Thursday, June 1, 2017

न्यायिक चरित्र - मानवीय सभ्यता व मानवता की प्रखर पहचान

                             राजस्थान हाई कोर्ट के ब्राह्मण जज महेश चंद्र शर्मा (जी हाँ, ये वही महानुभाव है जो कहते है कि मोर सेक्स नहीं करता है और अपने आंसुओं से ही मोरनी को गर्भवती कर देता है , इसलिए राष्ट्रिय पक्षी है, और साथ ही साथ गाय को पर राष्ट्रिय पशु बनाने की अनचाही सलाह भी दे डालते है। फ़िलहाल इसमें फौरी तौर पर प्रखर मूर्खता दिखती है लेकिन हमारे निर्णय में वो इतना मूर्ख नहीं है जितना कि दिख रहें है। वो ऐसी टिप्पणी बहुत ही सोची समझी रणनीति व साज़िश के तहत पर कर रहें है, सरकार के रुख को देखते हुए कर रहें है क्योंकि पोस्ट-रिटायरमेंट बेनिफिट का अच्छा अवसर है। ये महेश चंद्र शर्मा जी जहाँ एक तरफ एक मझे हुए षड्यंत्रकारी ब्राह्मण है, वही दूसरी तरफ संवैधानिक पद पर आसीन होने बावजूद इसके चरित्र पर राजस्थान के हाई कोर्ट परिसर में लगी मनुमूर्ति का काफी गहरा प्रभाव भी है। ऐसे लोग सिर्फ और सिर्फ स्वार्थी ही नहीं, निकृष्ट दर्जे के अवसरवादी, गैरजिम्मेदार व धूर्त भी होते है।) जहाँ एक तरफ कोलेजियम की विफलता को साबित करते है, वही दूसरी तरफ ब्राह्मण महेश चंद्र शर्मा सफलतापूर्वक ये भी साबित करते है कि यदि कोई बड़े से बड़े पद पर बैठ जाता है तो इसका ये कतई मतलब नहीं है कि वो उस पद ये योग्य है।उदाहरणार्थ - मौजूदा केंद्र सरकार और उत्तर प्रदेश सरकार का मंत्री मण्डल ही देख लीजिये, इसके साक्षात् व पुख्ता सबूत है। 
              महेश चंद्र शर्मा इस तरह के अकेले उदहारण नहीं है। भारत के हर विभाग में ऐसे लोग बड़ी सरलता व सुगमता से मिल जायेगें, क्योंकि भारत का लगभग हर विभाग ऐसे एन्टीनाधारी मेरिट वालों से भरा पड़ा है। और तो और, हमारे माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी देश के प्रधानमंत्री पद पर आसीन जरूर है, लेकिन इसका ये बिल्कुल मतलब नहीं है कि वे प्रधानमंत्री पद के काबिल है। ठीक यही बात उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री अजय कुमार बिष्ट (आदित्यनाथ) पर भी लागू होती है। लोकतंत्र में ऐसे लोगों का शीर्ष पदों तक पहुँचना चुनावी लोकतान्त्रिक व्यवस्था की विफलता नहीं बल्कि समाज में व्याप्त अन्धविश्वास, भक्ति और तर्कहीनता का परिणाम है। हमारे विचार से, किसी का किसी पद पर चयनित होना या चुना जाना ही, उस पद के लिए उसकी योग्यता साबित नहीं करता है।

