Friday, January 31, 2014

जाति व्यवस्था, छुआछूत और भेद-भाव : भारत के राष्ट्र बनने के मार्ग में बाधक

भारत, एक देश जहाँ विविधिता में एकता दिखाई पड़ती है। ऐसा देश जिसने कई संकृतियों को अपने आँचल में स्थान दिया, कई भाषाओ, धर्मों के मिलन और कई भाषा के जन्म का साक्षी बना है। ऐसा देश जिसको आकाश में उड़ती चिड़िया की नजरो से देखने पर "अनेकता में एकता" दिखाई पड़ती है। ऐसा दिलकश आयामी नजारा शायद ही किसी देश की मिटटी को नशीब हुआ हो, लेकिन इन सबके बावजूद, क्या आज का भारत एक राष्ट्र है? 
हमारे इतिहासकारों के अनुसार, भारत देश की इन्ही विविधता का गुणगान गाते-गाते कई देशभक्त शहीद हो गये । यह सही भी है क्योकि कुछ लोगों ने अपनी जान गंवाकर देश को आज़ाद कराने कोशिश की थी । लेकिन, ये गौर करने की बात है कि - क्या वे राष्ट्रभक्त थे ? जब भारत, आज भी एक राष्ट्र नहीं है तो फिर आज से दशकों पहेले राष्ट्रभक्त कैसे पैदा हो गये ? भारत, एक ऐसा भू-खंड है जो राजनीतिक रूप से स्वतंत्र और सम्प्रभु प्रान्त है भारत एक राष्ट्र नहीं बल्कि सैकड़ों राष्ट्रो का एक समूह है। प्रख्यात विद्धवान विश्वविभूषण बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर ने भी भारत को एक ऐसा ही प्रान्त बताया है जो कि राष्ट्र बनने की तरफ अग्रसर है।
भाषायी, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं अन्य विविधताओ से भरा, ये स्वतंत्र और सम्प्रभु राजनितिक भू-खंड, आज भी अपने राष्ट्र रुपी वजूद को बनाने के लिए लड़ रहा है। कहीं पर भाषा के नाम पर तो कहीं पर संस्कृति और संस्कार के नाम पर रोज विवाद हो रहा है। इस स्वतंत्र और सम्प्रभु राजनितिक भू-खंड पर, आज भी लोगों को अपने पूरे अधिकार प्राप्त नहीं है। भारत के इस धरती पर भेद-भाव और जाति-पाति जैसा कैंसर आज भी सुदृढ़तापूर्वक कायम है। इस स्वतंत्र और सम्प्रभु राजनितिक भू-खंड पर आज भी केवल कुछ चंद मुट्ठीभर सवर्ण वर्ग का ही वर्चस्व है। भारत एक ऐसा देश जहाँ पर, बोली अलग, पहनवा अलग, सस्कृति अलग, भौगोलिक दशाएं अलग, रहन-सहन अलग, खेती-बाड़ी के तरीके अलग, एक दूसरे पर विश्वास नहीं, धर्म, वर्ग, जाति, बोली, पानी आदि के लिए परस्पर और निरंतर द्वन्द है । क्या ऐसा देश एक राष्ट्र हो सकता है ।
विविधताओ का होना अच्छी बात है, लेकिन इन्ही विविधताओ का आपस में संघर्ष होना उससे भी ज्यादा हानिकारक बात है। सबसे बड़ी यह बात है- भारतीय समाज की सोच में ही छुआछूत और असमानता की भावना का होना। जाति-पाति का ये जहर आज भी आज के भारत की रगों में दौड़ रहा है। क्या, ऐसा देश जिसमे कोई समानता ही नहीं है, राष्ट्र कहलाने के योग्य है? ये कैसा राष्ट्र है…...जहाँ पर राष्ट्र को परिभाषित करने वाले अनेको तथ्यों में से सिर्फ और सिर्फ मुख्यत: दो ही तथ्य मौजूद है । पहला तथ्य, अंग्रेज प्रदत्त अंग्रेजी भाषा, जिसके लिए सभी भारतीयो को अंग्रेजो का शुक्रगुजार होना चाहिए । दूसरा तथ्य, बाबा साहेब आंबेडकर द्वारा दिया गया - बहुमूल्य उपहार, भारतीय संविधान। इन दोनों के अतिरिक्त कोई भी और ऐसा महत्वपूर्ण तथ्य नहीं है जो भारत को राष्ट्रीयता के एक सूत्र में बांधता हो।
