Tuesday, April 28, 2020

Friday, April 24, 2020

बुद्धिज़्म - परिमिता का सिद्धांत

बुद्ध वंदना
नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स
नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स
नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स
त्रिशरणं 
बुद्धं शरणं गच्छामि
धम्मं शरणं गच्छामि
संघं शरणं गच्छामि
पंचशीलं 
पाणातिपाता वेरमणी सिख्खापदं समादियामि
अदिन्नादाना वेरमणी सिख्खापदं समादियामि
कामेसुमिथ्याचारा वेरमणी  सिख्खापदं समादियामि
मुसावादा वेरमणी सिख्खापदं समादियामि
सुरामेरयमज्जपमादट्ठाना वेरमणी सिख्खापदं समादियामि
साधु, साधु, साधु
नवीन सिद्धांत का चौथा भाग परिमिता का सिद्धांत है। परिमिता का सिद्धांत एक व्यक्ति के दैनिक जीवन में दस गुणों का आचरण करने के लिए प्रेरित करता है। वे दस गुण इस प्रकार हैं।
(1) पन्न, (2) शील, (3) नेक्खम, (4) दान, (5) वीर्य, (6) खांति (शांति) , (7) सच्च, (8) अधित्थान, (9) मेत्त और (10) उपेक्खा।
पन्न या बुद्धि वह प्रकाश है, जो अविद्या, मोह या अज्ञान के अंधकार को हटाता है। पन्न के लिए यह अपेक्षित है कि व्यक्ति अपने से अधिक बुद्धिमान व्यक्ति से पूछकर अपनी सभी शंकाओं का समाधान कर ले, बुद्धिमान लोगों से संबंध रखे और विभिन्न कलाओं और विज्ञान का अर्जन करे, जो उसकी बुद्धि विकसित होने मे सहायक हों।
शील नैतिक मनोवृत्ति अर्थात बुरा न करने और अच्छा करने की मनोवृत्ति, गलत काम करने पर लज्जित होना है। दंड के भय से बुरा काम न करना शील है। शील का अर्थ है, गलत काम करने का भय।
नेक्खम संसार के सुखों का परित्याग है।
दान का अर्थ अपनी संपत्ति, रक्त तथा अंग का उसके बदले में किसी चीज की आशा किए बिना, दूसरों के हित व भलाई के लिए अपने जीवन तक को भी उत्सर्ग करना है।
वीर्य का अर्थ है, सम्यक प्रयास। आपने जो कार्य करने का निश्चय कर लिया है, उसे पूरी शक्ति से कभी भी पीछे मुड़कर देखे बिना करना है।
खांति (शांति) का अभिप्राय सहिष्णुता है। इसका सार है कि घृणा का मुकाबला घृणा से नहीं करना चाहिए, क्योंकि घृणा, घृणा से शांत नहीं होती। इसे केवल सहिष्णुता द्वारा ही शांत किया जाता है।
सच्च (सत्य) सच्चाई है। बुद्ध बनने का आकांक्षी कभी भी झूठ नहीं बोलता। उसका वचन सत्य होता है। सत्य के अलावा कुछ नहीं होता।
अधित्थान अपने लक्ष्य तक पहुंचने के दृढ़ संकल्प को कहते हैं।
मेत्त (मैत्री) सभी प्राणियों के प्रति सहानुभूति की भावना है, चाहे कोई शत्रु हो या मित्र, पशु हो या मनुष्य, सभी के प्रति होती है।
उपेक्खा अनासक्ति है, जो उदासीनता से भिन्न होती है। यह मन की वह अवस्था है, जिसमें न तो किसी वस्तु के प्रति रुचि होती है, परिणाम से विचलित व अनुत्तेजित हुए बिना उसकी खोज व प्राप्ति में लगे रहना ही उपेक्खा है।
प्रत्येक व्यक्ति को चाहिए कि वह इन गुणों को अपनी पूर्ण सामर्थ्य के साथ अपने व्यवहार में अपनाए। इन पर आचरण करे। यही कारण है कि इन्हें परिमिता (पूर्णता की स्थिति) कहा जाता है। यही वह सिद्धांत है, जिसे बुद्ध ने संसार में दुःख तथा क्लेश की समाप्ति के लिए अपने बोध व ज्ञान के परिणामस्वरूप प्रतिपादित किया है।
स्पष्ट है कि बुद्ध ने जो साधन अपनाए, वे स्वेच्छापूर्वक अनुसरण करके मनुष्य की नैतिक मनोवृत्ति को परिवर्तित करने के लिए थे।
(यह बाबासाहेब अम्बेडकर द्वारा रचित किताब 'बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स' से लिया गया है)

कल्पना व स्थापत्य कला - बहन जी के व्यक्तित्व का एक अहम् पहलू

कल्पना व स्थापत्य कला
बहनजी के व्यक्तित्व का एक अहम् पहलू
रचनात्मकता व सृजन हैं जिसकी पहचान,

