Tuesday, June 14, 2022

सरकार नहीं, संसद मजबूत चाहिए

 

दिनांक : 14.06.2022

सरकार नहीं, संसद मजबूत चाहिए

संविधान राज्य के तीनों स्तंभों के कार्यक्षेत्र में स्पष्ट बंटवारा कर रखा है। इसके बावजूद तीनों स्तम्भों के शीर्ष पर बैठे लोगों की संविधान विरोधी मंशा के चलते इनमें पॉवर को लेकर द्वंद चलता रहता है। जिसके परिणामस्वरूप अब तक तीन परिस्थितियां बनी है।

1) जब कार्यपालिका मजबूत होगी तो संसद और न्यायपालिका हासिए पर होगी। प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री तानाशाह की तरह काम करेंगे। वह जो कहें वही सही होगा। यह स्थिति जनतंत्र के लिए कतई अच्छा नहीं है।    उदाहरण -

       (१)                        श्री जवाहिर लाल नेहरू से लेकर श्री राजीव गांधी तक का दौर

       (२)            २०१४ से लेकर आज तक का दौर

2) जब कार्यपालिका और संसद दोनों कमजोर होगी तो ज्यूडिशियल एक्टिविज्म होगा और कानून भी कोर्ट बनायेगी और लागू भी कोर्ट ही करेगी। इसको एक प्रकार का मार्शल लॉ ही समझिए। बाबासाहेब संविधान सभा में जजों के रवैए पर चिंता जताते हुए कह चुके हैं कि यह देखना होगा कि सैकड़ों सांसदों या विधायकों द्वारा बनाए कानून को जज कैसे जज करते हैं।

3) जब संसद मजबूत होगी तो लोकतंत्र और संवैधानिकता मजबूत होगी। यही वह दौर है जिसे सवर्णों द्वारा कोसा जाता है क्योंकि इस दौर में सदियों से गुलामी झेलती क़ौम को भी अपने एजेंडे के साथ संसद में बैठने का मौका मिला। इसी दौर में बसपा की वज़ह से बहुजन समाज के लोग राष्ट्रपति, राज्यपाल, जज, कुलपति, राष्ट्रीय पार्टियों के प्रदेश व राष्ट्रीय स्तर के पदाधिकारी बनें, ओबीसी आरक्षण लागू हुआ, एससी एसटी एक्ट बना, बहुजन साहित्य पर खुल कर चर्चा शुरू हुई। बहुजन समाज ने अपनी सरकारें बनवाई। भूमिहीनों को जमीनों पर कब्जा मिला। संवैधानिक प्रावधानों का जनता को सीधा लाभ मिला। जनता ने इसी दौर में लोकतंत्र के मूल्य और संविधान के मायने को समझा। साइकिल बनाने, रिक्शा चलाने वाले तक सांसद, विधायक मंत्री आदि बन गये। सदनों में सक्रिय डायवर्सिटी देखने को मिला। यही संसद की मजबूती है। इसलिए ही मान्यवर साहेब कहते थे कि यदि सही लोगों के हाथ में सत्ता नहीं है तो सरकार को मजबूत नहीं, मजबूर होना ज़रूरी है ताकि वह मनमानी ना कर सके। और, संसद की यह मजबूती ज्यूडिशियल लेजिस्लेशन और ज्यूडिशियल एक्जेक्यूशन पर भी लगाम लगा कर रखेंगी।          उदाहरण - १९९० से लेकर १९९९ तक का दौर प्रमुख है।

            पॉवर द्वंद के परिणामस्वरूप उत्पन्न तीनों स्थितियों में दूसरी स्थिति ही लोकतंत्र व संविधान के लिए उचित है। यही स्थिति जनतंत्र के बेहतर है। संसद द्वारा ही देश के हर तबके के समुचित स्वप्रतिनिधित्व एवं सक्रिय भागीदारी को तय किया जा सकता है। लोकतंत्र को मजबूत किया जा सकता है।                                                             - इन्द्रा साहेब



