदी दलाल क्या ये बताने का प्रयास करेगें कि कितने पूंजीपतियों ने अपनी लूट की कमाई देश को समर्पित की, कितने अस्पतालों और पैथोलॉजी वाली ने देश हित में कार्य कर रहे हैं, ये सभी निजी अस्पताल-पैथोलॉजी और कालाबाजरी करने वाले मेडिकल स्टोर और राशन आदि की दुकाने किस-किस जाति के लोगों की हैं।

जैसा कि स्थापित हैं कि जब-जब देश पर कोई विपत्ति आयी हैं देश का बहुजन समाज पूरे तन-मन-धन से देशहित में सबसे आगे रहीं हैं। जब देश का प्रधानमंत्री भी कोई रहत कोष की घोषणा नहीं कर पाया था उस समाज देश के पिछड़े समाज की एक मात्र उसकी अपनी बसपा पार्टी के सांसदों, विधायको, पार्सदों, ग्रामप्रधानों, अनुसूचित जाति के रेलवे अधिकारी-कर्मचारी संगठनों ने दिल खोलकर देश और जनता के हित में करोड़ों रुपये दिए। जब देश के उद्योग घराने, भक्त (मानसिक रोगी) और अपराधी जातियां, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समेत सभी केंद्रीय मंत्री, राज्य सरकार व इसके मंत्री, मुख्यमंत्री, संघी गैंग और भाजपा आदि के नेता ताली और थाली बजाकर महामारी का मजाक बना रहें थे तब पिछड़े समाज का नेतृत्व करने वाली एक मात्र राष्ट्रिय नेता बहन जी के सभी संसद, विधायक. पार्षद, प्रधान, पूर्व मंत्री, पूर्व संसद, पूर्व विधायक आदि देश हित में करोड़ों रुपये डोनेट कर रहे थे। जनता को वैचारिकी और मंशा से अपनी सरकार और राजनैतिक दल चुननी चाहिए। उम्मीद करते हैं के आगे से देश की जनता ऐसी गलती नहीं कभी करेगीं जो उसने आम लोकसभा चुनाव-२०१४ और २०१९ में कर चुकी हैं।    

फ़िलहाल, यदि भारत की जनता इस महामारी से निपटने के लिए एकजुट हुई हैं उसका योगदान बल्कि विदेशों की मीडिया को जाता हैं, क्योंकि ये मीडिया भारत की ब्राह्मण-सवर्ण जातिवादी मीडिया की तरह नहीं हैं। जनता को विदेशों से सोशल मीडया के जरिये आ रही ख़बरों ने जागरूक किया हैं। भारत की जनता तानशाह के कहने या फिर गोदी मिडिया पर भरोसा कर कोरोनावायरस से लड़नें को नहीं हुई तैयार हुई है, जनता सोशल मिडिया के जरिये जागरूक हुई हैं। भारत की गोदी मीडिया की हालत तो ये हैं कि गोदी मीडिया पर खुद भक्तों (मानसिक रोगी) तक को भरोसा नहीं है, आम जनता की क्या बात की जाए।

फ़िलहाल इन सबके बावजूद, एक जिम्मेदार नागरिक की हैसियत से हम देश की सरकार अपील करते हैं कि सरकार देश की जनता के लिए बाबा साहेब रचित संविधान निहित मूल्यों के तहत देश की ८५% दलित-आदिवासी-पिछड़ी जनता को मूलभूत सुविधाओं की पूर्ति करे। उनके मूलभूत मानवाधिकारों के मद्देनजर उनके साथ मानवीयता का व्यवहार करें। ये एक संवैधानिक लोकतांत्रिक देश है, तानाशाही से समस्या को कुछ पल के लिए दबाया जा सकता है लेकिन उसका समाधान नहीं किया जा सकता है। 

याद रहें ये न्याय-समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व को स्थापित कर दुनिया को मानवता का पथ पढ़ाने वाले बुद्ध-अम्बेडकर का देश हैं। इसलिए इन मूल्यों के तहत कार्य करना देश की जनता और हुकूमत का संवैधनिक, लोकतान्त्रिक, नैतिक व मानवीय कर्तव्य हैं।
रजनीकान्त इन्द्रा


Tuesday, March 24, 2020

दिखावें में नहीं, क्रियान्वयन में विश्वास करती हैं बसपा


दिखावें में नहीं, क्रियान्वयन में विश्वास करती हैं बसपा

राजनैतिक दलों के अध्यक्ष व अन्य बड़े नेतागण जातीय उत्पीड़न, रेप आदि पीड़ितों के घरों पर अपने लाव-लश्कर संग अक्सर फोटो खिचवाते हुए मिल जाते हैं। कुछ नेता चंद रुपयों का आर्थिक योगदान भी देते हुए नजर आते हैं। ऐसे लोगों का मानना हैं कि ऐसा करने से त्वरित कारवाही हो जाती हैं। ये बात कुछ हद तक कुछ मामलों में सही भी हो सकती हैं। लेकिन, यदि ऐसे केसेस के पूर्ण न्याय के संदर्भ में देखें तो ऐसे नेताओं का पीड़ित से मिलना "ढाँख के तीन पात" ही साबित होता हैं। 


फिलहाल इस राजनैतिक ट्रेंड से प्रेरित होकर अक्सर लोग सवाल पूछते हैं कि बहन जी किसी पीड़ित के घर क्यूँ नहीं जाती हैं? ये सवाल बहुजन समाज के विरोधियों द्वारा उठाया जाता हैं, और पिछड़े-दलित-बहुजन समाज के लोगों द्वारा ढोया जाता हैं। इससे काफी हद तक पिछड़े समाज में नाराजगी तक दिखाई पड़ती हैं कि तमाम नेता अमुक पीड़ित से मिले, उसके घर गए लेकिन पिछड़े समाज की महानायिका बहन जी ऐसा क्यों नहीं करती हैं?
  

ऐसे नेतागण जो पीड़ित से मिलाने जाते हैं क्या वे स्पष्ट करेगें कि उनके मुख्यमंत्रित्व काल में वे कितने पीड़ितों से मिले हैं, और कितनों को न्याय दिलाया हैं? यदि पड़ताल करेगें तो आप पायेगें कि विपक्ष में बैठने पर पीड़ित के घर जाकर सहानुभूति जताने वाले लोग ही अपने शासन काल में पीड़ितों को परेशान करते हैं, अपराधियों को संरक्षण देते हैं। ऐसे में ऐसी सांत्वना का क्या लाभ हैं जिसका पीड़ित को कोई न्याय मिलाने में कोई योगदान ही ना हो। 


