Wednesday, January 16, 2019

सामाजिक परिवर्तन को समर्पित एलीफ


रजनीकान्त इन्द्रा, संस्थापक-अध्यक्ष एलीफ, के अनुसार "ब्राह्मणी संस्कृति से पूरी तरह अलग बहुजन सांस्कृतिक विरासत को एक नए सिरे से स्थापित करने हेतु बहुजन महोत्सवों, महापर्वों व त्यौहारों (अम्बेडकर महोत्सव_१४ अप्रैल और दीक्षा-दीप महोतसव / दीक्षा महादीपावली_१४ अक्टूबर) के माध्यम से बाबा साहेब को चौराहे, गली और गांव की मूर्तियों से आगे ले जाते हुए हर बहुजन के घर व हर बहुजन के ज़हन में बाबा साहेब व बाबा साहेब के दर्शन को स्थापित करने व एक नव ऊर्जावान क्रन्तिकारी सांस्कृतिक धरोहर के पुनर्स्थापना के मिशन पर चल रही एक विचारधारा है - एलीफ।"

रजनीकान्त इन्द्रा के नेतृत्व में अस्तित्व में आए एलीफ का मकसद बहुजन समाज को ब्राह्मणी संस्कृति से आज़ाद कराकर बहुजनों को अम्बेडकरी विचारधारा से जोड़ते हुए अपनी सांस्कृतिक विरासत व सत्ता को एक नए सिरे से स्थापित करना है। बहुजन समाज को ब्राह्मणों के सारे तीज-त्यौहार से मुक्त कर बहुजन समाज के अपने त्यौहार को स्थापित करते हुए अपनी संस्कृति को मजबूत करने का मिशन है - एलीफ

इसकी शुरुआत इन्द्रा साहेब की अगुवाई में शिक्षा भूमि अम्बेडकर नगर उ.प्र. से १४ अप्रैल २०१६ को हुई है। सांस्कृतिक विरासत को स्थापित करने के मिशन की शुरुआत शिक्षा-ज्ञान-शांति-समृद्धि-मानवता पर आधारित दो बहुजन महापर्वों से की गयी है क्योंकि किसी भी संस्कृति में त्यौहारों बहुत महत्वपूर्ण स्थान है।

इसके तहत दो मुख्य त्यौहार चुने गए है -
(१) रजनीकान्त इन्द्रा के नेतृत्व में १४ अप्रैल को अम्बेडकर जयंती के रूप में मनाये जाने की परम्परा को खत्म करते हुए, क्योंकि जयन्ती सिर्फ एक दिवस बनकर रह जाता है, जयन्ती एक राजनैतिक शब्त है, इसका ज्यादातर इस्तेमाल राजनीती के लिए ही होता आया है, अम्बेडकर महोत्सव की शुरुआत की गयी है। इन्द्रा साहेब के नेतृत्व में सामाजिक व सांस्कृतिक धरोहर को नए सिरे से स्थापित करते हुए एलीफ १४ अप्रैल को आंबेडकर महोत्सव के रूप में मनाने और पूरी दुनिया में फ़ैलाने का काम कर रहा है। रजनीकांत इन्द्रा कहते है, "१४ अप्रैल सिर्फ और सिर्फ एक इन्सान का जन्म दिन मात्र नहीं है बल्कि ये ज्ञान के जन्म का दिन है, अम्बेडकर दर्शन के जन्म का दिन है, इसलिए ज्ञान के प्रतीक बाबा साहेब को राजनीतिक जयंती से आगे ले जाते हुए सांस्कृतिक धरोहर के रूप में स्थापित करने की सख्त जरूरत है।" इसलिए उन्होंने अम्बेडकर जयन्ती की राजनैतिक परम्परा को ख़त्म कर, बहुजनों की सांस्कृतिक परम्परा को परवान चढ़ाने के लिए १४ अप्रैल को अम्बेडकर महोत्सव के नाम से एक महापर्व के रूप मनाने की परम्परा की बुनियाद रखीं।

