Tuesday, August 22, 2017

न्यायालय - एक न्यायिक संसद

न्याय की परिभाषा क्या है। न्याय के मापदण्ड क्या होने चाहिए। ये हमेशा से विद्वानों के लिए एक चुनौती रहा है। सभी विद्वानों ने अपने दौर में न्याय को परिभाषित करने के कोशिस की है। इन तमाम कोशिशों के बाद भी न्याय को आज तक उसकी मुक़म्मल परिभाषा नहीं मिल पायी है। हमारे विचार से, कभी मिल भी नहीं पायेगी क्योकि न्याय समय की माँग, मानव के राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक वौद्धिकता के विकास पर निर्भर करती है। उदहारण स्वरुप, भारत में एक समय वो भी था जब नरबलि, सतीप्रथा, डोलाप्रथा, बाल-विवाह आदि जैसी घिनौनी निकृष्टतम बुराइयाँ भी न्याय संगत थी, लेकिन समय के साथ-साथ और मानव बौद्धिकता के सतत विकास के चलते, इस तरह की सारी प्रथाएँ आज ना सिर्फ अन्याय पूर्ण है, बल्कि अमानवीय भी है।
डी.डी. रैफल के अनुसार - "न्याय द्विमुख है, जो एक साथ अलग-अलग चेहरे दिखलाता है। वह वैधिक भी है और नैतिक भी। उसका संबंध सामाजिक व्यवस्था से है और उसका सरोकार जितना व्यक्तिगत अधिकारों से है उतना ही समाज के अधिकारों से भी है।.......वह रूढ़िवादी (अतीत की ओर अभिमुख) है, लेकिन साथ ही सुधारवादी (भविष्य की ओर अभिमुख) भी है।" (डी.डी. रैफेल, प्रॉब्लम्स ऑफ पॉलिटिकल फिलॉसफी, मैकमिलन, नई दिल्ली, 1977, पृ. 165)
यूनानी दार्शनिक अफलातून (प्लेटो) ने न्याय की परिभाषा करते हुए उसे सद्गुण कहा, जिसके साथ संयम, बुद्धिमानी और साहस का संयोग होना चाहिए। उनका कहना था कि न्याय अपने कर्त्तव्य पर आरूढ़ रहने, अर्थात् समाज में जिसका जो स्थान है उसका भली-भाँति निर्वाह करने में निहीत है (यहाँ हमें प्राचीन भारत के वर्ण-धर्म का स्मरण हो आता है जो पूर्णतः क्रूरतम व निकृष्टतम है लेकिन उस समय इस बुराई को भी न्याय संगत माना जाता था जबकि देश की सबसे बड़ी आबादी की सारी दुश्वारियों का कारण यही थी) उनका मत था कि न्याय वह सद्गुण है जो अन्य सभी सद्गुणों के बीच सामंजस्य स्थापित करता है। उनके अनुसार, न्याय वह सद्गुण है जो किसी भी समाज में संतुलन लाता है या उसका परिरक्षण करता है।
लॉक, रूसो और कांट जैसे विचारकों की दृष्टि में न्याय का मतलब स्वतंत्रता, समानता और कानून का मिश्रण था। कहने का मतलब यह है कि न्याय की परिभाषा समय की माँग के अनुसार बदलती रही है। लेकिन फिर भी, यदि न्याय को परिभाषित करे तो हम कह सकते है कि जो समाज और उसके हर नागरिक के हित में, समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व पर आधारित, जो सबसे अच्छा हो वही न्याय है। अब ये और बात है कि "हित" शब्द का दायरा बड़ा और छोटा हो सकता है। हित का ये दायरा आगे फिर समाज के बौद्धिक विकास पर ही निर्भर करता है।