वो है बहना की बसपा सरकार।।

इतिहास समाज को प्रभावित करता है, तो ये भी सच हैं कि इसी समाज में जन्मी कुछ शख्शियतें इतिहास को ना सिर्फ प्रभावित करती हैं बल्कि अपने समय के समाज संस्कृति और इतिहास को स्थापित भी करती हैं। इसी तरह का एक अनोखा सृजन भारत के इतिहास में सम्राट अशोक के बाद उत्तर प्रदेश की बहुजन समाज पार्टी की सरकार में देखने को मिलता हैं। इसलिए शासन-प्रशासन, कानून-व्यवस्था, शिक्षा-शान्ति, समृद्धि-विकास, संविधान-लोकतंत्र, बुद्ध-अम्बेडकरी वैचारिकी और आधुनिक मानवीय मूल्यों के आधार पर सम्पूर्ण समीक्षा के बाद विद्वान बसपा के इस कार्यकाल को आधुनिक अशोक काल और माननीया बहनजी को आधुनिक अशोक भी कहते हैं।
यदि संस्कृति, इतिहास और स्थापत्य कला की तरफ गौर करे तो लोगों के ज़हन में लखनऊ और गौतम बुद्धनगर सबसे पहले दस्तक़ देता हैं। ये स्थापित सत्य हैं कि जहाँ एक तरफ रचनात्मकता और सृजन कुदरत की खूबसूरती का राज है तो वही दूसरी तरफ इंसान कुदरत की इसी बेहतरीन रचना व बेहद खूबसूरत सृजन का परिणाम हैं। इन्हीं इंसानों में कुछ लोगों की कल्पनाशीलता ऐसी होती हैं कि जब वो अपनी इस कल्पना को हकीकत की जमीं पर उतार देते हैं तो वो जहाँ एक तरफ मानव सभ्यता के इतिहास में मील का पत्थर साबित होती है तो वही दूसरी तरफ विकास की पहचान बन जाती हैं। ऐतिहासिक काल में बने कल्पना, कला, रचनात्मकता, सृजन और मानवीय शिक्षा के ऐसे बेजोड़ नज़ारे हड़प्पा, मोहनजोदारों, अजंता, एलोरा, साँची, नालन्दा आदि स्थलों में आज भी अपनी मौजूदगी का परिचय दे रहे हैं।
फ़िलहाल, यदि वर्तमान की बात करें तो भारत में बुद्धिष्ट राजाओं के बाद उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ, गौतमबुद्ध नगर और उत्तर प्रदेश के अन्य जिलों में निर्मित कल्पनाशीलता और रचनात्मकता की भव्य मिशालें लोगों को बरबस  आकर्षित करती हैं। भारत के गौरवशाली स्वर्णिम बौद्ध इतिहास, संस्कृति, सामाजिक आन्दोलन और महानायकों-महनायिकाओं को समर्पित और देश को प्रेरित करने वाली इन महान ऐतिहासिक विरासतों की कल्पना और निर्माण का पूरा श्रेय भारत में लोकतंत्र के महानायक मान्यवर काशीराम साहेब की प्रेरणा और भारत में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका आयरन लेडी बहन कुमारी मायावती जी और उत्तर प्रदेश की जनता को जाता हैं।
गौतम बुद्ध नगर में बना गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय सिर्फ शिक्षा का ही नहीं बल्कि बेहद खूबसूरत और बेहतरीन कला व निर्माण का भी प्रमाण हैं। ये प्राचीन भारत की समृद्धिशाली गौरवमयी इतिहास का भी परिचायक हैं। शिक्षा, कला, निर्माण, संस्कृति और इतिहास के नजरिये से यह भारत का एक मात्र विश्वविद्यालय हैं। राष्ट्रिय दलित प्रेरणा स्थल भी देश में सामाजिक परिवर्तन कर राष्ट्रनिर्माण के लिए प्रेरणा देने वाली एक ऐसी ही धरोहर हैं। राष्ट्रिय दलित प्रेरणा स्थल ने देश को उसके इतिहास से वाकिफ़ कराते हुए बुद्ध-अशोक-रैदास-बाबा साहेब के सपनों वाले मानवीय भारत निर्माण का ख़ाका खींच रहा हैं।
इसी तरह उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ का सामाजिक परिवर्तन चौक, डॉ अम्बेडकर सामाजिक परिवर्तन स्थल, मान्यवर काशीराम साहेब इको गार्डन मान्यवर काशीराम स्मृति उपवन, बुद्ध-विहार शान्ति उपवन, लखनऊ के चौराहों पर लगी तथागत गौतम बुद्ध, बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर, ज्योतिबा फुले, संत गाडगे समेत तमाम महानायकों की प्रतिमायें और अन्य तमाम राष्ट्रिय धरोहर बहन जी की कल्पना, कला, रचनात्मकता, सृजन व निर्माण का जीता-जगता प्रमाण हैं।
बहन जी द्वारा बनवायें स्मारकों में लगे राजस्थान के लाल पत्थरों पर खुदे बुद्ध-फुले-अम्बेडकरी महानायकों के सन्देश देश में अमानवीयता के खिलाफ विद्रोह करते हैं।ये सन्देश देश के दबे-कुचले पिछड़े वर्ग को सामाजिक परिवर्तन के लिए तैयार करते हुए एक बेहतरीन भारत के सृजन के लिए प्रेरित करते हैं। ये बहन जी द्वारा बनवाये ये स्मारक भारत राष्ट्र निर्माण की सबसे महत्वपूर्ण कड़ियों में से एक हैं जो समूचे देश को ना सिर्फ भारत की बौद्ध संस्कृति और इतिहास से जोड़ती हैं बल्कि उनकों न्याय-समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व के मूल्यों पर एक होकर सशक्त राष्ट्र बनने के लिए प्रेरित करती हैं।
ये सभी राष्ट्रीय विरासतें जनता के लिए समाज, संस्कृति और इतिहास का ऐसा विश्वविद्यालय है जिसमें वंचित जगत के वे लोग अपने इतिहास से रूबरू होते हैं जिन्होंने कभी स्कूल मुंह तक नहीं देखा है। यहाँ का मनोरम विहंगम दृश्य सदियों से गुलामी की जंजीरों में जकड़े लोगों के जहन में हुक्मरानियत का जज़्बा पैदा कर उनकों उनके स्वर्णिम इतिहास, बौद्ध जीवनशैली, शिक्षा और बुद्ध-फुले-अम्बेडकरी वैचारिकी से सराबोर कर देती हैं। यहीं बुद्ध-अम्बेडकरी वैचारिकी भारत में राष्ट्र निर्माण का कार्य करते हुए समूचे देश को एक सूत्र में बांधने के सबसे बड़ा कार्य कर रहीं हैं।
        ये सभी राष्ट्रीय धरोहर जहां भारत में एक तरफ़ सामाजिक परिवर्तन की महानायिका बहन कुमारी मायावती जी की भारत के स्वर्णिम इतिहास के प्रति जागरूकता व सजगता का प्रतीक हैं, भारत के महानायकों के प्रति श्रद्धांजलि हैं, और उनकी विचारधारा के बढ़ते कदमों की छाप हैं तो वही दूसरी तरफ ये राष्ट्रिय विरासतें बहन जी की कल्पना, रचनात्मकता, कला और निर्माण के प्रति रूचि का परिचायक भी है।
आने वाले समय में जब इतिहास निष्पक्ष होकर अपना लेख-जोखा करेगा तो भारत के गौरवशाली बौद्ध संस्कृति और इतिहास, इसके महानायकों-महानयिकाओं व उनके संदेशों को अपनी कल्पनाशीलता के जरिये लाल पत्थरों उकेर कर स्थापत्य कला के जरिये पुनः जीवित करने वाली आधुनिक अशोक (बहन कुमारी मायावती जी) व उनके कार्यकाल (बहन जी का कार्यकाल) को स्वर्णिम काल के तौर पर ही दर्ज़ करेगा।
रजनीकान्त इन्द्रा  (Rajani Kant Indra)
एमएएच (इतिहास), इग्नू-नई दिल्ली