        हमारे विचार से ऐसे सवाल करने वाले मान्यवर साहेब और बहन जी की कार्यशैली से पूरी तरह से अज्ञान होते हैं। ऐसे लोगों को समझना होगा कि किसी पीड़ित के घर जाने वाले नेता सिर्फ और सिर्फ अपने राजनैतिक हमदर्दी दिखाने के लिए जाते हैं। इससे पीड़ित तत्कालिक सांत्वना भले ही मिल जाए लेकिन उसे न्याय नहीं मिलगा। कई केसेस से यह प्रमाणित भी हो चुका हैं। उदहारण के लिए उन्नाव रेप पीड़िता के घर लोग मिलने तो गए लेकिन क्या उसके साथ न्याय हुआ? यदि न्याय जातिवादी धारा से ही होनी हैं तो ऐसा दिखावा करने से पीड़ित को क्या लाभ हैं। ये और बात हैं कि ऐसा करने से राजनैतिक दलों को लाभ जरूर हो जाता हैं।   


इस सन्दर्भ में यदि गौर किया जाय तो हम पाते हैं कि लोकतंत्र के महानायक मान्यवर साहेब और भारत में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका बहन जी शायद ही किसी पीड़ित के घर ऐसी झूठी सांत्वना देने गयी हो। क्योंकि, बाबा साहेब के मानने वाले लोग दिखावे में नहीं बल्कि क्रियान्वयन में विश्वास करते हैं। मान्यवर साहेब या फिर बहन जी इस बात में विश्वास करते हैं कि यदि आप जुल्म से आज़ादी चाहते हो, अपने बहु-बेटियों की सुरक्षा चाहते हो, जातिगत उत्पीड़न से छुटकारा चाहते हो, चुस्त शासन और दुरुस्त प्रशासन चाहते हो तो संगठित होकर अत्याचार करने वाली उच्चजातियों के हाथों से सत्ता छीन कर अपने बहुजन समाज सरकार बनाओं। आपकी अपनी हुकूमत ही आपको न्याय दिला सकती हैं, सुरक्षा दिला सकती हैं।
=======रजनीकान्त इन्द्रा=======

Saturday, March 21, 2020

कोरोना सबक - ईश्वर भगाओं, मंदिर मिटाओं , मानवता बचाओं

भारत की हिंदूवादी व्यवस्था पाखण्ड और अन्धविश्वास का घर हैं। इंसान ने यहाँ अपना विवेक पत्थरों के सामने गिरवी रख दिया हैं। भक्त धर्म और ईश्वर के नाम पर गोबर को खा चुका हैं, और मूत्र भी पी चुका हैं। कोरोना से बचने के लिए गौमूत्र पिये हुए भक्त अस्पताल तक पहुँच गए। कोरोना ने तो भक्तों के भगवानों तक को मास्क लगाने के लिए मजबूर कर दिया। पिछले छः साल से देश में कभी गौरक्षा तो कभी राष्ट्रभक्ति के नाम पर आतंक मचने वालों को भी कोरोना ने उनके घरों में कैद कर दिया। 

भारत के मौजूदा प्रधानमंत्री इतना झूठ बोल चुका हैं कि देश उनकी किसी भी बात को गंभीरता से नहीं लेता हैं। लेकिन अमरीका, जर्मनी, जापान, चीन इटली जैसे देशों की मिडिया से आ रहीं के चलते देश, मान गया हैं कि कोरोना एक घातक महामारी के तौर पर अपने पैर पसर रहीं हैं। बेहरहाल, कोरोना पर नियंत्रण के लिए वैज्ञानिक काम कर रहें हैं। यहाँ हम इस कोरोना संकट से मिलनी वाली महत्वपूर्ण सीख पर चर्चा जरूरी समझते हैं।

फ़िलहाल, हम यहाँ इस बात की तरफ ध्यान आकर्षित करना चाहते हैं कि देश व दुनिया को बचने वाला कभी भी कोई भगवान् नहीं आएगा। हमको अपने विवेक से कार्य करते हुए ही दुनिया में शान्ति- समृद्धि कायम करना हैं। कोरोना ने भारत के अन्धविश्वास व धर्म के धंधे पर ताला लगवा दिया हैं। कोरोना के इस हेल्थ आपातकाल से हम बहुत कुछ सीख भी सकते हैं कि ईश्वर एक भ्रम है, और उस पर भरोसा करने वाले मानसिक तौर पर कमजोर। आपको बचाने के लिए कोई ईश्वर अवतार नहीं लेगा। अरे भाई, अवतार तो तब लेगा, जब ईश्वर जैसी कोई शक्ति होगा। ईश्वर जैसी हर दैवीय शक्ति व मंदिर आदि का हमेशा के लिए बहिष्कार करना है। जब कोरोना संकट की घड़ी में सारे ईश्वर अपने-अपने मंदिरों में कैद हो गए हैं तो जनता उनकों प्रीमियम क्यूं देती हैं? बुद्ध से लेकर बाबा साहेब, मान्यवर साहेब और बहन जी तक ने ईश्वर को अस्तित्व को नकार दिया हैं। ईश्वर और धर्म के सन्दर्भ में महान समाज सुधारक पेरियार ई वी रामास्वामी नायकर कहते हैं कि ईश्वर को धूर्तों ने बनाया हैं, गुण्डों ने चलाया हैं और मूर्ख उसकी पूजा करते हैं। यदि लोग कोरोना की इस घड़ी में भारत सबक ले तो "साम्प्रदायिक" ताकतों व राजनैतिक दलों को हमेशा के लिए दफ़न किया जा सकता है। यदि देशवासी उचित सबक ले तो कोरोना का संकट, भारत का भविष्य बदल सकता है।

साथ ही साथ, देश की सम्पदा आर्थिक और बौद्धिक सम्पदा को निजी हाथों में बेचने वाले मौजूदा माननीय प्रधानमंत्री जी क्या इस बात पर रौशनी डालेगें कि देश के प्राइवेट अस्पतालों व पैथोलॉजी आदि पर किस-किस जाति का कब्जा है? क्या देश के बहुजनों से देशभक्ति का प्रमाण मांगने वाली इन जातियों ने देश हित में अपने-अपने अस्पतालों को देश हित में समर्पित किया? देश में निजीकरण के हिमायती ये बताने का कष्ट करेंगे कि कितने प्राइवेट अस्पताल व पैथोलॉजी मुफ्त इलाज के लिए तैयार है। भारत जैसे गैर-बराबरी वाले देश में मूलभूत सुविधाओं का राष्ट्रीयकरण अत्यंत आवश्यक है। देश के सारे मंदिरों को हटाकर वहां उच्च स्तरीय सरकारी स्कूल व अस्पताल बनाये जाय। इस सन्दर्भ में, देश के सारे धर्म-धंधा स्थलों (मंदिर आदि) को हटाकर समुचित स्वप्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी के सिद्धान्त पर सरकारी स्कूल व अस्पताल की मुहिम शुरू की जाय। कोरोना संबन्धित आपात की इस घडी का मन्त्र भारत का भविष्य बदल सकता हैं, सांप्रदायिक ताकतों को मिटा सकता हैं, हिंदुत्व के नाम पर बहूजाओं पर हमला करने वाले दलों को सदा-सदा के लिए नेश्तनाबूद कर सकता हैं, जिसकी बुनियाद पर न्याय-समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व-वैज्ञानिता पर आधारित बुद्ध-फुले-अम्बेडकर के सपनों नवीन मानवीय भारत का सृजन हो सकता हैं। भारत जैसे देश के लिए कोरोना संकट के इस घडी की सबसे बड़ी सीख यही हैं कि -