बाबा साहेब के अनुसार न्याय के तीन मापदण्ड होते होते है - समता, स्वतंत्रता बंधुत्व। किसी भी क़ानून, विचारधारा, रीति-रिवाज़ या फिर धर्म आदि कितना मानव समाज व इसके नागरिकों के लिए हितकर है, इसका पैमाना समता, स्वतंत्रता बंधुत्व के सिद्धांत से ही तय होता है। यदि कोई भी क़ानून, विचारधारा, रीति-रिवाज़ या फिर धर्म आदि समता, स्वतंत्रता बंधुत्व के सिद्धांत पर खरे उतरते है तो वे न्यायपूर्ण है, अन्यथा नहीं।
फिलहाल, आम जनमानस तो कानून की किताबों में लिखे कुछ नियमों के पालन तक को ही या उलंघन करने पर एक व्यवस्थित संस्था द्वारा सुनाये गए निर्णय को ही न्याय समझता है। आमतौर पर ये सच भी है क्योंकि न्याय इसी रूप में लोगों के सामने आता है। जैसा कि बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षाप्रतीक मानवता मूर्ती बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर कहते है कि न्याय को तय करने का पैमाना समता-स्वतंत्रता बंधुत्व होना चाहिए। बाबा साहेब मानव जीवन में होने वाले सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक आर्थिक नीतियों और परिस्थितियों को न्याय की इसी कसौटी पर देखते है। यहाँ तक कि धर्म को भी मानवीय धर्म कहलाने के लिए बाबा साहेब के इसी समता-स्वतंत्रता बंधुत्व पर आधारित न्याय के सिद्धांत पर खरा उतरना होगा। यदि कोई भी धर्म या मानव समाज द्वारा किया कोई भी कार्य चाहे वो राजनीतिक हो, सामाजिक-सांस्कृतिक हो या फिर आर्थिक हो इन सबको न्याय सम्मत होने के लिए समता-स्वतंत्रता बंधुत्व की कसौटी वाले इसी न्याय के सिद्धांत पर खरा उतरना होगा। यदि ऐसा नहीं होता है तो वह कार्य कृत्य किसी भी कीमत पर मानवीय नहीं हो सकता है।
फ़िलहाल, यदि आज की न्याय व्यवस्था न्यायालयों को देखे तो न्यायालयों का कार्य संविधान संसद द्वारा बनाये कानूनों के अनुसार सही या ग़लत का निर्णय करना (सिवाय कुछ बहुत सीमित क्षेत्र को छोड़कर जहाँ के लिए सीधे तौर पर कोई क़ानून दिखाई नहीं देता है, वहाँ अदालत विवेकाधिकार के आधार पर संविधान के मूल सिद्धांतों के दायरे में रहते हुए फैसला दे सकती है, कुछ नियम या गाइड लाइन जारी कर सकती (ज्यूडिसियल लेजिस्लेशन), लेकिन ये दायरा बहुत ही सीमित है। ये और बात है कि न्यायालयों में बैठे ब्राह्मण-सवर्ण जजों ने इसका ख्याल बहुत कम ही रखा है)। न्यायालयों को यदि हम भारत के परिप्रेक्ष्य में देखे तो हम पाते है कि न्यायालयों में एक ख़ास तबके का एक छत्र राज़ है - ब्राह्मण-सवर्ण फिरका। जबकि भारत में इस ब्राह्मण-सवर्ण-ब्राह्मणी समाज की तादात लगभग १२-१५% है और बहुजन समाज की आबादी ८५-८८% के क़रीब है। और तो और, अदालतों में तीन-चौथाई से काफ़ी अधिक मामले वंचित, आदिवासी, पिछड़े और अक़लियत समाज के खिलाफ है। कहने का तात्पर्य ये है कि भारत के जातिवादी समाज में जिस तबके के खिलाफ मुकदमे है उस तबके का न्यायलयों में प्रतिनिधित्व नगण्य है। मतलब कि भारत के न्याय व्यवस्था में शोषितों का प्रतिनिधित्व व भागीदारी नगण्य है और शोषकों का लगभग सौ फ़ीसदी है। भारत के न्यायलयों पर उस ब्राह्मण तबका का एक छत्र राज़ है जिसके पास न्यायिक चरित्र होता ही नहीं है (प्रिवी काउन्सिल, ब्रिटिश सरकार)। ऐसे में इन न्यायालयों में एक छत्र राज़ कर रहे ब्राह्मणो-सवर्णों, जो कि शोषक वर्ग है, वंचितों के लिए न्याय एक दिवा-स्वप्न के सिवा कुछ नहीं है। 