हुक्मरान बनों

दिनांक : 14.06.2022

हुक्मरान बनों

मान्यवर  साहेब कहते हैं कि 'हुक्मरान बनों'। बहनजी कहती हैं कि 'कौन हार रहा है, कौन जीत रहा है, इस पर अपनी ऊर्जा और समय नष्ट करने के बजाय हमें अपनी सरकार बनाने के लिए काम करना चाहिए'। परन्तु बहुजन भीड़ अपने दोनों महान मार्गदर्शकों के सन्देशों को किनारे करके 'भाजपा हराओं' जैसे नकारात्मक एजेण्डे को अपना लक्ष्य बना लिया जबकि हर स्थिति में बहुजन समाज का लक्ष्य सिर्फ और सिर्फ 'बसपा लाओ' होना चाहिए।

'भाजपा हराओ' वालों ने भाजपा को हारने के लिए आप, सपा, टीएमसी आदि को जिताना बेहतर समझा जबकि विचारधारा और कार्यप्रणाली के अनुसार ये सब आरएसएस की सहयोगी, समर्थक एवं भाजपा, शिवसेना आदि जितना ही साम्प्रदायिक हैं। 'भाजपा हराओ' वालों की नासमझी ने इनकों कहीं का नहीं छोड़ा। आज ये ना तो सत्ता में हैं और ना विपक्ष हैं। मुस्लिमों और पिछड़ों आदि पर अत्याचारों का बुल्डोजर कहर ढहा रहा है और इनके वोट लेने वाली पार्टियाँ खामोश हैं। इसलिए ये लोग फिर बहनजी की तरफ देख जरूर रहे हैं परन्तु अपनी गलती को स्वीकारने की हिम्मत ना होने और अपनी नासमझी पर पर्दा डालने के लिए बसपा और बहनजी पर आरोप भी लगा रहें है जो कि पुनः इनकी नासमझी और गैर-जिम्मेदाराना सोच एवं बर्ताव को रेखांकित करता है।

फिलहाल पिछले एक दशक के चुनावों में पिछड़े, दलित (गैर-जाटव) और अन्य सभी शोषित तबके ने 'भाजपा हराओं' को लक्ष्य मानकर कार्य किया, वोट किया, और अपने 'हुक्मरान बनो' के एजेण्डे को छोड़ दिया। परिणामस्वरूप 'भाजपा हराओं' के नकारात्मक एजेण्डे ने ही भाजपा को प्रचण्ड बहुमत दे दिया है। साथ ही, भाजपा द्वारा खड़ी की गयी सभी विरोधी परन्तु भाजपा की सहयोगी पार्टियों जैसे कि - आप, सपा, टीएमसी आदि, को कहीं सत्ता तो कहीं विपक्ष का सम्मानित स्थान मिल गया। अब सबसे अहम् सवाल यह है कि 'भाजपा हराओ' वाली भीड़ को क्या मिला?

याद रहे, बहुजन आन्दोलन की वाहक बसपा का उद्देश्य किसी को हराना या जितना नहीं है बल्कि शोषित समाज को हुक्मरान बनाना है। किसी का दमन या शोषण करना नहीं बल्कि 'न्याय - समता, स्वतंत्रता और बंधुत्व' आधार पर समतामूलक समाज का सृजन कर भारत राष्ट्रनिर्माण करना है।