उपर्युक्त दो तथ्यों को छोड़कर, हर कोई तथ्य आज भारत को सिर्फ और सिर्फ सैकड़ो राष्ट्रो का एक बड़ा सा स्वतंत्र और सम्प्रभु राजनितिक भू-खंड ही साबित करता है । भारत में जितनी विविधता है, भारत में उतने ही राष्ट्र है। ये विवधता तभी उपयोगी होगी जब इनमे आपस में बराबरी, सहयोग, परस्पर प्यार -सम्मान और सौहार्द होगा, जो कि आज़ादी के छह दशको के बाद भी भारत को नशीब नहीं हुआ है ।
आज इस बड़े से स्वतंत्र और सम्प्रभु राजनितिक भू-खंड पर दो-तिहाई से भी ज्यादा तथाकथित हिन्दू रहते है, तो यह भी सही है कि स्वतंत्र और सम्प्रभु राजनितिक भू-खंड को एक राष्ट्र बनाने में हिन्दुओ का योगदान भी सबसे ज्यादा होना चाहिए, लेकिन ये हिन्दू वर्ग ही जाति-पाति और छुआछूत जैसी निकृष्ट बुराइयों को पाल कर भारत की राष्ट्रीयता में जहर घोल रहा है। अगर ये हिन्दू वर्ग, समता-सम्मान, न्याय, परस्पर प्रेम और सौहार्द को आत्मसात कर ले, तो भारत को राष्ट्र बनने में बहुत ज्यादा देर नहीं लगेगी क्योकि अन्य धर्मो के लोगो में उतने विषमता, वैमनश्यता, जाति और भेद-भाव नहीं है जितनी कि सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति व धर्म में है।
लेकिन, आज बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि ये हिन्दू धर्म ही भारत के राष्ट्र बनने में सबसे बड़ा बाधक है। ये वही हिन्दू धर्म है जिसने दुनिया को छुआछूत, जांति-पांति, ऊँच-नीच, लिंग-भेद, नफरत, जैसी सामाजिक बुराईयो का निकृष्ट उपहार दिया है। इसी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति व धर्म का बोया हुआ ब्राह्मणवाद का बीज, आज भी भारत को हजारों टुकड़ो में बाँट रहा है। क्या इस तरह का खंडित भारतीय भू-खंड एक राष्ट्र हो सकता है ? 
ये वही विविधिताओं से भरा स्वतंत्र और सम्प्रभु राजनितिक भू-खंड है जिस पर आज भी वंचितों पर सरेआम जातिवादी हमला, बलात्कार, देवदासी, छुआछूत, जांति-पांति, लिंग-भेद, बाल-विवाह, खाप पंचायत, मानवाधिकारो का हनन, गणेश का दूध पीना, कृष्ण का दही खाना, ब्राह्मणी आतंकवाद, ब्रह्मणो का वर्चश्व और बाहुबलियो का राज और धार्मिक सौहार्द के बजाय उनमे निरंतर परस्पर संघर्ष चल रहा है। क्या राष्ट्र ऐसा होता है ?
भारत की राष्ट्रीयता को खंडित करने में जांति-पांति का सबसे अहम् स्थान है। आज ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र में बँटा भारतीय बहुसंख्यक समाज अपने-अपने स्वार्थो व अधिकारों की लड़ाई मात्र लड़ रहा है। ये वर्ग विभाजन, यही ख़त्म नहीं होता है। ब्राम्हणो द्वारा फैलाया गया ये जहर, भारत के शुद्रो को आपसे में लड़ा रहा है। ब्राह्मणवाद की पैदाइस कुर्मी जांति जो सिर्फ बैलों की तरह खेतो में मजदूरी करता था, दिनभर जानवरो के साथ जानवरो की तरह विचरण करने वाला अहीर, दूसरों के बदन के कपड़ो को धोने वाला धोबी, गुह, निषाद, मलाह, जाट आदि जातियॉ जो कि एक ही मिटटी से बनी है, आज ये आपस में ही कुत्ते-बिल्ली की तरह लड़ रही है। ये वंचित जातियाँ अपने आपको एक दूसरे से ऊँचे होने की जद्दोजहद कर रही है। समानता को नकार चुका समाज एक राष्ट्र कैसे हो सकता है। समय के साथ और दूसरों धर्मो के भारत में आगमन के कारण, ब्राह्मणों ने ब्राह्मणवाद के षड्यंत्र के तहत अछूतों को भी शुद्रो के वर्ग में शामिल कर लिया। लेकिन फिर भी, आज दलितो के विरूद्ध शुद्र खुद ही ब्राह्मण बन बैठा है। नतीजा, शुद्रो के द्वारा भी दलितों के शोषण। क्या ऐसा समाज, किसी भी तरह से एक राष्ट्र हो सकता है? 
