Sunday, September 11, 2016

सांस्कृतिक ताकत - सामाजिक परिवर्तन की राह

साथियों,
बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा प्रतीक मानवतामूर्ति बाबा साहेब डॉ आंबेडकर ने कहा है - "राजनितिक सत्ता वह मास्टर चाभी है जिसके द्वारा अवसर के सारे दरवाजे खोले जा सकते है।"

साथियों,
बाबा साहेब के इस सन्देश में राजनितिक सत्ता हमारे कल्याण, देश के विकास और भारत में समतामूलक समाज के पुनर्निर्माण का एक रास्ता है, माध्यम है लेकिन हमारा अंतिम लक्ष्य नहीं। हमारा लक्ष्य है - भारत में समतामूलक समाज की स्थापना करना, हमारा लक्ष्य है हर इंसान को बिना किसी भेद-भाव के जीने का हक दिलाना, हमारा लक्ष्य है स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व पर आधारित तर्कपूर्ण, वैज्ञानिकता से ओतप्रोत, मानवाधिकारों की कद्र करने वाले मानतावादी समाज का सृजन करना। इस लिए हमें राजनीतिक सत्ता को लक्ष्य नही बल्कि सिर्फ और सिर्फ माध्यम समझ कर बाबा साहेब के समतामूलक समाज की स्थापना के लक्ष्य की तरफ आगे बढ़ना चाहिये। 

साथियों,
राजनितिक सत्ता एक हार्ड पावर है जिसके द्वारा हम साफ्ट पावर को प्राप्त कर सकते है। सॉफ्ट पावर का मतलब है सांस्कृतिक पॉवर। किसी भी समाज का विकास तब तक संभव नहीं है जब तक कि वो समाज अपने शिक्षा और इतिहास के जरिये अपने मूल वजूद को प्राप्त न कर ले। इस वजूद को पाने के लिए जिस ताकत की जरूरत होती है उसमे पहली है - हार्ड पॉवर और दूसरी है - सॉफ्ट पॉवर। मतलब कि शासकीय पावर और सांस्कृतिक पॉवर। शासकीय पावर सांस्कृतिक पॉवर को सुगमता से लागु करने का एक बेहतर मार्ग है, माध्यम है। सांस्कृतिक पावर रास्ता है हमारी मंजिल का। मतलब कि बाबा साहेब और संत शिरोमणि संत रैदास के सपनों का समाज को स्थापित करने का। एक ऐसा समाज जिसमें ना कोई भेद-भाव हो, ना कोई जाती-पांति हो, ना कोई ऊंच-नीच हो, कोई बड़ा-छोटा ना हो, जहाँ सब बराबर हो, सबको समान अधिकार और अख्तियार हो, सबको सामान सम्मान हो, सबको आज़ादी हो, सब में समानता हो और आपस में भाई-चारा हो। 

साथियों,
जहाँ तक रही बात हार्ड पॉवर की यानि कि शासकीय पॉवर की तो ये वह पावर है जिसे हम सत्ता कहते है, राजनितिक सत्ता, हुकूमत की सत्ता। बाबा साहेब ने हमे रास्ता दिखया और बाबा साहेब के अनुयायी और महान समाज सुधारक मान्यवर काशीराम जी और सुश्री बहन कुमारी मायावती जी ने जहाँ एक तरफ हमे, हमारे दलित शोषित, आदिवासी और पिछड़े समाज को आधुनिक भारत के शासक वर्ग की कतार में लेकर खड़ा कर दिया वही दूसरी तरफ हमारा दलित, शोषित, आदिवासी  पिछड़ा वर्ग अपने इतिहास और सांस्कृतिक पावर से आज भी पूरी तरह महरूम है। 

