Friday, July 22, 2016

हमारी समस्या, हमारा समाधान

हमारे प्यारे देशवासियों,  
आज जहाँ एक तरफ सारी दुनिया बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा प्रतीक मानवता मूर्ति बाबा साहेब डॉ भीमराव रामजी अम्बेडकर की १२५वी जयंती मना रही है वही दूसरी तरफ आरएसएस के नेतृत्व वाली वर्चश्व पसन्द सामन्ती मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी बीजेपी सरकार बाबा साहेब की जयंती मनाने का ढोंग कर रही है। जब से केंद्र की सत्ता में बीजेपी सरकार आयी है तब से दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और अन्य पिछड़ों के साथ हो रहे अत्याचार में सिर्फ और सिर्फ घातांकीय इजाफा ही हुआ है। फिर चाहे वो मामला दादरी के इकलाख की निर्मम हत्या का हो या हैदराबाद विश्वविद्यालय के रोहित वेमुला की सांस्थानिक हत्या का हो या पंसारे जैसे विद्वानों की हिन्दू धर्म रक्षों द्वारा निर्मम हत्या का हो या दलित और आदिवासी महिलाओं व बच्चियों के साथ सामूहिक बलात्कार का मामला हो या आयरन लेडी बहन कुमारी मायावती के खिलाफ असभ्य शब्द के इस्तेमाल का हो या फिर गुजरात मॉडल में दलितों के साथ अमानवीय व निकृष्ट व्यावहार का हो। ये सारे मामले पूरी तरह से पूर्व नियोजित और बीजेपी सरकार के मौखिक रूप से पूर्ण समर्थन का परिणाम है। ये सरकार हिन्दू रक्षा दल, गौ-रक्षा दल और ब्राह्मणी व्यवस्था की रक्षा करने वाले ब्राह्मणी आंतकवादी संगठनों और हिन्दू आतंकवादियों को ना सिर्फ सह दे रही है बल्कि पूरी तरह से उनको पाल-पोष भी रही है।  

आज हमें मौजूदा केंद्र सरकार व स्वघोषित निष्पक्ष जजों से भी हमें कोई उम्मीद दिखाई नहीं देती है क्योंकि सत्ता व कोर्ट के गलियारों से खुद संविधान की आत्मा के कार्यपालक संस्थाये और रक्षक कोर्ट कम, इसके पदों पर बैठा वर्चश्व पसन्द सामन्ती मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी विचारधारा से बीमार इंसान अधिक बोलता है। टेलीविजन हो या प्रिंट मीडिया इन सब पर भी पूरी तरह इन्ही ब्राह्मण-बनियों का कब्ज़ा है। इसलिए बीजेपी सरकार इन सबका इस्तेमाल करके दलित आवाज को दबाने की असफल कोशिश कर रही है। हम धन्यवाद कहते है फेसबुक और व्हाट्सअप जैसे डिजिटल माध्यमों का जिसकी मदद से दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों चीख आज पूरे देश में गूँज रही है।

हमारे प्यारे देशवासियों,
हमारे पास दुनिया का सर्वोत्तम संविधान है जिसमें देश की हर समस्या का तोड़ है फिर भी भारत का वो विकास नहीं हो पाया जो होना चाहिए था। संविधान में सुशासन के सारे प्रावधान मौजूद है लेकिन उन प्रावधानों को अमल में लाने के लिए हमारी सरकारों, अदालतों व  अन्य संस्थाओं द्वारा जो सक्रिय कोशिश होनी चाहिए थी वो पूरी तरह से नदारद है। उदाहरण के तौर पर, पूरा देश इस बात से परिचित है कि हकीकत में गुजरात मॉडल क्या है? गुजरात में बीजेपी की सत्ता का मूलभूत आधार क्या है ? 

