Sunday, June 25, 2017

In Sleeping Mode

Photograph, in Sleeping Mode, of Mine (Rajani Kant Indra) clicked by Jyoti Shikha Indra along with Er-Deep Shikha Indra

Rajani Kant Indra Painting - Sketched by Er Deep Shikha India


Shailja Kant Indra Painting - Sketched by Er Deep Shikha India


Dr Ambedkar Painting - Sketched by Er D. Shikha India


Saturday, June 24, 2017

Wednesday, June 21, 2017

कांग्रेस, कम्युनिस्ट और बीजेपी

कांग्रेस का जन्म १८८५ में एक राजनैतिक मंच के रूप में हुआ जिसका उद्देश्य ब्रिटिश इण्डिया में भारत के लोगों और उनकी मांगों को सरकार के सामने एक सुनियोजित ढंग से रखना था। अलग-अलग जानकारों में मतान्तर है। कुछ लोग कांग्रेस को रष्ट्रवादी पार्टी मानते है तो कुछ सेफ्टीवाल्व तो कुछ समाज सुधार का भी श्रेय देने से पीछे नहीं हटते है। जबकि सभी कांग्रेसी नेताओं ने समाज सुधार का सिर्फ और सिर्फ ढोंग ही किया है। फ़िलहाल, हम यहाँ पर कांग्रेस ने अभी तक क्या किया, क्या नहीं किया, ये बताने के बजाय ये बताना चाहते है कि इनका बहुजन समाज के लिए बहुजन इतिहास में क्या स्थान है।
सबसे पहले तो ये कि कांग्रेस ने बहुजन समाज के लिए कुछ भी नहीं किया है। बहुजन समाज के सारे मुशीबतों और दुश्वारियों का कारण सिर्फ और सिर्फ जाति व्यवस्था है। इस क्षेत्र में कांग्रेस ने कभी भी कुछ भी नहीं किया है जबकि ये भारत के सेन्ट्रल-विंग की पार्टी है। 
कम्युनिस्ट पार्टी का भी भारत में अपना एक स्वतंत्र वज़ूद दिखता है। रूस के समाजवाद से बहुत सारे कांग्रेसी नेता प्रभावित थे। इनमे जवाहर लाल नेहरू भी शामिल है। कांग्रेस ने तो अपनी पार्टी में ही एक विंग बना रखा था जिसमे जवाहरलाल मुख्य भूमिका में थे। इसी कड़ी में कम्युनिस्ट पार्टी का भारत में अपना एक वज़ूद तय होता है। ये कम्युनिस्ट पार्टी भारत में वर्ग विभाजन के एक को शोषक और दूसरे को शोषित ठहराते हुए दो वर्ग में बाँट कर अपनी राजनैतिक रोटी सेंक रहा है। लेकिन कम्युनिस्ट की विचारधारा यूरोप के उस समाज में पनपी और पली-बढ़ी है जिसमे कोई सामाजिक विभाजन नहीं, बल्कि आर्थिक विभाजन है। कम्युनिस्ट की विचारधारा आर्थिक रूप से असमान समाज में आसानी से काम कर सकती है। इसी आर्थिक असमानता के दायरे में रूस जैसे देश और इनके कम्युनिज़्म की संकल्पना आती है। ये और बात है कि कुछ ही दशकों पश्चात् रूस में कम्युनिज़्म की संकल्पना को ढोना मुश्किल हो जाता है और रूस का विखंडन हो जाता है। फिर भी हम यहाँ रूस को एक अच्छे उदाहरण के तौर पर ले सकते है। लेकिन जब बात भारत की आती है तो भारत में वर्ग विभाजन नहीं बल्कि जाति विभाजन है। ये भारतीय जाति विभाजन एक सामाजिक समस्या है और इस सामाजिक समस्या को आर्थिक आधार पर दूर करने की बात सोचना, खुद को गुमराह करना है। फ़िलहाल, भारत में कम्युनिस्ट यही कर रहे है। कम्युनिस्टों के भाषण जिसमे वे आर्थिक रूप पर समानता, सबको शिक्षा और सबके हक़ की बात करते है, ये सब सुनने में बहुत अच्छा लगता है लेकिन भारत की जमीनी हकीकत को देखे तो ये सब नरेंद्र मोदी का मूर्खतापूर्ण भाषण ही लगता है। क्योकि इस तरह से आर्थिक गैर-बराबरी को कम्युनिज़्म की संकल्पना से दूर करना सामाजिक रूप से समान समाज में संभव है लेकिन सामाजिक रूप से असमान समाज में नहीं। फ़िलहाल कम्युनिस्ट भारत में यही मूर्खता करते आ रहे है, यदि नही तो फिर भारत के जनमानस को मूर्ख जरूर बनाते आ रहे है। बाबा साहेब भारतीय बहुजन समाज की गरीबी का कारण जाति एवं वर्ण व्यवस्था को ही मानते है जो कि  एक सामाजिक समस्या है। लेकिन दुर्भाग्य ये है कि कम्युनिस्ट सदा से ही भारत की सामाजिक बीमारी के लिए आर्थिक बीमारी की गोली देने का निरर्थक प्रयास कर रहे है। 
इसी तरह से बीजेपी का वज़ूद भारतीय जन संघ से जुड़ा हुआ है और ये बीजेपी भारत में हार्ड-कोर हिंदुत्व पर आधारित राजनैतिक पार्टी है। भारत में सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी आतंकवाद का श्रेय हिंदुत्व और इसके लीडर्स को ही जाता है। इनमे अंग्रेजों के सामने समर्पण करने वाले सावरकर, तिलक, दीनदयाल, गोलवलकर आदि जैसे लोग प्रमुख है। बीजेपी द्वारा भारत में हिन्दू आतंकवाद को बढ़ावा देने की कथा दुनिया जानती है फिर चाहे वो सावरकर, तिलक, दीनदयाल, गोलवलकर का आतंकवादी सिद्धांत रहा हो या फिर आडवाणी रथयात्र, गुजरात में नरेंद्र मोदी की अगुवानी में मुस्लिम नरसंहार, कल्याण सिंह की सरकार में अटल बिहारी, लालकृष्ण आडवाणी और अन्य हिन्दू आतंकवादियों के नेतृत्व में लश्कर-ए-ब्राह्मण द्वारा बाबरी मस्जिद का विध्वंस, मोदी के नेतृत्व में किसानों, जवानों की हत्या और यूपी में अजय कुमार बिष्ट का आतंकवाद। इसके सिवा बड़े पैमाने पर बीजेपी की झोली में और कुछ भी नहीं है। बीजेपी देश के खून की सनातनी मनुवादी वैदिक ब्रामणी अत्याचारी निर्दयी हिन्दू होली खेलकर सत्ता में आयी है। हमारे निर्णय में, इससे ज्यादा बीजेपी का कुछ और परिचय नहीं हो सकता है।
