Thursday, August 29, 2019

अम्बेडकरिज़्म


Wednesday, August 28, 2019

आप किसके साथ हैं - वैचारिकी या फिर भीड़ आर्मी ?

सामान्यतः आर्मी-सेना-फौज ये शब्द राजनीति से जुड़ा शब्द है! आर्मी में अलग-अलग विंग होते हैं जिनकों अलग-अलग परिस्थितियों में काम करने का प्रशिक्षण दिया गया होता है! ये जरूरत के मुताबिक विशेष कार्य को अंजाम देने हेतु ट्रेंड की गई होती हैं! बिना प्रशिक्षण के कोई आर्मी हो ही नहीं सकती हैं! चाहें आत्मरक्षा हो या आक्रमण, हिंसा किसी भी आर्मी-सेना-फौज का मूल गुण होता है! आर्मी-सेना-फौज का इस्तेमाल ही वहीं किया जाता है जहॉ हिंसा की प्रबल संभावना हो, या जन-मानस के प्राण को खतरा है, फिर चाहें हो युद्ध हो या बचाव राहत कार्य, जानमाल का खतरा होता ही है! आर्मी-सेना-फौज के संदर्भ में बेहिचक यह कहा जा सकता है कि हिंसात्मक कार्यों को अंजाम देने के लिए या फिर हिंसा द्वारा हिंसा से बचाव करने वाली हथियारों से सजी विवेकहीन मनुष्यों की एक ऐसी प्रशिक्षित भीड़ जिसका सत्ताशीनों या सत्ताभिलाषी स्वार्थी लोगों द्वारा इस्तेमाल करके राज्य जीते जाते हैं, सत्ता अख्तियार की जाती है, आत्मरक्षा की जाती है, अपनों को पूर्ण सुरक्षा की गारण्टी दी जाती है, शत्रु को नेस्तनाबूद करने का आश्वासन दिया जाता है!

फौज से इतर सत्ता पर कब्ज़ा करने के बजाय लोगों को बेहतरीन राह दिखाने वाले दल भी होते हैं जो किसी राज्य या समाज को दरकिनार कर सम्पूर्ण मानव हित में विचारों का उत्पादन करते हैं, उन विचारों को जन-जन तक पहुंचा कर दुनियां को एक नई दिशा व दशा देकर बेहतरीन समाज के निर्माण की पैरवी करते हैं! ये लोग कट्टरता से परे, मैत्री-करूणा भाव से ओत-प्रोत सम्पूर्ण संसार को अपना मानते हैं, मानव-मानव के मतभेद को स्वीकार करते हैं, मनभेद को मिटा कर सबके लिए करूणा व मैत्री की भावना का प्रचार करते हैं! दुनिया के विकास के संदर्भ में मतभेद का श्रेष्ठ योगदान रहा है। ये मतभेद सभी विचारों व विचारवंतों की ना सिर्फ समीक्षा करते हैं बल्कि संभावित सभी विचारों का मंथन करते हैं जिसके परिणामस्वरूप समाज को मानव हित के लिए परिमार्जित विचार प्राप्त होता है जिससे समाज में ज्ञान-विज्ञान का विचार आगे बढ़ता है, और समाज सतत सृजित होता रहता है! समाज की बुराइयों को नेस्तनाबूद कर सम्पूर्ण मानव हित में कार्य करने वाले ऐसे लोगों के समूह को दल, संघ, संगठन आदि नामों से जाना जाता है! साहित्य में सामान्यतः कहीं भी विद्वानों के संदर्भ में आर्मी-सेना-फौज जैसे शब्दों का इस्तेमाल नहीं मिलता है! और, यदि कहीं मिलता भी है तो वह व्यंग्य के तौर पर ही मिलता है!

ऐसे में देश के बुद्ध-अम्बेडकरी आन्दोलन की पैरोकारी करने वाले लोगों को समझना होगा कि समाजिक बदलाव, इसका मिशन और आन्दोलन वैचारिकी और अनुशासन से चलता है! इतिहास गवाह है गौतम बुद्ध से लेकर मान्यवर साहेब जैसे महानायकों द्वारा चलाये गये आन्दोलन वैचारिकी को केन्द्र में रखकर संवैधानिक दायरे में रहते हुए लोकतांत्रिक मंशा के अनुरूप ही हुए हैं, और आज भी ये आन्दोलन उन्हीं महानायकों के सिद्धांतों पर बगैर किसी समझौते के भारत में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका माननीया बहन कुमारी मायावती जी द्वारा चलाये जा रहें हैं!

एनडीए के सत्ता के दौरान की राजनीति (2013- अब तक, एनडीए काल) का एनडीए द्वारा इतना पतन कर दिया गया है कि आज के राजनैतिक परिवेश में यदि कोई रोड-शो करें, झूठे बयान दे, हास्य करें, नाटक मंडली को साथ लेकर नाच करें, बिना सबूत दूसरों पर आरोप लगायें, जुमले फेकें तो समझ जाइयें कि ये सब करने वाले के पास मानव हित की कोई वैचारिकी नहीं है, वो ही नहीं उसकी स्वार्थी नीतियाँ भी अंदर से पूरी तरह खोखली हैं! देश को समझाना होगा कि रोड-शो वही करता है जिसकें अनुयायी नहीं, भक्त होते हैं! ऐसे लोग अपार पूंजी के बल का इस्तेमाल करते हुए अपने चंद समर्थकों के साथ रोड पर दैनिक जीवन की जरूरतों को पूरे करने के लिए बाजार आये, सड़क पर चलनें वालों को अपने रोड-शो का हिस्सा बताकर मुखधारा मीडिया के माध्यम से एक माहौल तैयार करते हैं कि जनता उनके साथ है! और, जनता इनके झांसे में आ जाती हैं। जनता की इसी नासमझी की वजह से सत्ता उनकें हाथ लग जाया करती है जो जनता के रक्त के प्यासे रहते हैं! ऐसे रोड-शो में यदि लोग हताहत भी हो जायें तो उन्हें अपार भीड़ का हिस्सा करार कर अपने राजनीति की रोटी सेकनें से भी ये लोग पीछे नहीं रहते हैं।

आज सकल मानव हित की वैचारिकी से कोसों दूर तमाम बहुजन युवा आक्रामकता की तरफ उन्मुख हो रहें हैं। बहुजनशत्रु पक्ष द्वारा बहुजन समाज के ही कुछ युवाओं को मोहरा बनाकर बहुजन समाज की स्थापित राजनैतिक विरासत को, पार्टी को कमजोर करने की साज़िश करते हैं। इसका सबसे बड़ा प्रमाण शब्बीरपुर-सहारनपुर की घटना हैं जो ये बयां करता हैं कि कैसे बहुजनशत्रु के हाथों बिका हुआ बहुजन समाज के ही एक युवा ने ज्ञान-विज्ञान-शांति-समृद्धि प्रतीक बाबा साहेब के नाम पर हिंसात्मक आर्मी बनाकर अपने ही समाज के कुछ युवाओं को मौत के मुँह में झोंक दिया हैं, कुछ युवाओं को सलाखों के पीछे भेज दिया हैं, कुछ को अस्पताल पंहुचा दिया तो कुछ के भविष्य पर ही ताला लगा दिया हैं। ऐसे गुमराह लोग अक्सर कहते रहते हैं कि क्रान्ति खून माँगती हैं, कुर्बानी माँगती हैं। ऐसे लोगों से ये सवाल करना चाहिए कि ये खुद की क़ुर्बानीं क्यों नहीं देते हैं? इनसे पूछने की जरूरत हैं कि यदि बुद्ध से लेकर बहन जी तक ने लहुँ का एक कतरा बहायें बगैर सफलतापूर्वक बहुजन आन्दोलन चला सकते हैं तो फिर खून और क़ुर्बानीं की जरूरत क्यों हैं?

सोचियें, आज के माहौल में जब मीडिया प्रेस्टीट्यूट बन चुकी हैं ऐसे में, मुखधारा (ब्राह्मणी) मीडिया जिसकों प्रमोट कर रहीं हैं वो गुमराह युवा आपका अपना कैसे हो सकता हैं। ये प्रेस्टीट्यूट मीडिया कब से आपकी हितैषी बन गयी हैं। जिस प्रेस्टीट्यूट मीडिया हैं जिसने बहन जी की चुनावी रैलियों को नजरअंदाज कर आपको गुमराह किया कि बसपा का कोई जनाधार बचा ही नहीं हैं, वो प्रेस्टीट्यूट मीडिया आपकी हितैषी कब से हो गयी हैं। निष्पक्षता का दावा ठोकने वाले रवीश कुमार पाण्डेय (एनडीटीवी) ने भी रैदास विहार, दिल्ली के तोड़ें जाने को लेकर दिल्ली में हुए विरोध प्रदर्शन को हजारों की भीड़ बताकर पल्ला क्यों झाड लिया? रवीश कुमार पाण्डेय ने उस विरोध प्रदर्शन में लाखों की संख्या में मौजूद बसपा समर्थकों को नजरअंदाज कर सिर्फ आर्मी वाले को ही क्यों फोकस पर रखा?

आपको समझने की जरूरत हैं कि बसपा कमजोर नहीं हुई, उसका जनाधार भी नहीं घटा हैं लेकिन मुखधारा (ब्राह्मणी) मीडिया द्वारा बार-बार बसपा को नजरअंदाज करके गुमराह युवाओं की भीड़ को लाइम लाइट में दिखाकर आपके मन में ये बिठाया जा रहा हैं कि आपकी अपनी राजनैतिक धरोहर ख़त्म हो गयीं हैं, जबकि हकीकत कुछ और ही हैं। आपको समझना होगा कि कैसे आपके जज़्बात, आपके युवाओं की नासमझी और बाबा साहेब की वैचारिकी पर ताला लगाकर जय भीम की माला गले में डालकर बहुजन शत्रुओं के हाथ बिका हुआ आपके ही समाज का स्वार्थी युवा आपको बेच रहा हैं?