ईश्वर भगाओं,
मंदिर मिटाओं ,
मानवता बचाओं।

फ़िलहाल, हमारी इस बात पर काफी लोग टिप्पणी कर रहे हैं कि आप हमेशा मंदिर और ईश्वर के पीछे पड़े रहते हैं। आप अल्लाह, गॉड, मस्जिद और चर्च के बारे में नहीं लिखते हैं। ऐसे लोगों से हमारा कहना है कि भारत देश का जितना नुकसान ईश्वर और मंदिर ने किया है उतना नुकसान किसी और ने नहीं किया है। भारत में इस्लाम और ईसाइयत के आगमन के साथ ही भारत के 85 फ़ीसदी आबादी वाले बहुजन समाज को पिछली कई सदियों में पहली बार शिक्षा हासिल करने का मौका मिला था।

भारत के राष्ट्रपिता ज्योतिबा फुले और आधुनिक भारत के पिता बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर यदि अपनी स्कूली शिक्षा पूरी कर भारत की सामाजिक परिस्थितियों को डटकर मुकाबला करते हुए भारत के पूरे के पूरे सामाजिक ढांचे को ही पलट कर न्याय-समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व पर आधारित भारत के सृजन की कल्पना कर हकीकत की सरज़मी पर उतरने का काम कर पाए है तो ऐसा करने में ईसाइयित वाले मानवीय अंग्रेजों का बहुत बड़ा हाथ रहा है। इसीलिए राष्ट्रपिता ज्योतिर्बा फुले भारत में ईसाइयत के आगमन को बहुजनों के लिए वरदान मानते हैं। राष्ट्रपिता फुले जी खुद ईसायित को मानाने वालों से बहुत प्रभावित थे। कबीर और संत शिरोमणि संत रैदास जैसे समाज सुधारक यदि भारत की हिंदूवादी अमानवीय व्यवस्था पर कठोर टिप्पणी करते हुए एक नए समाज के सृजन की बात कर सके हैं तो वह मुसलमानों का दौर था जिसने उन्हें ऐसा करने में मदद किया।

ऐसा नहीं है संत रैदास और कबीर ने सिर्फ हिंदू कुरीतियों पर ही प्रहार किया है। उन्होंने इस्लाम के ही राज में इस्लाम की कुरीतियों पर भी कठोर प्रहार करते हुए समाज को नई दिशा देने का कार्य किया है। ऐसे में यदि निष्पक्ष तौर पर देखा जाए तो भारत के 85 फ़ीसदी आबादी वाले सकल बहुजन समाज का जितना शोषण मंदिर और ईश्वर ने किया है उतना किसी अन्य ने नहीं किया है। लेकिन इसका यह कतई मतलब नहीं है कि अन्य जगह बुराइयां नहीं हो सकती हैं। इसलिए जब हम मंदिर हटाकर सरकारी स्कूल व अस्पताल बनवाने और ईश्वर को भगाने की बात करते हैं तो इसका तात्पर्य है कि पहले मंदिर और ईश्वर का जब जनता बहिष्कार कर देगी तो अन्य लोग खुद-ब-खुद धार्मिक अंधविश्वास, पाखंड व भ्रम का बहिष्कार करने को मजबूर हो जाएंगे। यह एक प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में मंदिर हटाकर सरकारी स्कूल व अस्पताल बनवाने और ईश्वर को भगाने का काम प्राथमिकता पर किए जाने की जरूरत है। जिसके परिणामस्वरूप अन्य फिरकें के लोग खुद-ब-खुद अपने धर्म की दुकानों को हटा लेंगे। देश की मूलभूत सुविधाओं के राष्ट्रीयकरण की देश को सख्त जरूरत है। जिसके हर क्षेत्र के हर पायदान पर देश के हर वर्ग के लोगों की समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी के सिद्धांत पर शिक्षा और स्वास्थ्य का राष्ट्रीकरण सबसे अहम् हैं। ऐसे में यदि हम कोरोना काल से सबक लेते हैं तो संविधान निहित मूल्यों पर आधारित एक नए भारत के  सृजन का रास्ता प्रशस्त हो जाएगा।
----------रजनीकान्त इन्द्रा----------


Friday, March 20, 2020

न्याय चाहिए तो हुक्मरान बनों

न्याय चाहिए तो हुक्मरान बनों
बिजनेस स्टैण्डर्ड के अप्रैल ०५, २०१८ की रिपोर्ट के मुताबिक २००६ से २०१६ तक दौरान देश में दलितों और आदिवासियों के साथ हुए अत्याचारों के कुल ४२२७९९ और ८१३२२ मामले दर्ज हुए हैं। इस दरमियान दलितों पर अत्याचार के मामले में आठ राज्यों (गोवा, केरल, दिल्ली, गुजरात, बिहार, महाराष्ट्र, झारखण्ड और सिक्किम) ने और आदिवासियों पर अत्याचार के मामले में केरल, कर्नाटक और बिहार में ने शीर्ष स्थान प्राप्त किया हैं। २००६ से २०१६ तक में देश की कुल आबादी के १६.६% हिस्सा वाले दलितों के खिलाफ हुए अत्याचारों की दर में ७४६% और देश की कुल आबादी के ८.६% हिस्सा वाले आदिवासी समाज के साथ हो रहे अत्याचारों में ११६०% की बढोत्तरी दर्ज की गयी हैं। जबकि इसी समयान्तराल में पोलिस जाँच में लम्बित मामलों में दलितों और आदिवासियों में सन्दर्भ में क्रमशः ९९% और ५५% की बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी हैं। इससे भी अधिक भयभीत करने वाली बात ये हैं कि इसी समयांतराल में आदिवासियों और दलितों के खिलाफ हुए मुकदमों में सजा दर में क्रमशः ०७% और ०२% की घटोत्तरी पायी गयी हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरों के मुताबिक २०१४ में दलितों के साथ हुए कुल अपराधों का १३.९% अपराध दलित समाज के महिलाओं के साथ हुए बलात्कार का हैं। इसी तरह से २०१६ में आदिवासियों पर भी हुए कुल अत्याचार कर १४.८ % रेप के मामले दर्ज हुए। 

