Tuesday, May 16, 2017

भीम सेना...?

राजनैतिक आज़ादी को सात दशक से भी ज्यादा का वक्त गुजर गया लेकिन भारत में आर्थिक आज़ादी आज भी नदारद है। राजनीतिक स्वतंत्रता को समाज अपना चुका है लेकिन सामाजिक गुलामी आज भी कायम है। राजनैतिक समानता तो है लेकिन सामाजिक और आर्थिक समानता आज भी दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रहा है। कानून आज संरक्षक बनने के बजाय आतकवादियों के हाथ की कठपुतली बनकर रह गया है। इसलिए आज के शासनिक, प्रशासनिक और न्यायिक व्यवस्था को देखे तो न्याय की उम्मीद सिर्फ उम्मीद बनकर ही रह जाती है।

बाबा साहेब ने संविधान सभा के अंतिम दिन जिस बात पर चिंता जताई थी, आज भारत उसी सामाजिक और आर्थिक विषमता की मार झेल रहा है। ऊना, सहारनपुर जैसे हमले इसके जीते-जागते सबूत है। जब सरकारें और न्यायपालिका जनता की आवाज सुनाने से इंकार कर देती है तो संवैधानिक त्रासदी शुरू होती है। लोगों के पास जब सरकारी तंत्र से न्याय की उम्मीद खत्म हो जाती है तो लोग अपनी सुरक्षा के लिए खुद उठ खड़े होते है। इस तरह से जनता का खुद उठ खड़े होना, उनका शौक नहीं बल्कि सरकारों की निरंकुशता, तानाशाही, संस्थानों पर आतंकवादियों का कब्ज़ा और न्यायपालिका का ब्राह्मणीकरण दर्शाता है।

पिछले तीन दशकों से कश्मीर जल रहा है, आदिवासी इलाके उबल रहे है और दलितों, वंचितों, अल्पसंखयकों और पिछड़ों में विद्रोह की भावना प्रखर रूप से सामने आ रही है, तो ये भावना भारत या फिर भारत के संविधान के खिलाफ नहीं है। ये विद्रोह है उन दमनकारी सरकारों और उनकी नीतियों के खिलाफ जो सत्ता पर जमी हुयी है, उद्योग घरानों के हाथो बिकी हुयी है, ब्राह्मणी मानसिकता से बीमार है। आज की दमनकारी सरकारें, न्यायपालिका और विधायिका अपने संवैधानिक फ़र्ज़ से कोसों दूर प्रॉस्टिट्यूट्स के संग अपना महिमागान लिख रही है। इसलिए ये समाज विद्रोह ही नहीं कर रहा है बल्कि सशस्त्र विद्रोह कर रहा है जिसका उदहारण पूरा कश्मीर है, नक्सलाइट बेल्ट है और भीमसेना जैसे मानवाधिकार और आज़ादी की जंग लड़ रहे संगठन है| 

हलाकि, जजों, वकीलों, पत्रकारों, और विद्वानों का एक वर्ग इन दमनकारी सरकारों और इनकी नीतियों के खिलाफ है और ये लोग अपना विरोध भी जता रहे है। लेकिन, दमनकारी आतंकवादी जो सत्तासीन है वे इतने निरंकुश  हो चुके है कि वे इन लोगों के मूलभूत अधिकारों तक को नकार चुके है। प्रेस्टिट्यूट्स अपने शरीर का नहीं अपने जमीर का भी धंधा कर रहा है और दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की कर रहा है। आज फैसले अदालतों में नहीं बल्कि कॉर्पोरटे मीडिया के स्टूडियोज में होते है। ऐसे में बहुतायत मीडिया, पत्रकारों और प्रेस को प्रेस्टीट्यूट कहना कोई गलत नहीं लग रहा है। यदि भारतीय मीडिया के एंकरों आदि को देखे तो वो प्रेस्टीट्यूट ही नज़र आते है। जिसका नतीजा है वंचितों, आदिवासियों, गरीबों, मजदूरों, अल्पसंख्यकों और पिछड़ों के दमन, शोषण और ब्राह्मणवाद व इनके आतंकी खेमे में इज़ाफ़ा और फैलाव का फैलाव।

इन्ही दमनकारी नीतियों के परिणामस्वरूप कश्मीर समस्या, नक्सली नाम सेनवाज़े गए वंचित दलित-आदिवासियों की समस्या में तीव्र इज़ाफ़ा और जातिवादी हमलों में दिन-प्रतिदिन घातांकीय वृद्धि हो रही है। अपनी जान-माल और अपने प्रिय जनों के मान-सम्मान के लिए विद्रोह ही नहीं बल्कि सशस्त्र विद्रोह का आयाम बढ़ता ही जा रहा है जो कि भारत के संवैधानिक और लोकतान्त्रिक स्वस्थ के लिए अच्छा नहीं है। विद्रोह की इसी कड़ी में ताजा नाम है भीम सेना का, जिसे प्रेस्टिट्यूट्स आतंकी घोषित करने की पुरजोर कोशिश में लगे हुए है। सारे मनुवादी ब्राह्मणी लोग भीम सेना के खिलाफ एक सुर में विरोध कर रहे है लेकिन यही लोग भगत सिंह द्वारा असेम्बली में फेके गए बम की तारीफ भी करते है। मुझे लगता है कि यदि ये लोग भीमसेन जैसे संगठनों का विरोध कर रहे है तो इनके द्वारा भगत सिंह और उधम सिंह जैसे क्रांतिकारियों का नाम भी अपने ओंठ पर लाना महज बेशर्मी मात्र ही है। 