बाबा साहेब सरकारी पदों पर बैठे अधिकारीयों व कर्मचारियों के बारे में कहते है कि अधिकारीयों व कर्मचारियों का सिर्फ भ्रष्ट होना उतना खतरनाक नहीं है जितना कि उनका पक्षपाती (जातिवादी) भष्ट होना। बाबा साहेब कहते है कि यदि एक अधिकारी भ्रष्ट है तो उसे कोई भी अधिक बोली लगाकर खरीद सकता है लेकिन यदि वो पक्षपाती (जातिवादी) भ्रष्ट है तो उसे सिर्फ उसकी जाति वाला ही खरीद सकता है। और, यदि कोई ख़रीददार नहीं मिला तो भी वह बिना एक भी पैसा लिए, अन्याय ही करेगा क्योंकि वो पक्षपाती (जातिवादी) भी है। कहने का तात्पर्य ये है कि जाति, जातिवाद, जातिवादी अत्याचार, जातिवादी हमले आदि भारत की सच्चाई है। भारत के न्याययलयों में पुरुषवादी नारी-विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी बैदिक ब्राह्मणी हिन्दू आतंकवादी ब्राह्मणों-सवर्णों का ही अवैध, अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक कब्ज़ा है। इसे नज़रअंदाज़ करके न्याय नहीं किया जा सकता है। ये और बार है कि भारत के न्यायालयों में जाति को नज़रअंदाज़ करके की जातिवादी न्याय किया जा रहा है, और बेहतर शब्दों में कहें तो जातिवादी न्याय करके इसे खुलेआम बेचा जा रहा है।
भारत में अदालतों का जो जातिवादी पक्ष देखने को  मिलता है उसके मद्देनज़र, हमारे विचार से, न्यायलय एक न्यायिक संसद है। इसमें भी राजनीति होती है। इसमें भी फ़ैसला बहुमत से ही होता है, संविधान की मूल आत्मा कानून की मंशा से नहीं। यही कारण है कि अदालतों के फ़ैसले भी दो प्रकार के होते है - मेजॉरिटी जजमेन्ट और माइनॉरिटी जजमेन्ट। इसलिए न्यायालयों के हर क्षेत्र के हर स्तर पर वंचित जगत का समुचित प्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी (आरक्षण) अनिवार्य है। यही लोकत्रांतिक मूल्य और यही बाबा साहेब रचित भारत संविधान की मंशा है। 
भारत के न्यायलयों की जातीय संरचना के मद्देनज़र देखे तो हम पाते है कि भारत के न्यायलयों पर पुरुषवादी नारी-विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी बैदिक ब्राह्मणी हिन्दू आतंकवादी ब्राह्मणों-सवर्णों का ही अवैध, अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक कब्ज़ा है। यहाँ पर वंचित, आदिवासी, पिछड़े और अकलियतों की भागीदारी लगभग शून्य है, जबकि भारत के जनसंख्या में इनकी कुल भागीदारी ८५% से भी अधिक है। अदालतों में जो मुकदमे आते है उनमे वंचित जगत, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यों पर अत्याचार, आक्रमण, अतिक्रमण के मुकदमे होते है। ये अत्याचार, आक्रमण, अतिक्रमण करने वाले कोई और नहीं बल्कि वही पुरुषवादी नारी-विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी बैदिक ब्राह्मणी हिन्दू आतंकी ब्राह्मण-सवर्ण ही है। इस स्थिति में जब फ़ैसले बहुमत यानी कि संविधान कानून के आधार पर ना होकर जजों की निजी मंशा के अनुरूप होता है तो ऐसा न्याय कितना न्यायपूर्ण होगा इसको समझाना बहुत ही सरल सहज है। कहने का तात्पर्य ये है कि जब अदालतों के फ़ैसले लोकतंत्र संविधान निहित मूल्यों के बजाय बहुमत-अल्पमत से होते है।