(२) रजनीकान्त इन्द्रा के अनुसार "दीपावली शब्द पर हिन्दुओं का कोई कॉपी राइट नहीं है, दुनिया के अलग-अलग देशों में दीपावली का त्यौहार अलग-अलग मान्यताओं के तहत मनाया जाता है। मिथकीय ही सही लेकिन प्रतीकात्मक तौर पर हिन्दुओं की दीपावली नरसंहार व महाविद्वान महाराज रावण की हत्या का जश्न है। मेरी निगाह में कोई भी सभ्य इंसान या समाज नरसन्हार को जश्न के रूप में मानाने की इज़ाज़त नहीं देगा।" आगे इन्द्रा साहेब कहते है कि "दीपावली का दीया ज्ञान का प्रतीक है, बुद्ध खुद ज्ञान के प्रतीक है, बाबा साहेब भी ज्ञान के प्रतीक है। इसलिए हम बहुजन समाज के लोगों को हिन्दुओं की मानवाधिकारों के हनन के प्रतीक ब्राह्मणी दीपावली का बहिष्कार कर, हर साल १४ अक्टूबर के दिन ज्ञान (बाबा साहेब) को ज्ञान (बुद्ध) से सम्मानित करते हुए ज्ञान का दिया जलाकर सारी दुनिया में ज्ञान व मानवता का प्रकाश फ़ैलाने वाले दीक्षा-दीप महोत्सव / दीक्षा महदीपवली का महापर्व मनाना चाहिए। हमारे निर्णय में बुद्ध और बाबा साहेब के ज्ञान को ज्ञान प्रतीक दीपक से सम्मानित करते हुए, सकल मानवता को सुख-शान्ति-ज्ञान व समृद्धि का सन्देश देने वाले दीक्षा-दीप महोत्सव / दीक्षा महादीपावली के त्यौहार को मनाया जाना सर्वोत्तम है।"

बाबा साहेब ने १४ अक्टूबर को बुद्ध धम्म को अपनाया था। इसलिए इन्द्रा साहेब की अगुवाई में एलीफ ने १४ अक्टूबर को दीक्षा महादीपवली मानाने के निर्णय किया और मनाया। अब आंबेडकर महोत्सव व दीक्षा-दीप महोत्सव / दीक्षा महादीपावली को पूरी दुनिया में फ़ैलाने और जन-जन तक पहुँचाने के लिए इन दोनों महापर्वों का प्रचार-प्रसार जोरों से चल रहा है। रजनीकान्त इन्द्रा जी कहना है कि "हमें अपनी संस्कृति खुद स्थापित करनी होगी, वो भी एकदम नए सिरे से, हमारे त्यौहार किसी की हत्या या किसी के मनवाधिकार के हनन के रूप में नहीं बल्कि ज्ञान पर्व के रूप में मनाये जायेगें। हमारे सारे उत्सव ज्ञान के प्रतीक होगें जिनमे अमानवीयता, हिंसा व ब्राह्मणवाद का रत्तीभर भी अंश नहीं होगा।"

आगे रजनीकान्त इन्द्रा कहते है कि "१४ अप्रैल और १४ अक्टूबर दोनों ही आधुनिक भारत की सरज़मी पर ज्ञान के जन्म का दिन है। इसलिए हम सब १४ अप्रैल को आंबेडकर महोत्सव और १४ अक्टूबर को दीक्षा-दीप महोत्सव / दीक्षा महादीपवली का पर्व मानते है। बहुजनों के दोनों महत्वपूर्ण महापर्वों की तिथियाँ ऐतिहासिक तौर पर तथ्य है और तय है - अम्बेडकर महोत्सव (१४_अप्रैल) और दीक्षा महादीपावली (१४_अक्टूबर), इस तरह से ये तिथियाँ हमेशा के लिए स्थिर और ब्राह्मणों के पंचागों से पूर्णतयः आज़ाद है।

१४ अप्रैल के दिन जहाँ एक तरफ हम सब बाबा साहेब के विचारों व मिशन पर कारवां चर्चा करते है, गीत-संगीत के कार्यक्रम करते है, अपने-अपने घरों में पकवान बनते है और आपस में मिलजुल बाबा साहेब व ज्ञान की विचारधारा और अपनी सांस्कृतिक धरोहर के इस महापर्व को अम्बेडकर महोत्सव के रूप में मानते है, वहीं दूसरी तरफ हमारी दीक्षा-दीप महोत्सव / दीक्षा महादीपावली में कोई शोर-शराबा नहीं होता है क्योकि हमारा मानना है कि शिक्षा-दीक्षा का पर्व प्रदुषण वाले वातावरण में नहीं मनाया जा सकता है, इसलिए पटाखों पर पाबंदी है। दीक्षा-दीप महोत्सव / दीक्षा महादीपावली के दिन भी शिक्षा से ओत-प्रोत गीत-संगीत, पकवान और ज्ञान के दीपक को कतार में जलाकर हम बिना किसी प्रदुषण के दीक्षा-दीप महोत्सव / दीक्षा महादीपावली का महापर्व मानते है। इन पर्वों पर हम बच्चों को कलम-किताब जैसे शिक्षा संबधी उपहार देते है। कहने का तात्पर्य ये है कि ये दोनों बहुजन महापर्व ज्ञान के महापर्व हैं। इसलिए बिना किसी प्रदुषण के ज्ञान सम्बंधित मूल्यों को ध्यान में रखकर सुख-शान्ति-ज्ञान व समृद्धि प्रतीक इन बहुजन महापर्वों को मनाया जाता है।

