Sunday, April 5, 2020

कांग्रेस-बीजेपी-आप-कम्युनिष्ट आदि बहुजन की बात क्यों सुने

कांग्रेस-बीजेपी-आप-कम्युनिष्ट आदि बहुजन की बात क्यों सुने
पिछड़े वर्ग, दलित-आदिवादी और अल्प संख्यक समाज १९४७ से लेकर आज की कोरोना महामारी तक अपनी माँगों को पूरी होने की उम्मीद में ब्राह्मणी राजनैतिक दलों वोट करती आयी हैं। कांग्रेस-बीजेपी-आप-कम्युनिष्ट आदि ब्राह्मणी राजनैतिक दल आप की मांगों को क्यों माने? क्या ये आपकी वैचारिक पार्टी हैं? क्या ये आपकी अपनी पार्टी हैं? यदि नहीं, तो इन दलों को आपकी बात मानने का कोई नैतिक दायित्व बनता हैं। इन दलों में बैठे लोग, इन दलों के कर्ता-धर्ता वही लोग हैं जिन्होंने सदियों से आप शोषण किया हैं। क्या आपको अपने शोषक से अपने हित की उम्मीद रखनी चाहिए। फिलहाल, अपनी स्थिति की सही पड़ताल करने के बाद ही आप अपनी मदद के लिए तैयार हो सकते हैं। ये मदद आपको खुद ही करनी पड़ेगी। बाबा साहेब भी कहते हैं कि आपके पैरों की बेड़ियाँ आपको ही काटनी होगी। स्वयं की सहायता स्वयं ही स्वयं की सबसे अच्छी सहायता होती हैं। 
देश के बहुजन समाज को समझना होगा कि लोकतान्त्रिक व्यवस्था में वोट जनता के हाथ में सबसे अहम् अधिकार होता हैं। इसी वोट से सरकार बनायीं जाती हैं। इसी वोट से सरकार गिराई भी जाती हैं। लेकिन इस वोट का सही इस्तेमाल कैसे किया जाय, ये सबसे अहम् सवाल हैं। वोट के इस्तेमाल के सन्दर्भ में बात करने से पहले देश को लोकतंत्र की परिभाषा को समझना सबसे महत्वपूर्ण हैं।
लोकतंत्र के सन्दर्भ में अब्राहम लिंकन द्वारा दी गयी परिभाषा पूरी दुनिया में स्वीकृत हैं। लिंकन कहते हैं "लोगों द्वारा लोगों के लिए लोगों का शासन" ही लोकतंत्र हैं। इस सिद्धांत पर व्यवस्था को चलने के लिए इसके बहुत सारे अवयव हैं इसमें अन्तर्निहित हैं। लिंकन की ये परिभाषा सामान्यतः उन देशों उन्नत देशों के लिए हैं जहाँ पर सामाजिक-सांस्कृतिक गैर-बराबरी नदारद हैं। इसलिए लिंकन की ये परिभाषा भारत के न्याय नहीं करती हैं।
जैसा कि पहले भी हम कई लेखों में स्पष्ट कर चुके हैं कि सामाजिक और सांस्कृतिक सत्ता ही दीर्घजीवी सत्ता हैं। सामाजिक-सांस्कृतिक तौर जिनकी स्वतंत्र अस्मिता व स्वच्छंद पहचान हैं वही समाज सुरक्षित हैं। उसी का साहित्य हैं। उसी का इतिहास हैं। उसी की आर्थिक और राजनैतिक हस्ती और हैसियत हैं। उसी के हाथ में शासन-प्रशासन-संपत्ति और सम्पदा हैं। भारत में वह वर्ग कोई और नहीं बल्कि वहीं ब्राह्मण-सवर्ण ही हैं जो सदा से आपका शोषण करता आ रहा हैं। 
सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनैतिक सत्ता पर काबिज ब्राह्मणो-सवर्णों ने भारत के ८५ फीसदी आबादी वाले दलित-आदिवासी-पिछड़े बहुजन समाज की पहचान को दफ़न कर दिया गया था। फ़िलहाल बुद्ध-रैदास-फुले-अम्बेडकरी विचारधारा के वाहक पुरातत्व, कहानियों, कविताओं, नाटकों, लोकगीतों आदि पर शोध करते हुए लगातार अपनी अस्मिता, अपने इतिहास और अपनी संस्कृति को खोज रहें हैं। 
इतनी घोर गैर-बराबरी वाली ब्राह्मणी व्यवस्था में लिंकन के लोकतंत्र की परिभाषा न्याय कैसे कर सकती हैं। इसलिए भारत के सन्दर्भ में बाबा साहेब, संविधान के मद्देनज़र मान्यवर काशीराम साहेब की परिभाषा भारत के साथ-साथ दुनिया के सभी देशों के साथ न्याय करती हैं। लोकतंत्र को परिभाषित करते हुए मान्यवर साहेब की जुबान में इस तरह से कह सकते हैं -
जिसकी जीतनी संख्या भरी, उसकी उतनी भागीदारी।
मान्यवर साहेब की उक्त परिभाषा को ध्यान में रखते हुए हम कह सकते हैं कि देश के शासन-प्रशासन, सत्ता-संसाधन के हर क्षेत्र के हर पायदान में देश के हर तबके का समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी ही लोकतंत्र हैं। 
यहाँ पर समुचित का मतलब हैं जनसंख्या के अनुपात में। स्वप्रतिनिधित्व का मतलब हैं कि अपने समाज की नुमाइंदगी हम ही करेगें। आज भारत में जो प्रणाली लागू होती हैं उसके मुताबिक हमारा शोषक नेतृत्व  करता हैं। क्या पीड़ा देने वाला हमारे जख्म और हमारे दर्द को हमारे मुताबिक बयाँ कर सकता हैं? नहीं, बिलकुल नहीं। इसीलिए ही बाबा साहेब स्वतंत्र निर्वाचन क्षेत्र की माँग कर रहे थे। इस मांग को ब्रिटिश हुकूमत ने स्वीकार करते हुए देश के अछूत समाज को इस अधिकार से नवाज़ा भी लेकिन षड्यंत्र पूर्वक किये गए आमरण अनशन द्वारा गाँधी और कांग्रेस ने वंचित जगत के इस महत्त्वपूर्ण हक़ को छीनलिया। इसके बदले में दलितों-आदिवासियों को सुरक्षित सीटें तो मिली लेकिन उनके अपने नुमाइंदे मिलाने के बजाय वंचित जगत में चमचे (मान्यवर साहेब, चमचा युग) पैदा हो गये। जिसके चलते सुरक्षित सीटें होने के बावजूद भी वंचित जगत की भागीदारी निष्क्रिय हो गयी। 
हालाँकि कि संख्यात्मक तौर पर वंचित जगत की भागीदारी (सुरक्षित सीट के द्वारा) सदन में दिखती हैं लेकिन ये राजनैतिक आरक्षण वंचित जगत के हित में होने के बजाय ब्राह्मणो-सवर्ण के लिए हितकारी हैं। इसको इस बात से भी समझा जा सकता हैं कि ब्राह्मणों-सवर्णों ने शुरू से बहुजनों के सरकारी नौकरियों और स्कूलों में एडमिशन वाले आरक्षण का पुरजोर विरोश किया लेकिन वंचित जगत के राजनैतिक आरक्षण को चर्चा का विषय ही नहीं बनने दिया। बिना किसी समीक्षा के हर दस साल में उनकों अलगे दस साल के लिए बढ़ा दिया जाता रहा हैं। क्या कभी किसी ने ये जानना चाहा कि ऐसा क्यों हैं? ऐसे में आपके शोषक (ब्राह्मणो-सवर्णों) द्वारा बहुजन समाज के गैर-राजनैतिक आरक्षण का विरोध और राजनैतिक आरक्षण का खुला समर्थन ये बयां करता हैं कि वंचित जगत का गैर-राजनैतिक आरक्षण अपने मक़सद में कामयाब और राजनैतिक आरक्षण पूरी तरह से विफल हैं। क्योकि ये स्थापित सत्य हैं कि आपका शोषक आपका हितैषी कभी नहीं हो सकता हैं।
