Sunday, December 25, 2016

Saturday, December 24, 2016

Protection of Constitution, Protection of Humanity




People, Politics and Power








The Caste is The Merit in Brahmanism





Bhakt / Happy Slave


The Caste and its Impact





Saturday, December 3, 2016

Sunday, November 20, 2016

Tuesday, November 1, 2016

Sunday, September 25, 2016

डॉ आंबेडकर का भगवाकरण - एक ब्राह्मणी चाल

साथियों,
जब से बीजेपी सत्ता में आयी है तब से भारत के सबसे बड़े प्रान्त उत्तर प्रदेश पर इसकी नज़र टिकी हुयी है। आज बीजेपी उस कौम में सेंध लगाने का असफल प्रयास कर रही है जिस कौम की बस्तियां यही वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू लोग गांव की दक्षिण दिशा में बसाते थे ताकि उस तरफ से गुजरने वाली हवा इन पाखण्डी ब्राह्मणी लोगो को अपवित्र ना कर दे। भारत की ही धरती पर हिन्दू छुआछूतवादी व्यवस्था में पैदा हुए बाबा साहेब डॉ आंबेडकर ने अपनी कौम को एक ऐसी राह दिखाई जिस पर चलकर मान्यवर काशीराम ने दलितों की कौम को एक ऐसा सियासी ब्राण्ड बना दिया कि आज वैदिक ब्राह्मणी लोग भी इस कौम के चरणों में अपने जीवन का वज़ूद ढूंढ रहे है। 

साथियों,
आज लोकतान्त्रिक भारत में ब्राह्मणी राजनितिक दल बाबा साहेब की जयंती मानते है, हर दिन उनके नाम की माला जपकर अपने आपको को अम्बेडकरवादी बताने का असफल प्रयास कर रहे है। इन्ही हिंदूवादी संगठनों ने ही बाबा साहेब को देश द्रोही कहा था। कांग्रेस ने बाबा साहेब के खिलाफ षड्यंत्र किया था जिसके तहत ही बाबा साहेब को कई बार चुनाव में हारका सामना करना पड़ा। भारत दुनिया का एक मात्र ऐसा देश है जहाँ पर संविधान के निर्माता और भारत के प्रथम कानून मंत्री को दो-दो बार षड्यंत्र करके चुनाव हराया जाता है। इससे भी बड़ी हास्यपद बात ये है जो लोग बाबा साहेब को देश का दुश्मन कहते थे आज वही लोग बाबा साहेब के सबसे बड़े अनुयायी होने का पाखंड कर रहे है। बाबा साहेब ने ठीक ही कहा था जब इन ब्राह्मणों और सवर्णों की गर्दन पर लोकतंत्र की तलवार पड़ेगी तब ये ब्राह्मणी लोग वो सब करेगें जो ये नहीं चाहते है।

साथियों,
बाबा साहेब किसी एक राष्ट्र की ही नहीं बल्कि सकल मानव समाज की धरोहर है। इनका जन्म दिन सिर्फ ढोंगी हिन्दू ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया की मानवता मना रही है। अच्छी बात है, कि कम से कम इतने सालों के बाद दुनिया ने बाबा साहेब के कार्यो और संघर्षों को पहचाना, उनकी कुर्बानी और योगदान को माना। बाबा साहेब को देशद्रोही कहकर उनका शोषण करने वाले ब्राह्मणी लोग यदि इन सब के बावजूद बाबा साहेब की जयंती मानते है तो इसमें ख़ुशी की बात है लेकिन सवाल यह पैदा होता है कि इतने सालों तक जहर उगलने के बाद क्या हकीकत में ये ब्राह्मणी हिन्दू बाबा साहेब को अपनाना चाहते है, क्या उनकी विचार धारा को अपनाना चाहते है या सिर्फ उनकी फोटो को अपनाकर, अपने पोस्टरों पर लगाकर दलित वोट में सेंध लगाना चाहते है। ये विचार-विमर्श का विषय है।

साथियों,
बीजेपी सरकार की नीतियों, मंत्रिमंडल के संगठन, इस सरकार में दलितों पर बढ़ते अत्याचार के तहत ये बात बिलकुल साफ हो जाती है कि इन मनुवादी सनातनी ब्राह्मणों का बाबा साहेब डॉ आंबेडकर और उनकी विचारधारा से दूर-दूर तक कोई सम्बन्ध नहीं है। ये लोग बाबा साहेब का नाम लेकर दलितों के वोट को हथियाना चाहते है। इसलिए इनके द्वारा किये जा रहे आयोजनों से सावधान रहने की जरूरत है। मुझें इस बात का दुःख है कि बाबा साहेब के अथक परिश्रम और कुर्बानी के बावजूद दलित और अन्य आंबेडकर अनुयायी ब्राह्मणवाद के चंगुल से अभी तक आज़ाद नहीं हो पाए है। इसका फायदा उठाकर इन ब्राह्मणी लोगों ने बाबा साहेब का ही भगवाकरण करने का प्रयत्न कर रहे है। बाबा साहेब का भगवाकरण मतलब कि गुलामी का नया आगाज।

साथियों,
यदि हम इतिहास पर नजर डाले तो हम पाते है कि बुद्ध धर्म का जन्म सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म और इनके शोषणवादी विचारधारा और कर्मकाण्ड के खिलाफ हुआ था। बुद्ध ने हिन्दू धर्म की हर प्रथा का घोर विरोध  किया था। बुद्ध में यज्ञों जैसे कि अश्वमेघ और अन्य का बहिष्कार किया था। बुद्ध द्वारा इनका विरोध करने का मतलब है कि मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म में इंसानियत का शोषण, मानवता की हत्या, नैतिकता का पतन, स्वतंत्रता की गुलामी, समता का हनन और भाईचारे की हत्या को एक त्यौहार और परम्परा के रूप में स्थापित कर मानवता का शोषण करने की विचारधारा का राज होना। यही इंसानियत का शोषण, मानवता की हत्या, नैतिकता का पतन, स्वतंत्रता की गुलामी, समता का हनन, भाईचारे की हत्या, जातिवाद और छुआछूत का राज ही हिंदुओं का रामराज्य है। 