अब रही बात इन तीनों (कांग्रस, कम्युनिस्ट और बीजेपी) पार्टियों का बहुजन समाज के प्रति रवैया का तो तीनों ही बहुजन समाज के लिए एक ही है। इनका मकसद एक ही है। देश की आज़ादी को लगभग सात दसक का वक्त बीत चुका है लेकिन बहुजन समाज की स्थिति वही है जो पहले थी और यदि कुछ सुधार हुआ है तो वो बाबा साहेब के संघर्षों और संविधान में निहित मूलभूत लोकतान्त्रिक अधिकारों का परिणाम है। भारत में कांग्रेस, कम्युनिस्ट और बीजेपी नाम की तीन मुख्यधारा की राजनैतिक पार्टियां जरूर है लेकिन यदि भारतीय सामाजिक व्यवस्था को मद्देनज़र रखकर देखे तो भारत में सिर्फ और सिर्फ एक ही पार्टी है, भारत में आज तक सिर्फ और सिर्क एक ही पार्टी ने शासन किया है, एक ही पार्टी है जो खुद सत्ता में रहती है और उसी समय खुद विपक्ष में भी रहती है। आज़ादी के बाद से इस तरह से भारत में शासन करने वाली वो एक मात्र पार्टी है - ब्राह्मण पार्टी। यदि हम कांग्रेस. कम्युनिस्ट और बीजेपी के कम्पोज़ीशन को देखे तो हम पाते है इन पार्टियों पर सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणो का कब्ज़ा है। इस देश में ब्राह्मण २-३% है लेकिन देश के सभी राजनैतिक दलों पर, लोकशाही पर, न्यायपालिका पर, उद्योगलय पर, संसद पर, सरकार पर, विश्वविद्यालय पर और सिविल सोसाइटी पर सिर्फ और सिर्फ एक ही जाति ब्राह्मण का कब्ज़ा है। 
कांग्रेस की नीव भी ब्राह्मणों के इन्टरेस्ट को सुरक्षित करने के लिए पड़ी थी, भारत की आज़ादी के लिए नहीं। शुरू में यदि कांग्रेस पर नज़र डालें तो हम पाते है कि कांग्रेस देश के ब्राह्मणो और सवर्णों के लिए कुछ सहूलियतों के अलावा कुछ नहीं चाहता था। ये ब्राह्मण और बनियों की पार्टी रही है। धीरे-धीरे ये कांग्रेस ब्राह्मण-बनिये सहूलियतों से आगे निकल कर सत्ता के लिए लड़ना शुरू किया, लेकिन कभी भी सत्ता में बहुजन भागीदारी को मान्यता नहीं दिया। हलाकि बाद में, ब्राह्मणी कांग्रेस ने अपने जनाधार को बढ़ाने के लिए अधिक से अधिक लोगों को शामिल करने का दिखावा जरूर किया लेकिन इनका मकसद हमेशा से ब्राह्मण-बनिया-सवर्ण कल्याण ही रहा है। यही कारण है कि कांग्रेस ने कभी भी जाति व्यवस्था के खिलाफ बगावत नहीं किया, बल्कि कांग्रेस के नेता गाँधी, मालवीय आदि तो जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था के कट्टर समर्थक रहे है।  गाँधी, तिलक, मानवीय ने अपनी पूरी जिंदगी ब्राह्मण-बनिया-सवर्ण के इंटरेस्ट को सुरक्षित रखने के लिए जाति व वर्ण व्यबस्था की पुरजोर वकालत की। क्योकि ये आधुनिक षड्यंत्रकारी जानते थे कि यदि जातिव्यवस्था व वर्ण व्यवस्था टूटती है तो बहुजन समाज के लोग बराबरी का हक़ मागेंगे और सत्ता में हिस्सेदारी भी जो कि गाँधी जैसे तथाकथित महात्माओं और मानवीय, तिलक जैसे अत्याचारी ब्राह्मणों व इनके फाइनेंशर बनियों को हरगिज़ मंजूर नहीं था। नतीजा कांग्रेस राष्ट्रिय पार्टी का दवा जरूर करती रही लेकिन मकसद साफ था, बहुजन शोषण। कांग्रेसियों ने कभी जाति  को ध्वस्त करने के लिए आन्दोलन नहीं किया, जबकि भारत की माँग ये थी कि पहले भारत को अंग्रेजों से आज़ाद करने के बजाय सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म और संस्कृति से भारत आज़ाद कराया जाय। लेकिन, ब्राह्मणों ने ऐसा नहीं किया क्योकि उन्हें जाति व्यवस्था से ही फायदा था। इसीलिए कभी भी कांग्रेस, जो कि सेन्ट्रल विंग की पार्टी है, ने कभी जाति उन्मूलन कार्यक्रम नहीं चलाया।
