Friday, March 8, 2019

बहुजन हकों पर लगातार हो रहे प्रहार के विभिन्न पहलू


मौजूदा एनडीए-२ सरकार में आये दिन बहुजन हकों पर लगातार प्रहार कियया जा रहा है। कभी एससी-एसटी (प्रिवेंशन ऑफ़ एट्रोसिटी) एक्ट, कभी आरक्षण पर तो कभी आदिवासी समाज के जल-जंगल व जमीन पर। हालाँकि ये गतिविधियाँ एक षड्यंत्र के तौर पर क्रियान्वन्ति की जा रही है लेकिन फिर भी लोकतंत्र के संदर्भ में इसके कई महत्वपूर्ण मायने नज़र आते है।
ब्राह्मणी सरकारों की नज़र से
मौजूदा मनुवादी पूंजीवादी सरकार ऐसा करके बहुजन समाज समाज की अपने अधिकारों, संविधान व लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति जागरूकता को आज़मा रही है। ऐसे में यदि बहुजन अपने अधिकारों को, संविधान व लोकतान्त्रिक मूल्यों के प्रति उदासीन हो जाता है तो ऐसे में मौजूदा सरकार अपने दलित-आदिवासी बहुजन विरोधी मंसूबों को लागू करने में सफल हो जाएगी। यदि बहुजन समाज विरोध करता है तो यथास्थिति बरकार ही रहेगी।
लोकतन्त्र की गहराती जड़ें 
बुद्ध-फुले-अम्बेडकर के वैचारिकी को मान्यवर साहेब, भारत में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका बहन कुमारी जी और अन्य बहुजन विचारकों-चिंतकों और बुद्धिजीवियों के संघर्षों के परिणामस्वरूप जो बहुजन कारवाँ है उसके चलते बहुजन समाज अपने मूलभूत-संवैधानिक और लोकतान्त्रिक हकों को पहचान रहा है। आज का बहुजन अपने दायित्वों को समझ रहा है। यही कारण है कि वो अपने बहुजन पार्टी को ना सिर्फ वोट करके अपनी राजनैतिक बहुजन पहचान को स्थापित कर चुका है बल्कि खुद भी सड़कों पर उतर कर अपने हकों के लिए सतत जद्दोजहद कर रहा है। ये बहुजन समाज अब ये समझ रहा है कि नेतृत्व का काम है मार्गदर्शन करना, रास्ता दिखाना, भटकाव के समय, बिखराव की परिस्थिति में सामने आकर समाज को एकजुट करते हुए परिवर्तन के कारवां को आगे बढ़ाना है। आपकी नेत्री हमेशा, हर विषय पर, हर जगह सक्रिय नहीं हो सकती है।नेतृत्व से इतर भी बहुजन समाज को अपनी जिम्मेदारियों को समझते हुए आगे आना होगा, तभी सामाजिक परिवर्तन हो सकता है। ऊना घटना, सहारनपुर दलित उत्पीड़न, एससी-एसटी (प्रिवेंशन ऑफ़ एट्रोसिटी) एक्ट के संदर्भ में पिछले साल ०२ अप्रैल के भारत बंद-२०१८ और १३ प्वाइंट रोस्टर के खिलाफ अभी हाल के ०५ मार्च २०१८ के भारत बंद ने ये साबित कर दिया है कि शनैः-शनै ही सही लेकिन दलित-बहुजन समाज अब अपने दायित्वों को बेहतर तरीके तरह से समझ रहा है। इस तरह से बहुजनों का अपने हकों के लिए सड़क पर उतरना, अपनी आवाज को दिल्ली के कानों तक पंहुचना, अपने संवैधानिक व लोकतान्त्रिक को बेहतरी से समझना, भारत के लोकतान्त्रिक नींव को मजबूत करता है। 
भारत बंद के सन्दर्भ में बहन जी के स्टैण्ड के मायने 
कुछ बहुजनों का कहना है कि जब दलित-आदिवासी-पिछड़ा बहुजन विरोधी कोई सरकारी या गैर-सरकारी संस्थाओं द्वारा अत्याचार होता है तो उसके विरोध में होने वाले भारत बंद आदि का बहन जी सपोर्ट नहीं करती है। इसके परिप्रेक्ष में बहन कुमारी मायावती जी को देखें तो हमारा मत है कि दलित-आदिवासी-पिछड़ा बहुजन विरोधी ब्राह्मणी सरकार के इस रवैये पर बहुजन नेत्री की देर से होनी वाली प्रतिक्रिया के तीन महत्वपूर्ण मायने है। 
