Monday, June 12, 2017

बौद्ध भारत का ब्राह्मणीकरण - तथ्यों के आईने से

बौद्ध भारत का ब्राह्मणीकरण - तथ्यों के आईने से
भारत में इतिहास के विषय में बोधिसत्व बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि भारत का इतिहास दो संस्कृतियों (बुद्धिज़्म और ब्रह्मनिज़्म) का द्वन्द रहा हैं। फ़िलहाल भारत ने अपनी गोद में अनेकों तरह की जीवनशैली को जगह दिया जिसके कारण ही आज भारत में भाषा से लेकर भेषभूषा तक, रहन-सहन से लेकर खानपान तक, धर्म, पंथ और संस्कृतियों का संगम हैं। ये विविधता भारत की खूबसूरती को बहुआयामी बनाती हैं। लेकिन इस विविधता में भारत की मूल प्रकृति से जुडी बुद्धिज़्म की संस्कृति दब सी गयी हैं। ब्रह्मनिज़्म के चरम तक पहुंचते-पहुंचते ब्राह्मणवादियों ने भारत की मूल संस्कृति (बुद्धिज़्म) का ब्राह्मणीकरण कर भारत की आदि संस्कृति (बुद्धिज़्म) को मुख्यधारा से लगभग ख़त्म ही कर दिया हैं।

हालाँकि विविध रूपों में ये संस्कृति आमजन-जीवन इस कदर जुडी रहीं कि उसके पुट लोकगीतों और कहानियों में गाये और सुनाये जाते रहें हैं। भारत के बहुजन समाज को क्रूर ब्राह्मण धर्म (हिन्दू धर्म) से निज़ात दिलाने के लिए भारत में सम्राट अशोक के बाद अखिल भारत में भारत की प्राचीनतम संस्कृति (बुद्धिज़्म) स्थापित करने वाले बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर ने अपने शोध से भारत के इतिहास का रुख ही मोड़ दिया। बाबा साहेब ने सिद्ध व स्थापित कर दिया कि भारत में जब बुद्धिज़्म चरम पर था तब ही भारत विश्वगुरु कहलाता था। भारत में बुद्ध के ही दर्शन के अध्ययन के लिए दुनिया भर से विद्वान भारत आया करते थे। भारत में बुद्धिज़्म के ब्राह्मणीकरण के लिए ब्राह्मणों ने सबसे पहले बुद्धिज़्म की रीति-रिवाजों, पर्वों में घालमेल किया और अंत में तथागत गौतम बुद्ध को विष्णु का अवतार बताकर बुद्धिज़्म की स्वतंत्र पहचान को ही दफ़न करने का प्रयास किया। संवैधानिक में जब भारत के बहुजन समाज को शिक्षा-शोध का अवसर मिला तो उन्होंने परतदर परत इतिहास का मुआयना शुरू किया और ये स्थापित किया कैसे षड्यंत्र के द्वारा बौद्ध संस्कृति का ब्राह्मणी किया गया था।
   
प्रो राजेंद्र प्रसाद सिंह लिख़ते है "अभी कुछ एक दिन पहले ओडिशा के खुर्दा जिले के गोविंदपुर गाँव में १४०० साल पुरानी गौतम बुद्ध की प्रतिमा मिली है। ५ फीट की इस प्रतिमा का ८० % भाग जमीन में गड़ा हुआ था। प्रतिमा की खासियत यह है कि एक सात फन वाला नाग गौतम बुद्ध की मूर्ति का रक्षक है। यदि मूर्तिकला के प्रतीकात्मक अर्थ में विश्वास है तो आप कह सकते हैं कि नाग राजाओं ने बौद्ध धर्म की सुरक्षा की है।" इससे स्पष्ट निष्कर्ष निकलता है कि बुद्ध किसी विष्णु के अवतार नहीं है बल्कि ब्राह्मणों के विष्णु खुद, बुद्ध के मिथ्यावतार है जिन्हे ब्राह्मणों ने अपने धर्म के धंधे को फ़ैलाने के लिए पैदा किया है।

