Thursday, August 24, 2017

ओबीसी वर्ग का उपवर्गीकरण - ओबीसी में फ़ूट डालने की साज़िस

आरएसएस, जो कि ब्राह्मणों का एक संगठन है जिसमे अन्य सवर्ण और कुछ ग़ुमराह शूद्र वर्णाश्रम आधारित व्यवस्था के तहत गुलामी कर रहे है, के नेतृत्व वाली ब्राह्मणी बीजेपी के मंत्री अरुण जेटली ओबीसी वर्ग के नीचले तबके को आरक्षण का लाभ पहुंचाने के लिए ओबीसी को दो या अधिक वर्गों में बाँटने लिए समिति के गठन की बात कर रहे है। इनका कहना है कि आरक्षण का लाभ सिर्फ और सिर्फ कुछ चंद जातियों जैसे कि अहीर-कुर्मी आदि तक ही सीमित रहा गया है जबकि आज जिनकों आरक्षण की वाकई जरूरत है उनकों इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है। इनके इस तथ्य इनकार नहीं किया जा सकता है। 

फिलहाल हमारा सवाल यह है कि संघियों के लिए आरक्षण के मायने क्या है? मण्डल कमीशन लागू करने के दौरान संघियों ने इसका तीव्रता से प्रखर विरोध किया था, क्यों? सदियों से लेकर आज तक जो बहुजनों का शोषक रहा है आज वो बहुजन पोषक कैसे बन गया है? सदियों से जिसने सामाजिक अन्याय किया है आज वो सामाजिक न्याय का पुरोधा कैसे हो सकता है? ये बहुजन नुमाइंदों, विचारकों और खुद बहुजन समाज, खासकर ओबीसी वर्ग, को सोचने की जरूरत है। 

ये भारत का अकाट्य सत्य है कि देश के हर क्षेत्र के हर स्तर (जैसे कि शासन-प्रशासन, सचिवालय, न्यायालय, उद्योगालय, मीडियालय, विश्वविद्यालय, विधनालय, सिविल सोसाइटी आदि जगहों) पर पुरुषवादी नारी-विरोधी मनुवादी सनातनी जातिवादी वैदिक ब्राह्मणी ब्राह्मणों-सवर्णों (ब्राह्मण-सवर्ण) और इनके गुलामों ने अवैध, अलोकतांत्रिक व असंवैधानिक कब्ज़ा जमा रखा है। अपने इस अवैध, अलोकतांत्रिक व असंवैधानिक सत्ता की बदौलत, इन लोगों ने संविधान और लोकतंत्र के मूलभूत मूल्यों की हत्या कर दी है। न्यायालय के माध्यम से इन मूल्यों को तरलतम कर दिया गया है। प्रेस्टीट्यूट मीडियालय की बदौलत इन मूल्यों को ग़लत ढंग से परोसा गया है। भारत में बहुजन समाज को मिला समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी का संविधान निहित मूलभूत लोकतान्त्रिक अधिकार, जिसे आरक्षण के नाम से प्रचारित किया गया, इसी ब्राह्मणी साज़िस का शिकार है। फ़िलहाल महत्वपूर्ण ये है कि आरक्षण क्या है ? इसके मायने क्या है ? इसका उद्देश्य क्या है ?

हमारे विचार से, आरक्षण को भारत की सामाजिक संरचना से अलग करके, कदापि, नहीं देखा जा सकता है। ये कहना ज्यादा उचित होगा कि आधुनिक आरक्षण सामाजिक गैर-बराबरी के गर्भ से ही जन्मा है। भारत की सामाजिक संरचना का वर्चश्व भारत की राजनीति , आर्थिक परिदृश्य, सामाजिक ढांचे और सांस्कृतिक पटल पर बहुत ही सरलता और सुलभता से कायम है। इसे किसी भी कीमत पर किसी भी परिस्थिति में इनकार नहीं किया जा सकता है। 

ऐसे में, देश के हर क्षेत्र के हर स्तर पर देश के हर वर्ग का स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित करना ही आरक्षण का मूल उद्देश्य है। सरल भाषा में कहें तो जिस तरह से, हमारे घर का नक्सा कैसा हो, हमारे घर में किचेन किस तरफ हो, हमारे घर में कब क्या भोजन बनेगा, इन सब का निर्णय हमारा अपना परिवार करेगा, पडोसी नहीं। यही आरक्षण है। यही गणतंत्र की भावना है। यही बाबा साहेब रचित संविधान व लोकतत्र की मंशा है। 

ठीक इसी तरह, हमारे समाज (एससी-एसटी-ओबीसी और कन्वर्टेड माइनोरिटीज़) के लिए क्या नीतियां होनी चाहिए, नीतियाँ कैसी होनी चाहिए, नीतियों के लिए कितना बजट आवंटित होना चाहिए, नीतियाँ लागू करने वाली मशीनरी कौन होगी, कैसी होगी और कैसे लागू किया जायेगा, हमारे समाज की सुरक्षा के लिए कानून कैसा होना चाहिए, हमारे लोगों को न्याय देने वाले न्यायालय की संरचना कैसी होनी चाहिए, हमारे मुद्दों को हमारे लोगों तक ले जाने वाले मीडियालय की संरचना कैसी होनी चाहिए, शोध के मुद्दे क्या होगें, हमारे मुद्दे कौन है, जल-जंगल-जमीन का और अन्य संपत्ति का बटवारा कैसे होना चाहिए आदि, इन सभी मुद्दों पर होने वाले निर्णयों में हमारा पूर्ण समावेश, हमारी पूर्णतः समुचित स्वाप्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी होनी चाहिए। यही आरक्षण है। यही आरक्षण की रूह है। 