साथियों,
ऐतिहासिक और सांस्कृतिक पॉवर ही वह माध्यम है जो कि हमें, हमारे इतिहास, हमारी संस्कृति और हमारे वज़ूद से हमारा परिचय करा सकती है। बाबा साहेब डॉ आंबेडकर द्वारा निर्मित स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व का पैगाम भारतीय संविधान के लागू होने चंद वर्षों बाद ही भारत की लोकतान्त्रिक व्यवस्था में हमनें अपनी शासकीय सत्ता को स्थापित कर लिया है। कहने का तत्पर्य यह है कि जिस देश में हमें शहस्त्राब्दियों से गुलाम बनाकर जानवरों से भी बदतर रहने-खाने को मजबूर किया गया था, आज उसी सरजमी पर हम अपने शोषक से आँखों में ऑंखें डालकर बात कर सकते है, उसके हर सवाल का दृढ़ता से जबाब दे है, हम अपने शोषक पर सवाल कर सकते है, उसका तख़्त छीन सकते है, हम खुद भी तख़्त पर बैठकर राज कर सकते है जैसे कि सुश्री बहन कुमारी मायावती ने उत्तर प्रदेश जैसे सर्वाधिक जनसंख्या वाले राज्य कई-कई हुकूमत किया है वो भी ऐसी हुकूमत जिसकी मिशाल आज़ाद भारत ही नहीं बल्कि भारत के समूचे इतिहास के पास भी नहीं है। 

बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षाप्रतिक मानवतामूर्ति बाबा साहेब डॉ आंबेडकर, मान्यवर काशीराम और बहन कुमारी मायावती जी ने आज हमारे दलित आदिवासी और पिछड़े समाज को शासक वर्ग की क़तर में लाकर खड़ा कर दिया है, लेकिन फिर भी हमे आज वो सम्मान हासिल नहीं है जो कि एक समता मूलक समाज में हर शहरी को मिलना चाहिए। इसका मतलब है कि हमने हार्ड पावर यानि कि शासकीय पावर को तो प्राप्त कर लिया है लेकिन सॉफ्ट पावर यानि कि सांस्कृतिक पावर को पाना अभी भी बाकि है। संघर्ष के इस दौर में हमें सिर्फ राजनितिक सत्ता तक सीमित नहीं रखना चाहिए क्योकि राजनितिक सत्ता को आते-जाते बहुत समय नहीं लगता है। इतिहास गवाह है राजा और शासक आये और चले गए, धरती पर बहुत से राजे-राजवाड़े पनपे और चन्द सालों में ही नेस्तनाबूद हो गए। शासकीय पॉवर को पाने और गवाने में ज्यादा वक्त नहीं लगता है लेकिन सॉफ्ट पावर यानि कि सांस्कृतिक पावर को पाने और मिटाने में सदियां ही नहीं कई-कई शास्त्रब्दिया गुजर जाती है लेकिन फिर भी इसे पूर्णतः मिटा नहीं पाती है।

साथियों,
शासक बदलने पर शासन प्रणाली बदल जाती है। लोग बदल जाते है। लेकिन यदि कोई चीज लगभग अपरिवर्तित रखती है तो वह है हमारी साफ्ट पॉवर यानि कि हमारी संस्कृति और इसकी शक्ति। कोई भी शासक कितना भी शक्तिशाली क्यों ना हो जाये, कितना भी अत्याचारी क्यों ना हो जाये लेकिन वो भी हमारी संस्कृति को खत्म नहीं कर सकता है सिवाय हमारे। हमारे दलित आदिवासी और पिछड़े समाज को शासकीय पावर का इस्तेमाल कर अपने सांस्कृतिक पावर को खोजना है, उसकी पुनर्स्थापना करना है, नवनिर्माण करना है जिससे की भारत में फिर से मानवता की स्थापना की जा सके। सांस्कृतिक पॉवर का के बनने और नेस्तनाबूद होने का रास्ता एक ही है जिस पर चलकर ये बनती है, परवान चढ़ती है और सुरक्षित है, और यदि हम उस रास्ते को छोड़ दे तो धीरे-धीरे हमारी संस्कृति और इसकी शक्ति क्षीण होती जाती है। हालांकि कि  ये सच है कि यदि एक बार हमारे समाज की सामाजिक मिटटी में हमारी संस्कृतियों और परम्पराओं की जड़ जम जाए यो संस्कृतियों को ख़त्म होने में सदियाँ नहीं सहस्त्राब्दियाँ बीत जाती है। 

