Tuesday, May 29, 2018

शपथ-ए-हमराह

बुद्ध वंदना
नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स
नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स

नमो तस्स भगवतो अरहतो सम्मासम्बुद्धस्स


त्रिशरणं
बुद्धं शरणं गच्छामि
धम्मं शरणं गच्छामि

संघं शरणं गच्छामि


पंचशीलं 
पाणातिपाता वेरमणी सिख्खापदं समादियामि
अदिन्नादाना वेरमणी सिख्खापदं समादियामि

कामेसुमिथ्याचारा वेरमणी  सिख्खापदं समादियामि

मुसावादा वेरमणी सिख्खापदं समादियामि
 
सुरामेरयमज्जपमादट्ठाना वेरमणी सिख्खापदं समादियामि

साधु, साधु, साधु

भारत का संविधान

उद्देशिका
"हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को :
सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय,
विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता,
प्रतिष्ठा और अवसर की समता
प्राप्त करने के लिए,
तथा उन सब में व्यक्ति की गरिमा और
राष्ट्र की एकता और अखण्डता
सुनिश्चित करने वाली बंधुता बढाने के लिए
दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई0 को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।"

बाबा साहेब द्वारा दिलाई गयी २२ प्रतिज्ञायें
(अक्टूबर १४, १९५६, दीक्षा-भूमि, नागपुर)
1.    मैं ब्रह्मा, विष्णु और महेश में कोई विश्वास नहीं करूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा
2.    मैं राम और कृष्ण, जो भगवान के अवतार माने जाते हैं, में कोई आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा
3.    मैं गौरी, गणपति और हिन्दुओं के अन्य देवी-देवताओं में आस्था नहीं रखूँगा और न ही मैं उनकी पूजा करूँगा
4.    मैं भगवान के अवतार में विश्वास नहीं करता हूँ
5.    मैं यह नहीं मानता और न कभी मानूंगा कि भगवान बुद्ध विष्णु के अवतार थे मैं इसे पागलपन और झूठा प्रचार-प्रसार मानता हूँ
6.    मैं श्रद्धा (श्राद्ध) में भाग नहीं लूँगा और न ही पिंड-दान दूँगा
7.    मैं बुद्ध के सिद्धांतों और उपदेशों का उल्लंघन करने वाले तरीके से कार्य नहीं करूँगा
8.    मैं ब्राह्मणों द्वारा निष्पादित होने वाले किसी भी समारोह को स्वीकार नहीं करूँगा
9.    मैं मनुष्य की समानता में विश्वास करता हूँ
10.   मैं समानता स्थापित करने का प्रयास करूँगा
11.   मैं बुद्ध के आष्टांगिक मार्ग का अनुशरण करूँगा
12.   मैं बुद्ध द्वारा निर्धारित परमितों का पालन करूँगा
13.   मैं सभी जीवित प्राणियों के प्रति दया और प्यार भरी दयालुता रखूँगा तथा उनकी रक्षा करूँगा
14.   मैं चोरी नहीं करूँगा
15.   मैं झूठ नहीं बोलूँगा
16.   मैं कामुक पापों को नहीं करूँगा
17.   मैं शराब, ड्रग्स जैसे मादक पदार्थों का सेवन नहीं करूँगा
18.   मैं महान आष्टांगिक मार्ग के पालन का प्रयास करूँगा एवं सहानुभूति और प्यार भरी दयालुता का दैनिक जीवन में अभ्यास करूँगा
19.   मैं हिंदू धर्म का त्याग करता हूँ जो मानवता के लिए हानिकारक है और उन्नति और मानवता के विकास में बाधक है क्योंकि यह असमानता पर आधारित है, और स्व-धर्मं के रूप में बौद्ध धर्म को अपनाता हूँ
20.   मैं दृढ़ता के साथ यह विश्वास करता हूँ की बुद्ध का धम्म ही सच्चा धर्म है
21.   मुझे विश्वास है कि मैं फिर से जन्म ले रहा हूँ (इस धर्म परिवर्तन के द्वारा)
22.   मैं गंभीरता एवं दृढ़ता के साथ घोषित करता हूँ कि मैं इसके (धर्म परिवर्तन के) बाद अपने जीवन का बुद्ध के सिद्धांतों व शिक्षाओं एवं उनके धम्म के अनुसार मार्गदर्शन करूँगा

शपथ-ए-हमराह
मै,……….., अपने मूलभूत मानवाधिकारों के तहत तथागत गौतम बुद्ध, बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर और अन्य सभी बहुजन महानायकों एवं महनायिकाओं के नाम पर यहाँ उपस्थित समस्त जनमानस को साक्षी मानकर……….को अपने जीवन-साथी के रूप में स्वीकार करती / करता हूँ, मै प्रतिज्ञा करती / करता हूँ कि मै जीवन-साथी के इस रिश्ते के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखूँगी / रखूँगा, मैं……….के मानवाधिकारों का सम्यक सम्मान करते हुए……….के जीवनसाथी के रूप में अपने कर्तव्यों का श्रद्धापूर्वक और शुद्ध अंतःकरण से निर्वहन करूँगी / करूँगा


रजनीकान्त इन्द्रा
(परिणय विधि)


Monday, May 28, 2018

ब्राह्मणों का प्यारा दलित ?


ब्राह्मण जो नारीविरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म का कर्ता-धर्ता है, ने समाज को हजारों जातियों में बाँटकर पूरे मूलनिवासी बहुजन समाज को छिन्न-भिन्न कर दिया है। परिणाम स्वरुप शक्तिशाली सशक्त शान्तिप्रिय समृद्धिशाली मानवीय गौरवशाली मूलनिवासी समाज चंद मुट्ठीभर ब्राह्मणों व ब्राह्मणी रोगियों के हाथ की कठपुतली बनकर रह गया है। ये मूलनिवासी बहुजन समाज अपनी दीन-हीन दशा, अपने ऊपर हो रहे अत्याचार को अपनी नियति मान चुका है। लेकिन धन्य है वो लोग जिन्होंने ने ब्राह्मणी दमन के खिलाफ ना सिर्फ आवाज उठाई बल्कि पूरे ब्राह्मणी व्यवस्था को नेस्तनाबूद करने का बिगुल ही फूँक दिया। इसी आंदोलन की वजह से १९४७ के बाद का दलित-वंचित समाज थोड़ा-बहुत अपने मूलभूत अधिकारों से वाकिफ हुआ और बहुजन आंदोलन को बहुजन महाक्रान्ति बना दिया। इसी बहुजन महाक्रान्ति की वजह से ब्राह्मण-सवर्ण आज वो सब करने को मजबूर हो गए जो ये कभी भी नहीं करना चाहते है।

ऐसे में आज कुछ ब्राह्मण दलितों के हितैषी बनने की कोशिस कर रहे है। ये बताना चाहते है कि वे वंचित समाज के विरोधी नहीं है, लेकिन फिर भी आये दिन वंचित जगत पर अत्याचार बढ़ता ही जा रहा है। ऐसे में सबसे अहम् सवाल ये है कि ब्राह्मण किस दलित को पसंद करता है, कौन दलित ब्राह्मणों का प्यारा है, और क्यों? साथ ही ये भी सवाल उठता है कि ब्राह्मण सवर्ण किस दलित से सबसे ज्यादा नफ़रत करता है, और क्यों?