फिलहाल, ये सब वे मामले हैं जिनका पंजीकरण हो सका। जबकि छोटे-मोटे अपराधों को तो पुलिस दर्ज भी नहीं करती हैं। यदि दलितों और आदिवासियों पर होने वाले सारे मामले दर्ज हो जाये तो भारत के शासन-प्रशासन और न्याय व्यवस्था पूरी तरह से बेनकाब हो जायेगा। ये सदियों से स्थापित सत्य हैं कि भारत में दर्ज होने वाले एफआईआर और न्याय मिलने में पीड़ित के सामाजिक पृष्ठिभूमि (जाति) का योगदान सबसे बड़ा होता हैं। दलित-आदिवासी और अन्य पिछड़े वर्ग के साथ घटित होने वाले अपराधों में दलितों-आदिवासियों में राजनैतिक हैं। दलित-आदिवासी समाज के लोग जैसे-जैसे जागरूक हो रहें वैसे-वैसे वे अपने अधिकारों की बात कर रहें हैं, अपनी सामाजिक अस्मिता को पुनः स्थापित कर रहें हैं, जो ब्राह्मणो-सवर्णों को गवारा नहीं हैं। ऐसे में पितृसत्तात्मक व्यवस्था में यदि एक दलित-आदिवासी नारी अपने अधिकारों और अस्मिताओं की पैरवी करे तो हिंदुत्व की नींव ही चरमरा जाती हैं। हिंदुत्व के ठेकेदार अपनी नारीविरोधी जातिवादी सामंती वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू की अमानवीय संस्कृति द्वारा देश की लगभग ९३% आबादी (सकल बहुजन समाज और सवर्ण नारी समाज) को गुलाम बनाये रखने के लिए इस अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ मानवता की आवाज बुलंद करने वाले दलित समाज के साथ लगातार जघन्यतम अपराधों को अंजाम दे रहें हैं। ये और बात हैं कि उनकी इस व्यवस्था की उम्र के कुछ दशक ही बचें हैं। 

सरकारी और अन्य संवैधानिक संस्थाओं पर काबिज जातिवादियों के रुख की पड़ताल करे तो हम पाते हैं कि दिल्ली में १६ दिसम्बर को जब एक सवर्ण लड़की का बलात्कार होता हैं तो सरकार की बुनियाद हिल जाती हैं, वर्मा कमिटी का गठन कर तत्काल संसद द्वारा कानून पास कर दिया जाता हैं। मिडिया लगातार इसे राष्ट्रिय मुद्दा बनाकर पेश करती हैं। अंत में, २१ मार्च २०२० को दोषियों को फाँसी लटकाकर तथाकथित इंसाफ कर दिया जाता हैं। हैदराबाद में भी एक सवर्ण लड़की के साथ रेप होता हैं तो पोलिस इस कदर हरकत में आती हैं कि तथाकथित अपराधियों का इनकाउंटर कर खुद ही इन्साफ कर देती हैं, कोर्ट की जरूरत ही नहीं पड़ती हैं। लेकिन कठुआ केस के सवर्ण अपराधियों के पक्ष में जुलुस निकला जाता हैं, चिन्मयानंद के केस में पीड़िता को ही अपराधी करार कर दिया गया। डेल्टा मेघवाल का ब्लात्कार कर उसकी हत्या हो जाती हैं। इन सब मामलों में ना तो सरकार कोई सुध लेती हैं, और ना ही अदालते हैं। भारत में स्थापित सत्य हैं कि न्याय होता नहीं, न्याय बिकता हैं। और, सिर्फ बिकता ही नहीं हैं जाति देखकर बिकता हैं।

भ्रष्टाचार के इस संदर्भ में बाबा साहेब कहते हैं कि अधिकारी सिर्फ भ्रष्ट नहीं होते हैं बल्कि वे जातिवादी और भ्रष्ट होते हैं। यदि वे सिर्फ भ्रष्ट हो तो उन्हें कोई भी खरीद सकता हैं लेकिन जब वे जातिवादी भ्रष्ट होते हैं तो उन्हें सिर्फ उनकी जाति वाला ही खरीद सकता हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता हैं कि शासन-प्रशासन और न्यायपालिका आदि में भ्रष्टाचार उतनी बड़ी समस्या नहीं हैं जितनी कि इन सभी संस्थाओं में व्याप्त जातिवाद। यहाँ ये उल्लेख करने की जरूरत नहीं हैं कि न्यायपालिका और मीडिया में लगभग सौ फीसदी ब्राह्मणो-सवर्णों का ही कब्ज़ा हैं, जबकि शासन-प्रशासन के सभी उच्च पदों पर भी इन्हीं ब्राह्मणो-सवर्णों का शत-प्रतिशत कब्ज़ा हैं। प्रिवी काउन्सिल ने तो पहले ही स्पष्ट कर दिया हैं की ब्राह्मणो में न्यायिक चरित्र नहीं होता हैं। ये लोग सिर्फ भ्रष्ट ही नहीं बल्कि जातिवादी भ्रष्ट होते हैं। इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता हैं कि भारत से लूट कर विदेश जाने माल्या से लेकर नीरव मोदी तक और अन्य सभी छोटे-बड़े लूटेरे किसी दलित-वंचित-आदिवासी-पिछड़े समाज से नहीं बल्कि सवर्ण तबके से ही आते हैं। कोरोना प्रकोप के दौरान भारत में २० रूपये में मिलने वाले मास्क को १५० रूपये में बेचने कोई और यहीं ब्राह्मण-सवर्ण तबके के ही लोग हैं। ऐसी आपदा में जब पूरी दुनिया त्राहि-त्राहि कर रही हैं ऐसे में मानवता की लाश से भी मुनाफे कमाने वाला तबके में आप मानवीय चरित्र की कल्पना नहीं कर सकते हैं।

कहने का तात्पर्य यह हैं कि भारत के हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में अन्याय हो या न्याय (राजनैतिक हो, आर्थिक हो, सामाजिक हो, सांस्कृतिक हो, शैक्षणिक हो, धार्मिक, आध्यात्मिक हो) ये सब जाति के आधार पर ही होता है। संविधान में निहित मूल्यों की तब तक कोई अहमियत नहीं हैं जब तक कि संविधान को चलने लोग पीड़ित वर्ग के नहीं होगें। 

यहीं वजह थी दशकों पूर्व बाबा साहेब बहुजन समाज के गौरवशाली इतिहास और मौजूदा समस्याओं के सन्दर्भ में स्पष्ट करते हुए बहुजनों से कहते हैं कि जाओं अपने घरों की दीवारों पर लिख दो कि तुम इस देश की शासक जमात हो। संविधान निहित प्रावधानों और लोकतान्त्रिक व्यवस्था से देश की राजनीती में एक इंसान, एक वोट और एक वोट, एक मूल्य के सिद्धांत के आधार पर बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि हिंदुत्व अमानवीय व्यवस्था में यदि मानवता के कल्याण के लिए अवसर के सारे दरवाजे खोलना चाहते हो तो सत्ता पर कब्ज़ा करों। 