कांग्रेस के बाद कम्युनिस्ट और फिर बीजेपी का उदय भारत के लोकतंत्र को मजबूत करना नहीं बल्कि सिर्फ और सिर्फ एक ही जाति ब्राह्मण और इसके गुलामों (क्षत्रिय और बनियों) के हाथों में सदा के लिए भारत की सत्ता को बरकार रखना था। इस तरह से इनमे से कोई भी पार्टी सत्ता में रहे, कोई फर्क नहीं पड़ता है क्योकिं सत्ता में होता तो ब्राह्मण ही है। यही वजह रही है कि भारत में आज़ादी के इतने सालों के बाद भी बहुजन समाज की सामाजिक स्थिति आज भी वही है जो कि आज़ादी के पूर्व में थी। बहुजन समाज के लिए ये तीनों राजनैतिक दल अलग-अलग नहीं बल्कि एक ही है। हमारे निर्णय में, बहुजन समाज के लिए तीनों (कांग्रेस, कम्युनिस्ट और बीजेपी) तीनों ही शत्रु है। 
इन तीनों ब्राह्मण पार्टियों के चरित्र को सरल भाषा में कुछ तरह से समझा जा सकता है कि बहुजन समाज के लिए बीजेपी एक चिरपरिचित कड़वा जहर है जिसे बहुजन जानता और समझता है, कांग्रेस बहुजन समाज को मीठी नींद देकर मारने वाला जहर है और कम्युनिस्ट तो मीठा जहर है। कहने का मतलब है कि बीजेपी को बहुजन समाज पहचानता है कि यदि बीजेपी के साथ रहे तो मौत निश्चित है, इसलिए इससे सावधान रहना सबसे आसान है। कांग्रेस नींद में मारने वाला ऐसा जहर है जिससे मरने वाला अनजान रहता है। इसीलिए आज तक कांग्रेस ने देश राज भी किया अंदर ही अंदर बहुजन समाज को नींद में सुला कर मरती रही। जहाँ तक रही बात कम्युनिस्टों की तो ये मीठा जहर है जिसे बहुजन समाज के लोग मिठाई समझ कर खुद अपनी मर्जी से मिठाई समझकर खाते है और मरते रहते है। बीजेपी और कांग्रेस में बहुजन की मौत पक्की है, ये तो बहुजन जानता है लेकिन कम्युनिस्ट के जहर को मिठाई और औषधि समझ कर खाता है और अपनी सामाजिक बीमारी के लिए कम्युनिस्टों को, जो कि  इसके ज़िम्मेदार है, को ज़िम्मेदार ठहराने के बजाय खुद को ज़िम्मेदार ठहराते रहते है, परिस्थितयों को कोसते रहते है है।     
दुसरे शब्दों में इन तीनों ब्राह्मण पार्टियों को चित्रित करे तो कुछ इस प्रकार से कह सकते है कि देश के बहुजन समाज के लिए बीजेपी वो दुश्मन है जो सामने खड़ा होकर युद्ध करता है, कांग्रेस वो दुश्मन है जो बहुजन समाज की सेना में शामिल होकर बहुजन समाज की ही सेना को काटता है, और कम्युनिस्ट तो वो शत्रु है जो बहुजन समाज के ऊपर निर्भर रहता है, बहुजन समाज की आस्तीन में रहता है, और उपयुक्त मौका पाते ही बहुजन समाज को ही डस लेता है। कहने का तातपर्य यह है कि बीजेपी हमारा वो शत्रु है जिसे आसानी से पहचाना जा सकता है, जिसे कोई भी बहुजन पहचान सकता है, कांग्रेस वो शत्रु है जिसे पहचाने के पैनी नज़र की जरूरत होती है लेकिन आस्तीन के साँप, कम्युनिस्टों, को पहचानना सबसे कठिन होता है क्योकि ये बात तो करता है बहुजन समाज के हित की, इसकी बातों में भी बहुजन समाज का ही हित ही नज़र आता है, इसकी विचारधारा में भी बहुजन समाज का ही हित झलकता है लेकिन हकीकत की ज़मीन पर नज़र डाल कर देखो तो पता चलता है कि यही बहुजन समाज के आस्तीन में छुपा हुआ सबसे खतरनाक शत्रु है। इसलिए देश के बहुजन समाज से अपील है कि आप इन सब में से किसी पर भी भरोसा ना करे, आप अपनी लड़ाई खुद लड़ें, आप अपनी राजनैतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पहचान खुद बनाये। याद रहे, बहुजन की लड़ाई बहुजन को ही लड़नी होगी, और इस लड़ाई को जीतने के लिए बीजेपी, कांग्रेस या कम्युनिस्टों का सहारा लेना अपनी विजय को खुद ही पराजय में बदल देना है।
बहुजन समाज ने बीजेपी जैसी शत्रुओ को आसानी से पहचान लिया है, और कांग्रेस को भी पहचान लिया है। इसीलिए बहन कुमारी मायावती जी ने संसद की पटल पर कहा था कि बहुजन समाज के लिए कांग्रेस और बीजेपी दोनों एक ही है, एक सांपनाथ (कांग्रेस) है तो दूसरा नागनाथ (बीजेपी) है। लेकिन बहन जी ने कम्युनिस्टों के बारे में कुछ नहीं कहा। हमारे निर्णय में, बहुजन समाज के लिए तीनो (बीजेपी, कांग्रेस और कम्युनिस्ट) ही शत्रु है, तीनों का उद्देश्य बहुजन समाज को धर्म, धर्मनिरपेक्षता और गरीबी से मुक्ति के नाम पर गुमराह करके शोषण करना है। जनता भी इतने सालों से इनके छलावे में उलझी रही है। इसलिए हमारे निर्णय में, तीनों एक ही है, एक साँपनाथ (काँग्रेस) है, दूसरा नागनाथ (बीजेपी) है तो तीसरा अज़गर (कम्युनिस्ट) है। ये तीनों ही बहुजन समाज और बहुजन सामाजिक परिवर्तन महाक्रान्ति को रोकने पर लगे हुए है। ये तीनों ही बाबा साहेब के नाम का इस्तेमाल करते है और फिर बाबा साहेब के ही दर्शन की धज्जिया उड़ाते है। इस लिए बहुजन समाज को इन तीनों से सतर्क रहना है और बाबा साहेब के "शिक्षित बनो, संगठित रहो और संघर्ष करो" के सिद्धांत पर चलते हुए इन तीनों ही बहुजन समाज के शत्रुओं से डट कर मुकाबला करना है।