हमारे प्यारे देशवासियों,
गुजरात में बीजेपी की सत्ता का मूलभूत आधार कुछ और नहीं  बल्कि - दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और अन्य पिछड़ों का नरसंहार व शोषण मात्र ही है। हिन्दू-मुस्लिम दंगा, सवर्ण-दलित दंगा और अन्य जातीय व धार्मिक उन्माद को राजनीति फायदे, सत्ता का सुख भोगने व देश में मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू आतंकवाद को बढ़ावा देने के लिए एक विशिष्ट प्रबंधकीय ढंग से वोट को एकत्र कर सत्ता पर कब्ज़ा करना ही गुजरात मॉडल है। आज यही चिर परिचित वर्चश्व पसन्द सामन्ती मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दुवादी आरएसएस के नेतृत्व वाली बीजेपी सरकार का गुजरात मॉडल है। इसी गुजरात मॉडल का इस्तेमाल करके मौजूदा आरएसएस के नेतृत्व वाली वर्चश्व पसन्द सामन्ती मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी बीजेपी सरकार केंद्र की सत्ता में आयी है जिसका परिणाम उबलते भारत में साफ-साफ दिखाई पड़ रहा है। इस सरकार ने संविधान की आत्मा को जो चोट पहुंचाई है उसका जख्म अब नासूर बन चुका है जिसका इलाज सिर्फ और सिर्फ अम्बेडकरवाद में निहित है। फ़िलहाल अब, आज देश की जनता के लिए सबसे अहम सवाल यह है कि जनता ने बीजेपी सरकार को सकल समावेशी विकास के लिए चुना था या फिर जुमलेबाजी, नरसंहार, बलात्कार, जातिवाद, भगवाकरण, हिन्दू आतंकवाद, फासीवाद और वर्चश्व पसन्द सामन्ती मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी व्यवस्था को और मजबूत करने के लिए।

बीजेपी सरकार दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और अन्य पिछड़ों का कितना ख्याल करती है इसका सबूत बीजेपी सरकार के मंत्रिमंडल में दलितों, आदिवासियों, अल्पसंख्यकों और अन्य पिछड़ों के स्वप्रतिनिधित्व और उनकी भागीदारी से साफ-साफ मालूम हो जाती है। यही नहीं, देश के हर क्षेत्र के हर स्तर पर फिर चाहे वो शासन-प्रशासन हो, संसद हो, न्यायालय हो, विश्वविद्यालय हो, उद्योगालय हो, मीडिया हो, सिविल सोसायटी हो या ऐतिहासिक तथ्य, आरएसएस के नेतृत्व वाली मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी बीजेपी सरकार ने इन सबका भगवाकरण करने की मुहीम छेड़ रखी है। जिसका मकसद देश के दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ों के समुचित स्वप्रतिनिधित्व, सक्रिय भागीदारी और उनके पनपते दलित आदिवासी साहित्य व इतिहास को नेस्तनाबूद करना मात्र ही है। वर्चश्व पसन्द सामन्ती मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी बीजेपी सरकार का ये प्रयास, भारत के लिए सबसे बड़ा खतरा है जिसका सबसे बड़ा असर देश के विकास पर ही नहीं बल्कि देश की एकता और अखण्डता पर भी पड़ेगा।

हमारे प्यारे देशवासियों,
भारत की हर समस्या ब्राह्मणों द्वारा फैलाए गए एक ऐसे आतंकवाद में निहित है जिसे हम जाति कहते है। जहाँ एक तरफ बाबा साहेब जातिवाद के उन्मूलन की बात करते है वही दूसरी तरफ नीचे से लेकर ऊपर तक सत्ता के हर स्तर पर काबिज वर्चश्व पसन्द सामन्ती मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी ब्राह्मण और इसके शिकार लोग हर कीमत पर जाति को बनाये रखना चाहते है। जातिवाद के इस आतंकवाद से भारत का कोई भी इन्सान भी इंसान अछूता नहीं है। इसीकारण भारत के सभी संवैधानिक संस्थाओं के अधिकतम संवैधानिक पदों पर बैठा इंसान संविधान की रक्षा कर संविधान के आत्मा की आवाज बनने के बजाय वर्चश्व पसन्द सामन्ती मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी विचारधारा और व्यवस्था की आवाज बन बैठा है। नतीजा- देश के दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों का शोषण। ये शोषण कहीं माओवाद के नाम पर, कहीं नक्सलवाद के नाम पर, कहीं गौ रक्षा के नाम पर, कहीं धर्म के नाम पर तो कहीं सिर्फ और सिर्फ समाज में अपनी उच्चता साबित करने के लिए जाति के नाम पर हो रहा अत्याचार, अनाचार और व्यभिचार अपनी पराकष्ठा को कब के पार कर चुका है !