              ये तो बहुत पहले से ब्रिटिश प्रिवी काउन्सिल द्वारा स्थापित तथ्य है कि न्यायिक चरित्र से चरित्रहीन इन्सान सामान्यतः किसी भी पद के लिए, और खासकर निर्णायक व जिम्मेदार पदों के लिए, पूरी तरह से अयोग्य है। इसी वज़ह से प्रिवी काउन्सिल ने कहा था कि ब्राह्मणों में न्यायिक चरित्र नहीं होता और यही वज़ह रही कि ब्राह्मणों को अंग्रेजों ने क्लर्क के अलावा किसी भी अन्य पद पर जगह नहीं दिया। और, प्रिवी काउन्सिल की ये बात आज भी उतनी सच है, उतनी ही प्रासंगिक है जितनी कि ब्रिटिश हुकूमत के दौरान थी। लेकिन, ब्राह्मणों में न्यायिक चरित्र ना होने के बावजूद भी देश के सभी महत्वपूर्ण पदों पर इन्ही का कब्ज़ा है, फिर चाहे वो सचिवालय हो, विश्वद्यालय हो, उद्योगालय हो, न्यायलय हो, मीडियालय हो या फिर सिविल सोसाइटी। आज देश के सामने जो सबसे बड़ा प्रश्न है वो ये है कि इन न्यायिक चरित्र से मेहरूम लोगों में न्यायिक चरित्र विकसित कैसे किया जाय, ये बहुत ही महत्वपूर्ण और प्राथमिकता वाला प्रश्न है।

              अब प्रश्न यह उठता है कि न्यायिक चरित्र क्या होता है ? हमारे निर्णय में, न्यायिक चरित्र को जानने से पहले न्याय के बारे में जानना आवश्यक है। फिलहाल, आम जनमानस तो कानून की किताबों में लिखे कुछ नियमों के पालन को ही या उलंघन करने पर एक व्यवस्थित संस्था द्वारा सुनाये गए निर्णय को ही न्याय समझता है। आमतौर पर ये सच भी है क्योंकि न्याय इसी रूप में लोगों के सामने आता है। जैसा कि बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षाप्रतीक मानवता मूर्ती बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर कहते है कि न्याय को तय करने का पैमाना समता-स्वतंत्रता व बंधुत्व होना चाहिए। बाबा साहेब मानव जीवन में होने वाले सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक नीतियों और परिस्थितियों को न्याय की इसी कसौटी पर देखते है। यहाँ तक कि धर्म को भी मानवीय धर्म कहलाने के लिए बाबा साहेब के इसी समता-स्वतंत्रता व बंधुत्व पर आधारित न्याय के सिद्धांत पर खरा उतरना होगा। यदि कोई भी धर्म या मानव समाज द्वारा किया कोई भी कार्य चाहे वो राजनीतिक हो, सामाजिक-सांस्कृतिक हो या फिर आर्थिक हो इन सबको न्याय सम्मत होने के लिए समता-स्वतंत्रता व बंधुत्व की कसौटी वाले इसी न्याय के सिद्धांत पर खरा उतरना होगा। यदि ऐसा नहीं होता है तो वह कार्य व कृत्य किसी भी कीमत पर मानवीय नहीं हो सकता है। 

              बाबा साहेब के विचारों को मद्देनज़र रखते हुए हम ये कहना चाहते है कि न्याय किसी कानून की नहीं बल्कि समता-स्वतंत्रता और बंधुत्व की बुनियाद पर आधारित एक सिद्धांत है। कानून समय की मांग के अनुसार बदलते रहते है लेकिन मूलभूत सिद्धांत चिरकाल तक वही रहते है। समयानुसार कानून में फेर-बदल व संशोधन और नये कानून का अस्तित्व इसी न्यायिक सिद्धान्त पर टिका है। या यूँ कहें कि समय की जरूरत के अनुसार कानून में बदलाव न्याय के मूलभूत सिद्धांत को पूरा करने के लिए ही किया जाता है। न्याय को सिद्धांत के तौर पर देखे तो न्याय का उद्देश्य किसी को सजा देना नहीं होता है बल्कि सामाजिक सुव्यवस्था को सुव्यवस्थित रखने के लिए न्याय के सिद्धांत पर बनाये गए कानून की तामील हो, इसलिए सजा का प्रावधान है। फौरी तौर पर सजा का सम्बन्घ न्याय से दिखता जरूर है लेकिन यदि न्याय को एक सिद्धांत के तौर पर देखे तो इसका सजा से कोई लेना-देना नहीं है। दुनिया के किसी भी देश या समाज की प्रगतिशीलता और बौद्धिकता इस बात पर निर्भर करती है कि वो देश या समाज अपने लोगों के साथ किस तरह से पेश आता है, लोगों के बीच आपसी सम्बन्ध कैसे है, समाज में सभी लोगों के लिए विकास का अवसर कैसे है, खास तौर पर उनकी बैद्धिकता के विकास के कैसे अवसर है, क्या ये अवसर कुछ ही लोगों तक सीमित है या फिर सबके लिए समान है, लोगों में आज़ाद ख्याली कितनी है। इन्ही कुछ मूलभूत तथ्यों को जमीन पर उतारने के लिए कुछ कानूनी प्रावधानों की जरूरत होती है। ये कानूनी प्रावधान देश व समाज के हितैषी हो इसको जज करने के लिए कानून को जिस मूलभूत सिद्धांत की कसौटी पर कसा जाता है वही समता-स्वतंत्रता और बंधुत्व पर आधारित सिद्धांत ही न्याय है।