ये सारी जातियां उसी प्रकार से लड़ रही है जिस प्रकार से दो भाई आपसे में लड़ते है और उन्हें लड़ाने वाला पडोसी अपना फायदा उठता है। शुद्रो को आपस में बाँट कर लड़ाने वाला ब्राह्मण वर्ग आज भी अपने व्यापार को पूरी तरह से फैलाये हुआ है। ये व्यापर मंदिरों, भगवत और सत्य नारायण की कथाओ, जो कि असत्यों से भरा पड़ा है, के रूप में आज भी विधमान है। ये वही पुजारी और ब्राह्मण वर्ग है जो बच्चे की पैदाइस से लेकर मरण तक की भीख लेता है और बिना कर्म किये जीवन यापनं करते हुए षड्यंत्रों से परिपूर्ण ब्राह्मणवादी गीता में लिखे श्लोको को सार्थक करता है। आज इस वैज्ञानिक युग में भी कहीं गणेश दूध पीता है, कहीं कृष्ण दही खाता है। क्या इस तरह की निकृष्ट, अंधविश्वासी, कट्टरवादी सोच को लेकर भारत एक महान, समतापूर्ण, न्यायपूर्ण, समृद्धिशाली संपन्न राष्ट्र बन सकता है? क्या नारी व शुद्रो के साथ जानवरो जैसा, और जम्बारों (दलितों) के साथ जानवरो से भी बदतर बर्ताव करने वाला समाज राष्ट्रवादी हो सकता है? क्या ऐसी सामाजिक पृष्ठिभूमि पर बना देश एक राष्ट्र हो सकता है। 
आज के शूद्र (पहले के शूद्र और मूल-निवासी दलित) ये भूल चुके है कि भारत में जाति का आगमन ब्राह्मणवाद के साथ हुआ था इसके पहले भारत में कोई भी जाति नहीं थी, कोई भेद-भाव नहीं था। ब्राह्मणवाद के फलस्वरूप वर्णवाद, जातिवाद और छूआछूत आदि जैसी निकृष्ट और घिनौनी बुराइयों का जन्म हुआ। दूसरे देश (यूरेशिया ) से भगाया हुआ ब्राह्मण, जम्बारों को शूद्र करार करते हुए, शूद्रों को हज़ारों जातियो में बाँट कर आपस में लड़ते हुए वैदिक कल से लेकर आज तक इन शुद्रो और अछूतों पर राज करता आ रहा है। ये कैसी विडम्वना है जहाँ ब्राह्मण के बनाये ब्राह्मणवाद के कुचक्र में फँस कर मूल-निवासी अछूत और हिन्दू शुद्र आपस में ही लड़ रहे है। क्या इन्हे कभी अपने अस्तित्व का भान नहीं होगा? क्या इस भेदभाव के समाज में राष्ट्रवाद का कोई भी स्थान दिखाई देता है?
ब्राह्मणवाद ने ही पूरे जम्बूदेश में मूल -निवासियों को अछूत बनाया, तो कुछ को जंगल में रहने को मजबूर कर दिया (जन-जातियाँ), शुद्रो में कुछ को गाय-भैस जैसे जानवरो के तबेले से बांध दिया, कुछ को खेतों में मजदूर बना दिया, कुछ कोधोबी, कुछ को गुह, केवट और न जाने क्या - क्या बना दिया। ब्रह्मणो ने तो शुद्र को "फूट-डालो और राज करो" और मूल-निवासियों को अछूत बनाने की नीति के तहत अलग कर दिया है। इसी नीति के तहत आज भी ये तथाकथित स्वघोषित सवर्ण उच्च वर्ग, शूद्रों और अछूतो पर राज कर रहा है। हमारे देश के एकतरफा इतिहास लिखने वाले इतिहासकार कहते है कि "फूट डालो और राज करो" की प्रथा अंग्रेजों की देन है, जब कि ब्रह्मणो ने वर्ण और जांति व्यवस्था के साथ हजारो साल पहेले ही "फूट डालो और राज करो" की प्रथा शुरू कर दी थी। फिर इसका श्रेय अंग्रेजो को क्यों दिया जाता है? "फूट डालो और राज करो" की नीति का इजाद भारत की इसी धरती पर ब्रह्मणो द्वारा हजारो साल पहले ही किया गया था। जिसके नतीजे आज भी भारत की धरती भुगत रही है। क्या अनेक अवांछनीय विवादो और संघर्षो में बटा आज का भारत एक राष्ट्र हो सकता है?
ब्रह्मणो ने शुद्र और मूल-निवासियों के साथ जो कुछ किया, ये अपने निजी फायदे के लिए किया। लेकिन आज देश का हिन्दू शुद्र और मूल-निवासी (दलित-आदिवासी) वर्ग आपस में ही क्यों लड़ रहा है? देश का शुद्र और मूल-निवासी (दलित-आदिवासी) वेद-पुराण, रामायण-गीता और महाभारत को बिना पढे ही अपने जीवन का भाग्य विधाता और भगवान् की वाणी समझता है। जबकि ये हिन्दू धर्म शास्त्र ही भारतीय समाज में फैली हर बुराई का कारण है। वैश्यावृत्ति, जुआ, नियोग जैसी निकृष्ट रीति, देव-दासी की प्रथा, केरल में शुद्रो और मूल-निवासियों की औरतों को नग्न स्तन रहने का कानून, यज्ञ जैसे घिनौने कर्मकांड (जिसमे पशुओ की वलि दी जाती थी और ब्राह्मण इन पशुयों के मांस को यज्ञ की अग्नि में भून कर खाते थे, सूरा का पान करते थे, औरते के साथ व्यभिचार करते थे), ये सब इसी ब्राह्मणवाद की पैदावार है। इन सबके प्रमाण वेदो और पुरानो में सहज है। इतने अनाचार और शोषण के बाद, संघर्ष तो लाजमी है, जो लगातार चलता आ रहा है। जिस देश में कोई समानता ही नहीं, कोई स्वतंत्रता ही नहीं और आपस में कोई भाई-चारा ही नहीं है, वह देश एक राष्ट्र कैसे हो सकता है?