मतलब कि ब्राह्मणी जजों की निजी मंशा के अनुसार होते है। इन्हीं ब्राह्मणी जजों का देश के न्यायलयों पर एक छत्र राज़ है। देश के न्यायालयों में ब्राह्मणों-सवर्णों के एक छत्र राज़ के चलते देश की न्यायिक संसद के पटल पर सत्ता में भी वही है और विपक्ष में भी। तो साधारण सी बात है कि बहुमत भी उन्हीं ब्राह्मणों व सवर्णों का ही है। तो ऐसे में वंचित जगत को न्याय कैसे मिल सकता है।
भारत के पूरी न्याय व्यवस्था को देखे तो हम पाते है की वकील, जज, अधिकारी, मुंशी चपरासी सबके सब उसी ब्राह्मणी फिरके से आते है, सिवाय फरियादी के।उदहारण के लिए उत्तर प्रदेश की हायर ज्यूडिसियल सर्विसेस में लगभग पिछले उन्नीस सालों में वंचित जगत का चयन शून्य रहा है, क्यों। इसके पीछे के षड्यंत्रकारी कारण को समझने की जरूरत है। पहली बात तो ये है कि यही हायर ज्यूडिसियल सर्विस द्वारा चयनित जज ही जिला स्तर पर न्याय व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करते है और यही आगे चलकर हायर ज्यूडिसियरी में जज बनते है। ये कहने की जरूरत नहीं है कि किसी भी नियम या कानून की वैधानिकता व संवैधानिकता को तय करने का अधिकार हायर ज्यूडिसियरी को ही है। तो ऐसे में, इन अलोकतांत्रिकवादी ब्राह्मणों-सवर्णों ने न्यायपालिका के सबसे महत्वपूर्ण पदों को खुद तक सीमित कर लिया है। 
दूसरी बात ये है कि इन अलोकतांत्रिकवादी ब्राह्मणों-सवर्णों ने कैसे बड़ी ही धूर्तता से वंचित जगत को हायर ज्यूडिसियरी में जाने से रोक रखा है। उत्तर प्रदेश की हायर ज्यूडिसियल सर्विसेस में योग्यता के लिए एल.एल.बी. के साथ सात साल का वक़ालत का अनुभव होना चाहिए। सवाल यह उठता है कि जब जिलाधिकारी बनने के लिए सिर्फ़ स्नातक की डिग्री काफी है, पुलिस अधीक्षक बनने के भी स्नातक ही काफी है, इंजीनियर होने के लिए बी.टेक काफी है, तो फिर जिला जज बनने के लिए ही क्यों एल.एल.बी. के बाद सात साल का वकालत रिकार्ड चाहिए। इसके पीछे भी अलोकतांत्रिक व असंवैधानिक तरीके से सत्तासीन ब्राह्मणों का क्रूर व घिनौना षड्यंत्र है।
ब्राह्मण ये जनता है कि वंचित, आदिवासी, पिछड़े जगत के लोग आर्थिक रूप से ग़रीब है, सामाजिक तौर पर कमज़ोर है। इसलिए यदि पढ़े तो कुछ पढ़े नहीं तो होश सभालते ही रोजी-रोटी में जुट जाना इनकी मज़बूरी है। यदि कुछ ने पढाई की भी तो दसवीं-बारहवीं के बाद से ही ये नौकरी के लिए भागने लगते है। बड़ी ही दुश्वारियों का सामना करने के बाद कुछ लोग किसी तरह से स्नातक कर पाते है। स्नातक करने बाद, घर की आवश्यकताओं और रोजी-रोटी के लिए नौकरी बहुत जरूरी हो जाती है। ऐसे में वंचित जगत के लोग स्नातक स्तर पर कुछ तैयारी करने के बाद जो भी नौकरी मिल जाये उसी से संतोष कर लेते है। इनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति इनको इससे ज्यादा का समय नहीं देती है। इसलिए वंचित जगत के लोगों के लिए पहले कम से कम तीन साल का स्नातक, फिर तीन की एल.