सनद रहें, हिंसा, उन्माद, उपद्रव करके छोटी-मोटी लड़ाइयों में क्षणिक सफलता पायी जा सकती हैं लेकिन सामाजिक परिवर्तन के महायुद्ध को बुद्ध से लेकर बहन जी तक के दिखाएँ रस्ते पर चलकर ही जीता जा सकता हैं। ऐसे में अब जनता को समझना होगा, समझना होगा कि बुद्ध-अम्बेडकरी वैचारिकी को केन्द्र बनाकर, जनता को उचित मार्गदर्शन देते हुए, संवैधानिक, लोकतांत्रिक तरीकें से शांतिपूर्वक आपके हिस्से की लडाई कौन लड रहा है? कौन आपके हकों की ख़ातिर देश के राजनैतिक छाती पर लगातार गोल कर रहा है? कौन आपको बुद्ध-रैदास-कबीर-दादू-फूले-शाहू-अम्बेडकर-पेरियार-काशीराम के नक्श-ए-कदम पर चलकर भारत में सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलन को सतत आगे ले जा रहा है? कौन हुक्मरान हैं जिसने संवैधानिक ढांचे के दायरे में रहकर आपके उन महाना़यकों-महानायिकाओं और उनकें संदेशों को संगमरमर के कठोर निर्दयी पत्थरों पर उकेर दिया है? आपके जिस गौरवशाली इतिहास को नकार दिया गया था, आपके जिस इतिहास को किताबों में कोई स्थान तक नहीं दिया गया था, आपके उस गौरवशाली इतिहास और आपके महाना़यकों-नायिकाओं के गौरवमयी संघर्षगाथाओं को किस बहुजन महानायिका ने अपने जोर-ए-बाजुओं की बदौलत निर्मम कठोर पत्थरों की छाती पर हमेशा के लिए दर्ज कर दिया है? आपके लहुँ का एक कतरा बहाएं बग़ैर आपके मान-सम्मान और भारत में सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई कौन लड़ रहा हैं?

ऐसे में तय आपको करना हैं कि आप बुद्ध-अम्बेडकरी वैचारिकी वाले सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन को सतत आगे ले जाने वाली बहुजन महानायिका के साथ हैं या फिर बुद्ध-अम्बेडकरी वैचारिकी को कुचलते हुए बहुजन शत्रु के हाथों खुद को बेचकर अपने निजी स्वार्थ के लिए अपने ही दलित-बहुजन युवाओं को मौत के मुँह में धकेलने वाले, दलित-बहुजन युवाओं के करियर को बर्बाद कर उनकों जेल की सलाखों के पीछे पहुँचाने वालों के साथ हैं, जो खुद हर प्रदर्शन में बेहोश हो जाने का नाटक करते हुए सही-सलामत अस्पताल पहुँच कर बार-बार जेल चला जाता हैं, और, मुफ्त में आपकी सहानुभूति प्राप्तकर आप के ही मिशन को मिटा रहा हैं? आप बुद्ध-अम्बेडकरी आन्दोलन वाले मान्यवर काशीराम साहेब द्वारा बनाये और माननीया बहन जी द्वारा सिंचित वैचारिक संगठन बसपा के साथ हैं या फिर बुद्ध-अम्बेडकरी वैचारिकी को कुचलने वाले हिंसात्मक युवाओं की गुमराह भीड़ वाली दिशाविहीन भीड़ आर्मी के साथ?
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~रजनीकान्त इन्द्रा~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

Sunday, August 25, 2019

मनुवादी बहुजनों के आँखों में खटकती बहुजन महानायिका

जो अपनी बहन-बेटियों शाम होते ही घर में कैद करने की मंशा रखते हैं, जो तरूणाई आते ही अपनी बहन-बेटियों को इस डर से शादी के बंधन में बांध देना चाहते हैं कि कहीं वो अपनी मर्जी से जीवन-साथी ना चुन ले, जो अपनी बहन-बेटियों के लिए सारी सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा का इंतजाम करके ही मरने की चाहत रखते हैं......आज वो ब्राह्मणी रोग से ग्रसित बहुजन समाज के ही लोग जिनकी बहन-बेटियों को सोने के गहने तक पहनने की इज़ाज़त नहीं थी, पावों में चप्पल तक पहनने की मनाही थी वो मनुवादी बहुजन आज बहन जी के कानों की बाली, पावों की सैण्डल देखते हैं। 
जो मनुवादी बहुजन लोग बहुजन महानायिका के आलिशान आवास पर टिप्पणी कर रहें हैं, जिनके पेट में बहन जी के ठाट-बाँट से मरोड़ उत्पन्न हो रहा हैं.....क्या उन लोगों ने कभी बहन जी के पावों के छालों की तरफ भी गौर किया हैं? क्या ऐसे लोगों ने कभी सोचा हैं कि जब इनकी अपनी बहन-बेटियों को घर की चहारदीवारी के बाहर कदम तक रखने की इज़ाज़त नहीं थीं, जब खुद इनके पुरखें अपने ही घर के सामने अपनी चारपाई पर ब्राह्मणों-सवर्णों के सामने नहीं बैठ सकते थे उस दौर में बहन जी मनुवादी दरिंदों की भीड़ को चीरते हुए बहुजनों के दुखों का इलाज़ ढूंढ रही थी। 
जब लोग बहन-बेटियों को अकेले कहीं जाने ही नहीं देते थे, उस माहौल में बहन जी अपने पिता जी का घर छोड़कर बाबा साहेब के मिशन को आगे बढ़ने के लिए मीलों पैदल चली हैं। जब आपके घरों में खाने को नहीं होता था उस दौर में आपके पुरखों को बेहतरीन जीवन का सपना देखना सीखा रहीं थीं। जब आपके बुजुर्ग गुलामी को अपनी नियति मान चुके थे तब बहन जी आपको देश का हुक्मरान बनाने की राह बना रहीं थीं। क्या भूल गए उनका इतिहास और उनका संघर्ष? 
बाबा साहेब को आदर्श मानाने के ढोंग करने वाले बहुजन समाज के लोग आज बाबा साहेब और मान्यवर साहेब से आन्दोलन और संघर्ष की प्रेरणा लेने के बजाय साम्प्रदिययिक दंगाई ब्राह्मणी दलों व संगठनों के ब्राह्मणी रोग से ग्रसित नेताओं की भाँति, बिना दुष्परिणाम को सोचे-समझे, बहन से रोड-शो की डिमाण्ड कर रहें है। समाज हित में जिनके पुरखें खुद कभी घर के बाहर नहीं निकलें हैं वो "बहन जी घर से बाहर निकलने और आन्दोलन कैसे किया जाता हैं" की शिक्षा दे रहें हैं। जिनके बाप-दादाओं ने जिंदगी में कभी समाज हित में निस्वार्थ भाव से एक पैसा चंदा भी नहीं दिया हैं उनकी औलादें बहन जी को दौलत की बेटी बता रहें हैं। जिनके घर वालों ने अपनी पूरी की पूरी जिन्दगी अपनी ही सन्तानों की फ़िक्र करते हुए सामाजिक सरोकारों से दूर हो गए उनकी नश्लें बहन जी पर परिवारवाद का आरोप मढ़ रहीं हैं। 
ऐसे ब्राह्मणी रोग से संक्रमित मनुवादी दलित-बहुजन भी "चार दशक से भी ज्यादा समय से बहुजन समाज की सेवा करने वाली, बहुजन आन्दोलन को परवान तक पहुंचने वाली, अपने तरुणाई के समय में देश की गलियों में, मलिन बस्तियों, गांवों में, मुहल्लों में घूम-घूम कर दशकों बहुजन समाज को जागरूक करने वाली, भारत के राजनीति की छाती पर कदम-ताल करके भारतीय राजनीति के मूलस्वरूप को ही बदल देने वाली, बहुजन समाज को राजनैतिक तौर पर अनाथ होने से बचाने वाली, पिछडों के हकों के लिए लड़ने करने वाली, अछूतों को सत्ता का एहसास कराने वाली, देश को संविधान व कानून का मायने बताने वाली, दंगाईयों-गुण्डे-मावालियों की मण्डली में दहशत का पर्याय, नौकरशाहों को नौकर होने और जनता के मालिक होने का भान कराने वाली, भारत में लोकतन्त्र और संविधान की जड़ों को मजबूत करने वाली, राजाओं का धूल में मिटा कर नागरिकता की भावना को आगे बढाने वाली, समता की भावना को स्थापित करने के लिए जद्दोजहद करने वाली, साम्प्रदायिकता को नकारकर बंधुत्व को स्थापित करने वाली, तानाशाही की सरकारों को रिप्लेस कर करुणा-मैत्री भाव से हुकूमत करने वाली, बहुजनों को न्याय दिलाने वाली, धन-धरती का बँटवारा (पट्टा) करके समाजवाद की भावना को मूर्तरूप देने वाली, बहुजनों की भागीदारी को सत्ता-संसाधन के हर क्षेत्र के पायदान पर पहुँचने की राह प्रशस्त करने वाली, देश को बुद्ध से लेकर मान्यवर साहेब तक के सभी बहुजन महानायकों-महानायिकाओं को हर बहुजन के जहन में स्थापित करने वाली, बहुजन आन्दोलन के परचम को भारत ही नहीं दुनिया में बुलंद करने वाली, देश के हुक्मरानों को हुकूमत का मायने समझाने वाली, बहुजन अस्मिता को नए सिरे से स्थापित करने वाली, देश में सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनैतिक क्षेत्रों में बहुजनों को उनके हक़ के लिए जागरूक करने वाली, देश की संसद व सड़क पर बहुजनों की सबसे प्रबल व प्रखर आवाज, भारतीय राजनीति की सबसे बुलंद शख्शियत, दुनिया भर में आयरन लेडी के नाम से सुविख्यात, भारत में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका बहन कुमारी मायावती जी" पर टिप्पणी कर रहे हैं....."
हमारा स्पष्ट मत हैं कि समीक्षा सबकी होनी चाहिए। समीक्षा के दायरे से कोई भी बाहर नहीं हो सकता हैं। बुद्ध से लेकर बहन जी तक सब के सब समीक्षा के दायरे में हैं। समीक्षा सृजनात्मक होती हैं लेकिन बहुजन समाज के ही लोग समीक्षा का नाम लेकर बहन जी, बसपा का सिर्फ और सिर्फ विरोध करने की मानसिकता के चलते अपनी मन की कुंठा निकालने हेतु अपने स्वार्थ में ब्राह्मणी रोग से संक्रमित मनुवादी बहुजन ही बहुजन महानायिका बहन जी जैसी बुलन्द शख्सियत को गाली देते हैं, ब्राह्मणी दलों के हाथों अपने जमीर को बेचकर अपनी ही नेत्री पर तोहमत लगाने लगते हैं। याद रहें, आपकी की ये हरक़त लंबे दौर में ना तो आपके हित में हैं, और ना ही आपके समाज व देश के हित में हैं। 
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~रजनीकान्त इन्द्रा~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