Tuesday, April 21, 2020

भारतीय कृषि और बाबा साहेब का चिंतन

भारतीय कृषि और बाबा साहेब का चिंतन

प्रस्तावना

जीवन निर्वाह के आर्थिक तरीकों का अध्ययन सदा से ही महत्वपूर्ण रहा हैं। इसमें कृषि सबसे महत्वपूर्ण हैं क्योकि यह उद्योग अनाज के उत्पादन से सम्बंधित हैं। इसलिए इसकी समस्याओं पर हमें सबसे अधिक गम्भीरतापूर्वक विचार करना चाहिए।[1]

जमीन देश के दलित-बहुजन समाज के लिए शुरू से ही विमर्श का मुद्दा रहा हैं। यदि मध्यकालीन इतिहास से देखें तो जमीन और अन्न के मुद्दे को संत शिरोमणि संत रैदास अपने बेगमपुरा में सभी को भरपेट अन्न और उनके प्रसन्न रहने की बात करते हैं। संत कबीर ने भी ज़मीन की समस्या को बड़ी प्रखरता से उठाया हैं। कबीर ने जमींदारों के अत्याचार, लगान की मार, किसानों की गरीबी और गाँव से उनके पलायन का सजीव और मार्मिक वर्णन अपने पदों में किया है। उन्नीसवीं सदी में महात्मा जोतिबा फुले ने जमीन के सवाल को लेकर ‘किसान का कोड़ा’ जैसी रचनाएँ लिखीं।[2]

इसके बाद कृषि व कृषि अर्थविज्ञान के क्षेत्र में सबसे बड़ा विमर्श बाबा साहेब ने शुरू किया। इसलिए कृषि और कृषि अर्थविज्ञान में बाबा साहेब का नाम बड़े ही प्रमुखता से सामने आता हैं। बाबा साहेब के चिंतन के केंद्र में कृषि व कृषि अर्थविज्ञान के साथ-साथ भूमिहीन खेतिहर व दिहाड़ी मजदूर किसान रहें हैं। छोटे किसान राहत विधेयक पर बहस, स्मॉल होल्डिंग्स इन इंडिया एंड देयर रेमेडीज़ और स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज़ में बाबा साहेब कृषि सम्बन्धी समस्याओं और उनके निवारण को वैज्ञानिक विश्लेषण के साथ अपनी सभाओं व पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से लगातार उजागर करते रहें हैं।

छोटी जोत की समस्या और निवारण

एडम स्मिथ के अनुसार बड़े जोत ज्यादा लाभकारी होते हैं। और, वे बड़े जोतो की पैरवी करते हैं। इंग्लैण्ड इसका बेहतरीन उदाहरण हैं, जहाँ भू-सम्पति के उत्तराधिकार के बारे में ज्येष्ठ पुत्र के अधिकार का कानून बना तो वही दूसरी तरफ क्रांति के बाद फ़्रांस छोटे जोतों वाला देश बना। फिलहाल जहाँ तक रहीं बात भारत की तो बड़ौदा राज्य में छोटी और बिखरी हुई जोतों की चकबंदी के लिए नियंत बड़ौदा कमिटी की रिपोर्ट-१९१७ के अनुसार बड़ौदा राज्य छोटी जोतो वाला राज्य हैं। और, ये भी ध्यान देने योग्य है कि यह तथ्य पूरे भारत के मामले में भी सही हैं। 

कहा जाता हैं कि जोतों का अत्याधिक छोटा आकार भारतीय कृषि के लिए बहुत हानिकारक हैं। निसंदेह छोटी जोतो में बहुत बुराइयां होती हैं, परन्तु यदि वे छोटी जोतें संयत हो तो बहुत सी बुराइयां कम हो जाए। लेकिन दुर्भाग्यवस ऐसा नहीं हैं।[3] कीटिंग सर्वे के हवाले से ये कहा जाने लगा कि यदि जोतो का आकर बड़ा कर दिया जाय और चकबंदी कर दी जाय तो कृषि की उत्पादकता बढ़ जाएगी।[4]

बाबा साहेब, जी ऍफ़ कीटिंग की चकबन्दी को लेकर दो अहम् प्रश्न करते हैं कि  (१) वर्तमान छोटी और बिखरी हुई जोतों को कैसे एकत्रित किया जाय? (२) एक बार चकबंदी हो जाने के बाद उनका वही आकर कैसे बरक़रार रखा जाय? इस संदर्भ में बाबा साहेब बड़ौदा कमिटी के दो सिंद्वातों[5] और प्रो एच एस जेवेंस के चकबन्दी के सिंद्वात का वर्णन करते हुए प्रो जेवेन्स के चार सिंद्धान्तों में एक पांचवा सिद्धांत जोडते हुए कहते हैं कि भूमि का पुनर्वितरण यथासंभव अधिकतम न्यायोचित आधार पर किया जाय, और जिन्हें किन्हीं कारणों से जमीन की पिछली मिलकियत ना दी जा सकी, उन्हें उदारपूर्वक मुआवजा दिया जाय।[6]

बाबा साहेब बम्बई प्रेसिडेंसी के कृषि निदेशक माननीय श्री जी ऍफ़ कीटिंग, प्रो जेवेन्स और बड़ौदा कमेटी की रिपोर्ट का विश्लेषण करते हुए कहते हैं कि बड़ौदा कमिटी ने ही सिर्फ इस बात की चेष्टा की हैं कि चकबंन्दी भी की जाय और उस चकबन्दी को बरक़रार भी रखा जाय, जबकि प्रो जेवेन्स ने चकबंदी की पैरवी तो की लेकिन चकबंदी के परिणामों को संरक्षित करने की तरफ ध्यान नहीं दिया हैं। कीटिंग ने जोतों के आकर बढ़ाने की बात की हैं, उन्होंने चकबंदी के प्रश्न की चर्चा ही नहीं की हैं।[7]

