Wednesday, March 31, 2021

बाबा साहब डॉ अम्बेडकर - संविधान निर्माता

बाबा साहब डॉ अम्बेडकर - संविधान निर्माता

संविधान को मुकम्मल स्वरुप देने में बाबा साहब का कितना योगदान है, क्यों बाबा साहेब को संविधान निर्माता कहा जाता है, इसका जवाब संविधान सभा में दिये उनके भाषण से स्पष्ट होता है। विभिन्न मुद्दों व सभी बिन्दुओं पर बिताए समय व खर्च किए गए शब्दों से साबित होता है।

बाबा साहेब द्वारा संविधान सभा के तमाम भाषणों में खर्च किए गए शब्दों से संविधान के प्रति बाबा साहेब की लगन, गहन अध्ययन, जानकारी, जागरुकता एवं देश, देशवासियों के प्रति ईमानदारी व निष्ठा के साथ समतामूलक भारत राष्ट्र निर्माण के लिए उनकी प्रतिबद्धता स्पष्ट होती है।

वैसे तो संविधान सभा में विमर्श का हर दिन महत्वपूर्ण है परन्तु फिर इन सभी महत्वपूर्ण दिनों में से कुछ विशेष का जिक्र करते हुए सुविख्यात प्रोफेसर विवेक कुमार ने संविधान सभा में बाबा साहब द्वारा खर्च किए गए शब्दों की खुद गणना की है। प्रो विवेक कुमार जी द्वारा की गयी इस गणना व पड़ताल, जो कि निम्नांकित तीन बिन्दुओं में वर्णित हैं, के मुताबिक स्पष्ट हैं कि -

1.     बंगाल की जनरल सीट से जीत कर आये बाबा साहेब ने संविधान सभा में दिसम्बर 17, 1946 को 3310 शब्दों का अपना प्रथम भाषण दिया जो कि संविधान के ख़ाके के प्रति बाबा साहब की गहरी जानकारी व गम्भीरता और भारत राष्ट्र निर्माण के लिए उनकी उत्सुकता व समस्याओं के प्रति उनकी चिंता को बताता है।

आज से ७४ साल पहले अपने इसी भाषण में, 17 दिसम्बर 1946, बाबासहब ने कांग्रेस और मुस्लिम लीग के सदस्यों को समझाया था कि राष्ट्र की प्रतिष्ठा के आगे किसी पार्टी या लीडर की प्रतिष्ठा का कोई मूल्य नही होता।

2.     संविधान सभा में नवंबर 04, 1948 को संविधान का मसौदा पेश करने के दौरान राष्ट्र निर्माता बाबा साहेब का भाषण 8334 शब्दो का रहा जो कि देश की जनता, उनके लिए उनकी हुकूमत को कैसे स्थापित करना चाहिए, को स्पष्ट करता है।

3.     नवंबर 25, 1949 को 3900 शब्दों में परम पूज्य बाबा साहेब ने संविधान सभा में संविधान की फाइनल कापी संविधान सभा के अध्यक्ष को सौपने के दौरान संविधान सभा व देश की जनता को भारत के अतीत से सीखने की सलाह देते हुए वर्तमान स्थिति के साथ-साथ भविष्य की चुनौतियां क्या है, उनसे कैसे निपटना है, सरकारों को चलाने वाले लोग कैसे होने चाहिए, आदि को स्पष्ट किया।

4.     संविधान सभा के माननीय सदस्यों द्वारा 7635 संशोधन लाया गया जिनका अध्ययन करते हुए बाबा साहेब ने 5162 संसोधन को रिजेक्ट किया तथा 2473 संसोधन को संविधान सभा के पटल पर चर्चा करते हुए समायोजित किया, जो कि संविधान निर्माण के प्रति बाबा साहेब की निष्ठा, लगन व प्रतिबद्धता जो स्थापित करता हैं। 