१४ अक्टूबर २०१६ को एलीफ (रजनीकान्त इन्द्रा A-LEF) के नेतृत्व में शिक्षा भूमि अम्बेडकरनगर उत्तर प्रदेश की सरजमीं से शुरू हुए समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व-वैज्ञानिकता-शिक्षा-मानवता पर आधारित भारत के मूलनिवासी बहुजन समाज का अपना, अम्बेडकर महोत्सव (१४ अप्रैल) व दीक्षा-दीप महोत्सव / दीक्षा महादीपावली (१४ अक्टूबर), का महापर्व उत्तर प्रदेश के कई जिलों जैसे कि अम्बेडकरनगर, आज़मगढ़, सुल्तानपुर, इलाहबाद, गोरखपुर, बस्ती, मैनपुरी से होते हुए नांदेड़ (महारष्ट्र), गोंदिया (महाराष्ट्र) आदि जिलों में अपनी दस्तक दे चुका है। ऐसे में माननीय रजनीकान्त इन्द्रा, एलीफ के ससंथापक-अध्यक्ष, और हम समस्त एलीफ सदस्य, आप सब से निवेदन करते है कि आप सब ब्राह्मणों के सारे तीज-त्यौहारों का बहिष्कार कर, उनके मदिरों का परित्याग कर आप सब ज्ञान और शिक्षा के प्रतीक इन बहुजन महापर्वों को, बिना किसी राजनैतिक-सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-पर्यावरणीय प्रदुषण के, ज्ञान के महापर्व के रूप में मनाये और समस्त बहुजनों तक इन दोनों बहुजन त्यौहारों को पहुँचाकर बहुजनों के इन दोनों महापर्वों को दुनिया के पटल पर अपनी सांस्कृतिक अस्मिता को स्थापित करें।
दीपशिखा इन्द्रा, एलीफ

जन कल्याणकारी दिवस - २०१९

Wednesday, January 9, 2019

10 % सवर्ण आरक्षण ?


रॉफेल घोटाला, जनधन घोटाला, कृषि विकास पत्र घोटाला, नोटबदळी घोटाला, ईबीएम घोटाला, दलित-आदिवासी-पिछड़ों-अल्पसंख्यकों व नारी समाज के साथ हो रहे अत्याचार, जातिवादी भेदभाव, अनाचार, भ्रस्टाचार, ब्राह्मणी आतंकवाद, संविधान की निर्मम हत्या जैसे तमाम जघन्य कुकृत्यों को छिपाने और तीन राज्यों (मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान) में मिली करारी शिकस्त से बौखलाई ब्राह्मणी आरएसएस के नेतृत्व वाली ब्राह्मणी रोगी बीजेपी ने अपने नगें बदन को छुपाने के लिए संविधान असंगत आर्थिक आधार वाले १० % सामान्य वर्ग आरक्षण रुपी अपने गंदे हाथों का इस्तेमाल किया है।

आम चुनाव २०१९ के मद्देनज़र मौजूदा परिस्थिति में उम्मीद है कि लगभग सभी राजनैतिक दल अपने राजनैतक लाभ के लिए नंगीं बीजेपी की इज़्ज़त बचने में अपनी राजनैतिक नैतिकता का प्रदर्शन जरूर करेगें। ऐसे में बहुत कम या यूं कहें कि किसी से भी इस समय संविधान की मूल भावना के ख्याल की उम्मीद करना गलत ही होगा। फ़िलहाल, राजनैतिक मजबूरियों के परे आरक्षण के सन्दर्भ में बहुत से सवाल है।

पहला, क्या आर्थिक आधार पर आरक्षण दिया जा सकता है?