साथियों,
महात्मा बुद्ध ने अपने वैज्ञानिक, तर्कपूर्ण विचारों, स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व के सिद्धान्तों को समाज में स्थापित कर एक नए सामाजिक क्रांति को जन्म दिया जिसके परिणाम स्वरुप भारत की सरजमीं से ब्राह्मणी धर्म का लगभग अंत हो गया, पूरा भारत बुद्धमय हो गया। उसके बाद मानवतावादी बुद्ध धर्म भारत से आगे निकलकर पूरी दुनिया को मानवता का पाठ पढ़ाया, संसार में तर्कवाद और वैज्ञानिक सोच-विचार व ज्ञान की ज्योति जलायी। इसके साथ ही बुद्ध धर्म दुनिया के एक बड़े भू-भाग पर स्थापित हो गया। लेकिन अशोक महान के बाद भारत में बुद्ध धर्म को समाप्त करने के लिए ब्राह्मणों ने षड्यंत्र किया। अशोक महान के वंश के राजा ब्रहद्रथ की छल पूर्वक हत्या की गयी। इस हत्या के साथ ही भारत में अत्याचार, अनाचार और व्यभिचार की सत्ता फिर से स्थापित हो गयी, जाति व्यवस्था अत्याधिक मजबूत और कठोर कर दी गयी, छुआछूत का बोलबाला हो गया, स्त्रियों की गुलामी का नया आगाज शुरू हो गया। जबरन श्रमण सभ्यता के लोगों को हिन्दू बनाया गया, बौद्ध विहारों, नैतिकता, मानवता और विज्ञान के शिक्षा केंद्रों को ध्वस्त कर दिया गया, बुद्ध धर्म के संस्थानों के स्वरुप को बदलकर मंदिर बना दिया गया। आज के अयोध्या, मथुरा जैसे अन्य मंदिरों के स्थान पर पहले बौद्ध विहार हुआ करते थे जिसकी पुष्ठि अयोध्या विवाद के मसले पर सुप्रीम कोर्ट के जज की अध्यक्षता में बनाई गयी कमिटी पहले ही कर चुकी है।

साथियों,

इतिहास गवाह है कि हिन्दू ब्राह्मणी धर्म में पहले मूर्ती नहीं हुआ करती थी लेकिन प्रेरणा स्रोत के रूप में स्थापित बुद्ध के मूर्ती की सामाजिक स्वीकृति व बुद्ध के विचारों के अद्भुद प्रचार-प्रसार से ही प्रेरित होकर हिन्दू ब्राह्मणी लोगों को अपनी शोषणवादी हिन्दू ब्राह्मणी धर्म को पुनः स्थापित करने के लिए ब्रह्मा, विष्णु, शंकर, गणेश व  अन्य देवी-देवताओं की मूर्तियों को गढ़ना शुरू किया। इसके साथ ही जहाँ बुद्ध धर्म में मूर्ती  मानवतावादी प्रेरणा स्रोत हुआ करती थी वही सनातनी हिन्दू धर्म में मूर्ती शोषण, अन्धविश्वास, पाखण्ड और धर्म के व्यापर का जरिया बन गयी। सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी लोगो ने अपने धर्म के प्रचार के लिए अतार्किक और अवैज्ञानिक मनगड़ंत पुराणों की रचना की और दलितों के साम्राज्य को दैत्य, राक्षस जैसे नाम देकर इनके शक्तिशाली पूर्बजों की हत्या को त्यौहार का रूप दे दिया। दुर्गा काली चामुंडी जैसी देवियों की रचना की इसी तरह के षडयंत्रो का परिणाम है। 

साथियों,

आज सवाल यह पैदा होता है कि यदि हिन्दू समाज में महिला दुर्गा काली जैसे शक्तिशाली थी तो राम जैसे लोगों में इतनी हिम्मत कहाँ से आ गयी कि अपनी गर्भवती पत्नी को घर से निकल दिया। यदि हिन्दू समाज की महिला इतनी ताकतवर थी तो उसने राम का विरोध क्यों नहीं किया? दुर्गा की मूर्ती लिए वेश्या के कोठे की मिटटी की जरूरत क्यों पड़ती है? दुर्गा की मूर्ती के लिए वेश्या के कोठे की मिट्ठी अनिवार्य होना हिंदुओं के देवियों के असली चेहरे को सामने लाता है। गणेश का असली पिता कौन है- ब्रह्मा या शंकर? इन सब सवालों का कोई सटीक जबाब नहीं है। ये सब स्थापित करता है कि हिंदुओं के सारे देवी-देवता मनगढंत है। समय की मांग के अनुसार ब्राह्मणों ने अपने धर्म व्यापार को आगे बढ़ाने और दलितों, आदिवासियों एवम पिछड़ों को गुलाम बनाये रखने ले लिए शोषणवादी व्यवस्था को और मजबूत करने के लिए ही इन देवी देवताओं की रचना की गयी। यही कारण है कि हिंदुओं के अलग-अलग शास्त्रों के अनुसार इनके देवी-देवताओं की अलग-अलग व्याख्या है।

साथियों,
आज हमारा दलित, आदिवासी, पिछड़ा और महिला समाज ब्राह्मणों के इसी ब्राह्मणी षड्यंत्र का शिकार बना हुआ है। ब्राह्मणवाद के इसी रोग के चलते आज बुद्ध-आंबेडकर अनुयायी भी महात्मा बुद्ध और डॉ आंबेडकर की उसी तरह से पूजा-पाठ और अन्य कर्मकांड करते है जैसे कि ब्राह्मणी लोग करते है। कहने का मतलब ये है कि महात्मा बुद्ध ने जिन कर्मकांडों और प्रथाओं का विरोध किया, जिन परम्पराओं के खिलाफ सामाजिक जंग छेड़ कर मानवता स्थापित की, आज बुद्ध और उनके विचारों को लोग उसी अत्याचारी परंपरा के हिसाब से जन-मानस में स्थापित कर रहे है, पूजा-पाठ हो रहा है, भजन कीर्तन और आरती किया जा रहा है। ये सब कुछ और नही बल्कि ब्राह्मणी व्यवस्था की गुलामी और महात्मा बुद्ध, बौद्ध धर्म और श्रमण संस्कृति का ब्राह्मणीकरण है। दुनिया जानती है कि महात्मा बुद्ध मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म के घोर विरोधी और मानवता के प्रवर्तक थे लेकिन इन ब्राह्मणी लोगों ने बुद्ध को कपटी विष्णु का अवतार बताकर महात्मा बुद्ध का ब्रह्माणीकरण करने की कोशिस की है। आज स्कूलों में बच्चों को यही पढ़ाया जा रहा है कि महात्मा बुद्ध कपटी विष्णु के अवतार थे। आज बुद्ध और अम्बेडकरी लोग ये तक नहीं समझ पा रहे है कि जिन महात्मा बुद्ध ने विष्णु और उनके अन्य देवी-देवताओं, वेदों, धर्मशास्त्रों, उनके सभी परम्पराओं, प्रथाओं और रीति-रिवाजों का विरोध किया था वे हिंदुओं के विष्णु का अवतार कैसे हो सकते है? 