5.     संविधान को अंतिम रूप देने में डॉ. आंबेडकर की भूमिका को रेखांकित करते हुए भारतीय संविधान की ड्राफ्टिंग कमेटी के एक सदस्य टी. टी. कृष्णमाचारी ने 25 नवम्बर 1948 में संविधान सभा में कहा था, ‘सम्भवत: सदन इस बात से अवगत है कि आपने (ड्राफ्टिंग कमेटी) में जिन सात सदस्यों को नामितकिया है, उनमें एक ने सदन से इस्तीफा दे दिया है और उनकी जगह अन्य सदस्य आ चुके हैं। एक सदस्य की इसी बीच मृत्यु हो चुकी है और उनकी जगह कोई नए सदस्य नहीं आए हैं। एक सदस्य अमेरिका में थे और उनका स्थान भरा नहीं गया। एक अन्य व्यक्ति सरकारी मामलों में उलझे हुए थे और वह अपनी जिम्मेदारी का निर्वाह नहीं कर रहे थे। एक-दो व्यक्ति दिल्ली से बहुत दूर थे और सम्भवत: स्वास्थ्य की वजहों से कमेटी की कार्यवाहियों में हिस्सा नहीं ले पाए। सो कुल मिलाकर हुआ यह कि इस संविधान को लिखने का भार डॉ. आंबेडकर के ऊपर ही आ पड़ा है। मुझे इस बात पर कोई संदेह नहीं है कि हम सब को उनका आभारी होना चाहिए कि उन्होंने इस जिम्मेदारी को इतने सराहनीय ढंग से अंजाम दिया है।[1]

25 नवम्बर 1949 को अपने भाषण में श्री महावीर त्यागी कहते हैं कि "मेरे सामने एक मूर्त तश्वीर हैं। डॉ अम्बेडकर, जिसके मुख्य कलाकार हैं, ने अपना ब्रश नीचे रख दिया और उस तस्वीर का अनावरण कर दिया ताकि लोग उसे देख सके और उस पर अपनी राय दे सकें।[2]"

साथ ही बाबा साहेब के प्रति श्री जगत नारायण लाल, श्री सुरेश चंद्र मजूमदार, श्री राज बहादुर आदि सभी के आभार व्यक्त करने के बाद अन्त में संविधान सभा के अध्यक्ष श्री राजेंद्र प्रसाद जी ने भी बाबा साहेब के त्याग और समर्पण की सराहना करते हुए हैं कि "सभापीठ के आसान पर बैठकर और प्रतिदिन की कार्यवाही का सञ्चालन करते हुए मैंने यह महसूस किया हैं, जो कि किसी दुसरे ने महसूस नहीं किया होगा कि प्रारूप समिति के सदस्यों, विशेषकर इसके अध्यक्ष डॉ अम्बेडकर ने अपने ख़राब स्वस्थ के बावजूद जिस उत्साह और समर्पण से कार्य किया हैं, वह दुर्लभ हैं। (सदस्यों ने ख़ुशी प्रकट की) हमने जब उन्हें प्रारूप समिति के लिए चुना और उसका अध्यक्ष बनाने का निर्णय किया, उससे और अधिक सही निर्णय और कोई नहीं हो सकता था। उन्होंने ने ना सिर्फ अपने चयन को सही ठहराया, बल्कि जिस कार्य को पूरा किया हैं, उसे सरल भी बना दिया हैं।[3]" संविधान सभा के सभी सदस्यों समेत संविधान सभा के अध्यक्ष द्वारा बाबा साहेब के प्रति व्यक्त किया गया आभार जहाँ संविधान निंर्माण में बाबा साहेब के अथक परिश्रम, उनके त्याग और समर्पण को व्यक्त करता वहीँ बाबा साहेब को संविधान कर शिल्पकार भी प्रमाणित करता हैं। 

6.     देश व देशवासियों को आगाह करते हुए अपने इसी भाषण में बाबा साहब ने 26 नवम्बर,1949 को संविधान सभा में कहा था 'किसी भी देश का संविधान चाहे कितना ही अच्छा क्यों ना हो अगर उसके चलाने वाले खराब होंगे तो अच्छा से अच्छा संविधान भी खराब हो जाएगा' और 'किसी भी देश का संविधान चाहे कितना ही खराब क्यों ना हो अगर उसके चलाने वाले अच्छे होंगे तो खराब से खराब संविधान भी अच्छा हो जाएगा"।[4] बाबा साहेब का देश के नाम ये सन्देश बाबा साहेब की देश, इसकी व्यवस्था व संविधान के प्रति गंभीरता व आने वाली चुनौतियों के प्रति चिंता को बयां करता हैं। 