Friday, August 23, 2019

सोशल मीडिया के जरिये अपने अमानवीय छवि को छुपाने की फ़िराक़ में अपराधी ब्राह्मणी समाज

पहले बच्चों के किताबों की कहानियों में, अखबारों व पत्र-पत्रिकाओं के कोने में ऐसी कहानियां मिला करती थी लेकिन आज कल सोशल मीडिया पर विडियों बनाकर बहुत सारे ऐसे विडियों धडल्ले से लाइक और शेयर किये जा रहे हैं जिसमें कोई महंगी कार वाला किसी गरीब भिखारी को पॉच सौ की नोट देता दिखाई देता है, कोई पिज्जा-बर्गर फैमिली की लड़की किसी भूखे बच्चे को अपना टिफिन देते हुए दिखाई देती है, कोई होटल वाला अपने होटल के सामने रोड पर खडें बच्चे को रोटी दे देता है, तो कोई अमीरजादा भूखे-नंगे मैले-कुचैले भिखारी के बच्चे को मंहगें होटल में खाना खिलाता नजर है!


इस तरह के विडियों को लाइक, शेयर और कॉमेंट करने के लिए रिक्युस्ट की जाती है, ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुंचयें जाने की प्रार्थना की जाती है! हाथ में मोबाइल लिया युवा व अन्य सभी लोग आंखों को नम करते हुए ऐसे सभी विडियों को जन-जन तक पहुंचा देते हैं! ऐसे विडियोंज के माध्यम से यह संदेश दिया जाता है कि दयालू बनों, गरीबों की मदद करों! क्या ऐसे विडियोंज का वकाई यही संदेश होता है?

ऐसे विडियोंज के असल संदेश को जानने व समझने के लिए भारत देश की राजनैतिक-आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ को समझना होगा!

ऐसे विडियोंज पर जब हम गौर करते हैं तो हम पाते हैं कि सामान्यतः विडियोंज में रहम का संदेश देने वाला इंसान, सामाजिक तौर उच्चजातीय होता है, राजनैतिक तौर पर शासक जमात का होता है, सांस्कृतिक तौर पर मजबूत होता है और आर्थिक तौर बेशुमार दौलत का मालिक होता है!

आगे यदि हम गौर करें तो देखते हैं कि भारत की सड़कों, गलियों, सिग्नल्स पर भीख मांगने वाला इंसान, शारीरिक तौर पर अपंग, गरीब-लाचार, भूखा-नंगा इंसान, बच्चे को दूध पिलाने, खाना खिलाने के लिए हाथ फैलाती नारी, भूख के कारण हर किसी के पास हाथ फैलाते छोटे-छोटे बच्चे, ये सब देश की उसी 85% आबादी से आते हैं जिन्हें एससी-एसटी-ओबीसी-कान्वर्टेड मॉयनॉरिटीज या फिर बहुजन समाज, मूलनिवासी समाज कहा जाता है! क्या आपने कभी किसी ब्राह्मण-सवर्ण को भीख माँगते देखा हैं, क्या कभी किसी ब्राह्मण सवर्ण नारी को बच्चों को खिलने के लिए दूसरों के सामने हाथ फैलते देखा हैं? क्या किसी ब्राह्मण विकलांग को सिग्नल्स पर भटकते देखा हैं? क्या किसी ब्राह्मण-सवर्ण किन्नर को भीख माँगते देखा हैं? ब्राह्मण किन्नर भी इतना सम्मानीय हैं कि उसकी पालकी निकली जाती हैं, उसके भरण-पोषण के लिए किन्नर अखाड़ा तक स्थापित कर दिया गया हैं, जिसका नंगा नाच कुम्भ-२०१९ में सीधा टेलीकास्ट किया गया था। क्या कभी ये सवाल ज़हन में आया हैं कि ऐसा क्यूँ होता हैं? क्या कभी इसका जवाब खोजने का प्रयास किया गया हैं? 

ये मुद्दा गंभीर हैं, और ये सोचने पर मजबूर करता हैं कि संविधान में सारे प्रावधान होने के बावजूद ये बहुजन समाज आज भी गुलामी की जिंदगी जीता आ रहा था लेकिन मान्यवर काशीराम साहेब व बहन जी की बदौलत ये बहुजन समाज भारत के राजनैतिक छाती पर कदमताल करते हुए सतत आगे बढ़ता जा रहा है! ऐसे में राजनैतिक तौर पर गुलाम रहा ये समाज अब हुक्मरान बनने के लिए लगातार जद्दोजहद कर रहा है!

मान्यवर साहेब व बहुजन महानायिका बहन जी ने सिग्नल पर भीख मांगने वाले के जहन में भी अपने समाज की सरकार वाले सपने का बीजारोपण कर दिया है! ऐसे में आज ये समाज आज राजनैतिक तौर पर अपनी अस्मिता गढ चुका है! इस समाज के लोग राजनैतिक गलियारों में अपनी दश्तक दे चुके हैं!

ये लोग आज धीमी गति से ही सही लेकिन ईश्वरवाद की पाखण्डी वैचारिकी से पलायन कर रहे हैं, संविधानवाद से जुड़ रहे हैं! ये बहुजन समाज 1947 के बाद से घातांकीय तौर पर गहराई आर्थिक खाई को पहचान चुका है! नतीजतन, ये समाज हर जगह चाहे वो शहर हो, गांव हो, या फिर दंतेवाडा, बस्तर के जंगल हो, अपने आर्थिक हकों की मांग कर रहा है, धन-धरती के बंटवारें के लिए अपने ही देश की ब्रह्मणी व्यवस्था व पूंजीवाद के खिलाफ खुली जंग लड रहा है!

सामाजिक तौर पर ये समाज सदियों से वंचित रहा है, अछूत रहा है, लाचार रहा है... लेकिन अब ये समाज अपने आत्मसम्मान व स्वाभिमान के लिए लड रहा है, जातिवाद का उन्मूलन करने के लिए बग़ावत करता आ रहा है, छुआछूत व गैर-बराबरी को नेस्तनाबूद करने के लिए सतत क्रियाशील है!

सांस्कृतिक तौर पर ये बहुजन समाज ईश्वरवाद, नियतिवाद, विधि के विधान जैसे जीवन-शैली से दूर जा रहा है, संविधान की बात कर रहा है, स्वतंत्रता-समता-बंधुत्व पर आधारित जीवन जीते हुए भारत को इसी बुद्धिज्म की जीवन-शैली पर आधारित और जातिवाद, पुरोहितवाद, छुआछूत, लिंगभेद, वैदिकता व ब्रहम्णवाद से मुक्त भारत का सृजन करने के लिए लगातार जद्दोजहद कर रहा है!

इस प्रकार से देश का शोषक समाज, पूँजीवादी लोग, धर्म के ठेकेदार, राजनीति पर बहुजनों का रास्ता रोकने वाले लोग देश के बहुजन समाज के अंदर पल रहे आक्रोश को पहचान चुका है! ये शोषक जातिवादी वर्ग ये जान चुका है कि बहुत दिन तक वो बहुजनों के हकों को उनसे दूर नही रख सकता है!

सांस्कृतिक तौर पर अपराधी जाति / समाज (कल्चरली क्रिमिनल कास्ट / सोसाइटी) ये जान चुका है कि देश की पच्चासी फीसदी आबादी की निगाह में वो ससबूत क्रिमनल साबित हो चुका है!

ऐसे में बहुजनों को गुमराह करने के लिए, बहुजनों को उनके मूल मुद्दे से भटकाने के लिए और अपनी कल्चरली क्रिमिनल कास्ट (त्रिपल सी - CCC) वाली छवि को सुधारने के लिए कल्चरली क्रिमिनल सोसाइटी (CCS) के लोग बच्चों की किताबों, अखबार, पत्र-पत्रिकाओं के कोने में छपी कहानियों के अलावा बहुजनों के अपने मीडिया सोशल मीडिया पर ऐसे विडियोंज को बनाकर ज्यादा से ज्यादा शेयर कर रहे हैं!

कल्चरली क्रिमिनल कास्ट (CCC) के लोगों का ये कार्य सिर्फ छोटे-छोटे विडियोंज और सोशल मीडिया तक ही नहीं सीमित है! ये लोग बॉलीवुड में तमाम ऐसी फिल्मे बना चुके हैं जिसमें बहुजनों पर हो रहे अत्याचार पर कल्चरली क्रिमिनल कास्ट (CCC) का ही कोई आवाज उठाता नजर आता है, परिणाम स्वरूप शोषित समाज में किसी भी लीडरशिप के पनपने की संभावना खत्म हो जाती है, और कल्चरली क्रिमिनल कास्ट के लोगों का रसूख सुरक्षित हो जाता है!

आज के मीडिया जगत में ये काम रवीश कुमार जी भी बखूबी कर रहे हैं! इसीतरह से हाल ही आ रही फिल्म आर्टिकल - 15 भी इसी श्रेणी में बनाई गई फिल्म है!