साथियों,
जब से सनातनी ब्राह्मणी बीजेपी सत्ता में आयी है आंबेडकर को लेकर एक खींचातानी मची हुई है। आज कांग्रेस भी अम्बेडकरवादी होने का ढोंग कर रही है। कम्युनिस्ट पार्टियां भी आंबेडकर को अपना कह रही है, समाजवादी राजनितिक दल भी इस होड़ में पीछे नहीं है। इन सब का एक ही मकसद है आंबेडकर के नाम पर वोट बटोरना। बीजेपी ने भारत में अत्याचारी सनातनी हिन्दू धर्म को स्थापित करने और हिन्दू आतंकवाद को बढ़ावा देने की मुहीम ही छेड़ रखी है। साथ ही साथ हिन्दू धर्म का परित्याग करने वाले और हिन्दू धर्म को राजनितिक षड्यंत्र बताने वाले बाबा साहेब को अपनाकर उनके अनुयायियों का वोट बटोरने की नाकाम कोशिस कर रही है। हाल ही के दिनों में हमने अलीगढ में देखा कि बीजेपी के पोस्टरों पर बाबा साहेब की भगवा रंग की कोट में फोटो लगी है। नीले कोट वाले बाबा साहेब का एकाएक भगवा रंग की कोट, आखिर क्यों? 
साथियों,
बाबा साहेब मानवता की धरोहर है। बाबा साहेब के कार्यों को चित्रित करने का सबको सामान अधिकार है। बाबा साहेब की तस्वीर या फिर मूर्ती किसी भी रंग के कोट में बनायी जा सकती है। जहाँ तक कला और चित्रण के स्वतंत्रता के आज़ादी की बात है हम इस स्वतंत्रता का पूरा समर्थन करते है। लेकिन यहाँ सवाल यह पैदा होता है कि जब से बाबा साहेब की मूर्ती और तस्वीरों का चित्रण शुरू हुआ है सब लोगों ने बाबा साहेब को अधिकतर नीले कोट में ही चित्रित किया है। सवाल यह है बीजेपी की ऐसी क्या मजबूरी थी कि नीले कोट वाले बाबा साहेब को भगवा रंग की कोट पहनाने की जरूरत पड़ गयी।
साथियों,
बीजेपी द्वारा बाबा साहेब को भगवा रंग की कोट में चित्रित करना किसी भी तरह का कला या चित्रकारी नहीं बल्कि अम्बेडकरवाद बढ़ते कदमों के खिलाफ एक षड्यंत्र है। ये साजिश है अम्बेडकरवाद के बढ़ते कारवां की गति को मंद करने की। ये सोची समझी चाल है ब्राह्मणों द्वारा आंबेडकर के तीक्ष्ण, तार्किक विचारों को कमजोर करने की। हम सब जानते है कि भारत की ब्राह्मणी सरकारों और इतिहासकारों ने मुख्यधारा के इसिहास के पन्नों से कोरेगांव को मिटाने की कोशिस की है, झलकारीबाई को भी मुख्यधारा के इतिहास में वो जगह नहीं मिली जो कि उन्हें मिलनी चाहिए थी। आज़ादी की लड़ाई में शहीद दलित रणबांकुरों का कोई जिक्र नहीं मिलता है। यदि इतिहास को खगाले तो हम पाते है कि अंग्रेजों के खिलाफ जंग-ए-आज़ादी में मुख्य भूमिका निभाने वाले खुसरव मूलनिवासी, महान त्यागमूर्ति पन्नाधाई धानुक , झलकारी बाई कोरी, महाबीरी देवी भंगी, उदइया चमार, मतादीन भंगी, चेतराम जाटव, बल्लू मेहतर, बांके चमार, वीरा पासी, अछूत नेता केशव , रामचंद्र भंगी, नत्थू धोबी, रामपति चमार इत्यादि का भारत के आधुनिक इतिहास में कोई जिक्र ही नहीं है।

साथियों,

यदि हम स्वतंत्रता संग्राम की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को सच्चाई से देखें तो स्पष्ट होता है कि भारतीय मूलनिवासी समाज की देश की आजादी में मुख्य भूमिका रही है। लाखों दलित मूलनिवासी सपूत देश की आजादी के लिए फांसी के फंदे को गले में डालकर और सीने में गोली खाकर शहीद हो गए।1807 ई. में अलीगढ के गनौरी के किले में ढाई सौ अंग्रेज सिपाहियों को मौत के घाट उतार कर शहीद होने वाले उदइया चमार, 1857 में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई द्वारा झाँसी से निकल भागने के बाद उन्ही की वेशवूषा में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त होने वाली वीरांगना झलकारी बाई, बैरकपुर में अंग्रेज सेना की छावनी में पहली बार कारतूस और हैण्ड ग्रेनेड में सूअर और गाय की तांत लगाये जाने का राज खोलने वाले मातादीन भंगी, कासगंज जन-आंदोलन के अगुवा चेतराम जाटव व बल्लू मेहतर, बांके चमार, बीरा पासी, चौरीचौरा कांड के अमर शहीद रामपति चमार आदि तमाम अछूतों पर चौरीचौरा थाना फूंकने और 22 पुलिसकर्मी को जिन्दा जलाकर मारने के जुर्म में इन सबके विरुद्ध मुकदमा चला। मृत्यु दण्ड की सजा के बाद सभी को फाँसी पर चढ़ाया गया। अपनी मातृभूमि के लिए शहीद हुए ऐसे वीर अछूत योद्धाओं का ना तो इतिहास में नाम है और ना ही स्वतंत्रता दिवस के दिन उनका गुणगान किया जाता है। ब्राह्मणवादी लोगों ने वीर सपूत जिन्होंने देश की आजादी के लिए अपने प्राण गवांये, उनको ही इतिहास से गायब कर दिया और इतिहास में ऐसे लोगों का गुणगान किया गया, जिनका आजादी की लड़ाई से कोई वास्ता ही नही रहा है, उदाहरण के तौर पर गोलवलकर, सावरकर, तिलक और अन्य। इन ब्राह्मणी लोगों ने भारत को आज़ाद करने में नहीं बल्कि भारत-पाकिस्तान बटवारा कराने में अपना योगदान दिया है जिसका दंश आज भी भारत की माटी झेल रही है। ये सब क्या है? यही ब्राह्मणवाद है, यही हिंदुत्व का एजेंडा है, यही भारत की बदकिश्मती है।

