Thursday, August 22, 2019

रैदास मंदिर नहीं, रैदास विहार कहा जाय

रोजमर्रा की जिंदगी में इस्तेमाल हो रहें शब्दों का अपना एक निहित मनोवैज्ञानिक एहसास होता हैं। किसी के प्रति आपकी भाषा उस इन्सान के प्रति आपकी सोच को बयां करती हैं। आपकी ये सोच उस इन्सान के प्रति आपके मन में मौजूद सम्मान और नफरत को बयां करती हैं। इन्सान की ये सोच ना सिर्फ उसकी बोल-चाल की भाषा साफ-साफ झलकती हैं बल्कि उसकी लिखावट और लेख तक में भी स्पष्ट तौर पर दिखाई पड़ती हैं। किसी वस्तु का नाम मात्र हमारे ज़हन में उस वास्तु के सारे गुण समेत उसकी तश्वीर हमारे ज़हन में उकेर देती हैं।
ठीक इसी तरह से मंदिर शब्द नारीविरोधी जातिवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म, व्यवस्था व संस्कृति का बोध कराती हैं। ये शब्द ही अपने आप में ब्राह्मणवाद व ब्राह्मणों सवर्णों द्वारा बहुजनों पर किये जा रहें अत्याचार, अनाचार, शोषण और हक़ हनन को बयां करता हैं। मन्दिर शब्द अपने आप में ब्राह्मणवाद का द्योतक हैं। मन्दिर अन्याय, अनाचार, व्यभिचार (देवदासी प्रथा), शोषण, जातिवाद, पाखण्ड और अमानवीयता का प्रतीक हैं। यहीं कारण हैं कि विद्यालय को विद्यामंदिर, न्यायलय को न्याय का मन्दिर कहा जाता हैं। ऐसी संस्थाओं में ब्राह्मणों-सवर्णों द्वारा परम्परा के तौर पर खुले आम बहुजनों का शोषण किया जाता हैं।
वहीँ दूसरी तरफ समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व का सन्देश देने वाले बुद्ध-अम्बेडकरी वैचारिकी में विहार शब्द का प्रयोग किया जाता हैं। विहार का सन्दर्भ आरामगाह, चिंतन-मंथन गृह, शिक्षा-शिक्षण, विचार-विमर्श के सन्दर्भ में किया गया हैं। ये शिक्षा, सदाचार, विचार और जान कल्याण हेतु बना केंद्र हैं जहाँ विद्वानजन शिक्षा-शिक्षण संबंधी कार्य करते हैं। कालान्तर में विहारों में सम्बंधित गुरुओं, संतों, नायकों-महानायकों-महानायिकाओं के सम्मान में आम जनमानस के प्रेरणा-स्रोत के तौर पर उनकी प्रतिमाओं की स्थापना की गयी। बड़े पैमाने पर ऐसी स्थापना की शुरुआत बुद्ध की मूर्तियों से की गयी हैं जिसके प्रमाण दुनिया के तमाम देशों में मौजूद बुद्ध प्रतिमाओं व बुद्ध-विहारों के अवशेषों से मिलता हैं।
भारत अमानवीय ब्राह्मणवाद के उदय के पश्चात् विहारों की प्रतिक्रिया के परिणामस्वरूप मंदिरों की परम्परा शुरू हैं। ये मन्दिर ब्राह्मणी व्यवस्था को समाज पर लागू करवाने के केंद्र के तौर पर स्थापित किये गए, और ये मंदिर आज भी ब्राह्मणवाद की परम्परा को जीवित ही नहीं कर रहें हैं बल्कि कदम-दर-कदम आगे बढ़ा रहें। ऐसे में जहाँ विहारों में शिक्षा-ज्ञान-विज्ञानं-अचार-विचार-समता-स्वतंत्र-बंधुत्व-करुणा-मैत्री आधारित वैचारिकी का प्रसार होता हैं वहीँ मन्दिरों में ढोंग-पाखण्ड-व्यभिचार-अत्याचार-ऊंच-नीच-दासता-वैमस्य का प्रसार होता हैं। जहाँ विहारों में लोग शिक्षा-ज्ञान-विज्ञान प्राप्त करने जाते हैं वहीँ मंदिरों में लोग मन्नते माँगने जाते हैं।
ऐसे में हमारा स्पष्ट मत हैं कि दलित-बहुजन परम्परा में दलित-बहुजन संतों-गुरुओं और अन्य सभी विचारकों, महानायकों-महनायिकाओं की कोई पूजा-भक्ति नहीं होती हैं, और ना ही किसी को करनी चाहिए। सभी दलित बहुजन संतों-गुरुओं-महानायकों-महनायिकाओं (बुद्ध-रैदास-कबीर-दादू-फूले-शाहू-अम्बेडकर-पेरियार-काशीराम-बहनजी आदि) ने हमेशा से पूजा-पाठ-भक्ति आदि विरोध ही किया हैं। इसी तरह से रैदास विहारों में कोई भक्ति नहीं होती हैं। यहाँ लोग अपने संत शिरोमणि संत रैदास जी के प्रति आदर-सत्कार सम्मान व्यक्त करते हैं। यहाँ संत शिरोमणि संत रैदास के विचारों की बात होती हैं। यहाँ लोग परस्पर विचार-विमर्श से ज्ञान प्राप्त करते हैं, या यूँ कहें कि ज्ञान करने जाते हैं। किसी भी दलित-बहुजन संत-गुरु-नायक-नायिका आदि के स्थल पर मन्नते माँगने नहीं जाते हैं, बल्कि लोग वहाँ अपने संतों-गुरुओं-नायकों-नायिकाओं के जीवन-संघर्ष से प्रेरणा लेने जाते हैं, विचार-विमर्श करने जाते हैं, शिक्षा-ज्ञान देने व प्राप्त करने जाते हैं। इसलिए बहूजाओं को अपने संतों-गुरुओं-नायकों-नायिकाओं के स्थलों को "मन्दिर" नाम देने के बजाय विहार नाम दिया जाना चाहिए, जैसे कि रैदास विहार, कबीर विहार, बुद्ध विहार, अम्बेडकर विहार, काशीराम विहार, पेरियार विहार, अशोक विहार, फुले विहार आदि।
इसलिए याद रहें,
मंदिरों और विहारों में प्रमुख अन्तर यह हैं कि मंदिरों में मन्नते माँगीं जाने की परम्परा हैं, जो कि ढोंग हैं, पाखण्ड हैं, अन्धविश्वास हैं, मूर्खता हैं, अमानवीय हैं, जबकि विहारों में शिक्षा-शिक्षण के परम्परा होती हैं जो कि सम्मानीय हैं, मानवीय हैं। दलित-बहुजन संत-गुरु-नायक-नायिका आदि के स्थल पर कोई मन्नत ना तो मांगीं जाती हैं, और ना ही मन्नतों के पूरी होने की कोई बात करता हैं। ये रैदास विहार, कबीर विहार, बुद्ध विहार, अम्बेडकर विहार, काशीराम विहार आदि "अपना दीपक खुद बनों" की ही वैचारिकी पर कार्य करते हैं, और मानवता-तर्क-ज्ञान-विज्ञानं पर आधारित वैचारिकी को जन-जन तक पहुंचाकर समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व की जीवन-शैली वाले समाज का सृजन कर रहें हैं।  


-------------------------------रजनीकान्त इन्द्रा----------------------------------



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