एल.बी. और फिर सात साल का वक़ालत रिकार्ड उनकी आर्थिक सामाजिक पहुँच के बाहर की बात हो जाती है। जबकि सामाजिक रूप से वर्चश्वशाली और आर्थिक रूप से समृद्धि व संपन्न ब्राह्मण-सवर्ण समाज के लिए वही पढाई बहुत आसान होती है। ब्राह्मणों-सवर्णों को गाइड करने, नोट्स उपलब्ध कराने, वक़ालत करने में सहयोग देने वाला, सिफारिस करने वाले, जरूरत पड़े तो अन्य सभी सम्भव मदद करने वाले भैया-चाचा-ताऊ-मामा-फूफ़ा-जीजा-यहाँ तक कि ब्राह्मण-सवर्ण जाति वाला पड़ोसी भी मिल जाता है। जानकारी का आभाव, दिशा-निर्देश का आभाव, कॅरियर संबंधी जानकारी का आभाव, अपनों के सहयोग का आभाव आदि से महरूम वंचित जगत का अधिकांश समय इन अभावों की भरपाई करने में ही लग जाता है। इसके बाद तब कहीं जाकर इनको उचित जानकारी मिल पाती है। फ़िलहाल तब तक एक बहुत लम्बा समय बीत चूका होता है, उम्र भी बढ़ चुकी होती है, घर की आर्थिक परिस्थिति मजबूर कर रही होती है, सामाजिक बन्धन पैरों को बाँधने को तत्पर होते है, अपने से छोटों की जिम्मेदारियाँ उफ़ान पर होती है। ऐसे में तीन साल का स्नातक, फिर तीन साल की एल.एल.बी. और फिर कम से कम सात साल की वकालत बहुत ही मुश्किल हो जाता है। नतीजा, या तो वंचित जगत का छोटी-मोटी सरकारी ना सही तो प्राइवेट और प्राइवेट भी ना मिली तो मज़दूरी से घर की रोजी-रोटी और अपनों की जिम्मेदारियाँ उठाने में ही उम्र गुजर जाती है। ऐसे में वंचित जगत को सरकार की नीतियों और संसद-विधानसभा और न्यायालयों पर सवाल करने का समय तो नहीं मिल पाता है, सत्ता में अवैध, अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक तरीके से काबिज़ ब्राह्मणों-सवर्णों के षड्यंत्रों को जानना-समझना तो बहुत दूर की बात है। कहने का मतलब है कि बारहवीं के बाद तेरह साल तक लगातार मेहनत करने के बाद (यदि विश्वविद्यालयों में बैठा जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी प्रोफ़ेसर फेल ना करे तब) इनको उत्तर प्रदेश की हायर ज्यूडिसियल सर्विसेस में सिर्फ आवेदन करने के लायक़ बनती है। फिर इसके बाद इनका हायर ज्यूडिसियल सर्विसेस में चयन होगा, इसकी कोई गारण्टी नहीं है, क्योकि लोक सेवा आयोग और न्यायालयों में भ्रष्ट नहीं, पक्षपाती (जातिवादी) भ्रष्ट लोग बैठे हुए है।