रजनीकान्त इन्द्रा 
इतिहास छात्र, इग्नू 
जून २१, २०१७

Friday, June 16, 2017

रैमसे मैक डोनाल्ड आवार्ड / पृथक निर्वाचन क्षेत्र का अधिकार

पृथक निर्वाचन के प्रावधान के तहत वंचित समाज को दो वोटों का अधिकार मिला था जिसमे वंचित समाज एक वोट का इस्तेमाल वंचित समाज उसी तरह से करता जिस तरह से आज के आम चुनाव में कर रहा है लेकिन दूसरे वोट की खासियत ये थी कि इसमें वोटर और उम्मीदवार दोनों ही वंचित समाज से होते और अपनी जनसख्या के अनुसार में वंचित समाज सिर्फ वंचित समाज से वंचित समाज के प्रतिनिधि को चुनता और संसद व विधान सभाओं में भेजता। और, ये लोग सच्चे अर्थों में किसी पार्टी विशेष के प्रति निष्ठा रखने के बजाय वंचितों के अधिकारों के प्रति निष्ठा रखते और यदि कहीं गलती से भी ये वंचित समाज के प्रतिनिधि वंचित समाज के प्रति निष्ठावान नहीं रह पाते तो अगली बार वंचित समाज खुद उन्हें उखड फेकता।

इस तरह से देखा जाय तो हमारी आबादी (एस सी -एस टी ) लगभग २५% के आस-पास है। इस तरह से संसद व विधान सभाओं में एक चौथाई लोग सिर्फ और सिर्फ वंचित समाज के होते और लोग जिसे चाहते उसी की सरकार बनती। और, जब कोई भी सरकार वंचितों के अधिकारों के खिलाफ जाता तो ये एक चौथाई लोग किसी भी सरकार को उखाड़ फेकने के लिए काफी होते। इस तरह से सदियों से दबाया-कुचला समाज अपनी बेड़ियों को काटकर इस देश का या तो खुद हुक्मरान बन जाता या फिर हुक्मरान बनाने वाला। और, यदि ऐसा होता तो शायद जाती व्यवस्था भी अब तक खत्म हो चुकी होती और भारत का मूलस्वरूप समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व आधारित समाज और संस्कृति बन चुका होता।

ऐसी दशा में सहारनपुर, ऊना या अन्य किसी भी तरह का अत्याचार वंचितों पर नहीं हो सकता था। और यदि गलती से भी, सहारनपुर या अन्य कोई भी घटना घटती तो वंचित समाज, वंचित समाज पर उठने वाला हाथ नहीं काटते बल्कि उस सरकार की जड़ को ही काट देते जो उनकों सह दे रही है।

धूर्त गाँधी जो कि एक कट्टर हिन्दू थे और सब जानते थे कि यदि ऐसा हुआ तो वर्णाश्रम और जातिव्यवस्था, जिसमे गाँधी अटूट विश्वास रखते थे, मिट्टी में मिल जायेगा। इस लिए गाँधी ने उपवास रुपी षड्यन्त्रात्मक व अत्याचारी हथियार का इस्तेमाल किया और वंचितों के इस अधिकार को छीन लिया और बाबा साहेब को मजबूरी में आरक्षण से ही समझौता करना पड़ा।

बाबा साहेब ने अगले दिन धिक्कार दिवस में रोते हुए कहा था कि
"मेरी बच्चों,
मैंने पूना पैक्ट पर साइन करके अपने जीवन की सबसे बड़ी गलती की है लेकिन मै मजबूर था।
मेरे बच्चों,
मेरी इस गलती को सुधर लेना था।"

बाबा साहेब ने आरक्षण नहीं पृथक निर्वाचन क्षेत्र मांगा था लेकिन गाँधी ने उपवास करके रैमसे मैक डोनाल्ड आवार्ड को नकार दिया और वंचितों को आरक्षण देने का प्रस्ताव रखा और मजबूरी बस बाबा साहेब को मानना पड़ा।
धन्यवाद
जय भीम, जय भारत !