              किसी भी देश या समाज में न्याय के सिद्धांत पर आधारित कानून को अमल लाने के लिए अदालते जो रुख अपनाती है, कार्यपालिका की मशीनरी किस तरह से पेश आती है, नीति निर्धारण करने वाली संस्थाए कैसे और किस मानसिकता के तहत नीतियां बनाती है, ये जो कार्य है उनको अमली जामा पहनाने के लिए न्याय के सिद्धांत का पालन किया जाता है या नहीं, ये इन संस्थाओं में बैठे लोगों का न्यायिक चरित्र तय करता है। न्यायिक चरित्र की सबसे बड़ी विशेषता है निष्पक्षता के साथ न्यायिक सिद्धांतों का पालन करना। यहाँ पर न्यायिक सिद्धांतों का पालन अपने आप में निष्पक्षता को समेटे हुए है लेकिन फिर भी इसको उजागर करना आवश्यक है क्योंकि क्रियान्वयन करने वाले पदों पर बैठे लोग न्यायिक सिद्धांत की आड़ में अपने निजी पूर्वाग्रह से पीड़ित विचारों को थोपने का प्रयास यह कह कर करते है कि उनके पास कानून के व्याख्या करने का हक़ है लेकिन वे यह नहीं बताते है कि वे व्याख्या कैसे और किस आधार पर कर रहें कर रहे है। ये सच अदालतों को केस-दर-केस परिस्थिति के अनुसार कानूनों की व्याख्या करने का हक़ है। लेकिन, ये हक़ बड़ी किफ़ायत से साथ सिर्फ और सिर्फ न्यायिक मूल्यों पर किया जाना चाहिए जिससे कि अदालतों द्वारा किये गए निर्णय न्याय के सिद्धांत की कसौटी पर खरा उतर सके।

              इस लिहाज़ से यदि देखे तो सिर्फ मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म ही नहीं बल्कि खुद भारत के तथाकथित राष्ट्रपिता गाँधी भी न्याय की कसौटी पर खरे नहीं उतरते है क्योंकि ना सिर्फ ब्राह्मणी हिन्दू धर्म बल्कि इसके कट्टर समर्थक गाँधी भी न्यायिक चरित्र से विहीन इंसान थे। इसका सबसे प्रखर उदहारण उनका वो उपवास है जिसमे वो बहिष्कृत वंचित समाज को समता का स्थान देने में बाबा साहेब की मदद करने के बजाय उस ब्राह्मणी हिन्दू धर्म व वर्णाश्रम व्यवस्था की पुरजोर पैरवी करते है जो कि एक इंसान को दूसरे से नीच कहता है। कहने का तातपर्य यह है कि गाँधी भारतीय इतिहास का वह सबसे जाना-पहचाना चरित्र है जिनमें सकल मानव के लिए ना तो समता थी, ना स्वतंत्रता और ना ही आपसी भाई-चारा। गाँधी उस जातिव्यवस्था व वर्णाश्रम में अटूट विश्वास रखते हुए उसकी पैरवी करते है जो सदियों से भारत की २० फीसदी आबादी को जानवर से भी बदतर हालत में जीवन जीने को मजबूर किये हुए है। ऐसी व्यवस्था को बनाये रखने के लिए पैरवी करने वाला इंसान न्यायिक रूप से चरित्रवान कैसे हो सकता है ? लेकिन, ये भारत का दुर्भाग्य है कि भारत में ऐसे ही लोगो को महात्मा कहा जाता है, राष्ट्रपिता की उपाधि से नवाज़ा जाता है। 