इन सबके माघ्यम से कल्चरली क्रिमिनल सोसाइटी (CCS) के लोग ये बताना चाहते हैं कि कल्चरली क्रिमिनल कास्ट (CCC) के लोगों ने बहुजनों पर सदियों से अत्याचार किया जरूर हैं लेकिन ऐसे करने वाले कुछ ही लोग हैं, सब लोग नहीं! कुछ लोग गलत हो सकते हैं लेकिन सभी ब्रहमण-सवर्ण (कल्चरली क्रिमिनल कास्ट) बुरे नहीं है, इन विडियोंज के माध्यम से यही संदेश बहुजनों के बीच फैलाकर कल्चरली क्रिमनल कास्ट (CCC) के लोग बहुजनों के दिलों में अपने लिए अच्छी छवि कायम करना चाहते हैं, बहुजनों की राजनैतिक हक व पहचान, आर्थिक अधिकार व अस्मिता, सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलन व सतत आगे बढ़ती बुद्ध-अम्बेडकरी जीवन-शैली को रोककर भारत को नारीविराधी जातिवादी मनुवादी सनातनी वैदिक ब्रह्मणी हिन्दू धर्म व संस्कृति वाली व्यवस्था को कायम कर देश की पच्चीसी फीसदी आबादी गुलाम बनाये रखना चाहते हैं!  
-----------------------रजनीकान्त इन्द्रा----------------------- 

जाति उन्मूलन के सन्दर्भ में बहुजनों के ज़हन में उठते सवाल


एक बहुजन युवा का सवाल हैं कि दलितों के अंतर्गत आने वाली जातियां आपस में सामाजिक रूप से शादी क्यो नही करतीं हैं? क्या दलित मनु के बनाए नियमों को सही मानते हैं? जाति खत्म क्यूँ नहीं हो रहीं हैं? बहुजन युवाओं के ज़हन में उठ रहें ऐसे सवाल बहुजन युवाओं की समाज के प्रति जारूकता और उनकी चिंता को बयां करता हैं। ऐसे सवालों का बहुजनों के ज़हन में उठाना सुखद हैं। रहीं बात बहुजन युवा के सवाल की तो इस सवाल का जबाब बाबा साहेब अपनी पुस्तक "एन्हीलेशन ऑफ़ कास्ट" में दे चुके हैं।

फ़िलहाल हमारा मानना हैं कि समाज की रीति-रिवाज व परम्परायें समाज के सामाजिक व्यवस्था के सर्वोच्च पायदान पर बैठे लोगों द्वारा शुरू की जाती हैं। यदि समाज पर काबिज़ किसी रीति-रिवाज व परम्परा या पूरी व्यवस्था को आसानी से खत्म करना है तो ये उन्हीं लोगों द्वारा ही ख़त्म की जा सकती हैं जिन लोगों ने इसकी शुरुआत की हैं, जिनकी अगुवाई इन रीति-रिवाजों, परम्पराओं और खुद उस व्यवस्था का पालन-पोषण हुआ हैं। लेकिन अहम् सवाल यह हैं कि जाति व्यवस्था के चलते इससे सहस्त्राब्दियों से लाभान्वित होने वाला वर्ग इस जाति व्यवस्था को खत्म क्यों करना चाहेगा? यहीं वजह हैं कि समाज के सामाजिक व्यवस्था के सर्वोच्च पायदान पर काबिज़ लोगों द्वारा कभी इसके खिलाफ कोई आन्दोलन नहीं चलाया गया। आधुनिक भारत के इतिहास के स्वघोषित नायक राममोहन राय, ईशवरचंद, करमचंद गाँधी, नेहरू, पटेल आदि ने भारत के बदन में हर को जकड़े जाति रुपी कैंसर के खिलाफ कोई आन्दोलन क्यूँ नहीं किया? इन्होंने आज तक जितने भी अनसन आदि किये हैं वो सब ब्राह्मणवाद की जड़ों को मजबूत करने के लिए ही किया हैं। अंग्रेजों के खिलाफ इनकी जंग का उद्देश्य भारत हो रहें सामाजिक सुधर को रोकना था, शूद्रों-अछूतों को मिलने वाली सहुलितों से, शिक्षा के हक़ से इनकों दूर कर वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था, ब्राह्मणी हिन्दू धर्म और संस्कृति को पुनः स्थापित करना था। यहीं वजह थी कि आज तक कभी भी किसी सवर्ण नेता ने जातिव्यवस्था के खिलाफ कोई आन्दोलन तो दूर, अनसन तक नहीं किया हैं।

यहाँ हमारे कहने का ये कतई मतलब नहीं हैं कि जाति के उन्मूलन के सन्दर्भ में बहुजन हाथ पर हाथ धरे बैठा रहें, और समाज के सामाजिक व्यवस्था के सर्वोच्च पायदान पर काबिज़ लोगों की राह देखता रहें क्योंकि सामाजिक व्यवस्था के सर्वोच्च पायदान पर बैठा जो समाज देश के जातिगत आकड़े तक जारी करने से खौफ खाता हैं उससे जाति उन्मूलन की उम्मीद पूरी तरह से नासमझी ही होगी। हमारे कहने का आशय यह हैं कि जो संस्कृति बहुजन लोगों के ज़हन में सदियों से नहीं, बल्कि सहस्त्राब्दियों से हुकूमत कर रहीं हैं उस संस्कृति को चंद पलों या एक सदी में आसानी ध्वस्त नहीं किया जा सकता हैं। ये सामाजिक व्यवस्था के बदलाव की बात हैं। ये कोई घटना नहीं हैं जो एक झटके में घटित हो जाय। सामाजिक परिवर्तन लम्बे दौर में मुक़ाम तक पहुँचाने वाली सतत प्रक्रिया हैं। सहश्त्राब्दियों में बनी जातिव्यवस्था को पलों में ध्वस्त नहीं किया जा सकता हैं क्योंकि ये व्यवस्था लोगों के जहन में बसती हैं, उनकी जीवन-शैली का हिस्सा बन चुकी। इसलिए इस जातिव्यवस्था के उन्मूलन के लिए समाज में सतत जागरूकता व बुद्ध से लेकर बहनजी तक के सभी बुद्ध-रैदास-कबीर-अम्बेडकरी महानायकों-महनायिकाओं के जीवन संघर्ष से प्रेरणा लेकर उनके कृत्यों, संदेशों और समता-स्वतंत्रता-बन्धुत्व-करुणा-मैत्री पर आधारित सामाजिक सृजन के लक्ष्य को हर बहुजन के जहन तक पंहुचना होगा।

इस संदर्भ में बहुजन युवा का सवाल उसकी जागरूकता को परिलक्षित करता हैं। उसकी ही तरह आज बहुजन समाज भी ये सवाल कर रहा हैं। आज के ऐसे सामाजिक मुद्दे से जुड़ें सवालों का अम्बार ही कल उस मनुवादी व्यवस्था को हमेशा के लिए ध्वस्त कर देगा जिसने सहस्त्राब्दियों से देश की बहुजन जनता को अपनी गुलामी की गिरफ्त में समेट रखा हैं। इसके लिए हम सब को ही आगे आना होगा।

हमारा स्पष्ट मानना है कि जाति व्यवस्था पर खुली चर्चा होनी चाहिए। जाति व्यवस्था पर खुली राजनीति होनी चाहिए। जाति व्यवस्था भारतीय समाज की सबसे कड़वी सच्चाई है, इसका भारत की जीवन-शैली के हर क्षेत्र के हर पायदान पर स्थापित सर्वोच्च स्थान है! इसलिए जाति को नजरअंदाज करके भारत को समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व पर आधारित भारत नहीं बनाया जा सकता है! इसलिए जाति पर चर्चा होनी चाहिए, विमर्श जारी रहना चाहिए, और कैंसर रूपी जाति पर खुली राजनीति होनी ही चाहिए! ध्यान देने योग्य बात हैं कि जाति को यदि खत्म करना है तो जाति की राजनीति करनी ही पड़ेगी!

हमारा स्पष्ट मत हैं कि जाति रूपी कैंसर के इलाज के लिए राजनीति रूपी डॉक्टर की सख्त ज़रूरत है! जब भारत पूरी की पूरी सामाजिक व्यवस्था जाति पर आधारित है तो राजनीति में जाति वाले मुद्दे पर राजनीति करने से परहेज क्यों किया जाय! जाति को राजनैतिक मुद्दा बनाया जाय, जाति की राजनीति की जाय, इसी में जातिवाद का स्थायी इलाज मतलब कि  जाति का उन्मूलन निहित है! जाति पर चर्चा, विचार-विमर्श जाति व जातिव्यवस्था को कमजोर करती हैं। इसलिए ब्राह्मण-सवर्ण जाति के मुद्दे से कतराते हैं। ठीक यही स्थिति कुछ स्वघोषित बहुजन बुद्धिजीवियों का भी हैं। ये स्वघोषित बहुजन बुद्धिजीवी ब्राह्मणों-सवर्णों से ज्यादा घातक हैं। ये बहुजन बुद्धिजीवी अपने को बहुजनों से ज्यादा विद्वान समझते हैं लेकिन खुद को हमेशा ब्राह्मणों-सवर्णों से कमतर आंकते हैं इसलिए उनके मुख से प्रशंसा, पुरस्कार और पारितोषिक पाने के लिए ब्राह्मणी व्यवस्था व इसके पैरोकारों से जिरह करने के बजाय अपने ही बहुजन समाज को दोष देते रहते हैं। हमारा सवाल स्पष्ट हैं कि जब भारत पूरी की पूरी सामाजिक व्यवस्था जाति पर आधारित है तो राजनीति में जाति वाले मुद्दे पर परहेज क्यों किया जाय?