मौर्यकालीन ब्रह्मगिरि के शिलालेख का उदहारण देते हुए प्रो राजेंद्र प्रसाद सिंह कहते है "ज्ञात सबूतों के आधार पर कहा जाएगा कि सम्राट अशोक के दरबार का सबसे बड़ा लेखक चपड़ था। ब्रह्मगिरी और जटिंग- रामेश्वर जैसे शिलालेखों को लिखने का श्रेय लेखक चपड़ को ही प्राप्त है। बाकायदे अभिलेखों के नीचे लेखक चपड़ का नाम दर्ज है। आश्चर्य है कि लेखक चपड़ का नाम किसी किताब में दर्ज नहीं है। इतिहासकारों ने मौर्यकालीन लेखकों में चाणक्य की गणना गाजे- बाजे के साथ किया है, मगर चपड़ को छोड़ दिया है। मौर्यकाल का जो ऐतिहासिक लेखक है, वह गायब है, जो अनैतिहासिक है, वहीं सिर चढ़कर बोल रहा है।" इसका मतलब ये हुआ कि कहीं ब्राह्मणों ने अपने फायदे के लिए चपड़ जैसे विद्वान को ही चाणक्य तो नहीं बना दिया है, क्योंकि आज भी हमारे गावों में जब कोई बीच-बीच में अधिक बोलने लगता है तो लोग कहते है कि "ज्यादा चपड़-चपड़ ना करों"। इस कहावत का मतलब है कि "अपने ज्ञान का ज्यादा प्रदर्शन ना करों"। इस कहावत में चपड़-चपड़ ज्ञान व विद्वाता का परिचायक है। इससे स्पष्ट है कि कहावत में जो "चपड़-चपड़" है, इसका स्रोत कोई और नहीं बल्कि सम्राट अशोक के दरबार में विद्यमान रहें विद्वान चपड़ ही है। चंद्रगुप्त मौर्य के साथ उनके तथाकथित गुरु चाणक्य का नाम जोड़ना भी बुद्धिज़्म पर आधारित भारत की प्राचीनतम जीवन-शैली के अपहरण करने की साजिश का ही हिस्सा था। ये सब विदेशी ब्राह्मणों द्वारा किया गया षड्यंत्रकारी ब्राह्मणी कृत्य बौद्ध भारत के ब्राह्मणीकरण करने की काफी हद तक एक कामयाब लेकिन नापाक कोशिस है।

संस्कृत भाषा की प्राचीनता के संदर्भ में प्रो राजेंद्र प्रसाद सिंह जी, डाॅ. राजमल बोरा द्वारा लिखित "प्राकृत भाषा का इतिहास और भूगोल" का सन्दर्भ देते हुए लिखते है कि "३६५ पृष्ठों की यह पुस्तक अनेक साहित्यिक और पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर साबित करती है कि भारत की प्राचीन भाषा संस्कृत नहीं है। संस्कृत तो प्राकृतों के आधार पर उपजी, फूली और फली है। प्राकृत को प्राचीन भाषा बताने के क्रम में डाॅ. राजमल बोरा ने जिस फोनेटिक्स और फोनाॅलाॅजी का इस्तेमाल किया है, वह शायद भारत में प्रथम प्रयोग है।" अतः डॉ बोरा के विवरण से स्पष्ट होता है कि संस्कृत भाषा से पालि-प्राकृत व अन्य भाषाओ का जन्म नहीं हुआ है बल्कि पालि-प्राकृत भाषा से खुद संस्कृत भाषा का जन्म हुआ है। 

अगले क्रम में यदि पुराणों की तरफ गौर करें तो वायु पुराण में गयासुर का मिथक वर्णित है। एल.एस.एस. ओमेलि की प्रसिद्ध पुस्तक "गया" के अनुसार गयासुर का मिथक १४-१५वीं सदी का है। अतः इससे स्पष्ट होता है कि वायु पुराण की रचना १५वीं सदी के आस-पास या उसके बाद ही की गयी है। ऋग्वेद के सन्दर्भ में भी प्रो राजेंद्र प्रसाद सिंह लिखते है कि "ऋ" अक्षर का उल्लेख ७वीं सदी के बाद ही मिलता है तो फिर ऋग्वेद आदिम कैसे है?" इसका मतलब है कि ऋग्वेद की रचना भी ७-८वीं सदी के आस-पास या उसके बाद ही की गयी है। 