यह मानकर चला जा सकता हैं कि जोतों का आकार बड़ा करना उतना ही महत्वपूर्ण हैं जितना उनकी चकबन्दी। हमारी कृषि में रूचि रखने वाले सभी लोगों की इच्छा हैं कि जोतें आर्थिक दृष्टि से लाभकारी हो। परन्तु इन लोगों ने लाभकारी जोत की परिभाषा को स्पष्ट नहीं किया हैं। प्रो जेवेन्स ने गाँव में बहुलक औसत २०-३० एकड़ की पैरवी करते हैं। कीटिंग के मुताबिक ऐसी जोत जो इतनी पैदावार देती हैं कि एक व्यक्ति खर्चे निकालकर अपना और अपने परिवार का पेट आराम से पाल सके। बड़ौदा राज्य की रिपोर्ट ने तो कई परिभाषा देकर खुद को ही भ्रामक बना दिया हैं।[8]

प्रो जेवेन्स, कीटिंग और बड़ौदा राज्य रिपोर्ट की परिभाषाएँ उत्पादन की जगह उपभोग को ध्यान में रखकर दी गयी हैं। इन परिभाषाओं में त्रुटि हैं क्योकि उपभोग वह सही पैमाना नहीं हैं, जिससे जोत की आर्थिक प्रकृति का आकलन किया जा सके। यह तर्क-विरुद्ध हैं कि एक जोत इस लिए लाभकारी नहीं है क्योकि वह एक परिवार का पेट पालन नहीं कर सकती हैं, फिर चाहे उनकी पैदावार उस पर किये गए निवेश के अनुपात में अधिकतम हो।[9] ऐसा इसलिए हैं क्योकि भारत में सामान्यतः कृषि पर जरूरत से अधिक (सरप्लस) लोग काम करते है। सामाजिक दृष्टि से इन सबका पालन जरूरी हैं लेकिन यह ध्यान देना जरूरी हैं कि आर्थिक दृष्टि से लाभकारी भूमि का पैमाना सामाजिक दृष्टि से तय नहीं किया जा सकता हैं। 

सच्चा आर्थिक सम्बन्ध निवेश और उत्पादन के बीच होता हैं। उत्पादन के विभिन्न कारकों का उपयोग समानुपात के नियम के अनुसार किया जाता हैं। यदि उत्पादन के विभिन्न कारक गलत अनुपात में इस्तेमाल किये जाय तो उससे हानि अवश्यगामी हैं। कुशल उत्पादन का मतलब यही होता हैं कि हर कारक का अधिकतम लाभकारी ढंग से उपयोग किया जाय और यह तभी हो सकता हैं, जब उस कारक का अन्य कारकों से वांछित मात्रा में सहयोग हो। इस तरह एक आदर्श समानुपात वो होता हैं जो मिलकर काम करने वाले विभिन्न कारकों के बीच में रहना चाहिए, यद्यपि यह आदर्श विभिन्न कारकों के समानुपात में फेरबदल करने पर बदल सकता हैं। इसलिए हम केवल ऐसे खेत को ही आर्थिक दृष्टि से लाभकारी बता सकते हैं जो उत्पादन की दृष्टि से लाभकारी होता हैं, ना कि उपभोग की दृष्टि से।[10]

इसलिए अर्थविज्ञानं की भाषा में ये कतई नहीं कहा जा सकता हैं कि एक बड़ी जोत लाभकारी और छोटी जोत अलाभकारी हैं। किसी भी जोत का लाभकारी व अलाभकारी होना कृषि जोत के विभिन्न कारकों और तकनीकी उपकरणों के विकास व उनकी उपलब्धता के सामंजस्य पर निर्भर करता हैं।

भारत में कृषि की खामियों को दूर करने के लिए बुनियादी तौर पर जोतों का आकार बढ़ाने की जरूरत नहीं हैं, बल्कि पूँजी और पूंजीगत सामान बढ़ाने की जरूरत हैं। पूँजी बचत से आती हैं, और बचत सरप्लस फसल से आता हैं। भारत में सरप्लस फसल ना होने की वजह हैं सामाजिक अर्थव्यवस्था में असामंजस्य। इसका मतलब हैं कि भारत के कृषि क्षेत्र में जरूरत से ज्यादा लोग (निठ्ठले) कृषि कार्य में लगे हुए हैं। परिणामस्वरूप जनसँख्या का कृषि जमीन पर अत्याधिक दबाव हैं। निठल्ला मजदूर देश के लिए हानिकारक होता हैं, बोझ होता हैं। इनके चलते देश बिना पूँजी का हो जाता हैं। ऐसे में स्पष्ट हो जाता हैं कि सामाजिक अर्थव्यवस्था सुधारने का उपाय किये बगैर चकबंदी और जोतों का आकर बड़ा करने के प्रयास असफल ही सिद्ध होगें। 

ऐसे में भारतीय कृषि की सबसे अहम् समस्या हैं सामाजिक अर्थव्यवस्था की असंतुलित स्थिति। इस सामाजिक अर्थव्यवस्था को संतुलित करने के लिए कृषि क्षेत्र में सरप्लस लोगों को किसी अन्य क्षेत्र में शिफ्ट करना होगा। इसके लिए जरूरी हैं औधोगिकरण। इसके परिणामस्वरूप कृषि योग्य भूमि पर जनसख्या का दबाव कम होगा, पूँजी तथा पूंजीगत सामान बढ़ने से जोतों का आकर बढ़ाने की आर्थिक आवश्यकता पैदा हो जाएगी। भूमि का उप-विभाजन और विखण्डणीकरण के अवसर कम हो जायेगें। परिणामस्वरुप चकबंदी करना, जोतों का आकर बड़ा करना और उन्हें बरक़रार रखना आसान होगा।

इस संदर्भ में १८८३ में संयुक्त राज्य अमरीका में किया गया एक अध्ययन लन्दन टाइम्स में छापा था जिसके अनुसार खेती की भूमि का मूल्य उसी अनुपत में घट जाता हैं जितना कि कृषि का अनुपात अन्य उद्योगों के मुक़ाबले बढ़ जाता हैं। मतलब कि जहाँ सारे श्रमिक खेती पर निर्भर होते हैं, वहां जमीन का मूल्य कम होता हैं, अपेक्षाकृत उसके जगह जहाँ केवल आधे लोग कृषि पर निर्भर होते हैं, और जहाँ केवल एक चौथाई लोग कृषि पर निर्भर होते हैं, तो उनकी पैदावार और उनके खेतों का मूल्य और भी अधिक होता हैं।[11]