अब सवाल ये उठता है कि ये अलोकतांत्रिक असंवैधानिक तरीके से सत्तासीन ब्राह्मण वंचित जगत को दुखी आत्मा से ही सही लेकिन जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक तो बनने देता है लेकिन जिला जज, हायर ज्यूडासरी के जज और प्रोफ़ेसर वाले पदों के मामलों में ये उदासीन भी नहीं रहता है बल्कि प्रखर विरोध करता है, क्यों? हमारे विचार से, लोकतंत्र में जहाँ एक आदमी-एक वोट और एक वोट-एक मूल्य है तो वहां पर ये वंचितों के अधिकारों को रोक नहीं पाते है, लेकिन इन्हीं न्यायालयों में एक छत्र अलोकतांत्रिक, असंवैधानिक व अवैध रूप से कब्ज़ा जमाये पुरुषवादी नारी-विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी ब्राह्मण-सवर्ण जजों की मदद से, ये ब्राह्मणी लोग वंचितों को ना सिर्फ वंचितों को उनके संविधान प्रदत्त मूलभूत मानवाधिकारों व लोकतान्त्रिक अधिकारों से रोक देते है बल्कि ये ब्राह्मण-सवर्ण मनचाहा रूप से वंचित का मनचाहा-मनमाना जातिवादी ब्राह्मणी मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी सामंती शोषण करते है कहने का मतलब यह है कि जो काम ये ब्राह्मण-सवर्ण संसद के द्वारा नहीं कर पाते है, ये लोग वही कार्य सरलतापूर्वक न्यायालयों में एक छत्र अलोकतांत्रिक, असंवैधानिक व अवैध कब्ज़ा जमाये ब्राह्मण-सवर्ण जजों के माध्यम से बड़ी ही सहजता से करवा लेते है। क्योकि, न्यायालयों में जजों के लगभग सभी पदों पर यही पुरुष-प्रधान नारी-विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी बैदिक ब्राह्मणी हिन्दू आतंकी ब्राह्मण-सवर्ण ही बैठे है। उदहारण स्वरुप - जब संसद के माध्यम से ब्राह्मण ब्राह्मणी रोगी मण्डल कमीशन को नहीं रोक पाए तो न्यायालयों के माध्यम से क्रीमी लेयर, रिज़र्वेशन अंडर फिफ्टी परसेंट का प्रावधान लागू करवा लिया अदालतों ने ही निर्णय दिया था कि मेडिकल इंजिनीरिंग सस्न्थानों आदि में यदि आरक्षण के तहत सुरक्षित सीट्स पर आरक्षित वर्ग से योग्य उम्मीदवार ना मिले तो उन स्थानों पर सवर्णों को भरा जा सकता है। संसद विधान सभाओं द्वारा पदोन्नति में आरक्षण का प्रावधान लागू हुआ था लेकिन इन्हीं न्यायायलों ने इसे असंवैधानिक करार कर निरस्त कर दिया।
इसीलिए एनडीए- की बाजपाई सरकार में, जब एक बहुजन विरोधी आतंकवादी संगठन आरएसएस के एक आतंकवादी ने बाजपेयी से आरक्षण को खत्म करने की बात कही तो बाजपेयी के जबाब दिया कि ये काम संसद द्वारा संभव नहीं है। इसके लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाओ। वहाँ से बड़ी आसानी से ये कार्य किया जा सकता है। ऐसा बाजपेयी इसलिए कहते है क्योकि बाजपाई जानते है कि एक आदमी-एक वोट और एक वोट-एक मूल्य वाली संसद में मजबूरी के कारण आरक्षण के ख़िलाफ़ कुछ नहीं हो सकता है लेकिन न्यायालयों में तो उन्हीं पुरुषवादी नारी-विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू आतंकवादियों का ही अवैध-अलोकतांत्रिक-असंवैधानिक कब्ज़ा है। इसलिए न्यायालयों के माध्यम से ये काम बहुत ही सुगमता करवाया जा सकता है और, ये कार्य हुआ भी और ये बहुजन विरोधी ब्राह्मणी आतंकवादी अपने मकसद में पूरी तरह से कामयाब भी हुए। मतलब साफ़ है कि न्यायलयों में बैठे ब्राह्मण ब्राह्मणी रोग से ग्रसित रोगियों ने वही किया जो वंचित जगत, आदिवासी जगत, पिछड़े जगत का धुर विरोधी ब्राह्मण-सवर्ण चाहता है।