साथियों,
जिस तरह से ब्राह्मणी लोगों ने मुख्यधारा इतिहास के पन्नों में दलित मूलनिवासी शहीदों को जगह नहीं दिया उसी तरह से ये लोग बाबा साहेब के विचारों से डर गए है और उनके विचारों को हिंदुत्व की गंदगी से गन्दा करने का असफल प्रयास कर रहे है। ब्राह्मणी लोग समझ चुके है कि बाबा साहेब के तर्कों और उनके विचारों का उनके पास कोई तोड़ नही है। इसीलिए ये ब्राह्मणी लोग महात्मा बुद्ध की तरह ही आंबेडकर का भी ब्राह्मणीकरण करना चाहते है। बाबा साहेब का कोट नीले ही रंग का हो, ये कोई जरूरी नहीं है लेकिन आंबेडकर के अनुयायियों के लिए बाबा साहेब की जो छबि बनी है वो नीले कोट की है, आज नीला कोट अम्बेडकरवाद का परिचायक बन गया है, नीला रंग आज भारत में सामाजिक क्रांति का रंग बन चुका है, नीली क्रांति ब्राह्मणवाद के विध्वंश का प्रतीक है, नीला रंग भारत में समतामूलक समाज की ओर ले जाने वाली क्रांति का प्रतीक बन चुका है। यदि भारत में अन्य लोगों से तुलना करे तो निरक्षरता की तादाद आज भी दलित मूलनिविसयों में ही सबसे ज्यादा है। ऐसे गरीब दबे-कुचले दलित लोगों के लिए नीले कोट वाले बाबा साहेब स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व का प्रतीक है। यदि आज नीला रंग भारत में सामाजिक परिवर्तन का स्रोत बन चूका है तो क्यों ये ब्राह्मणी लोग बाबा साहेब को भगवा कोट में देखना चाहते है? हमारे ख्याल से बाबा साहेब के नीले कोट की जगह भगवा रंग की कोट को लाना बीजेपी द्वारा अम्बेडकरवाद के दर्शन को धूमिल करना, दलित शोषित समाज को गुमराह करना। आंबेडकर को फोटो तक सीमित करना, उनके  करना, ब्राह्मणवाद को मजबूत करना है, जातिवाद को बढ़ावा देना है, गौ-रक्षकों को संरक्षण देना है, हिन्दू आतंकवाद को पलना है, दलितों,आदिवासियों, पिछड़ों और अल्पसंख्यकों पर हो रहे जुल्मो-सितम को पोषण देना है। 

साथियों,

हम बाबा साहेब को किसी रंग विशेष में नहीं बाँधना चाहते है। बाबा साहेब की तमाम तस्वीरे है जिनमे बाबा साहेब ने धोती-कुरता जैसी कपडे पहन रखें है। लेकिन साथियों ये भी उतना ही सही है कि महापुरुषों की, सामाजिक परिवर्तन के महानायकों की एक सिग्नेचर पोज होती है जिसमे दुनिया उनको स्वीकार कर चुकी होती है जैसे कि हात्मा फुले, कबीर दस जी, संत शिरोमणि संत रैदास, मार्टिन लूथर किंग, अब्राहम लिंकन। इन सब की अपनी एक सिग्नेचर पोज है। उसी तरह बाबा साहेब भी तमाम तरह के वस्त्र पहनते थे लेकिन दुनिया ने बाबा साहेब को नीले कोट में स्वीकार किया है, लोग सामान्य तौर पर किसी भी नीले कोट वाली मूर्ती को देखकर ही समझ जाते है कि ये मूर्ती किसी और की नहीं बल्कि बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा प्रतीक मानवता मूर्ति बाबा साहेब डॉ भीमराव रामजी आंबेडकर की है। यदि दुनिया ने बाबा साहेब को नीले कोट में पहचाना है, तो ब्राह्मणी लोगों को क्या जरूरत पड़ी कि बाबा साहेब को भगवा रंग का कोट पहना दिया। हम सभी बुद्ध-आंबेडकर अनुयायियों को ये  समझने की जरूरत है।

साथियों,

शिक्षा के नाश से इतिहास का नाश हो जाता है। इतिहास के नाश होने से संस्कृति का नाश हो जाता है और संस्कृति के नाश से समाज को सर्वनाश हो जाता है। बीजेपी और अन्य ब्राह्मणी सरकारों और इतिहासकारों ने हमारे समाज के महापुरुषों और शहीदों को इतिहास के पन्नों से निकाल दिया है। हमारे समाज के लोगों के साथ स्कूलों और कालेजों में बुरा बर्ताव किया जाता है ताकि हम सब पढ़ न सके। इस तरह से ब्राह्मणी लोग हमारे समाज के लोगों की शिक्षा में हिस्सेदारी को नाश करना चाहते है, शिक्षा के नाश होने से हमारा इतिहास नष्ट हो जायेगा। इतिहास के नष्ट होने से संस्कृति और संस्कृति के नष्ट होने से समाज अपने आप ही नेस्तनाबूद हो जायेगा। बाबा साहेब हमारे लिए शिक्षा, इतिहास, संस्कृति और संघर्ष के प्रतीक है लेकिन बाबा साहेब के मूर्ती और तस्वीर का भगवाकरण करके ब्राह्मणी लोग हमारे शिक्षा, इतिहास और संस्कृति पर प्रहार कर रहे है। ये ब्राह्मणी लोग हमारे सांस्कृतिक धरोहर, जिनमे बाबा साहेब का नीला कोट भी शामिल है, को धूमिल करने का प्रयास कर रहे है। बाबा साहेब डॉ आंबेडकर ने खुद कहा है कि जो लोग अपना इतिहास नहीं जानते है वो कभी इतिहास नहीं बना सकते है। बाबा साहेब की मूर्ती और कोट के रंग आदि आज हमारी संस्कृति का हिस्सा है। इस लिए ब्राह्मणी लोग हमारी इस संस्कृति पर प्रहार कर भी रहे है। हमें इस बात की चिंता सता रही है कि अम्बेडकरवादियों ने इसका विरोध क्यों नहीं किया? 