संस्कृतियों को सजोने, संवारने, सुरक्षित रखने और पुनर्स्थापित करने का रास्ता है-शिक्षा। शिक्षा से हमारा मतलब उस शिक्षा से नहीं है जिसे आज भारत सरकार बढ़ावा दे रही है। आज भारत सरकार और लगभग पूरी जनसंख्या कौशल विकास को ही शिखा समझ बैठी है जो कि भारत के शरीर के लिए जहर सामान है। यहाँ शिक्षा से हमारा मतलब है ऐसी शिक्षा जिसका उद्देश्य मानव, मानव समाज और मानवता के विकास व इतिहास को हर स्तर पर हर दृष्टिकोण से जानना समझना और इसका विश्लेषण करना ही नहीं है बल्कि इस मानव समाज को तर्कवादी वैज्ञानिक व मानवीय विकास की ओर ले जाने वाले सामाजिक परिवर्तन के आन्दोलन द्वारा सड़े-गले समाज और इसकी समस्त बुराइयों को नेस्तनाबूद कर तर्कप्रधान, वैज्ञानिक और मानवतावादी एक नए समाज का सृजन करना हो।

बाबा साहेब ने भी कहा है - जो लोग अपना इतिहास नहीं जानते वो लोग कभी अपना इतिहास नहीं बना सकते है। इतिहास को जानने और बनाने का रास्ता है-शिक्षा। शिक्षा जहाँ हमें इतिहास का बोध कराती है वही इतिहास को बनाने और पुनर्स्थापित करने का मार्ग भी बताती है। इस तरह शिक्षा और इतिहास हमें हमारे वज़ूद की तरफ ले जाती है। 

साथियों,
यदि किसी भी समाज की शिक्षा छीन ली जाये तो उस समाज की शिक्षा मर जायेगी, शिक्षा के मरते ही उस समाज का इतिहास मर जायेगा और जब उस समाज का इतिहास मर जायेगा तो धीरे-धीरे उस समाज की संस्कृति क्षीण हो जाएगी और जब उस समाज की संस्कृति क्षीण हो जाएगी तो धीरे-धीरे वो समाज कमजोर होकर वो समाज खुद मर जायेगा और उस समाज के लोग दूसरों के आधीन उनके गुलाम बनकर रह जायेगे। यही भारत के मूलनिवासियों के साथ हुआ है जिसकी वजह से दलितों (जैसे चमार जो कि अपभ्रंश है जम्बार का जिसका मूल अर्थ है जम्बूद्वीप के मूलनिवासी), आदिवासियों और पिछड़ों को अपने ही जम्बू द्वीप पर गुलाम बनकर रहना पड़ा और आज भी रहना पड़ रहा है।

साथियों,
साफ्ट पॉवर से हमारा मतलब है सांस्कृतिक पॉवर से। संस्कृति का मतलब है हमारे अपने वज़ूद की पहचान, हमारी अपनी अस्मिता, अपने इतिहास की पहचान, हमारे अपने महापुरुष, हमारे अपने त्यौहार इत्यादि। यहाँ हम बार-बार सांस्कृतिक पावर की बात इस लिए कर रहे है क्योकि दलित आदिवासी और पिछड़े समाज ने शासकीय पावर को तो प्राप्त कर लिया है लेकिन उसका सांस्कृतिक पावर आज भी दूर है जिसकी वजह से इस तबके की अपनी कोई अस्मिता नहीं है, इस तबके के लोग ब्राह्मणों द्वारा थोपे गये चोले को पहन कर जी रहे है जिसके कारण भारत के दलित शोषित पिछड़े समाज को भारत की ब्राह्मणी व्यवस्था में जलालत और तिरस्कार का जीवन जीना पड़ रहा है। 

