Saturday, November 2, 2019

बहुजन चिंतकों को जाति-विशेष तक सीमित करना, एक ब्रह्मणी षड्यंत्र हैं।

अखबारों में टीवी चैनलों पर व अलग-अलग सभा व सेमिनारों में देश के तथाकथित बुद्धिजीवी व सवर्ण नेताओं के मुंह से अक्सर सुना जाता है कि वह दलित नेता है, वो पिछड़ा नेता है, वो आदिवासी नेता है, लेकिन क्या कभी कहीं पर आपने सुना है कि वह ब्राह्मण नेता है, उस ठाकुर नेता है, वह बनिया नेता है इत्यादि?

यहां कहने का तात्पर्य है कि जब बहुजन समाज का कोई नेता खड़ा होता है, अपनी आवाज को बुलंद करता है, आगे बढ़ता है, तो लोग उसको एक जाति विशेष से बांध देते हैं, उसको उसकी जाति तक ही सीमित कर उसके प्रतिनिधित्व की क्षमता पर प्रश्न चिन्ह लगा देते हैं, लेकिन वहीं दूसरी तरफ जब सवर्ण तबके से कोई नेता आगे आता है तो लोग उसको उसके कृत्य के विपरीत सारे समाज का नेता घोषित कर देते हैं। यह मान लिया जाता है कि सवर्ण नेता दलित-वंचित, आदिवासी और पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधि भी है जबकि हकीकत में वह दलित वंचित आदिवासी और पिछड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व नहीं करता है।

ठीक यही जातिगत भेदभाव टीवी डिबेट के कार्यक्रमों में देखने को मिलता है। जब कोई बुद्धिजीवी देश के 85 फ़ीसदी आबादी के मुद्दों की बात करेगा तो उसको दलित-वंचित नेता या दलित बुद्धिजीवी घोषित कर दिया जाता है, लेकिन वहीं दूसरी तरफ सवर्ण लोगों को सकल समाज के नेता व चिंतक के रूप में दर्शाया जाता है।

उदाहरण के तौर पर जब टीवी डिबेट्स के कार्यक्रमों में विश्व विख्यात समाजशास्त्री प्रोफेसर विवेक सर आते हैं तो उनका परिचय अक्सर दलित चिंतक के रूप में कराया जाता है। क्या प्रोफेसर विवेक सर का चिंतन सिर्फ दलितों तक ही सीमित है? क्या विवेक सर के चिंतन में भारतीय समाज, भारतीय समाज के मुद्दे, भारतीय समाज के भूत, वर्तमान और भविष्य की रूपरेखा नहीं दिखाई पड़ती है? यदि दिखाई पड़ती है तो प्रोफेसर विवेक सर सिर्फ दलित चिंतक कैसे हुए?

अखबार सेमिनार और टीवी के डिबेट्स में बहुजन समाज के बुद्धिजीवियों, विचारको व नेताओं को अक्सर सिर्फ और सिर्फ तब बुलाया जाता है जब कहीं पर दलित वंचित जगत पर कोई बहुत ही घिनौना माननीय जघन्य अत्याचार हुआ हो। बहुजन समाज के विद्वानों को देश के पर्यावरण, इंजीनियरिंग, मेडिकल साइंस, विदेश नीति, मार्केटिंग, अर्थव्यवस्था, कृषि क्षेत्र, निजीकरण, ऊर्जा क्षेत्र, जल प्रबंधन, मृदा संरक्षण आदि जैसे मुद्दों पर क्यों नहीं बुलाया जाता है? क्या देश की मीडिया में अपना एकाधिकार जमाए बैठे सवर्ण समाज के लोगों को यही लगता है कि देश के पचासी फ़ीसदी आबादी वाले बहुजन समाज में ऐसे विद्वान नहीं हैं जो इन मुद्दों पर अपनी राय रख सके?

हमारा स्पष्ट मानना है कि दलित-वंचित समाज के साथ हो रहे अत्याचार के मुद्दों को छोड़कर किसी भी अन्य मुद्दे पर दलित-वंचित समाज के विद्वानों को टीवी डिबेट्स आदि में शामिल ना किया जाना 85 फ़ीसदी आबादी वाले समाज के विद्वानों, बुद्धिजीवियों, विचारको व नेताओं को उनकी जाति विशेष तक सीमित करने का एक षड्यंत्र है। ठीक यही षड्यंत्र भारत की ब्राह्मणी सरकारों ने भारत के मीडिया के माध्यम से साहित्य व पुस्तकों आदि के माध्यम से बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा-प्रतीक मानवता-मूर्ति बाबा साहब डॉक्टर भीमराव रामजी अंबेडकर को दलित मसीहा और संविधान निर्माता तक सीमित कर एक जाति विशेष के कमरे में कैद कर दिया है। इसका परिणाम यह हुआ कि बहुजन समाज के आंदोलन को वांछित गति से आगे बढ़ाने के बजाय देश के बहुजन समाज के द्वारा एक वर्ग विशेष (चमार) की जिम्मेदारी मान ली गई है, जो कि भारत में सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन के लिए बहुत ही घातक सिद्ध हुआ है।

फिलहाल, यह महीन जातिगत भेदभाव बहुजन समाज के हर चिंतक के साथ, हर विचारक के साथ, हर बुद्धिजीवी और नेता के साथ होता है। ये और बात है कि यह भेदभाव इतना महीन होता है कि आम तौर पर आम बहुजन या तो इसको समझ ही नहीं पाता है, या फिर वह इसका इतना आदी हो चुका है कि उसको कोई फर्क ही नहीं पड़ता है। बहुजन समाज की इस नासमझी का परिणाम भारत में बहुजन समाज के सामाजिक परिवर्तन के आंदोलन को चुकाना पड़ रहा है।

ऐसे में उम्मीद करते हैं कि आने वाले समय में बहुजन समाज ब्राह्मणी जाति व्यवस्था को किनारे करते हुए अपने मूल वजूद को जहन में रखते हुए अपने दलित वंचित आदिवासी और पिछड़े बहुजन समाज के साथ एक (सामाजिक-सांस्कृतिक) मंच पर खड़े होकर भारत में अपने बुद्धिजीवियों, विचारको व नेताओं के साथ कदम-ताल करते हुए आने वाले समय में समता मूलक समाज की स्थापित करेगा।
रजनीकान्त इन्द्रा
02.11.2019

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