साथियों,

टेलीविजन के चैनलों पर पर बैठ कर, अख़बारों और पत्रिकाओं में लेख के द्वारा आंबेडकर के विचारों को धूमिल करने का प्रयास किया जा रहा है। राज्यसभा चैनल के एक इंटरव्यू में आरएसएस के प्रवक्ता राकेश सिन्हा ने कहा था कि बाबा साहेब १९५० के दौर में नागपुर स्थिति आरएसएस के कार्यालय में एक बार गए थे, और डॉ आंबेडकर बहुत खुश थे इस लिए यह बात सिद्ध होती है कि आंबेडकर का आरएसएस से कोई विरोध नहीं था, आंबेडकर हिन्दू धर्म को मानते थे। 

साथियों,
अब ये सोचने का विषय है कि यदि कोई किसी के घर एक बार चला जाय तो क्या इसका मतलब होता है कि वह उस घर का सदस्य बन जाता है। फ़िलहाल यही कहना है आरएसएस के पाखंडी प्रवक्ता राकेश सिन्हा का जो कि झूठ बोलने में माहिर है और पूरी तरह से बेशर्म और धूर्त है। राकेश सिन्हा को हम बेशर्म और धूर्त इस लिए  है क्योकि वो बिना किसी शर्मो-ह्या के बाबा साहेब द्वारा लिखित बातों को ही झुठलाने का नाजायज प्रयास करते है। यदि हम यह मान  बाबा साहेब नागपुर स्थित आरएसएस के हेड क्वाटर पर कभी गए भी थे तो धूर्त राकेश सिन्हा को इस बात पर भी गौर करना चाहिए कि उनके आरएसएस के हेडक्वाटर में जाने से वर्षों पहले बाबा साहेब ने यवला कांफ्रेंस में यह घोषणा कर दी थी कि मैं हिन्दू बनकर जरूर पैदा हुआ हूँ क्योकि इसे रोकना मेरे वश में नहीं लेकिन मैं आप सब को भरोषा दिलाता हूँ कि मैं एक हिन्दू के रूम में कतई नहीं मरूगां। राकेश सिन्हा से हम पूछना चाहते है कि यदि बाबा साहेब को आरएसएस और इनके अन्य हिन्दू संगठन यदि इतने ही प्यारे लगे थे तो बाबा साहेब ने हिन्दू धर्म को धर्म नहीं बल्कि लोगों को गुलाम बनाये रखने का राजनितिक षड्यंत्र क्यों कहा है?

साथियों,

बाबा साहेब के बारे में इस तरह की भ्रामक बातें फैलाकर ये ब्राह्मणी लोग बाबा साहेब का भगवाकरण करना चाहते है। इन लोगों के पास बाबा साहेब के तर्कों का कोई जबाब नहीं है। इसलिए ये लोग बाबा साहेब के बारे में भ्रामक बातें फैला रहे है, बोल रहे है और प्रचारित कर  रहे है। इनसे सदा सावधान रहने की जरूरत है। ये हम सब को सोचना चाहिए कि  हमारा शोषक आज हमारा हितैषी बनने की कोशिस क्यों कर रहा है? 

साथियों,
याद रखों जब आपके के सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन का ये ब्राह्मणी लोग विरोध करते है तो समझ लो कि आप सही दिशा में बढ़ रहे हो लेकिन यदि कोई ब्राह्मणी विचारधारा वाला आपका सहयोगी बनाने की कोशिस करे तो सावधान हो जाओ क्यो कि खतरा आस-पास ही है। 

साथियों,

एक बड़ी संख्या में आंबेडकर के अनुयायी भी आज बाबा साहेब डॉ आंबेडकर की पूजा-पाठ, भजन कीर्तन और अन्य परंपरा उसी तर्ज पर कर रहे है जैसा कि ब्राह्मणी लोग अपनी मनगड़ंत देवी-वेदताओं के लिए करते है। मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी सनातनी हिंदुओं के देवी-देवता प्रतीक है मानवता की हत्या के, प्रतीक है मानवता के शोषण का, अनाचार, व्यभिचार, अत्याचार, कुकर्म और अनैतिकता के जबकि बाबा साहेब डॉ आंबेडकर प्रतीक है मानवता के, स्वतंत्रता के, समता के, बंधुत्व के, मानवाधिकारों के, शिक्षा के, तर्क और वैज्ञानिकता के। इसलिए बाबा साहेब का ब्राह्मणीकरण बाबा साहेब आंबेडकर का सबसे बड़ा अपमान है।

साथियों,
हिंदुओं की मान्यताओं के अनुसार विष्णु कलयुग में एक शुद्र के घर कलि रूप में अवतार लेगें। मुझें इस बात का डर है कि यदि आप सब अम्बेडकरवादी लोगों ने ब्राह्मणी मान्यताओं और परम्पराओं का बहिष्कार नहीं किया तो ये ब्राह्मणी लोग आने वाले भविष्य में डॉ आंबेडकर को ही विष्णु का अवतार घोषित कर उनको कलि बना देगें। यदि ऐसा हुआ तो भारत की सरजमी पर आंबेडकर और उनके विचारों का वही हश्र होगा जो बुद्ध धर्म और हमात्मा बुद्ध का हुआ था। यदि ऐसा हुआ तो इसके जिम्मेदार कोई और नहीं बल्कि अपने आप को आंबेडकर का अनुयायी कहने वाले लोग ही होगें। इतिहास गवाह है- हम इस लिए नहीं हारे है कि हम कमजोर थे बल्कि हम इस लिए हारे है क्योकि हमारे घरों में और हमारे समाज में ब्राह्मणी विभीषण अम्बेडकरवाद का चोंगा पहन कर अपने ही समाज और डॉ आंबेडकर के विचारों के खिलाफ ब्राह्मणी षड्यंत्र का हिस्सा रहे है। इस लिए ही यदि श्रमण संस्कृति, बुद्ध धर्म का भारत में पतन हुआ है तो इसके सबसे बड़े जिम्मेदार बुद्ध धर्म के लोग ही है जिन्होंने ने अपनी संस्कृति को सहेजने के बजाय ब्राह्मणवाद के चंगुल में फंस कर बुद्ध धर्म का ही ब्राह्मणीकरण करने में धूर्त ब्राह्मणों का साथ दिया है।
जय भीम, जय भारत !!!