ऐसे में, दुनिया के हर देश में, भारत जैसे सामाजिक-सांस्कृतिक गैर-बराबरी वाले देश में विशेषकर, बाबा साहेब की मंशा के अनुरूप मान्यवर साहेब की परिभाषा पूर्ण न्याय करती हैं।
फिलहाल, अब हम अपने सवाल सवाल पर आते हैं कि कांग्रेस-बीजेपी-आप-कम्युनिष्ट आदि ब्राह्मणी राजनैतिक दल बहुजनों की मांग नहीं मानती हैं, तो क्यों। इस सन्दर्भ में अपने वोट का इस्तेमाल करने से पहले बहुजन समाज को विभिन्न राजनैतिक दलों की विचारधारा, उनकी फण्डिंग और दलीय संरचना को समझना होगा। 
यदि कांग्रेस को जानना चाहते हैं तो इतिहास गवाह हैं कि कांग्रेस शुरू से ही पूँजीपतियों द्वारा सँवारी और ब्राह्मणों-सवर्णों के हितों ले किए बनाया गया एक संगठन रहा हैं। बाद में बाबा साहेब की बुलन्द आवाज़ के परिणामस्वरूप में अपने आपको को अखिल भारतीय दिखने के लिए इसने जगजीवनराम जैसे लोगों को मौका जरूर दिया हैं। लेकिन ये मौका दलितों की नुमिन्दगी करने के लिए बल्कि दलितों की निष्क्रिय भेदारी को क्रियान्वति करने के उनके जैसे लोगों को शामिल किया हैं। मान्यवर साहेब की भाषा में कहें तो कांग्रेस ने उन्हें ही मौका दिया जो उनके चमचे बनकर रहें हैं। 
  मान्यवर साहेब अपनी किताब चमचा युग में चमचे का उसके समाज के सन्दर्भ में जो रिश्ता हैं उसको उजागर करते हुए कहते हैं कि चमचा एक सर्वाधिक जी-हुजूरी करने वाला चापलूस होता हैं। चमचे का इस्तेमाल उसके ही समाज के विरुद्ध किया जाता हैं। किसी चमचे को उसके अपने ही समुदाय के सच्चे और वास्तविक नेता को कमजोर करने के लिए इस्तेमाल किया जाता हैं।  
कांग्रेस के सन्दर्भ में चमचों को इस बात से भी समझा जा सकता हैं कि लगातार ५० साल तक राजनैतिक तौर पर सक्रिय रहने के साथ-साथ श्रम मंत्री, संचार मंत्री, रेल मंत्री, कृषि-सिचाई एवं खाद्य मंत्री, रक्षा मंत्री जैसे अहम् पदों पर कार्य करने के बावजूद भी बाबा साहेब के विरुद्ध कांग्रेस द्वारा खड़े किये गए जगजीवन राम को बहुजन समाज ने नुनकों ना सिर्फ नकार दिया बल्कि अपनी स्मृति से ही लगभग मिटा चुका हैं। इन्हीं की तर्ज़ पर आज भी बहुत सारे बहुजन समाज के लोग कांग्रेस में हैं लेकिन वो अपने समाज की नुमाइंदगी करने के बजाय अपनी समाज की भागीदारी को निष्क्रिय कर कांग्रेस के चमचे बनकर रह गए हैं। ऐसे जब बहुजन सामान के लोग निर्णायक भूमिका में नहीं हैं, बहुजन उत्थान कांग्रेस के संविधान में नहीं हैं तो कांग्रेस बहुजनों की कोई भी बात क्यों मानें। कुलमिलाकर, कांग्रेस बहुजन समाज के लिए मीठा जहर हैं, जिसका सेवन बहुजन समाज इसका परिणाम जानकार नहीं बल्कि इसके स्वाद के कारण करता आ रहा हैं। नतीजा, बहुजन समाज का शोषण। 
