Wednesday, August 21, 2019

कॉपी चेक करते समय कैसे पता लगा लिया जाता हैं कि कौन किस कैटेगरी/जाति का है?

बात उस समय की हैं जब हम लखनऊ विश्वविद्यालय से एलएलबी की पढाई कर रहें थे। द्वितीय सेमेस्टर के संविधान (Constitutional Law) के पेपर में हमें १७/१०० मार्क्स मिले थे। हम ही नहीं हमारे दोस्त भी चकित थे कि रजनीकान्त इन्द्रा के इतने मार्क्स कैसे आ सकते हैं? सब यहीं कह रहे थे कि संविधान रजनीकान्त का पसंदीदा विषय है, इसी के लिए रजनीकान्त ने एलएलबी में प्रवेश लिया था, और इसी में फेल हो गये। फ़िलहाल, कारण पांचवें सेमेस्टर तक समझ नहीं आया। दुबारा परीक्षा दिया, और ६०/ १०० मार्क्स से उत्तीर्ण हुए।
इसके पश्चात् पांचवें सेमेस्टर के Women and Law Relating to Children के पेपर में भी इसी तरह की दुर्घटना घटी। चूँकि परीक्षा महिला और बच्चों से जुड़ें अधिकारों सम्बंधित था और सवाल भी ऐसा था की इस संदर्भ में मूलभूत अधिकारों के संदर्भ बाबा साहेब का जिक्र आवश्यक ही था। हमने सवालों का उत्तर दिया। लेकिन जब परिणाम आया तो हमें सिर्फ और ३५/१०० मार्क्स मिले। हम एक फिर निराश व चकित थे। इसके पश्चात् जब हमने कॉपी जॉचते समय जातिगत भेदभाव का आरोप लगाया तो हमारे दोस्तों को हमारी बात पसंद नहीं आयी! उनका तर्क था कि जब कॉपी पर सिर्फ रोल नम्बर होता है तो प्रो. कैसे पता चलेगा कि कौन किस जाति का है?