संविधान व संविधान के पिता बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर की मंशा अनुरूप संविधान प्रदत्त आरक्षण का मतलब है - "देश की सत्ता व संसाधन के हर क्षेत्र के हर पायदान पर समाज के हर तबके को उसकी आबादी के अनुपात में समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी"। संविधान के अनुच्छेद १५ (४) और १६ (४) के अनुसार सामाजिक और शैक्षिण पिछड़ेपन के कारण जिस पिछड़े वर्ग को और अनुसूचित जाति व अनुसूचित जन-जातियों का देश की शासन-सत्ता व संसाधन के क्षेत्र में समुचित उनका प्रतिनिधित्व नहीं है उनकों आरक्षण द्वारा उनके मूलभूत लोकतान्त्रिक अधिकार को पूरा किया जाता है। ये सामाजिक और शैक्षिण पिछड़ापन व ओबीसी-एससी-एसटी जातियों के साथ हुए एवं और भी निकृष्टतम रूप से जारी हर अत्याचार व अनाचार का आधार जाति रही है। इन सबके चलते सामाजिक व शैक्षिण रूप से पिछड़ा ओबीसी-एससी-एसटी समाज का देश की शासन-सत्ता व संसाधन के हर क्षेत्र के हर पायदान पर उनका प्रतिनिधित्व नहीं है। इसलिए संविधान में सामाजिक और शैक्षिणक पिछड़ेपन के आधार पर ओबीसी-एससी-एसटी को आरक्षण मिलता है। कहने का आशय यह है कि आरक्षण देश की शासन-सत्ता व संसाधन के हर क्षेत्र के हर पायदान पर सामाजिक व शैक्षिण रूप से पिछड़े ओबीसी वर्ग और एससी-एसटी के समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी को तय करने का सबसे अहम् संवैधानिक व लोकतान्त्रिक हक़ है, ना कि इनकम जनरेशन या फिर नरेगा जैसा गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम। गरीबी उन्मूलन के लिए संविधान के पार्ट-४ में अनुच्छेद ३८ से ४८ तक बहुतेरे प्रावधान है। इसलिए जातिवादी भारतीय समाज में गरीबी आरक्षण का आधार कभी नहीं हो सकता है। यदि गरीबी की वजह से से कोई पढ़-लिख नहीं पा रहा है तो ये स्टेट की जिम्मेदारी है कि वो उनकों रहने, पढ़ने के लिए सबसे पहले एक सामान शिक्षा व्यवस्था लागू करे, अच्छे-अच्छे स्कूल स्थापित करवाए, छात्रवृत्ति प्रदान करे। याद रहें, आरक्षण देश की सत्ता व संसाधन के हर क्षेत्र के हर पायदान पर समाज के हर तबके को उसकी आबादी के अनुपात में समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी है, गरीबी उन्मूलन प्रोग्राम नहीं। इसलिए आर्थिक आधार पर दिए जाने वाला आरक्षण संविधान की मूल भावना के खिलाफ है।

दूसरा, बिना किसी ठोस पड़ताल के सरकार को कैसे पता चला कि देश में गरीब सवर्णों व अन्य को १०% आरक्षण की जरूरत है? ये आकड़ा कहाँ से आया ? ऐसे में ये कहना उचित होगा कि ये फैसला पूरी तरह से आम चुनाव २०१९ के मद्देनज़र किया गया एक बेवकूफी भरा निर्णय है। यदि गरीबी जाति देखकर नहीं आती है तो सरकार को ये बताना चाहिए कि राशन के लिए गरीबी अलग, और नौकरी के लिए गरीबी का पैमाना अलग क्यों है? आठ लाख या कम की इनकम, पांच या इससे कम एकड़ की जमीन आदि, और इनकम टेक्स देने वाला आर्थिक तौर पर गरीबी कैसे मान लिया गया है ? ये कोर्ट ऑफ़ लॉ में कैसे स्टैंड करेगा?

तीसरा, आर्थिक आधार लागू होने वाले १० % सामान्य वर्ग आरक्षण के चलते इंदिरा साहनी केस के नौ जजों के फैसले द्वारा तय की गयी ५०% की सीमा पार हो जाती है। अदालत ने कहा है कि आर्थिक पिछड़ापन ही आरक्षण का आधार नहीं हो सकता है। इसलिए भी ये आर्थिक आधार वाला आरक्षण कोर्ट ऑफ़ लॉ में स्टैंड नहीं कर पायेगा।

