Tuesday, August 20, 2019

लोहिया और उनके "राइट टू रिकॉल" की मंशा

“दुनिया के अनेक देशों में "राइट टू रिकॉल" का प्रावधान हैं। ये प्रावधान सामजिक-सांस्कृतिक तौर पर भेदभावरहित व छोटी जनसंख्या वाले समाज व देश में कारगर साबित हो सकता हैं, कुछ जगह हुआ भी हैं, लेकिन भारत जैसे नारीविरोधी-सनातनी-मनुवादी-वैदिक-ब्राह्मणी-हिन्दू सामाजिक व्यवस्था व हजारों फिरके में बटें विशालकाय जनसँख्या वाले देश में ये प्रावधान, फ़िलहाल, पूरी तरह से अव्यवहारिक ही हैं। फिर भी यदि डॉ लोहिया की मंशा के अनुरूप ये प्रावधान भारत में लागू हो जाता तो इसकी मार सिर्फ और सिर्फ दलित-आदिवासी-पिछड़े-अल्पसंख्यक बहुजनों के नेतृत्व पर ही पड़ती।
 सनद रहें, जिस समाज में बाबा साहेब से लेकर बहन जी तक के इतने अथक परिश्रम के बावजूद सामाजिक ताने-बाने के चलते दलित-आदिवासी-पिछडे-अल्पसंख्यक बहुजनों को "राइट टू वोट" तक का इस्तेमाल करने के लिए तकलीफ उठानी पड़ती, जद्दोजहद करनी पड़ती हैं, पुलिस के साथ-साथ अपराधी जातियों के लोगों की मार तक खानी पड़ती हैं, उस समाज में आज से पचास साल पहले डॉ लोहिया की "राइट टू रिकॉल" कितना व्यवहारिक था? यदि डॉ लोहिया की मंशा के अनुरूप "राइट टू रिकॉल" का ये प्रावधान लागू हो जाता तो सबसे पहले भी और सबसे अंत में भी दलित-आदिवासी-पिछडे-अल्पसंख्यक बहुजन सासंद-विधायक ही वापस बुलाये जाते! यदि ना विश्वास हो तो न्यायपालिका पर गौर कीजिये जहां पर न्यायपालिका में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ आवाज़ बुलंद करने के लिए "कंटेम्प्ट ऑफ कोर्ट" के शिकार माननीय जस्टिस कर्णन ही होते हैं जबकि उसी तरह के मुद्दे पर प्रेस कांफ्रेस करने वाले एक जज सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश बन जाते हैं तो बाकी तीन जज ससम्मान सेवानिवृत्ति होकर शान से जी रहें हैं! इसलिए बहुजनों को जरूरत है कि आप सामाजिक व्यवस्था व आपके जीवन के हर कदम पर इसके दुष्प्रभाव को समझे़! सनद रहे, आपका कल्याण आपके ही बहुजन नेतृत्व द्वारा हो सकता है, किसी ब्रहम्ण-क्षत्रिय-वैश्य नेतृत्व द्वारा नहीं! इसलिए मौजूदा भारत की जातीय संरचना व जातीय भेदभाव वाले समाज में डॉ लोहिया के "राइट टू रिकॉल" की मंशा बहुजन नेतृत्व की हत्या करना मात्र ही था।
-----------------------------रजनीकान्त इन्द्रा-------------------------

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