Friday, August 23, 2019

जाति उन्मूलन के सन्दर्भ में बहुजनों के ज़हन में उठते सवाल


एक बहुजन युवा का सवाल हैं कि दलितों के अंतर्गत आने वाली जातियां आपस में सामाजिक रूप से शादी क्यो नही करतीं हैं? क्या दलित मनु के बनाए नियमों को सही मानते हैं? जाति खत्म क्यूँ नहीं हो रहीं हैं? बहुजन युवाओं के ज़हन में उठ रहें ऐसे सवाल बहुजन युवाओं की समाज के प्रति जारूकता और उनकी चिंता को बयां करता हैं। ऐसे सवालों का बहुजनों के ज़हन में उठाना सुखद हैं। रहीं बात बहुजन युवा के सवाल की तो इस सवाल का जबाब बाबा साहेब अपनी पुस्तक "एन्हीलेशन ऑफ़ कास्ट" में दे चुके हैं।

फ़िलहाल हमारा मानना हैं कि समाज की रीति-रिवाज व परम्परायें समाज के सामाजिक व्यवस्था के सर्वोच्च पायदान पर बैठे लोगों द्वारा शुरू की जाती हैं। यदि समाज पर काबिज़ किसी रीति-रिवाज व परम्परा या पूरी व्यवस्था को आसानी से खत्म करना है तो ये उन्हीं लोगों द्वारा ही ख़त्म की जा सकती हैं जिन लोगों ने इसकी शुरुआत की हैं, जिनकी अगुवाई इन रीति-रिवाजों, परम्पराओं और खुद उस व्यवस्था का पालन-पोषण हुआ हैं। लेकिन अहम् सवाल यह हैं कि जाति व्यवस्था के चलते इससे सहस्त्राब्दियों से लाभान्वित होने वाला वर्ग इस जाति व्यवस्था को खत्म क्यों करना चाहेगा? यहीं वजह हैं कि समाज के सामाजिक व्यवस्था के सर्वोच्च पायदान पर काबिज़ लोगों द्वारा कभी इसके खिलाफ कोई आन्दोलन नहीं चलाया गया। आधुनिक भारत के इतिहास के स्वघोषित नायक राममोहन राय, ईशवरचंद, करमचंद गाँधी, नेहरू, पटेल आदि ने भारत के बदन में हर को जकड़े जाति रुपी कैंसर के खिलाफ कोई आन्दोलन क्यूँ नहीं किया? इन्होंने आज तक जितने भी अनसन आदि किये हैं वो सब ब्राह्मणवाद की जड़ों को मजबूत करने के लिए ही किया हैं। अंग्रेजों के खिलाफ इनकी जंग का उद्देश्य भारत हो रहें सामाजिक सुधर को रोकना था, शूद्रों-अछूतों को मिलने वाली सहुलितों से, शिक्षा के हक़ से इनकों दूर कर वर्णव्यवस्था, जातिव्यवस्था, ब्राह्मणी हिन्दू धर्म और संस्कृति को पुनः स्थापित करना था। यहीं वजह थी कि आज तक कभी भी किसी सवर्ण नेता ने जातिव्यवस्था के खिलाफ कोई आन्दोलन तो दूर, अनसन तक नहीं किया हैं।

यहाँ हमारे कहने का ये कतई मतलब नहीं हैं कि जाति के उन्मूलन के सन्दर्भ में बहुजन हाथ पर हाथ धरे बैठा रहें, और समाज के सामाजिक व्यवस्था के सर्वोच्च पायदान पर काबिज़ लोगों की राह देखता रहें क्योंकि सामाजिक व्यवस्था के सर्वोच्च पायदान पर बैठा जो समाज देश के जातिगत आकड़े तक जारी करने से खौफ खाता हैं उससे जाति उन्मूलन की उम्मीद पूरी तरह से नासमझी ही होगी। हमारे कहने का आशय यह हैं कि जो संस्कृति बहुजन लोगों के ज़हन में सदियों से नहीं, बल्कि सहस्त्राब्दियों से हुकूमत कर रहीं हैं उस संस्कृति को चंद पलों या एक सदी में आसानी ध्वस्त नहीं किया जा सकता हैं। ये सामाजिक व्यवस्था के बदलाव की बात हैं। ये कोई घटना नहीं हैं जो एक झटके में घटित हो जाय। सामाजिक परिवर्तन लम्बे दौर में मुक़ाम तक पहुँचाने वाली सतत प्रक्रिया हैं। सहश्त्राब्दियों में बनी जातिव्यवस्था को पलों में ध्वस्त नहीं किया जा सकता हैं क्योंकि ये व्यवस्था लोगों के जहन में बसती हैं, उनकी जीवन-शैली का हिस्सा बन चुकी। इसलिए इस जातिव्यवस्था के उन्मूलन के लिए समाज में सतत जागरूकता व बुद्ध से लेकर बहनजी तक के सभी बुद्ध-रैदास-कबीर-अम्बेडकरी महानायकों-महनायिकाओं के जीवन संघर्ष से प्रेरणा लेकर उनके कृत्यों, संदेशों और समता-स्वतंत्रता-बन्धुत्व-करुणा-मैत्री पर आधारित सामाजिक सृजन के लक्ष्य को हर बहुजन के जहन तक पंहुचना होगा।

इस संदर्भ में बहुजन युवा का सवाल उसकी जागरूकता को परिलक्षित करता हैं। उसकी ही तरह आज बहुजन समाज भी ये सवाल कर रहा हैं। आज के ऐसे सामाजिक मुद्दे से जुड़ें सवालों का अम्बार ही कल उस मनुवादी व्यवस्था को हमेशा के लिए ध्वस्त कर देगा जिसने सहस्त्राब्दियों से देश की बहुजन जनता को अपनी गुलामी की गिरफ्त में समेट रखा हैं। इसके लिए हम सब को ही आगे आना होगा।