भारत के हर क्षेत्र के हर स्तर पर भारत के हर वर्ग, खासकर एससी-एसटी-ओबीसी और कन्वर्टेड माइनोरिटीज़, का समावेश, उनका समुचित स्वप्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी ही आरक्षण का मुक़म्मल मक़सद है। ऐसे में आरक्षण, भारत में भारत-निर्माण व राष्ट्र-निर्माण का एक महत्वपूर्ण टूल है, सामाजिक परिवर्तन व सामाजिक न्याय को हक़ीक़त की सरज़मी पर उतारने वाला एक अनोखा औज़ार है। दिन-प्रतिदिन, पल-हर पल, आरक्षण ने भारत को सिर्फ और सिर्फ मज़बूत ही नहीं किया है बल्कि बहिष्कृत व हाशिये के तबके को मुख्यधारा से जोड़कर भारत में लोकतंत्र की जड़ों को गहराई प्रदान किया है।

लेकिन जब हम हकीकत की सरज़मी पर नज़र दौड़ते है तो हम पाते है कि संसद व विधानसभाओं में हमारी नुमाइंदगी करने वाले लोग या तो ब्राह्मण है, या फिर ब्राह्मणों के गुलाम सवर्ण, या फिर हमारे समाज के लोग, जो व्यक्तिगत मुक्ति के चलते ब्राह्मणों की गोद में बैठकर हमारी नुमाइंदगी का ढ़ोग करने वाले बाबू जगजीवन राम, रामबिलास पासवान, रामदास अठावले, जीतनराम माँझी, उदितराज, रामनाथ कोबिंद, मुलायम सिंह यादव, नितीश कुमार आदि जैसे लोग है, जो अपने ही समाज की राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अस्मिता की कब्र खोद रहे है। 

इसी तरह, सचिवालय जहाँ नीति-निर्धारण होता है, ब्यूरोक्रेसी जो नीतियों का क्रियान्वयन करता है, सरकारों, न्यायालयों व अन्य संस्थाओं के आदेशों का तामील करता है, कानून-व्यवस्था बनाये रखने के लिए कानून को लागू करता है, विश्वविद्यालय जहाँ शोध होता है, न्यायलय जहाँ से न्याय उम्मीद की जाती है, मीडियालय जो सही सूचना-प्रसारण के लिए जिम्मेदार, उद्योगलय जहाँ से पूँजी का उत्पादन होता है, सिविल सोसाइटी आदि सभी जगहों पर हमारे मुद्दों पर निर्णय लेने वाला हमारे समाज का ना होकर या तो ब्राह्मण-सवर्ण है या फिर हमारे समाज के ही कुछ ब्राह्मणी रोग से पीड़ित गुलाम-रोगी। 

ऐसे में जब हमारे मुद्दों पर भी हमारे लोगों का समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी है ही नहीं तो ऐसी स्थिति में भारत संविधान व भारत लोकतंत्र का इससे बड़ा मज़ाक और क्या हो सकता है। मुद्दे हमारे, भविष्य हमारा, नियम-कानून हमारे लिए और इन सब मुद्दों पर निर्णय ब्राह्मण-सवर्ण करता है। क्या यही लोकतंत्र है? 

हमारे मुद्दों पर शोध ब्राह्मण-सवर्ण करता है। क्या ये ब्राह्मण, जिसमे न्यायिक चरित्र होता ही नहीं है, जो सिर्फ भ्रष्ट ही नहीं बल्कि पक्षपाती (जातिवादी) भ्रष्ट है, हमारे मुद्दों को सही से उठा पायेगा ? क्या ये ब्राहण-सवर्ण, जो हमारा शोषक ही रहा है, हमारी जरूरतों को समझ पायेगा? पीड़ा हमारी लेकिन उसका दर्द ब्राह्मण-सवर्ण से पूँछा जाता है। क्या हमारी पीड़ा को हमारा शोषक बयान कर पायेगा ? कदापि नहीं। लेकिन हक़ीक़त की सरज़मी पर हो यही रहा है। क्या यही संविधान का उद्देश्य था? नहीं, बिलकुल नहीं। 

दुर्भाग्य है भारत का कि भारत-निर्माण व राष्ट्र-निर्माण और लोकतंत्र को मज़बूती प्रदान करने वाले, सभी वर्गों का मुख्यधारा में समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी को सुनिश्चित करने वाले, वंचित-शोषित, आदिवासी, पिछड़े और कन्वर्टेड माइनोरिटीज़ मूलनिवासी समाज को देश के विकास की मुख्यधारा में जोड़ने वाले एक महत्वपूर्ण औज़ार आरक्षण को ब्राह्मणों के षड्यंत्र, ब्राह्मणी जजों की व्याख्या और ब्राह्मण-सवर्ण मीडिया ने सिर्फ और सिर्फ एक ग़रीबी उन्मूलन कार्यक्रम बनाकर रख दिया है। इनके व्याख्या के मुताबिक, आरक्षण सिर्फ और सिर्फ नौकरी पाने का साधन मात्र है। इनको लगता है कि पूरा वंचित-शोषित, आदिवादी, पिछड़ा व कन्वर्टेड माइनोरिटी समाज आरक्षण से ही जीवन-यापन कर रहा है। क्या ये सही है?