राज्य समाजवाद का अंग बने कृषि 

बाबा साहेब देश में सिर्फ राजनैतिक नहीं बल्कि आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र भी चाहते हैं। बाबा साहेब ने संविधान सभा में २६ नवम्बर १९४९ के दिन देश को आगाह करते हुए कहा हैं कि आज हम एक विरोधाभाष में पदार्पण करने जा रहे हैं जहाँ हम राजनीति में समानता को स्वीकार कर चुके हैं। लेकिन देश में आर्थिक और सामाजिक समानता अभी भी बाक़ी हैं। देश का शोषित तबका विद्रोह करे उसके पहले जितनी जल्दी हो सके देश में आर्थिक और सामाजिक लोकतंत्र भी स्थापित कर लिया जाना चाहिए।

भारत की सामाजिक व्यवस्था में आर्थिक हैशियत का सीधा लिंक सामाजिक हैशियत से भी हैं। बाबा साहेब ने इस बात का खंडन किया कि जमीन आर्थिक आजीविका का साधन मात्र है। उनका मत हैं कि भारत में जमीन रखना आर्थिक जीविका का मामला नहीं है, वरन् सामाजिक हैसियत का मामला है। जमीन रखने वाला आदमी अपने आप को उस आदमी से उच्चतर हैसियत वाला मानता है, जो जमीन नहीं रखता है। यही कारण है कि कोई हिन्दू नहीं चाहता कि दलित जातियों के लोग जमीन पाकर उच्च जातियों के समान स्तर पर पहुँचें, जो हिन्दू समाज व्यवस्था के विरुद्ध है। उन्होंने कहा कि यही कारण है कि गाँवों में दलित जातियों के लोगों के लिये जमीन का एक छोटा टुकड़ा प्राप्त करना भी लगभग असम्भव है।[12]

जैसा कि विदित हैं कि आज भी जो अधिकतर लोग जमीन दबाये बैठे हैं वे लोग खुद खेती नहीं करते हैं बल्कि उनके खेतों पर मजदूर कार्य करते हैं। ऐसे में ये जमीन उनकों दिया जाय जो खुद जमीन पर कार्य करते हैं। बाबा साहेब चाहते हैं कि सरकार किसी को जमीन का स्वामी बनाने के बजाय जमीन को खुद लेकर उन मजदूरों को वितरित करे जो जमीन पर अन्न उत्पादन का कार्य करते हैं। और, जमीन का वितरण इस प्रकार से हो कि सभी को एक निश्चित सीमा की जमीन मिल सके।

बाबा साहेब कांग्रेस के दमनकारी चरित्र को नंगा करते हुए कहते हैं कि कांग्रेस सभी तरह के लोगों की खिचड़ी संस्था हैं। पूंजीपति-मजदूर, जमींदार-किसान, मालगुजार-साहूकार और भूमिहीन जैसे परस्पर विरोधी वर्गों का पक्ष हैं कांग्रेस। ऐसी कांग्रेस से कभी गरीबों का कल्याण नहीं हो सकता हैं।[13] बाबा साहेब कांग्रेस* से सचेत करते हुए कहते हैं कि जो मारवाड़ी जाली दस्तावेज बनाकर और आपके अंगूठे का निशान लगवाकर आपकी जमीने, घर-द्वार पर कुर्की ले आता हैं क्या आपको लगता हैं कि वे मारवाड़ी गरीबों, किसानों और मजदूरों आदि का कल्याण करेगी? कांग्रेस अपना पूँजीपतित्व टिकाये रखना चाहती हैं।[14]

बाबा साहेब कहते हैं कि काँग्रेस भूमि का राष्ट्रीयकरण कर सकती थी, पर उसने राजनैतिक चुनाव जीतने के लिये, ऐसा कदम नहीं उठाया और स्थिति यह हो गयी कि अब उसके लिये सीमा बनाना नामुमकिन हो गया है। लेकिन सरकार अब भी कह रही है कि वह दलितों को जमीन देगी। पर, आंबेडकर ने सवाल उठाया जब भूस्वामियों से वह जमीन ले ही नहीं सकती, तो वह देगी कहाँ से?[15]

आंबेडकर ने 1937 में खोती प्रथा के उन्मूलन के लिये बम्बई विधानसभा में बिल प्रस्तुत किया, जिसमें उनका जोर खोतों को समाप्त कर, उन किसानों को ही भू-राजस्व संहिता के अन्तर्गत वास्तविक दखलकार का दर्जा देने पर था, जो जमीनों पर खेती कर रहे थे। आंबेडकर के प्रयास से खोती प्रथा का उन्मूलन हुआ और किसानों को उनका हक मिला।[16]

कुलमिलाकर बाबा साहेब देश में पूरी तरह से लोकतंत्र चाहते हैं। बाबा साहेब धन-धरती का उचित बटवारा चाहते हैं। बाबा साहेब चाहते हैं कि जमीन उन्हीं को मिले जो खुद खेती करते हैं। इस संदर्भ में बाबा साहेब ने अपनी किताब के स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज़ शीर्षक वाले लेख के तहत देश की कृषि योग्य भूमि, उनके प्रबंधन और वितरण के संदर्भ में उपाय सुझाया हैं। 

बाबा साहेब ने देश की बहुतायत आबादी के हित और देश की कृषि अर्थव्यवस्था के माद्देरनज़र मूल और आवश्यक उद्योगों पर सरकारी नियंत्रण, बीमा व्यवसाय पर सरकार का एकाधिकार, कृषि उद्योग के राष्ट्रीकरण की पैरवी की। बाबा साहेब चाहते है कि सरकार मूल और आवश्यक उद्योगों, बीमा व्यवसाय तथा कृषि भूमि का डिबेंचर के रूप में उचित मुआवज़ा देकर अधिग्रहण करे। सरकार अधिग्रहण की गई भूमि को मानक आकार में भाग कर खेती के लिए ग्रामवासियों को पट्टे के रूप में बाँटे। पट्टाधारी गाँव, सरकार को खेत के किराए का भुगतान करेगा और पैदावार को परिवार में निर्धारित तरीक़े से बाँट लेगा। कृषि भूमि को जाति, धर्म के आधार पर बिना भेदभाव के इस प्रकार बाँटा जाए कि न कोई ज़मीनदार होगा, न पट्टेदार, न भूमिहीन किसान होगा। इस तरह के सामूहिक खेती के लिए वित्त, सिंचाई-जल, जोत-पशु, खेती के औज़ार, खाद-बीज आदि का प्रबंध करना सरकार की ज़िम्मेदारी होगी। इस खेती में सरकार को जो आय होगी वह है (क) ज़मीन पर लगान, (ख) डिबेंचर-धारी को भुगतान किए जाने वाला ब्याज, (ग) खेती को कैपिटल-गुड्स उपलब्ध कराने का शुल्क और (घ) इस पट्टेदारी के नियम को तोड़ने और खेती की अवहेलना करने वालों से वसूला गया अर्थदण्ड।

