Tuesday, December 1, 2009

बोम्मई और सरकारिया आयोग



 सरकारिया आयोग के निष्कर्षो के जिस पहलू पर सर्वाधिक बहस हुई तथा चर्चा मिली वह था राज्यों में राष्ट्रपति शासन लागू करने के संदर्भ में सरकारिया कमीशन के विचार। कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री एस. आर. बोम्मई ने अपनी सरकार की बर्खास्तगी को 1989 में सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी और राज्य विधानसभा में शक्ति परीक्षण कराने के उनके आग्रह को राज्यपाल द्वारा ठुकरा देने के निर्णय पर सवाल उठाया था।

                  सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय एक पीठ ने बोम्मई मामले में मार्च 1994 में अपना ऐतिहासिक फैसला सुनाया और राज्यों में केंद्रीय शासन लागू करने के संदर्भ में सख्त दिशा-निर्देश तय किए।

                  न्यायमूर्ति सरकारिया ने केंद्र-राज्य संबंधों और राज्यों में संवैधानिक मशीनरी ठप हो जाने की स्थितियों की व्यापक समीक्षा की और 1988 में सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में उन्होंने इस संदर्भ में समग्र दिशा-निर्देश सामन रखे। उन्होंने कहा कि राज्यपालों की नियुक्ति में मुख्यमंत्रियों से सलाह ली जानी चाहिए। राज्यपालों के पक्षपातपूर्ण आचरण पर अंकुश लगाने के लिए कदम उठाए जाने चाहिए। यदि चुनाव में किसी दल या गठबंधन को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलता है तो राज्यपाल को सबसे बड़े चुनाव पूर्व गठबंधन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करना चाहिए। राज्यपालों को राजभवन के लान में विधायकों की गिनती कर किसी दल या गठबंधन के बहुमत के बारे में निर्णय नहीं लेना चाहिए। बहुमत का परीक्षण राज्य विधानसभा में ही होना चाहिए। छह वर्ष बाद बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट ने भी इस आयोग की महत्वपूर्ण सिफारिशों पर अपनी मुहर लगा दी। सच तो यह है कि आयोग की इस रिपोर्ट पर ही बोम्मई मामले में सुप्रीम कोर्ट ने अपना निर्णय सुनाया। बोम्मई मामले का निपटारा सुप्रीम कोर्ट की नौ सदस्यीय बेंच ने किया।

                उक्त निर्णय ने केंद्र सरकार द्वारा अनुच्छेद 356 के व्यापक दुरुपयोग पर विराम लगा दिया। सुप्रीम कोर्ट 1952 से 1994 के बीच इस अनुच्छेद के मनमाने इस्तेमाल पर विचलित थी, इसलिए उसने ऐसी भाषा में सख्त दिशा-निर्देश तय किए जिससे आने वाले वर्षो में इस अनुच्छेद के दुरुपयोग की कोई गुंजाइश ही न रहे। सात बिंदु, जो अदालत का बहुमत का दृष्टिकोण बनकर उभरे, इस प्रकार थे- अनुच्छेद 356(1) के तहत राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा न्यायिक समीक्षा के योग्य है (2) अदालत यह जांच सकती है कि राष्ट्रपति शासन की घोषणा क्या किसी सामग्री पर आधारित है और क्या वह सामग्री प्रासंगिक है (3) चुनौती दिए जाने की दशा में यह जिम्मेदारी केंद्र सरकार की है कि वह संबंधित सामग्री की प्रासंगिकता सिद्ध करे (4) अनुच्छेद 74 (2) राष्ट्रपति के समक्ष सामग्री की जांच-पड़ताल से कोई प्रतिबंध नहीं है और राष्ट्रपति इस संदर्भ में तब तक कोई अपरिवर्तनीय निर्णय नहीं ले सकते जब तक कि राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा को संसद अपनी मंजूरी न प्रदान कर दे (5) यदि अदालत उद्घोषणा को अवैध पाती है तो उसे पूर्व स्थिति बहाल करने का अधिकार है अर्थात वह विधानसभा और मंत्रिमंडल को बहाल कर सकती है-भले ही संसद ने उद्घोषणा को अपनी मंजूरी प्रदान कर दी हो (6) अदालत के पास अंतरिम राहत देने का भी अधिकार है अर्थात वह नए चुनावों पर रोक लगा सकती है (7) पंथनिरपेक्षता संविधान के मूल ढांचे का अंग है।

                 यद्यपि अदालत ने यह स्पष्ट करने में कोई कोताही नहीं बरती कि यदि उसके निर्णय को लागू करने में गड़बड़ी की गई तो वह हस्तक्षेप करने में नहीं हिचकिचाएगी


उदहारण

१. कुछ वर्ष पहले केंद्र में सत्तारूढ़ राजग सरकार ने बिहार की राबड़ी देवी सरकार को बर्खास्त कर दिया था |सरकारिया आयोग की रिपोर्ट के तहत अंतत: केंद्र सरकार को राबड़ी देवी सरकार बहाल करने के लिए विवश होना पड़ा।

२. झारखंड राज्यपाल सैयद सिब्ते रजी ने कांग्रेस पार्टी के हितों की पूर्ति करने के लिए एक अल्पमत सरकार का गठन कराया, हालांकि बाद में वह भी अपने प्रयासों में असफल रहे।

३. कर्नाटक विधानसभा निलंबित अवस्था में रखने के केंद्रीय कैबिनेट का निर्णय |

             राजनीतिज्ञों द्वारा अदालत के दिशा-निर्देशों को स्वीकार करने का पहला संकेत 2003 में उस समय मिला जब अंतर राज्य परिषद ने यह माना कि सरकारिया कमीशन की महत्वपूर्ण सिफारिशों पर अमल होना चाहिए। परिषद ने कहा कि विधानसभा भंग नहीं की जानी चाहिए, बल्कि इसे तब तक निलंबित अवस्था में रखना चाहिए जब तक कि राष्ट्रपति शासन की उद्घोषणा को संसद के दोनों सदन अपनी मंजूरी न दे दें। राष्ट्रपति को भेजी गई राज्यपाल की रिपोर्ट एक प्रखर दस्तावेज होना चाहिए और इसे संबंधित तथ्यों तथा आधारों के साथ उद्घोषणा का अभिन्न अंग बनाया जाना चाहिए।



Dec. 01, 2009

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