             कहने का आशय यह है कि जब मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म और खुद तथाकथित ब्राह्मणों, सवर्णों और ब्राह्मणी रोग से ग्रसित लोगों के राष्ट्रपिता ही न्यायिक चरित्र से विहीन है तो उनके भक्तों में न्यायिक चरित्र हो, इसकी उम्मीद करना खुद उम्मीद के साथ नाइंसाफी होगी है। इनकी ब्राह्मणी हिन्दू धर्म और तथाकथित राष्ट्रपिता गाँधी की न्यायिक चरित्रहीनता देश के लिए बहुत भरी पड़ रही है। महेश चंद्र शर्मा, नरेंद्र मोदी, अजय बिष्ट जैसे तमाम भक्त भारत के विभिन्न विभागों व सस्थानों में असंवैधानिक व अलोकतांत्रिक रूप से भरे पड़े है जिनमे न्यायिक चरित्र का रत्तीभर भी अंश नहीं है। और, जब तक देश की कार्यपालिका, विधायिका, न्यायालय, सचिवालय, उद्योगलय, मीडियालय, विश्वविद्यालय व सिविल सोसाइटी में ये न्यायिक चरित्र से विहीन लोग भरे पड़े रहेगें तब तक भारत के इन संस्थानों से ना तो सम्यक न्याय मिल सकता है और ना ही इनसे न्याय की उम्मीद की जा सकती है। 

              फ़िलहाल जहाँ तक भारत के ब्राह्मणों, सवर्णों व ब्राह्मणी रोग से ग्रसित लोगों में न्यायिक चरित्र का विकास एकाएक तो हो नहीं सकता है और ना ही किया जा सकता है, बावजूद इसके कि इन लोगों में न्यायिक चरित्र का होना देश और मानव समाज के लिए नितान्त आवश्यक है। क्योंकि, किसी परीक्षा विशेष से लोगों का न्यायिक चरित्र तय करना बहुत ही मुश्किल काम है और ये भारत जैसे देश में तो बिलकुल भी प्रैक्टिकल नहीं दिखाई देता है क्योकि यहाँ पर आम तौर पर तर्क का नहीं बल्कि निकृष्ट शोषणवादी सोच, अंधविश्वास व भक्ति का बोलबाला है जो कि शायद ही दुनिया के किसी अन्य देश में इतना सहज व सरल हो जितना कि भारत के ब्राह्मणों, सवर्णों व ब्राह्मणी रोग से ग्रसित लोगों में है। ये बुराई यहाँ के लोगों में ही नहीं बल्कि यहाँ की ब्राह्मणी व्यवस्था व संस्कृति में ही निहित है। हमारे निर्णय ये कहना ज्यादा उचित होगा कि मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू व्यवस्था व संस्कृति की बुनियाद ही इसी शोषणवादी सोच, अंधविश्वास व भक्ति पर टिकी हुई है जिसके परिणामस्वरूप यहाँ के जनमानस ने खुद ही अपने बौद्धिक विकास को कुन्द कर रखा है। 