बाबा साहेब की इसी बात से प्रभावित होकर मान्यवर काशीराम साहेब ने कहा कि यदि न्याय चाहिए तो शासक जमात बनों। लोकतंत्र के महानायक मान्यवर काशीराम साहेब के साथ कदम से कदम मिलाकर संघर्ष करने वाली भारत में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका बहन मायावती जी ने भारत की सर्वाधिक आबादी वाले उतर प्रदेश की सरजमीं पर ऐसी हुकूमत कि सम्राट अशोक के बाद ऐसी मिशाल भारत के इतिहास में नहीं हैं। 

बहुजन समाज (पिछड़े-दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक) की इस बसपा सरकार में ना सिर्फ अपराधों में भरी गिरावट दर्ज़ हुई बल्कि अपराधी या तो जेल के अंदर पहुँच गए या फिर उत्तर प्रदेश से बाहर चले गए। सकल नारी समाज के साथ-साथ दलित-वंचित-पिछड़े-अल्पसख्यक समाज ने पहली बार संविधान के महत्त्व व इसकी हुकूमत को एहसास किया। 

सत्ता और संशाधन के हर क्षेत्र के हर पायदान पर देश के हर तबकी की उसके जनसख्या के मुताबिक समुचित स्वप्रतिनिधित्व व भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए बहुजनों का सत्तारूढ़ होना देश में मानवता की जरूरत हैं। यहीं भारत में संविधान निहित मूल्यों पर आधारित लोकतंत्र होगा। लोकतंत्र के महानायक मान्यवर साहेब के शब्दों में -
जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी।
 
ऐसे में स्पष्ट हैं कि यदि बहुजन समाज के लोग संविधान सम्मत सत्ता और सबके लिए राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, आध्यात्मिक और धार्मिक न्याय चाहते हैं तो बहुजनों को खुद हुक्मरान बनना ही होगा।
======= रजनीकान्त इन्द्रा=======

Thursday, March 19, 2020

एक वैज्ञानिक सहर की शुरुआत हो सकता हैं कोरोना

एक वैज्ञानिक सहर की शुरुआत हो सकता हैं कोरोना

हर विपदा का अंत एक सुनहरी सहर के साथ होती हैं। कोरोना वॉयरस (COVID-19) ने दुनिया में एक भय का रूप ले लिया हैं। चीन, अमेरिका, इटली जैसे देश इससे प्रभावित हो चुके हैं। इस वॉयरस के फ़ैलाने की ठोस वजह अभी तक पता नहीं चल पायी हैं, और ना ही अभी तक इसका कोई सटीक इलाज खोजा जा सका हैं। अलग-अलग मुल्कों की सरकारे लगातार इससे प्रभावित व मृत लोगों के आंकड़े जारी कर रहीं हैं, जिनकी सख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रहीं हैं, ऐसा कहा जा रहा हैं। 


भारत में तो ये वॉयरस जहाँ बहुजन समाज में भय और आतंक का पर्याय बना दिया गया हैं वही सांस्कृतिक तौर पर अपराधी जातियों (ब्राह्मण-सवर्ण) व मौजूदा दौर में उनकी सत्तारूढ़ पार्टी के लिए वरदान साबित हो चुकी हैं। पूरा बहुजन इस वॉयरस के भय से खुद को बचाने की जद्दोजहद कर रहा हैं तो ऐसे में सरकार को राहत की साँस मिल रहीं हैं। बेरोजगारी, गरीबी, भुखमरी, शाहीन बाग़, दलित-बहुजन उत्पीड़न आदि मुद्दे दफ़न हो चुके हैं। सरकारी निगमों आदि के निजीकरण के रास्ते खुल गए हैं। सड़के वीरान हो चुकी, दुकाने बंद पड़ी हैं, स्कूल बंद हो गये हैं, उच्च न्यायलय तक में छुट्टियां हो चुकी हैं।  कुल मिलाकर जहाँ देश का बहुजन समाज भारत, भारतीय संविधान और अपने हकों के लिए सड़क से संसद तक अपनी आवाज़ बुलंद कर रहा था, आज वही ये बहुजन समाज अपने जीवन की रक्षा के लिए अपने-अपने घरों में कैद हो चुका हैं।


आज ऐसी हालत में जब देश की 85 फीसदी आबादी वाला बहुजन समाज में भय में जी रहा हैं तो सरकार ने अयोध्या बाबरी मस्जिद केस से फैसला सुनने वाले उच्चतम न्यायलय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश को पोस्ट-रिटायरमेंट-बेनिफिट देते हुए राज्यसभा में मनोनीत करवा लिया। फ़िलहाल, ये महोदय किस विशेषज्ञता के लिए मनोनीत किये गए हैं, देश कोरोना के भय से ये सवाल उठाने की स्थिति में नहीं हैं। देश की डूबती अर्थव्यवस्था को बचाने एवं उद्योगपतियों को और मजबूत करने तथा बहुजन समाज को लूटने के लिए कोरोना के नाम पर प्लेटफॉर्म टिकट 50 रुपये कर दिया हैं। हवाला ये दिया गया कि इससे स्टेशन पर भीड़ कम होगी। जबकि हकीकत यह हैं कि स्टेशन पर एक यात्री के साथ उसको स्टेशन पर पूरे सहित छोड़ने वाले ब्राह्मण-सवर्ण अब भी आयेगें क्योंकि वे अमीर हैं, वे 50 नहीं, 500 भी देने के लायक हैं। ऐसे में यदि इसकी मार पड़ेगीं तो सिर्फ और सिर्फ देश के पिछड़े-आदिवासी-दलित बहुजन समाज पर ही पड़ेगी। 


फ़िलहाल, इस कोरोना वॉयरस के इस आतंक के माहौल में भारत जैसे देशों के भक्तों के लिए सीखने का बेहतरीन मौका हैं। दुनिया का धर्म सदा से तार्किकता का विरोध करता आया हैं। इसने अपने धर्म के धंधे को फ़ैलाने के लिए विज्ञानं का इस्तेमाल जरूर किया लेकिन फिर भी धर्म की अफीम को विज्ञानं से ज्यादा तवज्जों दिया हैं। ये और बात हैं कि दुनिया के किसी भी धर्माधिकारी ने आज तक कोई ऐसा अविष्कार नहीं किया हैं जिससे देश मानवता चैन की साँस ले सकी हो। आलम ये हैं कि आज सारे धर्म के ठेकेदार, और उनके सभी भगवान मास्क लगाये अपने जान की खैर मना रहें हैं। 


ये स्थापित सत्य हैं कि धर्म का धंधा भय के माहौल में और भी तेजी से फलता-फूलता हैं। इसलिए अपने धर्म के धंधे को मजबूत करने के लिए ब्राह्मण खुलेआम ना सिर्फ गौ-मूत्र पी रहे हैं बल्कि गोबर भी खाने में उनकों कोई एतराज नहीं हैं। ये और बात कि गोबर-गौमूत्र वाले बाबा अपने शिविर अस्पताल में कम एम्स के चक्कर ज्यादा लगा रहें हैं। 