रजनी कान्त इन्द्रा

सितम्बर २५, २०१६

Sunday, September 11, 2016

सांस्कृतिक ताकत - सामाजिक परिवर्तन की राह

साथियों,
बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा प्रतीक मानवतामूर्ति बाबा साहेब डॉ आंबेडकर ने कहा है - "राजनितिक सत्ता वह मास्टर चाभी है जिसके द्वारा अवसर के सारे दरवाजे खोले जा सकते है।"

साथियों,
बाबा साहेब के इस सन्देश में राजनितिक सत्ता हमारे कल्याण, देश के विकास और भारत में समतामूलक समाज के पुनर्निर्माण का एक रास्ता है, माध्यम है लेकिन हमारा अंतिम लक्ष्य नहीं। हमारा लक्ष्य है - भारत में समतामूलक समाज की स्थापना करना, हमारा लक्ष्य है हर इंसान को बिना किसी भेद-भाव के जीने का हक दिलाना, हमारा लक्ष्य है स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व पर आधारित तर्कपूर्ण, वैज्ञानिकता से ओतप्रोत, मानवाधिकारों की कद्र करने वाले मानतावादी समाज का सृजन करना। इस लिए हमें राजनीतिक सत्ता को लक्ष्य नही बल्कि सिर्फ और सिर्फ माध्यम समझ कर बाबा साहेब के समतामूलक समाज की स्थापना के लक्ष्य की तरफ आगे बढ़ना चाहिये। 

साथियों,
राजनितिक सत्ता एक हार्ड पावर है जिसके द्वारा हम साफ्ट पावर को प्राप्त कर सकते है। सॉफ्ट पावर का मतलब है सांस्कृतिक पॉवर। किसी भी समाज का विकास तब तक संभव नहीं है जब तक कि वो समाज अपने शिक्षा और इतिहास के जरिये अपने मूल वजूद को प्राप्त न कर ले। इस वजूद को पाने के लिए जिस ताकत की जरूरत होती है उसमे पहली है - हार्ड पॉवर और दूसरी है - सॉफ्ट पॉवर। मतलब कि शासकीय पावर और सांस्कृतिक पॉवर। शासकीय पावर सांस्कृतिक पॉवर को सुगमता से लागु करने का एक बेहतर मार्ग है, माध्यम है। सांस्कृतिक पावर रास्ता है हमारी मंजिल का। मतलब कि बाबा साहेब और संत शिरोमणि संत रैदास के सपनों का समाज को स्थापित करने का। एक ऐसा समाज जिसमें ना कोई भेद-भाव हो, ना कोई जाती-पांति हो, ना कोई ऊंच-नीच हो, कोई बड़ा-छोटा ना हो, जहाँ सब बराबर हो, सबको समान अधिकार और अख्तियार हो, सबको सामान सम्मान हो, सबको आज़ादी हो, सब में समानता हो और आपस में भाई-चारा हो। 

साथियों,
जहाँ तक रही बात हार्ड पॉवर की यानि कि शासकीय पॉवर की तो ये वह पावर है जिसे हम सत्ता कहते है, राजनितिक सत्ता, हुकूमत की सत्ता। बाबा साहेब ने हमे रास्ता दिखया और बाबा साहेब के अनुयायी और महान समाज सुधारक मान्यवर काशीराम जी और सुश्री बहन कुमारी मायावती जी ने जहाँ एक तरफ हमे, हमारे दलित शोषित, आदिवासी और पिछड़े समाज को आधुनिक भारत के शासक वर्ग की कतार में लेकर खड़ा कर दिया वही दूसरी तरफ हमारा दलित, शोषित, आदिवासी  पिछड़ा वर्ग अपने इतिहास और सांस्कृतिक पावर से आज भी पूरी तरह महरूम है। 

साथियों,
ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पॉवर ही वह माध्यम है जो कि हमें, हमारे इतिहास, हमारी संस्कृति और हमारे वज़ूद से हमारा परिचय करा सकती है। बाबा साहेब डॉ आंबेडकर द्वारा निर्मित स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व का पैगाम भारतीय संविधान के लागू होने चंद वर्षों बाद ही भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में हमनें अपनी शासकीय सत्ता को स्थापित कर लिया है। कहने का तत्पर्य यह है कि जिस देश में हमें शहस्त्राब्दियों से गुलाम बनाकर जानवरों से भी बदतर रहने-खाने को मजबूर किया गया था, आज उसी सरजमी पर हम अपने शोषक से आँखों में ऑंखें डालकर बात कर सकते है, उसके हर सवाल का दृढ़ता से जबाब दे है, हम अपने शोषक पर सवाल कर सकते है, उसका तख़्त छीन सकते है, हम खुद भी तख़्त पर बैठकर राज कर सकते है जैसे कि सुश्री बहन कुमारी मायावती ने उत्तर प्रदेश जैसे सर्वाधिक जनसंख्या वाले राज्य कई-कई हुकूमत किया है वो भी ऐसी हुकूमत जिसकी मिशाल आज़ाद भारत ही नहीं बल्कि भारत के समूचे इतिहास के पास भी नहीं है। 

बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षाप्रतिक मानवतामूर्ति बाबा साहेब डॉ आंबेडकर, मान्यवर काशीराम और बहन कुमारी मायावती जी ने आज हमारे दलित आदिवासी और पिछड़े समाज को शासक वर्ग की क़तर में लाकर खड़ा कर दिया है, लेकिन फिर भी हमे आज वो सम्मान हासिल नहीं है जो कि एक समता मूलक समाज में हर शहरी को मिलना चाहिए। इसका मतलब है कि हमने हार्ड पावर यानि कि शासकीय पावर को तो प्राप्त कर लिया है लेकिन सॉफ्ट पावर यानि कि सांस्कृतिक पावर को पाना अभी भी बाकि है। संघर्ष के इस दौर में हमें सिर्फ राजनितिक सत्ता तक सीमित नहीं रखना चाहिए क्योकि राजनितिक सत्ता को आते-जाते बहुत समय नहीं लगता है। इतिहास गवाह है राजा और शासक आये और चले गए, धरती पर बहुत से राजे-राजवाड़े पनपे और चन्द सालों में ही नेस्तनाबूद हो गए। शासकीय पॉवर को पाने और गवाने में ज्यादा वक्त नहीं लगता है लेकिन सॉफ्ट पावर यानि कि सांस्कृतिक पावर को पाने और मिटाने में सदियां ही नहीं कई-कई शास्त्रब्दिया गुजर जाती है लेकिन फिर भी इसे पूर्णतः मिटा नहीं पाती है।