भाजपा की पैदाइश को जनसंघ से बताया जाता हैं। जनसंघ एक कट्टर हिन्दू राजनैतिक दल रहा हैं। इस जनसंघ की पैदाइस की मुख्य वजह कांग्रेस के खिलाफ विपक्ष को पैदा करना था। जनसंघ में वही लोग थे जो कांग्रेस में थे। बाद में, यही जनसंघ अपने मूल संविधान हिन्दुराष्ट्र और हिंदुत्व की संस्कृति के साथ ही भाजपा की बुनियाद बनकर नए रूप में सामने आती हैं। भाजपा क्रोनी कैपिटलिज़्म की घोर समर्थक हैं। इसकी फण्डिंग अडानी-अम्बानी जैसे घरानों से होती हैं तो ऐसे में वो क्रोनी कैपिटलिज़्म को ही बढ़ावा देगी, बजाय कि संविधान निहित समाजवाद को। हिन्दू महासभा,  आरएसएस, जनसंघ और भाजपा इन सबकी जननी कांग्रेस ही हैं। इनकी विचारधारा मनुस्मृति को लागू करना हैं। इनका मक़सद वर्तमान में बाबा साहेब रचित संविधान को ध्वस्त कर ब्राह्मणी व्यवस्था को स्थापित करते हुए वर्ण व्यवस्था को अमलीजामा पहनाना हैं। इसीलिए इनकी कार्यकारणी और निर्णायक पदों पर चितपावन ब्राह्मण ही पदस्थापित रहते हैं। इस दल में बहुजनों को चमचागिरी के लिए जगह मिल सकती हैं लेकिन सारि नीतियां नागपुर के चितपावन ब्राह्मणों के द्वारा ही तय होती हैं। वही उसके असली मालिक और निर्णायक हैं। ऐसे में भाजपा बहुजनों की बात क्यों माने। भाजपाके पास कोई मजबूरी नहीं हैं, और ना ही कोई वजह हैं जिसके बिनाह पर कोई बहुजन उनकों अपनी बात मानने पर मजबूर कर सकें। ये बहुजन समाज का वो शत्रु हैं जो सामने दिखाई देता हैं। भाजपा बहुजन समाज के लिए  कड़वा जहर हैं जिसका सेवन बहुजन समाज इस उम्मीद में कर लेता हैं कि शायद उसके रोग काट जायें। लेकिन नतीजा वही बहुजन समाज का शोषण और बहुजन अस्मिता की हत्या। 
जहाँ तक रहीं बात कम्युनिष्ट की तो कम्युनिष्ट लोग मार्क्स आदि की बात तो जरूर करते हैं लेकिन भारत का कम्युनिष्ट मार्क्स नाम के लिफाफे में अन्दर कूट-कूट कर भरा ब्राह्मणवाद हैं। इसने तो बहुजन समाज की मूल समस्या "जाति" से ही उसको भटका दिया हैं। बहुजन समाज को भारत में गैर-बराबरी की जड़ जाति से हटाकर बहुजन समाज को अमीरी-गरीबी में उलझा दिया हैं। जबकि बाबा साहेब ने स्पष्ट कहा हैं कि देश के शोषित लोग इसलिए नीच जाति के नहीं हैं कि वे गरीब हैं, बल्कि ये इसलिए गरीब हैं क्योकि ये नीची जाति के हैं। बुद्ध से लेकर रैदास, कबीर, फुले, शाहू, अम्बेडकर, काशीराम और बहनजी सभी महानायकों और महनायिकाओं ने जाति को देश की मूल समस्या बताया हैं। और, जाति के उन्मूलन को भारत उन्नति का समाधान। लेकिन कम्युनिष्ट ने इस मुद्दे को दफ़न कर दिया हैं। कम्युनिष्ट पूर्णरूपेण ब्राह्मणी दल हैं ऐसे में वो अपने ब्राह्मणी मंसूबों का त्याग क्यों करे। क्यों ये बहुजन हकों की पैरवी करें। कुलमिलाकर, कम्युनिष्ट बहुजन समाज के लिए प्राण वायु में घुला जहर हैं जिसकों अनजाने में भी, ना चाहते हुए भी बहुजन समाज सेवन करने को मजबूर हो जाता हैं। 
