दिनांक - अक्टूबर ०७, २०१७
प्रिय मूलनिवासी बहुजन साथियों,
ब्रहम्णी रामचरित मानस कहता है कि-
"जब जब होय धर्म की हानि,
बढ़ै असुर अधम अभिमानी!"
कहने का तात्पर्य
यह है कि जब जब धर्म की हानि होती है असुर नीच और अभिमानी की संख्या बढ़ जाती है।
इसी दोहे के अनुसार इसका उल्टा भी सही है कि जब जब असुर, नीच और अभिमानियों की
संख्या बढ़ जाती है तो धर्म की हानि हो जाती है। यहाँ धर्म की परिभाषा क्या है? असुर
किसे कहा गया है? अभिमानी कौन है? इस तरह कोई जिक्र नहीं है। जबकि वेदों आदि
अध्ययन से पता चलता है कि बब्राह्मणी व्यवस्था को चैलेंज करने वाले भारत भूमि
के मूलनिवासी बहुजन समाज के लोग ही ब्राह्मणी व्यवस्था में राक्षस कहे गये है।
अब देश के मूलनिवासी समाज को तय करना है कि ये मूलनिवासी बहुजन समाज ब्राह्मणी
व्यवस्था में नीच की जिंदगी जीता रहेगा।
हमारा विचार है कि ब्रह्मणी धर्म के पतन से ही मानवता के रक्षक
राक्षस (रक्षक) समाज उदय सम्भव है!
अतः हमारे विचार से, सकल मानवतावादी समाज को मनुवादी सनातनी वैदिक ब्रहम्णी
हिन्दू धर्म को जड से उखाड़ कर मानवतावादी बुद्ध धम्म (राक्षस संस्कृति मतलब कि मानवता
के रक्षा की संस्कृति) को पुनः स्थापित करने के लिए प्रयासरत रहना चाहिए!
जय भीम...
आपका अपना
रजनीकान्त इन्द्रा
फाउंडर एलीफ
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