 रजनीकान्त इन्द्रा
इतिहास छात्र, इग्नू
जून १६, २०१७


Thursday, June 15, 2017

आरक्षण के लिए नहीं, रैमसे मैक डोनाल्ड अवार्ड के लिए लड़ों।

इतिहास गवाह है कि जब से वंचित जगत के लिए स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी (आरक्षण) का लोकतान्त्रिक और संवैधानिक प्रावधान लागू हुआ है तब से देश का शोषक वर्ग (ब्राह्मण, बनिया और अन्य सवर्ण) लगातार वंचितों के इन मूलभूत लोकतान्त्रिक व संवैधानिक मानवाधिकारों के प्रति जहर उगलता आ रहा है। कभी मेरिट के नाम पर, तो कभी समानता के नाम पर। ये और बात है कि इनकों ना तो मेरिट की फ़िक्र है, और ना ही समानता की मूलभूत बुनियाद का ज्ञान है। देश के सत्ता-संसाधन के हर क्षेत्र के हर स्तर पर यही ब्राह्मण-बनिये-स्वर्ण काबिज़ है, लेकिन फिर भी आज़ादी के सात दशक बाद भी आज तक भारत का वो विकास नहीं हो पाया जो भरतीय संविधान के पिता बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षाप्रतीक मानवतामूर्ति बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर चाहते थे, जो हमारा संविधान, हमारा लोकतंत्र चाहता है, क्यों ?  
सत्ता, संसद, न्यायपालिका, नौकरशाही, विश्वविद्यालय, उद्योगालय, मीडियालय और सिविल सोसायटी सभी महत्वपूर्ण स्थानों का अवैध, अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक रूप से कब्ज़ा जमाये बैठा ब्राह्मण-बनिया वर्ग ने आज़ादी के बाद से ही वंचितों के स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी के अधिकार को आरक्षण का नाम दे डाला है। वंचितों के इस मूलभूत अधिकार को वो शक्ल दे डाला है जो कि ना यो संविधान की मंशा है, और ना ही संविधान के पिता ने कभी ऐसा चाहा था। ब्राह्मण-बनिया मीडिया और एन्टीनाधारी स्वघोषित विद्वानों ने वंचितों के मूलभूत लोकतान्त्रिक और संवैधानिक अधिकारों को गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम बना डाला है। ब्राह्मण-बनियों ने बाकायदा संगठन बनाकर तथाकथित आरक्षण की मूल भावना को बेरहमी से तार-तार कर रहे है। बीजेपी जैसी ब्राह्मणी पार्टियाँ अपने चुनाव प्रचार में आरक्षण हटाने को मुद्दा बनती है। जहाँ एक तरफ ये सब ये जाहिर करता है कि आज भी तथाकथित सवर्ण समाज वंचित जगत को आगे बढ़ता नहीं देख सकता है, वही दूसरी तरफ देश का वंचित बहुजन समाज अपने इस संवैधानिक व लोकतान्त्रिक अधिकार व संविधान की मूल भावना को बचाये रखने के लिए आज भी जद्दोजहद कर रहा है। 
हमारे निर्णय में, आज तक सारी लड़ाई "आरक्षण हटाओं" और "आरक्षण बचाओं" तक सीमित होकर रह गयी है। आरक्षण हटाओं और आरक्षण बचाओं की ये लड़ाई वंचित जगत के घर में खड़े होकर लड़ी जा रही है। "आरक्षण हटाओं" की बात करने वाले "आरक्षण बचाओं" वालों के घरों में खड़े होकर लड़ रहे है। परिणामस्वरूप, लड़ाई के दौरान सारा का सारा नुकसान वंचित समाज का ही हो रहा है क्योकि लड़ाई जब आपकी ज़मीन पर या आपके घर में घुसकर लड़ी जाती है तो सारा का सारा नुकसान आपका ही होता है। 
आज तक के संघर्ष को यदि बरीकी से देखा जाय तो वंचित जगत अपनी लड़ाई नहीं लड़ रहा है, कोई युद्ध नहीं कर रहा है, बल्कि ब्राह्मण-बनियों के आक्रमण से अपनी रक्षा मात्र कर रहा है। जबकि भारत में लोकतंत्र और संविधान को सही मायने में लागू करने के लिए लोकतंत्र और संविधान विरोधियों (ब्राह्मण-बनिया-सवर्ण) पर लोकतान्त्रिक तरीके से संवैधानिक हमले होने चाहिए, लेकिन यहाँ सब इसके विपरीत हो रहा है। लोकतंत्र व संविधान विरोधी, लोकतंत्र व संविधान की रक्षा करने वालों पर बेख़ौफ़ होकर (दैहिक, भावनत्मक, संस्थागत, कानूनी-गैरकानूनी और अन्य तरह के सारे) हमले कर रहे है (रोहित वेमुला, डेल्टा मेघवाल जैसे शहीद इसके प्रखर उदहारण है), संविधान को तोड़-मरोड़ रहे है, ब्राह्मणी व्याख्या कर रहे है। और, लोकतत्र व संविधान की रक्षा करने वाला वंचित समाज सिर्फ अपनी और लोकतंत्र व संविधान की रक्षा मात्र कर रहा है, जबकि जरूरत है कि लोकतत्र व संविधान के दुश्मनों (ब्राह्मण-बनिया-सवर्ण) पर लोकतान्त्रिक तरीके से संवैधानिक आक्रमण करके, उन्हें नेस्तनाबूद कर लोकतंत्र और संविधान को सही ढंग लागू करने की। 