ठीक इसी तरह से, ये पुरुषवादी नारी-विरोधी जातिवादी सनातनी मनुवादी बैदिक ब्राह्मणी हिन्दू आतंकी ब्राह्मण-सवर्ण, वंचित जगत को प्रोफ़ेसर रिसर्च के पदों पर भी जाने से रोकता है। क्योकि, ये ब्राह्मण-सवर्ण अच्छी तरह से जनता है कि यदि वंचित जगत के लोग प्रोफ़ेसर रिसर्च के पदों पर आ गए तो ये अपने वज़ूद को खोजेगें, अपनी अस्मिता को ढूढ़ेगें, अपनी संस्कृति को खोदकर निकलेगें और, जब ये वंचित जगत अपनी पहचान, वज़ूद और संस्कृति और इतिहास को खोजेगा तो भारत का ये वंचित जगत इन ब्राह्मणों की सदियों से चली रही अमानवीय निकृष्टतम ब्राह्मणी सत्ता को हमेशा-हमेशा के लिए धरती के कोर में दफ़न कर देगा। इसीलिए देश के सभी प्रतिष्ठित मेडिकल, इंजिनीरिंग, विज्ञानं, सामाजिक-विज्ञानं के सभी संस्थानों विश्वविद्यालयों में आरक्षण को येन-केन-प्रकारेण नकार दिया जाता है। यदि फिर भी कोई वंचित पहुँच भी गया तो उसके साथ जातिवादी सलूक़ किया जाता है। वंचित जगत के शोध छात्रों (जैसे कि रोहित वेमुला, हैदराबद विश्वविद्यालय, जेएनयू, केंद्रीय विश्वविद्यालय अजमेर, बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर केंद्रीय विश्विद्यालय लखनऊ, आईआईटी-मद्रास आदि) पर हमले किये जाते है। विश्वविद्यालयों के प्रोफेसरों व अधिकारीयों (जैसे कि बाबासाहेब भीमराव अम्बेडकर केंद्रीय विश्विद्यालय लखनऊ में वंचित जगत से सम्बंधित महिला सहायक रजिस्ट्रार के साथ ब्राह्मण कनिष्ट रैंक के अधिकारी द्वारा बद्सलूकी, बदजुबानी, फ़िजकल अटैक किया जाता है, आदि) पर आक्रमण किये जाते है। जहाँ तक रही बात भारत के सरकारी गैर-सरकारी संस्थाओं में साइलेंट जातीय शोषण की तो वह भारत के ब्राह्मणी समाज का सांस्कृतिक हिस्सा ही है। 
कुल मिलाकर आज भारतीय न्यायलय, न्याय की संस्था होने के बजाय ब्राह्मणो ब्राह्मणी जजों की संस्था बनकर रह गयी है। यहाँ न्याय संविधान के अनुसार नहीं बल्कि मनुस्मृति के अनुसार होता है। यहाँ फ़ैसला कानून के समक्ष समानता के सिद्धांत के बजाय जाति धर्म देखकर होता है। यहाँ कानून का नहीं बल्कि मनुवादियों का राज़ है। यहाँ न्याय मिलता नहीं है बल्कि पक्षपाती (जातिवादी) रूप से बिकता है। अदालतों में ज्यादातर मामलात वंचित, आदिवासी, पिछड़े और अकिलियत समाज से जुड़े है, सबसे ज्यादा अंडरट्रायल इसी वर्ग के लोग है, सबसे ज़्यादा फांसी इसी वर्ग के लोगों को होती है, जेलों में कैद लोग इसी बहुजन समाज के लोग है, सबसे ज्यादा अत्याचार और आक्रमण इसी बहुजन समाज पर होता है, लेकिन लगभग सभी वकील और जज सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मण-सवर्ण समाज है, क्यों? हमारे बहुजन समाज की भागीदारी न्याय व्यवस्था में नगण्य है, क्यों ? आज संविधान के बेसिक मूल्यों के मुद्दे