ब्राह्मणों के दलित प्रेम के इस संदर्भ में भारत के दलित समाज को दो हिस्सों में बांटकर देखने की जरूरत है। एक, वे दलित जो ब्राह्मणों के प्यारे है। ये वह दलित समाज है जिनमे अनपढ़ और साक्षर दोनों लोग आते है। ब्राह्मणों के प्यारे इस दलित समाज में साक्षरता तो हो सकती है लेकिन शिक्षा का पूर्ण अभाव है। ये लोग ब्राह्मणी कर्मकाण्ड करते है, ब्राह्मणी देवी-देवताओं की पूजा करते है, उपवास-व्रत करते है, श्राद्ध करते है, भगवत-रामायण पाठ करते है, सत्यनारायण की कथा सुनते है, खुद को सहर्ष या मजबूरन नीच स्वीकार करते है, अपने बहुजन भाई से जलन करते हुए आरक्षण विरोधी है। बाबू साहब और ब्राह्मण देवता की जी हुजूरी करते है। इन दलितों में बाबू जग जीवनराम, रामदास अठावले, रामविलास पासवान, रामनाथ कोबिंद व माता रानी समेत तमाम हिन्दू देवी-देवताओं के दलित समाज के भक्त आदि शामिल है। संक्षेप में इन्हें गाँधी का हरिजन खा जाता है। 

ब्राह्मण प्रिय इन दलितों को आरक्षण की वजह से आगे बढे, पढ़े-लिखे, नौकरी-पेशा दलितों के खिलाफ कुछ इस तरह से भड़काया जाता है कि आरक्षण का लाभ तो सिर्फ कुछ लोगों को ही मिला है, तुम्हारे पडोसी के घर में तो तीन-तीन नौकरियों हो गयी है, तुम्हारे घर में एक भी नौकरी नहीं है। तुम्हारे पडोसी का घर तो पक्का है, उसके पास गाड़ियाँ है, तुम्हारे पास तो कुछ भी नहीं है। ऐसे ही सवाल करके अशिक्षित गरीब बहुजन के मन में उसके अपने बहुजन भाई के प्रति नफरत घोल दी जाती है। और, नतीजा ये होता है कि अशिक्षित गरीब बहुजन भाई अपने ब्राह्मणवादी शत्रु से लड़ने के बजाय अपने ही खुद के बहुजन भाई से लड़ना शुरू कर कर देता है।

दूसरा, ये वे वंचित लोग है जो आरक्षण की वजह से पढ़-लिखकर आगे बढे है। ये वे दलित है जो ब्राह्मणी रीति-रिवाजों को नहीं मानते है, ब्राह्मणवाद का घोर विरोध करते है, समाज में बाबा साहेब और बुद्ध के विचारों को फ़ैलाने का कार्य करते है, आरक्षण के लिए संघर्षरत है। ये वो दलित है जो समता मूलक समाज की स्थापना के लिए सतत संघर्ष कर रहा है। ये वो दलित है जो ब्राह्मणों-सवर्णों की आँखों में आँखें डालकर सवाल करता है, ब्राह्मणी व्यवस्था, ब्राह्मणी रीति-रिवाज, कर्म-काण्ड, वेदों-शास्त्रों आदि को चैलेन्ज करता है। इन्हें बाबा साहेब का दलित समाज भी कहते है। 

ऐसे में ब्राह्मण-सवर्ण वंचित जगत को दो भाग में बांटकर बहुजन समाज को बहुजन समाज से ही लड़वाता है। ब्राह्मण-सवर्ण समाज जिन दलितों से लड़ता है, नफरत करता है, उनके बारे में अच्छी तरह से जनता है कि यही वो दलित समाज का अहम् हिस्सा है जो बहुजन समाज के सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलन को आगे ले जा रहा है। ब्राह्मण-सवर्ण जानता है यही पढ़ा-लिखा, नौकरी-पेशा दलित बहुजन की आवाज को बुलंद कर भारत से ब्राह्मणी रोग को खत्म कर रहा है। इसलिए ब्राह्मण-सवर्ण दलित समाज के इस फिरके से घोर नफ़रत करता है। नफ़रत का आलम ये है कि उनकी हत्या तक कर देता है। ब्राह्मणी आतंकवादियों द्वारा मारे गए कलबुर्गी, पंसारे, गौरी लंकेश और रोहित वेमुला जैसे लोग इसके उदहारण हैं। 

ऐसे में बहुजन समाज के ब्राह्मणी रोगियों को समझना होगा कि उनके दादा-परदादा सदियों से ब्राह्मणी व्यवस्था की गुलामी करते आ रहे है। सिवाय शोषण के ब्राह्मणी व्यवस्था की गुलामी में उनकों क्या मिला? बहुजन ब्राह्मणी रोगियों को समझना होगा कि उनका शोषक उनका हितैषी कभी नहीं हो सकता है। साथ ही साथ पढ़े-लिखे आगे बढ़ रहे दलित समाज के लोगों को भी चाहिए कि वो अपने गुमराह बहुजन भाई को अकेला ना छोड़े, उनको उनके हक़ और सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई में उनकी अहम् भूमिका से उनकों अवगत करायें, बाबा साहेब के मिशन के मूल स्वरुप से साक्षात्कार करायें। 

 याद रहें, बाबा साहेब ब्राह्मणों के "फूट डालों, राज करों" की थ्योरी से अच्छी तरह से वाकिफ थे। इसीलिए बाबा साहेब बहुजनों को शिक्षा रुपी हथियार संग संगठित होकर संघर्ष करने का सन्देश देते है। बहुजन समाज के लोगों, आपको सदा याद रखना होगा कि ब्राह्मण-सवर्ण आपका शोषक है, कट्टर शत्रु है। ये ब्राह्मण-सवर्ण किसी भी सूरत-ए-हाल में आपका और आपके बहुजन समाज हितैषी नहीं हो सकता है। ये आपको आपके बहुजन भाई के खिलाफ भड़काने का ही कार्य करेगा, आपके आन्दोलन को कमजोर करने षड्यंत्र करेगा। इसलिए ब्राह्मणों-सवर्णों पर किसी भी सूरत-ए-हाल में भरोसा मत करना। अपने बहुजन साथियों के साथ बहुजन कारवाँ को आगे ले जाने का कार्य करों। इसी में आपकी, आपके समाज संग सकल भारत की मुक्ति निहित है।
  
रजनीकान्त इन्द्रा
इतिहास छात्र, इग्नू, नई दिल्ली

Thursday, May 10, 2018

Mother's Day 2018

Sketched by My Lovely Sister Deep Shikha Indra for Mother's Day 2018
We Love You Maa Indra....
We Love You Deep Shikha....
Jai Bhim...

आलोचना कीजिए लेकिन सृजन के लिए...