आज तक की ब्राह्मणी सरकारों ने भारत की सबसे खतरनाक बीमारी (जाति) को खत्म करने के लिए कोई कार्य नहीं किया हैं। ब्राह्मणी रोग से ग्रसित रोगी जाति व जातिव्यवस्था को मुद्दा मानते ही नहीं हैं। इसलिए ये बहुजनों की जिम्मेदारी बनती हैं कि बहुजन समाज के लोग जाति व जातिव्यवस्था को राजनीति का मुद्दा बनाये, जाति व जातिव्यवस्था पर चारों तरफ चर्चा हो, इसके दुष्प्रभाव पर पान की दुकान से लेकर पार्लियामेंट तक विमर्श हो। जाति व जातिव्यवस्था पर मुद्दा इतना गर्म कर दो कि हुकूमत सोचने पर मजबूर हो जाय, न्यायपालिका के बहरे जजों की कान के पर्दे फट जाय, ब्राह्मणी रोगी खुद अपने इलाज़ के लिए दौड़ लगाए। याद रहें, लोकतंत्र में मुद्दे वही सुने जाते है जो पब्लिक चाहती हैं।

 परिवर्तन की लड़ाई हैं, लम्बी चलेगी इसलिए निराश होने की जरूरत नहीं हैं। याद कीजिये, जब बाबा साहेब ने आन्दोलन की शुरुआत की थी तो ऐच्छिक सफलता नहीं मिल पायी थी लेकिन कुछ समय बीता ही था कि बाबा साहेब के वैचारिक वारिस मान्यवर साहेब व बहनजी ने भारत के राजनीति की छाती पर ऐसा कदल-ताल किया कि भारत में राजनीति की दिशा और दशा ही बदल गयी।

इसलिए याद रहें,
बीमारी जितनी पुरानी हैं, उसके इलाज का समय भी उसके ही अनुपात में लगेगा। निराश होने वाली कोई बात नहीं हैं, ना ही किसी नकारात्मकता के जरुरत हैं, बस लोगों को अपने बहुजन महानायकों-महनायिकाओं के जीवन संघर्ष से जोड़िये, पढ़ने के लिए प्रेरित कीजिये जिससे कि बहुजन युवा बहुजन समाज बेचने वाले आर्मियों/सेनाओं और अन्य उन्मादियों के आगोश में सहमकर अपनी जान ना गवायें। बहुजन युवाओं की जान कीमती हैं। जागरूक हो, जागरूक करें। साथ चलें, आगे बढ़ें, और बढ़ते ही रहें। समाज बदलेगा, बदलाव दिखेगा जैसे कि पिछले तीन दशकों पर गौर करें तो हम सिर्फ बदलाव ही नहीं, समाज की जीवन-शैली में अमूल-चूल परिवर्तन भी पाते हैं।
-------------------------------रजनीकान्त इन्द्रा----------------------------------


Thursday, August 22, 2019

रैदास मंदिर नहीं, रैदास विहार कहा जाय

रोजमर्रा की जिंदगी में इस्तेमाल हो रहें शब्दों का अपना एक निहित मनोवैज्ञानिक एहसास होता हैं। किसी के प्रति आपकी भाषा उस इन्सान के प्रति आपकी सोच को बयां करती हैं। आपकी ये सोच उस इन्सान के प्रति आपके मन में मौजूद सम्मान और नफरत को बयां करती हैं। इन्सान की ये सोच ना सिर्फ उसकी बोल-चाल की भाषा साफ-साफ झलकती हैं बल्कि उसकी लिखावट और लेख तक में भी स्पष्ट तौर पर दिखाई पड़ती हैं। किसी वस्तु का नाम मात्र हमारे ज़हन में उस वास्तु के सारे गुण समेत उसकी तश्वीर हमारे ज़हन में उकेर देती हैं।
ठीक इसी तरह से मंदिर शब्द नारीविरोधी जातिवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म, व्यवस्था व संस्कृति का बोध कराती हैं। ये शब्द ही अपने आप में ब्राह्मणवाद व ब्राह्मणों सवर्णों द्वारा बहुजनों पर किये जा रहें अत्याचार, अनाचार, शोषण और हक़ हनन को बयां करता हैं। मन्दिर शब्द अपने आप में ब्राह्मणवाद का द्योतक हैं। मन्दिर अन्याय, अनाचार, व्यभिचार (देवदासी प्रथा), शोषण, जातिवाद, पाखण्ड और अमानवीयता का प्रतीक हैं। यहीं कारण हैं कि विद्यालय को विद्यामंदिर, न्यायलय को न्याय का मन्दिर कहा जाता हैं। ऐसी संस्थाओं में ब्राह्मणों-सवर्णों द्वारा परम्परा के तौर पर खुले आम बहुजनों का शोषण किया जाता हैं।
वहीँ दूसरी तरफ समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व का सन्देश देने वाले बुद्ध-अम्बेडकरी वैचारिकी में विहार शब्द का प्रयोग किया जाता हैं। विहार का सन्दर्भ आरामगाह, चिंतन-मंथन गृह, शिक्षा-शिक्षण, विचार-विमर्श के सन्दर्भ में किया गया हैं। ये शिक्षा, सदाचार, विचार और जान कल्याण हेतु बना केंद्र हैं जहाँ विद्वानजन शिक्षा-शिक्षण संबंधी कार्य करते हैं। कालान्तर में विहारों में सम्बंधित गुरुओं, संतों, नायकों-महानायकों-महानायिकाओं के सम्मान में आम जनमानस के प्रेरणा-स्रोत के तौर पर उनकी प्रतिमाओं की स्थापना की गयी। बड़े पैमाने पर ऐसी स्थापना की शुरुआत बुद्ध की मूर्तियों से की गयी हैं जिसके प्रमाण दुनिया के तमाम देशों में मौजूद बुद्ध प्रतिमाओं व बुद्ध-विहारों के अवशेषों से मिलता हैं।
भारत अमानवीय ब्राह्मणवाद के उदय के पश्चात् विहारों की प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप मंदिरों की परम्परा शुरू हैं। ये मन्दिर ब्राह्मणी व्यवस्था को समाज पर लागू करवाने के केंद्र के तौर पर स्थापित किये गए, और ये मंदिर आज भी ब्राह्मणवाद की परम्परा को जीवित ही नहीं कर रहें हैं बल्कि कदम-दर-कदम आगे बढ़ा रहें। ऐसे में जहाँ विहारों में शिक्षा-ज्ञान-विज्ञानं-अचार-विचार-समता-स्वतंत्र-बंधुत्व-करुणा-मैत्री आधारित वैचारिकी का प्रसार होता हैं वहीँ मन्दिरों में ढोंग-पाखण्ड-व्यभिचार-अत्याचार-ऊंच-नीच-दासता-वैमस्य का प्रसार होता हैं। जहाँ विहारों में लोग शिक्षा-ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करने जाते हैं वहीँ मंदिरों में लोग मन्नते माँगने जाते हैं।
ऐसे में हमारा स्पष्ट मत हैं कि दलित-बहुजन परम्परा में दलित-बहुजन संतों-गुरुओं और अन्य सभी विचारकों, महानायकों-महनायिकाओं की कोई पूजा-भक्ति नहीं होती हैं, और ना ही किसी को करनी चाहिए। सभी दलित बहुजन संतों-गुरुओं-महानायकों-महनायिकाओं (बुद्ध-रैदास-कबीर-दादू-फूले-शाहू-अम्बेडकर-पेरियार-काशीराम-बहनजी आदि) ने हमेशा से पूजा-पाठ-भक्ति आदि विरोध ही किया हैं। इसी तरह से रैदास विहारों में कोई भक्ति नहीं होती हैं। यहाँ लोग अपने संत शिरोमणि संत रैदास जी के प्रति आदर-सत्कार सम्मान व्यक्त करते हैं। यहाँ संत शिरोमणि संत रैदास के विचारों की बात होती हैं। यहाँ लोग परस्पर विचार-विमर्श से ज्ञान प्राप्त करते हैं, या यूँ कहें कि ज्ञान करने जाते हैं। किसी भी दलित-बहुजन संत-गुरु-नायक-नायिका आदि के स्थल पर मन्नते माँगने नहीं जाते हैं, बल्कि लोग वहाँ अपने संतों-गुरुओं-नायकों-नायिकाओं के जीवन-संघर्ष से प्रेरणा लेने जाते हैं, विचार-विमर्श करने जाते हैं, शिक्षा-ज्ञान देने व प्राप्त करने जाते हैं। इसलिए बहूजाओं को अपने संतों-गुरुओं-नायकों-नायिकाओं के स्थलों को "मन्दिर" नाम देने के बजाय विहार नाम दिया जाना चाहिए, जैसे कि रैदास विहार, कबीर विहार, बुद्ध विहार, अम्बेडकर विहार, काशीराम विहार, पेरियार विहार, अशोक विहार, फुले विहार आदि।
इसलिए याद रहें,
मंदिरों और विहारों में प्रमुख अन्तर यह हैं कि मंदिरों में मन्नते माँगीं जाने की परम्परा हैं, जो कि ढोंग हैं, पाखण्ड हैं, अन्धविश्वास हैं, मूर्खता हैं, अमानवीय हैं, जबकि विहारों में शिक्षा-शिक्षण के परम्परा होती हैं जो कि सम्मानीय हैं, मानवीय हैं। दलित-बहुजन संत-गुरु-नायक-नायिका आदि के स्थल पर कोई मन्नत ना तो मांगीं जाती हैं, और ना ही मन्नतों के पूरी होने की कोई बात करता हैं। ये रैदास विहार, कबीर विहार, बुद्ध विहार, अम्बेडकर विहार, काशीराम विहार आदि "अपना दीपक खुद बनों" की ही वैचारिकी पर कार्य करते हैं, और मानवता-तर्क-ज्ञान-विज्ञानं पर आधारित वैचारिकी को जन-जन तक पहुंचाकर समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व की जीवन-शैली वाले समाज का सृजन कर रहें हैं।  


-------------------------------रजनीकान्त इन्द्रा----------------------------------



ब्राह्मणी मानसिकता व नेतृत्व में भविष्य तलाशता पिछड़ा वर्ग


Wednesday, August 21, 2019

कॉपी चेक करते समय कैसे पता लगा लिया जाता हैं कि कौन किस कैटेगरी/जाति का है?

बात उस समय की हैं जब हम लखनऊ विश्वविद्यालय से एलएलबी की पढाई कर रहें थे। द्वितीय सेमेस्टर के संविधान (Constitutional Law) के पेपर में हमें १७/१०० मार्क्स मिले थे। हम ही नहीं हमारे दोस्त भी चकित थे कि रजनीकान्त इन्द्रा के इतने मार्क्स कैसे आ सकते हैं? सब यहीं कह रहे थे कि संविधान रजनीकान्त का पसंदीदा विषय है, इसी के लिए रजनीकान्त ने एलएलबी में प्रवेश लिया था, और इसी में फेल हो गये। फ़िलहाल, कारण पांचवें सेमेस्टर तक समझ नहीं आया। दुबारा परीक्षा दिया, और ६०/ १०० मार्क्स से उत्तीर्ण हुए।
इसके पश्चात् पांचवें सेमेस्टर के Women and Law Relating to Children के पेपर में भी इसी तरह की दुर्घटना घटी। चूँकि परीक्षा महिला और बच्चों से जुड़ें अधिकारों सम्बंधित था और सवाल भी ऐसा था की इस संदर्भ में मूलभूत अधिकारों के संदर्भ बाबा साहेब का जिक्र आवश्यक ही था। हमने सवालों का उत्तर दिया। लेकिन जब परिणाम आया तो हमें सिर्फ और ३५/१०० मार्क्स मिले। हम एक फिर निराश व चकित थे। इसके पश्चात् जब हमने कॉपी जॉचते समय जातिगत भेदभाव का आरोप लगाया तो हमारे दोस्तों को हमारी बात पसंद नहीं आयी! उनका तर्क था कि जब कॉपी पर सिर्फ रोल नम्बर होता है तो प्रो. कैसे पता चलेगा कि कौन किस जाति का है?