-     इन्द्रा साहेब



Saturday, May 14, 2022

बहुजन आन्दोलन में नेतृत्व (बहनजी) मार्गदाता हैं, मुक्तिदाता नहीं।

समाज को अपनी जिम्मेदारी खुद उठानी होगी।

बहुजन आन्दोलन की शुरुआत जगतगुरु तथागत गौतम बुद्ध से मानी जाती है। तथागत के ज्ञान की परम्परा को सम्राट अशोक, जगतगुरु संत शिरोमणि संत रैदास, जगतगुरु संत कबीर दास, जगतगुरु घासीदास, नारायणा गुरु, राष्ट्रपिता ज्योतिबा फूले, छत्रपति शाहू जी महाराज, ज्ञानमूर्ति बाबासाहेब डॉ अम्बेडकर, लोकतंत्र के महानायक मान्यवर साहेब और सामाजिक परिवर्तन की महानायिका बहनजी सहित तमाम बहुजन नायक-नायिकाओं ने विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आगे बढ़ाया है। ये सभी महामानव समाज के मार्गदाता हैं। गुरु हैं। इनके संघर्षों और बहुजन आन्दोलन का ही प्रतिफल है कि भारत के शूद्रों, अछूतों, आदिवासियों और अन्य शोषित पीड़ित समाज में सामाजिक परिवर्तन की लौ रौशन है।

आन्दोलन के दरमियान तमाम उतार-चढाव आते रहे हैं। उदाहरण के तौर पर मनुवादियों संग तात्कालिक बहुजन समाज के लोगों ने फूले का विरोध किया, बाबासाहेब का विरोध किया अंग्रेजी हुकूमत का एजेंट तक कहा, मान्यवर साहेब को सीआईए का एजेंट बताया और आज बहनजी को मानवता विरोधी आरएसएस और भाजपा का एजेंट बता रहे हैं। हालांकि, बहनजी बार-बार बहुजन समाज को सचेत करती रहती है।

बहुजन आन्दोलन में मार्ग (ज्ञान) की परम्परा है, मुक्ति (मनुवादी मोक्ष) की नहीं। जगतगुरु तथागत गौतम बुद्ध ने कहा कि 'मैं मार्गदाता हूं, मुक्तिदाता नहीं।' बहुजन समाज आन्दोलन के सभी वाहकों ने भी यही कहा है परन्तु मनुवाद के प्रभाव में जी रहा बहुजन इन सबको मार्गदाता के बजाय मुक्तिदाता समझ रहा है। यही वजह है कि खुद की जिम्मेदारी भी अपने नेतृत्व के कन्धों पर डाल कर किनारे खड़े होकर मनुवाद के तांडव का नृत्य देख रहा है। ये मनुवाद से इस कदर ग्रसित है कि अपने नेता से काल्पनिक 'सुपर पर्सनल' की उम्मीद करता है। बहुजन समाज अपने नायकों में मनुवादी कपोल कल्पित देवताओं वाली छवि देखना चाहता है।

बहुजन समाज बुद्ध को मानता है परन्तु मनुवादी हिंसक देवताओं को अनुसरण करता है। यही वज़ह है राजनीति में संवैधानिक व लोकतांत्रिक मार्ग पर चलकर सत्ता हासिल करने के बजाय अनावश्यक धरना, तोड-फोड, जुलूस, अनर्गल प्रलाप आदि में अपनी सीमित ऊर्जा और समय खर्च कर देता है। जबकि बाबासाहेब, मान्यवर साहेब ने, संवैधानिक व लोकतांत्रिक तरीकों की वकालत की है और बहनजी उन्हीं के पथ पर अग्रसर है लेकिन बहुजन समाज को हिंसक मनुवादी रास्ते ज्यादा रास आ रहें हैं। इसलिए बहुजन अपने नायकों के सिद्धांतों से दूर मनुवाद के काले आगोश में समाये जा रहा है।

जगतगुरु तथागत गौतम बुद्ध कहते हैं कि - 'जैसे आप सोचते हैं, वैसा ही प्रतिफल आपको मिलता है।' बहुजन समाज के लोग अपनी पूरी ऊर्जा और समय भाजपा का डर फ़ैलाने में खर्च करते हैं, बहुजन विरोधी टीएमसी, आप, राका, आरजेडी, जदयू, सपा और कांग्रेस आदि को प्रमोट करेंगे, इनको वोट करेंगे, इनका सपोर्ट करेंगे और फिर सवाल पूछेंगे कि बसपा सत्ता से दूर क्यों है, बहनजी क्या कर रही हैं।