पहला, कुछ बहुजन लोगों का ये कहना कि बहन जी ने भारत बंद आदि का सपोर्ट नहीं किया, न्यायोचित नहीं है क्योंकि जब सब लोग 02 अप्रैल 2018 के भारत बंद के बंदियों को भूल चुके थे तब बहन जी ने ही मध्य प्रदेश व राजस्थान में 02 अप्रैल 2018 के भारत बंद के दौरान जेलों में बंद बहुजन को रिहा करने के लिए कांग्रेस को मजबूर कर दिया! इससे साबित होता है कि बहुजन समाज के हितों को ध्यान में रखकर कर ही बहन जी ने बहुजन समाज के स्वतः प्रतिस्फुटित आन्दोलन, धरने और भारत बंद आदि का मौन, अप्रत्यक्ष व अलिखित तौर तौर पर खुला सपोर्ट किया है। 
दूसरा, हमारा मत है कि यदि बहन जी बहुजनों के भारत बंद व अन्य धरनों को लिखित और प्रत्यक्ष तौर पर खुला सपोर्ट कर देती है तो बहन जी के एक इशारे पर समस्त बहुजन समाज सड़क पर आ जायेगा जिसकों नियंत्रित करना किसी भी ब्राह्मणी सरकार के बूते की बात नहीं है! ऐसे में दलित-आदिवासी-पिछडा बहुजन विरोधी ब्रहम्णी सरकार बर्बरतापूर्वक बल व गोली का प्रयोग करेगी, बहुजन युवकों पर फर्जी केस दर्ज करवाकर को जेल में डाल देगी। जिसके परिणाम स्वरुप जहाँ एक तरफ स्कूलों-विश्वविद्यालयों की तरफ उन्मुख बहुजन छात्रों की पढ़ाई पर बुरा असर होगा, वहीं दूसरी तरफ सामाजिक व आर्थिक तौर पर कमजोर बहुजन समाज अदालतों के चक्कर काटते फिरेगा। ऐसे में बहुजन महानायिका का खुला सपोर्ट खुद बहुजन समाज पर ही भरी पड़ जायेगा। ऐसे में बहुजनों को ही मुशीबत में डालकर बहुजनों का कौन सा हित होगा? इसलिए बहुजनों द्वारा किये जा रहे धरनों, आन्दोलनों व भारत बंद का लिखित व प्रत्यक्ष तौर सपोर्ट ना करना न्यायोचित है। 
तीसरा, हमारा मानना है कि एससी-एसटी (प्रिवेंशन ऑफ़ एट्रोसिटी) एक्ट, १३ प्वॉइंट रोस्टर व आदिवादियों को जगलों से बेदखल करने आदि मामलों में बहुजन नेत्री बहन जी खुद जान-बूझकर देर से प्रतिक्रिया करती है। बहन जी खुद चाहती है कि दलित-आदिवासी-पिछड़ा बहुजन समाज अपने अधिकारों के प्रति ना सिर्फ जागरूक हो बल्कि अपने अधिकारों के लिए खुद स्टैण्ड लेना सीख जाय। यही कारण है पिछले दो सालों में बहन जी ने बहुजनों को मौका दिया कि वो अपनी पीड़ा को खुद देख के सामने रखना सीखें। और, बहुजन भी बिना किसी खुले राजनैतिक सहयोग के अपने अधिकारों के लिए ना सिर्फ सड़क पर उतर चुका है बल्कि ब्राह्मणी सरकारों को बैकफुट पर आने को मजबूर कर दिया है। 
निष्कर्ष 
लोकतंत्र में सक्षम सवर्ण तबके द्वारा बहुजन समाज का शोषण और अपने शोषण के खिलाफ बहुजनों का एकजुट होकर सवर्ण हुकूमत का विरोध करना, ये प्रमाणित करता है कि लोकतंत्र अपने घावों को खुद ही ठीक करता है। और, यह लोकतान्त्रिक प्रणाली की खूबसूरती है। ऐसे में हमारा स्पष्ट मत है कि बहन जी द्वारा अप्रत्यक्ष-अलिखित सपोर्ट द्वारा बहुजनों का मुख्य नेतृत्व से इतर अपने मूलभूत-संवैधानिक-लोकतान्त्रिक हकों के लिए बहुजन समाज का सड़क पर उतरना, अपने संवैधानिक-लोकतान्त्रिक दायित्वों को बेहतरी से समझना, ब्राह्मणी सरकारों को बैकफुट पर लाने में सफल होना, भारत में बहुजन जागरूकता, बहुजन आन्दोलन के बढतें कदमों व भारत में संविधान की मंशा के अनुरूप लोकतंत्र की गहराती जड़ों का द्योतक है।
रजनीकान्त इन्द्रा