जाति ही दलितों, आदिवासियों, और अन्य पिछड़ों के शारीरिक, मानसिक, राजनितिक, सामाजिक और आर्थिक शोषण का एक मात्र आधार है। इसलिए इस बीमारी का इलाज भी इसी के आधार पर ही होगा ना कि जुमलेबाजों की जुमलेबाजी से। भारत के हिन्दुओं की मानसिकता और उनकी वर्चश्व पसन्द सामन्ती मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी विचारधारा व सामाजिक व्यवस्था से  बाबा साहेब अच्छी तरह वाकिफ थे। इसीलिए ही प्रो. अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों के लिए अल्पसंख्यकों की तरह अलग चुनाव क्षेत्र की माँग कर रहे थे और उनकी इस माँग को ब्रिटिश सरकार ने मान भी लिया था लेकिन वर्चश्व पसन्द साम्प्रदायिकतावादी सामन्ती मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी जातिवादी विधारधारा से गाँधी ने दलितों की गुलामी को बरकरार रखने के लिए आमरण अनसन शुरू कर दिया। जीवन के इस जटिलतम अवसर पर मानवता मूर्ति डॉ आंबेडकर ने मानवता का एक अनोखा, अदभुद व खूबसूरत उदाहरण देते हुए जाति के पोषक व उपासक गाँधी को जीवनदान दिया। जिसका परिणाम पूना पैक्ट के रूप में परिलक्षित हुआ। जिसके परिणाम स्वरुप कालान्तर में दलितों, आदिवासियों व अन्य पिछड़े वर्ग को सरकारी नौकरियों, स्कूलों व विश्वविद्यालयों में समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी का (संविधान के अनुच्छेद १५, १६ व ३३५) में निहित) संवैधानिक, लोकतान्त्रिक व मूलभूत अधिकार मिला। साथ ही साथ, संविधान के अनुच्छेद ३३० व ३३२ के तहत राजनितिक आरक्षण मिला जिसके तहत दलितों व आदिवासियों को लोकसभा व विधानसभा की सीटों में आरक्षण प्राप्त हुआ जो सिर्फ दस साल के लिए था जिसे समीक्षा कर बढ़ाया जा सकता है। संविधान के इसी प्रावधान के तहत, हर दस साल में राजनीतक आरक्षण को संविधान संसोधन के जरिये के बढ़ाया जाता है। 

हमारे प्यारे देशवासियों,
ये कितना दुर्भागयपूर्ण है कि आज आजाद भारत में दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी के संवैधानिक व लोकतान्त्रिक प्रावधानों को वर्चश्व पसन्द सामन्ती मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी विचारधारा से बीमार लोगों ने वोट बैंक का जरिया बना कर रख दिया है। स्वघोषित विद्वानों, राजनेताओ और जजों ने स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी के इस बहुमूल्य प्रावधान को आरक्षण नाम देकर इसके आत्मा की निर्मम हत्या कर दी है। देश के राजनेताओं, कानून विदों और अन्य विद्वानों व अशिक्षित जनता द्वारा आरक्षण शब्द का जिस तरह से इस्तेमाल व व्याख्या किया गया है वो पूरी तरह से असंवैधानिक और गैर-लोकतान्त्रिक है।