इस तरह से बाबा साहेब देश में राज्य समाजवाद की पैरवी करते हैं। स्टेट्स एंड माइनॉरिटीज़ में बाबा साहेब अपनी इस बात का खुलासा करते हुए भारत का तेजी से औद्योगीकरण करने के लिये ‘राज्य समाजवाद’ को अनिवार्य  मानते हैं। निजी पूँजीवाद आर्थिक विषमता को पैदा करेगा, जैसा कि उसने यूरोप में किया है, और वह भारतीयों के लिये एक चेतावनी होनी चाहिए।[17]

भूमिहीन खेतिहर मजदूरों के प्रति बाबा साहेब की चिंता

बाबा साहेब कांग्रेस और तमाम ब्राह्मणवादी सत्ताधारियों के चरित्र को भलीभांति जानते हैं। बाबा साहेब जानते हैं कि पूंजीपतियों और जमींदारों की कांग्रेस पार्टी कभीं देश के भूमिहीन खेतिहर मजदूर किसानों को उनका वाजिब हक़ नहीं देगी।[18] राष्ट्र निर्माण के अन्य महत्वपूर्ण कार्यों में अत्यधिक व्यस्त होने के बावजूद भी बाबासाहेब ने भूमिहीन खेतिहर मजदूर किसानों के लिए ना सिर्फ लेखनी चलायी बल्कि अपनी सभाओं में, अपनी पार्टी के विधान में और अन्य सभी मंचों पर भूमिहीन खेतिहर मजदूरों के लिए आवाज भी उठायी। 

भूमिहीन खेतिहर मजदूर किसानों की समस्याओं के प्रति चिंता की वजह से ही बाबा साहेब की स्वतंत्र मजदूर पार्टी के संविधान में भी भूमिहीन खेतिहर मजदूर और किसानों की समस्या और जमींदारी उन्मूलन एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा हैं। भूमिहीन खेतिहर मजदूर किसानों की समस्याओं को संज्ञान में लेते हुए बाबा साहेब भूमिहीन खेतिहर मजदूर-किसानों के हक़ के लिए ०७ नवम्बर १९३७ को दौड़, जिला पूना में सभा करते हुए ज़मींदारी पद्धति को खत्म करने वाला प्रस्ताव पारित करते हैं।[19] बाबा साहेब ने अपने शोध-पत्रों व किताबों के जरिये देश की कृषि समस्या का वैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए उसका समुचित व न्यायोचित निवारण प्रस्तुत किया। भारतीय कृषि के भविष्य के लिए अपने महान कृतित्व के जरिये कृषि-सुधार व कृषि-अर्थव्यवस्था के स्वस्थ जीवन का ख़ाका खींचकर बाबा साहेब ने भारतीय कृषि और भूमिहीन खेतिहर मजदूर किसानों[20] के उत्थान के लिए महत्वपूर्ण और निर्णायक कार्य किया हैं।[21]

हालाँकि, बाबा साहेब ने देश की कृषि समस्या व इसके निवारण पर अपनी लेखनी चलायी, अलग-अलग मंचों पर कृषि सुधार के लिए लड़ाई लड़ी लेकिन फिर भी बाबा साहेब अपने इन प्रयासों से संतुष्ट नज़र नहीं आते हैं। इसलिए बाबा साहेब देश के भूमिहीन खेतिहर मजदूर किसानों के विषय में कहते हैं कि "मै गांव में रहने वाले भूमिहीन मजदूरों के लिए काफी चिंतित हूँ। मै उनके लिए ज्यादा कुछ नहीं कर पाया हूँ। मै उनकी दुःख तकलीफों को नजरअंदाज नहीं कर पा रहा हूँ। उनकी तबाही का मुख्य कारण उनका भूमिहीन होना हैं। इसलिए वे अत्याचार और अपमान के शिकार होते रहते हैं, और वे अपना उत्थान नहीं कर पाते हैं। मैं इसके लिए संघर्ष करूँगा। यदि सरकार इस कार्य में कोई बाधा उत्पन्न करती हैं तो मैं इन लोगों का नेतृत्व करूँगा और इनकी वैधानिक लड़ाई लडूंगा। लेकिन किसी भी हालत में भूमिहीन लोगों को जमीन दिलाने का प्रयास करूँगा।[22]"

भूमिहीन खेतिहर मजदूर किसानों की समस्याओं से बाबा साहेब अच्छी तरह से वाक़िफ थे। इसीलिए बाबा साहेब स्वतंत्र भारत की सरकार में नई दिल्ली स्थित योजना आयोग, जोकि भारत सरकार का एक थिंक टैंक था, में काम करना चाहते थे। इस संस्था का प्रमुख कार्य देश के संसाधनों का आकलन करना, इन संसाधनों के प्रभावी उपयोग के लिए पंचवर्षीय योजनाओं का निर्माण करना, प्राथमिकताओं का निर्धारण और योजनाओं के लिए संसाधनों का आवंटन करना, योजनाओं के सफल क्रियान्वयन के लिए आवश्यक मशीनरी का निर्धारण करना, योजनाओं की प्रगति का आवधिक मूल्यांकन करना, देश के संसाधनों का सबसे प्रभावी और संतुलित ढंग से उपयोग करने के लिए योजनाओं का निर्माण करना, आर्थिक विकास को बाधित करने वाले कारकों की पहचान करना, योजना के प्रत्येक चरण के सफल क्रियान्वयन के लिए आवश्यक मशीनरी का निर्धारण करना था। लेकिन ब्राह्मणी सत्ताधारियों और पूंजीपतियों, जमींदारों वाली कांग्रेस ने बाबा साहेब को भारत विकास की योजना तय करने वाले संस्था में जगह देने से साफ़ इंकार कर दिया। ऐसा करके कांग्रेस ने भारत में ब्राह्मणवाद और पूँजीवाद की उम्र को ना सिर्फ बढ़ाया बल्कि उनकों मजबूत करके भारत के भूमिहीन खेतिहर मजदूर किसानों को बेबसी, लाचारी और गरीबी की भट्ठी में झोंक कर भारत के विकास को  ही कुंद कर दिया हैं। फिर, कांग्रेस की इस ब्राह्मणवादी और पूंजीवादी मंशा को कांग्रेस के साथ कंधे से कन्धा मिलाकर जनसंघ, जनता पार्टी, भारतीय जनता पार्टी और अन्य सभी ब्राह्मणी पूंजीवादी पार्टियों ने आगे बढ़ाते हुए संविधान निहित समाजवाद[23] को ध्वस्त कर देश के सभी भूमिहीन खेतिहर मजदूर किसानों को सत्ता पर कब्ज़ा जमायें जमींदारों और पूंजीपतियों के रहम-ओ-करम पर छोड़ दिया हैं।