ब्राह्मणवाद जिसने सदियों से शुद्रो और अछूतो का दमन किया है। आज वही शुद्र और अछूत वर्ग शिक्षा, समानता, भाईचारा, आपसी मेलजोल के रास्ते पर ना चल कर कभी पत्थर पर माथा टेकता है, तो कभी किसी मंदिर के घंटे को बजाता है, कोई चारों धाम जाता है, त्रिपति जाता है तो कोई विजेथुआ जाता है, तो कोई अंध भक्ति में सब कुछ राम भरोसे कर देता है। एक देश जहाँ किसी की भी सोच में मूलभूत मानवीय समानता तक नहीं है वो देश राष्ट्र कैसे हो सकता है? एक देश जहाँ देश की जनसँख्या से ज्यादा देवताओ और उनके मंदिरो की संख्या है। एक देश जिसमे इंसान कम, देवता अधिक रहते है। एक देश जिसमे कोई समानता है ही नहीं। एक देश जो अभी भी जाति-पाति, छुआछूत और भेद-भाव के विरूद्ध संघर्ष रहा है। क्या ऐसा देश अभी एक राष्ट्र हो सकता है ?
अहिंसा के पुजारी भी गीता का गीत ऐसे गाते है जैसे कि उन्हें सचमुच का ज्ञान भंडार प्राप्त हो गया हो। ये वही गीता है जिसमे अर्जुन अपने सगे-सम्बन्धियों की हत्या करने से इंकार कर देता है, तो षड्यंत्रकारी कृष्ण अर्जुन को अपनी बातों के मोह जाल में फसाकर, अर्जुन द्वारा उसके अपने ही परिवार के लोगो की हत्या करवा देता है। ये नरसंहार, वो भी उस राज्य के लिए जिसे पांडव खुद जुए में हार गए थे। क्या जुए में हारे राज्य के लिए लड़ना जायज था? इसी महाभारत में एक पांडव अपनी पत्नी तक को जुए में दाँव पर लगता है - उसे ही लोग धर्मात्मा कहते है! जिस इंसान को प्रजा, राज्य, स्त्री आदि की गरिमा और महिमा का भान तक नहीं था, क्या वो किसी भी कारण राजा बनने के योग्य था? "यदि फिर भी, पांडव द्वारा किया कृत्य धर्म था, तो उस समय का अधर्म बेहतर था।" ये वो समय था - जब नारी की कीमत एक वस्तु मात्र से ज्यादा कुछ भी नहीं थी। षड्यंत्र पर षड़यंत्र करके महाभारत का युद्ध जीतने के पश्चात् इन्ही पांडवो ने सुयोधन का नाम बदल कर दुर्योधन कर दिया, क्यों? ये सब सिर्फ और सिर्फ पांडव द्वारा अपने बुराइयों को ढकने का एक तरीका मात्र था। ये सब पांडव की सारी बुराइयों को न्याय और धर्म का जामा पहनने के लिए किया गया था। इतिहास हमेशा विजेता द्वारा लिखा जाता है। महान चिंतक और दार्शनिक मैक्वेली ने कहा है कि अपनी छवि बनाए रखने के लिए कुछ भी करना पड़े तो करो क्योकि छवि ही सब कुछ है। यही पांडव ने भी किया था। अपनी छवि को सुधारने के लिए सुयोधन को दुर्योधन बना दिया, बीबी और राज्य को जुए में दांव पर लगाने वाले को धर्मात्मा और महात्मा बना दिया। जो इंसान अपनी पत्नी तक को जुए में दांव पर लगाये, क्या वो धर्मात्मा कहलाने के योग्य था? ये पूरी की पूरी महाभारत (यदि सच है तो) तथाकथित धर्मात्माओं और षड्यंत्रकारियों द्वारा कौरवो के विरुद्ध किये गए अधर्मो का संग्रह मात्र है। जहाँ पर एक षड्यंत्रकारी दूसरों को धर्म का पाठ पढ़ाता है। क्या ऐसे अमानवीय आतंकवादी विचारों व उपदेशो पर चल कर, हमारा भारत देश एक राष्ट्र हो सकता है?