बहुजन समाज खुद को बौद्ध परम्परा का वाहक कहता है परन्तु अभी भी यह नहीं समझ पाया है कि बहनजी मार्गदाता हैं, मुक्तिदाता नहीं। बहनजी बहुजन समाज व अन्य सभी को भी शांति, सुख, समृद्धि, सत्ता और सामाजिक परिवर्तन हेतु सतत मार्गदर्शन कर रही हैं परन्तु बौद्ध अनुयाई होने का दम्भ भरने वाले लोग क्या बहनजी के बताये रास्ते पर चल रहे हैं।

ऐतिहासिक तथ्य है कि बुद्ध ने मार्ग बताया, भारत विश्वगुरू बन गया। कालांतर में, लोग भटक गये और मनुवाद ने भारत से बौद्ध धम्म और विश्वगुरू की पहचान छीन ली तो इसमें मार्गदाता बुद्ध का दोष है या फिर समाज का?

ठीक इसी तरह जब तक बहुजन समाज ने मार्गदाता बहनजी की बात मानी बहुजन समाज सत्ता में रहा, उत्तर का चहुंमुखी विकास हुआ। भारत में ही नहीं, विश्वफलक पर बहुजन समाज को पहचान मिली। परन्तु मनुवादी दलों के षड्यंत्रों का शिकार होकर जब बहुजन समाज ने अपने नेतृत्व को कोसना शुरू कर दिया तो वह ना सिर्फ सत्ता से दूर हुआ बल्कि शोषण का शिकार भी होता जा रहा है, उसके मूलभूत अधिकार तक ख़तरे में है। इसमें मार्गदाता की ग़लती है या फिर समाज की?

स्पष्ट है कि - मनुवादियों की साजिशों का शिकार होकर जब समाज ने बौद्ध धम्म से दूरी बनाई तो विश्वगुरू का खिताब छिन गया, सत्ता से दूर हो गया, पहचान मिट गई, शोषण का शिकार हो गया। इसी तरह आज भी बहुजन समाज मनुवादियों द्वारा बसपा और बहनजी के खिलाफ फैलाये गये दुष्प्रचार का शिकार होकर जब अपनी बहुजन समाज पार्टी और बहनजी से दूरी बना रहा है तो ना सिर्फ वो सत्ता से दूर हो गया है बल्कि शोषण का शिकार भी होता जा रहा है।

इन्द्रा साहेब

(इन्द्रा साहेब 'मान्यवर कांसीराम साहेब संगठन- सिद्धांत एवं सूत्र' शोधग्रंथ के लेखक हैं)

Friday, February 18, 2022

‘भाजपा बनाम बसपा’ है उत्तर प्रदेश विधानसभा आमचुनाव-2022

भाजपा को कड़ी टक्कर दे रही है बसपा ==========================================

इन्द्रा साहेब Indra Saheb

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बसपा के इतिहास को देखते हुए जातिवादी मीडिया, तथाकथित बुद्धिजीवी वर्गों और सत्तारूढ़ भाजपा ने जिस तरह से बसपा के खिलाफ कथानक तैयार किया है, जिस तरह से इलेक्ट्रॉनिक व प्रिंट मीडिया ने विजुअल्स तैयार किया है, उससे स्पष्ट है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा आमचुनाव-2022 की असली लड़ाई भाजपा बनाम बसपाहै। इसलिए बसपा की मजबूत स्थित के मद्देनजर भाजपा, जातिवादी मीडिया और तथाकथित विद्वानों द्वारा बसपा से जुड़ने वाले फ्लोटिंग वोट, खासकर मुस्लिम व अन्य एंटी-बीजेपी वोटर्स, को डायवर्ट करने के लिए सपा को जबरन फाइट में दिखाया जा रहा है जबकि तथ्य यह हैं कि बसपा एक राष्ट्रीय पार्टी है, और बसपा का अपना कोर वोटर पूरी मजबूती से उसके साथ लगातार बना हुआ है।