हमारा मानना है कि अब वंचित समाज को आरक्षण की रक्षा के नहीं लड़ना चाहिए बल्कि उस रैमसे मैक डोनाल्ड अवार्ड / पृथक निर्वाचन क्षेत्र के अधिकार के लिए लड़ना चाहिए जिसे गाँधी ने षड्यंत्र करके बाबा साहब से छीन लिया था। बाबा साहेब ने आज वाला आरक्षण कभी नहीं माँगा था। उन्होंने ने तो वंचित जगत के लिए पृथक निर्वाचन क्षेत्र की माँग की थी, उस समय के ब्रिटेन के प्रधानमंत्री माननीय रैमसे मैक डोनाल्ड ने मान भी लिया था लेकिन गाँधी जैसे षड्यंत्रकारी ने आमरण उपवास करके बाबा साहेब को मजबूर कर फिया और ब्रिटेन सरकार से मिले इस महत्वपूर्ण अधिकार को छीन लिया था। गाँधी एक षड्यंत्रकारी और कट्टर हिन्दू थे। जाति व्यवस्था और वर्णाश्रम व्यवस्था के कट्टर सार्थक थे। गाँधी ये जानते थे कि यदि ये रैमसे मैक डोनाल्ड अवार्ड / पृथक निर्वाचन क्षेत्र का अधिकार लागू हो जायेगा तो जाति व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था को ध्वस्त होने में वक्त नहीं लगेगा। जाति व्यवस्था व्यवस्था के ध्वस्त होते ही अमानवीय निकृष्ट सनातनी मनुवादी वैदिक ब्रामणी हिन्दू धर्म व संस्कृति हमेशा-हमेशा के लिए नेस्तनाबूद हो जायेगा। कट्टर जातिवादी गाँधी जानते थे कि यदि वंचित जगत को रैमसे मैक डोनाल्ड अवार्ड / पृथक निर्वाचन क्षेत्र का अधिकार मिल जायेगा तो कोई भी सरकार वंचित जगत की मर्जी के बगैर नहीं बन सकती है। ऐसे में वंचितों का सशक्तिकरण हिन्दू धर्म को हमेशा-हमेशा के लिए दफन कर देगा। इसीलिए षड्यंत्रकारी गाँधी ने आमरण उपवास करके बाबा साहेब को मजबूर कर दिया और बेबस, लाचार बाबा साहेब को रैमसे मैक डोनाल्ड अवार्ड / पृथक निर्वाचन का अधिकार छोड़ना पड़ा और मुआबजे के तौर पर मिले आरक्षण से ही समझौता करना पड़ा। 
हमारे निर्णय में, वंचित जगत को अपनी लड़ाई पर पुनर्विचार करना चाहिए। और, नए सिरे से रैमसे मैक डोनाल्ड अवार्ड / पृथक निर्वाचन क्षेत्र के अधिकार के लिए एक लोकतान्त्रिक व संवैधानिक महासंग्राम शुरू करना चाहिए। वंचित समाज को आरक्षण बचाओं की लड़ाई लड़ने के बजाय आरक्षण बढ़ाओ के लिए लड़ना चाहिए। ये लड़ाई सही मायने में आरक्षण हटाओं के घर में खड़ी होकर लड़ी जाएगी। आरक्षण बढ़ाओं की जंग की शुरुआत रैमसे मैक डोनाल्ड अवार्ड / पृथक निर्वाचन क्षेत्र के अधिकार को लेकर लड़ी जानी चाहिए। 
जहाँ तक हम समझते है, वंचित समाज को अब आरक्षण के लिए लड़ना ही नहीं चाहिए बल्कि रैमसे मैक डोनाल्ड अवार्ड / पृथक निर्वाचन क्षेत्र के अधिकार को लागू करने के लिए लड़ना चाहिए। यदि वंचित जगत रैमसे मैक डोनाल्ड आवार्ड / पृथक निर्वाचन क्षेत्र के लिए युद्ध छेड़ता है तो हम पूरे विश्वास से कहते है कि वंचित जगत के दुश्मन (ब्राह्मणी-बनिया-स्वर्ण) खुद वंचित समाज को मिले लोकतान्त्रिक व संवैधानिक स्वप्रतिनिधित व सक्रिय भागीदारी रुपी आरक्षण के रक्षा ही नहीं करेगें बल्कि आरक्षण को खुद बढ़ाने की पहल भी करेगें। रैमसे मैक डोनाल्ड आवार्ड के लिए युद्ध छेड़ने भर की जरूरत है इनकी हलक सुख जाएगी। पूना पैक्ट साइन होने के अगले दिन धिक्कार दिवस में बाबा साहेब ने रोते हुए कहा था कि-
"मेरी बच्चों,
मैंने पूना पैक्ट पर साइन करके अपने जीवन की सबसे बड़ी गलती की है लेकिन मै मजबूर था।
मेरे बच्चों,
मेरी इस गलती को सुधर लेना था।"
बाबा साहेब ने पूना पैक्ट वाली गलती को सुधारने के लिए कहा है, देश के सत्ता-संसाधन के हर क्षेत्र के हर स्तर पर वंचित जगत की भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए कहा है, क्योकि जब तक सत्ता, संसद, न्यायपालिका, नौकरशाही, विश्वविद्यालय, उद्योगालय, मीडियालय और सिविल सोसायटी सभी महत्वपूर्ण स्थानों पर वंचित जगत स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित नहीं होगी तब तक भारत में ना तो लोकतत्र सही मायने में लागू हो सकता है, और ना ही संविधान का राज। भारतोत्थान के लिए भारत में सही मायने में लोकतंत्र व संविधानराज़ को लागू होना अनिवार्य है। और, इस अनिवार्यता को पूरा करने के लिए सत्ता व संसाधन के हर क्षेत्र के हर स्तर पर वंचितों का स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी अनिवार्य है। वंचित के स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी के लोकतान्त्रिक व संवैधानिक अधिकार को ज़मीन पर उतरने के लिए रैमसे मैक डोनाल्ड आवार्ड / पृथक निर्वाचन क्षेत्र के अधिकार के लोकतान्त्रिक व संवैधानिक युद्ध छेड़ना ही होगा। ये युद्ध भारत में लोकतंत्र व संविधान की रक्षा के लिए सबसे अहम व निर्णायक युद्ध होगा। इसके बाद संविधान के दुश्मन (ब्राह्मण-बनिये-सवर्ण) खुद संविधान के सबसे बड़े रक्षक बन जायेगे क्योंकि इसके अलावा इनके पास कोई दूसरा राष्ट होगा ही नहीं। 
जय भीम, जय भारत !