साथियों,
बाबा साहेब द्वारा शुरू किये गए शिक्षा के आंदोलन को दलित आदिवासी और पिछड़े समाज लोगों ने गले लगाया और आज तो निरंर्तर संघर्ष करते हुए अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे है। जिससे ये प्रतीत होता है कि भारत में मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी व्यवस्था के खिलाफ एक अम्बेडकरवादी वर्ग खड़ा हो रहा है और ये कुछ हद तक सच भी है लेकिन इस आंबेडकरवादी वर्ग के समान्तर ही एक वर्ग और खड़ा हो गया है जिसके तादात लगभग ४५-५०% है। वह वर्ग है मनुवाद का शिकार वर्ग। ये वर्ग सांस्कृतिक पावर को स्थापित करने में सबसे बड़ा रोड़ा है।

इस तरह से यदि हम गौर करे तो हम पाते है कि भारत के सामाजिक व्यवस्था में तीन वर्ग सामने आये है। पहला वर्ग है - अत्याचारी मनुवादी वैदिक ब्रामणी लोगो का वर्ग / मनुवादी वर्ग / ब्रम्णवादी वर्ग। दूसरा वर्ग है - मनुवाद का शिकार वर्ग। तीसरा वर्ग है - अम्बेडकरवादी वर्ग। 

साथियों,
मनुवादी वर्ग वो वर्ग है जो खुलेआम वैदिक ब्राह्मणी अत्याचारी व्यभिचारी जातिवादी और छुआछूत की व्यवस्था में पूरी तरह से आस्था रखते हुए अपने निजी व सामाजिक जीवन में इन कुकर्मों का पूर्णतः पालन करता है इस वर्ग में अधिकतर ब्राह्मण, क्षत्रिय, बनिया वर्ग और कुछ हद तक ओबीसी की स्वघोषित उच्च जातियां आदि शामिल है। इस वर्ग की तादात तकरीबन २५-३० प्रतिशत है। 

इसके बाद दूसरा वर्ग है - मनुवाद के शिकार लोगों का वर्ग इसमें वो लोग आते है जो अपने सामाजिक जीवन में ब्राह्मणवाद की बुराइयों की निंदा करते है, आन्दोलन भी करते है, अम्बेडकरवाद का साथ देने की बात करते है। यही तक नहीं, ये अपने आपको आंबेडकरवादी कहते और समझते है लेकिन अपने निजी जिंदगी में ब्राह्मणवाद के हर कर्मकांड का पूर्णतः पालन करते है जैसे कि मनुवादी लोग करते है। इस वर्ग में लोवर कास्ट की अन्य पिछड़ी जातियाँ, कुछ हद तक दलित और जनजातिया आती है जिनकी तादात तकरीबन ४५-५०% है।

तीसरा वर्ग है अम्बेडकरवादियों का। इस वर्ग में वे लोग आते है जो मानवीय इतिहास, मानवता और इसके विकास का अध्ययन कर समाज में फैली अत्याचारी, व्यभिचारी, निकृष्ट हिन्दू मान्यताओं परम्पराओ और रीति-रिवाजो का अपने सामाजिक और निजी जीवन में पूर्णतः तिरस्कार कर तर्कपूर्ण, वैज्ञानिकता से ओतप्रोत स्वतंत्रत समता और बंधुत्व पर आधारित मानवतावादी समाज के सृजन के लिए सतत प्रयासरत है।  