बसपा ने 2007 में जब पूर्ण बहुमत की सरकार बनायीं थी तब उसको 30 फीसदी के आस-पास वोट मिले थे, जब २०१२ में सत्ता से बाहर हुए तो भी उसके पास 25 फीसदी के आस-पास वोट था, और जब भारत और खासकर उत्तर में धार्मिक उन्माद चरम पर थी तब भी बसपा के पास 22.50 फीसदी वोट इसके साथ रहा जबकि समाजवादी पार्टी कांग्रेस व अन्य छोटे-मोटे सभी दलों को जोड़कर भी ना तो सीटे जीतकर हाफ़ सेंचुरी बना पायी और ना ही बसपा से ज्यादा वोट बटोर पायी। साथ ही 2019 में हुए लोकसभा आमचुनाव के बसपा सपा से सीट और कुल वोट के मामले में भी आगे रही है। ऐसे में भी यदि तथाकथित बुद्धिजीवियों द्वारा उत्तर प्रदेश की दूसरे नम्बर की पार्टी बसपा को उत्तर प्रदेश विधानसभा आमचुनाव-2022 के सन्दर्भ में कमजोर दिखाया जा रहा है तो यह इनकी निजी स्वार्थ, जातिवादी व कुण्ठित मानसिकता का परिणाम मात्र है।

इन कुण्ठित विद्वानों व विश्लेषकों को यह बात स्वीकारनी होगी कि बसपा एक राष्ट्रीय पार्टी है। इसकी अपनी स्वतंत्र राजनीति, रणनीति व कार्यशैली है। यदि फिर भी स्वघोषित एवं तथाकथित बुद्धिजीवियों को लगता है कि बसपा किसी का खेल बिगाड रहीं हैं, या बसपा फाइट में नहीं है, या फिर बसपा खत्म हो चुकी है, तो एक आम इन्सान भी बड़ी आसानी से समझ सकता है कि उनके निर्णय व विश्लेषण निष्पक्ष व विद्वतापूर्ण होने के बजाय उनकी निजी खीझ मात्र है। हमारा स्पष्ट मत है कि बसपा के सन्दर्भ में तथाकथित विद्वानों के विश्लेषण उनकी जातिवादी सोच व निजी कुण्ठा का परिणाम मात्र है।

साथ ही, देश को भी समझने की जरूरत है कि जातिवादी मीडिया एवं तथाकथित बुद्धिजीवी वर्गों द्वारा बसपा की स्वतंत्र अस्मिता को स्वीकार नहीं कर पाना, जातिवादी मीडिया एवं तथाकथित बुद्धिजीवियों की कुंठा को प्रदर्शित करता है। शुरूआती समय से ही मनुवादी रोग व कुण्ठा ने शूद्रों व दलित समाजों में जन्में अधिकारीयों, कर्मचारियों एवं तथाकथित बुद्धिजीवियों को भी जकड़ रखा है। यही वजह है कि बड़े ओहदों पर आरक्षण पाकर बैठे मनुरोग के शिकार व कुण्ठित लोगों के सन्दर्भ में मान्यवर साहेब कहते थे कि बहुजन समाज के अधिकांश अधिकारियों, कर्मचारियों व बुद्धिजीवियों ने हमारे खिलाफ दुष्प्रचार किया था। दुखद है कि यह दुष्प्रचार आज भी बसपा के खिलाफ जारी है।

इन सब के बावजूद घर के बाहर व भीतर की समस्त चुनौतियों से पूरी बहादुरी के साथ लड़ते हुए बसपा ने ना सिर्फ कुण्ठित व जातिवादी मानसिकता से पीड़ित गाल बजाते लोगों को बल्कि तथाकथित राजनैतिक विश्लषकों को भी गलत साबित करके 2007 में पूर्ण बहुमत की सरकारी बनायी है।