ऐसे में गोबर-गौमूत्र भक्तों को सीखने की जरूरत हैं कि दुनिया में कोई ईश्वर-अल्लाह-गॉड आदि नहीं हैं। ना ही यह सभी मनगढंत शक्तियाँ आपकी कभी रक्षा कर सकती हैं। आपकी रक्षा आपका आपसी सहयोग, आपका आपसी भाईचारा, आपका चिंतनशील विवेक और नित नए प्रयोगों से मानवता हित में कार्य करने वाला विज्ञानं ही कर सकता हैं। 


महान समाज सुधारक पेरियार ई वी रामास्वामी नायकर से सही फ़रमाया हैं कि ईश्वर को धूर्तों ने बनाया हैं, गुंडों ने चलाया हैं और मूर्ख उसे पूजते हैं। 


याद रहें, विज्ञानं के क्षेत्र में अपना अहम् योगदान देने वाले सारे अविष्कारक नास्तिक ही रहें हैं। इस लिए जरूरत हैं कि गोबर-गौमूत्र और धर्म के अफीम से आगे चलकर मानवता के लिए कार्य करने वाले विज्ञानं को गले लगाकर एक नये भारत, एक नई दुनिया के सृजन के लिए सब समता-स्वतंत्रता-बंधुता के सिद्धांत पर चलकर आगे बढ़ें। इसी में सकल मानव समाज की सुख-शांति-समृद्धि और उन्नति निहित हैं।  
--------रजनीकान्त इन्द्रा--------

Wednesday, March 18, 2020

Rajani Kant Indra (Photo)





Monday, March 16, 2020

मान्यवर काशीराम साहेब - लोकतंत्र के महानायक एवं राष्ट्रिय नेता

मान्यवर काशीराम साहेब
लोकतंत्र के महानायक एवं राष्ट्रिय नेता
जैसा कि स्थापित है कि भारत के राजनैतिक जीवन में तो सबके लिए “एक व्यक्ति, एक वोट और एक वोट, एक मूल्य” का सिद्धांत लागू होता है, लेकिन सामाजिक-आर्थिक-सांस्कृतिक जीवन में आज भी गैर-बराबरी है। किसी भी देश की सामाजिक संरचना का उस देश की राजनीति पर बहुत गहरी छाप होती है, जिसके चलते उस देश के सामाजिक संरचना के ऊपरी पायदान पर बैठे लोग ही उस देश की राजनैतिक, आर्थिक और शैक्षणिक आदि क्षेत्रों में विषमतावादी (अलोकतांत्रिक) व्यवस्था काबिज हो जाते हैं, और सामाजिक पायदान का निचला हिस्सा जिसकी आबादी भारत में 85 फीसदी है, वह सत्ता-शासन व संसाधन से वंचित हो जाता है। नतीजा, चंद मुट्ठी भर ब्राह्मण-सवर्ण समाज के लोगों द्वारा देश की 85 फीसदी आबादी का सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक शोषण। इसलिए अब्राहम लिंकन द्वारा दी गई लोकतंत्र की स्वीकृत परिभाषा (लोगों द्वारा लोगों के लिए लोगों का शासन) भारत जैसे घोर विषमतावादी समाज वाले देश के साथ पूर्ण न्याय नहीं करती है।

विषमतावादी समाज में समता तभी आ सकती है जब उस देश के राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र के हर पायदान पर उस देश के हर तबके की “समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी” हो। भारतीय संविधान में लोकतांत्रिक जड़ों को मजबूत करने वाले “समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी” के सिद्धांत को संविधान के संदर्भ में “आरक्षण” के नाम से जाना जाता है।

इसलिए लोकतंत्र की सही परिभाषा, जो हर मुल्क की हर परिस्थिति के लिए (सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक विषमताओं वाले मुल्क में भी) सही हो, देश की राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र के हर पायदान पर उस देश के हर तबके की अपनी “समुचित स्वप्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी” है।

भारतीय समाज के सामाजिक संरचना में ऊंचे पायदान पर बैठे लोग आज भी देश में संवैधानिक व लोकतांत्रिक मूल्यों को नजरअंदाज करते हुए अपनी गैर-बराबरी वाली ब्राह्मणी, विषमतावादी, सामंती व गुलाम पसंद व्यवस्था को कायम रखना चाहते हैं।

ब्राह्मणी यथास्थिति को बनाए रखने के लिए तथाकथित उच्च जातियों के लोग संविधान प्रदत्त लोकतांत्रिक जड़ों को मजबूत करने वाले “समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी (आरक्षण)” के सिद्धांत को “मेरिट और कार्य दक्षता” आदि के नाम पर शुरू से ही बदनाम करते आ रहे हैं, जबकि हकीकत यह है कि देश के सभी सरकारी संस्थान आरक्षण वालों के ही कंधों पर टिका हुआ है।

मेरिट और कार्य दक्षता का दावा ठोकने वाले सवर्ण समाज ने ही प्राइवेट सेक्टर की बैंकों और कंपनियों आदि पर एक छात्र कब्जा जमा रखा है। इसके बावजूद यह सारी कंपनियां व बैंक लगातार डूबती जा रही है। इन कंपनियों व बैंकों का डूबना इनके “मेरिट और कार्य दक्षता” के खोखले दावे को दुनिया के सामने नंगा करने के लिए काफी है। 

फिलहाल, गैर-बराबरी वाले समाज में शोषक (ब्राह्मण, ठाकुर और बनिया) व शोषित (डीएस-4 मतलब दलित शोषित समाज समिति, जिसके अंतर्गत अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और कनवर्टेड माइनॉरिटी आते हैं) जमात को स्पष्ट करते हुए मान्यवर कांशीराम साहब देश के बहुजन समाज से आह्वान करते हैं –
“ठाकुर ब्राह्मण बनिया छोड़,
        बाकी सब हैं डीएस-4।”

भारत के सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक व राजनीतिक तौर पर विषमतावादी समाज में लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करने के लिए लोकतंत्र की जो परिभाषा है, वह डॉक्टर बाबा साहब अंबेडकर के सिद्धांतों से उपज कर मान्यवर कांशी राम साहब की जुबान में इस तरह है –
“जिसकी जितनी संख्या भारी,
उसकी उतनी हिस्सेदारी।”

संविधान निहित लोकतांत्रिक मूल्यों को भारत में पूरी तरह से लागू करने के लिए मान्यवर कांशीराम साहब ने अलग-अलग तरह के नारे गढकर लोकतंत्र की भावना को देश के जन-जन तक पहुंचाने का कार्य किया। भारत में लोकतांत्रिक जड़ों को मजबूत करने वाले और  संवैधानिक मूल्यों को बयां करते हुए मान्यवर कांशीराम साहब कहते हैं –
“वोट से लेंगे पीएम सीएम,
आरक्षण से लेंगे एसपी डीएम।”

