Sunday, November 3, 2019

राजनीति - सामाजिक परिवर्तन का एक सशक्त माध्यम


भारत एक स्वतंत्र व लोकतांत्रिक देश है। यहां पर हर शहरी को संविधान में कुछ मूलभूत अधिकार दिए गए हैं। इन मूलभूत अधिकारों के अलावा भी कुछ ऐसे अधिकार हैं, जो संविधान के पार्ट 3 से अलग दिए गए हैं, जो कि अपने आप में मूलभूत अधिकारों से कम नहीं है। इन्हीं अधिकारों में एक अहम अधिकार है-वोट देने का अधिकार।

देश के हर शहरी को मिले वोट के अधिकार का मतलब होता है कि उस शहरी को अपने वोट का इस्तेमाल अपने विवेक के अनुसार करना। संविधान प्रदत्त वोट के अधिकार का इस्तेमाल करना हर शहरी का संवैधानिक व लोकतांत्रिक दायित्व है। जब कोई नागरिक अपने इस अधिकार का प्रयोग करता है, तो वह किसी ना किसी दल विशेष के पक्ष में वोट करता है। कहने का तात्पर्य है कि देश का हर शहरी किसी ना किसी राजनैतिक दल के साथ खड़ा है। यह और बात है कि आमतौर पर लोग अपनी इस मंशा को खुलेआम जाहिर करते हैं लेकिन सरकारी सेवाओं व संविधान निहित तमाम संवैधानिक पदों, जैसे कि न्यायपालिका, चुनाव आयोग, लोक सेवा आयोग, कैग इत्यादि, पर बैठे लोग अपने इस मत के संदर्भ में खुलेआम अपनी मंशा जाहिर नहीं करते हैं। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि पब्लिक की निगाह में उनकी निष्पक्षता वाली कायम रहे, और पब्लिक को विश्वास दिलाया जा सके कि इन पदों पर आसीन लोग निष्पक्ष हैं, दलगत राजनीति से परे होते हैं जो कि हकीकत से परे हैं। लेकिन अपने वोट का इस्तेमाल करने वाले ये लोग, जो कि विभिन्न संवैधानिक पदों पर बैठे हुए हैं, जो निष्पक्षता का चोला ओढ़े हुए हैं, क्या वाकई वह राजनैतिक इंटेरेस्ट से ऊपर उठकर कार्य करते हैं? क्या कोई बिना किसी राजनैतिक इंटरेस्ट के लोकतंत्र में एक जिम्मेदार नागरिक हो सकता है? हमारा मानना हैं कि यदि आप किसी राजनीतिक दल का पक्ष नहीं लेते हैं तो भी आप अपने संवैधानिक व लोकतांत्रिक दायित्व को निभाने में कोताही बरतते हैं।

इसी संदर्भ में कुछ नवयुवकों का मानना है कि जो लोग सामाजिकता की बात करते हैं, उनकों राजनैतिक इंटरेस्ट से दूर रहना चाहिए, लेकिन क्या ऐसा संभव है? बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षाप्रतीक मानवता मूर्ति बाबा साहब डॉक्टर बी आर अंबेडकर मानते हैं कि देश के वंचित-दलित समाज के लिए राजनीतिक सत्ता ही वह मास्टर चाबी है, जिसके द्वारा देश का दलित समाज अपने लिए 'अवसर और उन्नति' के सारे दरवाजे खोल सकता है। 

ऐसे में बाबा साहब यहां पर जब 'अवसर और उन्नति' की बात करते हैं तो यह उन्नति केवल राजनैतिक या फिर आर्थिक ही नहीं है। यहां पर 'अवसर और उन्नति' का मायने हैं कि देश का दलित-वंचित समाज राजनीतिक सत्ता का इस्तेमाल करते हुए ही समाज में अपनी 'अस्मिता, स्वाभिमान और सम्मान' को कायम रखने के लिए राजनीति को हथियार बनाकर के भारत की सामाजिक व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन कर सकता है। ऐसे में यदि हम सामाजिक परिवर्तन की बात करते हैं, समतामूलक समाज के सृजन की बात करते हैं, तो राजनीति जैसे महत्वपूर्ण माध्यम को कोई भी समाजसेवी नजरअंदाज कैसे कर सकता है।