रजनीकान्त इन्द्रा
इतिहास छात्र, इग्नू
जून १४, २०१७

Monday, June 12, 2017

उपवास - एक असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक और मानवाधिकार विरोधी कुप्रथा

वैसे तो उपवास भारत में संस्कृति का हिस्सा बन चुका है। हिन्दू और मुस्लिम दोनों प्रमुख धर्मों में इसने अपना स्थान बना लिया है। फ़िलहाल हम यहाँ पर उपवास के सांस्कृतिक पहलु पर चर्चा करने के बजाय राजनैतिक पहलु पर प्रकाश डालना चाहते है।
भारत की राजनीति में उपवास का सबसे प्रखर उदहारण गाँधी ने दिया और अपनी बात मनवाने लिए हर संभव इसका भरपूर इस्तेमाल किया है। उन्ही  नक़्शे कदम पर उनके चेले किशन बाबू राव हज़ारे और आज उनके ही चेले शिवराज चौहान, मुख्यमंत्री, .प्र. चल रहे है।
उपवास कोई भी इंसान स्वेच्छा से नहीं करता है। कभी त्यौहार का लिबास ओढ़कर करता है तो कभी भक्ति-भगवान् के नाम पर तो कभी रीति-रिवाज़, परम्परा के नाम लेकिन किसी भी बार इन्सान अपनी तर्कशक्ति और स्वेच्छा से नहीं करता है बल्कि धर्म, रीति-रिवाज़ और परम्परा के नाम से डर कर और समाज कुरीतियों के बंधनों से मजबूर होकर करता है। कहने का आशय यह है कि कभी कोई खुद इन धार्मिक परम्पराओं के डर उपवास करता है तो कभी उससे करवाया जाता है। उपवास जिस भी कारण से हो वो इन्सान की इच्छा के खिलाफ होता है, अंधविश्वास और डर के कारण किया जाता है, करवाया जाता है। यह हर रूप में हर तरह से इन्सानी हकों के खिलाफ है, मानवाधिकारों के खिलाफ है, संविधान के खिलाफ है, कुदरती हकों के खिलाफ है, कुप्रथा है।
उपवास को धर्म के ठेकेदार अक्सर मेडिकल साइन्स से जोड़कर अपने आपको सही सिद्ध करने की नाकाम कोशिस करते है। जबकि दुनिया जानती है कि ब्राह्मणों आदि के धर्म का धन्धा विज्ञान के समान्तर तर्कवाद और मानवता के खिलाफ रेस कर रहा है।
आज आज़ाद भारत में तीन तरह के उपवास है। एक तो वह है जो धर्म, रीति-रिवाज़ के नाम पर हो रहा है जिसके पीछे चंद ब्राह्मणों और बनियों के व्यापार का स्वार्थ छिपा है, जो अन्धविश्वास, अज्ञानता और डर पर आधारित है।
दूसरा वह है जिसमे गरीबी-लाचारी के चलते हमारे समाज के लाखों लोग हर रोज खली पेट सोते है। संविधान और मानवाधिकार की नीति के तहत भी हर इंसान को भोजन-पानी-कपडा और मकान का मूलभूत अधिकार है। ये हर इन्सान का कुदरती अधिकार है जो उसे इंसान होने के होते मिलते है। इसके बावजूद भारत में एक बड़ी आबादी हर रोज खली पेट सोती है, उपवास करती है। जबकि सरकारों का ये नैतिक कर्तव्य है कि वो अपने नागरिकों के मूलभूत मानवाधिकारों की रक्षा करे, कुदरती हक़ों का ख्याल रखे। लेकिन आज़ादी के लगभग सात दशक बीत चुके है लेकिन देश के गरीब जनता के रहन-सहन के स्तर में कोई सुधर नहीं आया है। स्वघोषित टैलेंटधारी ब्राह्मणों और उनके गुलाम सवर्णों ने आज तक देश पर शासन किया है लेकिन फिर भी देश की जनता रात उपवास क्यों करती है। इसका जिम्मेदार कौन है, उपवास करने वाली इतनी बड़ी आबादी या फिर ब्राह्मणों की शोषणवादी नीतियां? यदि का ब्राह्मणवादी शोषक हमेशा अपने गुनाहों के ठीकरा मासूम-लाचार-बेबस जनता के ही माथे पर फोड़ता रहा है। इस देश की जनता है कि इनके षड्यंत्रकारी कुचक्र को समझकर उससे लड़ने के बजाय इसमें ही उलझता ही जा रहा है। तीसरा उपवास वह है जिसका अविष्कार गाँधी ने