              फ़िलहाल, ख़ुशी की बात यह है कि भारत देश को बौद्धिक और सांस्कृतिक तौर पर स्वस्थ बनाने का जद्दोजहद बुद्ध से होते हुए कबीर, संत शिरोमणि रैदास, फुले द्वारा आगे बढ़ते हुए ना चली आ रही बल्कि बोधिसत्व विश्वरत्न मानवतामूर्ति शिक्षा प्रतीक बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर ने तो इसे ना सिर्फ क्रन्तिकारी रूप दिया बल्कि परवान चढ़ा दिया। लेकिन, ये भी सच है कि संस्कृतियों को बदलने, खासकर अन्धविश्वास और भक्ति पर बुराइयों वाली संस्कृति को बदलने, में समय लगता है। यदि हम मौजूदा भारत में मची उथल-पुथल को देखे तो ख़ुशी होती है कि आज का जम्बारी युवा इस जिम्मेदारी को समझ चुका है और अम्बेडकरी सामाजिक क्रांति की आग को आगे बढ़ने के लिए सतत प्रयासरत है।

              जहाँ तक रही बात ब्राह्मणों, सवर्णों और अन्य ब्राह्मणी रोग से पीड़ित लोगों में न्यायिक चरित्र विकास की तो ये काम भारत जैसे ब्राह्मणी रोग से ग्रसित व्यवस्था वाले समाज में मुश्किल है या नहीं, प्रैक्टिकल है या नहीं, इससे न्यायिक चरित्र जैसे प्राथमिकता वाले महत्वपूर्ण मुद्दे की महत्ता कम नहीं हो जाती है। 

              किसी भी देश को, खासकर भारत जैसे जातिवादी, गैरबराबरी वाले सामाजिक व्यवस्था को, बेहतर नागरिक देने के लिए उसके बच्चों में न्यायिक चरित्र का होना उस देश की और उस देश की शिक्षा प्रणाली व पाठ्यक्रम का निर्धारण करने वालों व सरकारों की प्रथम प्राथमिकता होनी चाहिए।

              हम ऐसा इसलिए कह रहे है क्योंकि हमारे निर्णय में, यदि हम देश को बेहतर नागरिक देना चाहते है तो उनके न्यायिक चरित्र का विकास अति आवश्यक है। इस न्यायिक चरित्र को किसी ट्रेनिंग विशेष से विकसित नहीं किया जा सकता है। हाँ, यदि बच्चों की परवरिश न्यायिक चरित्र की बुनियाद पर हुई है तो इस न्यायिक चरित्र को ट्रेनिंग द्वारा माज़कर और प्रखर अवश्य किया जा सकता है। और, जब हम बच्चों में न्यायिक चरित्र के बुनियाद की बात करते है तो इसका सीधा सम्बन्ध बच्चों की परवरिश से है, खासकर शिक्षा-दीक्षा के वातावरण व घरेलु परवरिश से। यहाँ हम शिक्षा-दीक्षा, खासकर विद्यालयी शिक्षा व पाठ्यक्रम, की बात इसलिए करना चाहते है क्योंकि बच्चों पर उनके टीचर्स का प्रभाव बहुत ज्यादा होता है, बच्चा सामान्य तौर पर टीचर्स और अपनी किताबों पर इतना विश्वास करता है कि वो इसके लिए अपने उन माँ-बाप से भी लड़ लेता है जिनके साथ वो टीचर्स से ज्यादा समय व्यतीत करता है। इसलिए बच्चों में न्यायिक चरित्र के विकास की सबसे बड़ी जिम्मेदारी विद्यालयों, टीचर्स और पाठ्यक्रम को तय करने वालों व सरकारों पर ज्यादा होती है।