अयोध्याकाण्ड के सर्ग-१०९ के श्लोक ३३-३४ के अनुसार "उग्र तेज वाले नृपनंदन श्रीरामचंद्र, जावाली के नास्तिकता से भरे वचन सुनकर उनको सहन न कर सके और उनके वचनों की निंदा करते हुए उनसे बोले :-
 “निन्दाम्यहं कर्म पितुः कृतं , तद्धस्तवामगृह्वाद्विप मस्थबुद्धिम्। 
बुद्धयाऽनयैवंविधया चरन्त , सुनास्तिकं धर्मपथादपेतम्।।”
(अयोध्याकाण्ड, सर्ग – 109. श्लोक : 33)
 सरलार्थ :- हे जावाली, मैं अपने पिता (दशरथ) के इस कार्य की निन्दा करता हूँ कि उन्होने तुम्हारे जैसे वेदमार्ग से भ्रष्ट बुद्धि वाले धर्मच्युत नास्तिक को अपने यहाँ रखा। क्योंकि ‘बुद्ध’ जैसे नास्तिक मार्गी , जो दूसरों को उपदेश देते हुए घूमा-फिरा करते हैं , वे केवल घोर नास्तिक ही नहीं, प्रत्युत धर्ममार्ग से च्युत भी हैं।
 “यथा हि चोरः स, तथा ही बुद्ध स्तथागतं।
नास्तिक मंत्र विद्धि तस्माद्धि यः शक्यतमः प्रजानाम्
स नास्तिकेनाभिमुखो बुद्धः स्यातम्।।”
(अयोध्याकांड, सर्ग -109, श्लोक: 34 / Page :1678)
 सरलार्थ :- जैसे चोर दंडनीय होता है, इसी प्रकार ‘तथागत बुद्ध’ और और उनके नास्तिक अनुयायी भी दंडनीय है । ‘तथागत' (बुद्ध) और ‘नास्तिक चार्वक’ को भी यहाँ इसी कोटि में समझना चाहिए। इसलिए राजा को चाहिए कि प्रजा की भलाई के लिए ऐसें मनुष्यों को वहीं दण्ड दें, जो चोर को दिया जाता है। परन्तु जो इनको दण्ड देने में असमर्थ या वश के बाहर हो, उन ‘नास्तिकों’ से समझदार और विद्वान ब्राह्मण कभी वार्तालाप ना करे, मतलब कि बहिष्कार करें। कहने का मतलब यह है कि
"रामायण में बुद्ध का वर्णन है"।
 रामायण में बुद्ध का वर्णन बिना किसी संदेह के सिद्ध करता है कि रामायण बुद्ध के बाद लिखी गयी है, ना कि बुद्ध से हजारों साल पहले। मतलब कि वाल्मीकि बुद्ध के बाद हुए थे। रामायण कहता है कि खुद वाल्मीकि रामायण के एक पात्र है। मतलब राम और वाल्मीकि समकालीन है। इससे सिद्ध होता है कि जब राम और वाल्मीकि समकालीन थे, और वाल्मीकि ने अपनी रामायण में बुद्ध का वर्णन किया है तो बिना किसी संदेह के सिद्ध हो जाता है कि बुद्ध वाल्मीकि और उसके राम से सदियों प्रचीनतम हैं। मतलब कि बुद्ध धम्म प्राचीनतम है और जातिवादी मनुवादी नारी विरोधी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म से अभी हाल का ही है।