तुलसी रचित रामचरित मानस - जो कि नारी और शुद्रो को पशुओ के सामान और भारत के मूल-निवासियो (दलितों) को जानवरों से भी बद्तर समझता है। इसी तुलसी का राम, जो महात्मा शम्भूक की हत्या सिर्फ और सिर्फ इसलिए करता है क्योकि अछूत संत शम्भूक जी शुद्रो और अछूतो में शिक्षा का प्रचार-प्रसार कर रहे थे। क्या ऐसा राम या कोई भी ऐसा इंसान भगवान् कहलाने के योग्य है? ब्राह्मण कर्मकांडी ऋषि उस समय यज्ञ करते थे जिसमे पशुओ की वलि दी जाती थी, और ये ब्राह्मण पशुओ का मांस, यज्ञ की अग्नि में भून कर खाते थे, जनजातियों और अन्य की स्त्रियों संग व्यभिचार करते थे, सूरा का पान करते थे (बाद में यही सूरा का पान करने वाले सुर कहलाये जबकि सूरा को नकारने वाले असुर)। इसलिए महाराज महात्मा धर्मात्मा रावण ने जंगलों में पशुओ, जन-जातियों और उनकी औरतों की रक्षा के लिए अपने भाई और सैनिक तैनात कर रखे थे। लेकिन ऋषिओ ने राम द्वारा उन सबकी हत्या करवा दी। मानवाधिकारो की हत्या करने वाले, औरतों की इज्जत के साथ खिलवाड़ करने वाले, धर्म के नाम पर बेजुबान जानवरो की वलि चढ़ाने वाले कर्मकाण्डी ब्राह्मणों का साथ देने वाला राम भगवान् कैसे हो सकता है? जो राम अपनी पत्नी का गर्भवस्था के दौरान घर से बहार मरने के लिए भेज देता है, क्या वह भगवान् कहलाने के योग्य है? हिन्दू, सिर्फ और सिर्फ दुनिया का एक मात्र धर्म है जिसमे लोगों ने भगवान् को देखा है, जबकि इस्लाम, क्रिश्चियन और अन्य धर्मो में भगवान् निराकार है। सिर्फ हिन्दू ब्राह्मण ही जमीन पर बैठे-बैठे सीधे भगवान् से वार्तालाप करता है, वो भी बिना किसी मोबाईल फोन के। ऐसे देश में जहाँ धर्म के नाम पर एक वर्ग, दूसरे वर्ग का शोषण करता हो, अन्धविश्वास का लालन-पालन करता हो, जिसमे समानता, न्याय, प्रेम और सौहार्द की कोई जगह ही न हो, एक देश जिसमे सिर्फ और सिर्फ संघर्ष हो, कलह को, मानवाधिकारो का हनन हो…क्या वो देश, एक राष्ट्र हो सकता है ?
मनु इंसानो को इंसान नहीं समझकर नियोग जैसी प्रथा, नारी को व्यभिचारी, शूद्रों और अछूतों को जानवर जैसी अवस्था में रखने वाला, मानवाधिकारों का दमन करने वाला, आज सदियो बाद भी तथाकथित हिन्दुओ का पुरोधा बना बैठा है। आर्य समाज का संस्थापक दयानंद ने भी नियोग द्वारा हर स्त्री को दस पुत्र पैदा करना अनिवार्य बताया है। इन सब ने वेदो और अन्य धर्मशास्त्रो में लिखे सारे बुराइयों को समाप्त करने के बजाय सारी बुराइयों को सिर्फ और सिर्फ बढ़ावा दिया है  क्या ये किसी भी मायने में इंसान भी कहलाने के योग्य है? जो इंसान मूलभूत मानवाधिकार को नहीं समझता, उसे ही इस देश के लोगो ने भगवान्, महात्मा, पंडित और ज्ञानी का नाम दिया। जिस देश के धर्म शास्त्रो में छुआछूत, जाति -पाति, भेद-भाव, लिंग-भेद आदि को बढ़ावा दिया गया हो, उस देश में मानवाधिकार और समानता की भावना बहुत दूर की बात हो जाती है। क्या ऐसा भारत देश, इन सब धर्म-शास्त्रो को जलाये बिना एक राष्ट्र बन सकता है ? हमारे विचार से बिलकुल नहीं।
हमारा मानना है कि इस दुनिया के किसी भी धर्म की किसी भी किताब को कभी भी किसी भी भगवान् ने नहीं लिखा है। ये सब मनगढ़त है । ये सारे धर्मशास्त्र ब्राम्हणो या धर्म के ठेकेदारों द्वारा अपने धर्म रुपी व्यापार को बढ़ाने और अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए समाज की बदलती धारा और समय की जरूरत के अनुसार अलग-अलग समय पर विकसित की गयी है। लोग कहते है कि सबका भगवान् एक है, सब लोग एक ही भगवान् की संतान है तो फिर इनमें आपस में भेद-भाव क्यों? इतना वैमनश्य क्यों?