साथियों,
शासक बदलने पर शासन प्रणाली बदल जाती है। लोग बदल जाते है। लेकिन यदि कोई चीज लगभग अपरिवर्तित रखती है तो वह है हमारी साफ्ट पॉवर यानि कि हमारी संस्कृति और इसकी शक्ति। कोई भी शासक कितना भी शक्तिशाली क्यों ना हो जाये, कितना भी अत्याचारी क्यों ना हो जाये लेकिन वो भी हमारी संस्कृति को खत्म नहीं कर सकता है सिवाय हमारे। हमारे दलित आदिवासी और पिछड़े समाज को शासकीय पावर का इस्तेमाल कर अपने सांस्कृतिक पावर को खोजना है, उसकी पुनर्स्थापना करना है, नवनिर्माण करना है जिससे की भारत में फिर से मानवता की स्थापना की जा सके। सांस्कृतिक पॉवर का के बनने और नेस्तनाबूद होने का रास्ता एक ही है जिस पर चलकर ये बनती है, परवान चढ़ती है और सुरक्षित है, और यदि हम उस रास्ते को छोड़ दे तो धीरे-धीरे हमारी संस्कृति और इसकी शक्ति क्षीण होती जाती है। हालांकि कि  ये सच है कि यदि एक बार हमारे समाज की सामाजिक मिटटी में हमारी संस्कृतियों और परम्पराओं की जड़ जम जाए यो संस्कृतियों को ख़त्म होने में सदियाँ नहीं सहस्त्राब्दियाँ बीत जाती है। 

संस्कृतियों को सजोने, संवारने, सुरक्षित रखने और पुनर्स्थापित करने का रास्ता है-शिक्षा। शिक्षा से हमारा मतलब उस शिक्षा से नहीं है जिसे आज भारत सरकार बढ़ावा दे रही है। आज भारत सरकार और लगभग पूरी जनसंख्या कौशल विकास को ही शिखा समझ बैठी है जो कि भारत के शरीर के लिए जहर सामान है। यहाँ शिक्षा से हमारा मतलब है ऐसी शिक्षा जिसका उद्देश्य मानव, मानव समाज और मानवता के विकास व इतिहास को हर स्तर पर हर दृष्टिकोण से जानना समझना और इसका विश्लेषण करना ही नहीं है बल्कि इस मानव समाज को तर्कवादी वैज्ञानिक व मानवीय विकास की ओर ले जाने वाले सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलन द्वारा सड़े-गले समाज और इसकी समस्त बुराइयों को नेस्तनाबूद कर तर्कप्रधान, वैज्ञानिक और मानवतावादी एक नए समाज का सृजन करना हो।

बाबा साहेब ने भी कहा है - जो लोग अपना इतिहास नहीं जानते वो लोग कभी अपना इतिहास नहीं बना सकते है। इतिहास को जानने और बनाने का रास्ता है-शिक्षा। शिक्षा जहाँ हमें इतिहास का बोध कराती है वही इतिहास को बनाने और पुनर्स्थापित करने का मार्ग भी बताती है। इस तरह शिक्षा और इतिहास हमें हमारे वज़ूद की तरफ ले जाती है। 

साथियों,
यदि किसी भी समाज की शिक्षा छीन ली जाये तो उस समाज की शिक्षा मर जायेगी, शिक्षा के मरते ही उस समाज का इतिहास मर जायेगा और जब उस समाज का इतिहास मर जायेगा तो धीरे-धीरे उस समाज की संस्कृति क्षीण हो जाएगी और जब उस समाज की संस्कृति क्षीण हो जाएगी तो धीरे-धीरे वो समाज कमजोर होकर वो समाज खुद मर जायेगा और उस समाज के लोग दूसरों के आधीन उनके गुलाम बनकर रह जायेगे। यही भारत के मूलनिवासियों के साथ हुआ है जिसकी वजह से दलितों (जैसे चमार जो कि अपभ्रंश है जम्बार का जिसका मूल अर्थ है जम्बूद्वीप के मूलनिवासी), आदिवासियों और पिछड़ों को अपने ही जम्बू द्वीप पर गुलाम बनकर रहना पड़ा और आज भी रहना पड़ रहा है।

साथियों,
साफ्ट पॉवर से हमारा मतलब है सांस्कृतिक पॉवर से। संस्कृति का मतलब है हमारे अपने वज़ूद की पहचान, हमारी अपनी अस्मिता, अपने इतिहास की पहचान, हमारे अपने महापुरुष, हमारे अपने त्यौहार इत्यादि। यहाँ हम बार-बार सांस्कृतिक पावर की बात इस लिए कर रहे है क्योकि दलित आदिवासी और पिछड़े समाज ने शासकीय पावर को तो प्राप्त कर लिया है लेकिन उसका सांस्कृतिक पावर आज भी दूर है जिसकी वजह से इस तबके की अपनी कोई अस्मिता नहीं है, इस तबके के लोग ब्राह्मणों द्वारा थोपे गये चोले को पहन कर जी रहे है जिसके कारण भारत के दलित शोषित पिछड़े समाज को भारत की ब्राह्मणी व्यवस्था में जलालत और तिरस्कार का जीवन जीना पड़ रहा है। 

साथियों,
बाबा साहेब द्वारा शुरू किये गए शिक्षा के आंदोलन को दलित आदिवासी और पिछड़े समाज लोगों ने गले लगाया और आज तो निरंर्तर संघर्ष करते हुए अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे है। जिससे ये प्रतीत होता है कि भारत में मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी व्यवस्था के खिलाफ एक अम्बेडकरवादी वर्ग खड़ा हो रहा है और ये कुछ हद तक सच भी है लेकिन इस आंबेडकरवादी वर्ग के समान्तर ही एक वर्ग और खड़ा हो गया है जिसके तादात लगभग ४५-५०% है। वह वर्ग है मनुवाद का शिकार वर्ग। ये वर्ग सांस्कृतिक पावर को स्थापित करने में सबसे बड़ा रोड़ा है।

इस तरह से यदि हम गौर करे तो हम पाते है कि भारत के सामाजिक व्यवस्था में तीन वर्ग सामने आये है। पहला वर्ग है - अत्याचारी मनुवादी वैदिक ब्रामणी लोगो का वर्ग / मनुवादी वर्ग / ब्रम्णवादी वर्ग। दूसरा वर्ग है - मनुवाद का शिकार वर्ग। तीसरा वर्ग है - अम्बेडकरवादी वर्ग। 

साथियों,
मनुवादी वर्ग वो वर्ग है जो खुलेआम वैदिक ब्राह्मणी अत्याचारी व्यभिचारी जातिवादी और छुआछूत की व्यवस्था में पूरी तरह से आस्था रखते हुए अपने निजी व सामाजिक जीवन में इन कुकर्मों का पूर्णतः पालन करता है इस वर्ग में अधिकतर ब्राह्मण, क्षत्रिय, बनिया वर्ग और कुछ हद तक ओबीसी की स्वघोषित उच्च जातियां आदि शामिल है। इस वर्ग की तादात तकरीबन २५-३० प्रतिशत है। 