भारत में यदि सिर्फ वंचित जगत को ही देखे तो जनगणना २०११ के अनुसार इनकी कुल जनसख्या लगभग 166,635,700 है। भारत के सरकारी क्षेत्र में कुल लगभग २.१५ करोड़ लोग नौकरी कर रहे है जिसमे से करीब ४५ लाख लोग एससी वर्ग के है। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि एससी समाज के लोग आरक्षण की बदौलत पाए नौकरी से ही जीवन-यापन कर रहे है तो भी सिर्फ और सिर्फ ४५ लाख परिवार ही इससे लाभान्वित हो रहे है। अब ब्राह्मणों-सवर्णों व अन्य संघियों से अगला सवाल यह है कि बाकी बचे १६.१७ करोड़ वंचित समाज के लोग कैसे जी रहे है? 

देश को ये समझने की जरूरत है कि आरक्षण नरेगा की तरह कोई गरीबी उन्मूलन रोजगार कार्यक्रम नहीं है। आरक्षण नौकरी और रोजगार का साधन मात्र नहीं है। आरक्षण संविधान निहित हमारा मौलिक अधिकार है। आरक्षण बहुजन समाज का लोकतान्त्रिक अधिकार है। आरक्षण बहुजन समाज की सत्ता में भागीदारी को तय करने वाला अमूल्य हथियार है। आरक्षण बहुजन समाज का देश की राजनीति, सामाजिक व्यवस्था, आर्थिक तंत्र और सांस्कृतिक विरासत में अपनी अस्मिता, अपने वज़ूद, अपनी पहचान और अपने इतिहास को याद रखने और बनाये रखने का एक महत्वपूर्ण हथियार है।

हमारे कहने का सिर्फ इतना मतलब है कि आरक्षण को लेकर ब्राह्मणों-सवर्णों व अन्य गुलाम संघियों द्वारा पूरे देश में गलत विचार फैलाया जा रहा है, ग़लत प्रचार-प्रसार किया जा रहा है। ब्राह्मणों-सवर्णों व अन्य गुलाम संघियों द्वारा ही आरक्षण को इसके मूल मायने और मक़सद से भटकाने का कार्य किया जा रहा है। मेरिट के नाम पर बहुजन समाज को शासन-सत्ता, ज्ञान, सम्पति-सम्पदा में उनकी भागीदारी को खुलेआम नकारा जा रहा है। मेरिट के नाम पर बहुजन समाज को दुत्कारा जा रहा है जबकि मेरिट और प्रतिस्पर्धा के शुरुआत की लाइन ब्राह्मणों-सवर्णों के लिए कुछ और, तथा वंचित जगत को सत्ता-संसाधन से दूर रखने के लिए कुछ और ही कर दी जाती रही है और आज भी यही किया जा रहा है। मेरिट के नाम पर बहुजन छात्रों का विश्विद्यालयों और अन्य सभी संस्थानों में खुलेआम शोषण किया जा रहा है। इस सामाजिक बहिष्कार और मानसिक उत्पीड़न द्वारा बहुजन छात्रों का सांस्थानिक हत्या की जा रही है। रोहित वेमुला, डेल्टा मेघवाल आदि इसके तमाम प्रखर उदाहरण है। 

ये बहुजन समाज को समझना है कि कौन उसका हितैषी है और कौन उसका शोषक? जहाँ तक रही ब्राह्मणों की बात तो ये गौर करने वाली बात है कि यदि ब्राह्मण आप का विरोध करे तो आप समझ जाओ कि आप सही रास्ते पर चल रहे हो। यदि ब्राह्मण चुप रहे तो समझ जाओ कि ब्राह्मण कोई षड्यंत्र कर रहा है। यदि ब्राह्मण आपके साथ खड़ा हो जाये, आपके हित की बात करे, आपका हितैषी बनने लगे तो सावधान हो जाओ क्योंकि खतरा आपके सर पर है। कहने का तात्पर्य यह है कि ब्राह्मण कभी भी किसी भी परिस्थिति में आपका हितैषी नहीं हो सकता है। ब्राह्मण-सवर्ण एक परजीवी है। ब्राह्मण अमरबेल की तरह होता है। जैसे अमरबेल जिस पेड़ पर लगता है, उसे ही सुखकर खुद हरा-भरा रहता है। ठीक उसी तरह से ब्राह्मण भी जिसके ऊपर निर्भर रहता है उसके ही खून को चूस-चूसकर ही खुद हरा-भरा, हृष्ट-पुष्ट व स्वस्थ रहता है। ऐसे में ब्राह्मण से सदा सावधान रहना चाहिए। 

ब्राह्मणों के ही बारे में ई. बी. रामास्वामी पेरियार नैयकर कहते है कि यदि रास्ते में चलते समय, एक साथ, एक तरफ कोबरा मिल जाय और दूसरी तरफ ब्राह्मण तो ब्राह्मण को पहले मरना कोबरे को बाद में। ऐसे में बहुजन समाज (वंचित-शोषित, आदिवासी, पिछड़े और कन्वर्टेड माइनोरिटीज़ मूलनिवासी समाज) को यह सोचने की जरूरत है कि बहुजन आरक्षण के ख़िलाफ़ शुरुआत से लेकर आज तक जहर उगलने वाला ब्राह्मण हमारे बहुजन का हितैषी कैसे हो सकता है? ये विचार करने की जरूरत है कि मण्डल कमीशन के खिलाफ कमण्डल की जंग छेड़ने वाला ब्राह्मण-सवर्ण हमारे बहुजन हितैषी कैसे हो सकता है? 

