Saturday, August 3, 2019

बहुजन साहित्य - बहुजन आन्दोलन का एक अहम् अंग

किसी भी आन्दोलन को आगे जाने में साहित्य का बहुत बड़ा योगदान होता हैं। बहुजन समाज में रैदास, कबीर, दादू जैसे संतों की वाणी ने जहाँ समाज में सामाजिक परिवर्तन की लौ को जलाये रखा तो आज के समय में फुले-बाबा साहेब ने हमें समाज को देखने-समझने का एक नया नजरिया दिया। मान्यवर साहेब और बहन जी ने बाबा साहेब के सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलन को एक नयी ऊँचाई तक पहुंचा दिया हैं।

हम देखे तो हम पाते है कि बहुजन समाज कवियों, साहित्यकारों, चित्रकारों, कलाकारों, लेखकों, नेताओं, विचारकों और बुद्धिजीवियों की खान हैं। बस, यदि कमी हैं तो उनके लेखन और वैचारिकी को सुसंगठित रूप से सुसज्जित कर समाज के सामने लाने की, किताब के पन्नों में दर्ज कर एक सूत्र में पिरोने की। बहुजनों के सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलन, देशसेवा, आजादी, शिक्षा और सभी सृजनात्मक कार्यों को समुचित तरीके से डॉक्युमेंटेड नहीं किया जा सका हैं। यदि कुछ पुराने दस्तावेज़ और लिखित सामग्री हैं भी तो वो बहुजन प्रकाशन ना होने की वजह से प्रकाशित नहीं पाया हैं, जद्दोजहद के बाद यदि कुछ प्रकाशित भी हुआ हैं तो वह ब्राह्मणी आतंकवाद और ब्राह्मणी सरकारों द्वारा लगाई गयी बंदिशों के चलते बाजार तक नहीं पहुंच पाया हैं। इस तरह के तमा उदहारण हैं जैसे - बाबा साहेब द्वारा लिखित सुप्रसिद्ध किताब "हिन्दू धर्म के रिडल्स" और ललई यादव द्वारा लिखित सच्ची रामायण आदि।  

आप देखिये जहाँ सवर्णों का एक फिरका लगातार उनके हितों के लिए बहुजनों के हकों की बलि चढाने वालों या चढ़ाने का प्रयास करने वालों की सकारात्मक छवि लगातार गढ़ रहा हैं, और उन्हें देशहित का आइकॉन के रूप में स्थापित करने में लगा हुआ हैं, वहीँ दूसरी तरफ सवर्णों का दूसरों फिरका बहुजन महानायकों और महानायिकाओं की छवि को धूमिल करने, मिटने और नकारात्मक करने में पूरी सिद्दत से लगा हुआ हैं। सवर्णों के वर्चश्व के लिए बहुजनों के हकों की हत्या करने वालों की सकारात्मक छवि गढ़ने वाला फिरका जहाँ एक तरफ गाँधी, बिनोवा भावे, गोडसे, राजेंद्र प्रसाद, श्यामा प्रसाद मुखर्जी, दीनदयाल उपाध्याय, राममोहन रॉय, ईश्वर चंद्र विद्या सागर, गोलवलकर, अटल बिहारी बाजपेयी आदि को ब्राह्मण-सवर्ण समाज ने देश का आदर्श बना दिया हैं, वहीँ दूसरी तरफ बहुजन महानायकों और महानायिकाओं की छवि को धूमिल करने, मिटने और नकारात्मक रूप देने वाले फिरके ने बुद्ध को विष्णु का अवतार बनाने में लगभग सफल हो गया हैं, बाबा साहेब को दलितों का भगवान् बनाकर जहाँ बाबा साहेब के कद को दलितों तक सीमित कर संकुचित करने में सफल हुआ हैं, वहीँ दूसरी बाबा साहेब के भगवाकरण की लगातार जद्दोजहद कर रहा हैं, मान्यवर काशीराम और बहन जी को सिर्फ दलितों का नेता साबित करने में लगा हुआ हैं, रैदास, कबीर आदि के इतिहास को चमत्कार और ब्राह्मणवाद से जोड़ने में कोई कसार नहीं छोड़ा हैं।

साहित्य और बाजार के लिहाज़ से देखे तो इस सन्दर्भ में, हमारा बहुजन समाज अभी भी बहुत पीछे हैं। हालाँकि बहुजनों ने अपने महानायकों और महनायिकाओं को पहचान तो लिया हैं लेकिन साहित्य लेखन, प्रकाशन व पाठन के चलते समस्या पैदा हो रहीं हैं। यदि कुछ साहित्य, जीवनी, कविता आदि प्रकाशित भी हो जाती हैं तो उसके पाठक का ना होना भी बहुजन आन्दोलन के साहित्यिक पक्ष को पीछे ले जाने अपनी भूमिका अदा कर रहा हैं। बहुजन समाज के लोगों को अपने महानायकों, महनायिकाओं को साहित्य में स्थान दिलाना ही होगा। बहन जी, फूलन देवी, झलकारी बाई, उदा देवी, पेरियार नैयाकर, मान्यवर साहेब, फुले, शाहू, बाबा साहेब, उधम सिंह, मतादीन जी, झलकारी बाई, उदा देवी, उधम सिंह, सिद्धू-कान्हा, पीताम्बर-नीलांबर, टंटैया मामा, महंगूराम, रामचेत, बिरसा मुण्डा आदि की छवि को कविता, लघुकथा, नाटक, एकांकी, आदि के माध्यम से साहित्य के पटल पर उतरना ही होगा। याद रहें, नायक बनते नहीं बनाये जाते हैं। नायक पैदा नहीं होते, गढ़ें जातें हैं। किसी भी आन्दोलन की सफलता में आन्दोलन के नायक, उनके संदेशों को बयां करने वाले उस समाज के साहित्य का बहुत महत्वपूर्ण स्थान होता हैं। साहित्य द्वारा ही बहुजन महानायकों और महनायिकाओं की छवि, उनके कृत्य, उनके सन्देश को लोगों तक पहुंचाया जा सकता हैं। जिसके परिणामस्वरूप आने वाली नश्लों को आसानी उनके इतिहास से जोड़ा जा सकता हैं, जो आने वाले भविष्य के लिए एक बेहतरीन भारत के सृजन में निर्णायक होगा।

--------------------------------------------रजनीकान्त इन्द्रा-----------------------------------------------------

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