दोस्तों के मुखारबिंदु से ऐसी बात सुनते ही हमने मुद्दे को बदल दिया, और कुछ समय बाद अपने दोस्तों से बाबा साहेब के संदर्भ में कुछ बोलने के लिए कहा! चूँकि परीक्षा लॉ की थी तो महिला और बाल अधिकारों समेत मूलभूत अधिकारों के संदर्भ में सवाल पूछा गया था! सबने लगभग जो लिखा, हमारे पूछने पर एक-दो लाइन में वहीं बोला!
 ब्रहम्ण दोस्त ने कहा - अम्बेडकर के अनुसार......
पिछड़े वर्ग के दोस्त ने कहा - डॉ अम्बेडकर के अनुसार.....
हमने (दलित) कहा - बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के अनुसार.....
उनके बोले लफ्जों का हवाला देते हुए हमें कहा कि किसी के प्रति आपकी भाषा उस इन्सान के प्रति आपकी सोच को बयां करती हैं। आपकी ये सोच उस इन्सान के प्रति आपके मन में मौजूद सम्मान और नफरत को बयां करती हैं। इन्सान की ये सोच ना सिर्फ उसकी बोल-चाल की भाषा साफ-साफ झलकती हैं बल्कि उसकी लिखावट और लेख तक में भी स्पष्ट तौर पर दिखाई पड़ती हैं।  
इसके पश्चात हमने कहा कि ब्रहम्ण बाबा साहेब से सख्त नफ़रत करता हैं, इसलिए ब्राह्मण-सवर्ण कभी भी सम्मान से बाबा साहेब का नाम ना तो बोल ही सकता है, और ना ही लिख सकता है! इसलिए ब्रहम्ण दोस्त ने कहा - अम्बेडकर के अनुसार....
मान्यवर साहेब, बहन जी के साथ अन्य बहुजन नेतृत्व के संघर्षों के परिणामस्वरूप मण्डल आयोग की सिफारिशों के चलते पिछड़े वर्ग को मिले आरक्षण के कारण पिछड़ी जातियों में कुछ जागरूकता आयी हैं। इसलिए पिछड़ी जातियों के ये जागरूक लोग बाबा साहेब व उनकी समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व पर आधारित मानवता वाली वैचारिकी की तरफ उन्मुख हो रहे हैं। इसलिए ये लोग बाबा साहेब का थोडा-बहुत सम्मान करते हैं! इसलिए पिछड़े वर्ग के दोस्त ने कहा - डॉ अम्बेडकर के अनुसार....
लेकिन जहॉ तक रही बात दलितों की तो वे "अम्बेडकर" शब्द बोलें या ना बोलें लेकिन "बाबा साहेब" जरूर बोलते हैं, लिखते हैं! और, ये स्थापित सत्य हैं कि दलित (खासकर चमार/जाटव) बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा प्रतीक मानवतामूर्ति बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर को "बाबा साहेब" ही कहकर सम्बोधित करती हैं।
बाबा साहेब के प्रति अलग-अलग वर्गों का ये रवैया ना सिर्फ उनकी आम जिंदगी में शुमार हैं बल्कि उनकी आम बोलचाल की भाषा और उनकी लेखनी तक में स्पष्ट दिखाई पड़ती है! अब सवाल यह है कि यदि भाषा और लेखनी के आधार हम बतौर छात्र किसी की जाति या कैटेगरी से वाकिफ हो जाते हैं तो 20-25 साल से प्रोफेसरी कर रहा प्रोफ़ेसर क्या कॉपी जॉचते समय स्टूडेंट की लेखनी से उसकी जाति का पता नहीं लगा पायेगा? उत्तर सकारात्मक ही हैं। 
हालांकि हमने कॉपी देखने अर्जी डाली थी तो कुछ दिन बाद तय समय-सारणी के मुताबिक लॉ विभाग के एचओडी रहे प्रो. मिश्रा और उनके साथ दो अन्य सवर्ण प्रोफेसर्स की मौजूदगी में कॉपी का हमने अवलोकन किया। 
फ़िलहाल, कॉपी का अवलोकन कराने से पूर्व ही प्रो. मिश्रा ने नियम-शर्तों से हमें वाकिफ करा दिया कि यदि किसी प्रश्नोत्तर का मूल्यांकन नहीं हुआ तो वह हो जायेगा, यदि मार्क्स के योग में कोई गलती हैं तो वह सुधार दी जाएगी, लेकिन यदि प्रश्नोत्तरों का मूल्यांकन किया जा चुका हैं तो उसमे सुधार की कोई भी गुंजाइश नहीं हो सकती हैं, उनका पुनर्मूल्यांकन नहीं किया जा सकता हैं। 
हमने अपनी कॉपी को लगभग ५० मिनट उलट-पलट कर देखा, अपने प्रश्नोत्तरों बार-बार पढ़ा तब जाकर समझ आया कि नम्बर काम क्यूँ मिले हैं। इसके पश्चात् हमने प्रो. मिश्रा को अपनी देखने के लिए निवेदन किया। पहले तो नियम-शर्तों का हवाला देकर उन्होंने देखने से मना कर दिया लेकिन हमारे बार-बार निवेदन करने पर उन्होंने हमारी कॉपी का अवलोकन किया। हमारी कॉपी को कई बार उलटने-पलटने के पश्चात प्रो. मिश्रा ने कहा - सब तो सही लिखा है, लिखावट भी अच्छी है लेकिन नम्बर इतने कम कैसे हो सकते हैं? लगता है कि प्रो. ने कॉपी सही से जॉची नहीं या फिर! "या फिर" के बाद प्रो. मिश्रा जी कुछ नहीं बोले! उन्होनें कहा कि यदि मार्क्स बढ़ाना चाहते हो तो दुबारा परीक्षा दे दीजिए, मार्क्स बढ़ जायेगें.....लेकिन आप पास तो हो ही गये हो, अब इन चक्करों में पड़ने के बजाय आप हायर स्टडी की तरफ जाओं, आप सिविल सर्विसेज की तैयारी कीजिये! प्रो. के इस स्टेटमेंट ये साबित किया है हमारे प्रश्नोत्तर सही थे, और हमारे साथ जातिगत भेदभाव किया गया था! 
फ़िलहाल हमारे मार्क्स अच्छे रहें तो प्रथम श्रेणी में परिणाम तय था। इसलिए हमने दुबारा परीक्षा देकर मार्क्स बढ़ाने के बजाय अपनी मार्क्सशीट में वो अंक अंकित सुरक्षित रखना उचित समझा। हमारी मार्क्सशीट में दर्ज ये मार्क्स लखनऊ विश्वविद्यालय में हमारे साथ हुए जातिगत भेदभाव की कहानी बयां करता रहेगा। अंत में परीक्षा परिणाम आया, और ब्राह्मणों-सवर्णों व शूद्र ब्राह्मण रोगियों की तमाम जद्दोजहद के बावजूद हम लखनऊ विश्वविद्यालय से एलएलबी की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया।
याद रहें, जीवन के हर क्षेत्र के हर पायदान पर बाबा साहेब जैसे विद्वान के नाम का जब आज भी देश का ब्रहम्ण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र समाज सम्मान से उच्चारण तक नहीं कर सकता है तो दलित-अछूतों पर अत्याचार व इनका अपमान तो इन चारों वर्णों का ब्रहम्णी धर्म है! इसमें चकित होने की कोई बात नहीं है!
-------------------------------रजनीकान्त इन्द्रा----------------------------------

Tuesday, August 20, 2019

लोहियावाद मतलब कि ब्राह्मणी समाजवाद

"डॉ लोहिया की नजर में एक इंसान दूसरे इंसान को रिक्शे पर खींचता है, इसलिए ये अमानवीय है! हमारे इसी समाज में एक बड़ा वर्ग (दलित समुदाय) सदियों से दूसरे वर्ग का मल-मूत्र उठाकर ढोने और सफाई करने को मजबूर किया गया है लेकिन डॉ लोहिया ने कभी "मैनूअल स्कैवेंजिंग (Manual scavenging)" के खिलाफ कोई आन्दोलन क्यूँ नहीं चलाया। कारण, क्योंकि डॉ लोहिया गांधीवादी थे, और गांधी का मानना था कि ऐसा करना पुण्य का कार्य है!

गांधी कहते थे कि वो अपने शौचालय की सफाई खुद करते थे लेकिन क्या कभी गांधी ने नित-निरंतर दूसरों के मल-मूत्र को सिर पर रखकर ढोने और सफाई करने का पुण्य खुद प्राप्त किया या करना चाहा, या फिर क्या उनके शिष्यों ने ये पुण्यलाभ लिया या इस पुण्यलाभ को लेकर बैकुण्ठ की यात्रा करने के बारे में विचार किया? यदि नहीं, तो क्यूँ?

गांधी व डॉ लोहिया जैसे अन्य गांधीवादी लोगों के लिए "रिक्शे पर एक इंसान दूसरे इंसान को खींचता है" को मुद्दा बनाकर ब्रहम्णवाद को बिना चोट पहुँचायें अपने को समाज सुधारक सिद्धकर अपनी राजनैतिक मंशा व षडयंत्रकारी ब्रहम्णी नीतियों को अंजाम देना था, क्योंकि ये मुद्दा "सामाजिक संरचना" को चैलेंज नहीं करता है। लेकिन ये लोग यदि "मैनुअल स्कवैंजिंग (Manual scavenging)" को मुद्दा बनाते तो इससे समाजिक व्यवस्था ना सिर्फ चैलेंज होती है बल्कि इससे तो ब्रहम्णवाद की पूरी की पूरी इमारत ही दरकने लगती है!

