Tuesday, November 5, 2019

वैचारिकी में प्रतीकात्मता का महत्व


कुछ लोगों का मानना है कि व्यक्तिवाद से ढोंग और पाखंड का सृजन होता है। उनका मानना है कि ढोंग और पाखंड के चलते विचारधारा मर जाती है लेकिन हमारा स्पष्ट मानना है कि जो लोग इस तरह की तोहमत लगा रहे हैं उन लोगों को इस बात का इल्म नहीं है कि भारत में जितने भी बाहर से आए हुए संस्कृति के लोग थे उन पर भी यह ढोंग-पाखंड पूरी कट्टरता के साथ लागू हो गया है। तो ऐसे में सवाल यह पैदा होता है कि यदि उनके यहां इस तरह की मूर्तियों को प्रतीक तौर पर स्थान नहीं दिया गया तो इनमें इतना सारा ढोंग, पाखंड और अंधविश्वास कहां से आ गया?



सिद्धांतों को बिना किसी प्रतीक के स्थापित करना एक आदर्श सोच जरूर है, लेकिन व्यवहारिक नहीं है। उदाहरण के तौर पर देखा जाए तो भारत के जितने भी राजनीतिक दल हैं क्या कभी लोगों ने उनके मूल एजेंडे के बारे में जानते हैं या फिर कभी जानना चाहा? जितने भी क्षेत्रीय राजनीतिक दल हैं सब के सब सुप्रीमो के नाम से ही जाने जाते हैं या फिर उन सुप्रीमो के जैविक उत्तराधिकारियों के नाम से जाने जाते हैं। जिसके चलते ये राजनीतिक दल एक परिवार की निजी मिल्कियत बनकर रह गए हैं।



कहने का तात्पर्य है कि ये क्षेत्रीय दल भी व्यक्ति विशेष के ही नाम से जाने जाते हैं, हांलांकि ये लोकतंत्र की भावना के खिलाफ है। इसके उलट राष्ट्रीय स्तर के जो तीन राजनीतिक दल हैं - बसपा कांग्रेस और भाजपा हैं, ये तीनों दल भी किसी ना किसी प्रतीक के तौर से ही जाने जाते हैं। जैसे कि बसपा को गौतम बुद्ध, संत शिरोमणि संत रैदास, कबीर दास, महात्मा ज्योतिबा फुले, नारायणा गुरु, ई वी रामास्वामी पेरियार नायकर, बाबा साहब डॉक्टर भीमराव रामजी आंबेडकर, मान्यवर कांशी राम और बहन जी के नाम से जाना जाता है। इन सभी महान बहुजन व्यक्तित्व की कार्यशैली व उनकी विचारधारा मतलब कि समतामूलक समाज के सृजन की विचारधारा बसपा के मूल को इंगित करते हैं।



कांग्रेस की बात करें तो कांग्रेस का नाम जहन में आते ही मोहनदास करमचंद गांधी से होते हुए नेहरू-गांधी परिवार बरबस ही सामने आ जाता है। और, इतिहास गवाह है कि जब-जब कांग्रेस की नैया डूब रही होती है तब-तब गांधी नेहरू परिवार की व्यक्तित्व वाली विरासत ही उसे बचाने के लिए सामने आती है, और कांग्रेस को इस परिवार के ही सदस्य का सहारा लेना पड़ता है। यदि किसी को यह भ्रम हो कि बीजेपी व्यक्तिवादी पार्टी नहीं है तो उनको यह मालूम होना चाहिए कि बीजेपी ने समकालीन के किसी भी इंसान को स्थापित नहीं होने दिया है क्योंकि वह अपने पहले से स्थापित राम-कृष्ण समेत 33 करोड़ देवी-देवताओं को प्रतीक के तौर पर इस्तेमाल करते हुए अपनी विचारधारा को जन-जन तक पहुंचा रही है।