चौथा, सुप्रीम कोर्ट और अन्य उच्च न्यायलय बार-बार कह चुके है कि आरक्षण उनकों दिया जाता है जो सामाजिक और शैक्षिण रूप से पिछड़े है, और जिनका प्रनिधित्व या तो कम है या फिर नहीं है। जबकि सवर्ण व अन्य के सन्दर्भ में देखें तो हम पातें है कि ये लोग देश की सत्ता व संसाधन के हर क्षेत्र के हर पायदान पर ओवर-रिप्रेजेंटेड हैं। ऐसे में इनकों अलग से किसी भी आरक्षण की कोई जरूरत नहीं है। इसलिए भी ये संविघान की कसौटी पर खरा नहीं उतरता है।

पांचवा, एनडीए-२ के इस फैसले से पहले भी कई बार आर्थिक आधार पर आरक्षण की मांग को उच्च न्यायपालिका ने खारिज कर दिया है। जैसे- साल 1978 में बिहार में पिछड़ों को 27 फीसदी आरक्षण मिलने के बाद सवर्णों को भी तीन फीसदी आरक्षण दिया गया। कोर्ट ने इस व्यवस्था को नहीं माना और सवर्णों का आरक्षण खत्म कर दिया। साल 1990 में 13 अगस्त को मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू हुई।  इसके बाद पी वी नरसिम्हा राव की सरकार ने आर्थिक आधार पर 10% आरक्षण दिया, मगर साल 1992 में अदालत ने उनके इस फैसले को खारिज कर दिया। अप्रैल, 2016 में गुजरात सरकार ने सामान्य वर्ग के आर्थिक रूप से पिछड़े लोगों को 10 फीसदी कोटा दिया। अगस्त 2016 में गुजरात हाईकोर्ट ने इसे गैरकानूनी और असंवैधानिक बताकर खत्म कर दिया। साल 2014 में बॉम्बे हाईकोर्ट ने महाराष्ट्र सरकार का मराठों को 16 फीसदी आरक्षण देने का फैसला पलट दिया है। राजस्थान सरकार ने स्पेशल बैकवर्ड क्लास को 14 फीसदी कोटा देते हुए 50 फीसदी की सीमा को पार किया था, ये मामला भी सुप्रीम कोर्ट के सामने आया और आरक्षण खारिज हो गया।

छठा, आर्थिक आधार पर १०% सवर्ण आरक्षण का बहुजन समाज के लिए क्या मायने है ?

हमारे विचार से, विविधता पूर्ण व जाति में बटे भारतीय समाज में लोकतंत्र का मतलब है - जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी। 

इस तरह से ओबीसी-एससी-एसटी को उसकी आबादी के अनुसार ही उसे देश की शासन-सत्ता व संसाधन में उसको उसका अपना समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी का अधिकार सुनिश्चित होना  चाहिए।

फ़िलहाल, हमें १०% आर्थिक आधार वाले ब्राह्मण-सवर्ण-अन्य आरक्षण से इनका सबका कोई खास फायदा होता नहीं दिख रहा है। ऐसे में हमें पूरी उम्मीद है कि खुद ब्राह्मण लोग ही इस आरक्षण का विरोध करेगें, और ४९.५०% आरक्षित श्रेणी में ही ब्राह्मण-सवर्ण-अन्य आरक्षण की मांग करेंगें। इससे पहले भी ब्राह्मणी रोगियों से भरा सुप्रीम कोर्ट-संसद ओबीसी के ही श्रेणी में ट्रांसजेंडर्स व विकलांगों को शामिल कर ओबीसी के आरक्षित दायरे में सेंध लगा चुका है, जिसका आज तक पूरा फायदा ब्राह्मण-सवर्ण-अन्य अनारक्षित वर्ग के ट्रांसजेंडर्स व विकलांगों को ही मिला है, किसी एससी-एसटी-ओबीसी के ट्रांसजेंडर या विकलांग को नहीं। लेकिन, गहरी नींद में सो रहें ओबीसी समाज ने इस बात का कभी विरोध नहीं किया। हमारा सवाल यह है कि यदि ओबीसी वर्ग में ब्राह्मण-सवर्ण-अन्य अनारक्षित वर्ग के ट्रांसजेंडर्स व विकलांगों को शामिल किया गया तो बढ़ी आबादी के मद्देनज़र ओबीसी का कोटा क्यों नहीं बढ़ाया गया? इससे भी आश्चर्य व दुःख की बात ये है कि ओबीसी व इसके नेताओं और बुद्धिजीवियों ने इसका विरोध क्यों नहीं किया?