प्रिय मूलनिवासी बहुजन साथियों,
दुःख होता है कि जिन्होंने अपनी जिन्दगी के चार सेकेण्ड भी समाज के लिए नहीं निकला वो भी ४० साल से भी ज्यादा समय से बहुजन समाज के लिए अपनी जिंदगानी लगा देने वाली सामाजिक परिवर्तन की महानायिका बहन जी को रात-दिन कोसते ही रहते है। इतनी कुण्ठा अच्छी बात नहीं है। बहन जी भी हम-आप की तरह इन्सान ही है, उनसे भी कुछ गलतियाँ हो सकती है। यदि बहन जी ने कुछ गलत कर दिया हो तो आप भी अपने जिंदगी का कुछ समय समाज को दीजिए, मैदान में उतरिये। यदि गलती से बहन जी ने कुछ गलत कर दिया है तो उनके उस गलत को सही कीजिए। समाज को जागरूक कीजिए लेकिन कुंठित लोग ऐसा कर तो सकते नहीं। क्योकि इनकी जिंदगी ही कुण्ठा और नकारात्मकता से भरी हुई है।
आम बहुजन से हमारी यही गुजारिश है कि आप भी अपने हिस्से की लड़ाई लड़ों, जिस लायक हो उसके मुताबिक अपना योगदान दो। आप अपनी सारी जिम्मेदारियाँ अपने नेता पर ही नहीं लाद सकते है। आप की कुछ जिम्मेदारी बनती है। सिर्फ वोट देकर आप तटस्थ नहीं हो सकते है। मैदान में आपको भी उतरना होगा। सामाजिक परिवर्तन के लिए, बहुजन जागरूकता और कारवां चर्चा में आपको ही लीड करना होगा। राजनैतिक सत्ता आपके आन्दोलन को गति दे सकती है, संरक्षण दे सकती है लेकिन ये कहिए कि इस लोकतंत्र में आपके नेता ही सब कुछ करे तो ये गलत बात है, ये सम्भव भी नहीं है। सामाजिक परिवर्तन के मुद्दों पर जन-जागरूकता, बुद्ध-फुले-अम्बेडकरी कारवां चर्चा और सदियों से मानवता को ज़लील करते आ रहे ब्राह्मणवाद के खिलाफ आपको ही आना होगा। आप अपनी जिम्मेदारियों से भाग नहीं सकते है। ये सिर्फ आपके ही जिंदगी मात्र का मामला नहीं है। ये सदियों से चली आ रही अमानवीय निकृष्टतम घिनौनी ब्राह्मणी संस्कृति से अपने आने वाले नश्लों को सुरक्षित रखने का मुद्दा है, मानवीय हकों को सुरक्षित कर समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व पर आधारित न्याय का प्रश्न है, कराहती को मानवता पुनः सुरक्षित व स्वस्थ जीवन प्रदान करने का सबसे अहम् सवाल है। ये सुन्दरतम भारत के नव निर्माण का मामला है। आप इसमें तटस्थ कैसे हो सकते हो? 
आप भी जानते है कि बहन जी आपसे कारवां चौथ, रक्षाबंधन, होली-दिवाली, मंदिर, कथा-प्रवचन, रामायण-पाठ, श्राद्ध, पिंड-दान, मुंडन, मृत्यु-भोज आदि का बहिष्कार नहीं करवा सकती हैं। ये सब बहिष्कार आपको खुद ही करना होगा, लेकिन ये आप लोग कर नहीं सकते है। क्यों, क्योकि इतने अत्याचार सहने के बाद भी आपकी सोइ हुई बुद्धि आज भी जाग नहीं पायी है। बुद्ध-फुले-बाबा साहेब-पेरियार-मान्यवर साहेब ने आपको कितनी बार समझया कि ब्राह्मणवाद, मन्दिरों और समस्त ब्राह्मणी रीति-रिवाजों और कर्मकाण्डों का बहिष्कार करों, लेकिन क्या आपने किया? नहीं किया, क्यों, क्योकि आप मानसिक गुलाम हो, आपको गुलामी की लत लग चुकी है।
बहुजन आन्दोलन के लिए आपको कोई रॉकेट साइन्स बनांने जैसा कार्य नहीं करना है। आप सिर्फ अपने जीवन और अपने परिवार को ही अमानवीय निकृष्टतम ब्राह्मणवाद के कैद से आज़ाद करवा लो। ये ही बहुजन आन्दोलन में आपका बहुत बडा योगदान होगा। आप भी अच्छी तरह से वाकिफ है कि बाबा साहेब की २२ प्रतिज्ञाओं को आज लगभल छः दशक हो चुके है, क्या आपने बाबा साहेब की २२ प्रतिज्ञाओं को अपनाया? नहीं अपनाया, क्यों? क्योकि अब आपके कुछ अधिकार सुरक्षित हो गए है, कुछ मिल भी गए है, इसलिए अब आप ब्राह्मण बनने की फिराक में हो। क्या ऐसा कभी हो सकता है? आप कितने भी मंदिर का घण्टा बजा लो, उपवास-व्रत कर लो, पढाई भी कर लो, दौलत भी बना लो लेकिन जब तक ब्राह्मणवाद को तिलांजलि नहीं दे देते हो तब तक आप वही रहोगे जो बनकर पैदा हुए थे-शूद्र, सेवक, जन्मजात गुलाम या फिर अछूत।वैसे बाबा साहेब की २२ प्रतिज्ञाओं को अपनाने में किसी भी तरह का आर्थिक बोझ आप पर नहीं पड़ेगा, फिर आप बाबा साहेब की २२ प्रतिज्ञाओं को नहीं अपना पा रहे हो। आपको तो बस बाबा साहेब की तश्वीर और मूर्ती देख कर भक्तों की तरह नतमस्तक होना है, दण्डवत प्रणाम करना है। साल में एक बार आंबेडकर महोत्सव में नाच लिया ही आपकी, जय भीम का जयकारा लगा लिया, और हुआ तो नौटंकी देख लिया, या खुद ही कर लिया, सालों में एक बार वोट डाल दिया, मान्यवर साहेब को याद कर लिया, संत शिरोमणि संत रैदास को याद कर लिया, कभी-कभी कबीर के दोहे दुहरा दिया, बुद्ध को नमन बोल दिया, इससे ज्यादा कुछ भी नहीं है आपका अम्बेडकरवाद। 
याद रखों, बाबा साहेब के विचारों को ताख पर रखकर, नज़रअंदाज़ करके आप लोग ये सब जो कर रहें हो, इसका कोई खास मायने नहीं रह जाता है। बुद्ध-फुले-अम्बेडकरी विचारों के बगैर ये सब अम्बेडकरवाद नहीं है बल्कि ब्राह्मणवाद का मीठा ज़हर। हमारे विचार से, बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के विचारों को जानना, समझना, पढ़ना और उसके मुताबिक आचरण करना ही अम्बेडकरवाद है। अब आपको ये तय करने में आसानी होगी कि आप अम्बेडकरवादी हो या फिर बाबा साहब डॉ अम्बेडकर का नाम जपने वाले ढोंगी? 
आप भी जानते हो दुर्गा-पूजा गणपति महोत्सव में हज़ारों खर्च करने वाले आंबेडकर महोत्सव में दस रूपये भी देने को तैयार नहीं होते है। वैसे क्या आपने कभी ठण्डे दिमाग से सोचा है कि हिन्दुओं के सारे त्यौहारों पर ज्यादा जोश शूद्रों में ही क्यों दिखता है। शूद्र ही दुर्गापूजा, गणपति क्यों बैठते है? क्या वजह है कि कावड़ लेकर सैकड़ों मील पैदल चलने वाले भक्त शूद्र ही क्यों होते है? धर्म के नाम पर होने वाले दंगों में मरने वाला शूद्र ही क्यों होता है, ब्राह्मण-क्षत्रिय या फिर वैश्य क्यों नहीं होता है? मंदिरों में घण्टा बजाना, सत्य नारायण की कथा सुनना, श्राद्ध करना, पिंडदान करना, रामायण-पाठ करवाना, ये सब अन्धविश्वास पर आधारित अवैज्ञानिक हिंसक ब्राह्मणी कर्मकाण्ड में शूद्र ही क्यों होते है, शूद्र ही क्यों ज्यादा उत्सुक होते है? याद रखिये, अम्बेडकरवाद और ब्राह्मणवाद एक साथ नहीं चल सकते है। या तो आप अम्बेडकरवादी हो या फिर ब्राह्मणवादी हो। इनके बीच में कोई विकल्प नहीं है। इस लिए पूरे होश-ओ-हवाश में पहले ये तय कर लीजिए की आपकी जीवन-शैली कैसी है?
बाबा साहेब के कारवाँ के सन्दर्भ ये भी याद रखिए कि यदि संविधान मात्र से हमारे सारे अधिकार सुरक्षित हो जाते और समाज में हमारा, हमारे लोगों का सम्मान-स्वाभिमान स्थापित हो जाता तो बाबा साहेब को हमें बुद्धिज़्म की तरफ ले जाने की जरूरत नहीं होती। वैसे हमारा संविधान सिर्फ राजनैतिक-आर्थिक ही नहीं बल्कि सामाजिक दस्तावेज भी है लेकिन फिर बाबा साहेब अच्छी तरह से जानते थे कि संविधान अकेले ही हमें, हमारे लोगों को समाज में सम्मान नहीं दिला सकता है। इसलिए बाबा साहेब ने हम सब को बुद्धिज़्म की राह दिखाई थी, लेकिन क्या आप बाबा साहेब द्वारा दिखलाई गई बुद्धिज़्म की राह पर एक भी कदम चले है?
इसलिए हमारा स्पष्ट मानना है कि बहुजन आन्दोलन को उसके अंतिम लक्ष्य - समता मूलक समाज की स्थापना, तक पहुँचाने के लिए बहन जी के अलावा आम बहुजन को भी मैदान उतरना होगा और ब्राह्मणवाद, ब्राह्मणी तीज-त्यौहार, रीति-रिवाज, कर्मकाण्ड आदि का बहिष्कार कर बाबा साहेब की २२ प्रतिज्ञाओं को अपने अपने ज़हन में उतरना होगा, अपने घर में स्थापित करना होगा, अपने समाज में लागू करना होगा। राजनैतिक तौर पर सामाजिक परिवर्तन की महानायिका का और अन्य सभी बहुजन नायकों-महानायकों, लेखकों, विचारकों, चिंतकों और समाज सेवकों संग बहुजन सिपाहियों का पूरी सिद्दत के साथ, साथ देना होगा। रही बात बहुजन आन्दोलन के विभिन्न पहलुओं के आंतरिक समीक्षा की, तो वो होती रहनी चाहिए लेकिन सृजन के लिए, बहन जी या बहुजन आन्दोलन को सिर्फ गाली देने के लिए।
जय भीम…
नमों बुद्धाय…
रजनीकान्त इन्द्राइतिहास छात्र, इग्नू, नई दिल्ली