ठीक इसी तरह आम आदमी पार्टी (आप) जैसी छोटी-छोटी पार्टियां बहुजनों को मुख्य मुद्दे से भटकाकर अपने ब्राह्मणी मंसूबों को मुकम्मल तौर पर परवान चढ़ाने में सहायता कर रहीं हैं। यदि आप कांग्रेस-भाजपा-कम्युनिष्ट-आप आदि दलों की संरचना पर गौर करें तो हम पाते हैं कि इन सभी दलों के निर्णायक पदों पर, इसकी कार्यकारणी आदि में सामाजिक-सांस्कृतिक-आर्थिक-राजनैतिक तौर पर बहुजन समाज का शोषण करने वाले ब्राह्मण-सवर्ण ही काबिज हैं। मान्यवर काशीराम साहेब और बहनजी के आन्दोलन के परिणाम स्वरुप इन सभी दलों में पिछड़े-दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक बहुजन समाज के लोगों को स्थान मिला जरूर हैं लेकिन वे तब तक ही इन दलों में रह सकते हैं जब तक कि ये उनके चमचे के तौर पर कार्य करते हैं। ऐसे ये दल भी अपनी ब्राह्मणी नीतियों के विरुद्ध जाकर बहुजन समाज की बात और उनकी मांग क्यों माने जबकि ये उनके पार्टी के संविधान है ही नहीं। 
मान्यवर साहेब कहते हैं कि बहुजन समाज का सच्चा और वास्तविक नेता जितना ज्यादा मजबूत होगा, ब्राह्मणी दलों में चमचों के संख्या उतनी ही ज्यादा होगी। इन सारे चमचों को लोकसभा, राज्यसभा, विधानसभा और विधान परिषद् आदि में सीटें मिल जाती हैं, मंत्रालय भी मिल जाते हैं, कुछ गवर्नर तो कुछ राष्ट्रपति तक बन जाते हैं। यहाँ गौर करने वाली बात यह हैं कि इन चमचों ये सारी सीटें और पद अपनी काबिलियत के कारण नहीं बल्कि समाज की दलाली की कीमत के तौर पर मिलती हैं। इन चमचों को आप कांग्रेस-भाजपा-कम्युनिष्ट-आप आदि सभी दलों में आसानी से पहचान सकते हैं। इन सभी चमचों का एक ही कर्तव्य होता हैं भारत में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका बहन कुमारी मायावती जी का विरोध करना, बहुजन समाज को गुमराह करना और  पिछड़े समाज की एक मात्र राष्ट्रिय पार्टी बहुजन समाज पार्टी कमजोर करना। इसी बात की इनकों कीमत मिलती हैं, दलाली मिलती हैं। 
अब लोगों के ज़हन में ये सवाल लाज़मी हैं कि यदि कांग्रेस-बीजेपी-आप-कम्युनिष्ट आदि एक ही हैं तो ये अलग-अलग राजनैतिक दल क्यों हैं? यदि इन सब की मंशा और मक़सद एक ही हैं तो ये सब अलग-अलग राजनैतिक पार्टी के रूप में कार्य क्यों कर रहीं हैं? यदि इन दलों में शामिल लोग, इन दलों के निर्णायक पदों पर काबिज लोग, कार्यकारिणी में शालिम लोग एक ही समाज (ब्राह्मण-सवर्ण) के हैं और अपने ही समाज के हित की बात करते हैं तो ये सब दल अलग-अलग क्यों हैं? यदि इन सभी दलों की विचारधारा एक ही (ब्राह्मणी विचारधारा) ही हैं तो ये सब अलग-अलग क्यों हैं? इन सब सवालों का एक ही जबाव हैं बहुजन समाज को स्थान ना देना।