बहुजन समाज को सदा अपने ज़हन में याद रखना चाहिए कि आरक्षण के मायने और मक़सद को तरलतम करने वाला कोई और नहीं ब्राह्मण ही है। आरक्षण को ही नहीं बल्कि संविधान निहित मूल्यों को भी ये ब्राह्मण परजीवी ध्वस्त करने के लिए लगातार जंग छेड़े हुए है। इसलिए बहुजन समाज को सचेत होते हुए सदा विचारमय रहना चाहिए कि उसका सच्चा हितैषी कौन है? हमारे विचार से, अपने शत्रु की पहचान करने की समझ का होना भी शिक्षित होने का एक लक्षण है।  

१८ अगस्त २०१६ को हमारे द्वारा लिखे लेख "समरसता-यथास्थिति को बनाये रखना" के अनुसार - "समावेशी समाज, समावेशी राजनीति, समावेशी अर्थ जगत, समावेशी संस्कृति बनाने के लिए हमारा संविधान हज़ारों जातियों में बंटे समाज को स्वतंत्रता प्रदान कर समानता के धागें में पिरों कर उनमें बंधुत्व की भावना पैदा करना चाहता है, लेकिन अपनी अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक अवैध कब्जात्मक सत्ता की बदौलत आरएसएस और ब्राह्मणी बीजेपी ने समानता को ही नकार कर दिया। अब शासन सत्ता का पूरी तरह से दुरूपयोग करके ये ब्राह्मण-सवर्ण और इनके गुलाम देश भर में समरसता की बात रहे है। समरसता को ही प्रचारित-प्रसारित कर रहे है। आखिर ब्राह्मणों ने समता को नकार कर समरसता का परचा-प्रसार क्यों कर रहे है ?

हमारे विचार से, समता को नकार कर समरसता की बात करना मतलब कि यथास्थिति को बनाये रखना। मतलब कि जाति, जातिवाद को मज़बूत करना, आज़ादी के बजाय गुलामी को बढ़ावा देना, बंधुत्व के बजाय जातिवादी अत्याचार, अनाचार, व्यभिचार व आक्रमण की संस्कृति को सहर्ष स्वीकार करना, सम्प्रदायिकता व इस पर आधारित दंगों व हमलों का समर्थन करना, धार्मिक उन्माद व धार्मिक कट्टरता को सींचना, बहुजन द्वारा चंद मुट्ठीभर ब्राहम्णो-सवर्णों की गुलामी को अपना भविष्य बनाना, पुरुष-प्रधानता को स्वीकार करना, नारी अस्मिता को बेदर्दी से कुचलना, भारत संविधान के बजाय मनुवादी विधान के तहत जीवन-यापन करने को अपनाना, निकृष्टतम सनातनी संस्कृति की दासता को आत्मसात करना, क्रूरतम वैदिक शैली में जीना, ब्राह्मणी षड्यंत्रों की साज़िस का शिकार बन अपने स्वाभिमान, आत्मसम्मान और अस्मिता को भूलकर ब्राह्मणों-सवर्णों की दासता को स्वीकार करना। 

समता को नकार कर समरसता की बात करना, भारत द्वारा खुद के गले में खुद ही फाँसी का फन्दा डालकर आत्महत्या करना है। समता की हत्या करना मतलब कि स्वतंत्रता व बंधुत्व की हत्या करना। बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर ने नवम्बर २६, १९४९ को संविधान सभा में कहा था कि स्वतंत्रता को समता से अलग नहीं किया जा सकता है। समता को बंधुत्व से अलग नहीं किया जा सकता है। और, समता व बंधुत्व, दोनों को स्वतंत्रता से अलग नहीं किया जा सकता है। कहने का मतलब साफ है कि ये तीनों एक साथ ही रहते है। इनमें से किसी को भी किसी से भी किसी भी परिथिति में कभी भी अलग नहीं किया जा सकता है। इनमे से किसी एक की भी हत्या, तीनों की हत्या होगी। तीनों की हत्या, भारत संविधान की हत्या होगी है। समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व के सिद्धांत पर आधारित भारत संविधान की हत्या, भारत में मानवता की हत्या होगी। क्या भारत यही चाहता है ?"