Tuesday, May 8, 2018

गाँधी, जातिवाद और अपने


प्रिय मूलनिवासी बहुजन साथियों,
जाति व्यवस्था और धार्मिक अलगाव भारतीय की सबसे कड़वी सच्चाई है। हमारे विचार से कोई भी निष्पक्ष इन्सान जाति और धर्म के नाम पर शोषण पर को इंकार नहीं सकता है। इसलिए भारत के किसी भी मुद्दे पर भारत की सामाजिक व्यवस्था को सन्दर्भ में लिए बगैर कोई निर्णय या विमर्श आत्मघाती ही होगा।
फ़िलहाल, आज के तथाकथित स्वघोषित मुख्यधारा के विद्वानों का भारत के मुद्दों पर जाति और धर्म को सन्दर्भ में रखें बगैर लिखना और विमर्श करना, प्रगतिशीलता समझी जाती है। और, भारत की सामाजिक व्यवस्था को चैलेंज करते हुए भारत के ज़हन पर हो रहे घावों को सबके सामने रखने वाले ही जातिवादी कहें जाते है।
भारत ही दुनिया का का एक मात्र ऐसा देश है जहाँ ८५% आबादी वाले मूलनिवासी बहुजन समाज के मूलभूत मानवाधिकारों, संवैधानिक व लोकतान्त्रिक अधिकारों की माँग करने वाले विचारक, लेखक, नेता और आम लोग जातिवादी, अलगाववादी और देशद्रोही कहे जाते है। और, चंद मुट्ठीभर हिंसक अपराधी अमानवीय ब्राह्मण-सवर्ण गैर-बहुजन लोग राष्ट्रभक्त, बुद्धिजीवी और प्रगतिशील विद्वान कहें जाते है।
तथाकथित स्वघोषित मुख्यधारा के अपराधी जातियों से सम्बन्ध रखने वाले विद्वान हमेशा यही मानकर रिसर्च करते है, लेख लिखते है, विमर्श करते है कि भारत में हर कोई समानंता के साथ जी रहा है जबकि हक़ीक़त इसके उलट है। यही कारण है अपराधी जातियों के तथाकथित बुद्धिजीवी लोगों के लेख और विचार प्रगतिशीलता और वंचित जगत के लोगों के लेख और विचार जातिवादिता की श्रेणी में आते है।
हमारा स्पष्ट मानना है कि रोग (भारत की ब्राह्मणी सामाजिक व्यवस्था) को इंकार करके रोगी (भारत) को कभी भी किसी भी सूरत-ए-हाल में ठीक नहीं किया जा सकता है। ये बहुत दुःखद है कि तथाकथित स्वघोषित मुख्यधारा के अपराधी जातियों से सम्बन्ध रखने वाले विद्वानों ने जाति और धर्म पर आधारित सामाजिक व्यवस्था को संदर्भ में रखे बगैर ही सारी एनालिसिस करते रहते है। नतीजा, भारत की बीमारी जस की तस बनी हुई है।
मूलनिवासी बहुजन समाज को टॉरगेट करके अक्सर तोहमत लगाया जाता है कि भारत में लोग, उनका समाज, अपने-अपने हकों को सुरक्षित करने के लिए ही जद्दोजहद कर रहें है, जबकि अपराधी जातियों के हर मुद्दे को राष्ट्रभक्ति के तौर पर दिखाया जा रहा है। ऐसे में ये जानना नितान्त आवश्यक है कि जहाँ एक तरफ, अपराधी जातियों (ब्राह्मण-सवर्ण) के लोग मूलनिवासी बहुजन समाज के अधिकारों पर अनैतिक, असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक रूप से क़बज़ा जमाये हुए है, और मूलनिवासी बहुजन समाज पर लगातार अत्याचार करते जा रहे है। वही दूसरी तरफ, मूलनिवासी बहुजन समाज के लोग अपने मूलभूत अधिकारों जैसे कि समाज में इन्सानी सम्मान, सम्यक राजनैतिक भागीदारी, आर्थिक भागीदारी के साथ-साथ रोटी-कपडा-मकान-स्वास्थ और शिक्षा के लिए जीवन-मौत के तौर पर जद्दोजहद कर रहे हैं।
हर आधे घण्टे में वंचित जगत की बहन-बेटियों के साथ बलात्कार हो रहे हैं। मजदूरों को जबरन काम पर लगाया जा रहा है। इंकार करने पर उनकों जूतों से मूत्र पिलाया जा रहा है। शांति पूर्ण बहुजन विरोध प्रदर्शन पर अपराधी जातियों की हुकूमत द्वारा सरेआम गोलियाँ चलवाई जा रही है। स्कूलों में बहुजन बच्चे जान-बूझकर फेल किये जा रहे है। उनकों क्लास में अलग लाइन में बैठाया जा रहा है। स्कूलों व विश्वविद्यालयों में छात्रों की संस्थानिक हत्या की जा रही है और छात्राओं का बलात्कार और फिर हत्या की जा रही है। 
ऐसे में अपराधी जातियों द्वारा किये जा रहे दमन के सन्दर्भ में पीड़ित समाज के लोगों को "अपने समाज" की संज्ञा दी गयी है। ऐसे में अपने लोगों का वहीं मायने है जो भारत के ब्राह्मणी व्यवस्था के सन्दर्भ में बाबा साहेब की थी। ऐसे में, हमारा और हमारे हर बहुजन साथी का एक मात्र लख्य है दमन करने वाली अपराधी जातियों से "अपने लोगों" (सामाजिक राजनैतिक और आर्थिक तौर पर सदियों से जिल्लत की जिंदगी जीता आ रहा दलित वंचित शोषित समाज) को बचाना, उनके अधिकारों के लड़ना और उनके मूलभूत मानवाधिकारों को सुरक्षित करना, और उनकों सम्मान व स्वाभिमानपूर्वक जीवन जीने के लिए सम्यक मानवीय समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व पर आधारित "बुद्धिज़्म" की संस्कृति का सन्देश पहुँचाना और एक बेहतर जिन्दगी जीने का माहौल व सुरक्षा देना। 
फ़िलहाल "अपने-पराये" की बात पर हमारा भी मानना है कि भारत को, हमें, हम सब को अपने-पराये से ऊपर उठना होगा लेकिन यह तभी संभव है जब भारत में समानता (सामाजिक,राजनैतिक और आर्थिक तौर पर) लागू हो जाए। इसके लिए ब्राह्मणी व्यवस्था को नेस्तनाबूद करना होगा। और, ये भी सच है कि ब्राह्मणी व्यवस्था को नेस्तनाबूद करने की जिम्मेदारी तथाकथित स्वघोषित उच्च जातियों (जिन्हें हम उनके कृत्यों के आधार पर अपराधी जाति कहते है) पर ही है। अब देखना ये है कि क्या अपराधी जातियाँ इसके लिए तैयार है? हमारा स्पष्ट मानना है कि जब तक भारत में समानता (सामाजिक,राजनैतिक और आर्थिक तौर पर) पूर्णतः लागू नहीं हो जाती है तब तक "अपने समाज" और "पराये समाज" की भावना बरक़रार रहेगी। फ़िलहाल आप इसकी आलोचना कर सकते है।
हालाँकि, दिखावे के लिए स्वघोषित अपराधी जातियों के निष्पक्ष लोग अक्सर यही कहते है कि वो बाबा साहेब को भी मानते है और गाँधी जी को भी, जबकि ये सरासर झूठ और गैर-जिम्मेदाराना जबाब है। ये और बात है कि ब्राह्मणी मुख्यधारा के स्वघोषित विद्वान यही राग अलापते रहते है।
हमारा स्पष्ट मानना है कि गाँधी और बाबा साहेब में १८० डिग्री का फेज डिफरेंस है। हालाँकि, तथाकथित मुख्यधारा के लोगों द्वारा दुनिया के सामने इतिहास और वैचारिकी को "गाँधी और अम्बेडकर" के तौर पर बताया जा रहा है लेकिन हकीकत में भारत का इतिहास "गाँधी बनाम अम्बेडकर" है।
इतिहास गवाह है कि गाँधी जाति व्यवस्था को बनाये रखना चाहते थे, क्योकि वो अच्छी तरह से जानते थे कि जातिगत भेदभाव ही हिंदुत्व की नीव है। जाति की बुनियाद पर ही जातिवादी नारीविरोधी मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी हिंदु धर्म व् संस्कृति टिकी है। इसलिए, बेहिचक निःसंदेह गाँधी जाति व वर्ण व्यवस्था के कट्टर सपोर्टर थे। ऐसे में हमारा मानना है कि "जो गाँधीवादी है वहीं जातिवादी है, और जो जातिवादी है वही गाँधीवादी है।"
हो सकता कि लोग हमें जातिवादी कहें लेकिन फिर भी हमारा स्पष्ट मानना है कि जो गाँधीवादी है वो अम्बेडकरवादी नहीं हो सकता है। और, जो अम्बेडकरवादी है वो गाँधीवादी नहीं हो सकता है। क्योकि, गाँधी की कथनी व् करनी पर गौर करें तो स्पष्ट है कि गाँधीवाद ही जातिवाद है और जातिवाद ही गांधीवाद है।
यदि आप गांधीवादियों की लिस्ट देखिये तो इसमें सारे लोग अपराधी जातियों से ही आते है जो कि जाति के कट्टर सपोर्टर है। और, ये भी सच है कि जो जाति के सपोर्टर है वही लोग गाँधी को बनाये रखते हुए भारत के मुख्यधारा के इतिहास से बाबा साहेब को मिटा दिए है। धन्यवाद मान्यवर काशीराम साहब को, जिन्होंने बाबा साहेब को हर बहुजन तक पहुँचाया और अपराधी जातियों के लोगों को और ढोंगी इतिहासकारों को मजबूर कर दिया कि आज वे बाबा साहेब को ना चाहते हुए भी याद कर रहे है।
ऐसे में हम बौद्ध विद्वान आंनद भदन्त कौसल्यायन को उद्धरित करना चाहते है। बौद्ध विद्वान आंनद भदन्त कौसल्यायन ने कहा है कि "जनता गाँधी को भूल जाना चाहती है लेकिन (अपराधी जातियों की) सरकार है कि भूलने नहीं देती है, और सरकार बाबा साहेब को भूला देना चाहती है लेकिन जनता (बहुजन समाज) है कि सरकार को भूलने नहीं देती है।"
इसलिए, हमारे ख्याल से मामला स्पष्ट है। और, आप बुद्धिजीवी है, विद्वान है। इसलिए अब आप खुद ही तय कर सकते है कि आप "अपने लोगों" की परिभाषा में आते है या नहीं? आप शोषणकर्ता है या शोषित? आप मानवतावादी है या फिर अमानवीय हिंसा पसन्द?
धन्यवाद...
      जय भीम....
नोट - कर्म के आधार पर ही सदियों से अत्याचार, बलात्कार और हिंसा करने वाली ब्राह्मण-सवर्ण जाति के लोगों को, उनकी जाति व समाज को अपराधी लोग, अपराधी जाति व अपराधी समाज कहा जाना चाहिए। हमारे विचार से, आप सब भी ब्राह्मणों-सवर्णों को, उनकी जाति को, उनके समाज को अपराधी, अपराधी जाति व अपराधी समाज ही कहिए, लिखिए। 
रजनीकान्त इन्द्राइतिहास छात्र, इग्नू, नई दिल्ली