इससे एक बात और साबित होती है कि रामायण में राम ने उन बुद्धिष्टों के बहिष्कार की बात की है जिनकों वो दण्ड नहीं दे सकता है या जिनको दण्डित करना उसके वश में नहीं है या जिनका वो कुछ बिगाड़ ही नहीं सकता हैं। मतलब कि बुद्धिष्ट इतने शक्तिशाली है कि राम भी उनकों पराजित नहीं कर सकता है।
 अब सामाजिक पटल पर गौर करें तो हम पाते हैं कि रामायण में किये वर्णन के अनुसार राम के आदेश से बुद्धिष्टों का बहिष्कार हुआ। परिणामस्वारूप, भारत में एक बहिष्कृत समाज अस्तित्व में आया जिसे अछूत कहा जाता है, माना जाता है, जो कि आज भी मौजूद हैं। अब यहॉ बिना किसी संदेह के ये सिद्ध हो जाता है कि आज के भारत के ये अछूत ही कल के मूल बौद्ध हैं जिनकी रीति-रिवाजों, जिनकी जीवन-शैली में, संस्कृति में बुद्धिज्म आज भी साफ-साफ झलकता है, और साथ ही साथ राम व ब्रहम्णी वैदिक धर्म के प्रति बग़ावत भी।

डॉ एम् ए महेन्डेल के अनुसार गुप्तकालीन सम्राटों के संरक्षण में संस्कृत भाषा ने बहुत उन्नति की। उसी काल में पुराणों, स्मृतियों रामायण और महाभारत को अंतिम रूप दिया गया। इससे ये प्रमाणित हो जाता हैं कि संस्कृत भाषा में रचित ब्राह्मणी शास्त्रों की रचना गुप्तकाल या फिर उसके बाद हुई हैं। मतलब कि ये सब गौतम बुद्ध काल के सदियों बाद में अस्तित्व में ही आये। साथ ही साथ, ब्राह्मणी शास्त्रों के मुताबिक महाभारत की रचना रामायण के बाद की हैं। इसका मतलब ये होता हैं महाभारत की रचना भी गौतम बुद्ध के समय के सदियों ही हुई हैं। 


इसी तरह से डॉ. बेनीमाधब बरूआ द्वारा लिखित “गया और बुद्ध गया”, जिल्द १, पृष्ठ ६६ के अनुसार ब्राह्मणों के धर्मशास्त्र जैसे पद्म पुराण, गरुड़ पुराण, नारद पुराण आदि में गया तीर्थस्थल के बारे में विस्तृत वर्णन है। अतः ये सभी ग्रंथ ११ वीं सदी के बाद के हैं। इसी क्रम में हजारीप्रसाद द्विवेदी की पुस्तक "हिंदी साहित्य की भूमिका" में द्विवेदी जी ने लिखा है कि वाराह पुराण में रामानुजाचार्य का उल्लेख है। जबकि रामानुजाचार्य ११ सदी में थे तो ये वराह पुराण आदिकालीन कैसे हुआ? इसका सीधा-सीधा मतलब है कि इस सब पुराणों को लगभग १३-१४वीं सदी के आस-पास अन्तिम रूप दिया गया है। लेकिन ब्राह्मणों ने अपने साहित्य व संस्कृति की प्राचीनता और श्रेष्ठता को साबित करने के लिए इन पुराणों को सबसे प्राचीन होने का षड्यन्त्रात्मक भ्रम फैलाकर सामाजिक सत्ता पर अपने वर्चश्व को कायम रखा है। ये और बात है कि बहुजन विद्वानों और सामाजिक सुधारकों के संघर्षों की बदौलत इन ब्राह्मणों की षड्यन्त्रात्मक सत्ता आज अपनी अंतिम सांसे ले रही है।