7.     भारत के बाहर के विशेषज्ञों की तरफ रूख़ करे तो भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के आत्मकथा लेखक माइकेल ब्रेचर ने भी बोधिसत्व बाबा साहेब डा आंबेडकर को ही भारतीय संविधान का वास्तुकार/शिल्पकार माना और उनकी भूमिका को संविधान के निर्माण में फील्ड मार्शल के रूप में रेखांकित किया।[5]

उपरोक्त उदाहरण बताते है कि संविधान निर्माण में बाबा साहब ने कितनी मेहनत की है, जो साबित करते हैं कि बोधिसत्व राष्ट्र निर्माता बाबा साहेब डा अम्बेडकर ही संविधान निर्माता (Father on Constitution) हैं।

रजनीकान्त इन्द्रा

इतिहास छात्र, इग्नू-नई दिल्ली


[1] संविधान सभा की बहस, खंड- 7, पृष्ठ- 231

[2] डॉ बाबा साहेब अम्बेडकर, राइटिंग्स एन्ड स्पीच, वॉयलूम - 13, पृष्ठ संख्या - 1205 

[3] बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर, सम्पूर्ण वाङ्मय, खण्ड - 30, पृष्ठ संख्या - 221 

[4] बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर, सम्पूर्ण वाङ्मय, खण्ड - 30, पृष्ठ संख्या - 211 

[5] नेहरू : ए पॉलिटिकल बायोग्राफी द्वारा माइकल ब्रेचर, 1959

Monday, March 29, 2021

गैर-बराबरी की संस्कृति को स्थापित करने में अहम् भूमिका निभाते बहुजन

गैर-बराबरी की संस्कृति को स्थापित करने में अहम् भूमिका निभाते बहुजन

बाबा साहेब ने कहा हैं कि भारत का इतिहास कुछ और नहीं बल्कि दो संस्कृतियों (ब्राह्मणवाद/विषमवातावादी/गैर-बराबरी और श्रमण/समतावादी) का द्वन्द हैं। यह सांस्कृतिक द्वन्द अनवरत चला रहा हैं। गैर-बराबरी की संस्कृति से पीड़ित देश की बहुजन आबादी अपने इतिहास का अध्ययन कर रहीं हैं, उसे पहचान रहीं परन्तु महत्वपूर्ण सवाल यह हैं कि इसके बावजूद बहुजन समाज इसकी पकड़ से बाहर क्यों नहीं निकल पा रहा हैं? हमारे विचार से इसके मुख्यतः तीन कारण हैं।

पहला, जागरूक बहुजनों का प्रतिक्रियावादी रवैया 

बहुजन समाज आज तक यह नहीं समझ पाया हैं कि उसकी लड़ाई किससे हैं? बहुजन समाज यह समझता हैं कि उसकी जंग इंसानों से हैं जबकि उसकी गुलामी का कारण गैर-बराबरी की विचारधारा संस्कृति हैं। जैसे ही गैर-बराबरी की संस्कृति का कोई त्योहार आता हैं वैसे ही समतावादी विचारधारा संस्कृति के लोग गैर-बराबरी की संस्कृति का पोस्टमॉर्टम करने लगते हैं, उसके खिलाफ लिखने लगते हैं।  