मान्यवर साहब देश के वंचित जगत को राजनीति की मुख्यधारा में स्थापित करने और वंचित जगत को उसके वोट की ताकत से जोड़ने के लिए ही साहब “एक नोट, एक वोट” का नारा देते हैं। ये सिर्फ एक नारा ही नहीं था बल्कि दुनिया की राजनीति में सबसे अनोखा प्रयोग था। भारत में जहाँ ब्राह्मणी दल जनता को पैसे देकर उनका वोट खरीदते हैं उसी भारत में बाबा साहेब की वैचारिकी के बलबूते ही लोग मान्यवर साहेबको पैसा भी देते हैं और अपना वोट भी। मान्यवर साहेब कहते हैं कि जिसने हमें पैसा दिया हैं वो हमें जरूर वोट करेगा। ये अनोखा प्रयोग और इस पर मान्यवर का विश्वास बाबा साहेब की वैचारिकी और समाज के बारे साहेब के सामाजिक अध्यन और चिंतन को बयां करता हैं।  

बहुजन समाज के वोटों की बदौलत सत्ता-शासन व संसाधन पर एक छत्र राज कर रहे ब्राह्मणों-सवर्णों को चुनौती देते हुए साहब कहते हैं  –
“वोट हमारा राज तुम्हारा,
नहीं चलेगा, नहीं चलेगा।”
मान्यवर का यह नारा बहुजन समाज को इस तरह से झकझोर देता हैं कि लोग अपने वोट की ताकत को ना सिर्फ पहचान जाते हैं बल्कि उसी वोट के बलबूते भारत की सर्वाधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश की सरजमीं पर एक नहीं, दो नहीं, तीन नहीं बल्कि चार-चार बार देश के बहिष्कृत समाज की हुकूमत स्थापित कर देते हैं। साथ ही मान्यवर साहेब की शिष्या बहन कुमारी मायावती जी भी उन्हीं के नक्श-ए-कदम पर चलते हुए ऐसी संविधान सम्मत ऐसी हुकूमत करती हैं कि जिसकी मिशाल सम्राट अशोक के बाद इतिहास में भी नहीं मिलता हैं। 

भारत में जब राजनीतिक लोकतंत्र को ध्वस्त करते हुए ब्राह्मण-सवर्ण जातियों के गुंडों ने वंचित जगत के राजनैतिक भागीदारी को अपने मैन-मनी-माफिया के सिद्धांत से दफन कर रहे थे, तब भारत में लोकतांत्रिक मूल्यों को स्थापित करने के लिए देश की 85 फ़ीसदी आबादी की आवाज को मान्यवर साहेब ने कुछ इस तरह बुलंद किया हैं।
“चढ़ गुंडों की छाती पर,
मार मुहर तू हाथी पर ।”
यहीं वजह रहीं हैं कि बहुजन समाज के लोग प्राण की फ़िक्र किये बगैर अपने वोट की ताकत पर भरोसा कर ब्राह्मणों-सवर्णों की विषमतावादी ब्राह्मणी मानसिकता और उनके घमंड को पैरों तले रौंदकर अपनी राजनैतिक पहचान को दुनिया के फलक पर स्थापित कर दिया। 

बाबा साहब से ही प्रेरित होकर ही मान्यवर साहेब राजनीति को भारत में सामाजिक परिवर्तन का एक अहम हथियार कहतें हैं। इसीलिए मान्यवर साहब राजनीति को गुरुकिल्ली कहते हैं। राजनीतिक लोकतंत्र के संदर्भ में मान्यवर साहब देश की शासन-सत्ता पर विषमानुपातिक (अलोकतांत्रिक) तौर पर काबिज ब्राह्मणों सवर्णों को खुली चुनौती देते हुए कहते हैं –
“मैं इस देश का शासन बाबा साहब के बच्चों के बगैर चलने नहीं दूंगा।”

बाबा साहेब के अधूरे पड़े संविधान निहित अनुच्छेद 340 के सपने को पूरा करें के लिए मान्यवर साहेब ने विश्वनाथ प्रताप और अन्य ब्राह्मण-सवर्ण को सीढ़ी चुनौती देते हुए चैलेंज करते हैं -
मण्डल कमीशन लागू करों,
वर्ना सिंहासन खली करों। 
ये मान्यवर साहेब ही थे जिन्होंने विश्वनाथ प्रताप सिंह को इस कदर मजबूर कर दिया कि वो ना सिर्फ बाबा साहेब को भारत रत्न से सम्मानित करते हैं बल्कि दशकों से धूल खा रहीं मण्डल आयोग की फाइलों को अमली जमा पहनने को विवश हो गये। लेकिन ये बहुत ही दुखद हैं कि अन्य पिछड़ा वर्ग आज भी मान्यवर साहेब और बहन जी के इस संघर्ष को नकार रहा हैं। अन्य पिछड़ा वर्ग आज भी बाबा साहेब से इतना घृणा करता हैं कि वो ‘जय राम’ बड़े गर्व से कहते हैं लेकिन “जय भीम” सुनने भी तैयार नहीं हैं। ऐसे जो अन्य पिछड़ा वर्ग बाबा साहेब से इतनी नफ़रत करता हैं वो मान्यवर साहेब और बहन जी कैसे सहन कर सकता हैं। फिर भी मण्डल कमीशन की रिपोर्ट लागू होने के बाद अन्य पिछड़े वर्ग में चेतना आयी हैं लेकिन अभी भी लाखों मील का सफर बाकी हैं।
ऐसे में हमारा पूर्ण विश्वास हैं कि जिस दिन अन्य पिछड़े वर्ग में चेतना आ जाएगी उस दिन वो बाबा साहेब, मान्यवर और बहन जी की वैचारिकी से खुद-ब-खुद ही जुड़ जायेगा। फिर भारत में संविधान निहित मूल्यों पर आधारित लोकतान्त्रिक व्यवस्था ना सिर्फ राजनैतिक बल्कि आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक क्षेत्र में स्थापित जाएगी जो कि रैदास-फुले-शाहू-बाबा साहेब-मान्यवर साहेब और बहन जी का सपना हैं।
इस तरह से भारत जैसे सामाजिक विषमता वाले देश में लोकतंत्र के सही मायने को जन-जन तक पहुंचाने के लिए पूरे देश में 4200 किमी से अधिक साइकिल यात्रा और 5000 किमी से अधिक पैदल यात्रा कर भारत के पचासी फीसदी आबादी वाले बहुजन समाज को जगाने वाले मान्यवर साहब ने भारत की सियासत में ऐसी हलचल पैदा कर दी कि ब्राह्मणों-सवर्णों की सदियों पुरानी सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक और सांस्कृतिक बादशाहत बालू की तरह उनकी पकड़ से फिसल गयी। साहेब के इसी व्यक्तित्व के चलते ही बहुजन समाज के लोग मान्यवर साहेब में बाबा साहेब की छवि देखते हैं। इसीलिए भारत के मूलनिवासी बहुजन समाज के लोग कहते हैं कि –
“बाबा साहब का मिशन अधूरा,
कांशीराम करेंगे पूरा।”
बाबा साहेब देश के दलित-वंचित-पिछड़े समाज को देश का हुक्मरान बनाना चाहते थे। और, साहेब ने बाबा साहेब के इस इच्छा को सिर्फ पूरा ही नहीं किया बल्कि साहेब के मार्गदर्शन में बाबा साहेब की वैचारिक बेटी बहन जी ने संविधान सम्मत ऐसी हुकूमत की जिसका लोहा ब्राह्मणी रोग से ग्रसित रोगी भी मनाता हैं।