यह जानना बहुत आवश्यक है कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद १५, १६ व ३३५ के तहत दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को दिए गए अधिकार किसी परीक्षा में मिले अंक या तथाकथित मेरिट से तय नहीं होती है। ये तय होती है - देश के हर क्षेत्र में हर स्तर पर दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी से। जहाँ तक रही बात मेरिट की, तो मेरिट किसी भी इंसान के निजी व पारिवारिक जागरूकता, समाजिक पृष्टिभूमि, आर्थिक स्थिति और राजनैतिक परिवेश से तय होती है। जहाँ तक भारत में, मेरिट की बात की जाये तो भारत में सिर्फ इंसान ही जातियों व वर्णों में नहीं बटें है बल्कि पूरा का पूरा तंत्र ही जातियों व वर्णों में बटा हुआ है जिसमे भारत के शैक्षणिक संस्थान भी शामिल है। उदहारण स्वरुप - इंजीनिरिंग के क्षेत्र में आई आई टी, एन आई टी, राजकीय इंजीनिरिंग कालेज व पॉलीटेक्निक कालेज क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शुद्र है। भारत की सरकारें भी इन कालेजों को वित्त इसी क्रम में आवंटित करती है। इन कालेजों को स्वयत्ता भी इसी क्रम में मिली हुई है। जिसका नतीजा यह है कि - ऊर्ध्वाधर इंजीनिरिंग शिक्षण सस्थानों की सूचि में, ऊपर से नीचे की तरफ जाने पर तथाकथित मेरिट और गुणवत्ता गिरती जाती है। इसका मतलब ये नहीं है की ऊर्ध्वाधर इंजीनिरिंग शिक्षण सस्थानों की इस व्यवस्था में निचले क्रम पर आने वाले इंजीनिरिंग शिक्षण सस्थान और इसके बच्चे कम प्रतिभाशाली है और उच्च स्तर पर आने वाले इंजीनिरिंग शिक्षण सस्थान और इसके बच्चे ज्यादा प्रतिभाशाली है बल्कि ऊर्ध्वाधर इंजीनिरिंग शिक्षण सस्थानों की इस व्यवस्था का सम्बन्ध बच्चों की प्रतिभा से नहीं बल्कि ऊर्ध्वाधर इंजीनिरिंग शिक्षण सस्थानों की व्यवस्था को पाल रही सरकारों द्वारा दिया जाने वाला भेदभाव पूर्ण वित्तीय योगदान और इन कालेजों को मिली गैर-बराबरी पर आधारित स्वायत्ता है। ये व्यवस्था जान-बूझकर ब्राह्मणवादी सरकारों द्वारा बनाई गई है। फिर चाहे वो कांग्रेस की सरकार रही हो, भाजपा की सरकार रही हो या फिर किन अन्य की। यदि हम मण्डल कमीशन के लागू होने से पहले के परिदृश्य को देखे तो हम पाते है कि इन सभी ऊर्ध्वाधर इंजीनिरिंग शिक्षण सस्थानों की व्यवस्था में बच्चों का प्रतिनिधित्व ठीक उसी अनुपात में झलकता है जैसा कि हमारी मनुवादी ब्राह्मणी सामजिक व्यवस्था में दिखता है। उदाहरण स्वरुप- आई आई टी में स्वघोषित तथाकथित उच्च वर्ग ब्राह्मणों का प्रतिनिधित्व अधिक है, एन आई टी में क्षत्रियों व वैश्यों का तो राजकीय इंजीनिरिंग कालेज व पॉलीटेक्निक कालेजों में शुदों व दलितों का। यही ऊर्ध्वाधर व्यवस्था हमारे पूरे तंत्र में गैर-संवैधानिक और गैर-लोकतान्त्रिक तरीके से समाया हुआ है जिसमे मेरिट योग्यता के अनुसार नहीं, बल्कि इंसान के निजी व पारिवारिक जागरूकता, समाजिक पृष्टिभूमि, आर्थिक स्थिति और राजनैतिक परिवेश से तय होती है।

हमारे प्यारे देशवासियों,
भारतीय संविधान ने दलितों, आदिवासियों, और अन्य पिछड़ों को जो समुचित स्वप्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी का संवैधानिक और लोकतान्त्रिक मूलभूत अधिकार दिया है उस अधिकार को भारत के राजनेताओं ने वोट बैंक, तो न्यायालयों ने आरक्षण और स्वघोषित तथाकथित विद्वानों और अशिक्षित जनता ने रोजी रोटी का साधन बना दिया है। कुल मिलकर इस देश के लोगों ने समुचित स्वप्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी के संवैधानिक और लोकतान्त्रिक अधिकार को नरेगा जैसा गरीबी उन्मूलन कार्यक्रम बनाकर रख दिया है। हमे ये कहते हुए बहुत दुःख हो रहा है कि संविधान की रक्षा और बेकिस स्ट्रक्चर की बात करने वाले भी समुचित स्वप्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी के संवैधानिक और लोकतान्त्रिक प्रावधान को देश की आम जनता तक ले जाने और उन्हें समझने में पूरी तरह से नाकाम रहे है।

