Wednesday, May 1, 2019

वैवाहिक पूँजीवाद और वैवाहिक समाजवाद



विवाह, जीवन का वह मधुर उत्सव जिसमे एक ऐसे दोस्त का आगमन होता है जो अपने आपमें माँ - बाप , भाई - बहन , बेटा - बेटी , पति - पत्नी और दोस्त - प्रेमी जैसे पवित्र रिश्तों को समेटे रखता है। एक ऐसा दोस्त जो हर सुख - दुःख में सदा साथ रहता है। हमारे ख्याल से, शादी जीवन का सबसे अनोखा और महत्वपूर्ण निर्णय होता है। जीवन का यह बंधन, हमारे जीवन के अधूरेपन और खालीपन की भरपाई करते हुए हमारे जीवन की दिशा और दशा दोनों को तय करने में सबसे अहम भूमिका निभाता है।

विवाह जैसे इतने अहम् रिश्ते में दहेज़ जैसी बीमारी के चलते देश की बहुत बड़ी आबादी गरीबी की दलदल में धसती जा रहीं है। इस दहेज़ का विवाह से सीधे तौर पर कोई नहीं सम्बन्ध है लेकिन फिर भी ये दहेज़ की परम्परा शादी में सबसे अहम् रोल अदा करता है। दहेज़ की इस बीमारी की सबसे बड़ी मार बहुजनों पर ही पड़ती रहीं हैं, और आगे भी पड़ती रहेगी। इसके चलते लोगों को अपनी जमीन-जायजाद तक बेचनी पड़ जाती है, फिर भी शादी के बाद लड़की ससुराल में खुशी, शान्ति से रह पाए, उसको पति, सास ससुर और ससुराल के अन्य लोगों का स्नेह और प्यार मिल पाए इसकी संभावना कम ही रहती है, साथ ही साथ इस बात की संभावना भी कम और न के बराबर रहती है कि ससुराल वालों की और दहेज लेने की भूख शान्त हो सके।

इस दहेज के सिलसिले में ही रायबरेली की लड़की की कहानी सामने आ जाती हैं। इस बहादुर बच्ची ने अपने स्कूल के स्पोर्ट्स में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। स्पोर्ट्स में कई सारे सर्टिफिकेट हासिल किये। लेकिन गरीबी लाचारी की वजह से उसको पढ़ाई-लिखाई के साथ-साथ मजदूरी भी करना पड़ता था। उसने अपनी बारहवीं की पढाई के लिए नरेगा में काम किया है, दूसरों के खेतों में मजदूरी भी की है। घर की बद से बदतर हालत के चलते वो नौकरी की तलाश में लखनऊ अपने चचेरी बहन के घर पर आ गयी लेकिन उन लोगों ने उसको अपने घर का काम-काज करने वाली नौकरानी समझ लिया। जब उसने अपने पढाई करने की इच्छा व्यक्त की तो उसके लिए पैसों की बात सामने आयी। पैसों के लिए उसने नौकरी करने को सोचा। नौकरी करने की बात सुनकर उसके चचेरी बहन-बहनोई ने उसे अपने घर में रखने से मना कर दिया।

इसके बाद उस स्वाभिमानी लड़की ने अपने चचेरी बहन का घर छोड़ दिया। अमीनाबाद में नौकरी के लिए भटकती रहीं। एक किताब की दुकान वाले ने उसे ऑक्सफ़ोर्ड की डिक्सनरी बेचने का काम दिया। चार दिनों में वो बिना खाये-पिये चार रात चारबाग़ रेलवे स्टेशन पर बितायी। चार दिन बाद दो डिक्सनरी बिकी। दुकान वाले ने सिर्फ एक ही डिक्सनरी का पैसा दिया, एक का उधर कर दिया। चार दिनों की भूखी-प्यासी लाचार उस लड़की ने चार दिन के बाद पहली बार चाय पी। इस तरह से उसने कभी कैंटीन में काम किया, फिर कॉल सेंटर में काम किया और आज वो लड़की लखनऊ के एक कोचिंग संस्थान में मैनेजर के तौर पर कार्य कर रहीं हैं। अपने इन संघर्ष भरे दिनों के दरमियान ही उसने अपनी बी-ए, पीजीडीसीए और एल.एल.बी की पढाई की है। इसी दरमियान वो लड़की बाबा साहेब के मिशन व बसपा पार्टी के लोगों के सम्पर्क में आयीं। अपने इसी संघर्ष और वाकपटुता की बदौलत आज उस लड़की ने अपनी एक पहचान कायम कर ली है। लेकिन उसकी नौकरी सिर्फ उसके घर वालों के पेट भरने तक के लिए ही काफी है। आज उसकी उम्र २८ साल के आस-पास हैं। आज तक उस लड़की के माँ-पिता ने कभी भी उससे शादी तक की बात नहीं की क्योंकि शादी के लिए दहेज़ चाहिए, बारातियों की सेवा करने के लिए पैसे चाहिए जो कि उसके पास नहीं हैं। इसलिए उस लड़की ने शादी करने का इरादा ही छोड़ दिया था।