बुद्ध-रैदास-फुले-शाहू-अम्बेडकर की वैचारिकी पर चलकर मान्यवर काशीराम साहेब और बहनजी ने बहुजन समाज के लिए राजनीति में जो स्थान बनाया हैं उस स्थान को भारत के बहुजन समाज ने कांग्रेस-बीजेपी-आप-कम्युनिष्ट आदि ब्राह्मणी दलों को वोट करके सत्ता और विपक्ष में ब्राह्मणो-सवर्णों को बिठा कर अपने स्थान को उनसे भर दिया हैं। जब बहुजन समाज ना सत्ता में हैं, ना ही विपक्ष में तो बहुजन समाज किस मुँह से अपने शोषक से अपने हक़ की बात कर रहा हैं। जब सत्ता-विपक्ष में कहीं पर बहुजन समाज हैं ही नहीं तो ऐसे में ब्राह्मणी सत्ता-विपक्ष बहुजनों का एससी-एसटी एक्ट को क्यों लागू करे। बहुजनों का आरक्षण को क्यों ना ख़त्म करें। देश में निजीकरण क्यों ना करें। बहुजन समाज का शोषक बहुजन समाज की माँग क्यों पूरा करें। कोरोना जैसी महामारी में बहुजनों को सुविधा क्यों मुहैया करायें। कांग्रेस-बीजेपी-आप-कम्युनिष्ट आदि ब्राह्मणी दलों सत्ता-विपक्ष में बहुजनों के लिए नहीं बल्कि ब्राह्मणों-सवर्णों के लिए हैं तो वे बहुजनों की माँग क्यों मानें। 
  बहुजन समाज को सदा याद रखना चाहिए कि लोकतंत्र में उसी समाज की सुनवाई होती हैं जिसकी या तो सत्ता होती हैं या फिर विपक्ष। इसके अलावा जो भी लोग बचते हैं उनकी परवाह ना तो सत्ता करती हैं, और ना ही विपक्ष। फिलहाल, बहुजन समाज के लोगों ने अपनी एक मात्र राष्ट्रिय पार्टी बसपा को वोट करने के बजाय  कांग्रेस-बीजेपी-आप-कम्युनिष्ट आदि ब्राह्मणी दलों  को वोट करके अपने को सत्ता कर विपक्ष दोनों से बाहर लिया हैं। ऐसे में बहुजन समाज के लोगों की हत्या, शोषण, रेप-गैंगरेप, जबरन बहुजन जमीन पर कब्ज़ा, गली-गलौज आदि लाज़मी हैं। 
यदि इन सबसे छुटकारा चाहते हो तो अपनी वैचारिकी को मजबूत करों। अपने बहुजन महानायकों की रह पर चालों। बुद्ध-रैदास-फुले-शाहू-अम्बेडकर की वैचारिकी को हर घर में स्थापित करों। अपनी सत्ता कायम करों, अपनी राष्ट्रिय पार्टी को मजबूत कर सत्ता में स्थापित करों। सर्वजन प्रिय पिछड़े वर्ग की आवाज़ बहुजन समाज पार्टी को मजबूत करों। आदिवासियों के हकों के लिए प्रतिबद्ध मान्यवर काशीराम साहेब की बसपा को मजबूत करों। संविधान सम्मत शासन को स्थापित करने वाली धर्मनिरपेक्ष व अल्पसंख्यकों की अपनी बीएसपी को सत्ता में स्थापित करों। भारत मे सामाजिक परिवर्तन के लिए संघर्षशील सम्राट अशोक की उत्तराधिकारी बहुजन महानायिका बहनजी को सत्ता के केंद्र में स्थापित करों। इसी में बहुजन की भलाई हैं। इसी में सर्वजन की भलाई हैं। इसी भारत और भारतियों की भलाई हैं।

No comments:

Post a Comment