ब्राह्मण-सवर्ण विदेशी है। इन्होने सदा सत्ता के सुख भोगने के लिए ही राजनीति की है। फूट डालों, राज़ करों, जिसका इज़ाद निकृष्ट सोच ब्राह्मणों ने ही की है, की नीति से बहुजनों को हज़ारों जातियों में बांटा है, इनको आपस में ऊंच-नीच बनाकर आपस में ही लड़वाया है, और सत्ता पर कब्ज़ा जमाया है। 

इन ब्राह्मणों-सवर्णों ने अपने फायदे के लिए विदेशियों को बुलाकर कर, भारत पर आक्रमण करवाया है। इन ब्राह्मणों-सवर्णों के चलते भारत विदेशियों के हाथों में गुलाम रह चुका है। इतिहास गवाह है कि विदेशी राज़ के ब्राह्मणो-सवर्णों पर मूलनिवासियों की तुलना में कोई अत्याचार हुआ ही नहीं है। बल्कि ये कहना ज्यादा उचित होगा कि इनकी सत्ता हमेशा बरक़रार रही है फिर चाहे विदेशी राज़ ही क्यो ना रहा हो। ब्राह्मणों-सवर्णों का सिर्फ और सिर्फ एक मक़सद है सत्ता हथियाकर मूलनिवासियों का शोषण करना। आज तक ये परजीवी यही करता आया है। आगे भी इसी के लिए षड्यंत्र कर रहा है। ओबीसी वर्ग का उपवर्गीकरण इनके इसी साज़िस का एक हिस्सा है। 

आज़ादी के बाद बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के कारवाँ को मान्यवर साहेब काशीराम ने जिस तरह से आगे बढ़ाया, वंचित-आदिवासी-पिछड़े-कन्वर्टेड माइनोरिटीज़ का जो गठजोड़ बनाया इससे सारा का सारा ब्राह्मण तंत्र ही नहीं बल्कि उसकी बुनियाद तक हिल उठा है। स्वतंत्र भारत में बाबा साहेब और भारत संविधान की बदौलत, वंचित जगत के साथ-साथ पिछड़ों ने भी कई बार सरकारें बनाई है। ब्राह्मणों-सवर्णों व अन्य ब्राह्मणी आतंकवादियों के आतंक ने समूचे बहुजन समाज को एक पटल की तरफ उन्मुख कर दिया है। 

आज बाबा साहेब की तश्वीर को छाती से लगाए बहुजनों (वंचित-आदिवासी-पिछड़े-कन्वर्टेड माइनोरिटीज़ समाज के छात्र व अन्य सभी लोग विश्वविद्यालयों में, संस्थानों में और अन्य सामाजिक-राजनैतिक मंचों पर जिस तरह से एक हो रहे है) ने ब्राह्मणों के सत्ता की जड़ों में खौलता हुआ तेज़ाब डाल दिया है। इस खौलते हुए तेज़ाब की शक्ति को क्षीण करने के लिए सामाजिक अन्याय के पुरोधा सामाजिक न्याय की बात करने लगे है। अपनी सामाजिक अन्याय की संस्कृति को जीवन देने के लिए सामाजिक न्याय का चोला ओढ़ लिया है। इस चोले की आड़ लेकर ये ब्राह्मण-सवर्ण, अब बहुजन, खासकर पिछड़े वर्गों, की एकता को खण्ड-खण्ड करने के लिए ही ओबीसी वर्ग के उपवर्गीकरण का षड्यंत्र कर रहा है। 

यदि सामाजिक न्याय ही करना चाहते है तो ये संघी क्यों नहीं पिछड़ों को उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण देते। क्यों नहीं, ओबीसी में से क्रीमी लेयर को हटा देते है। ये कहते है कि पिछड़े वर्ग के वर्गीकरण से उन जातियों को फायदा मिलेगा जो मोस्ट-बैकवर्ड है। लेकिन सघियों को ये भी मालूम होना चाहिए कि रोजगार के साधनों के निजीकरण होने के कारण सरकारी क्षेत्र में रोजगार के अवसर घटते जा रहे है। जबकि ये सर्वविदित है कि सरकारी पैसे से ही निजी क्षेत्र का विकास हो रहा है, सरकारी पैसा, जो कि आम आदमी का बैंकों में जमा धन है, उसे ही न्यूनतम ब्याज या शून्य ब्याज पर निजी क्षेत्र को बांटकर विकास की बात की जा रही है लेकिन इस विकास में विकास चंद मुट्ठीभर लोगों का ही हो रहा है जबकि पैसा आम आदमी का लग रहा है, जमीन आम आदमी की लग रही है। ऐसे में ये संघी, एसी-एसटी-ओबीसी के लिए निजी क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था क्यों लागू नहीं करते है ? 

जनगणना २०११ के अनुसार, देश में अनुसूचित जाति की जनसँख्या १६.२% हो गयी है तो ऐसे में आरक्षण को १५% से बढ़ाकर १६.२ % क्यों नहीं किया जा रहा है? सामाजिक अन्याय की संस्कृति वाले संघी यदि सामाजिक न्याय की बात करना ही चाहते है तो भारत की जातिवार जनगणना को सार्वजनिक क्यों नहीं करते है? इससे पता चल जायेगा कि किसका हिस्सा कौन खा रहा है?

सामाजिक अन्याय के पुरोधा ब्राह्मणों यदि अब जाग ही चुके है तो आये दिन वंचित जगत, आदिवासी, पिछड़ों को समाज में समानता का हक़ क्यों नहीं दिलाता है। आज भी मंदिरों में शूद्रों व वंचितों के प्रवेश की मनाही करता है। इसके खिलाफ जंग क्यों नहीं छेड़ता है ?

