Friday, January 31, 2020

Thursday, January 23, 2020

मैं शाहीन बाग हूँ

रो रहा है लाल किला,
ताजमहल विरान है।
सिसक रही है बुद्ध की धरती,
दुःखी अम्बेडकर संविधान है।
मैं इसकी गवाह हूँ,
मैं बुद्ध-अशोक-अम्बेडकर की आवाज हूँ।
मैं शाहीन बाग हूँ,
मैं शाहीन बाग हूँ।।

बढ़ी सांप्रदायिकता, जातिवाद बढ़ा,
स्थापित हो गया ब्राह्मणवाद।
संसद पर कब्जा कर आतंकियों ने,
बना दिया हिंदू सरकार।
जनता हक को बिलख रही है,
बढ़ रहा है सरकारी अत्याचार।
मैं इसकी गवाह हूँ,
मैं कबीर-रैदास-नानक की आवाज हूँ,
मैं शाहीन बाग हूँ,
मैं शाहीन बाग हूँ।।

लाल संग संविधान को छाती से चिपकाए,
आगे बढ़ रही हैं देश की मांयें,
ठिठुर रहा है सारा जहां,
शिशिर-शरद है परवान यहां,
मैं इसकी गवाह हूँ,
मैं फूले-शाहू-पेरियार की आवाज हूँ,
मैं शाहीन बाग हूँ,
मैं शाहीन बाग हूँ।।


भुलाकर दुश्वारियां कुदरत की,
पीढ़ियों के हक को सजो रही हैं,
गली, गांव-मोहल्लों में,
बंधुत्व के धागें को पिरों रहीं हैं,
मैं संघर्ष की गवाह हूँ,
मैं बिरसा-तिलका-घासी की आवाज हूँ,
मैं शाहीन बाग हूँ,
मैं शाहीन बाग हूँ।।


जनता ने बागडोर सौंपी जिसे,
वही उन्हें बेघर बना रहा है,
जनता की ही खा कर,
जनता को ही आंख दिखा रहा है,
फासीवाद की इम्तहा हुई,
लोकतन्त्र कराह रहा हैं,
मैं इसकी गवाह हूँ,
मैं रमा-सावित्री-झलकारी की आवाज हूँ,
मैं शाहीन बाग हूँ,
मैं शाहीन बाग हूँ।।

गाय सुरक्षित है, नारी संग व्याभिचार है।
हिंदुस्तान का शासन है, भारत लाचार है।
पुलवामा उरी षड्यंत्र, वोट का आधार है।
किसान मरे या जवान,
हुक्मरानों को नहीं परवाह है,
ये हिंदुत्व का आतंकवाद है,
मैं इसकी गवाह हूँ,
मैं उदा-फातिमा-फूलन की आवाज हूँ,
मैं शाहीन बाग हूँ,
मैं शाहीन बाग हूँ।।

देख प्रकोप मनुष्यता का,
मानवता चीख रहीं हैं।
हिटलरशाही की पराकाष्ठा,
बहुजन का हक़ मार रहीं हैं।
मैं इसकी गवाह हूँ,
मैं बहना-काशीराम-बहुजन की आवाज हूँ,
मैं शाहीन बाग हूँ,
मैं शाहीन बाग हूँ।।

रजनीकांत इंद्रा
23.01.2020

Sunday, January 12, 2020

ब्राह्मणवाद की मार


बुद्धमय भारत था,
फली-फूलीं समृद्धि जिसमें,
सुख-शांति व मानवता का ज्ञान।
हड़प्पा मोहनजोदड़ो कहते
तक्षशिला-नालंदा करते हैं जिसका गुणगान

फिर मनुष्य आया भारत में,
किया षड्यंत्र बांट दिया मानव को,
एक नहीं, हजारों बार,
स्थापित कर मनुष्यता को,
किया शुरू अत्याचार।।

मनुष्यता नहीं है कुछ और,
यही है ब्राह्मणवाद, यही है इसका दौर,
जब शुद्र-अछूतों पर चले तलवार।
अज्ञानी अंधे बने रहे ये,
ना था शिक्षा का इनको अधिकार।।

ना जमीन, ना खेती, ना अन्न-आहार,
हर घर में पड़ते फांकें बारंबार।
दुर्गति में जीवन गुजरत्,
काल बसेरा घर-घर द्वार।।

धोबी धोवत कपड़े,
अहिर चरावत पशु-ए-सरकार,
रहे गडरिया भेड़न के बिच,
खटिया मचिया दौरी बनवत,
गुजरे जीवन कहै कलवार।।

बौद्धन् से तो नफरत इतनी,
बनाय दिया उनकों अछुत-चमार,
उनकी परछाई से भी नापाक होंगे,
ब्राह्मण-सवर्ण सब अपराधिन जाति।
जीवन पशु से भी बद्तर बना दिया,
कहैं चीख-चीख बौद्धन कै इतिहास।।

ठंडी हो या गर्मी वर्षा,
बाबू साहब के खेतन में जीवन गुजरै,
मिले न रोटी अंकड़ैं आंत,
भूसा खाईकै जीवन गुजरैं,
पन्नि में पड़ा रहैं कुर्मी और किसान।
कब तक लोहा पीटत् जीवन गुजरें,
पूछें हाथ के छाले,
ऐसा कहि-कहि मरैं लोहार।।

डाल-डाल से फूल चुगैं
माली बिछावें विप्र की राह,
करत गुलामी सब लोगा,
हो चाहे भर पासी महार दुसाध।।
जिंदगी बीते कुल्हड़ काटत,
खोदत माटी बतावैं कोहार,
यह कैसी दुर्गति हमरी,
पानी ढोवत चिल्लाय कहार।।

कोल्हू में घूमैं तेलि-तमोली,
चमकैं अपराधिन के सिर कै बाल,
कोइरी उगावैं मुरई गाजर,
बैठि-बैठि खाय जल्लाद,
कब तक पेट भरैं नाऊ,
काटि-काटि दूसरन् कै बाल।
दो घाटन् के बिच जीवन भरमैं,
कहैं केवट, कहैं निषाद मल्लाह।।
इज्जत आबरू ना बचैं शुद्र की,
बचैं ना उनकी फूलन नारि,
अत्याचारन् की ये पराकाष्ठा,
झेल रहा है शूद्र-अछूत समाज,
झेल रहा है शुद्र-अछूत समझ।।

----------रजनीकान्त इंद्रा----------
१२.०१.२०१९