ऐसे में यह कहना कि व्यक्तित्व को पीछे छोड़कर सिर्फ सिद्धांतों के नाम पर लोगों को जोड़ा जा सकता है और समाज को बदला जा सकता है तो यह सुनने में, कहने में अच्छा लगता है। यह एक आदर्श कथन जरुर है लेकिन व्यावहारिकता में ये कथन पूरी तरह से गौड़ है। इसलिए लोगों को सिद्धांत और उस सिद्धांत को हकीकत की सरजमी पर उतारने वाले व्यक्तित्व के संबंधों को समझना होगा, और प्रतीकात्मक किस तरह से किसी भी सिद्धांत को जन-जन तक पहुंचाने और जन-जन द्वारा सिद्धांत को समझने में मददगार होती है इस बात को बाकायदा चिन्हित करना होगा।



सिद्धांत अदृश्य होता है, दिखाई तो नहीं पड़ता है लेकिन इसके परिणाम कालांतर में जरुर परिलक्षित होते हैं। इसीलिए आम जनमानस को सिद्धांतों से जोड़ने के लिए कुछ प्रतीकों की जरूरत पड़ती है। यही कारण है कि किसी भी देश की संस्कृति रही हो वहां पर प्रतीकों का हमेशा से इस्तेमाल रहा है, महत्व रहा है। यदि कुछ लोगों का यह मानना है कि व्यक्ति प्रतीक नहीं बन सकता है तो उन लोगों के समझना होगा कि व्यक्ति के विचार जब समाज को इस कदर प्रभावित करते हैं कि समाज का सारी की सारी व्यवस्था ही बदल जाती है, नयी सोच सृजित हो जाती हैं तो उस व्यक्ति को सिर्फ व्यक्ति कहना अनुचित होगा क्योंकि वह खुद अपने आप में उस वैचारिकी को प्रतिपादित कर अमली-जामा पहनाने वाला उस विचारधारा का एक प्रतीक बन जाता है। और, यह प्रतीक लोगों को आसानी से उन सिद्धांतों से जुड़ने में मदद करती है, जो सिद्धांत उस महान व्यक्ति ने स्थापित किए हैं।



यही कारण रहा है कि बुद्ध की मूर्तियां दुनिया में सबसे ज्यादा पाई जाती हैं, और दुनिया में बुद्धिज्म का परचम सबसे जुदा तौर पर सबसे ज्यादा बुलंद है। बुद्ध की नकल करके अन्य जगहों पर अलग-अलग फिरके की संस्कृतियों के लोगों द्वारा अपनी संस्कृति को जन-जन तक पहुंचाने के लिए मूर्तियों के स्थापना की शुरुआत की गई, क्योंकि यहीं से अन्य संस्कृतियों के लोगों ने संस्कृति में प्रतीकात्मकता के महत्व को समझा था।



फ़िलहाल यदि कोई मूर्ति और मूर्तिपूजा के सन्दर्भ में चर्चा करें तो बाबा साहेब का जिक्र लाज़मी हैं। बाबा साहब भी मूर्ति पूजा के खिलाफ थे लेकिन बाबा साहब ने खुद सिद्धार्थ कॉलेज के लिए गौतम बुद्ध की मूर्ति बनवाई थी और उसे स्थापित भी किया था। इसलिए यहां पर बहुजन महानायकों और महनायिकाओं की मूर्तियों और ब्राह्मणी मूर्तिपूजा के अंतर को समझना होगा। बहुजन महानायकों व महनायिकाओं की प्रतिमाएं पत्थर पर उकेरी गयी बहुजन संस्कृति, सभ्यता, इतिहास, वैचारिकी और समतावादी समाज के सृजन का संदेशवाहक हैं। बुद्ध, संत शिरोमणि संत रैदास, कबीरदास, ज्योतिबा फुले, शाहूजी महाराज, बाबा साहब, नारायणा गुरु, पेरियार, मान्यवर कांशीराम साहब और बहन जी की मूर्तियां बहुजन समाज को बुद्ध-अंबेडकर विचारधारा से जोड़ कर बहुजन अस्मिता को कायम करते हुए बहुजन आंदोलन के जरिए दुनिया में माननीय व वैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर एक बेहतरीन समाज का सृजन करना है। जबकि मूर्तिपूजा से भक्ति, जो कि भारत को श्राप हैं, ढोंग, पाखण्ड, अन्धविश्वास और मानसिक गुलामी की वजह हैं। 