साथियों,
दूसरे वर्ग यानि कि मनुवाद के शिकार वर्ग और तीसरे वर्ग यानि कि अम्बेडकरवादी वर्ग मिलकर शासकीय पॉवर तो हासिल कर लिया लेकिन सांस्कृतिक पॉवर की लड़ाई सिर्फ तीसरा वर्ग ही लड़ रहा है। शासकीय पावर को पाने में जहाँ मनुवाद के शिकार लोगों ने अम्बेडकरवादियों का साथ दिया वही दूसरी तरफ सॉफ्ट पॉवर यानि की सांस्कृतिक पावर के संघर्ष में मनुवादी का शिकार वर्ग ही सबसे बड़ा रोड़ा बनकर खड़ा है। यही दूसरा वर्ग है जिसके वजह से चंद मुठ्टी भर ब्राह्मणों के धर्म का धंधा चल रहा है, अन्धविश्वास की दुकान चल रही है, यही वह दूसरा वर्ग है जो ब्राह्मणों की जाति व्यवस्था को नेस्तनाबूद करने के बजाय खुलकर जाति व्यवस्था को बढ़ावा दे रहा है, यही वह दूसरा वर्ग है जो हिन्दू धर्म की पालकी को अपने कंधे पर लेकर चल रहा है, यही दूसरा वर्ग है जिसकी वजह से अम्बेडकरवादियों का शासकीय पावर भी पूरी तरह से परवान नहीं चढ़ पा रही है। यही दूसरा वर्ग है जो बात तो आंबेडकर और समतामूलक समाज की करता है लेकिन अत्याचारी, व्यभिचारी, निकृष्ट भेद-भाव पूर्ण हिन्दू धर्म के लिए अपने मूलनिवासी भाई-बंधुओं का सर कलम करने को तैयार रहता है। यदि आप भारत के साम्प्रदयिक हिंसा पर गौर करे तो आप पायेगें कि  यही वो वर्ग है जो हिंसा में सबसे आगे रहता है। फिर चाहे वो हिंसा मुस्लिमो के खिलाफ हो, जनजतियों के खिलाफ हो या फिर अम्बेडकरवादियों दलितों और जम्बारो के खिलाफ हो। 

साथियों,
यदि ये दूसरा वर्ग अपने इतिहास और अपने वज़ूद को समझ जाये तो हमें निकृष्ट ब्राह्मणी हिन्दू धर्म और इसकी सामाजिक व्यवस्था को नेस्तनाबूद करने में कोई समय नहीं लगेगा। यदि ये दूसरा वर्ग अपने कथनी को अपनी करनी बना ले तो हिन्दू धर्म और इसकी सामाजिक व्यवस्था के दिन गिने चुने है। इसके लिए जरूरी है सांस्कृतिक पावर को स्थापित करने की। 

साथियों,
अपनी सांस्कृतिक पावर को स्थापित करने के लिए आपको सबसे पहले दूसरों के संस्कृतियों को छोड़ना पड़ेगा, उनके धर्म का परित्याग करना होगा, उनके मंदिरों को त्याग दो, उनके भगवानों का तिरस्कार करों, उनकी रीति-रिवाजों का त्याग करों, ढोंग और अमानवीय कर्मकांडों को त्याग दो, दुर्गापूजा, गणपतिपूजा, दशहरा, दीवाली, होली, रक्षबंधन, शिवरात्रि और अन्य सभी हिन्दू त्यौहारों का बहिष्कार करों, किताबो से नाता जोड़ लो, अपने इतिहास को जान लो, बाबा साहेब की २२ प्रतिज्ञायों को अपने निजी जीवन में उत्तर लो, शादी-विवाह जैसे अवसरों पर ब्राह्मणों का बहिष्कार करों और मानवधिकारों के जीने के लिए संविधान और बाबा साहेब को ही अपना ग्रन्थ बना लो, आपके त्यौहार है रैदास जयंती, आंबेडकर जयंती, फुले जयंती, काशीराम जयंती, बुद्धा जयंती, मनुस्मृति दहन दिवस, संविधान दिवस, गणतंत्र दिवस इत्यादि। हिन्दू धर्म, इसके त्यौहारों और इसकी व्यवस्था के परित्याग और अपने महापुरुषों की जयंती मनाने और उनकी शिक्षाओं पर अमल ही हमारी संस्कृति को पुनः स्थापित कर सकती है। 

इसलिए आगे बढ़ो, उखाड़ फेकों हिन्दू धर्म को, इसकी परम्पराओं को, बहिष्कार करो इसके त्यौहारों का, परित्याग करों इसकी विषमतावादी सामाजिक का इसी में आपका वज़ूद है, आपकी अस्मिता है, सम्मान है, स्वाभिमान है। यही आपके सांस्कृतिक पावर का रास्ता है जिसकी बदौलत भारत में विषमतावादी व्यवस्था को नेस्तनाबूद कर समतामूलक समाज का सृजन होगा। 

जय भीम, जय भीम भूमि की॥ 

रजनी कान्त इन्द्रा

सितम्बर ११, २०१६

No comments:

Post a Comment