Sunday, May 6, 2018

प्राचीनतम् भारत जीवन-शैली - बुद्धिज्म


यहाँ वाल्मीकि रामायण से कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये जा रहैं हैं, जिनकी पुष्टि ‘वाल्मिकी रामायण' से की जा सकती हैं, जो बिना किसी संदेह के साबित करते हैं कि भारत (बहुजन समाज, खासकर अछूतों) की प्रचीनतम व मूल जीवन-शैली और संस्कृति धम्म आधारित है....
 उग्र तेज वाले नृपनंदन श्रीरामचंद्र, जावाली के नास्तिकता से भरे वचन सुनकर उनको सहन न कर सके और उनके वचनों की निंदा करते हुए उनसे फिर बोले :-
 “निन्दाम्यहं कर्म पितुः कृतं , तद्धस्तवामगृह्वाद्विप मस्थबुद्धिम्। 
बुद्धयाऽनयैवंविधया चरन्त , सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम्।।”
(अयोध्याकाण्ड, सर्ग – 109. श्लोक : 33)
 • सरलार्थ :- हे जावाली! मैं अपने पिता (दशरथ) के इस कार्य की निन्दा करता हूँ कि उन्होने तुम्हारे जैसे वेदमार्ग से भ्रष्ट बुद्धि वाले धर्मच्युत नास्तिक को अपने यहाँ रखा। क्योंकि ‘बुद्ध’ जैसे नास्तिक मार्गी , जो दूसरों को उपदेश देते हुए घूमा-फिरा करते हैं , वे केवल घोर नास्तिक ही नहीं, प्रत्युत धर्ममार्ग से च्युत भी हैं।
 “यथा हि चोरः स, तथा ही बुद्ध स्तथागतं।
नास्तिक मंत्र विद्धि तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानाम्
स नास्तिकेनाभिमुखो बुद्धः स्यातम्।।”
(अयोध्याकांड, सर्ग -109, श्लोक: 34 / Page :1678)
 सरलार्थ :- जैसे चोर दंडनीय होता है, इसी प्रकार ‘तथागत बुद्ध’ और और उनके नास्तिक अनुयायी भी दंडनीय है । ‘तथागत'(बुद्ध) और ‘नास्तिक चार्वक’ को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए। इसलिए राजा को चाहिए कि प्रजा की भलाई के लिए ऐसें मनुष्यों को वहीं दण्ड दें, जो चोर को दिया जाता है।
 परन्तु जो इनको दण्ड देने में असमर्थ या वश के बाहर हो, उन ‘नास्तिकों’ से समझदार और विद्वान ब्राह्मण कभी वार्तालाप ना करे मतलब कि बहिष्कार करें।
 कहने का मतलब यह है कि
 "रामायण में बुद्ध का वर्णन है"।
 रामायण में बुद्ध का वर्णन बिना किसी संदेह के सिद्ध करता है कि रामायण बुद्ध के बाद लिखी गयी है, ना कि बुद्ध से 2000 साल पहले।। मतलब कि वाल्मीकि बुद्ध के बाद हुए थे। रामायण कहता है कि खुद वाल्मीकि रामायण के एक पात्र है। मतलब राम और वाल्मीकि समकालीन है।
इससे सिद्ध होता है कि जब राम और वाल्मीकि समकालीन थे, और वाल्मीकि ने अपनी रामायण में बुद्ध का वर्णन किया है तो बिना किसी संदेह के सिद्ध हो जाता है कि बुद्ध वाल्मीकि और उसके राम से कई सदी प्रचीनतम हैं।
 मतलब कि बुद्ध धम्म प्राचीनतम है और जातिवादी मनुवादी नारी विरोधी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म से अभी हाल का ही है।
इससे एक बात और साबित होती है कि रामायण में राम ने उन बुद्धिष्टों के बहिष्कार की बात की है जिनकों वो दण्ड नहीं दे सकता है या जिनको दण्डित करना उसके वश में नहीं है या जिनका वो कुछ बिगाड़ ही नहीं सकता हैं।
 मतलब कि बुद्धिष्ट इतने शक्तिशाली है कि राम भी उनकों पराजित नहीं कर सकता है।
 अब सामाजिक पटल पर गौर करें तो हम पाते हैं कि रामायण में किये वर्णन के अनुसार राम की आदेश से बुद्धिष्टों का बहिष्कार हुआ।
 परिणामस्वारूप, भारत में एक बहिष्कृत समाज अस्तित्व में आया जिसे अछूत कहा जाता है, माना जाता है, जो कि आज भी मौजूद हैं। अब यहॉ बिना किसी संदेह के ये सिद्ध हो जाता है कि आज के भारत के ये अछूत ही कल के मूल बौद्ध हैं जिनकी रीति-रिवाजों, जिनकी जीवन-शैली में, संस्कृति में बुद्धिज्म आज भी साफ-साफ झलकता है, और साथ ही साथ राम व ब्रहम्णी वैदिक धर्म के प्रति बग़ावत भी।
आओं चले बुद्ध की ओर...
आओं चले धम्म की ओर...
आओं चले संघ की ओर...
 नोट:- ये श्लोक ‘वाल्मिकि रामायण’ (मूल) से उद्घृत है।
 जय भीम...
नमों बुद्धाय...
 रजनीकान्त इन्द्रा
फाउंडर एलीफ


Friday, May 4, 2018

संविधान सम्मत शासन - "एजेण्डा-ए-बसपा"