गैर-बराबरी की संस्कृति के चतुर लोग बहुजन समाज की प्रवृत्ति से अच्छी तरह वाकिफ होते हैं। इसलिए वे भी अपनी संस्कृति के पक्ष में थोड़ी सी सफाई प्रस्तुत कर समतावादी संस्कृति के चाहनों वाले परन्तु प्रतिक्रियावादी लोगों को आकर्षित कर लेते हैं। जैसा कि आप सोशल मिडिया पर देख सकते हैं कि समतावादी लोग अक्सर गैर-बराबरी की संस्कृति की पोल खोलते ही रहते हैं। और यदि ये कभी मंद भी पड़ते हैं तो विषमतावादी संस्कृति के लोग खुद विमर्श छेड़ देते हैं। यहीं नहीं, चर्चा इस कदर छेड़ दी जाती हैं कि विषमतावादी संस्कृति का आदी हो चुका बहुजन समाज का एक बड़ा हिस्सा खुद बहुजन समाज के समतावादी लोगों के खिलाफ खड़ा हो जाता हैं। 

नतीजा, एक बड़ा विमर्श छिड़ जाता हैं, चर्चा छिड़ जाती हैं जिसके केन्द्र में गैर-बराबरी की संस्कृति होती हैं, इसके त्योहार होते हैं, विचारधारा होती हैं, इसके नायक-नायिकाएं होती हैं। ऐसे में बहुजन समाज के लोगों को सोचने की जरूरत हैं कि इस पूरे चर्चा विमर्श में बुद्ध-फुले-शाहू-अम्बेडकर की समतावादी संस्कृति, इसकी विचारधारा और इसके नायक और नायिकाएं व उनके सन्देश कहाँ हैं? यदि आपके विमर्श चर्चा के केंद्र में आपके नायक-नायिकाएं, आपकी संस्कृति पर्व आदि नहीं हैं तो आपकी ऊर्जा और समय आपके अंदर गैर-बराबरी की संस्कृति के प्रति पल रहे गुस्से को थोड़ी शांति जरूर दे सकती हैं परन्तु बढ़ावा गैर-बराबरी की संस्कृति को ही मिलेगा क्योकि "जो दिखता हैं वहीँ बिकता हैं"

दूसरा, विचारधारा संस्कृति के बजाय इंसानों से लड़ना 

     इतिहास के नकारात्मक तथ्य भी समाज को जागरूक करने के लिए आवश्यक हैं परन्तु इन नकारात्मक तथ्यों का इतना प्रचार भी ना किया जाय कि आपकी खुद की सकारात्मक विचारधारा व संस्कृति ही दफ़न होने लगे। दुखद हैं कि बहुजन समाज को बुद्ध-फुले-शाहू-अम्बेडकरी विचारधारा से जोड़ने के बजाय बहुजन समाज के रजिस्टर्ड संगठनों व जागरूक लोगों द्वारा बहुजन समाज को जागरूक करने के नाम पर गैर-बराबरी की संस्कृति के लोगों के प्रति नफ़रत करना, लड़ना सिखाया जा रहा हैं। 

ये गम्भीरतापपूर्वक सोचने का विषय हैं कि आये दिन सोशल मिडिया पर, पत्रिकाओं में, बहुजन नायकों के जन्मोत्सव पर, ऐतिहासिक बहुजन पर्वों पर बहुजन समाज के लोग नकारात्मक ही सहीं लेकिन प्रचार किसका करते हैं? ये लोग भूलते जा रहे हैं कि निंदा से इंसानों को मारा जा सकता हैं परन्तु विचारधारा संस्कृति को नहीं। किसी भी विचारधारा, संस्कृति पर जितनी चर्चा होगी, विमर्श होगा वो उतनी ही मजबूती से जड़ जमाती जाएगी। यही कारण हैं कि गैर-बराबरी की संस्कृति के पैरोकारों ने समतावादी बुद्ध-रैदास-फुले-अम्बेडकर की वैचारिकी, संघर्ष, गौरवगाथाओं इतिहास को किताबों, सेमिनारों, शोधपत्रों से दूर कर दिया परिणामस्वरूप भारत में समतावादी संस्कृति कमजोर पड़ने लगी थी परन्तु मान्यवर साहेब और भारत महानायिका बहन जी के संघर्षों की वजह आज समतावादी संस्कृति, विचार, नायक-नायिकाएं आदि उस राजनीति का हिस्सा हैं जो सामाजिक सांस्कृतिक शैक्षिणिक आदि पहलुओं को प्रभावित करती हैं। 