              इस न्यायिक चरित्र को विकसित करने के लिए हमारी शिक्षा प्रणाली और इसके पाठ्यक्रम को न्यायिक चरित्रता देनी होगी। कहने का तात्पर्य यह है कि जब हमारे विद्यालयी पाठ्यक्रम ही न्यायिक चरित्र से चरित्रहीन है तो बच्चों में न्यायिक चरित्र कैसे विकसित होगा ? जहाँ तक सामाजिक और पारिवारिक परिवेश की बात करें तो हम पाते है कि उनमे सामान्यतः न्यायिक चरित्र नदारद ही होता है जो कि सामान्यतः भारत की ब्राह्मणी सामाजिक व्यवस्था, और खासकर ब्राह्मणों, सवर्णों और ब्राह्मणी रोग से ग्रसितों, में काफी आम है। क्योकि हम सब जानते है कि ब्राह्मणी सामाजिक व्यवस्था में बच्चों को किसके साथ खेलना है, किसके साथ स्कूल जाना है, किसके साथ बैठना है, किसके साथ खाना खाना है, किसका छुआ खाना है और किसका नहीं, कौन हमारी जाति वाला है और कौन हमसे नीच है, किस जाति वाले से कैसे बात करनी है, किस जाती वाले के सामने कैसे पेश आना है, इन सबकी शिक्षा स्वघोषित एन्टीनाधारी ब्राह्मणों, सवर्णों और ब्राह्मणी रोग से ग्रसितों के घरों में उतना ही आम है जितना कि एक सामान्य इंसान को जीने के लिए साँस लेना।

             हम सब ये जानते है कि हमारे संविधान ने शिक्षा संबन्धी निर्देश भी दिए है। संविधान कहता है कि हमारे देश की शिक्षा व्यवस्था तर्कवादी, मानवीय, सुधारवादी और वैज्ञानिक सोच को विकसित करने वाली हो, लेकिन क्या ये गुण हमारी शिक्षा नीति, विद्यालयों, अध्यापकों और पाठ्यक्रमों में मौजूद है ? मुझे बड़े अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि इनमे से कोई भी गुण ना तो भारत की शिक्षा नीति में है, ना तो अध्यापकों में है और ना ही पाठ्यक्रमों में मौजूद है। भारतीय शिक्षा प्रणाली व पाठ्यक्रमों के व्यवस्था ब्राह्मणी संस्कारों (जो कि अमानवीय, शोषणवादी, जघन्यतम और निकृष्ट है) को नैतिक शिक्षा का नाम देकर समाज के मुट्ठीभर लोगों को देश के मूलनिवासियों पर शोषणात्मक हुकूमत करने के तैयार कर रहा है और मूलनिवासियों को नैतिकता और संस्कारों की दुहाई देकर पीढ़ी-दर-पीढ़ी गुलामी करने को मजबूर बना रहा है।भारत की शिक्षा प्रणाली व पठ्यक्रमों की व्यवस्था में किसी भी तरह की न्यायिक चरित्र के विकास की है ही नहीं। न्यायिक चरित्र समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व की बात करता है जबकि भारतीय शिक्षा व्यवस्था में न्यायिक चरित्र का रत्तीभर भर अंश नहीं है। भारतीय शिक्षा व्यवस्था व इसके पाठ्यक्रम अपने बच्चों को ये पढ़ाते है कि राम ने गर्भवती अबला सीता को घर से कैसे निकल दिया और धर्म ध्वज रक्षक बन गया, कैसे पाण्डवों ने अपनी पत्नी को वस्तु की तरह दाँव पर लगाकर धर्मराज बन गए, हनुमान और भारत ने राम की कितनी सिद्दत से गुलामी की थी, देशद्रोही विभीषण कैसे दुश्मन की मदद कर राम का दोस्त बन जाता है और अपने ही देश को दूसरों के सामने समर्पित कर देता है, कैसे कृष्ण अपने गांव की गोपियों के संग रासलीला करता है और निस्वार्थ भी रहता है, कैसे पसीने से मकरध्वज का जन्म हो जाता है, कैसे प्लास्टिक सर्जरी द्वारा हाथी का सर गणेश पर फिट कर दिया जाता है, कैसे फल खाकर दशरथ की रानियाँ गर्भवती हो जाती है, कैसे लोगों को गुलामी वाली वर्णाश्रम व्यवस्था मानवता के लिए लाभदायक है। यदि ऐसी ही शिक्षा भारत में जारी रही तो हो चुका भारत की भावी पीढ़ियों में न्यायिक चरित्र का विकास! ऐसी निकृष्ट शिक्षा प्रणाली व निकृष्ट ब्राह्मणी व्यवस्था में नरेंद्र मोदी, मोहन भागवत, अजय बिष्ट और गाँधी जैसे न्यायिक चरित्र से विहीन लोग ही पैदा होगें, बुद्ध, कबीर, संत शिरोमणि संत रैदास, फुले और बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा प्रतीक मानवता मूर्ती बाबा साहेब अम्बेडकर जैसे महान शख्सियत नहीं। और, भारत जैसे देश को बुद्ध, कबीर, संत शिरोमणि संत रैदास, फुले और बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा प्रतीक मानवता मूर्ती बाबा साहेब अम्बेडकर जैसे महान शख्सियत की जरूरत है, मानवता के हन्ता आतंकवादियों की नहीं।  मौजूदा गैर संवैधानिक निकृष्ट ब्राह्मणी शिक्षा व्यवस्था व शिक्षण प्रणाली और पाठ्यक्रमों से देश के बच्चों के क्या तर्कवाद, मानवता, समाज सुधर और वैज्ञानिक सोच का विकास हो सकता है ? हमारे निर्णय में, बिलकुल नहीं। यदि हम भारतीय शिक्षा प्रणाली व व्यवस्था को देखे तो ना तो भारतीय शिक्षा, शिक्षक व पाठ्यक्रम में न्यायिक चरित्र का अंश मन्त्र भी नहीं है, और ना ही भारतीय शिक्षा नीति, शिक्षा प्रणाली व व्यवस्था संवैधानिक है।