हम खुद एक ऐसी ही घटना के साक्षी है - जहाँ पर एक शुद्र शिक्षक अपने अछूत शुद्र शिष्य के यहाँ खाने-पीने भी से इंकार कर देता है। क्या ये निक्रिष्ट लोग शिक्षक कहलाने के योग्य है? यहाँ पर तो शुद्र शिक्षकों का अपने अछूत शुद्र शिष्य के साथ किया गया वर्ताव ढोगीं द्रोण के वर्ताव से भी नीच और निकृष्ट है क्योकि कम से कम आज के भारत में तो अछूत, शुद्र वर्ग का हिस्सा है। जब एक शुद्र (अहीर) गुरु, जिसने अपने शिष्य को सालों तक पढ़ाया हो, उसी के साथ भेद-भाव करता है……तो क्या ऐसा इंसान किसी भी दृष्टिकोण से शिक्षक कहलाने के लायक है ? क्या द्रोण शिक्षक कहलाने के योग्य था ? ये सब कर्मकाण्ड ढोगीं, पाखंडी और चरित्रहीन लोगो द्वारा धर्म और जाति के नाम पर अपने कुकर्मो, अत्याचारो और व्यभिचारों को छिपाने का एक तरीका मात्र है। जब ये ज्ञान के मार्ग से अपनी योग्यता और श्रेष्ठता साबित नहीं कर पाते है तो जाति-पाति और छूआछूत से अपने आपको उच्च साबित करने की कोशिस करते है। ये शुद्र (अहीर, कुम्हार, कुर्मी) चरित्रहीन शिक्षक कुछ और नहीं, बल्कि जाति-पाति और छुआछूत का सहारा लेकर अपनी श्रेष्ठता मात्र साबित करने की नाकाम कोशिस कर रहे थे।
हमारे ख्याल से हमारे समाज में किसी भी गुणी, सदाचारी और विद्वान शिष्य या किसी इंसान को कभी भी ऐसे चरित्रहीन , कुकर्मी , ढोंगी , पाखंडी , अत्याचारी और व्यभिचारी शिक्षक की कोई जरूरत नहीं है। ऐसे चरित्रहीन, कुकर्मी, ढोंगी, पाखंडी, अत्याचारी और व्यभिचारी गुरु, जो खुद अपने शिष्य को अपने ही कर्मो से भेद-भाव और जाति-पाति, व्यभिचार और चरित्रहीनता की शिक्षा देते है, सिर्फ और सिर्फ त्याग के पात्र है। भारत देश में ऐसे शिक्षक के रहते राष्ट्र की भावना का आना दुष्कर है। यदि हमारा समाज भारत को राष्ट्र बनाना चाहता है तो ऐसे मानसिक रोगियों का सख्त इलाज़ अत्यंत आवश्यक है।
हम उस घटना के भी साक्षी है, जहाँ पर एक चमार ने अपने जीवन का महत्वपूर्ण समय पडोसी गॉव के कुर्मियों और अहीरों के साथ दोस्ती और प्यार-मोहब्बत में बिता दी, हर जगह हर सम्भव साथ दिया, उन्ही कुर्मियों और अहीरों ने उसके घर खाने-पीने से इंकार कर दिया। आखिर क्यों?? सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि वो चमार है। जब उन्होंने आप का साथ दिया, वे साथ रहे तो वे चमार नहीं थे? जब आपका स्वार्थ था तो वे आपका भाई थे, दोस्त थे, आज उस इंसान के यहाँ खाने मात्र की बात आयी तो वे चमार हो गये, अछूत हो गए। क्या ऐसे निकृष्ट, हैवानियत और स्वार्थी मानसिकता और सोच वाले समाज के रहते भारत एक राष्ट्र बन सकता है? क्या इस तरह से जाति-पाति में बँटे भारत को एक राष्ट्र कहा जा सकता है ?
हमारे विचार से - कोई भी गुरु, मित्र, नातेदार, रिश्तेदार या अन्य कोई भी तभी तक सम्मान का अधिकारी है, जब तक वह " पंचसूत्रम् " ( प्रेम, सत्कर्म, आत्मविश्वास, न्याय और स्वाभिमान) के पथ पर चलते हुए " पंचसूत्रम् " को अपने जीवन कर्म में परिलक्षित करता है। गुरु, शिक्षक तभी तक है जब तक वो शिक्षक की गरिमा और शिक्षा के मायने को जनता है ।
हमारे ख्याल से, इस संसार में अपना गुरु खुद बनना ही सर्वथा वेहतर होगा, अन्यथा सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी व्यवस्था वाले समाज में गुरु भी थोपे जाते है। महात्मा बुद्ध, महात्मा सतगुरु रैदास, महात्मा ज्योतिबा फूले से लेकर विश्वविभूषण महात्मा लार्ड आंबेडकर तक ने कभी भी किसी थोपे गए इन्सान को अपना गुरु नहीं माना है। इन सभी ने अपने खुद की विश्लेषण और तर्क शक्ति का इस्तेमाल करके सर्वोत्तम और सर्वश्रेष्ठ ज्ञान प्राप्त किया। इन सब ने समाज में हो रही घटनाओं का विश्लेषण करके और इन सबका कुदरत की कसौटी पर रखकर अपने मस्तिष्क में अन्तरक्रिया के द्वारा ज्ञान का उद्पादन किया है। इस तरह की वैज्ञानिक, आधुनिक, तर्क सांगत, न्यायपूर्ण और पंचसूत्रम् पर आधारित सोच ही भारत को एक मजबूत राष्ट्र बना सकती है। लेकिन दुर्भाग्य की बात है कि ये सभी, अभी के भारत से कोसो दूर है ।