इसके बाद दूसरा वर्ग है - मनुवाद के शिकार लोगों का वर्ग इसमें वो लोग आते है जो अपने सामाजिक जीवन में ब्राह्मणवाद की बुराइयों की निंदा करते है, आन्दोलन भी करते है, अम्बेडकरवाद का साथ देने की बात करते है। यही तक नहीं, ये अपने आपको आंबेडकरवादी कहते और समझते है लेकिन अपने निजी जिंदगी में ब्राह्मणवाद के हर कर्मकांड का पूर्णतः पालन करते है जैसे कि मनुवादी लोग करते है। इस वर्ग में लोवर कास्ट की अन्य पिछड़ी जातियाँ, कुछ हद तक दलित और जनजातिया आती है जिनकी तादात तकरीबन ४५-५०% है।

तीसरा वर्ग है अम्बेडकरवादियों का। इस वर्ग में वे लोग आते है जो मानवीय इतिहास, मानवता और इसके विकास का अध्ययन कर समाज में फैली अत्याचारी, व्यभिचारी, निकृष्ट हिन्दू मान्यताओं परम्पराओ और रीति-रिवाजो का अपने सामाजिक और निजी जीवन में पूर्णतः तिरस्कार कर तर्कपूर्ण, वैज्ञानिकता से ओतप्रोत स्वतंत्रत समता और बंधुत्व पर आधारित मानवतावादी समाज के सृजन के लिए सतत प्रयासरत है।  

साथियों,
दूसरे वर्ग यानि कि मनुवाद के शिकार वर्ग और तीसरे वर्ग यानि कि अम्बेडकरवादी वर्ग मिलकर शासकीय पॉवर तो हासिल कर लिया लेकिन सांस्कृतिक पॉवर की लड़ाई सिर्फ तीसरा वर्ग ही लड़ रहा है। शासकीय पावर को पाने में जहाँ मनुवाद के शिकार लोगों ने अम्बेडकरवादियों का साथ दिया वही दूसरी तरफ सॉफ्ट पॉवर यानि की सांस्कृतिक पावर के संघर्ष में मनुवादी का शिकार वर्ग ही सबसे बड़ा रोड़ा बनकर खड़ा है। यही दूसरा वर्ग है जिसके वजह से चंद मुठ्टी भर ब्राह्मणों के धर्म का धंधा चल रहा है, अन्धविश्वास की दुकान चल रही है, यही वह दूसरा वर्ग है जो ब्राह्मणों की जाति व्यवस्था को नेस्तनाबूद करने के बजाय खुलकर जाति व्यवस्था को बढ़ावा दे रहा है, यही वह दूसरा वर्ग है जो हिन्दू धर्म की पालकी को अपने कंधे पर लेकर चल रहा है, यही दूसरा वर्ग है जिसकी वजह से अम्बेडकरवादियों का शासकीय पावर भी पूरी तरह से परवान नहीं चढ़ पा रही है। यही दूसरा वर्ग है जो बात तो आंबेडकर और समतामूलक समाज की करता है लेकिन अत्याचारी, व्यभिचारी, निकृष्ट भेद-भाव पूर्ण हिन्दू धर्म के लिए अपने मूलनिवासी भाई-बंधुओं का सर कलम करने को तैयार रहता है। यदि आप भारत के साम्प्रदयिक हिंसा पर गौर करे तो आप पायेगें कि  यही वो वर्ग है जो हिंसा में सबसे आगे रहता है। फिर चाहे वो हिंसा मुस्लिमो के खिलाफ हो, जनजतियों के खिलाफ हो या फिर अम्बेडकरवादियों दलितों और जम्बारो के खिलाफ हो। 

साथियों,
यदि ये दूसरा वर्ग अपने इतिहास और अपने वज़ूद को समझ जाये तो हमें निकृष्ट ब्राह्मणी हिन्दू धर्म और इसकी सामाजिक व्यवस्था को नेस्तनाबूद करने में कोई समय नहीं लगेगा। यदि ये दूसरा वर्ग अपने कथनी को अपनी करनी बना ले तो हिन्दू धर्म और इसकी सामाजिक व्यवस्था के दिन गिने चुने है। इसके लिए जरूरी है सांस्कृतिक पावर को स्थापित करने की। 

साथियों,
अपनी सांस्कृतिक पावर को स्थापित करने के लिए आपको सबसे पहले दूसरों के संस्कृतियों को छोड़ना पड़ेगा, उनके धर्म का परित्याग करना होगा, उनके मंदिरों को त्याग दो, उनके भगवानों का तिरस्कार करों, उनकी रीति-रिवाजों का त्याग करों, ढोंग और अमानवीय कर्मकांडों को त्याग दो, दुर्गापूजा, गणपतिपूजा, दशहरा, दीवाली, होली, रक्षबंधन, शिवरात्रि और अन्य सभी हिन्दू त्यौहारों का बहिष्कार करों, किताबो से नाता जोड़ लो, अपने इतिहास को जान लो, बाबा साहेब की २२ प्रतिज्ञायों को अपने निजी जीवन में उत्तर लो, शादी-विवाह जैसे अवसरों पर ब्राह्मणों का बहिष्कार करों और मानवधिकारों के जीने के लिए संविधान और बाबा साहेब को ही अपना ग्रन्थ बना लो, आपके त्यौहार है रैदास जयंती, आंबेडकर जयंती, फुले जयंती, काशीराम जयंती, बुद्धा जयंती, मनुस्मृति दहन दिवस, संविधान दिवस, गणतंत्र दिवस इत्यादि। हिन्दू धर्म, इसके त्यौहारों और इसकी व्यवस्था के परित्याग और अपने महापुरुषों की जयंती मनाने और उनकी शिक्षाओं पर अमल ही हमारी संस्कृति को पुनः स्थापित कर सकती है। 

इसलिए आगे बढ़ो, उखाड़ फेकों हिन्दू धर्म को, इसकी परम्पराओं को, बहिष्कार करो इसके त्यौहारों का, परित्याग करों इसकी विषमतावादी सामाजिक का इसी में आपका वज़ूद है, आपकी अस्मिता है, सम्मान है, स्वाभिमान है। यही आपके सांस्कृतिक पावर का रास्ता है जिसकी बदौलत भारत में विषमतावादी व्यवस्था को नेस्तनाबूद कर समतामूलक समाज का सृजन होगा। 

जय भीम, जय भीम भूमि की॥ 

रजनी कान्त इन्द्रा

सितम्बर ११, २०१६