             आखिर संविधान में वर्णित मूलभूत सिद्धातों जैसे कि न्यायिक चरित्र (समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व), तर्कवाद, मानवता, समाज सुधर और वैज्ञानिक सोच के विकास से विहीन शिक्षा नीति, शिक्षा प्रणाली व व्यवस्था न्यायिक रूप से चरित्रवान व संवैधानिक कैसे हो सकती है ? यदि देश के नागरिकों को इन्सान बनाना है तो उनमे न्यायिक चरित्र होना अति आवश्यक है वरना ये सिर्फ और सिर्फ एक इन्सानी मशीन बनकर रह जायेगें। 

             ये संविधान सम्मत न्यायिक चरित्र हमारे देश की भावी पीढ़ियों में तभी विकसित होगा जब उनकी परवरिश समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व पर आधारित न्यायिक चरित्र वाले माहौल में होगी, जब बच्चों को भक्ति, अंधविश्वास और निकृष्ट ब्राह्मणी संस्कार के बजाय मानवता, तर्कवाद, समाज सुधर और वैज्ञानिक सोच वाली मिलेगी। हमारा समाज खासकर ब्राह्मणी रोग से पीड़ित समाज, जो कि आज भी न्यायिक चरित्र से चरित्रहीन है, में न्यायिक चरित्र की शुरुआत शिक्षण संस्थानों से ही आसान होगी लेकिन इसके लिए हमारी सरकारों द्वारा शिक्षा नीति, शिक्षा प्रणाली, शिक्षण व्यवस्था व पाठ्यक्रमों को न्यायिक चरित्र से युक्त बनाना होगा।  

             ये न्यायिक चरित्र हमारी शिक्षा नीति, शिक्षा व्यवस्था, शिक्षा प्रणाली और हमारे विद्यालयों के पाठ्यक्रम में तभी विकसित हो सकता है जब हमारी शिक्षा नीति, शिक्षा व्यवस्था, शिक्षा प्रणाली और हमारे विद्यालयी पाठ्यक्रम गणेश प्लास्टिक सर्जरी, हनुमान उड़न यात्रा, कृष्ण रासलीला, रामगान, वेदोंपुराणों के महिमामण्डन और ब्राह्मणी संस्कार रुपी नैतिकता से पूरी तरह मुक्त हो, और तर्कवाद, वैज्ञानिक सोच, मानवता और समाज सुधार को समेटे समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व से सराबोर संविधान की आत्मा से युक्त हो।

जय भीम, जय भारत!

रजनीकान्त इन्द्रा 
इतिहास छात्र, इग्नू 


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