कुछ बहुजन समाज के ही नवयुवकों का मानना है कि जब आप समाज को जोड़ने की बात कर रहे हैं तो राजनीति की बात करना उचित नहीं है। लेकिन जब हम भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों को देखते हैं, उनके क्रियाकलाप को देखते हैं, तो हम पाते हैं कि भारत में दो ही मात्र ऐसे दल हैं जो भारत में सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में अपनी राय स्पष्ट रखते हैं और उसके लिए कार्य कर रहे हैं। इसी बात को यूं कहे तो भारत के राजनैतिक फलक पर मात्र दो ही राजनीतिक दल ऐसे हैं जो नदी के दो किनारों की तरह अपने मूलभूत सिद्धांतों के साथ खड़े हैं। उनमें एक है, मान्यवर कांशी राम साहब द्वारा स्थापित की हुई विरासत जिसे भारत 'बहुजन समाज पार्टी' के नाम से जानता है, और जिसकी अध्यक्षा मान्यवर कांशीराम की एकमात्र उत्तराधिकारी और उनकी सबसे योग्य व प्रिय शिष्या भारत में सामाजिक परिवर्तन की मूर्ति बहुजन महानायिका बहन कुमारी मायावती जी हैं। दूसरी पार्टी है, समाज में यथास्थिति को बनाए रखने के लिए जद्दोजहद करने वाली भारतीय जनता पार्टी।

किसी भी समाज में सामान्य तौर पर दो विचारधाराएं होती हैं। एक परिवर्तनशील प्रगतिवादी होती है, तो दूसरी विचारधारा यथास्थिति को बनाए रखने वाली होती है। ऐसे में जहां 'बसपा' भारत में सामाजिक व्यवस्था का परिवर्तन चाहती है, वहीं दूसरी तरफ भाजपा देश में यथास्थिति को बनाए रखना चाहती है।

इन दोनों राजनीतिक दलों को छोड़कर के बाकी जितने भी राजनीतिक दल भारत के राजनैतिक फलक पर दिखाई पड़ते हैं, वे सभी दल नदी के पानी की तरह है जिनका सिर्फ सत्ता लोभ के सिवा ना कोई वाजिब भूत रहा है, ना ही कोई वाजिब भविष्य हैं। इसलिए जहां बसपा और भाजपा नदी के दो किनारों की तरह अपने मूलभूत सिद्धांतों के साथ पूरी प्रबलता से खड़े हैं वहीं दूसरी तरफ सिर्फ सत्ता मात्र के लिए जद्दोजहद कर रहे ये सभी दल नदी के पानी की तरह गुमनामी के अंधेरे में बहते जा रहे हैं।

भारत के सामाजिक ताने-बाने का जब हम विश्लेषण करते हैं तो हम पाते हैं कि यथास्थिति को बनाए रखने वाली विचारधारा देश के चंद मुट्ठी भर लोगों के हक में है, जो शोषक बन कर देश की सकल बहुजन आबादी का सदियों से शोषण करते आ रहे हैं। यदि देश और देश का बहुजन समाज देश में लोकतंत्र को स्थापित करना चाहता है तो उसको सामाजिक परिवर्तन के लिए जद्दोजहद करने वाली विचारधारा व उस विचारधारा को आगे बढ़ाने वाले राजनैतिक दल को माध्यम बना करके आगे बढ़ना होगा। इसी में बहुजन समाज की भलाई है, और इसी में देश के लोकतांत्रिक और संवैधानिक मूल्यों को संविधान सम्मत लागू करने की हिम्मत है।

भौतिक विज्ञान में न्यूटन का एक सिद्धांत है जिसमें न्यूटन कहते हैं कि कोई भी वस्तु अपनी यथास्थिति को बनाए रखना चाहती है या फिर वह उसी स्थिति में तब तक रहना चाहती है जब तक कि उस पर उसकी सामर्थ से अधिक बल न लगाया जाए। ठीक यही चीज समाज में भी लागू होती है। सदियों-सदियों से जो समाज एक व्यवस्था के अंतर्गत जीता आया है वह इस व्यवस्था का इतना आदी हो चुका है कि वह खुद इस व्यवस्था के दल-दल से नहीं निकलना चाहता है।

यह समाज इस व्यवस्था का एक आदर्श गुलाम बन चुका है, जो अपनी गुलामी को इंजॉय करता है, जिसे हैप्पी स्लेव कहते हैं।

भारत के समाज को अगर देखा जाए तो भारत की अधिकतर आबादी भारतीय सामाजिक व्यवस्था के संदर्भ में एक आदर्श गुलाम बन कर जी रही है। इसलिए वह व्यवस्था परिवर्तन में उस जरूरत के अनुसार बल नहीं पैदा कर पा रही है जिससे कि वह स्थिति को बदल कर एक नए समाज का सृजन कर सके। ऐसे में जो प्रगतिशील परिवर्तनकारी राजनीतिक दल (बसपा) है उसकी जिम्मेदारियां बढ़ जाती है। लेकिन जब ऐसे परिवर्तनशील व प्रगतिवादी राजनीतिक दल सामाजिक परिवर्तन करने वाले उस बल को क्रिएट करते हैं, जो कि समाज को यथा स्थिति में बनाए रखने वाले सामर्थ से अधिक बल दे कर के समाज को गतिमान करें, तो यथास्थिति को बनाए रखने वाला बल कभी-कभी हावी हो जाता है। और तथास्थिति को बनाये रखने वाला बल तब सबसे ज्यादा हावी हो जाता है जब देश का गुलाम समाज खुद यथास्थिति को बनाए रखने वाली विचारधारा व राजनीतिक दल के साथ खड़ा होता है। आज के मौजूदा हालत में देश का आदर्श गुलाम समाज खुद यथास्थिति को बनाए रखने वाले विचारधारा व राजनीतिक दल (भाजपा) के साथ खड़ा है जिसका दुष्परिणाम आज पूरा भारत देश भुगत रहा है।