हमारा स्पष्ट मानना है कि जाति व्यवस्था पर खुली चर्चा होनी चाहिए। जाति व्यवस्था पर खुली राजनीति होनी चाहिए। जाति व्यवस्था भारतीय समाज की सबसे कड़वी सच्चाई है, इसका भारत की जीवन-शैली के हर क्षेत्र के हर पायदान पर स्थापित सर्वोच्च स्थान है! इसलिए जाति को नजरअंदाज करके भारत को समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व पर आधारित भारत नहीं बनाया जा सकता है! इसलिए जाति पर चर्चा होनी चाहिए, विमर्श जारी रहना चाहिए, और कैंसर रूपी जाति पर खुली राजनीति होनी ही चाहिए! ध्यान देने योग्य बात हैं कि जाति को यदि खत्म करना है तो जाति की राजनीति करनी ही पड़ेगी!

हमारा स्पष्ट मत हैं कि जाति रूपी कैंसर के इलाज के लिए राजनीति रूपी डॉक्टर की सख्त ज़रूरत है! जब भारत पूरी की पूरी सामाजिक व्यवस्था जाति पर आधारित है तो राजनीति में जाति वाले मुद्दे पर राजनीति करने से परहेज क्यों किया जाय! जाति को राजनैतिक मुद्दा बनाया जाय, जाति की राजनीति की जाय, इसी में जातिवाद का स्थायी इलाज मतलब कि  जाति का उन्मूलन निहित है! जाति पर चर्चा, विचार-विमर्श जाति व जातिव्यवस्था को कमजोर करती हैं। इसलिए ब्राह्मण-सवर्ण जाति के मुद्दे से कतराते हैं। ठीक यही स्थिति कुछ स्वघोषित बहुजन बुद्धिजीवियों का भी हैं। ये स्वघोषित बहुजन बुद्धिजीवी ब्राह्मणों-सवर्णों से ज्यादा घातक हैं। ये बहुजन बुद्धिजीवी अपने को बहुजनों से ज्यादा विद्वान समझते हैं लेकिन खुद को हमेशा ब्राह्मणों-सवर्णों से कमतर आंकते हैं इसलिए उनके मुख से प्रशंसा, पुरस्कार और पारितोषिक पाने के लिए ब्राह्मणी व्यवस्था व इसके पैरोकारों से जिरह करने के बजाय अपने ही बहुजन समाज को दोष देते रहते हैं। हमारा सवाल स्पष्ट हैं कि जब भारत पूरी की पूरी सामाजिक व्यवस्था जाति पर आधारित है तो राजनीति में जाति वाले मुद्दे पर परहेज क्यों किया जाय?

आज तक की ब्राह्मणी सरकारों ने भारत की सबसे खतरनाक बीमारी (जाति) को खत्म करने के लिए कोई कार्य नहीं किया हैं। ब्राह्मणी रोग से ग्रसित रोगी जाति व जातिव्यवस्था को मुद्दा मानते ही नहीं हैं। इसलिए ये बहुजनों की जिम्मेदारी बनती हैं कि बहुजन समाज के लोग जाति व जातिव्यवस्था को राजनीति का मुद्दा बनाये, जाति व जातिव्यवस्था पर चारों तरफ चर्चा हो, इसके दुष्प्रभाव पर पान की दुकान से लेकर पार्लियामेंट तक विमर्श हो। जाति व जातिव्यवस्था पर मुद्दा इतना गर्म कर दो कि हुकूमत सोचने पर मजबूर हो जाय, न्यायपालिका के बहरे जजों की कान के पर्दे फट जाय, ब्राह्मणी रोगी खुद अपने इलाज़ के लिए दौड़ लगाए। याद रहें, लोकतंत्र में मुद्दे वही सुने जाते है जो पब्लिक चाहती हैं।

 परिवर्तन की लड़ाई हैं, लम्बी चलेगी इसलिए निराश होने की जरूरत नहीं हैं। याद कीजिये, जब बाबा साहेब ने आन्दोलन की शुरुआत की थी तो ऐच्छिक सफलता नहीं मिल पायी थी लेकिन कुछ समय बीता ही था कि बाबा साहेब के वैचारिक वारिस मान्यवर साहेब व बहनजी ने भारत के राजनीति की छाती पर ऐसा कदल-ताल किया कि भारत में राजनीति की दिशा और दशा ही बदल गयी।

इसलिए याद रहें,
बीमारी जितनी पुरानी हैं, उसके इलाज का समय भी उसके ही अनुपात में लगेगा। निराश होने वाली कोई बात नहीं हैं, ना ही किसी नकारात्मकता के जरुरत हैं, बस लोगों को अपने बहुजन महानायकों-महनायिकाओं के जीवन संघर्ष से जोड़िये, पढ़ने के लिए प्रेरित कीजिये जिससे कि बहुजन युवा बहुजन समाज बेचने वाले आर्मियों/सेनाओं और अन्य उन्मादियों के आगोश में सहमकर अपनी जान ना गवायें। बहुजन युवाओं की जान कीमती हैं। जागरूक हो, जागरूक करें। साथ चलें, आगे बढ़ें, और बढ़ते ही रहें। समाज बदलेगा, बदलाव दिखेगा जैसे कि पिछले तीन दशकों पर गौर करें तो हम सिर्फ बदलाव ही नहीं, समाज की जीवन-शैली में अमूल-चूल परिवर्तन भी पाते हैं।
-------------------------------रजनीकान्त इन्द्रा----------------------------------


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