Wednesday, July 10, 2019

परिवार के सन्दर्भ में अधिकार एवं दायित्व


बच्चें कहीं अपने माता-पिता को घर से बेघर कर दे रहें हैं तो कहीं माता-पिता ही बच्चों को अपने जिंदगी से बेदखल कर दे रहें हैं। ये और बात हैं कि ये रिश्ते जैविक होते हैं, भावनात्मक होते हैं, प्यार-दुलार और सम्मान से पाले-पोषे गए होते हैं। इन रिश्तों को तोडना इतना आसान नहीं होता हैं। लोग कानूनी तौर पर अलग हो जाते हैं लेकिन इसका कतई मतलब नहीं है कि वो लगाव और एहसास भी मर जाता हैं। माता-पिता अपने बच्चों को कोसते हैं, शाप देते हैं, अर्थी उठाने और जिंदगी भर प्रताङित रहने का शाप दे देते हैं, लेकिन ये सब कुछ पल का गुस्सा मात्र होता हैं। माता-पिता अपने बच्चों से कभी जुदा नहीं हो सकते हैं, और ना ही बच्चे अपने माता-पिता से कभी अलग हो सकते हैं। यदि वो कभी अलग दिखते हैं तो इसका मतलब बस यहीं होता हैं कि उनका लगाव उनके आपसी ईगो के नीचे दब गया है, क्योकिं या तो माता-पिता ने बच्चे के अधिकार का हनन किया होगा या फिर बच्चे माता-पिता के प्रति अपने दायित्व से मुकर रहें होगें। इसी के चलते आये दिन अख़बारों में, सोशल मिडिया पर ये खबर आती रहती हैं कि पारिवारिक कलह के चलते बच्चे ने आत्महत्या कर ली, या फिर माता-पिता ने आत्महत्या कर ली हैं, या फिर माता-पिता ने बच्चे को जायजाद से बेदखल कर दिया हैं, घर से निकल दिया हैं, या फिर बच्चों ने माता-पिता को ही घर से निकाल दिया हैं। आज कल ऐसी समस्याओं की तादात में घातांकीय वृद्धि हो रहीं हैं।

ऐसी घटनाओं की पड़ताल जरूरी हैं कि क्या कारण हैं कि ऐसी घटनाओं की संख्या बढ़ती जा रहीं हैं ? क्या कारण हैं कि माता-पिता और बच्चों के बीच की खाई मोटी होती जा रहीं हैं? कहीं ये भारत में बदलते परिवेश का असर तो नहीं ? क्या ये एकाकी परिवार पद्धति का दुष्परिणाम तो नहीं हैं ? सारी स्थितियों का जायजा लिए बगैर किसी फैसले पर पहुंचना न्यायोचित नहीं होगा।

हालाकिं कि ये सच हैं कि भारतीय समाज और उसकी जीवन शैली संक्रमण के दौर में हैं। जहां एक तरफ लोग वैश्वीकरण की दस्तक से उत्साहित हैं, वहीँ दूसरी तरफ मनुवादी व्यवस्था में कैद लोग इसके विरोध में खड़े हैं। इस समय भारतीय समाज मुख्यतः दो विभिन्न प्रकार की जीवन शैलियों के द्वन्द से गुजर रहा हैं। सदियों से ब्राह्मणी व्यवस्था की गुलामी में कैद भारतीय युवा संवैधानिक और लोकतान्त्रिक मूल्यों की बदौलत आज अधिकारों की बात कर रहा हैं जो कि पुरानी मनुवादी व्यवस्था के खिलाफ हैं। इसलिए ब्राह्मणी व्यवस्था के लोग इनका विरोध करते हैं।