मान्यवर साहेब के संघर्ष और वैचारिकी को समग्रता से अध्ययन करने पर पता चलता हैं कि भारत में लोकतंत्र की जड़ों को बाबा साहब डॉक्टर अंबेडकर के बाद मजबूती से स्थापित करने का श्रेय मान्यवर कांशीराम साहब को ही जाता है। साहब देश के अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग और कन्वर्टेड मायनॉर्टीज को जोड़कर बहुजन समाज का निर्माण करते हैं। मान्यवर साहब बहुजन समाज को उसके संवैधानिक व लोकतांत्रिक हकों के प्रति जागरूक करते हुए शासन-सत्ता व संसाधन में इनकी भागीदारी के समीकरण को तय करते हुए पिछड़े, दलित व आदिवासी समाज को हुक्मरान बनाकर भारत में लोकतंत्र की जड़ों को मजबूती से स्थापित करने वाले बाबा साहब के बाद लोकतंत्र के दूसरे सबसे बड़े मसीहा व राष्ट्रीय नेता हैं। इसीलिए मान्यवर कांशीराम साहब के बारे में कहा जाता है कि –
“काशी तेरी नेक कमाई,
तूने सोती कौन जगाई।”


-----रजनीकान्त इन्द्रा-----

मान्यवर साहेब के कन्धों पर पेंटर


4 मार्च से 8 मार्च 2020 तक हम (रजनीकान्त इन्द्रा) बहुजन आंदोलन के संदर्भ में महाराष्ट्र के गोदियाभंडारा और नागपुर जिले में रहे। कैडर के दरमियान बहुत से बहुजन अधिकारीयों और कर्मचारियों को सम्बोधित करने के साथ-साथ मान्यवर साहेब के बारे सीखने का अवसर मिला। लोगों के सवालों की बौछारों से रूबरू होते हुए साहेब के राजनैतिक दर्शन से हर सवाल का मुकम्मल उत्तर दिया। लोगों के चहरे पर संतुष्टि देखर बहुत ही सुखद अनुभूति हुई। इसी दरमियान अपने बहुजन साथी प्रशांत गजभिए (शहर अध्यक्ष, बसपा) और विलास बौद्ध (जिला अध्यक्ष गोंदिया, बसपा) द्वारा हमें माननीय यशवंत निकोसे जी के बारे में जानकारी मिली। निकोसे जी के सन्दर्भ को सुनकर मन रोमांचित हो उठा।
इसके बाद अगले दिन 07 मार्च 2020 को करीब 5:40 पर हम (रजनीकान्त इन्द्रा और विलास बौद्ध जी) नागपुर में 2007 से 2012 तक उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार में सांस्कृतिक राज्यमंत्री व मान्यवर साहब का यथासंभव साथ देने वाले माननीय यशवंत निकोसे जी से मुलाकात की।
हमारे लिए यह मुलाकात बहुत ही रोमांचकारी रही क्योंकि इस मुलाकात के दरमियान माननीय निकोसे जी ने मान्यवर कांशीराम साहब और बहन जी से संबंधित बहुत सारी संघर्ष गाथाएं शेयर की, जो किसी भी बुद्ध-फुले-शाहू-आंबेडकरी विचारधारा वाले युवा को झकझोरने के लिए काफी हैं।
हमारा विश्वास है कि माननीय निकोसे जी द्वारा मान्यवर साहब और बहन जी से संबंधित शेयर की गई सारी संघर्ष गाथाएं आज के युवाओं और बहुजन आंदोलन से भटक चुके लोगों के लिए प्रेरणास्रोत व मार्गदर्शन का कार्य करेंगी। फिलहाल, हमारी इस अहम मुलाकात के दरमियान मा. निकोसे जी द्वारा साझा की गई मान्यवर साहब से जुड़ी एक अनोखी घटना का जिक्र हम (रजनीकान्त इन्द्रा) यहां कर रहे हैं।
मा. निकोसे जी ने बताया कि सन 1980 के दशक के शुरुआत का दौर था। मान्यवर साहब दीवारों पर पेंटिंग के जरिए बहुजन आंदोलन के संदेशों को जन-जन तक पहुंचा रहे थे। इस दरमियान दीवारों पर पेंटिंग का काम रात के समय हुआ करता था।
नागपुर में एक रात एक 20-22 साल के युवा पेंटर साथी के साथ मा. निकोसे जी दीवारों पर पेंटिंग का कार्य कर रहे थे। रात काफी हो चुकी थी। एक दीवार पर पेंटिंग करने के लिए सीढ़ी की जरूरत थी। इसलिए सीढ़ी की खोज में निकोसे जी इधर-उधर भटक रहे थे लेकिन शहर में अंधेरा था। घरों की बत्ती बुझ चुकी थी। लोग अपने-अपने बिस्तर पर जा चुके थे। इसलिए सीढ़ी मिलना मुश्किल हो गया था। काफी कोशिस की लेकिन अंत में निराश होकर अपने युवा पेंटर साथी के मां. निकोसे जी दीवार के पास बैठ गये।
कुछ देर के पश्चात मान्यवर साहब अपना कैडर कार्य करके उधर से ही लौट रहे थे। मान्यवर साहब ने माननीय निकोसे जी को देखा तो निकोसे जी से पूछा कि क्या हुआ? निकोसे जी ने साहब को बताया कि साहब दीवाल पर पेंटिंग के लिए सीढ़ी की जरूरत है। लेकिन रात काफी हो चुकी है, घरों की बत्ती बुझ चुकी है। इसलिए सीढ़ी नहीं मिल पा रही है।
इतना सुनने के बाद मान्यवर साहब खुद नीचे झुक गए और अपने कंधों पर युवा पेंटर साथी को बैठने के लिए कहा। फिर दीवाल के सहारे साहब अपने कंधे पर युवा पेंटर साथी को लेकर खड़े हो गए। इसके बाद उस युवा पेंटर साथी ने साहब के कंधों पर बैठकर नागपुर की दीवारों पर बहुजन संदेशों को उकेर दिया। इस तरह से अपने कंधों पर पेंटर को बिठाकर मान्यवर साहब ने बहुजन आंदोलन के संदेशों को दीवारों पर लिखकर जन-जन तक पहुंचाया और सकल बहुजन समाज को बहुजन आंदोलन से जोड़ने का अद्भुत काम किया। ऐसे थे भारतीय लोकतंत्र के महानायक और राष्ट्रिय नेता मान्यवर काशीराम साहेब।
रजनीकान्त इन्द्रा