हालाँकि गाँधी ने देश के अछूतों को हरिजन नाम की गली देकर हरिजन उत्थान का ढोंग तो किया, ये और बात हैं कि बाबा साहेब ने अपनी पुस्तक "What Congress and Gandhi have done to Untouchable" में गाँधी व उनकी कांग्रेस के ढोंग का पर्दाफाश कर दुनिया के सामने गाँधी और कांग्रेस को नंगा कर दिया।

फ़िलहाल जहाँ तक रहीं बात, डॉ लोहिया और उनके गांधीवादी समाजवाद की तो ये सत्य है कि रिक्शे वाला भी मजबूरी में जीविका के लिए ही रिक्शा खींचता और नित-निरंतर दूसरे का मल-मूत्र अपने सिर पर रखकर ढोनें व सफाई करने वाला समाज भी मजबूरी में ही जीविका के लिए ऐसा करता है! यहॉ ये दोनों ही कार्य आर्थिक मुद्दे के रूप जरूर नजर आते हैं लेकिन हकीकत कुछ अलग ही है! 'एक इंसान द्वारा दूसरे इंसान को रिक्शे पर खींचना' सिर्फ आर्थिक नीति का परिणाम है, लेकिन 'दलितों द्वारा दूसरे के मल-मूत्र को सिर पर रखकर ढोनें व सफाई करने का मुद्दा' सिर्फ और सिर्फ सामाजिक व्यवस्था का परिणाम है! सामाजिक व्यवस्था को ना तो गांधी जी चुनौती देना चाहते थे, ना ही उनके शिष्य डॉ लोहिया आदि! क्योंकि इन सबका मकसद बहुजन श्रम का इस्तेमाल कर ब्रहम्णवाद को मजबूत करना मात्र था, और आज सवर्ण समाजवाद की पैरवी करते हुए सामाजिक न्याय की गुहार लगाने वाले इनके अनुयायी भी यही कर रहे हैं! यहीं इनके कर्तव्य भी हैं क्योंकि ये गाँधी व उनके शिष्य डॉ लोहिया जैसों के अनुयायी हैं। जब खामियाँ पिछड़ी बहुजन जातियों में ही हैं तो हमें गाँधी व उनके सवर्ण अनुयायी डॉ लोहिया जैसे गांधीवादियों से कोई शिकायत नहीं हैं।

निष्कर्ष - डॉ लोहिया का समाजवाद, गांधीवाद के सिवा कुछ नहीं है। डॉ लोहिया के गाँधीवादी समाजवाद को सवर्ण/ब्राह्मणी समाजवाद कहना ज्यादा उचित होगा, जिसका मूल उद्देश्य बहुजनों के श्रम को हथियार बनाकर सिर्फ सवर्णों में व्याप्त आर्थिक विषमता को दूर करना है! यहीं लोहियावादी समाजवाद है, यहीं गांधीवादी समाजवाद है, यहीं सवर्ण/ब्राह्मणी समाजवाद हैं! इसलिए ध्यान रहें, डॉ लोहिया का गाँधीवादी/सवर्ण/ब्राह्मणी समाजवाद बहुजनों के श्रम को हथियार बनाकर सवर्णों में फैली आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए समाजवाद के नाम से देश के सामने परोसा गया एक मीठा जहर हैं।"
---------------------------------रजनीकान्त इन्द्रा-------------------------------

लोहिया और उनके "राइट टू रिकॉल" की मंशा

“दुनिया के अनेक देशों में "राइट टू रिकॉल" का प्रावधान हैं। ये प्रावधान सामजिक-सांस्कृतिक तौर पर भेदभावरहित व छोटी जनसंख्या वाले समाज व देश में कारगर साबित हो सकता हैं, कुछ जगह हुआ भी हैं, लेकिन भारत जैसे नारीविरोधी-सनातनी-मनुवादी-वैदिक-ब्राह्मणी-हिन्दू सामाजिक व्यवस्था व हजारों फिरके में बटें विशालकाय जनसँख्या वाले देश में ये प्रावधान, फ़िलहाल, पूरी तरह से अव्यवहारिक ही हैं। फिर भी यदि डॉ लोहिया की मंशा के अनुरूप ये प्रावधान भारत में लागू हो जाता तो इसकी मार सिर्फ और सिर्फ दलित-आदिवासी-पिछड़े-अल्पसंख्यक बहुजनों के नेतृत्व पर ही पड़ती।
 सनद रहें, जिस समाज में बाबा साहेब से लेकर बहन जी तक के इतने अथक परिश्रम के बावजूद सामाजिक ताने-बाने के चलते दलित-आदिवासी-पिछडे-अल्पसंख्यक बहुजनों को "राइट टू वोट" तक का इस्तेमाल करने के लिए तकलीफ उठानी पड़ती, जद्दोजहद करनी पड़ती हैं, पुलिस के साथ-साथ अपराधी जातियों के लोगों की मार तक खानी पड़ती हैं, उस समाज में आज से पचास साल पहले डॉ लोहिया की "राइट टू रिकॉल" कितना व्यवहारिक था? यदि डॉ लोहिया की मंशा के अनुरूप "राइट टू रिकॉल" का ये प्रावधान लागू हो जाता तो सबसे पहले भी और सबसे अंत में भी दलित-आदिवासी-पिछडे-अल्पसंख्यक बहुजन सासंद-विधायक ही वापस बुलाये जाते! यदि ना विश्वास हो तो न्यायपालिका पर गौर कीजिये जहां पर न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने के लिए "कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट" के शिकार माननीय जस्टिस कर्णन ही होते हैं जबकि उसी तरह के मुद्दे पर प्रेस कांफ्रेस करने वाले एक जज सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बन जाते हैं तो बाकी तीन जज ससम्मान सेवानिवृत्ति होकर शान से जी रहें हैं! इसलिए बहुजनों को जरूरत है कि आप सामाजिक व्यवस्था व आपके जीवन के हर कदम पर इसके दुष्प्रभाव को समझे़! सनद रहे, आपका कल्याण आपके ही बहुजन नेतृत्व द्वारा हो सकता है, किसी ब्रहम्ण-क्षत्रिय-वैश्य नेतृत्व द्वारा नहीं! इसलिए मौजूदा भारत की जातीय संरचना व जातीय भेदभाव वाले समाज में डॉ लोहिया के "राइट टू रिकॉल" की मंशा बहुजन नेतृत्व की हत्या करना मात्र ही था।
-----------------------------रजनीकान्त इन्द्रा-------------------------

समाजवाद (लोहिया बनाम राम स्वरुप वर्मा)



 “डॉ राममनोहर लोहिया के समाजवाद की समग्रता से पड़ताल करने पर उनके समाजवाद में समाजवाद की बजाय गाँधीवाद नजर आता हैं, और गाँधी मूलतः ब्राह्मणवादी थे, उनका दर्शन ब्राह्मणवाद को मजबूत करना मात्र रहा हैं। इसीलिए गाँधी जी जब तक ब्राह्मणवाद के लिए काम करते रहें, तब तक ब्राह्मण उनके साथ रहा, लेकिन बहुजन नेतृत्व की वैचारिकी से प्रभावित होकर जैसे ही गाँधी ने थोड़ा उदारवादी होने की सोचा ही, कि ब्राह्मण ने ही उन्हें मौत के घाट उतार दिया।
इसलिए बहुजनों को सावधान रहने की जरूरत हैं। बहुजनों को ध्यान रखना होगा कि जो लोहियावादी हैं, वो गाँधीवादी हैं। जो गाँधीवादी हैं, वो वर्णवादी हैं। जो वर्णवादी हैं, वो जातिवादी हैं। जो जातिवादी हैं, वहीँ ब्राह्मणवादी हैं। और, ये स्थापित सत्य हैं कि ब्राह्मणवाद कभी बहुजन हितैषी नहीं हो सकता हैं। ब्राह्मणवाद दुनिया का सबसे खतरनाक आतंकवाद और मानवता का सबसे बड़ा शत्रु हैं।
डॉ लोहिया का गाँधीवादी समाजवाद सवर्णों में फैली आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए था, ना कि शूद्रों और अछूतों की। डॉ लोहिया का गाँधीवादी समाजवाद बहुजनों के श्रम को हथियार बनाकर सवर्णों में फैली आर्थिक विषमता को दूर करने के लिए समाजवाद के नाम से देश के सामने परोसा गया एक मीठा जहर हैं।
इसलिए बहुजन समाज के पिछड़े वर्ग की भलाई सवर्ण डॉ लोहिया (वैश्य) के गाँधीवादी समाजवाद के बजाय बहुजन रामस्वरूप वर्मा (बहुजन समाज) के अम्बेडकरी समाजवाद में निहित हैं। बहुजन समाज के आदर्श वैश्य राममनोहर लोहिया नहीं, बल्कि बहुजन रामस्वरूप वर्मा होने चाहिए।”
-----------------------------------------------रजनीकान्त इन्द्रा-------------------------------------------

Wednesday, August 7, 2019

३७० में हुए बदलाव से ख़ौफ़ में है बहुजन युवा

स्कूलों-कॉलेजों में पढ़ रहें, अभी-अभी नौकरी में आये युवा और अन्य बहुजन अनुच्छेद ३७० में हुए बदलाव को लेकर काफी रोष और खौफ में हैं। उनका मानना हैं कि बहुजन दलों ने अनुच्छेद ३७० के संदर्भ में जिस तरह से बीजेपी के स्टैण्ड को सर्मथन दिया हैं उसका मतलब हैं कि बहुजन दल बीजेपी की गिरफ्त हैं, डर गए हैं। इनकों लगता हैं कि आज बीजेपी ने अनुच्छेद ३७० खत्म किया हैं, कल अनुच्छेद १५(४), १६(४), ३४०, ३४१, ३४२ आदि भी ख़त्म कर देगें। बहुजनों का ये ख़ौफ़ और नासमझी जहाँ एक तरफ बहुजन महानायिका में लोगों के विश्वास को कमजोर कर बहुजन पार्टी को नुकसान करेगा वहीँ दूसरी तरफ बीजेपी और कांग्रेस जैसे मनुवादी दलों के मनोबल को और सशक्त करेगा। हमें चिंता कि बहुजन युवाओं की इस नासमझी और डर का खामियाजा सम्पूर्ण बहुजन समाज को भुगतना पड़ेगा। बहुजनों के खौफ व नासमझी को हम बिंदुवार तरीके से देख सकते हैं। 

पहला, धारा नहीं, अनुच्छेद है। 
सबसे पहला भ्रम यहीं हैं कि जिस ३७० के संदर्भ में इतना बड़ा शोर-शराबा मचा हुआ हैं वो ३७० कोई धारा नहीं बल्कि अनुच्छेद हैं। धारा आईपीसी और सीआरपीसी में होता हैं और संविधान में अनुच्छेद होता हैं। दुःखद हैं कि हिंदी प्रिंट और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने इतनी सी मामूली बात को भी सहीं तरीके से नहीं समझ पाए, बोल पाएं तो वो अनुच्छेद ३७० का कितना अच्छा विश्लेषण कर पायेगें?