इतिहास गवाह है, इस समाज के स्वघोषित उच्च जाति के लोगों ने ही सबसे ज्यादा औरतों का शोषण किया है। तुलसी, अपनी मनगढंत रामचरित मानस में, नारी को ताड़न का अधिकारी कहता है। मनु ने नारी को हर रूप में अपवित्र, दासी और व्यभिचारणी कहा है। क्या ऐसी सोच, जिसे खुद भारत की एक बड़ी आबादी के धर्म शास्त्र कहते है, के साथ भारत एक राष्ट्र बन सकता है? हमारे विचार से "जो धर्म विषमता, नफरत, जाति-पाति और भेद-भाव पर ही टिका हुआ है, उस धर्म में मानव के कल्याण की बात करना गोबर के ढेर पर महल बनाने जैसा है।"
क्या ब्राह्मणवाद द्वारा दलितो के साथ किया गया निर्मम कृत्य (थूकने के लिए गले में मटका डाल कर चलना, पद चिह्न मिटने के लिए कमर में छाडू बाध कर चलना, मरे हुए जानवरों के सड़ा -गला मांस खाने को मजबूर करना, अछूत के छाया मात्र को भी अपवित्र मानना, सड़ा हुआ पानी पीने को मजबूर करना आदि) किसी भी सूरत में क्षमा करने के योग्य है? ऐसा देश जो आज के आधुनिक युग में भी ब्राह्मणवाद को मनाता हो, क्या ऐसा समाज एक राष्ट्र कहलाने के योग्य है?
भारतीय सुप्रीम कोर्ट के तमाम आदेशो के बावजूद आज भी दक्षिण भारत में देवदासी, छुआछूत और सर पर मैला ढोने की परंपरा जारी है। जहाँ एक तरफ शुद्रो की औरतों के साथ हुए शारीरिक उत्पीड़न का कोई सुनवाई नहीं होती तो वही दूसरी तरफ देश के किसी भी कोने में किसी सवर्ण औरत के साथ थोड़ी से भी छेड़खानी हो जाये तो पूरा का पूरा राजनीतिक कुनबा गर्म हो जाता। उड़ीसा, बंगाल, गुजरात, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश और हरियाणा आदि में दलितों की औरतों के साथ हुए अत्याचार और उनकी पीड़ा की कोई मिशाल नहीं है और ना ही कोई सुनवाई। ये भेद -भाव क्यों? भ्रूण हत्या जैसे सामाजिक बीमारियों से घिरा भारत, दहेज़ के नाम पर बेटों की खरीद-फरोख्त और बेटियो को बोझ समझने वाला समाज, बेटियों की इच्छा के विरूद्ध शादी कराने वाले, बलात्कार करवाने वाले माता-पिता और बलात्कारी पति संग पुरुष प्रधान समाज में राष्ट्रवाद की भावना एक कल्पना मात्र है। लिंग-भेद और जाति-भेद के कुचक्र में लिप्त समाज, भारत को राष्ट्र बना रहा है या राष्ट्र बनने से रोक रहा है ?
कानून का शासन, आज भी पूरी तरह से लागू नहीं हो पाया है। जिसका सबसे बढ़िया उदाहरण - खाप पंचायत और फतवा है। कुछ निकृष्ट, रूढ़िवादी, कट्टरपंथी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू राजनेता हिन्दू राष्ट्रीयता की बात करते है। ऐसी कोई भी बात या विचार सिर्फ और सिर्फ भारत को बाँटने का काम करेगा। भारत को सिर्फ और सिर्फ संवैधानिक, लोकतान्त्रिक और भारतीयता रूपी एक ही राष्ट्रवादिता की आवश्यकता है जो कि हमारे देश को एक सूत्र में बांध सकती है। इसके आलावा, किसी भी तरह की साम्प्रदायिक, जातीय या इस जैसी कोई भी राष्ट्रवादिता हमारे देश के लिए सिर्फ और सिर्फ एक कैंसर होगा। देश का राजनेता धर्म और मंदिर-मस्जिद के नाम पर दंगे करवाता है, वोट मांगता है। क्या ये संविधान का उलंघन नहीं है? क्या ये भारत को एक राष्ट्र के सूत्र में बाधते है? क्या ये भारत के राष्ट्र बनने के मार्ग में बाधक नहीं है?