फिलहाल, उत्तर प्रदेश विधानसभा आमचुनाव-2022 के सन्दर्भ में तथ्य यह है कि बसपा का खेल सपा जैसी क्षेत्रीय पार्टियां बिगाड़ कर भाजपा को जिताने के लिए काम कर रही है क्योंकि सपा फाइट में तीसरे नम्बर पर है और भाजपा के सत्ता में रहने से हिन्दू-मुस्लिम ध्रुवीकरण बना रहेगा और इसका फायदा भाजपा के साथ-साथ सपा को मिलेगा। इसलिए सपा भाजपा की बी टीम के तौर पर पूरी सिद्धत से कार्यरत है।

भाजपा को सपा के साइलेंट समर्थन के मद्देनजर ही पश्चिम के शुरूआती दोनों चरणों के चुनावों में भाजपा को सत्तारूढ़ होने से रोकने के लिए मुस्लिम ने लगभग एकमुश्त और जाट व अन्य वर्गों ने भी लगभग दो-तिहाई समर्थन बसपा को दिया है। पश्चिम के मुस्लिमों की इस बुद्धिमत्तापूर्ण समर्थन का असर पूर्वांचल के मुस्लिमों पर साफ-साफ झलक रहा है। इसलिए भाजपा के शासनकाल में पीड़ित सम्पूर्ण मुस्लिम वर्ग व सपा के गुण्डाराज से भयभीत अतिपिछड़ा व सवर्ण तबका बसपा की तरफ रुख कर चुका है।

मौजूदा उत्तर प्रदेश विधानसभा आमचुनाव-2022 में जिस तरह से बसपा ने शान्तिपूर्वक 500 से अधिक जनसभाएं की, सामाजिक ताने-बाने का पूर्ण ख्याल रखते हुए राजनैतिक क्रमचय-संचय के द्वारा टिकटों का वितरण किया है, और जब भाजपा, कांग्रेस और सपा अपने अन्दर के कलह से जूझ रहे हैं ऐसे में बसपा अपने पदाधिकारियों, कार्यकर्ताओं के माध्यम से हर घर में पहुँचकर बसपा के कार्यकाल में किये गए ऐतिहासिक कार्यों व संविधान सम्मत शासन के आधार पर वोट की अपील कर रही है, जिस तरह से प्रतिदिन बहनजी अपनी विशाल चुनावी जनसभाओं में दलित, आदिवासी, पिछड़े, अतिपिछड़े, अल्पसंख्यक, गरीब सवर्ण, किसानों, फौजियों, राज्यकर्मियों, मेहनतकश वर्गों, महिलाओं, छात्रों, बेरोजगारों की समस्याओं को ना सिर्फ रेखांकित कर रहीं है बल्कि उसके समाधान पर जोर देते हुए सुन्दर व समृद्ध उत्तर प्रदेश का ख़ाका खींच रहीं हैं, जिस तरह बसपा ने उत्तर प्रदेश में कानून द्वारा कानून का राजस्थापित करते हुए गरीबों के लिए मुफ्त शिक्षा संग वजीफा, उन्नत व सस्ती स्वास्थ सेवा मुहैया कराया है, सर्वसमाज के हितों को ध्यान में रखते हुए 'सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय' की नीति के तहत कार्य किया है, उससे साफ़ जाहिर होता है कि उत्तर प्रदेश विधानसभा आमचुनाव-2022 के परिणाम तमाम एक्जिट पोल, सर्वे व तथकथित राजनैतिक विश्लेषकों के विश्लेषण को गलत साबित करेगें। उत्तर प्रदेश की आमजनता के रुख से पूरे आसार है कि बसपा पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने जा रही है।

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(इन्द्रा साहेब : शोध ग्रन्थ 'मान्यवर कांशीराम साहेब संगठन - सिद्धान्त एवं सूत्र' के लेखक हैं)

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Wednesday, February 2, 2022

Samriddhi Shikha Indra - The Lion

 


Deep Shikha Indra BSP Election 2022









 

UP Election 2022


























आभार पत्र, माया माह - 2022

 




BSP Rally 2022

 







Samriddhi Shikha Indra BSP 2022



 

BSP Amita Ambedkar UP Election 2022 Lucknow