पर, जो कि पूर्णतः स्पष्ट है, वहाँ पर भी ब्राह्मण ब्राह्मणी रोगी विवाद की स्थिति बनाकर न्यायालयों द्वारा बहुमत-अल्पमत वाले फैसले दे रहे है, क्यों? यदि हम गौर से देखे तो ये न्यायालय कम ब्राह्मणी सत्ता व ब्राह्मणी विपक्ष वाला संसद ज्यादा लगता है। यहाँ न्यायिक लेजिस्लेशन पारित होते है। ये भी उसी बहुमत-अल्पमत की थ्योरी पर आधारित है जिससे कि ब्राह्मणों द्वारा लिए गए एकतरफा ब्राह्मणी फैसले एकतरफा ना कहा जाय। ऐसे में ये न्यायालय, न्यायलय ना होकर ब्राह्मणी सत्ता-ब्राह्मणी विपक्ष वाला न्यायिक संसद बन चुका है। और जब ये न्यायालय, न्यायिक संसद बन चुके है तो ऐसे में लोकतान्त्रिक व संवैधानिक मूल्यों को ध्यान में रखते हुए इस न्यायिक संसद में हर वर्ग का समुचित प्रतिनिधित्व सक्रिय भागीदारी अनिवार्य हो जाती है। ऐसे में, न्यायिक संसद के हर क्षेत्र के हर स्तर पर बिना समुचित प्रतिनिधित्व सक्रिय भागीदारी के वंचित जगत को न्याय नहीं मिल सकता है।
हमारे विचार से, न्याय व्यवस्था के सभी जगहों पर हमारी समुचित प्रतिनिधित्व सक्रिय भागीदारी के नगण्य होने की वजह से ही बहुजन समाज के साथ अत्याचार, अनाचार व बहुजन समाज पर रोज आक्रमण हो रहे है, बहुजन ही फांसी पर चढ़ रहे है, अंडरट्रायल के रूप में पूरी की जिंदगी सलाखों के पीछे काट दे रहे है।
फ़िलहाल, समाज और उसके हर नागरिक के हित में, समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व के सिंद्धात पर आधारित, जो सबसे अच्छा हो वही न्याय है लेकिन "हित" के दयारात्मक पहलू की जटिलता व विशालता के दायरे को देखने से पता चलता है कि हम न्यायालयों में बहुमत-अल्पमत आधारित निर्णयों को नकार नहीं सकते है। ऐसे में जब अदालतों के फैसले भी संसद की तरह जनमत से ही हो रहे है तो भारत के न्यायालयों को न्यायिक संसद कहना सटीक रहेगा। इसलिए स्पष्ट तौर पर न्यायलयों को न्यायिक संसद कहना उचित है। हम सब जानते है कि संसद में हर तबके की भागीदारी। हर तबके का समुचित प्रतिनिधित्व होता है। हर तबके के लोग अपने प्रतिनिधियों द्वारा अपनी बात को निर्भीकता से रख सकते है। बहुमत-अल्पमत को मद्देनज़र, हमारे विचार से, न्यायलय एक न्यायिक संसद है। इसमें भी राजनीति होती है। इसमें भी फ़ैसला बहुमत से ही होता है, भारत के जातिवादी लोगों की जातिवादी मंशा के चलते संविधान की मूल आत्मा से नहीं। यही कारण है अदालतों के फ़ैसले भी दो प्रकार के होते है - मेजॉरिटी जजमेन्ट और माइनॉरिटी जजमेन्ट। इसलिए न्यायालयों के हर क्षेत्र के हर स्तर पर वंचित जगत का समुचित प्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी (आरक्षण) अनिवार्य है। यही देश के हर समुदाय के हर नागरिक के हित में है। यही लोकत्रांतिक मूल्य और यही बाबा साहेब रचित भारत संविधान की मंशा है।
(रजनीकान्त इन्द्रा, इतिहास छात्र, इग्नू-नई दिल्ली, अगस्त २२, २०१७)

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