यही कारण है कि बहुजन महानायको एवं महानायिकाओं की मूर्तियों की पूजा नहीं की जाती है लेकिन ब्राह्मणी संस्कृति के गुलाम लोगों द्वारा बहुजन महानायकों व महानायिकाओं का प्रति भक्ति का रवैया अपनाकर के मूर्ति पूजा को बहुजन वैचारिकी के विपरीत लाया जा रहा है, जोकि बहुजन वैचारिकी व आंदोलन के लिए घातक है। ब्राह्मणी रोग से ग्रसित इन्हीं लोगों द्वारा ब्राह्मणी कर्मकांडओं के तहत बुद्ध से लेकर बहन जी तक की प्रतिमाओं के साथ भक्ति भावना से पूजा पाठ किया जा रहा है। ऐसा करना बहुजन विचारधारा का ही नहीं बल्कि दर्शन बन चुके बहुजन महानायकों एवं महानायिकाओं का घोर अपमान है। बहुजन महानायकों व महानायिकाओं के प्रति ब्राह्मण रोग से ग्रसित लोगों का भक्ति भाव बहुजन समाज की हत्या करने के समान है। ब्राह्मणीकरण के चलते मूर्तियों की पूजा की शुरुआत जरूर हुई हैं लेकिन इसका मतलब ये कतई नहीं हैं कि वैचारिकी को जन-जन से जोड़ने में प्रतीकों, सकेंतों व वैचारिकी को प्रतिपादित करने वाले व्यक्तित्व को नजरअंदाज किया जाय। मतलब हैं कि यदि व्यक्तित्व इतना महान है कि वो लोगों के जीवन को बेहतरी प्रदान करते हुए नए आयाम को अन्जाम दे तो वो व्यक्ति खुद एक वैचारिकी बन जाता हैं, दर्शन बन जाता हैं, जैसे कि बुद्ध, रैदास, कबीर, फुले, बाबा साहेब, मान्यवर साहेब और बहन जी। मतलब कि विकार मूर्तियों की वजह से नहीं, बल्कि लोगों के जहाँ पर राज कर रहीं भक्ति (ब्राह्मणवाद) की सोच हैं जिसे बुद्ध-अम्बेडकरी वैचारिकी से ही दूर किया जा सकता हैं। 


इसलिए यदि किसी को लगता है कि व्यक्ति को प्रतीक बनाने से सिद्धांत मर जाते हैं तो उन लोगों को यह भी समझना चाहिए कि प्रतीक के तौर पर ही सिद्धांतों को आसानी से जन-जन तक पहुंचाया जा सकता है, उनके जहन में उतारा जा सकता है। रही बात प्रतीकों के जरिए ढोंग, पाखण्ड, अंधविश्वास व भक्ति के आगमन की, तो यदि देखा जाए तो इस्लाम में किसी भी अल्लाह की कोई मूर्ति विद्यमान नहीं है लेकिन कट्टरता, अंधविश्वास और पाखंड इस्लाम में अन्य की तुलना सबसे ज्यादा है। तो इसलिए यह सिर्फ कह देना कि व्यक्ति को प्रतीक के तौर पर स्थापित करने से सिद्धांत गौण हो जाते हैं तो यह अपने आप में पूरी तरह से गौड़ कथन ही है।

रजनीकान्त इन्द्रा

05.11.2019


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