भारत लोकतंत्र अभी अपने ट्रांजिशन फेज़ से गुजर रहा है। सालभर लगभग किसी न किसी राज्य में इलेक्शन होते रहते है। इसी क्रम में अगला महत्वपूर्ण चुनाव लोकसभा-२०१९ है। ये चुनाव भारत को ब्राह्मणों-सवर्णों और अन्य ब्राह्मणी आतंकवादियों से मुक्त कराने के लिए सबसे अहम् चुनाव है। 

ऐसे में ब्राह्मणी आतंकी संगठनों और पार्टियों को मात देने के लिए जो पार्टी राजनैतिक विशेषज्ञों और आम जनता के ज़हन में चर्चा का केंद्र है वो है बहुजन समाज पार्टी। ये वही पार्टी है जिसके शासन में ब्राह्मणी आतंकवादी प्रदेश छोड़ देते थे, गुण्डे जेल में होते थे, महिला समाज पूर्णतयः सुरक्षित होता था और वंचित-आदिवासी-अल्पसंखयक बहुजन समाज सुख-शान्ति से अपनी जिंदगी गुजर-बसर कर रहा होता था, बहुजन इतिहास को कब्र से खोद कर दुनिया के पटल पर रखा गया, बहुजन महापुरुषों को विश्वपटल पर स्थापित कर दिया गया, शिक्षा और रोजगार बेहतर हुए, तमाम स्कूल, कॉलेज, विश्वविद्यालय खोले गए जिसके परिणामस्वरूप पूरा उत्तर प्रदेश दंगामुक्त सुख-शान्ति प्रिय बुद्ध-रैदास का प्रदेश बन चुका था। 

लेकिन आज हालत ठीक उल्टा हो चुका है। बलात्कार एक प्रथा बन चुकी है। बलात्कारी मौजूदा सरकार के संरक्षण में स्वतंत्र घूम रहे है। पुलिस की गुंडागर्दी ये है कि अपराधियों के हाथ में हाथ डालकर बेगुनाह दलितों-आदिवासियों-अल्पसंखयकों व पिछड़ों को घर का दरवाज़ा तोड़कर कर बिना किसी गुनाह के गिरफ्तार कर रही है। विश्वविद्यालयों पर खुलेआम हमले हो रहे है। अनगिनत रोहित वेमुला रोज शहीद किये जा रहे है। हर पल कोई ना कोई आसिफा मंदिरों में चीख-चीखकर दम तोड़ रही है। स्कूलों में रोज किसी ना किसी डेल्टा मेघवाल का दरिन्दों द्वारा बलात्कार कर निर्मम हत्या की जा रही हैं। लड़कियों को, औरतों को सरेआम रोड पर नंगा कर परेड कराया जा रहा है। मूँछ रखने पर दलितों की मूंछ उखड दी जा रही है। मृत गाय को ना उठाने पर बेरहमी से पिटाई की जा रही है। काम करने से माना करने पर आदिवासी-दलित-पिछड़े समाज के लोगों को जूते से मूत्र पिलाया जा रहा है। ब्राह्मणी आतंकवादी सरेआम शूद्रों की बहन-बेटियों को घर से उठा ले जा रहे है, बलात्कार कर हत्या कर दे रहे है। गुंडागर्दी सरकारी धन्धा बन चुका है। बहुजनों पर अत्याचार मनुवादियों के लिए मौत सस्ती हो गयी है। ब्राह्मणी भगवा आतंकवाद चरम पर है। अर्थव्यवस्था ध्वस्त हो चुकी है।  बेरोजगारी का आलम जेठ की दुपहरी की तरह अंगारे बरसा रही है। बहुजन नौजवान रोजी-रोटी के लिए गली-गली भटक रहा है। भ्रष्टाचार सरकार का मक़सद बन चुका है।  देश की आन-बाण-शान तिरंगें के स्थान पर ब्राह्मणी आतंकवादियों के भगवा झण्डे ने कब्ज़ा कर लिया है। नीरव मोदी, विजय माल्या जैसे लोग मजदूरों के मेहनत की कमाई लेकर फरार हो चुके है। जिओ आसमान की बुलंदी छू रहा है तो बीएसएनएल समुद्र की गहराई में दम तोड़ रहा है। सरकारी सेक्टर को चंद उद्योग घरानों की जेब में गिरवी रखा जा चुका है। देश की शान लाल किला तक की देखरेख ना कर पाने वाली ब्राह्मणी सरकार ने देश की धरोहर को प्राइवेट लोगों के हवाले कर दिया है। महगाई मौत बन चुकी है। शिक्षा धन्ना सेठों के दुकानों में खुले आम बिक रही है। नारी समाज, वंचित जगत, आदिवासी समाज, पिछड़ा और अल्पसंख्यक वर्ग हर पल खौफ में जी रहा है। कब किसकी हत्या हो जाये कोई भरोसा नहीं। देश बाबा साहेब के संविधान के बजाय मनुस्मृति से चलाया जा रहा है। न्यायपालिका, चुनाव आयोग जैसे महत्वपूर्ण संवैधानिक संस्थान ब्राह्मणी आतंकवादियों की दासी बन चुके है। पूरा का पूरा देश धू-धू कर जल रहा है। लपटों की गर्मी मात्र से इन्सानियत सिसक-सिसक कर दम तोड़ती जा रही है। जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। ब्राह्मणी आतंकवाद के इस त्रासदी के दौर में भारत को जो विकल्प दिखाई पड़ रहा है वो है- अम्बेडकरवाद, अम्बेडकरवादी बहुजन समाज पार्टी। लोगों की आखिरी उम्मीद है - अम्बेडकरवाद। इसी अम्बेडकरवाद में भारत की मुक्ति, ब्राह्मणवाद का सफाया और इन्सानियत का जीवन निहित है। 

सामान्यतः अम्बेडकरवाद मतलब कि बाबा साहेब का दर्शन और उनके दर्शन पर आधारित सांसर। बसपा की विचारधारा, उसका एजेण्डा ही बाबा साहेब के सपनों का भारत है, संविधान की मंशा अनुरूप शासन है लेकिन फिर भी  कुछ लोगों का कहना है कि बसपा का कोई एजेण्डा नहीं है। यदि कोई एजेण्डा है तो जनता के सामने रखा जाये। बसपा अध्यक्षा को चाहिए कि देश के सामने अपना एजेण्डा रखें और लोकसभा चुनाव-२०१९ के सन्दर्भ में अपनी पार्टी का रुख बयां करें, स्पष्ट करे। लोगों की जुबां से ये सवाल सुनकर एक बात तो स्पष्ट हो जाती है कि लोग, ना चाहते हुए भी सवर्ण लोग तक अप्रत्यक्ष तौर पर ही सही, बसपा को केंद्र में देखना चाहते है। 

भारत के किसी भी मुद्दे को चर्चा में रखने से पहले हमें भारतीय समाज की मूलभूत संरचना को संदर्भ में रखना आवश्यक है। इसलिए भारतीय समाज में दलितों की मौजूदा सामाजिक स्थिति पर एक नज़र आवश्यक है। "ना चाहते हुए भी सवर्ण लोग तक अप्रत्यक्ष तौर पर ही सही" वाक्यांश का इस्तेमाल हम इसी सामाजिक संरचना और दलितों की स्थिति और उसके राजनैतिक आंदोलन के संदर्भ में कर रहे है जो कि बहुजन समाज पार्टी के एक महत्वपूर्ण पक्ष को भी पूर्णतयः स्पष्ट करता है कि जितनी बार भी उत्तर प्रदेश में बसपा की सरकार बनी वो देश के दलित समाज, उत्तर प्रदेश में जिसकी जनसख्या तक़रीबन २१.२%है, की एकता का परिणाम रहा है जिसकों अन्य जातियों ने पिछली ब्राह्मणी रोगियों की सरकारों के आतंकीराज से तंग आकर सपोर्ट किया। 

इस बात से कोई भी इंकार नहीं कर सकता है कि ये भारतीय समाज की सबसे बड़ी सच्चाई है कि प्रगतिशील से प्रगतिशील इन्सान भी दलितों से उतनी ही ईर्ष्या-जलन व नफ़रत करता है जितना कि एक खुला नारीविरोधी जातिवादी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी सनातनी ब्राह्मण-सवर्ण समाज। ऐसे में किसी दलित-वंचित का किसी भी पद पर या फिर सामान्य खुशहाल जीवन जीता हुआ कोई भी नहीं देखना चाहता है। ऐसे में हो सकता है कि ये स्वघोषित बुद्दिजीवी लोग मुझे ही जातिवादी घोषित कर दे जैसे कि हमारे महापुरुषों को आज तक घोषित करते आयें है। फ़िलहाल इनके द्वारा प्रदत्त किसी भी सर्टिफिकेट से हमारा कोई लेना-देना नहीं। 