इसी तरह से डॉ मोहन सिंह द्वारा लिखित "कबीर : हिज बायोग्राफी" के पृष्ठ संख्या ११-१४, के अनुसार कबीर के साथ गुरु ब्राह्मण रामानंद का नाम जोड़ना भी बहुजन साहित्य को बर्बाद करने का एक षड्यंत्र है क्योंकि ब्राह्मण रामानंद तो कबीर दास जी के जन्म से ४४ साल पहले ही गुजर चुके थे। ब्राह्मण विचारक ब्राह्मणीकरण को आगे बढ़ाने के लिए कबीर दास को एक विधवा, जिसका नाम कभी नहीं बताया गया, ब्राह्मणी के गर्भ से जन्मे होने की बात करते है जबकि हिंदी साहित्य सम्राट डॉ धर्मवीर भारती ने कबीर को दलित चिन्तन व साहित्य का प्रखर आधार बताया है। डॉ. धर्मवीर सही कहते हैं कि "दलित चिंतन का सही दार्शनिक आधार कबीर की इकतारे पर गाई वह साखी - ‘उत ते कोई न आया, जासों पूछिए धाय’ हैं।" कहने का आशय ये है कि ब्राह्मणों ने बहुजन विचारक संत कबीर का भी ब्राह्मणीकरण करने के लिए ब्राह्मणों ने जहाँ एक तरफ बहुजन समाज में जन्मे कबीर को विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से जन्मा बताया, वही दूसरी तरफ ब्राह्मण रामानन्द को कबीर दास का गुरु बना डाला है, जबकि तथ्य यह है कि कबीर के जन्म से ४४ पहले ही ब्राह्मण रामानंद गुजर चुके होते है। ब्राह्मणों द्वारा किया गया ये सारा षड्यंत्र बहुजन विचारकों, उनके साहित्य, विचारधारा और संस्कृति का अपहरण कर वैचारिक रूप से बहुजनों को अनाथ करने की एक चाल थी जो कि अब पूरी तरह से बेनक़ाब हो चुकी है, और अब नाकाम साबित हो चुकी है।

आगे, हिंदी की काव्यधारा के सन्दर्भ में प्रो राजेंद्र प्रसाद सिंह लिखते है "हिंदी साहित्य में राम काव्यधारा आरोपित है। राम काव्यधारा थी ही नहीं। ये जोड़-तोड़कर बनाई गई धारा है। साहित्य में धारा उसे कहते हैं, जिसमें कोई दर्जन भर कवि हों, उस प्रवृति की किताबें हों। संत काव्यधारा है, सूफी काव्यधारा है, कृष्ण काव्यधारा है। इसमें दर्जन क्या, पचासों कवि हैं, उस प्रवृति की किताबें हैं। मगर राम काव्यधारा में तुलसीदास को छोड़कर दर्जन क्या, आधा दर्जन नाम गिनाने में भी आप परेशान हो जाएंगे। फिर रीतिकाल के कवि केशव, सेनापति को गिनाने लगिएगा, जोड़-तोड़ करने लगिएगा। हिंदी में राम काव्यधारा जोड़-तोड़कर बनाई गई धारा है, वरना ऐसी कोई धारा हिंदी साहित्य में है ही नहीं।" आगे, परम्पराओं का हवाला देते हुए प्रो राजेंद्र प्रसाद सिंह जी कहते है कि "मठ श्रमण संस्कृति का प्रतीक है। कबीर- मठ बड़े पैमाने पर मिलेगा, मगर तुलसी- मठ एक भी नहीं मिलेगा। परंपराएँ इतिहास नहीं हैं, मगर कई मामलों में वह पुख्ता सबूत देती है।" इससे भी ये स्पष्ट होता है कि ब्राह्मणों ने अपने षड्यंत्र से मठों को भी बहुजन समाज से छीनकर बुद्धिष्ट मठों का ब्राह्मणीकरण करके अपने निकृष्टतम नारीविरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म के धंधे का अड्डा बना दिया है।

ब्राह्मणीकरण की इसी कड़ी में, कृष्ण और राधा के मिथक के सन्दर्भ में शशिभूषणदास गुप्त ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक "श्री राधा का क्रम विकास" में निष्कर्ष निकला है कि कृष्ण के साथ राधा की परिकल्पना बहुत बाद की है। कृष्ण-चरित्र का स्रोत-ग्रंथ "श्रीमद्भागवत" है। लेकिन आश्चर्य की बात है कि कृष्ण के जीवन में अभिन्न अंग के रूप में दर्शायी गयी राधा का श्रीमद्भागवत में नामोल्लेख तक नहीं है। राधा का प्रथम उल्लेख ७वीं सदी के आस-पास हाल रचित "गाहा सत्तसई" में मिलता है। पुरातत्व विज्ञानियों को राधा की प्रथम मूर्ती बंगाल के पहाड़पुर नमक स्थान से मिलती है, और वो भी ७वीं सदी के आस-पास की ही सिद्ध होती है। इसका मतलब ये हुआ कि राधा की कल्पना ७वीं सदी के आस-पास रची गयी, जिसे १३वीं सदी के कवि जयदेव ने "गीत - गोविंद" के माध्यम से परवान चढ़ाया है।