फ़िलहाल, ऐसे में यदि उच्च न्यायपालिका के ब्राह्मणी रोगी जज अपने ५०% वाले बैरियर तो तोड़ते है तो जहाँ एक तरफ उच्च न्यायपालिका के जजों की ब्राह्मणी मंशा को फिर एक बार प्रमाणित करेगा तो वही दूसरी तरफ ओबीसी-एससी-एसटी को उसकी आबादी के अनुपात में उसके समुचित प्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी का रास्ता खुल जायेगा। बस, जरूरत है बहुजन समाज, खासकर ओबीसी, को अपने संवैधानिक व लोकतान्त्रिक हक़ के लिए एक बार सड़क पर उतरना होगा। ये बहुजन समाज के बहुत अहम् मौका होगा।

बहुजन समाज के आरक्षण को नकारने वाले, कमजोर करने वाले, रिज़र्वेशन इन प्रोमोशन का माखौल बनाने वाले उच्च न्यायपालिका पर कब्ज़ा जमाये ब्राह्मणी रोगी जजों की तानाशाही व एकछत्र राज का अंत कर न्यायपालिका में संविधान सम्मत व मान्यवर काशीराम साहेब की मंशा के अनुरूप आरक्षण का प्रावधान लागू करवाने का अहम् मौका होगा। यह देश की प्राइवेट सेक्टर में भी आरक्षण को मुकम्मल तौर लागू करवाने का सबसे बेहतरीन मौका होगा। बहुजन समाज, खासकर ओबीसी, को अपने हक़ के लिए सड़क पर उतरना ही होगा। इसी में सकल बहुजन समाज और भारत देश तथा राष्ट्रवाद के हक़ में होगा। 

Saturday, January 5, 2019

"ये भी सही, वो भी सही" वाले समाज सेवकों से सावधान


बहुजनों व ब्रहम्णी रोगी गैर-बहुजनों के संदर्भ में, हम इस बात से सहमत हैं कि हम सभी भारत के नागरिक है! हम सब को साथ मिलकर रहना है! इसलिए हम सब को साथ मिलजुल कर रहना चाहिए।

फिलहाल, बहुजन (ओबीसी-एससी-एसटी व कन्वर्टेड मायनॉयरिटीज) तो सबके साथ मिलजुल कर रहने को तैयार हैं लेकिन सवाल यह है कि क्या गैर-बहुजन (सवर्ण) समाज इसके लिए तैयार है? बहुजन समाज तो सतत् जाति-तोड़क आन्दोलन चला रहा है लेकिन क्या सवर्ण अमानवीय जाति की बेडियों को तोडना चाहेगा?

बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर रचित "एनिहिलैशन ऑफ कॉस्ट" के मुताबिक "जाति को बनायें रखने व जाति को तोड़ने", दोनों की जिम्मेदारी सवर्णों पर ही है। हमारा भी स्पष्ट मानना है कि रीति-रिवाज, परम्परा आदि समाज के सम्पन्न तबकों द्वारा ही अपना कर शुरू की जाती हैं, और उसी तबके द्वारा बहिष्कार कर खत्म भी की जाती है! ये स्थापित हो चुकी सच्चाई है कि जाति व्यवस्था भी समाज का अहम हिस्सा ही नहीं, लोगों की जीवन-शैली का सबसे महत्वपूर्ण अंग बन चुका है।

ऐसे में जाति व्यवस्था के चलते ही स्वघोषित उच्च जातियों ने सदियों से समाज पर अपनी उच्चता, पवित्रता, विद्वता बनाये रखा है। जिसके चलते इनका बिना किसी मेहनत के ना सिर्फ इनका बेहतरीन जीवन यापन हो रहा है बल्कि ये समाज पर हुकूमत कर रहे हैं। अमानवीय जातीय उच्चता के चलते चंद मुट्ठीभर लोग बहुजनों की सोच व उनकी जीवन-शैली पर नियंत्रण कायम कर रखा है। ऐसे में प्रश्न खड़ा होता है कि जाति व्यवस्था के चलते गैर-बराबरी वाले समाज में सबसे ऊंचे पायदान बैठा हुक्मरान तबका क्या स्वतः जाति व्यवस्था को खत्म करना चाहेगा? नहीं, बिल्कुल नहीं।