मनुवादी व्यवस्था में बच्चे एक आम नागरिक नहीं बल्कि माता-पिता के गुलाम होते हैं, उनकी जायजाद होते हैं। मनुवादी व्यस्था में बच्चों को बचपन से ही ट्रेंड किया जाता हैं कि माता-पिता के पैरों में स्वर्ग होता हैं, ये और बात है कि स्वर्ग को ना तो किसी ने आज तक देखा हैं, और ना ही किसी ने परिभाषित किया हैं। उस अदृश्य स्वर्ग को केंद्र में रखकर बच्चों को माता-पिता और गुरुओं के प्रति समर्पित होने का भाव जबरन उसी तरह से भर दिया जाता हैं जैसे कि ब्राह्मण के प्रति अन्य वर्णों व जातियों के दिलो-दिमाग में भर दिया जाता हैं। जिस तरह से ब्राह्मण अन्य सभी वर्णों व जातियों को अपना गुलाम समझता हैं, अपनी जायजाद समझ कर मनमर्जी उनका इस्तेमाल करता हैं लगभग वही व्यवहार माता-पिता द्वारा बच्चों के साथ किया जाता हैं। अपने लिए जैसा समर्पण ब्राह्मण समाज अन्य वर्णों व जातियों से चाहता हैं, ठीक वहीं समर्पण माता-पिता अपने बच्चों से चाहते हैं। यही कारण हैं कि ना तो ब्राह्मण अन्य वर्णों व जातियों को उनका मानवीय व मूलभूत हक़ देना चाहता हैं और ना ही माता-पिता बच्चों को उनका मूलभूत मानवीय हक़ देना चाहते हैं। हालाँकि माहौल बदल रहा हैं तो माहौल को देखते हुए और अपने आपको आधुनिक दिखाते हुए कुछ माता-पिता अपने आप को बहुत उदार दिखाते जरूर हैं लेकिन उनकी हर संभव कोशिस यहीं रहती हैं कि बच्चों की जिंदगानी के हर निर्णय वही करें और बच्चे उनके हर निर्णय को नतमस्तक होकर मान ले। सामान्यतः आज भारतीय समाज में यहां हो रहा हैं। 

माता-पिता द्वारा बच्चों के अधिकारों की हत्या भारत के ब्राह्मणवादी व्यवस्था का अहम् हिस्सा हैं जिसके चलते आज भी भारत में बच्चे आज़ाद नहीं, बल्कि गुलाम पैदा होते हैं। माता-पिता को भारत में बच्चों के अधिकारों की हत्या करने का हक़ सामाजिक-सांस्कृतिक हैं। दुनियां लोकतंत्र की बात कर रहा हैं लेकिन भारत जैसे लोकतान्त्रिक संवैधानिक देश में अपने हकों की हत्या को सहन करने वाले बच्चों को सभ्य, और अपने हकों के लिए बग़ावत करने वाले बच्चों को नालायक समझा जाता हैं। ऐसी स्थिति में आज के संवैधानिक और लोकतान्त्रिक मूल्यों वाले भारत में युवा दो राहें पर खड़ा दिख रहा हैं। वो समझ नहीं पा रहा हैं कि वो अपने मूलभूत अधिकारों के लिए लड़े या फिर ब्राह्मणी व्यवस्था द्वारा स्थापित मूल्यों को स्वीकार कर अपने मूलभूत अधिकारों की हत्या को सहन कर माता-पिता की लायक औलाद कहलायें।

हमारा स्पष्ट मानना है कि संयुक्त परिवार के मूल्यों से एकाकी परिवार के मूल्यों की तरफ बढ़ता समाज जहाँ एक तरफ अधिकारों के प्रति लोगों को सजग करते हुए उन्हें अपने मूलभूत अधिकारों के लिए लड़ने का साहस दे रहा हैं तो वही दूसरी तरफ लोगों को अपने माता-पिता और अन्य बड़े बुजुर्गों के प्रति असंवेदनशील व गैर-जिम्मेदार भी बना रहा हैं। हमारा स्पष्ट मानना हैं कि सभी के मूलभूत अधिकारों का सम्मान होना चाहिए। जिम्मेदारियों से भागना गलत हैं। जहाँ माता-पिता बच्चों को उनके परवरिश के साथ उनके हकों का ख्याल करते हैं, वही दूसरी तरफ बच्चों को भी माता-पिता के प्रति अपने दातयित्वों का भी भान होना चाहिए।
याद रहें,
जिम्मेदारियाँ किसी के अधिकारों का हनन नहीं करती हैं। सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा हैं कि राज्य के नीति निदेशक तत्व नगरिकों के मूलभूत मानवाधिकारों की हत्या नहीं करते हैं बल्कि उनकों सपोर्ट करते हैं। यही बात आम नागरिक (बच्चों व उनके माता-पिता) के सन्दर्भ में लागू होती हैं। माता-पिता को चाहिए कि वो बच्चों के अधिकारों का सम्मान करें और बच्चों को चाहिए कि वो माता-पिता के प्रति अपने दायित्वों का निर्वहन करें। दायित्व व अधिकार एक दूसरे के पूरक होते हैं, एक दूसरे की राह के बाधक नहीं।
--------------------------------------------रजनीकान्त इन्द्रा-----------------------------------------------------




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