दलितों, आदिवासियों और अन्य पिछड़ों पर हो रहा शारीरिक व मानसिक अत्याचार का निदान कुछ कानूनों में संसोधन कर दण्ड को और कठोर करने या फिर कुछ वित्तीय मदद में नहीं बल्कि देश के दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों को देश के हर क्षेत्र के हर स्तर पर समुचित स्वप्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी को सुनिश्चित करने मात्र में निहित है। इसलिए यदि देश सचमुच में एक सशक्त भारत चाहता है तो दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों लिए भारत के शासन-प्रशासन, संसद, न्यायालय, विश्वविद्यालय, उद्योगालय, मीडिया, सिविल सोसायटी व अन्य सभी क्षेत्रों में समुचित स्वप्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी के मूलभूत लोकतान्त्रिक व संवैधानिक को सुनिश्चित करना ही होगा

यदि हम, हकीकत में, भारत का सकल समावेशी विकास चाहते है तो उसका एक ही रास्ता है- समुचित स्वप्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी। जहाँ तक रही बात आर्थिक आधार पर आरक्षण की तो गरीबी हर देश के हर समाज में पाई जाती है लेकिन जब गरीबी इस हद तक बढ़ जाये कि लोग अपनी मूलभूत आवश्यकताओं को भी ना पूरा कर पाए तो वो गरीबी का नहीं बल्कि मानवाधिकारों के हनन का मामला बन जाता है। इस तरह के मामलों का निदान समुचित व कारगर आर्थिक नीतियों में निहित होती है ना कि आरक्षण में। इस लिए आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात करना, स्वप्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी के आत्मा की निर्मम हत्या मात्र है। यदि हम इतिहास पर नजर डाले तो हम पते है कि आज यदि दलित, आदिवासी और पिछड़े समाज के लोग गरीब है तो उसकी वजह सदियों से हो रहा जातिवादी अत्याचार है लेकिन यदि स्वघोषित उच्च जातियों में यदि कोई गरीब है तो उसकी गरीबी का कारण उसका निठल्लापन और निकम्मापन है। इसलिए आर्थिक आधार पर आरक्षण की बात सोचना भी संवैधानिक और लोकतान्त्रिक तौर पर पूर्णतया गुनाह है।

हमारे प्यारे देशवासियों,
हमारे निर्णय के मुताबिक, किसी भी देश में रहने वाले हर समाज, हर तबके का शासन-प्रशासन, संसद, न्यायालय, विश्वविद्यालय, उद्योगालय, मीडिया, सिविल सोसायटी व अन्य सभी क्षेत्र में उसका समुचित स्वप्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी ही सही मायने में लोकतंत्र को परिभाषित करता है। इस लिहाज से, यदि हम भारत को देखे तो भारत में लोकतंत्र लगभग नदारद ही है। भारत में लोकतंत्र पांच साल में एक बार वोट करने तक ही सीमित कर दिया गया है। आजादी के इतने दशक बीत जाने के बाद भी, भारत की राजनीति गुंडों, दरिंदों, बलात्कारियों और जातिवादियों के विश्राम का घर बनकर रह गया है। भारत के हर क्षेत्र के हर स्तर पर सिर्फ १५ फीसदी  का ही कब्ज़ा है। जबकि देश का ८५ फीसदी जनमानस राजनितिक, सामजिक, शैक्षणिक और आर्थिक रूप से बेबस और लाचार है। इस तरह से देश के हर क्षेत्र के हर स्तर पर कुछ चन्द लोगों का कब्ज़ा ना सिर्फ गैर-कानूनी है बल्कि पूरी तरह से असंवैधानिक और अलोकतांत्रिक भी है। 