पूरी दुनिया जानती है कि भारत की बर्बादी का सिर्फ और सिर्फ एक ही मुख्य कारण है - जाति, जातिवाद, जाति-व्यवस्था। यदि ब्राह्मणी संघी बीजेपी सामाजिक न्याय की ही बात करना चाहता है तो जाति व्यवस्था को ख़त्म करने के लिए कोई प्रावधान क्यों नहीं लाता है। आज देश को आज़ाद हुए सात दशक से भी ज्यादा का वक्त गुजर चुका है। देश पर सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणों व सवर्णों ने ही कांग्रेस व बीजेपी के रूप में शासन किया है। देश में आर्थिक स्तर पर गरीबी उन्मूलन का ढोंगी कार्यक्रम चलाया गया, राजनीति में सुधार के लिए पंचायती राज़ का ढोंग किया गया लेकिन सामाजिक व सांस्कृतिक गैर-बराबरी, जाती-पाँति, छुआछूत आदि को जन्म देने वाले मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म व हिन्दू संस्कृति को नेस्तनाबूत करने का नाम तक नहीं लिया, ढोंग तो बहुत दूर की बात होगी, क्यों? जाति उन्मूलन से बड़ा सामाजिक न्याय की बात और क्या हो सकती है? लेकिन ये सब इस सर्वाधिक महत्त्व के मुद्दे पर एक तरफ से खामोश है। इसका कारण यह है कि ये लोग समाज में बहुजन समाज को बराबरी, आत्मसम्मान व स्वाभिमान का स्थान देना ही नहीं चाहते है। 

ऐसे में इतने महत्वपूर्ण सामाजिक न्याय के मुद्दे को छोड़कर आरक्षण को ही सामाजिक न्याय मान लेना और इसे ही राजनैतिक रूप से भुनाने और बहुजन समाज को खण्ड-खण्ड करने ही अरुण जेटली द्वारा ओबीसी वर्ग के उपवर्गीकरण की बात की जा रही है। इनकी मंशा मोस्ट बैकवर्ड तक आरक्षण का लाभ पहुँचाना बिलकुल नहीं है। इनका मकसद एक हो रहे बहुजनों को फिर से बाँटकर, आपस में लड़वाकर राजनैतिक सत्ता पर कब्ज़ा करना है। ठीक उसी तरह जैसे तीन तलाक के मुद्दे को छेड़कर ब्राह्मणी संघी बीजेपी का मकसद मुस्लिम महिलाओ का कल्याण करना नहीं बल्कि हिन्दू को मुस्लिमों के प्रति भड़काना, नफ़रत को जगाना और एक दूसरे के प्रति तिरस्कार की भावना को भड़काकर राजनैतिक सत्ता की रोटी सेकना है। 

आरक्षण सामाजिक न्याय का एक महत्वपूर्ण पहलू है। इसके अलावा भी कई पहलु है सामाजिक न्याय के, क्यों नहीं बीजेपी सरकार उन पहलुओं को लागू करती है। भूमि सुधार आज़ादी के बाद से एक महत्वपूर्ण मुद्दा रहा है। आज भी देश में जमीने चंद जातियों के हाथों में ही कैद है। हाल ही में, वित्त मंत्री अरुण जेटली ने खुद कहा है कि भारत में ३०० मिलियन लोगों के ज़मीन नहीं है। बीजेपी के प्रवक्ता एम्. जे. अकबर ने अप्रैल ०५, २०१७ को टाइम्स ऑफ इण्डिया के एक लेख में खुद स्वीकारा है कि १०० मिलयन परिवारों के पास कोई ज़मीन नहीं है, जो हमारी कुल जनसँख्या में से ३०० मिलियन है। संघी सरकार क्यों नहीं जमीनों का फिर से आवंटन करवाती है। २००३-०४ के एनएसएसओ सर्वे पर आधारित अकड़े के आधार पर जुलाई २०१३ में आयी भूमि सुधार नीति में भी सरकार ने स्वीकारा है कि देश के ३१% लोगों के पास कोई ज़मीन नहीं है। 

शिक्षा संविधान प्रद्दत हर बच्चे का मूलभूल मानवाधिकार है। भारत में शिक्षा के क्षेत्र में बहुत ही विषमता है। भारत के प्राथमिक पाठशालों में सिर्फ और सिर्फ वंचित जगत के ही बच्चे मिलते है। इनके शिक्षा का स्तर ना के बराबर है। इस शिक्षण प्रणाली से गुज़र कर यदि कोई बहुजन का बच्चा स्नातक कर भी लेता है तो आगे चलकर उसे फिनिशिंग स्कूलों से पढ़े बच्चों से मुक़ाबला करना पड़ता है। ऐसे मेंउनकी असफलता तो लगभग उसी दिन तय हो जाती है जिस दिन वो प्राथमिक पाठशाला में कदम रखता है, जातिवादी मानसिकता के रोगी अध्यापक की शरण में जाता है। ऐसे परिस्थिति में बहुजन बच्चों का असफल होना लाज़मी है। 