अपने घर-परिवार से दूर जिंदगी से लड़ती एक लड़की समाज में घट रहीं घटनाओं के चलते लोगों की टिपण्णी से नहीं बच पायी। लोग उसके चरित्र पर शक करते हैं। लोगों को लगता हैं कि एक लड़की कैसे अकेली लखनऊ जैसे शहर में सुरक्षित रह सकती हैं? लोगों को लगता हैं कि यदि वो अपने संघर्षों के परिणाम स्वरुप आज अपनी पहचान बनाने में कामयाब हुई तो जरूर उसने कोई अनैतिक काम किया होगा। इस तरह से उसके चरित्र पर कीचड़ उछाला गया हैं। समाज के इस पुरुषवादी नजरिये को सन्दर्भ में रखते हुए वो लड़की कहती हैं कि शायद मेरी जिंदगी में कभी कोई सुख और शुकून नहीं लिखा हैं। 

इसी दरमियान उसकी मुलाकात उसके बुद्ध-अम्बेडकरी भाई के परिचय से एक मिशनरी इंसान से हुई जो कि एक अधिकारी के पद पर कार्यरत हैं। वो उस लड़की की शक्ल-सूरत से नहीं बल्कि उसके संघर्षों, उसकी सादगी, उसकी बुद्ध-अम्बेडकरी वैचारिकी व जीवन-शैली से बहुत प्रभावित हुए। उन्होंने शादी का निर्णय कर लिया लेकिन उस लड़की की जिंदगी पर उठ रहे सवालों के चलते ये उनके भी बहुत मुश्किलें खड़ी करने वाली होगी। उस लड़की ने उस अधिकारी से कहा है कि यदि किसी कारणवश उसकी शादी उनसे मिशनरी अधिकारी से नहीं हो पायी तो वो शादी नहीं करेगी क्योंकि शादी करने के दहेज़ चाहिए, बारातियों की आव-भगत के पैसे चाहिए जो कि उसके पास नहीं है। उस लड़की को दहेज न चाहने वाला होने साथ-साथ लड़का भी शीलवान, सादगी व बुद्ध-अम्बेडकरी जीवन-शैली वाला ही चाहिए जो कि आज भी बहुजन समाज में बहुत कठिन है। 
इसी तरह की एक लड़की फिरोजाबाद की है जिसने शादी ना करने का फैसला सिर्फ और सिर्फ इसलिए ताकि उसके भैया को अपने खेत ना बेचना पड़े। इस तरह से देखें तो हमारा समाज और इसका हर परिवार दहेज़ की मार झेल रहा हैं। कोई भी परिवार इससे अछूता नहीं है। सरकार ने दहेज के खिलाफ कानून बनायें हैं, लेकिन दहेज़ का रोग इस कदर हावी है कि लोग चाहते हुए भी इससे दूर नहीं हो पा रहें हैं। आज शादी में मिला दहेज़ लोगों का स्टेटस सिम्बल बन चुका है। जितना बड़ा दहेज़ उतनी बड़ी इज्जत, उतना बड़ा स्टैट्स, उतना ही बड़ा समाज में सम्मान।

पहले ये माना जाता था कि लडके के माँ-बाप ही दहेज़ की माँग करते हैं लेकिन आज तो युवा वर्ग जिसके कंधे पर देश की बाग़डोर हैं, वो खुद खुलकर अपनी डिमाण्ड बता रहा हैं। इस तरह से दहेज़ के लिए माँ-बाप द्वारा खुद खुलेआम आम लड़के बेचे जा रहें हैं, और लडके खुद भी बिक रहें हैं। इस दहेज़ की साथ ही एक नई बीमारी ने समाज में एक और रोग फैला दिया हैं -वैवाहिक पूँजीवाद। और, इस सामाजिक बीमारी का बेहतर इलाज - वैवाहिक समाजवाद में निहित है। हालाँकि ये वैवाहिक पूँजीवाद और समाजवाद निर्दोष प्रेम वाले युगलों के विवाह में लागू नहीं होता हैं। ये मुख्यतः घर-परिवार-रिश्तेदारों-सगे-सम्बन्धियों द्वारा सुझाई गयी और कराई जा रही अरेंज मैरिज, जो कि भारत में एक तथाकथित सम्मानीय परम्परा के तहत स्वीकृत हैं, में पूर्णतः लागू होता है। और, ये संकल्पना इसी अरेंज मैरिज के सन्दर्भ में प्रस्तावित है।