ऐसे में इन दो विचारधाराओं व राजनीतिक दलों से इतर बाकी जितनी भी विचारधाराएं व राजनीतिक दल भारत के राजनीतिक फलक पर भटक रहे हैं उनका ना तो भारत की सामाजिक व्यवस्था परिवर्तन से दूर-दूर तक कोई सरोकार है, ना ही देश की आम जनता से उनका कोई नाता है। उनका मकसद अपने जैविक उत्तराधिकारिओं के लिए सत्ता को हासिल करना है, वह भी किसी भी कीमत पर। ऐसे दल खुद मुद्दे पैदा करते हैं, देश में सांप्रदायिकता को बढ़ाते हैं, उनके शासनकाल में सांप्रदायिक दंगे होते हैं, और उन दंगों का उनको सीधा फायदा मिलता है जिसके चलते इन लोगों की जीविका चलती है, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि नदी के पानी की तरह रहने वाले इन राजनीतिक दलों को अगर देखा जाए तो यह राजनीतिक दल एक राजनीतिक दल होने के बजाय एक घर की पैतृक मिल्कियत बनकर रह गए हैं, उसके बावजूद यह लोग देश में बदलाव व सामाजिक व्यवस्था में परिवर्तन का दावा करते हैं। ऐसे में देश के वंचित-शोषित समाज का सबसे बड़ा नुकसान ये होता हैं कि ऐसे सभी राजनैतिक दल, जिनका सत्ता के सिवा किसी भी विचारधारा से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है, सिर्फ और सिर्फ देश की यथास्थिति को बनाए रखने वाले बल (आरएसएस-बीजेपी) का ही सहयोग करती है, और देश में सामाजिक परिवर्तन के लिए सतत संघर्षशील बहुजन राजनैतिक दल (बसपा) का ना सिर्फ राजनैतिक नुकसान करती हैं बल्कि सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलन को कुंद करने में यथास्थिति को बनाये रखने वाले दल का भरपूर सहयोह कराती हैं।


भारत की इन विचारधाराओं और सामाजिक संरचना को संदर्भ में रखते हुए कोई भी राजनीति से परे होकर समाज सेवा या समाजसुधार की बात नहीं कर सकता हैं। यदि फिर भी कोई ऐसे दवा करता हैं तो वह पूरी तरह से खोखला दवा ही होगा, जुमला होगा। इतिहास गवाह हैं कि जब महात्मा ज्योतिबा फुले थे तब उन्होंने अंग्रेजी हुकूमत की वकालत की थी क्योंकि वह जानते थे कि देश की बहुतायत आबादी को जो स्कूल में दाखिला का हक मिला हुआ हैं वह अंग्रेजी हुकूमत में ही प्रगतिशीलता के साथ आगे बढ़ सकता हैं। खुद भारत में सामाजिक आंदोलन के पितामह बाबा साहब डॉक्टर भीमराव रामजी आंबेडकर भी राजनीति से अलग नहीं रह पाए हैं। उन्होंने राजनीतिक माध्यम का बखूबी इस्तेमाल करते हुए भारत में सामाजिक आंदोलन को आगे बढ़ाया है। और, बाबा साहब के इसी ढर्रे पर चलते हुए मान्यवर कांशीराम साहब और बहुजन महानायिका बहन कुमारी मायावती जी ने भी भारत में सदियों से चली आ रही गुलामी की प्रथा में देश के दलित-वंचित जगत को भारत की सरजमी के सबसे अधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश की सरजमी पर चार-चार बार हुकूमत कर भारत की स्थितिवादी विचारधारा व इसके दलों को ना सिर्फ खुली चुनौती दी बल्कि कदम दर कदम फतेह हासिल करते हुए बहुजन राजनीति, बहुजन अस्मिता, बहुजन सामाजिक व सांस्कृतिक पहचान को इस कदर आगे बढ़ाया कि आज बहुजन समाज खुद अपने वजूद को ढूंढते हुए अपनी अस्मिता को स्थापित करने की जद्दोजहद कर नए भारत का सृजन कर रहा है।

रजनीकान्त इन्द्रा
03.11.2019

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