फिर बाद में, ब्राह्मणी व अन्य संघी कहते है कि बहुजनों में मेरिट नहीं है। लेकिन ये ब्राह्मण-सवर्ण संघी ये भूल जाते है कि अवसर, समता-स्वतत्रता-बंधुत्व का परिवेश मिला तो आगे चलकर इसी वंचित जगत के एक बच्चे , जिसे बचपन में स्कूल ने दाखिला देने तक से इंकार था, दाखिला दिया भी तो इस शर्त पर कि वो अन्य बच्चों से अलग बैठेगा, जिसे पीने के लिए पानी तक नहीं दिया गया, ने सहस्त्राब्दियों से चली आ रही ब्राह्मण मनु की व्यवस्था को ध्वस्त कर समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व पर आधारित भारत संविधान का राज़ क़ायम कर दिया। 

बाबा साहेब के दिखाए रास्ते पर चलकर मान्यवर साहेब ने पूरे देश के बहुजन को समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व के धागे में पिरों कर एक ऐसा राजनैतिक भूचाल ला दिया कि ब्राह्मणी सत्ता की दीवारें ध्वस्त हो गयी, जड़ें चूर-चूर हो गयी। ऐसे में ब्राह्मणों को अपनी नीतियाँ तक बदलनी पड़ गयी। बाबा साहेब के अथक संघर्षों और भारत संविधान की बदौलत वंचित जगत की एक महिला ने भारत के सर्वाधिक आबादी वाले उत्तर प्रदेश की सरज़मी पर ऐसा हुकूमत किया कि जिसका मिशाल इतिहास के पास भी नहीं है। फिर भी संघी कहते है कि वंचितों के पास मेरिट नहीं है!

खुद संघियों में मेरिट तो है नहीं, इसीलिए ये बराबर की लाइन से रेस शुरू करने से डरते है। यदि सबके लिए एक समान मुफ्त शिक्षा नीति लागू कर दी जाय तब इनकी समझ आएगा में आएगा कि मेरिट क्या होता है। ब्राह्मणी बीजेपी सरकार यदि सामाजिक न्याय की बात कर ही रही है तो सिर्फ और सिर्फ आरक्षण पर ही क्यों? क्यों नहीं देश हित में निजी स्कूलों का सरकारीकरण करके एक समान शिक्षा का प्रावधान लागू करती है। क्यों नहीं सरकार, ब्राह्मणों-सवर्णों धन्नासेठों, भ्रष्टाचार से अमीर बने ब्राह्मण-सवर्ण ब्यूरोक्रैट्स, ब्राह्मण-सवर्ण जजों, ब्राह्मण-सवर्ण पुलिस वालों और अन्य ब्राह्मणों-सवर्णों के बच्चों को भी बहुजनों के बच्चों के साथ एक ही स्कूल में पढ़वाती है। 

शिक्षा की तरह ही स्वास्थ भी हर नागरिक का मूलभूत अधिकार है। ऐसे में सरकार क्यों नहीं सभी देशवासियों को बिना किसी भी तरह के भेद-भाव के सबको एक समान स्वास्थ सुविधा मुहैया कराती है। सरकार क्यों नहीं देश की जल-जंगल-जमीन व अन्य सम्पति-सम्पदा का समानुपाती व न्यायोचित तरीके से का वितरण करवाती है। जातिवार जनगणना को सार्वजनिक क्यों नहीं करती? निजी क्षेत्रों में बहुजन का अनुपातिक भागीदारी क्यों नहीं तय करती है। बहुजन समाज इन सबके लिए तैयार है लेकिन फिर भी सामाजिक न्याय के इन महत्पूर्ण मुद्दों पर ना तो संघी सरकार चर्चा करेगी और ना ही इसकी कोई मंशा है। प्रमोशन में आरक्षण का मुद्दा पड़ा है, संघी ब्राह्मणी सरकारें इसे क्यों नहीं लागू करती है? अभी तक जो आरक्षण मिला है उसे भी पूरी तरह से लागू नहीं किया जा सका है, क्यों ? इसे क्यों लागू नहीं किया जाता है ? क्या ये सामाजिक न्याय का मुद्दा नहीं है?

हायर ज्यूडासरी में बहुजन समाज की भागीदारी लगभग शून्य है और उसमें वंचित, आदिवादी समाज की पूरी शून्य है, क्यों ? न्यायालयों में आरक्षण लागू क्यों नहीं करते? क्या यह सामाजिक न्याय के दायरे में नहीं है ? सभी विश्वविद्यालयों में कुलपति व अन्य सभी महत्वपूर्ण पदों पर, प्रोफेसरों के पदों पर सिर्फ और सिर्फ ब्राह्मणो-सवर्णों का अवैध कब्ज़ा है, यहाँ पर आरक्षण आज तक लागू नहीं हो पाया। इसे लागू क्यों नहीं किया जा रहा है? ये भी तो इसी आरक्षण के तहत आता है। ये भी तो सामाजिक न्याय का महत्वपूर्ण मुद्दा है। सचिवालयों में, सरकारी उद्द्यमों में, मीडियालय में, सिविल सोसाइटी आदि संस्थानों में बहुजनों की भागीदारी शून्य है। यहाँ पर बहुजनों की भागीदारी क्यों सुनिश्चित नहीं की जा रही है? क्या ये राष्ट्र-निर्माण का हिस्सा नहीं है ? क्यों ब्रह्मण-सवर्ण व अन्य गुलाम ओबीसी के बॅटवारे पर ही तुले है? क्यों ये संघी व अन्य सभी ब्राह्मणी रोग से ग्रसित लोग बहुजन एकता को ही खण्ड-खण्ड करने पर अमादा है? 