दूसरा, अनुच्छेद ३७० हट चुका हैं। 
ये भी एक भ्रम फैलाया जा रहा हैं, ये अफवाह हरयाणा, झारखण्ड और महाराष्ट्र चुनाव में वोट हथियाने के जरिया मात्र हैं जिसकों प्रेस्टीट्यूट्स के माध्यम से घर-घर पहुँचाया जा रहा हैं। महामहिम राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने ०५ अगस्त २०१९ को Constitution (Application to Jammu and Kashmir) Order, 2019, नामक आदेश जारी करते हैं जिसका मतलब होता हैं कि भारतीय संविधान के सारे प्रावधान अब सीधे जम्मू-कश्मीर और लद्दाख में लागू होगें। इससे जम्मू-कश्मीर की वो स्वायत्ता छीन जाती हैं जिसके मुताबिक किसी भी कानून या प्रावधान को लागू करने के लिए जम्मू-कश्मीर की मंजूरी लेने पड़ती थीं। अनुच्छेद ३७० अभी भी ऑपरेशन में हैं। इसी अनुच्छेद के Clause (१) के तहत ही महामहिम राष्ट्रपति जी ने Constitution (Application to Jammu and Kashmir) Order, 2019, का आदेश किया हैं। अब ०५ अगस्त २०१९ से केंद्र के सिर्फ Residuary Powers ही रहेगीं जिसके मुताबिक केंद्र जम्मू-कश्मीर और लद्दाख के मामले में आतंकवाद, टैक्स, संचार आदि पर कानून बनाकर सीधे लागू करवा सकती हैं। 

 तीसरा, जम्मू-कश्मीर में विधानसभा ख़त्म कर दिया गया, ये लोकतंत्र की हत्या हैं। 
ये भी अफवाह हैं। जम्मू-कश्मीर में विधानसभा का जो कार्यकाल पहले ६ वर्ष का था वो अब संविधान के मुताबिक भारत के अन्य राज्यों की तरह ५ वर्ष का हो गया हैं। 
 चौथा, क्या ये संविधान संसोशन हैं?
 नहीं। अनुच्छेद ३७० के सन्दर्भ में जो भी बदलाव हुए हैं वो सब अनुच्छेद ३७० (१) के तहत महामहिम राष्ट्रपति को प्राप्त शक्ति के तहत जारी किया गया एक आदेश मात्र हैं जो नाम से भी स्पष्ट हैं - Constitution (Application to Jammu and Kashmir) Order, 2019. 
जम्मू-कश्मीर को पुनर्गठित किया हैं जिसके मुताबिक अब जम्मू-कश्मीर (विधानसभ सहित) और लद्दाख अलग-अलग केंद्र-शासित राज्य होगें। बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर द्वारा रचित अनुच्छेद ३ के तहत संसद को ये पॉवर हैं है कि किसी भी राज्य को दो या अधिक में बाँट कर दो या अधिक नये राज्य बना सकती हैं, दो या अधिक राज्यों को मिलकर एक नया राज्य बना सकती हैं, केंद्र-शासित राज्य बना सकती लेकिन ऐसा करने से पहले महामहिम राष्ट्रपति जी की संस्तुति जरूरी, और ऐसा करने से पहले प्रभावित होने वाले राज्यों की मंशा जानना जरूरी हैं लेकिन उनकी मंशा बाइंडिंग नहीं हैं। भारतीय संविधान के मुताबिक राष्ट्रहित के मुद्दों के सन्दर्भ में राज्यसभा संविधान प्रदत्त अनुच्छेद २४९ के अपने स्पेशल पॉवर का इस्तेमाल कर सकती हैं। संविधान में अनुच्छेद ३ के मुताबिक राज्य पुनर्गठन संविधान में संसोधन नहीं माना जाता हैं। इसलिए अनुच्छेद ३७० के संदर्भ में अभी तक जो कुछ भी हुआ हैं वो सब संविधान के दायरे में रहकर संविधान की मंशा के अनुरूप ही हैं। 

पाँचवां, आज जिस तरह से बीजेपी ने संविधान में संसोधन करके अनुच्छेद ३७० को ख़त्म किया हैं, वो कल अनुच्छेद १५(४), १६(४), ३४०, ३४१, ३४२ आदि भी ख़त्म कर देगें ?
बहुजनों की शंका उनके मन में बीजेपी के खौफ को बयान करता हैं। ये खौफ जहाँ एक तरफ बहुजनों का बहुजन हित के प्रति जागरूकता को दर्शाता हैं वहीँ दूसरी तरफ उनका ये खौफ संविधान के प्रति उनकी अनभिज्ञता और अज्ञानता को भी नंगा करता हैं। अपनी इस अनभिज्ञता और अज्ञानता के चलते ही एससी-एसटी-ओबीसी समाज के युवा बहुजन समाज की एकमात्र अम्बेडकरवादी राजनैतिक पार्टी (बसपा) और बाबा साहेब की सर्वश्रेष्ठ अनुयायियों में अग्रणी, मान्यवर साहेब की एक मात्र उत्तराधिकारी, बुद्ध-फुले-अम्बेडकर-गाडगे की वैचारिक बेटी, भारत में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका बहन कुमारी मायावती जी को लगातार कोस रहें हैं। 
बहुजन युवाओं, महामहिम राष्ट्रपति जी द्वारा जारी किया गया Constitution (Application to Jammu and Kashmir) Order, 2019 आदेश संविधान के अनुच्छेद ३७०(१) के तहत ही आता हैं। ये एक आदेश हैं, ना कि संविधान संसोधन। राज्यसभा द्वारा Simple Majority से पास होने वाला Jammu and Kashmir Reorganisation Bill, 2019 के लिए लोकसभा में भी Simple Majority से ही पास किया जायेगा। संसद के दोनों सदनों से पास होने और राष्ट्रपति महोदय के Assent के बाद ये Jammu and Kashmir Reorganisation Act, 2019 कहलायेगा, ना कि Constitutional Amendment. संविधान के अनुच्छेद ३ के तहत Simple Majority पास होने वाले Bill एक Act की श्रेणी में आतें हैं जबकि संविधान संसोधन अनुच्छेद ३६८ के तहत किया जाता हैं जिसके लिए Special Majority (2/3 of Present & Voting in Both the House) की जरूरत होती हैं। 
रहीं बात अनुच्छेद १५(४), १६(४), ३४०, ३४१, ३४२ आदि की तो ये सब संविधान के Basic Structure के part हैं, इनमें किसी भी तरह के संसोधन के लिए बाबा साहेब रचित संविधान के अनुच्छेद ३६८ के तहत Special Majority (2/3 of Present & Voting in Both the House) की जरूरत होगी।

बहुजन समाज की अपने अधिकारों के प्रति जागरूकता, उनकी राजनैतिक हुंकार, उनकी नेत्री के होते हुए बहुजन हकों से सम्बंधित संविधान के इन अनुच्छेदों में संसोधन एनडीए के बस की बात नहीं हैं। इसलिए बहुजन समाज को बीजेपी के ऐसे चुनावी (झारखण्ड, हरयाणा, महाराष्ट्र के विधानसभा चुनाव, ध्वस्त हो चुकी अर्थव्यवस्था, अजयमान भ्रष्टाचार, गर्त में आराम कर रहीं कानून व्यवस्था, हिन्दू आतंकवाद के कुचक्र, बहुजनों पर हो रहें अत्याचार, महिलाओं और बच्चियों के साथ हो रहें बलात्कार, ब्राह्मणवाद को खुली छूट और देश की राष्ट्रिय संपत्ति का निजीकरण, क्रोनी-कैपिटलिज़्म, भक्तों की तरसती आत्मा की संतुष्टि के संदर्भ में अपनाये गए) हथकंडों से डरने के बजाय अपने नेत्री के साथ और मजबूती से खड़े होने की जरूरत हैं क्योंकि आप जितना डरोगे वो उतना डरायेगें। ऐसे में महत्वपूर्ण ये हैं कि आप ओबीसी-एससी-एसटी बहुजन लोग बीजेपी आदि से खौफ खाने के बजाय अपने बहुजन महानायिका के साथ मजबूती से खड़े रहियें क्योंकि आपका सपोर्ट जितना ज्यादा होगा, आपकी बहुजन पार्टियाँ उतनी ही शक्तिशाली होगीं। आपकी बहुजन पार्टियाँ (बसपा आदि) जितनी ज्यादा शक्तिशाली होगीं आपकी राजनीति उतनी ही शक्तिशाली होगी। आपकी राजनीति जितनी शक्तिशाली होगी, आपकी आवाज़ उतनी ही प्रबल-प्रखर-मुखर होगीं। जब आपकी आवाज़ प्रबल-प्रखर-मुखर होगीं तो इसके प्रचण्ड ख़ौफ़ में वो जियेगा जिससे आज आप ख़ौफ़ खा रहें हैं। 

जय भीम...

-------------------रजनीकान्त इन्द्रा---------------------