सशक्त, सक्षम और सक्रिय संविधान के बावजूद, भारतीय लोकतंत्र के शारीर में संविधान व लोकतंत्र  में निहित भारतीय संविधान और लोकतंत्र की आत्मा नहीं बल्कि मनुवादी ब्राह्मणी व्यवस्था की आत्मा का वास है। सशक्त, सक्षम और सक्रिय संविधान के बावजूद, भारतीय लोकतंत्र के शारीर में मनुवाद व ब्राह्मणवाद का वास यह साबित करता है कि भारत के संवैधानिक, गैर-संवैधानिक व अन्य सभी संस्थाओं के अधिकतम पदों बैठे लोगों की रगों में वही रूढ़िवादी अमानवीय वर्चश्व पसन्द सामन्ती मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी विचारधारा ही  राज कर रही है। इसीलिए भारतीय संविधान के पिता डॉ आंबेडकर ने संविधान सभा के अंतिम भाषण में कहा है कि संविधान कितना भी बेहतरीन क्यों ना हो वह अन्ततः बुरा साबित होगा यदि उसे अमल में लाने वाले लोग बुरे होगें और संविधान कितना भी बुरा क्यों ना हो अन्ततः बेहतरीन साबित होगा यदि उसे अमल में लाने वाले लोग बेहतरीन होगें। आज देश की एक बड़ी आबादी, अपनी मूलभूत मानवीय जरूरतों से वंचित है तो सिर्फ और सिर्फ इसलिए कि संविधान को अमल में लाने वाले लोग बुरे है, वर्चश्व पसन्द है  सामन्ती है, मनुवादी है,  जातिवादी है, वैदिक ब्राह्मणी विचारधारा और इसकी व्यवस्था के रोगी है।

हमारे प्यारे देशवासियों,
इसी क्रम में यदि हम झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और अन्य प्रांतों में फैले नक्सलवाद को देखें तो ये नक्सलवाद कुछ और नहीं बल्कि यहां के लोगों का देश के हर क्षेत्र के हर स्तर पर मतलब कि निचले स्तर से लेकर उच्च स्तर तक इनके समुचित प्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारों को नकारे जाना ही है। नरेंद्र मोदी ने अपने छत्तीसगढ़ दौरे के दौरान दिये भाषण में कहा था कि वे वहां पर मूलभूत संरचना जैसे कि सड़क, अस्पताल, स्कूल इत्यादि विकसित करेंगे। यही सब भारत की पिछली सरकार भी कहती आयी है लेकिन जहाँ तक हमारा अपना अध्ययन है उसके मुताबिक हम इस निर्णय पर पहुंचते है कि मनुवादी सरकारों द्वारा उग्रवादी घोषित दलित, आदिवासी और पिछड़े लोग देश की सरकार से देश के हर क्षेत्र के हर स्तर पर अपना खुद का समुचित प्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी चाहती है। लेकिन उद्योगपतियों के पैसों से सत्ता का सुख भोग रही सत्ताधारी व विपक्षी राजनैतिक पार्टियां इन लोगों को इनका संवैधानिक और लोकतान्त्रिक अधिकार इस लिए नहीं देना चाहती है क्योकि इससे उद्योगपतियों, धन्ना सेठों को नुकसान होगा। ये सारी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी राजनितिक दल अपने पूँजीपति आकाओं को नाराज नहीं करना चाहते है। मनुवादी ब्राह्मणी राजनेताओं के पूँजीपति आकाओं की ख़ुशी राज, हमारे देश के दलितों, आदिवासिओं व पिछड़ों की बेबसी, लाचारी व इनके आंसुओं में छिपा है। हमारे निर्णय के मुताबिक यदि हमारी सरकारें इन मूलनिवासियों को देश के हर क्षेत्र के हर स्तर पर इनका अपना खुद का समुचित प्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी सुनिश्चित कर दें जो कि इन लोगों का संवैधानिक और लोकतान्त्रिक अधिकार है तो ये लोग खुद ही धीरे-धीरे वो सारी सुविधाएं विकसित कर लेगें जिसका भ्रष्टाचार में लिप्त वर्चश्व पसन्द सामन्ती मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी  सरकारें आज तक सिर्फ और सिर्फ वादा करती आयी है।