इसी कड़ी में आगे गौर करें तो हम पाते है अक्सर जातिवादियों का कहना है कि जातियाँ कमजोर हो रही है, लेकिन हमारा स्पष्ट मानना है कि समय के साथ और लोकतंत्र की मजबूरी के चलते जातिवादियों को ऐसा प्रतीत हो सकता है कि जातियाँ कमजोर हो रही है। परन्तु,  हक़ीक़त तो ये कि जातियाँ जस की तस बनी हुई है, और दलितों के प्रति सबके मन में नफ़रत बढ़ती ही जा रही है। हमारे ख्याल से, दलितों के प्रति ब्राह्मणों-सवर्णों और अन्य ब्राह्मणी रोगियों की नफ़रत दो ही तरीके से खत्म हो सकती है। एक, दलित समाज मनुस्मृति को स्वीकार कर ले। दो, ब्राह्मण-सवर्ण व अन्य ब्राह्मणी रोग से ग्रसित समाज अम्बेडकरवाद को, मानवता को अपना ले। जहाँ तक रही बात पहले तरीके की तो वो अब कभी होना ही नहीं है। ऐसे में सिर्फ एक ही तरीका बचता है कि ब्राह्मण-सवर्ण व अन्य ब्राह्मणी रोग से ग्रसित समाज जितनी जल्दी हो सके अम्बेडकरवाद को, मानवता को अपना ले और मानव बन जाये।

फ़िलहाल अब हम वापस बसपा के लोकसभा चुनाव-२०१९ के एजेण्डे के सन्दर्भ में बात करते है। बसपा एक राष्ट्रीय पार्टी है। इसलिए ये सच है कि ऑफिसियल तौर पर राजनैतिक दलों को अपने एजेण्डे देश के सामने रखने चाहिए। हमारे निर्णय में, "एजेण्डा" शब्द को किसी एक कार्यकाल तक बांधना गलत होगा। क्योंकि सिर्फ सत्ता का सुख भोगने वाली राजनैतिक पार्टियों के लिए एजेण्डा सिर्फ और सिर्फ एक कार्यकाल तक सीमित हो सकता है लेकिन एक ऐसी पार्टी जिसका मूल मक़सद ही सामजिक परिवर्तन है उसके संदर्भ में एजेण्डा का समय सिर्फ कार्यकाल तक सीमित करके देखना गलत होगा। ऐसे राजनैतिक दल के लिए उसका एजेण्डा उसके आन्दोलन का मूल होता है और वो सतत अपने उस मूल को प्राप्त करने और अपने एजेण्डे को लागू करने के लिए संघर्षरत रहता है। इस सन्दर्भ में बसपा एक ऐसी ही राजनैतिक पार्टी जिसका मूल मक़सद ही भारत की सामाजिक संरचना को बदलना है, समता मूलक समाज की स्थापना करना है, भारत को उसके इतिहास से परिचित कराना है। 

हालांकि ये सच है कि राजनैतिक दल चुनाव के सन्दर्भ में एक कार्यकाल में "वो क्या-क्या करेगें" को सामन्यतः स्पष्ट करते है, और लोगों से वोट की अपील करते है। इस सन्दर्भ में बसपा को भी अपने एजेण्डे को स्पष्ट करना चाहिए। या यूं कहें कि बसपा अपने बहुजन आन्दोलन के मूल मक़सद को हक़ीक़त की सरज़मीं पर किस तरह से लागू करेगी, को जनता के सामने स्पष्ट करे तो इससे उसके सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलन को धार मिलेगी। और इससे, बहुजन आन्दोलन और अधिक सशक्त होगा। इसलिए यदि बसपा अपने सामाजिक परिवर्तन के मूल मक़सद को हकीकत की सरजमीं पर उतारने के तरीके को अपने शासन प्रणाली की छोटे-छोटे आयामों के जरिये बतौर चुनावी एजेण्डा - २०१९ स्पष्ट करे तो जहाँ एक तरफ जनता का बसपा में विश्वास बढ़ेगा वही दूसरी तरफ बसपा और भी अधिक मजबूत होगी। 

फिर भी, यदि बसपा ऐसा कुछ नहीं भी करती है तो भी उसका एजेण्डा एक खुली किताब सदा स्पष्ट ही रहता है। इसका कारण यह है कि बसपा एक आंदोलन के परिणाम स्वरुप बनी पार्टी है, या यूँ कहें कि बसपा खुद ही बहुजन आन्दोलन का एक बहुत मजबूत और बहुत ही महत्वपूर्ण स्तम्भ है। राजनैतिक ही नहीं बल्कि भारत के हर सन्दर्भ में बसपा का पहला उद्देश्य ही यही है कि देश में संविधान सम्मत शासन हो। देश के बहुजन समाज (८५% आबादी) को उसका मूलभूत संवैधानिक व लोकतान्त्रिक हक़ और हुकूक मिले। देश के हर क्षेत्र के हर स्तर पर सबकी संविधान सम्मत राजनैतिक, आर्थिक व सामाजिक भागीदारी तय हो। देश की ८५% आबादी को मद्देनज़र रखते हुए क्या ये एजेण्डा नहीं है?

हालाँकि ये कह देना कि संविधान ही बसपा का एजेण्डा है, ये एक अस्पष्ट व वृहद् लगता है। फिर भी जहाँ तक रही बात संविधान को एजेंडा कहने की तो ये सभी जानते है कि आज तक संविधान सम्यक तौर पर लागू हो ही नहीं पाया है। ऐसे में यदि पहली बार कोई संविधान को सम्यक तौर पर लागू कर देश को संविधान सम्मत शासन-प्रशासन देने की बात कर रहा है तो इससे बड़ा एजेण्डा और क्या हो सकता है?

दलितों के प्रति लोगों के मन की नफ़रत को मद्देनज़र नज़र रखते हुए, और बसपा व बहुजन समाज के आन्दोलन के संदर्भ में यदि बहन जी प्रधानमंत्री ही बन जाये तो ये खुद ही बहुजन आन्दोलन और बहुजन समाज के राजनैतिक ही नहीं बल्कि सामाजिक सशक्तिकरण के लिए भी एक अहम् सफलता है। ये स्थापित सत्य है कि विखण्डित भारत का हर जाति वाला जितनी नफ़रत "चमार जाति" से करता है उतना किसी से भी अन्य जाति से नहीं करता है। ब्राह्मणों-सवर्णों व अन्य ब्राह्मणी रोगियों के नफरतों की मोटी-मोटी मजबूत दीवारों को ध्वस्त करते हुए यदि एक वंचित जगत की नेत्री देश की हुक्मरान बन जाए, तो क्या ये एजेण्डा नहीं है?

बहुजन समाज पार्टी की लड़ाई तो नारीविरोधी जातिवादी सामंती मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी सनातनी हिन्दू समाज को सबसे पहले ये मनवाने की ही है कि जिस कौम से ब्राह्मणी रोगी बेपनाह नफरत करते है वो इस देश का हुक्मरान है, और आगे भी ये बहुजन समाज के लोग हुकूमत करते रहेगें, भारत के राजनीति की दिशा व दशा तय करते रहेगें। ब्राह्मणी रोगी जिस कौम को अपना गुलाम समझते आ रहे है, और उनके साथ जानवरों से भी बद्तर सलूक करते आ रहे है, उस समाज का भारत पर हुकूमत करने के लिए अग्रसर होना, सामाजिक परिवर्तन की लड़ाई लड़ता आ रहा दलित-बहुजन समाज, ब्राह्मणवाद के कारण सदियों से गुलामों से भी बद्तर जिंदगी जीता आ रहा दलित-बहुजन समाज, की लोकतान्त्रिक सत्ता पर प्रबल व सतत दावेदारी, और बहुजन समाज की खुद की हुकूमत के लिए लगातार संघर्ष, इस संघर्ष को राजनैतिक पटल पर सक्रियता से स्थापित कर देने की बेताबी, क्या ये सब एजेण्डा नहीं है? 