ऐसे में, शिकारी (ब्रहम्णवादियों) को समझाकर शिकार व शिकारी के बीच में सामंजस्य की अपील करने वाले स्वघोषित समाज सेवी व बुद्धिजीवी-चिंतक लोग अपने आपको निष्पक्ष व प्रगतिशील सिद्ध करने की जद्दोजहद मात्र कर रहे हैं। ऐसे बुद्धिजीवी-चिंतक गिरोह का मक़सद बहुजन आन्दोलन को आगे जाना नहीं, बल्कि ये लोग बहुजन व गैर-बहुजन के बीच की वो कड़ी बनना चाहते हैं जिसकी पैठ दोनों ग्रुप में हो। ऐसे लोग ब्रहम्णवाद के स्वास्थ्य के लिए फ़ायदेमंद हैं और बहुजन आन्दोलन के लिए स्पष्ट तौर पर हानिकारक है।

कुछ ऐसे स्वघोषित समाज सेवी व विद्वान देश की प्राइवेट यूनिवर्सिटीज, जिसमें उच्च जातीय व रईसों के बच्चें पढ़ते है, के बच्चों से मिलते है, आरक्षण व दलितों का हालत समझाते है, और कहते है कि बच्चे बहुत मेहनती होते है, बहुत सवाल पूछते हैं, बहुत इंटेलिजेंट होते है, बहुत अटेंटिव होते है, बहुत क्रिएटिव होते है, आदि। ऐसे लोगों से हमारा सवाल ये है कि आप समझा किसको रहें है, किसकी और क्या तारीफ कर रहें है? आप जिन प्राइवेट विश्वविद्यालों की ये तारीफ करते हुए थकते नहीं है ऐसे विश्वविद्यालयों में कौन है, इसके पदों पर कौन लोग बैठे है, ये किस समाज के बच्चों को पढ़ा रहें है, और आप किसको समझा रहें है। क्या इन बच्चों का समाज के उन मुद्दों से कभी कोई साक्षात्कार रहा है या क्या भविष्य में ऐसा कुछ होने की कुछ भी सम्भावना है।

ऐसे आप उन चंद सवर्ण धन्ना सेठों के बच्चों, जिनका आरक्षण और बहुजनों के हालात व उनके हकों से कोई सरोकार नहीं है, को क्यों समझा रहें है? इससे क्या हासिल होगा? इससे बहुजन आन्दोलन को क्या फायदा होगा? इससे बहुजनों के मनोबल पर किस तरह का सकारात्मक फर्क पड़ेगा? ऐसे जगहों पर जाकर आप अपनी ऊर्जा खर्च किसके लिए खर्च रहें है? क्यों ना, यही ऊर्जा व समय १५ फीसदी सवर्णों के दिल में बहुजनों के लिए रहम पैदा करने बजाय ८५ फीसदी वाले शोषित बहुजनों को उनके अधिकारों और सरोकारों के प्रति जागरूक करने में खर्च किया जाय जिससे कि बहुजन अपने हक़ खुद लड़कर ले सके। आखिर कब तक आप गुलाम मानसिकता वाली अवस्था में बने रहोगें? हक़ माँगने या किसी के रहम के चलते नहीं मिल सकते है। इसके लिए खुद लड़ना पड़ेता है। इसलिए हमारा स्पष्ट मानना है कि अपनी ऊर्जा मुट्ठीभर सवर्णों के दिलों में बहुजनों के लिए रहम पैदा करने के बजाय बहुजनों को वैचारिक तौर पर जोड़कर वैचारिक जंग के लिए तैयार करने में खर्च करना ज्यादा बेहतर होगा।  

हमारे निर्णय में, ऐसे स्वघोषित समाज सेवी लोग जिन सवर्णों के बच्चों को आरक्षण का मायने सिखलाते है, दलितों की जिन्दगीं से अवगत कराते है, जिनके बीच जाकर अपनी ऊर्जा व समय खर्च करते है, क्या हकीकत में उन सवर्ण धन्ना सेठों के बच्चों का उन सभी दलित-बहुजन मुद्दों से कोई सरोकार है? सनद रहें, आप जिनकी इतनी तारीफ करते है ये वहीं बच्चें है जो आरक्षित वर्ग के अंतिम चयनित बच्चे के एक-चौथाई से भी कम, यहाँ तक कि जीरों,  मार्क्स लाते है और अपनी दौलत की बदौलत इंजिनीरिंग, मेडिकल, लॉ, रिसर्च आदि की सीटें खरीद लेते है। क्या आप उनकों अपनी हालत समझाकर उनके दिलों में अपने लिए रहम जगाना चाहते हैं? क्या बहुजन उनके रहम-ओ-करम पर पलेगा?

बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि बहुजनों की लड़ाई उनके मूलभूत मानवाधिकारों, समाज में सम्मानपूर्वक जीने की लड़ाई हैं। ये सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन के लिए लड़ी जा रही जंग है। ये "ब्रहम्णवाद बनाम अम्बेडकरवाद" का वैचारिक द्वन्द है। ये लड़ाई घालमेल करके नहीं लड़ी जा सकती है। इसलिए वैचारिकी की ये जंग आर-पार की जंग ही होनी चाहिए।

इसलिए जो लोग "ये भी सही वो भी सही" की बात करते हैं, ऐसी बहस में लिप्त है, या ऐसी विचारधारा व सोच को प्रोत्साहित कर रहे हैं वो लोग सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन के खिलाफ है और वो यथास्थिति (ब्रहम्णवाद की सत्ता) बनाये रखने के लिए लड़ रहे हैं। ऐसे लोगों से सावधान रहने की ज़रूरत है। ऐसे लोगों का ब्रहम्णी फिरके में होना सामान्य बात है लेकिन दु:खद यह है कि क्षाणिक स्वार्थ के लिए ऐसे ही कुछ लोग बहुजन समाज में पैदा हो रहे हैं। बहुजनों के बीच पैदा हो रहा ये तबका बहुजन आन्दोलन के स्वास्थ्य के लिए खतरनाक है।

रजनीकान्त इन्द्रा
एल.एल.एम छात्र
जनवरी ०५, २०१८

Friday, January 4, 2019

ज्वलंत प्रश्नों का सम्यक जवाब


प्रश्न - आरएसएस व बीजेपी को ट्रिपल तलाक में ही क्यों रूचि है, सबरीमाला व दहेज उत्पीड़न पर क्यों नहीं?

उत्तर - क्योंकि ट्रिपल तलाक वोटारू गाय है!

प्रश्न - वोटारू गाय क्या है?

उत्तर - जो मुद्दा ब्रहम्णी दलों को वोट दिलाने में मदद करे उस मुद्दे को वोटारू गाय कहते हैं!

प्रश्न - ट्रिपल तलाक तो मुस्लिम महिलाओं के अधिकारों का मुद्दा हैं तो ऐसे में ये वोटारू गाय कैसा हो सकता है?

उत्तर - क्योंकि भारत के मल-मूत्र बुद्धि ब्रहम्णी रोगियों को मुस्लिमों से इतनी नफ़रत है कि मुस्लिम की भावनाओं को यदि महीनतम् सुई की नोक से बगैर खून वाली चुभन भी दे दी जाय तो मल-मूत्र बुद्धि ब्रहम्णी रोगियों को परम आनन्द की प्राप्ति हो जाती है!

इस परम आनन्द को प्राप्त करने के लिए वो अपनी मल-मूत्र बुद्धि का इस्तेमाल कर खुद की बहन-बेटियों की आबरू दॉव पर लगाकर ब्रहम्णी आरएसएस व ब्रहम्णी बीजेपी जैसे दलों को सहर्ष वोट करते हैं!

प्रश्न - सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के अधिकार का मुद्दा ब्रहम्णी आरएसएस व बीजेपी के लिए वोटारू गाय क्यों नहीं है?

उत्तर - क्योंकि जब हिन्दुत्व का इलाज कर मानवीय बनाने का इंजेक्शन ब्रहम्णी आरएसएस व बीजेपी के मल-मूत्र बुद्धि ब्रहम्णी रोगियों को दिया जाता है, जो कि आदर्श ब्रहम्णी गुलाम हैं और जिन्हें अपनी गुलामी पर नाज है, जो कि इन मल-मूत्र बुद्धि ब्रहम्णी रोगियों को खुद पसंद नहीं है! इसलिए सबरीमाला मंदिर में महिलाओं के प्रवेश के अधिकार का मुद्दा ब्रहम्णी आरएसएस व बीजेपी के लिए वोटारू गाय क्यों नहीं है!

प्रश्न - वंदे-मातरम् का क्या मायने है?

उत्तर - इसका मायने अलग-अलग वर्ण के लिए अलग-अलग होता है!
1) ब्रहम्ण के मन्ने-मातरम्
2) क्षत्रियों के लिए दंगे-मातरम्
3) वैश्यों के लिए धंधे-मातरम्
4) मल-मूत्र बुद्धि ब्रहम्णी रोगियों के लिए मर रे-मातरम्

जगरूक बहुजनों का वंदे-मातरम् से कोई सरोकार नहीं है, इनके लिए जय भीम व नमों बुद्धाय ही मानवीय जीवन-शैली के लिए अथाह समन्दर है!