उपसंहार

उपरोक्त विमर्श से स्पष्ट हैं कि बाबा साहेब उपभोग को ध्यान में रखकर निर्धारित की गयी परिभाषा का खण्डन करते हुए कहते हैं कि किसी भी जोत का लाभकारी व अलाभकारी होना कृषि जोत के विभिन्न कारकों और तकनीकी उपकरणों के विकास व उनकी उपलब्धता के सामंजस्य पर निर्भर करता हैं। छोटी जोतों की समस्या का समाधान व चंकबदी से पूर्व बाबा साहेब जमीन पर दबाव को कम करने के लिए राज्य समाजवाद पर आधारित औधोगिकीकरण की पैरवी करते हैं जिससे कि सरप्लस लोगों को कृषि क्षेत्र से शिफ्ट करके विनिर्माण के क्षेत्र में उत्कृष्ट अवसर मुहैया कराया जा सके।

इसके साथ-साथ बाबा साहेब कृषि विज्ञान-अभियंत्रण-तकनीकी विकास, कृषि बीमा का राष्ट्रीकरण, आसान कृषि ऋण, सिंचाई-जल, जोत-पशु, खेती के औज़ार, खाद-बीज आदि का प्रबंधन, कृषि अर्थव्यवस्था के मूल और आवश्यक उद्योगों पर सरकारी नियंत्रण, कृषि उद्योग का राष्ट्रीकरण  की पैरवी करते हैं। जिससे कि देश का सर्वांगीण विकास हो सके। जमींदारी का उन्मूलन हो सके। अदृश्य किसानों को ख़त्म कर खेतों में काम करने वाले खेतिहर मजदूरों को किसानी का मालिकाना हक़ दिया जा सके। इस प्रकार देश के हर तबके, खासकर भूमिहीन खेतिहर मजदूर को मुख्यधारा से जोड़ कर भारत राष्ट्र निर्माण किया जा सके। बाबा साहेब के व्यक्तित्व के इन्हीं विभिन्न आयामों को ध्यान में रखकर ही बाबा साहेब को आधुनिक भारत का जनक और भारत राष्ट्र निर्माता कहा जाता हैं।

रजनीकान्त (Rajani Kant)

एमएएच (इतिहास), इग्नू-नई दिल्ली

Email – ipslove08@gmail.com



[1]अम्बेडकर, बी आर, पृष्ठ , बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय,२०१९, खण्ड-२, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली

[2]भारती, कँवल, जमीन के सवाल और डा. आंबेडकर, फॉरवर्ड प्रेस, अप्रैल १७, २०१७

[3]अम्बेडकर, बी आर, पृष्ठ २३३, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय, २०१९, खण्ड-२, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली

[4]अम्बेडकर, बी आर, पृष्ठ २३६, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय, २०१९, खण्ड-२, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली

[5]यदि चकबन्दी की जाती हैं तो बड़ौदा राज्य कमेटी की रिपोर्ट ने आर्थिक लाभकारी इकाई और मूल स्वामित्व के आधार पर दो तरीके सुझाये जिसमे से दूसरे वाले तरीके को पसंद किया जिसमे किसी को भी सिवाय उन थोड़े से लोगों के जिनकी जमीन बहुत कम थी, जमीन से वंचित नहीं किया जाता हैं। इस तरह छोटे को भी अपनी दशा सुधारने का मौका मिलेगा। भूमि के हर मालिक को भूमि का एक नया सुसंयत प्लाट मिल जायेगा, जिसका मूल्य उसकी छोटी-छोटी और बिखरी हुई जोतों के अनुपात में होगा। इस तरह से पिछले उप-बिभाजन और उनसे जुडी हुई बुराइयां ख़त्म हो जाएगी। (अम्बेडकर, बी आर, पृष्ठ २२८, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय,२०१९, खण्ड-२, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली)

इसके मुताबिक जब चकबन्दी का फैसला लिया जाय तो सभी खातेदारों और उनकी जोतों की सूची बना ली जाय और पंच लोग बाजार भाव के अनुसार पर जोतों का मूल्य लगा ले। फिर भूमि का पुर्नवितरण कर दिया जाय और हर खातेदार को उसकी मूल जोत के अनुपात में यथासंभव उसी मूल्य का एक प्लाट दे दिया जाय। इस तरीके से किसी भी खातेदार को भूमि से वंचित नहीं किया जाता हैं। हर किसी को जमीन मिल जाती हैं और उसे अपनी छोटी-छोटी बिखरी हुई जोतों की जगह उनके कुल क्षेत्रफल के लगभग बराबर एक प्लाट मिल जाता हैं। केवल बहुत थोड़े से ही लोग ऐसे हो सकते हैं, जिनकी जोतें इतनी छोटी हो कि उन्हें किसान बनाये रखना उचित नहीं होगा और उन्हें अपनी भूमि खो देनी पड़ें। परन्तु इस तरह उन्हें भी फायदा होगा, क्योकि उन्हें भी अपनी थोड़ी सी भूमि के पूरे पैसे मिल जायेगें। (अम्बेडकर, बी आर, पृष्ठ २२७-२२८, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय,२०१९, खण्ड-२, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली)

[6]अम्बेडकर, बी आर, पृष्ठ ७-२, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय,२०१९, खण्ड-२, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार नई दिल्ली

[7]अम्बेडकर, बीआर, पृष्ठ-२४१, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय, २०१९, खण्ड-२, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नईदिल्ली

[8]अम्बेडकर, बीआर, पृष्ठ-२४२-२४३, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय, २०१९, खण्ड-२, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिकन्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नईदिल्ली

[9]अम्बेडकर, बीआर, पृष्ठ-२४४, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय, २०१९, खण्ड-२, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठानसामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली

[10]अम्बेडकर, बीआर, पृष्ठ-२४५, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय, २०१९, खण्ड-२, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली

[11]अम्बेडकर, बीआर, पृष्ठ-२५७, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय, २०१९, खण्ड-२, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली

[12]भारती, कँवल, जमीन के सवाल और डा. आंबेडकर, फॉरवर्ड प्रेस, अप्रैल १७, २०१७

[13]अम्बेडकर, बी आर, पृष्ठ-२६, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय, २०१९, खण्ड-३९, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली

*बाबा साहेब की ये चेतावनी आज की कांग्रेस के साथ-साथ भाजपा, कम्युनिष्ट, शिवसेना, राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, आम आदमी पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड), समाजवादी पार्टी, लोक जनशक्ति पार्टी, रिपब्लिकन पार्टी ऑफ़ इण्डिया (ए) जैसी गाँधीवादी-लोहियावादी-हिंदुत्ववादी व गैर-अम्बेडकरी राजनैतिक दलों के विषय में भी शत-प्रतिशत सच हैं।

[14]अम्बेडकर, बी आर, पृष्ठ-१७, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय, २०१९, खण्ड-३९, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली

[15]भारती, कँवल, जमीन के सवाल और डा. आंबेडकर, फॉरवर्ड प्रेस, अप्रैल १७, २०१७

[16]भारती, कँवल, जमीन के सवाल और डा. आंबेडकर, फॉरवर्ड प्रेस, अप्रैल १७, २०१७

[17]भारती, कँवल, जमीन के सवाल और डा. आंबेडकर, फॉरवर्ड प्रेस, अप्रैल १७, २०१७

[18]अम्बेडकर, बी आर, पृष्ठ ४७-४८, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय, २०१९, खण्ड-३९, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली

[19]अम्बेडकर, बी आर, पृष्ठ-५०, बाबा साहेब डॉ आंबेडकर सम्पूर्ण वांड्मय, २०१९, खण्ड-३९, डॉ आंबेडकर प्रतिष्ठान सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार, नई दिल्ली

[20]अदृश्य किसान वो किसान होता हैं जिसके पास जमीन हैं लेकिन वो खुद खेती करने के बजाय शहरों में रहता हैं, और उसके जमीन पर भूमिहीन खेतिहर मजदूर दैनिक मजदूरी या बटाई पर खेती करते हैं।किसान वो होता हैं जो जमीन पर उत्पादन कार्य करता हैं।

[21]लेकिन आज़ादी से लेकर आज तक की ब्राह्मणी व पूंजीवादी सरकारों व सत्तासीनों ने इस पर अमल नहीं किया। इसका नतीजा ये रहा हैं कि भारत की कृषि अर्थ व्यवस्था चरमरा गयी हैं। कृषि भूमि पर जनसंख्या दबाव कायम हैं। अदृश्य किसानी के रूप में जमींदारी आज भी पूर्णतः कायम हैं। भूमिहीनों, खेतिहर मजदूरों और छोटे किसान जीवन-यापन तक करने में असमर्थं हैं। देश के सभी भूमिहीनों, मजदूरों, खेतिहर मजदूरों और वास्तविक किसानों को चाहिए कि वे संगठित होकर बाबा साहेब के सिंद्धान्तों पर चलने वाली देश के बहुजन समाज के लिए लोकतंत्र के महानायक मान्यवर काशीराम साहेब द्वारा बनाई गयी बहुजन समाज की अपनी राजनीतिक पार्टी को सत्ता सौंप कर देश में संवैधनिक व लोकतान्त्रिक मूल्यों को स्थापित कर एक बेहतरीन भारत राष्ट्र निर्माण करें। यहीं भारत के राष्ट्र निर्मता बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर को सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

[22]प्रो विवेक कुमार, पृष्ट संख्या-२६, राष्ट्र निर्माता बाबा साहेब अम्बेडकर, दास पब्लिकेशन, सितम्बर २०१६ संस्करण ISBN : 978-81-931329-2-0

[23]नरेंद्र दामोदर मोदी के नेतृत्व में बीजेपी की मौजूदा सरकार की मनुवादी और क्रोनी कैपिटलिज़्म की नीतियों के कारण आज देश की अर्थव्यवस्था रसातल में पहुँच चुकी हैं, लेकिन भारत के उद्योग घराने दिन दूनी रात चौगुनी गति से मजबूत हुए हैं। बीजेपी से राज्यसभा के सांसद राकेश सिन्हा ने क्रोनी कैप्टलिज़्म को कानूनी जामा पहनाने के लिए ही सदन में संविधान की प्रश्तावना से "समाजवाद" शब्द को हटाने के लिए मोशन भी मूव कर दिया हैं। ऐसे में ये स्पष्ट हैं कि देश के बहुजन समाज के प्रति सरकार अपने आपको जिम्मेदार और जबाबदेह नहीं मानती हैं, और ना ही देश की ८५% आबादी का उनके लिए कोई मायने हैं। इससे बीजेपी की मंशा साफ हो जाती हैं कि बीजेपी को देश के लगभग ९०%  आबादी वाले भूमिहीन खेतिहर मजदूर किसान, लघु किसान, शहरों व गांव में दिहाड़ी मजदूरी करने वाले लोगों और अन्य सभी बेबस, लाचार और गरीब जनता से कोई सरोकार नहीं हैं। बीजेपी का मक़सद सिर्फ और सिर्फ भारत में ब्राह्मणवाद की स्थापना करना हैं। अब ये देश के भूमिहीन दिहाड़ी व खेतिहर मजदूर दलित वंचित आदिवासी पिछड़ी जातियों और अन्य सभी लघु किसानों की संवैधानिक, लोकतान्त्रिक और नैतिक जिम्मेदारी हैं कि ब्राह्मणवादी राजनैतिक दलों को नेस्तनाबूद कर देश में संवैधानिक व लोकतान्त्रिक मूल्यों वाली बुद्ध-फुले-अम्बेडकरी वैचारिकी पर कार्य करने वाली मान्यवर काशीराम द्वारा बनायीं और भारत में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका बहन कुमारी मायावती जी द्वारा सिंचित बेबस लाचार गरीब भूमिहीन दिहाड़ी व खेतिहर मजदूर दलित वंचित आदिवासी पिछड़ी जातियों और अन्य सभी लघु किसानों की अपनी बसपा पार्टी को सत्तासीन कर अशोक-रैदास-बाबा साहेब डॉ आंबेडकर के सपनों का भारत निर्माण करें।