बसपा यदि संविधान को सही ढंग से लागू करने को ही ऑफिसियल एजेण्डा घोषित कर दे, जो बसपा अपने हर चुनाव में करती रहती है और बहुजन महानायिका अपने भाषणों में कहती आ रही है, तो ये देशहित में, बहुजन समाज के हित में सबसे बड़ा व सबसे महत्वपूर्ण एजेण्डा होगा। ये स्थापित सत्य है कि आज़ादी के इतने साल गुजर जाने के बाद भी आज तक संविधान को उसकी आत्मा के अनुसार लागू नहीं किया गया है बल्कि ये कहना ज्यादा बेहतर होगा कि ब्राह्मणी सरकारों ने संविधान को ताख पर रखकर ब्राह्मणवाद को मजबूत करने का काम किया है। यही वजह रही है कि बहुजन समाज का सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व आज भी पूरा नहीं हो सका, छुआछूत कायम है, जाति का घाव गहराता ही जा रहा, दलित-बहुजन समाज के प्रति ब्राह्मण-सवर्ण समाज व अन्य ब्राह्मणी रोगियों की नफ़रत, ईर्ष्या बढ़ती जा रही है, बहुजन समाज की शिक्षा का स्तर उत्साहजनक नहीं है, आर्थिक विषमता भी लगातार बढ़ती ही जा रही है, देश में ना तो दलित-आदिवासी सुरक्षित, ना अल्पसंख्यक सुरक्षित है, और ना ही नारी समाज सुरक्षित है, लोगों के पास रोजगार नहीं, विकास के नाम पर देश की संपत्ति का निजीकरण किया जा रहा, आरक्षण को लगभग ख़त्म किया जा चुका है, न्यायपालिका में बहुजन समाज की भागीदारी शून्य है, रिजर्वेशन इन प्रोमोशन के लिए संघर्षरत होना, लोगों की सामाजिक सुरक्षा के लिए आवाज उठाना, ऐसे में संविधान को इसकी आत्मा के अनुरूप लागू कर भारत को सामाजिक-आर्थिक-राजनैतिक बुराइयों से निजात दिलाने की बात करना, क्या ये बसपा का एजेण्डा नहीं बयां करता है?

संविधान की प्रस्तावना में स्पष्ट तौर पर लिखित समाजवाद को सम्यक रूप से लागू करना, लोगों के मूलभूत मानवाधिकारों की रक्षा करना जिनका लगातार हनन हो रहा है, दमन हो रहा, ग्रामीण अंचल का उत्तर प्रदेश के बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर ग्राम विकास योजना के तौर पर समग्र विकास, शिक्षा के लिए सावित्रीबाई फुले बालिका इण्टर कॉलेज, गौतम बुद्ध विश्वविद्यालय, महामाया विश्वविद्यालय, मान्यवर काशीराम अरबी-फ़ारसी विश्वविद्यालय, शकुंतला देवी विकलांग विश्वविद्यालय, जो कि भारत में विकलांगों के लिए इकलौता विश्वविद्यालय है, बहुजन नायकों को भारतीय इतिहास व बुद्धिज़्म से जनमानस का परिचय कराना तथा उनकों भारत ही नहीं बल्कि दुनिया के फलक पर मजबूती से स्थापित करना, शिक्षा-शान्ति-समृद्धि-ज्ञान व मानवता का सन्देश देने वाले महामानव बुद्ध और बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा प्रतीक मानवता मूर्ती बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के सन्देश को हर इन्सान तक मानवीय ढंग से पहुँचाना, क्या बसपा के कार्यकाल में किये गए ये उत्कृष्ट कार्य बसपा का एजेण्डा सेट नहीं करते है?

हमारा स्पष्ट मानना है कि मूलभूत सुविधाओं और मानवाधिकारों से वंचित, सामाजिक गैर-बराबरी, आर्थिक विषमता व राजनैतिक विकलांगता का दंश झेलते समाज में, लोक-लुभावन एजेण्डा उन पार्टियों के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है जो टीवी, फ्रिज, लैपटॉप बाँटकर, जुमले फेंककर, जनता से छल करके, आतंकवादियों के आतंक की बदौलत देश को जाति और मज़हब के नाम पर ध्रुवीकरण करके, जल-जंगल-जमीन को धन्नासेठों के हाथों बेंचने वाले, देश की ऐतिहासिक व सांस्कृतिक विरासत लालकिला आदि को गिरवी रखकर, पाकिस्तान और चीन का डर दिखाकर सत्ता पर कब्ज़ा करने आये है। लोक-लुभावन एजेण्डा उन ब्राह्मणी रोगी राजनैतिक दलों के लिए ज्यादा मायने रखता है जो कभी देश के विकास के नाम पर, तो कभी गरीबी हटाओं आदि के नाम पर सत्ता का सुख भोगने के लिए राजनीति में आएं है, ब्राह्मणवाद की आतंकी विचारधारा को प्रत्यक्ष (भाजपा) और अप्रत्यक्ष (कांग्रेस, कम्युनिस्ट, आम आदमी व अन्य ब्राह्मणी रोगी राजनैतिक दल) तौर पर लागू करने के लिए आये है। ये स्थापित सत्य है कि बसपा के नाम से ही ब्राह्मणों-सवर्णों व अन्य ब्राह्मणी रोगियों को जितनी दिक्कत होती है, भारत में मौजूद किसी अन्य पार्टी से नहीं होती है। लोकसभा चुनाव-२०१४ में शून्य और उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव-२०१७ में मात्र १९ सीट जीतने, मीडिया द्वारा बसपा के खिलाफ सिर्फ और सिर्फ दुष्प्रचार करने, और बिना किसी फॉर्मली घोषित एजेण्डे के बावजूद देश की ८५% की बहुजन आबादी के ज़हन में और भारत के राजनैतिक पटल पर बसपा का चर्चा के केंद्र में बने रहना ही बताता है कि बसपा खुद में ही एक बहुत बड़ा और बहुत ही महत्वपूर्ण एजेण्डा है। 

हमारे निर्णय में, राजनीती का मतलब सिर्फ और सिर्फ सत्ता हासिल करना मात्र नहीं है। यदि कोई पार्टी सत्ता में रहें तो जन हित में कार्य करना, संविधान को सम्यक रूप से लागू करना व लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करना, और यदि विपक्ष में रहें तो लोगों की आवाज को, अल्पसख्यकों की आवाज को हुकूमत के बहरे कानों तक पहुँचाना, लोगों के हित में सरकार तक को मजबूर करना, हुकूमत को तानाशाह बनने से रोकना, हुकूमत संविधान सम्मत कार्य करे इसके लिए सत्तासीनों पर पैनी नज़र गड़ाये रखने और उसकी समीक्षा करने का नाम है राजनीति। यदि हम बसपा और इसकी माननीय अध्यक्षया की तरफ गौर करे तो हम पाते है कि बसपा और इसकी माननीय अध्य्क्षया में ये सारे गुण मौजूद है। जहाँ एक तरफ उत्तर प्रदेश में बसपा की हुकूमत, उसके विकास कार्य, कानून व्यवस्था, शिक्षा के क्षेत्र में अहम् योगदान, भूमि का विकेन्द्रीकरण, अपराध पर लगाम और तीव्र गति से सामाजिक परिवर्तन की तरफ उसकी अग्रसरता और वंचित-बहुजन जगत का सशक्तिकरण बसपा की कार्य-शैली व उसके भावी एजेण्डे को बतलाता है वहीं दूसरी तरफ ऊना की घटना को जब बसपा की अध्यक्षया ने राज्यसभा के पटल पर उठाया तो वो राष्टीय मुद्दा बन गया, सहारनपुर मुद्दे को उठाया तो देश के महत्त्व का मुद्दा बन गया, एक गठबन्धन की तरफ इशारा मात्र किया तो मौजूदा ब्राह्मणी सरकार की जड़ें तक हिल गयी। क्या यह सब बसपा के अघोषित एजेण्डे को नहीं दर्शाता है?

ऐसे हमारा स्पष्ट मानना है कि यदि देश की बहुजन जनता ये कहती है कि "देश का संविधान" ही बसपा का एजेण्डा है तो इसका मतलब साफ़ है कि देश में आज तक संविधान सम्यक तौर पर लागू नहीं किया गया है, जो कि एक तथ्य है। ऐसे में संविधान को पहली बार समुचित रूप से लागू करने की बात बसपा या उस देश की जनता कर रही है तो इससे बड़ा और इससे महत्वपूर्ण एजेण्डा और क्या हो सकता है?
रजनीकान्त इन्द्रा, इतिहास छात्र, इग्नू, नई दिल्ली