आरक्षण के सिलसिले में, ब्राह्मणो-सवर्णों व अन्य सभी संघियों के अनुसार जिन गिनी चुनी जातियो ने ओबीसी के पूरे आरक्षण का फायदा उठाया है वो भी सचिवालयों, कार्यालयों, विश्वविद्यालयों, न्यायालयों, उद्योगलयों, मीडियालयों, सिविल सोसाइटी आदि जगहों पर नदारद ही है क्यों? हमारे विचार से, इसका मतलब साफ है कि अभी तक जो भी आरक्षण मिला है वो भी पूरी तरह से लागू नहीं हो पाया है। बावजूद इसके, ब्राह्मण-सवर्ण और अन्य सभी संघी चाहते है कि ओबीसी का बटवारा कर दिया जाय। ये संघी यदि सामाजिक न्याय के प्रति इतने ही चिंतित है तो क्यों नहीं ओबीसी वर्ग से क्रीमी लेयर हटा देते, क्यों नहीं पिछड़ों को उनके जनसंख्या के अनुपात में उनको स्वप्रतिनिधितव व सक्रिय भागीदारी दे देते? क्यों नहीं ऐसी-एसटी को भी जनगणना २०११ के अनुसार उनको भी देश के शासन-प्रशासन, सचिवालय, विश्वविद्यालय, न्यायालय, उद्योगलय, मीडियालय, सिविल सोसाइटी आदि में उनका समुचित प्रतिनिधित्व व उनकी सक्रिय भागीदारी दे देते? लेकिन हाफ़ पेंट से फुल पैंट में आये संघी ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि इनकी मंशा सामाजिक न्याय नहीं बल्कि ओबीसी वर्ग में फूट डालना है, उसमे बनी एकता में सेंध लगाना है, बहुजन सामजिक परिवर्तन के महाक्रान्ति को कमजोर करना है, मन्दिर का मुद्दा पुराना हो गया तो नया मुद्दा बनाना है। 

फ़िलहाल, हम ये बात पूरे भरोसे से कहेगे कि यदि कोई पार्टी पूरी लगन से अपने एजेंडे के प्रति निष्ठावान है तो वो आरएसएस और बीजेपी है। ये अपने ब्राह्मणी कुकर्मो के प्रति पूरी ईमानदारी, निष्ठा और लगन से लगे हुए है। इनका मक़सद बढ़ते वंचित जगत को रोकना है। इसीलिए तो ये वंचित जगत पर व अन्य बहुजनों पर खुलेआम स्कूलों में, कालेजों में, विश्वविद्यालयों में, अन्य संस्थानों में, कार्यालयों में, और अन्य सभी संभव जग़ह पूरी तन्मयता और लगन से अत्याचार, अनाचार,और आक्रमण कर रहे है। वंचितों, पिछड़ों और अन्य बहुजनों के संविधान निहित मूलभूत लोकतान्त्रिक स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी के अधिकार का ना सिर्फ विरोध कर रहे है बल्कि उसकी जड़ों में गर्म पानी डाल कर सुखा रहे है। बहुजन सांस्कृतिक क्रान्ति को रोकने के लिए जगह-जगह भजन-कीर्तन करवा रहे है। सामाजिक परिवर्तन रोकने के लिए सर्जिकल स्ट्राइक को प्रेस्टिट्यूट्स की मदद से सामने लाकर जनता को उसके मुख्य मुद्दे से भटका रहे है। अन्य सभी मुद्दों के लिए नोट बदली जैसे षड्यंत्र कर रहे है। देश को विकास का सपना दिखाकर देश को विदेशियों के हाथों बेच रहे है, रेलवे स्टेशंस का बिकना इसी प्रखर उदाहरण है। बहुजनों को राजनैतिक सत्ता से दूर करने के लिए फूट डालों-राज़ करों के षड्यंत्र के तहत बहुजन समाज को विभिन्न उपवर्गों में बाँट रहे है। कुल मिलाकर येन-केन-प्रकारेण इन ब्राह्मणों-सवर्णों का मतलब सत्ता पर कब्ज़ा कर देश के बहुजन समाज का शोषण करना ही है। 

लोकसभा २०१४ के आम चुनाव, उत्तर प्रदेश विधासभा २०१७ व अन्य चुनावों में जिस तरह से लोगों ने आँख बंद करके निर्णय लिया है उसी का नतीजा है की ये मनुवादी सनातनी जातिवादी वैदिक ब्राह्मणी ब्राह्मण-सवर्ण व अन्य गुलाम और संघी, इतना ढ़ीठ बन गया है। फ़िलहाल अब गेंद फिर जनता के पाले में है। हमारा मानना है कि लोकतंत्र अपने घावों पर मरहम खुद ही करता है। अब देखना ये है कि जनता इनसे प्रभावित होती है या फिर जनता इनको ही प्रभावित करती है।

धन्यवाद 

जय भीम, जय भारत।

(रजनीकान्त इन्द्रा, इतिहास छात्र, इग्नू-नई दिल्ली, अगस्त २४, २०१७)

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