इसलिए यदि विषमतावादी विचारधारा को नष्ट करना हैं तो उसको चर्चा के केंद्र से हटाना होगा, विमर्श से दूर करना होगा। मण्डल मसीहा मान्यवर साहेब कहते हैं कि  "नकारात्मक प्रचार भी एक प्रचार होता हैं" मतलब कि यदि बहुजन समाज को लगता हैं कि आये दिन विषमतावादी संस्कृति को कोस कर वे बहुजन आन्दोलन को आगे ले जा रहे हैं तो ये उनका भ्रम मात्र हैं।

तीसरा, बहुजन समाज द्वारा अपने एजेण्डे पर काम ना करना 

बहुजन समाज के लोग अपने समय ऊर्जा का अधिकांश समय अपने विरोधी संस्कृति की निंदा में बिताते हैं जिसके चलते ये खुद क्या चाहते हैं, इनकी संस्कृति और विचारधारा क्या हैं हैं, इनके नायक-नायिकाएं कौन हैं, उन्होंने किस तरह का समाज चाहा था, उनके सन्देश क्या हैं, आदि मुद्दों पर बहुजन समाज समय ही नहीं दे पता हैं। बहुजन समाज के लोग मौजूदा समय में सोशल मिडिया और पत्रपत्रिकाओं टीवी चैनल, सेमिनार और सभाओं में गैर-बराबरी की संस्कृति की निरन्तर निन्दा करने वाले लोगों को ही अपना आदर्श मानने लगे हैं जबकि इससे ना तो आपकी समतावादी संस्कृति पर चर्चा होती, ना आपकी समतावादी विचारधारा पर बहस होती हैं और ना ही आपके नायक-नायिकाएं और उनके सन्देश विमर्श के केंद्र में होते हैं।

और इस तरह से बहुजन समाज के लोग खुद ही गैर-बराबरी की संस्कृति, विचारधारा, इसके त्यौहार, नायको-नायिकाओं की लगातार निन्दा करते हुए इनकों हाशिये के बजाय चर्चा व विमर्श के केन्द्र में स्थापित कर इनकी जड़ों को लगातार मजबूत करने का कार्य कर रहे हैं। 

बहुजन समाज यदि विषमतावादी संस्कृति को नष्ट करके समतावादी संस्कृति के आधार पर समतामूलक समाज बनाना चाहता हैं तो उसे विषमतावादी संस्कृति को अलग-धलग छोड़कर उसके समान्तर अपनी समतावादी संस्कृति, अपनी समतावादी विचाधारा और इसके समतावादी महानायकों-महनायिकाओं जैसे बुद्ध, रैदास, कबीर, फुले, शाहू,आंबेडकर, काशीराम, और बहन जी आदि को  को चर्चा, विमर्श के केंद्र में रखना होगा और गैर-बराबरी की संस्कृति व उसकी विचारधारा आदि को हाशिये पर।

यकीनन  जितनी ऊर्जा, समय और संसाधन का दुरूपयोग समाज गैर-बराबरी की संस्कृति, विचारधारा, उनके त्यौहार और उनके नायकों-नायिकाओं को कोसने और उसकी निन्दा करने में करता हैं यदि वही समय, ऊर्जा और संसाधन का उपयोग बहुजन समाज समतावादी संस्कृति, विचारधारा, पर्व और समतावादी नायकों जैसे बुद्ध, रैदास, अशोक, घासीदास, नानक, नारायणा गुरु, पेरियार, फुले, शाहू, अम्बेडकर काशीराम और बहन जी की विचारधारा फ़ैलाने में करे तो शीघ्र ही हम समता स्वतंत्रता बंधुत्व पर आधारित बाबा साहेब के सपनों का भारत बना सकते हैं”।

याद रहें, मान्यवर साहेब कहते हैं कि किसी लाइन (विषमतावादी) को छोटी (नष्ट) करने के लिए उसे मिटाने (निंदा) की जरूरत नहीं हैं बल्कि उसके समानांतर अपनी (समतावादी) बड़ी लाइन खींचने की जरूरत हैं।

रजनीकान्त इन्द्रा

इतिहास छात्र, इग्नू-नई दिल्ली