इस देश में एक भाषा के लोग दूसरे भाषा के लोगों को उसी नज़र से देखते है जैसे कि एक कट्टर मुस्लिम दूसरे कट्टर हिन्दू को देखता है। इसी देश में जहाँ एक तरफ तेलगू-तमिल से, कन्नड़-मलयाली से आपस में लड़ते है तो वही दूसरी तरफ मराठी राज्य के कुछ देशद्रोही उत्तर भारतियों को महाराष्ट्र में घुसाने से रोकने की कोशिस करते है। क्या इन भावनाओ के रहते भारत एक राष्ट्र हो सकता है? यहाँ पर हम अंग्रेजो द्वारा दी गयी अंग्रेजी भाषा के शुक्रगुजार है जिसने तमिल, मलयाली, तेलगू और कन्नड़ बोलने वाली देश की जनता को हिंदी, अवधी, भोजपुरी, मिथिली, बंगाली, राजस्थानी, गुजराती, मराठी, उरिया, हरयाणवी, पंजाबी, डोंगरी, गढ़वाली, असमी आदि भाषा बोलने वाली देश की जनता के साथ एक सूत्र में बधती है।
आज देश भाषा, बोली, धर्म आदि के नाम पर लड़ रहा है। इस तरह से लड़ने वाला देश कभी राष्ट्र नहीं हो सकता है। यदि लोग भारत को राष्ट्र बनाना चाहते है तो यहाँ के लोगों को सबसे पहले हिन्दू धर्म-शास्त्रों को जलाना होगा क्योकि भारत में इंसान और इंसान के बीच भेद-भाव का मूल कारण ही सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति, धर्म और हिन्दू धर्म-शास्त्र है। यही कारण है कि दिसंबर १९२७ में बाबा साहेब अम्बेडकर ने मनुस्मृति जैसे भेद-भाव की जड़ को ही जला दिया था। वह रामचरित मानस जिसमे तुलसी कहता है कि नारी ताडन की अधिकारी है, वह वेद जो नियोग और यज्ञ जैसी निकृष्ट , नीच , कुप्रथा का बढ़ावा देता है और पशुओ संग इंसानो की वलि को बढ़ावा देता है........इस सब को जलना होगा, भूलना होगा, मिटाना होगा, नेस्तनाबूद करना होगा।
दूसरी तरफ अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाह को सहर्ष वढ़ावा देना होगा। अंतर-जातीय विवाह को सहर्ष वढ़ावा देने का एक मात्र तरीका है - प्रेम-विवाह। देश में नारी की स्थिति को सुधारने और दहेज़ जैसी कुप्रथा, भ्रूण हत्या जैसे महापाप और माँ-बाप, समाज व तथाकथित पति द्वारा बेटी के बलात्कार को रोकने का एक मात्र उपाय" प्रेम-विवाह" है। प्रेम विवाह, अंतर-जातीय और अंतर-धार्मिक विवाह को बढ़ावा देने के साथ-साथ दहेज़ जैसी निकृष्ट प्रथा से देश और समाज को उबरने का इकलौता और एक मात्र महत्वपूर्ण हथियार है । 
भारत को एक सूत्र से बांधने वाली अंग्रेजी भाषा का प्रचार-प्रसार करना ही होगा। क्योकि अंग्रेजी में ही वह शक्ति है जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक और गुजरात से लेकर नागालैंड तक समूचे भारत को एक धाँगे में बांध सकती है। अंग्रेजी ही वो भाषा है जो भारत के हर वर्ग को दुनिया के बदलते परिवेश के साथ समुचित कदम-ताल करवा सकता है। 
धर्म के नाम पर हो रही राजनीति, सांप्रदायिक दंगों से बचने के लिए हर इंसान को ये समझना होगा कि यदि देश है तो हम है और यदि हम है तो ही देश है। हमारे लिए हमारे मानवाधिकारो के साथ-साथ देश की एकता और अखण्डता भी बहुत जरूरी है। हमें उन शैलियों को अपनाना होगा जो कि समूचे भारत को, समूची मानव जाति को सिर्फ और सिर्फ एक सूत्र में बांधती हो। रहन सहन का एक ऐसा तरीका हो जो हमारे देश को, पूरी मानव जाति को इंसानियत का पाठ सिखाये। इन सब का एक मात्र उत्तर होगा पंचसूत्रम् (प्रेम , सत्कर्म , आत्मविश्वास , न्याय और स्वाभिमान) पर आधारित जीवन ।
हमें अपने कुरीतियों, बुराइयों, तथाकथित भगवानो, रूढ़िवादी धर्मो, धर्म-शास्त्रो, धर्म के ठेकेदारो का परित्याग करके वैज्ञानिक, तर्कपूर्ण, न्यायपूर्ण, आधुनिक और मानवतावादी विचारो को अपनाना होगा। भारत राष्ट्र तभी बन सकता है जब भारतीय संविधान हमारा पथप्रदर्शक होगा, मानवाधिकार हमारा धर्म होगा, भारतीयता हमारी पहचान होगी और मानवता हमारी जाति होगी। यदि ये सब हुआ तभी हमारा भारत एक सशक्त, सुदृढ़ और महान राष्ट्र बन सकता है, अन्यथा....।
रजनी कान्त इन्द्रा
विधि छात्र, लखनऊ विश्वविद्यालय, लखनऊ
जनवरी ३१, २०१४

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