वैवाहिक पूँजीवाद

वैवाहिक पूँजीवाद में यदि लड़का नौकरी या व्यवसाय में है तो उसको दहेज़ के साथ-साथ नौकरी या व्यवसाय या अपने समक्ष पेशे वाली ही लड़की भी चाहिए। ठीक यही डिमांड लड़कियों की भी होती है। जैसे - प्राइमरी/जूनियर/इण्टर कॉलेज महाविद्यालय के अध्यापक की पहली शर्त होती है कि लड़की/लड़का अध्यापक हो, इंजिनियर को इंजिनियर, डॉक्टर को डॉक्टर, बैंकर को बैंकर या फिर इनके आपस वाले कॉम्बिनेशन ही चाहिए। इनमे से कोई भी बेरोजगार से शादी करने को तैयार नहीं दिखता हैं।

इस तरह से दहेज़ के साथ-साथ दो अलग-अलग घरों की नौकरियां (रोजगार के सन्दर्भ में) किसी एक घर तक ही सिमट जाती हैं। मतलब कि पूँजी वही पहुँच रहीं है जहाँ पर पहले से मौजूद है। ये कुछ और नहीं बल्कि पूँजी का कॉन्सेंट्रेशन मात्र है। इस तरह से समाज का प्रतिनिधित्व करने वाली सरकारी व गैर-सरकारी नौकरियां व इसके परिणाम स्वरुप आने वाली पूँजी और सुविधाएँ कुछ चंद घरों में ही सिमट जाती हैं। नतीजा हजारों जातियों में बंटे समाज की जातियां खुद भी अमीर-गरीब के दो खेमे में बंट जाती हैं।

इस वैवाहिक पूँजीवाद से परिवारों में नौकरियां और पूँजी तो बढ़ जाती हैं लेकिन पारिवारिक मूल्य भी खो जाते हैं। उदाहरणार्थ- यदि पति-पत्नी दोनों नौकरी-पेशे वाले हैं तो उनके बच्चों को माँ-बाप का वाजिब प्यार, केयर, लगाव आदि नहीं मिल पाता है। नतीजा-बच्चे केयर, प्यार और लगाव की तलाश में कहीं और करने लगते हैं, अकेलापन महसूस करते हैं, मादक पदार्थों का सेवन करने लगते हैं, अनैतिकता आदि में जकड जाते हैं, मानसिक तौर पर कमजोर हो जाते हैं, असुरक्षित महसूस करते हैं, साथ ही इस स्थिति में बच्चों का यौन शोषण होने की संभावना भी बढ़ जाती है क्योंकि माँ बाप के प्यार की तलाश कर रहे बच्चे प्यार, स्नेह, केयर और एक नरपिशाच की हवस की भूख में अंतर को समझ नहीं पाते हैं, औऱ जब तक समझ पाते हैं, तब तक काफी देर हो चुकी होती है।

अपने नौकरी-पेशे की वजह से अक्सर पति-पत्नी एक दूसरे को भी समय नहीं दे पाते हैं। उनके बीच वो अंतरंगता और रोमांस नहीं रह जाता है, दोनों अपने-अपने पेशे के कारण थके रहते हैं, उनमे कोई लगाव वाला संवाद नहीं हो पता हैं। उनका रिश्ता एक व्यापर बन जाता हैं, दोनों एक-दूसरे के लिए स्थाई ग्राहक बनकर रह जाते हैं। दिन-भर अपने-अपने कामों में व्यस्त होकर आना, बाई द्वारा बनाये गए खाने को खाने के बाद एक दूसरे के साथ हमबिस्तर होना फिर सो जाना। यही उनकी जिंदगी बन जाती है। उनके रिश्तों की मधुरता खो जाती है, प्रीत गायब हो जाती है, एहसासों का दमन हो जाता है। फिर अपनी निजी जिंदगी के इस वजह के चलते ये पूंजीवादी मानसिकता के लोग शुकून, केयर और प्यार की खोज करते हैं। नतीजा - ये अपने प्यार, शुकून और केयर को अपने जीवनसाथी, बच्चों और बुजुर्गों के साथ में खोजने के बजाय शहरों की गलियों में खोजने लगते हैं। परिणाम - परिवार में कलह, व्यभिचार, शोषण, अनैतिकता आदि।

इसके साथ-साथ बहु-बेटे दोनों के अक्सर या यूँ कहें कि रोज घर से बाहर रहने के कारण घर के बुजुर्ग, जो हमारी सामाजिक और पारिवारिक रीढ़ हैं, वो घर में अकेलापन, असुरक्षा, निराशा आदि से जकड जाते हैं, उम्र के कारण वो कहीं घूमने-टहलने भी नहीं जा सकते हैं। नतीजा - परिवार के आपसी रिश्ते व आपसी लगाव में भरी गिरावट आ जाती है, मनमुटाव हो जाता है, एक-दूसरे के प्रति संवेदनशीलता और केयर में भी ह्रास होता है।