किया है। ये सबसे जघन्यतम षड्यंत्रकारी उपवास है जिसका गाँधी ने के हर मोड़ पर इस्तेमाल किया था। इसी षड्यंत्रकारी उपवास के चलते  बड़ी धूर्तता से गाँधी ने वंचित जगत के हाथों से उनकों मिला रैमसे मैक डोनाल्ड आवार्ड/ पृथक निर्वाचन क्षेत्र के अधिकार छीन लिया। जिस तरह सरकार, गाँधी ने जनता और खुद बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर को उपवास रुपी हड़ताल करके ब्लैकमेल किया, ठीक उसी तरह से उनके चेले किशन हज़ारे ने डॉ मनमोहन सिंह को ब्लैकमेल किया और उनकी सरकार को खा गया। गाँधी ने वंचितों का अधिकार छीन कर वंचित समाज का हाथ-पैर काट डाला था, उसी तरह से आज के ढोंगी शिवराज सिंह चौहान भी सात से अधिक किसानों को गोली से भुनवाकर मौत के घात उतार दिया, कई घायल अस्पताल में अपनी सांसे गईं रहे है। शिवराज पाखण्डी गाँधी की तरह उपवास कर अपने आपको शुद्ध कर रहे है, पश्चाताप कर रहे है। गाँधी की ही तरह से शिवराज का भी उपवास सेवन स्टार ही था। नए-नए कूलर लाये गए थे, फर्नीचर की वीआईपी व्यवस्था के साथ-साथ ऐश--आराम की सारी व्यवस्था थी। ये उपवास क्यों किया गया था? इससे मरने वाले किसानों और उनके घर-परिवार को क्या मिला? .प्र. का ये ब्राह्मणों का गुलाम मुख्यमत्री शिवराज से शवराज और फिर शवराज से यमराज बन चुका है। इसके १२-१३ के कार्यकाल के दौरान २०००० से भी ज्यादा किसान शहीद हो चुके है लेकिन ब्राह्मण-बनिया गठजोड़ के तहत इन्होने ने विकास का किस्सा सुना-सुनाकर .प्र. की भोली-भली जनता को ठग रहे है। जिंतने भ्रष्टाचार (व्यापम) इस यमराज के शासन काल में हुए है इसके उगाजर होने पर इसके सारे गवाह और वे लोग जो इस यमराज को सजा दिला सकते थेमार दिए गए। किसानों का कत्लेआम करवाकर गुजरात के नरसंहारक नरेंद्र मोदी की तरह ये भी अपने आप को साफ-सुथराना दिखाने का असफल प्रयास कर रहा है।
गाँधी ने उपवास को एक षड्यंत्रकारी हथियार बना दिया है। पहले गाँधी ने इसका इस्तेमाल किया और अब उनके चेले चपाटे कर रहे है। सबका मकसद एक ही है आम जनता को मूर्ख बनाना, ब्लैकमेल करना, धन्ना सेठों और ब्राह्मणों के आतंकवादी नीतियों की सम्पूर्ण सुरक्षा करना। वंचित जगत के खिलाफ गाँधी द्वारा किया गया षड्यंत्रकारी कृत्य आज भी बहिष्कृत जगत के किए श्राप बनी हुई है। ये श्राप ख़त्म होने के बजाय गाँधी के बाबू राव हजारे और शिवराज जैसे बंदरों की वजह से फल-फूल रही है। इन्हीं षड्यंत्रकारी षड्यन्त्रिण के चलते ही जीतनराम मांझी, रामदास अठावले, रामविलास पासवान, जगजीवन राम जैसे गद्दार अपने वंचित शोषित पीड़ित समाज के लिए कार्य करने के बजाय अपने निजी स्वार्थ के चलते ब्राह्मणों के तलवे चाट रहा है। इन नेताओं ने राजनीति और सत्ता को निजी मिलकियत समझ लिया है, इन्हें इस बात का भी एहसास नहीं रहा कि राजनीति देश-समाज को एक बेहतर दिशा देने का एक बेहतरीन माध्यम होता है।
हमारे निर्णय में उपवास, धर्म, रीति-रिवाज़, परम्परा, गरीबी और गाँधी के षड्यंत्र पर आधारित हर उपवास, हर तरह से एक अन्धविश्वास, डर, शोषण पर आधारित तर्क और मानवता के खिलाफ एक असंवैधानिक, अलोकतांत्रिक और मानवाधिकार विरोधी एक निकृष्ट सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी कुप्रथा है।
रजनीकान्त इन्द्रा
इतिहास छात्र, इग्नू-नई दिल्ली
जून ०६, २०१७