मेरे निर्णय में भीम सेना जैसे संगठनों का मकसद कभी भी किसी भी तरह का जान-माल का नुकसान करना नहीं है बल्कि सत्ता में बैठे लोगो और देश की गूंगी-बहरी जनता को ये एहसास दिलाना है कि भारत में मानवाधिकार सुरक्षित नहीं है, सत्ता में आतंकवादियों का कब्ज़ा है जो कि हाफिज सईद जैसे लोगों से भी ज्यादा खतरनाक है, जिसका मंजर उनके आतंकी हमलों से भी ज्यादा खौफनाक है। यदि ऐसे में भीम सेना का सर्थन किया जाता है तो ये वही सर्थन है जो देश ने भगत सिंह और उधम सिंह को दिया था और इसी तर्ज पर हम भी भीम सेना का समर्थन करते है।

हालांकि, यदि भारत के लम्बे भविष्य को ध्यान में रखकर कर देखे तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि सशस्त्र विद्रोह देश की किसी समस्या का हल नहीं है लेकिन मौजूदा परिस्थति को देखे तो इसके आलावा कोई विकल्प भी नहीं दिख रहा है, लोग मजबूर, चारो तरफ त्राहि-त्राहि मची हुयी है, संविधान को ताख पर रख दिया गया है, मनस्मृति देश चला रहा है, लोकतंत्र रूदन कर रहा है, मानवता सिसक रही, देश दहक रहा है, दरिंदे जाति के अहम् में अत्याचार, अनाचार का नंगा नाच कर रहे है, ब्राह्मणी हैवानियत देश को अपने आगोश में समेट रहा है, मनुवादी सनातनी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू आतंकवाद अपने चरम पर है, जातीय अहम् उफान पर है, हैवानियत का शासन जड़ जमा रहा है, बहसी दरिंदे कभी गाय के नाम पर, कभी घर वापसी, कभी लव जिहाद तो अक्सर देशभक्ति के नाम पर मानवता की निर्मम हत्या कर रहे है। लेकिन, इससे भी आश्चर्य की बात यह है कि भारत का बहुजन समाज, जो कि खुद देश की कुल आबादी का लगभग८५ % है, सोया हुआ है। यदि ये आबादी अपने हकों के लिए, अपने भविष्य के लिए, अपने मान- सम्मान के लिए, लोकतंत्र और संविधान की रक्षा के लिए एक बार सड़क पर उतर जाये तो चंद मुट्ठीभर ब्राह्मण और ब्राह्मणी रोग से शिकार ब्राह्मणी बहसी दरिंदा समाज और उनके जानवरों का जीवन कुछ पल का ही साबित होगा, निरंकुश शासन दम तोड़ देगी, न्यायपालिका अपने आप वंचितों को उच्चतम न्यायपालिका में समुचित प्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी की संवैधानिक और लोकतान्त्रिक प्रणाली स्वेच्छा से अपना लेगी।

हम बुद्ध और बाबा साहेब के वंशज है, हम हिंसा को कतई स्वीकार नहीं करते है लेकिन इसका ये कतई मतलब नहीं है कि हम अत्याचार सहेगें, अनाचार को सहेगें, अपनी अस्मिता को तार-तार होते देखते रहेगें, मानवता को सिसकते हुए देखने वाले मूक दर्शक बने रहगें। हम पहले हिंसा की बात नहीं करते है लेकिन अपनी जान, स्वजनों के प्राण, मान-सम्मान, अस्मिता और मानवता के लिए यदि हिंसा ही अंतिम विकल्प है तो हम मजबूर है। आत्म रक्षा के लिए यदि हथियार ही अंतिम रास्ता है, सशस्त्र क्रांति ही अंतिम विकल्प है तो हम भगत सिंह और उधम सिंह की तरह आतंकियों को सत्ता से उखड फेकने के लिए, ब्राह्मणी बीमारी को नेस्तनाबूद करने के लिए बहुजन क्रांति का समर्थन करते है। 

यदि आप गलती से कुछ ब्राह्मणों और अन्य उच्च तबको के जुमलों को सुनकर ये सोचते हो कि वे आपके साथ है और आपकी लड़ाई वे लड़ेंगे तो आप गलती कर रहे हो क्योकि दमनकारी लोग कभी आपके हितैषी नहीं हो सकते है। पिछले सात दशकों से बहुजन समाज इन्हीं दमनकारी समाज के लोगों के हाथों में अपने भविष्य की कमान सौप कर विकास का सपना सजोये हुए है लेकिन अंत परिणाम वही है ढाक के तीन पात। खुद बाबा साहेब ने इन ब्राह्मणों के बारे में कहा है - 
"In my judgement, it is useless to make a distinction between the secular Brahmins and Priestly Brahmins. Both are kith and kin. They are two arms of the same body, and one is bound to fight for the existence of the other"
~ Dr.B.R.Ambedkar, Annihilation of Caste, 1936.

इसलिए हम बहुजनों को सावधान करते हुए ये कहना चाहता हूँ कि ये लड़ाई हमारी है, इसलिए इस लड़ाई का महासेनापति हमें ही बनना पड़ेगा फिर चाहे वो लड़ाई कोर्ट में हो, संसद भवन में हो या फिर किसी अन्य जगह पर किसी अन्य तरह की।


जय भीम, जय भारत,
जय संविधान, जय लोकतंत्र,
जय बहुजन समाज, जय बहुजन क्रांति!!

रजनीकान्त इन्द्रा 
इतिहास छात्र, इग्नू 

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