वैवाहिक पूँजीवाद के चलते इसकी गिरफत में रहने वाले ऐसे परिवारों का सामाजिक दायरे और अपने रिश्तेदारों तक की पहुँच, मेल-मिलाप आदि सब एक औपचारिकता बनकर रह जाती है। उनके बीच मधुरता, लगाव और परवाह नहीं रह जाती है। रिश्ते व्यापर बन जाते हैं, रिश्तेदार ग्राहक मात्र बनकर रह जाते हैं। इस तरह से वैवाहिक पूँजीवाद में एक ही घर में सरकारी/गैर-सरकारी नौकरियों और पूँजी व इससे उत्पन्न होने वाली क्षणिक व भौतिक सुख-सुविधाओं से अलग घर में कुछ नहीं रह जाता हैं।

वैवाहिक समाजवाद

सर्वविदित है कि मनुवादी नीतियों व सामाजिक ताने-बाने के कारण भारत गरीबी लाचारी जाति-पाँति आदि से जूझ रहा देश है। रोजगार के माध्यम जरूरत के अनुरूप नहीं है। रोजगार सम्मत शिक्षा महँगी हो चुकी है। ऐसे में आर्थिक रूप से संपन्न लोगों के ही घरों तक शिक्षा और रोजगार की पहुँच सीमित हो चुकी है। ऐसे में दहेज़ और अपने तरह ही रोजगार संपन्न वर-वधु की तलाश के चलते सरकारी-गैरसरकारी नौकरियां और रोजगार कुछ चंद संपन्न घरों तक में ही सीमित हो चुके हैं। जातियों में बंटे समाज के भीतर एक ही जाति में अमीरी-गरीबी की खाई इस कदर गहरी होती जा रही है कि एक ही जाति में आर्थिक आधार पर ही दो फिरके (अमीर और गरीब) तैयार हो चुके हैं। लोग अपने आर्थिक हैसियत और नौकरी आदि को मानक मानकर शादियां कर रहे है जिसके चलते समाज पूरी तरह से वैवाहिक पूँजीवाद की गिरफ्त में कैद हो चुका है। इस वैवाहिक पूँजीवाद की बीमारी से निजात का एक बेहतर रास्ता है-वैवाहिक समाजवाद

वैवाहिक समाजवाद की संकल्पना में, देश के जिम्मेदार नागरिकों को संविधान निहित समाजवाद (पूँजी का विकेन्द्रीकरण) के तहत पूँजी व पूँजी पैदा करने वाले संसाधनों के विकेन्द्रीकरण की तरफ रुख करना चाहिए। ऑरेंज मैरिज के सन्दर्भ में वैवाहिक समाजवाद की भावना के तहत लोगों को चाहिए कि जीवन-शैली, जीवन-वैचारिकी आदि मूलभूत मानकों के बाद नौकरी-रोजगार-व्यवसाय वाले लोग समाज के लोग उस तबके की तरफ रुख करें जो बेरोजगार हैं, गरीब हैं। इससे ये होगा कि दो नौकरियाँ-पेशा-व्यवसाय किसी एक ही घर में सीमित होने के बजाय वो नौकरियाँ दो अलग-अलग घरों में बट जायेगीं। परिणामस्वरूप, दो घर अपने मूलभूत जरूरतों को पूरा करने में सक्षम हो सकेंगे। पूँजी, रोजगार,सरकारी-गैरसरकारी से मिलने वाले सुख-सुविधाएँ और संसाधन का जहाँ एक तरफ विकेन्द्रीकरण हो जायेगा, वहीँ दूसरी तरफ, पारिवारिक मूल्यों, सामाजिक सम्पदा, बच्चों और बुजुर्गों के प्रति प्यार, लगाव, केयर आदि के साथ-साथ पति-पत्नी अंतरंगता-रोमांस, मोहब्बत आदि भी पूरी सम्यकता के साथ उपस्थित रहता है।
इसलिए देश और देश के संविधान और इनमे निहित मूल्यों के लिए देश के नवयुवकों-नवयुवतियों और उनके घर-परिवार के सभी सभ्य व जिम्मेदार लोगों को चाहिए कि लोग वैवाहिक रिश्तों में वैवाहिक पूँजीवाद की बीमारी को नेस्तनाबूद करते हुए वैवाहिक समाजवाद की संकल्पना को आत्मसात करें, प्रचारित-प्रसारित करें और एक न्याय-समता-स्वतंत्रता-बंधुता व मानवता पर आधारित बेहतरीन समाज के सृजन में अहम् सहयोग करें।

रजनीकान्त इन्द्रा