हमारे प्यारे देशवासियों,
आज भारत में बाबा साहेब को अपने की होड़ सी मची हुई है। कांग्रेस जिसने बाबा साहेब के इतिहास को मिटाने का पुरजोर प्रयास किया वो बाबा साहेब के गुण गए रही है। आरएसएस, विहिप जैसे हिन्दू आतंकवादी संगठन और बीजेपी जैसे कट्टर जातिवादी राजनैतिक दल भी बाबा साहेब को अपनाने के लिए पुरजोर कोशिश कर रहे है। लेकिन साथियों ध्यान देने योग्य बात ये कि इसी बीजेपी ने बाबा साहेब द्वारा स्थापित मुंबई स्थित बाबा साहेब द्वारा स्थापित बुद्धा प्रेस को, उस वक्त रात में ध्वस्त कर दिया गया जब हमारा दलित, आदिवासी और अन्य पिछड़ा समुदाय सो रहा था। बाबा साहेब के ये स्मारक हमारे लिए वैदिक ब्राह्मणी हिन्दुओं द्वारा बनाये गए मंदिरों जैसा अंधी आस्था का केंद्र नहीं बल्कि हमारा इतिहास और हमारे प्रेरणा के तमाम अम्बेडकरी प्रेरणा स्रोतों में से एक था। साथियों बसपा को छोड़कर सारे रजनैतिक दल अपने पोस्टरों व बैनरों पर बाबा साहेब डॉ आंबेडकर की तस्वीर लगाकर वोट बटोरने की फ़िराक में लगे हुए है। इन सभी भगवाधारी ब्राह्मणी हिन्दुओं का बाबा साहेब और उनके विचार से दूर-दूर तक कोई लेना-देना नहीं है। इन सबके लिए अम्बेडकरवाद का मतलब सिर्फ और सिर्फ इनके पोस्टरों और बैनरों पर बाबा साहेब डॉ आंबेडकर की तस्वीर लगाने तक ही सीमित है। इसलिए आप सब अपने लोकतान्त्रिक वोटिंग के अधिकार का प्रयोग बाबा साहेब की तस्वीर देखकर नहीं बल्कि अम्बेडकरवाद की विचारधारा को मानने वाले राजनैतिक दल को देखकर करना है। भारतीय बहुजनों, इसी में आपका का सकल समावेशी विकास निहित है। 

हमारे प्यारे देशवासियों,
हमारी समस्याओं का समाधान, देश के हर क्षेत्र के हर स्तर पर हमारे समुचित स्वप्रतिनिधित्व और और सक्रिय भागीदारी में निहित है। हमारे जीवन की दुश्वारियों को हमें ही ठीक करना होगा। किसी से हमें कोई उम्मीद नहीं रखनी चाहिये। हमारा एक मात्र शस्त्र और शास्त्र है बाबा साहेब द्वारा रचित भारतीय संविधान। हमें अपने समुचित स्वप्रतिनिधित्व और और सक्रिय भागीदारी के संवैधानिक और लोकतान्त्रिक मूलभूत अधिकार के जरिये अपनी समस्याओं का खुद ही हल ढूढ़ना होगा। क्योंकि यदि समस्या हमारी है तो समधान भी हमारा ही होगा। यही लोकतंत्र है और यही हमारे संविधान की आत्मा है। 


हमारे प्यारे देशवासियों, 
अंत में हम आपसे यही कहना चाहते है कि यदि सचमुच आप सब भारत का विकास चाहते हो, यदि आप अपना विकास चाहते हो, यदि आप अपना मूलभूत मानवाधिकार चाहते हो, यदि आप स्वाभिमान चाहते होयदि आप न्याय चाहते हो, यदि आप अपने बहन-बेटियों का सम्मान चाहते होयदि आप संविधान का राज चाहते होयदि आप लोकतंत्र चाहते हो, यदि आप देश के हर क्षेत्र के हर स्तर पर समुचित स्वप्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी चाहते हो तो धर्मान्धता से बाहर निकलों , मंदिरो का बहिष्कार करों , नकार दो ब्राह्मणों के भगवानों को, तिरस्कार करों ब्राह्मणी व्यवस्था का, तोड़ दो जाति की बेड़ियां, छोड़ दो गुलामी, जोड़ लो रिश्ता किताबों से, अपना लो अम्बेडकरवाद को। यही मानवता की आज़ादी का मार्ग है, यही मनुवादी ब्राह्मणी हिन्दू धर्म को नेस्तनबूद कर अम्बेडकरवाद से ओत-प्रोत, तर्कप्रधान, वैज्ञानिकता और मानवाधिकार पर आधारित एक बेहतरीन भारत के निर्माण का एक मात्र रास्ता है। 

जय भीम, जय भारत!!!



रजनीकान्त इन्द्रा 
सितम्बर २२, २०१६ 

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