पुरातत्व विज्ञान और इतिहास के इन सबूतों से स्पष्ट है कि ब्राह्मणों ने बुद्ध-बुद्धिज़्म से ही प्रेरणा लेकर अपने तथाकथित भगवानों और उनके अवतारों की षड्यन्त्रात्मक रचना कर, पूरी की पूरी बौद्ध ज्ञान, साहित्य व संस्कृति का ही अपहरण कर लिया है।

आज बहुजन समाज के लोग जागृत हो गए है। अपनी अस्मिता को खोज रहे है। अपनी सांस्कृतिक विरासत को ढूढ़ रहे है। साहित्य को खंगाल रहे है। बाबा साहेब ने कहा है कि ब्राह्मणों का धर्म ब्राह्मणों के ज्ञान पर नहीं, बल्कि बहुजनो के अज्ञान पर टिका हुआ है। किसी भी समाज के साहित्य और संस्कृति के विकास का क्रम उस समाज के विकास के क्रम को दर्शता है। आज बहुजन समाज के लोग देश की बड़ी-बड़ी यूनिवर्सिटीस में जा रहे है, रिसर्च कर रहे  है। और, जहाँ एक तरफ अपने साहित्यिक और सांस्कृतिक विरासत को खोज-खोज कर निकल रहे है, वही दूसरी तरफ बहुजनों के अज्ञान पर टिके नारीविरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म की कब्र भी खोद रहे है, वो भी हमेशा के लिए। यही कारण है कि इन ब्राह्मणी लोगों ने, जो कि शासन और सत्ता पर असंवैधानिक अलोकतांत्रिक और अवैध रूप से काबिज़ है, देश के बड़े से बड़े पद के लिए बहुजनों के लोकतान्त्रिक आरक्षण के हक़ को कुछ हद तक ही सही लेकिन अपना लिया है, परन्तु उच्चतम रिसर्च सेंटर्स और विश्वविद्यालों में आरक्षण को मुकम्मल तौर आज भी अपनाने के लिए तैयार नहीं हो रहा है। क्योकि, ये ब्राह्मणी लोग ये विधिवत जानते है कि बड़े से बड़े पदों पर बैठकर बहुजन समाज के लोग तत्कालिक तौर पर हुक्मरान तो बन जायेगे लेकिन सांस्कृतिक सत्ता, जो कि चिरकालीन सत्ता है, पर काबिज़ नहीं पायेगें। इसीलिए बहुजन समाज की भागीदारी को केंद्रीय विश्वविद्यालयों व अन्य सभी शैक्षणिक संस्थानों और रिसर्च सेन्टर्स में अलोकतांत्रिक, असंवैधिनक और षड्यन्त्रात्मक रूप से नकारा जा रहा है, बहुजन छात्रों की फेलोशिप के साथ बार-बार छेड़छाड़ की जा रही है, बहुजन छात्रों के साथ खुले तौर पर जातीय भेदभाव किया जा रहा है, सांस्थानिक बलात्कार (डेल्टा मेघवाल) और सांस्थानिक हत्याएं (रोहित वेमुला) की जा रही है। इन सबके बावजूद बहुजन साहित्य लगातार इतिहास को भाषा विज्ञानं, पुरातत्व, लोकशैली आदि के आधार पर मुआयना कर इनके षड्यंत्रों बेनक़ाब कर रहा हैं। 

स्रोत -  
वी डी महाजन,  प्राचीन भारत का इतिहास
राजेंद्र प्रसाद सिंह, खोये हुए बुद्ध की खोज 
राजेंद्र प्रसाद सिंह, बौद्ध सभ्यता की खोज 

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