दोस्तों के मुखारबिंदु से ऐसी बात सुनते ही हमने मुद्दे को बदल दिया, और कुछ समय बाद अपने दोस्तों से बाबा साहेब के संदर्भ में कुछ बोलने के लिए कहा! चूँकि परीक्षा लॉ की थी तो महिला और बाल अधिकारों समेत मूलभूत अधिकारों के संदर्भ में सवाल पूछा गया था! सबने लगभग जो लिखा, हमारे पूछने पर एक-दो लाइन में वहीं बोला!
 ब्रहम्ण दोस्त ने कहा - अम्बेडकर के अनुसार......
पिछड़े वर्ग के दोस्त ने कहा - डॉ अम्बेडकर के अनुसार.....
हमने (दलित) कहा - बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के अनुसार.....
उनके बोले लफ्जों का हवाला देते हुए हमें कहा कि किसी के प्रति आपकी भाषा उस इन्सान के प्रति आपकी सोच को बयां करती हैं। आपकी ये सोच उस इन्सान के प्रति आपके मन में मौजूद सम्मान और नफरत को बयां करती हैं। इन्सान की ये सोच ना सिर्फ उसकी बोल-चाल की भाषा साफ-साफ झलकती हैं बल्कि उसकी लिखावट और लेख तक में भी स्पष्ट तौर पर दिखाई पड़ती हैं।  
इसके पश्चात हमने कहा कि ब्रहम्ण बाबा साहेब से सख्त नफ़रत करता हैं, इसलिए ब्राह्मण-सवर्ण कभी भी सम्मान से बाबा साहेब का नाम ना तो बोल ही सकता है, और ना ही लिख सकता है! इसलिए ब्रहम्ण दोस्त ने कहा - अम्बेडकर के अनुसार....
मान्यवर साहेब, बहन जी के साथ अन्य बहुजन नेतृत्व के संघर्षों के परिणामस्वरूप मण्डल आयोग की सिफारिशों के चलते पिछड़े वर्ग को मिले आरक्षण के कारण पिछड़ी जातियों में कुछ जागरूकता आयी हैं। इसलिए पिछड़ी जातियों के ये जागरूक लोग बाबा साहेब व उनकी समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व पर आधारित मानवता वाली वैचारिकी की तरफ उन्मुख हो रहे हैं। इसलिए ये लोग बाबा साहेब का थोडा-बहुत सम्मान करते हैं! इसलिए पिछड़े वर्ग के दोस्त ने कहा - डॉ अम्बेडकर के अनुसार....
लेकिन जहॉ तक रही बात दलितों की तो वे "अम्बेडकर" शब्द बोलें या ना बोलें लेकिन "बाबा साहेब" जरूर बोलते हैं, लिखते हैं! और, ये स्थापित सत्य हैं कि दलित (खासकर चमार/जाटव) बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा प्रतीक मानवतामूर्ति बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर को "बाबा साहेब" ही कहकर सम्बोधित करती हैं।
बाबा साहेब के प्रति अलग-अलग वर्गों का ये रवैया ना सिर्फ उनकी आम जिंदगी में शुमार हैं बल्कि उनकी आम बोलचाल की भाषा और उनकी लेखनी तक में स्पष्ट दिखाई पड़ती है! अब सवाल यह है कि यदि भाषा और लेखनी के आधार हम बतौर छात्र किसी की जाति या कैटेगरी से वाकिफ हो जाते हैं तो 20-25 साल से प्रोफेसरी कर रहा प्रोफ़ेसर क्या कॉपी जॉचते समय स्टूडेंट की लेखनी से उसकी जाति का पता नहीं लगा पायेगा? उत्तर सकारात्मक ही हैं। 
हालांकि हमने कॉपी देखने अर्जी डाली थी तो कुछ दिन बाद तय समय-सारणी के मुताबिक लॉ विभाग के एचओडी रहे प्रो. मिश्रा और उनके साथ दो अन्य सवर्ण प्रोफेसर्स की मौजूदगी में कॉपी का हमने अवलोकन किया। 
फ़िलहाल, कॉपी का अवलोकन कराने से पूर्व ही प्रो. मिश्रा ने नियम-शर्तों से हमें वाकिफ करा दिया कि यदि किसी प्रश्नोत्तर का मूल्यांकन नहीं हुआ तो वह हो जायेगा, यदि मार्क्स के योग में कोई गलती हैं तो वह सुधार दी जाएगी, लेकिन यदि प्रश्नोत्तरों का मूल्यांकन किया जा चुका हैं तो उसमे सुधार की कोई भी गुंजाइश नहीं हो सकती हैं, उनका पुनर्मूल्यांकन नहीं किया जा सकता हैं। 
हमने अपनी कॉपी को लगभग ५० मिनट उलट-पलट कर देखा, अपने प्रश्नोत्तरों बार-बार पढ़ा तब जाकर समझ आया कि नम्बर काम क्यूँ मिले हैं। इसके पश्चात् हमने प्रो. मिश्रा को अपनी देखने के लिए निवेदन किया। पहले तो नियम-शर्तों का हवाला देकर उन्होंने देखने से मना कर दिया लेकिन हमारे बार-बार निवेदन करने पर उन्होंने हमारी कॉपी का अवलोकन किया। हमारी कॉपी को कई बार उलटने-पलटने के पश्चात प्रो. मिश्रा ने कहा - सब तो सही लिखा है, लिखावट भी अच्छी है लेकिन नम्बर इतने कम कैसे हो सकते हैं? लगता है कि प्रो. ने कॉपी सही से जॉची नहीं या फिर! "या फिर" के बाद प्रो. मिश्रा जी कुछ नहीं बोले! उन्होनें कहा कि यदि मार्क्स बढ़ाना चाहते हो तो दुबारा परीक्षा दे दीजिए, मार्क्स बढ़ जायेगें.....लेकिन आप पास तो हो ही गये हो, अब इन चक्करों में पड़ने के बजाय आप हायर स्टडी की तरफ जाओं, आप सिविल सर्विसेज की तैयारी कीजिये! प्रो. के इस स्टेटमेंट ये साबित किया है हमारे प्रश्नोत्तर सही थे, और हमारे साथ जातिगत भेदभाव किया गया था! 
फ़िलहाल हमारे मार्क्स अच्छे रहें तो प्रथम श्रेणी में परिणाम तय था। इसलिए हमने दुबारा परीक्षा देकर मार्क्स बढ़ाने के बजाय अपनी मार्क्सशीट में वो अंक अंकित सुरक्षित रखना उचित समझा। हमारी मार्क्सशीट में दर्ज ये मार्क्स लखनऊ विश्वविद्यालय में हमारे साथ हुए जातिगत भेदभाव की कहानी बयां करता रहेगा। अंत में परीक्षा परिणाम आया, और ब्राह्मणों-सवर्णों व शूद्र ब्राह्मण रोगियों की तमाम जद्दोजहद के बावजूद हम लखनऊ विश्वविद्यालय से एलएलबी की परीक्षा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण किया।
याद रहें, जीवन के हर क्षेत्र के हर पायदान पर बाबा साहेब जैसे विद्वान के नाम का जब आज भी देश का ब्रहम्ण-क्षत्रिय-वैश्य-शूद्र समाज सम्मान से उच्चारण तक नहीं कर सकता है तो दलित-अछूतों पर अत्याचार व इनका अपमान तो इन चारों वर्णों का ब्रहम्णी धर्म है! इसमें चकित होने की कोई बात नहीं है!
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