भारत के बुद्धिज़्म में
प्रचलित अचार-विचार कितने प्रासंगिक हैं, सीलोन में बुद्धिज़्म मूलरूप
में हैं अथवा उसमे में बौद्ध पंडों द्वारा बदलाव किया गया हैं। इसके बारे में बाबा
साहेब पड़ताल की राय रखते हैं ताकि धम्म को इसके मूल स्वरुप में जाना जा सके।
25 मई 1950 से "सीलोन बुद्धिस्ट" कांग्रेस
द्वारा सीलोन की पुरानी राजधानी काण्डी में "विश्व बुद्ध
परिषद" का आयोजन किया गया था। 26 मई 1950 के दिन बाबा साहब को बोलने
का मौका मिला। तब बाबा साहब ने वहां उपस्थित लोगों को सम्बोधित करते
हुए बाबा साहेब ने कहा कि -
"मैं चाहता हूं कि भारत में बौद्ध धम्म के केवल
ब्राह्योपचार का ही अनुसरण किया जाता है या फिर सही बुद्ध धम्म का
अनुसरण किया जाता है, इस बारे में भारतीय जाने बहुत धर्म जागृत है अथवा केवल
परंपरागत है, यही मैं देखना चाहता हूं।"
ये सत्य हैं कि समय के साथ-साथ
ब्राह्मणीकरण के चलते बुद्धिज़्म में ना सिर्फ ब्राह्मणी कर्मकांडों का प्रवेश
हो चुका हैं बल्कि बुद्धिज़्म में भी एक पुरोहित वर्ग का जन्म हो चुका हैं। ये
वर्ग दो-चार किताबों का संदर्भ देकर लोगों को कर्मकाण्डों में उलझाने का कार्य कर
रहा हैं। ये और बात हैं कि इनके स्रोत अक्सर मूलस्रोत से होने के बजाय
द्वितीय स्रोत (Secondary Source) होती हैं।
इनके मुताबिक ब्राह्मणी दिवाली के
दिन दीपदान उत्सव मानना चाहिए। "ॐ मणि पद्मे हुं" का जाप करना
चाहिए। "ॐ" और स्वास्तिक सब बुद्धिज़्म के अंग हैं, आदि। इनके
ऐसे तर्कों को सुनकर प्रतिक्रियावादी बुद्धिष्ट खुश हो जाते हैं। इनके ऐसे बातों
से हिन्दुओं का वो फिरका भी सहज महसूस करने लगता हैं,
जिसकों कृष्ण-साईं और बुद्ध दोनों की स्वार्थसिद्धि के अनुसार जरूरत
होती हैं। नतीजा, बुद्धिज़्म का ब्राह्मणी संस्कृति से घालमेल। मतलब कि
बुद्धिज़्म में कर्मकाण्डों व अंधविश्वासों का प्रवेश। अंततः बुद्धिज़्म में हानि।
हालाँकि, इस बात से इनकार नहीं किया जा
सकता हैं कि बुद्धिज़्म की संस्कृति बहुत समृद्धि रहीं हैं। आज भारतियों के
ब्राह्मणीकरण के बाद धम्म के बहुत सारी रीति-रिवाज आदि बहुत सारे प्रतीक
ब्राह्मणी संस्कृति के द्योतक बन गए हैं। ऐसे में भारत में यदि बुद्धिज़्म को पुनः
स्थापित करना हैं तो लोगों में भ्रांतियाँ फ़ैलाने के बजाय ब्राह्मणी प्रतीकों व
ब्राह्मणी चेंटिंग की पद्धति से अलग आम जनमानस के समझ में आने
वाली भाषा में बुद्धिज़्म के मूल सिद्धातों को लोगों तक पहुँचाने की जरूरत हैं।
जहाँ तक हम समझ पाए हैं बुद्धिज़्म आज जनमानस
के जीवन को सरल, सुगम, सुखद और समृद्ध बनाने वाली जीवन-शैली हैं। लेकिन दुखद हैं
कि बौद्ध धम्म के पंडों ने अपनी विशिष्टता को कायम बनाये रखने के लिए धम्म को
जटिल बना दिया हैं। क्योंकि ये स्थापित सत्य हैं कि जब आप किसी
सिद्धांत/पद्धति/पंथ/धर्म आदि को जटिल कर देते हैं तो वो आम जनमानस से दूर हो
जाती हैं। लोगों के लिए उसको समझना कठिन हो जाता हैं। ऐसे में उन पण्डों का
व्यापार और उनकी सामाजिक विशिष्टता व महत्व बढ़ जाता हैं। इसके पश्चात् ये पंडा
वर्ग अपने व्यापार व सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाये रखने के लिए
उस सिद्धांत/पद्धति/पंथ/धर्म को कठिन से कठिन बनाये रखने के लिए नित नये
कर्मकाण्डों को जन्म देता रहता हैं। शब्दों के मायाजाल में लोगों को
उलझाने के लिए नई-नई व्यख्या करता हैं। अपने आपको जस्टिफाई करने के लिए नई-नई
किताबे लिखता हैं। क्योंकि लिखित की प्रामणिकता अधिक होती हैं। यहीं ब्राह्मणों ने
किया जिसके परिणाम स्वरुप ब्राह्मणवाद स्थापित हो सका। आज यहीं कार्य बुद्धिज़्म के
पंडे भी कर रहे हैं। इन्होने अपने निजी स्वार्थ व मंशा की पूर्ती के लिए धम्म को
हानि पहुँचाने का कार्य कर रहे हैं। इनकी सफलता की वजह हैं समरसतावादी लोग। ये
समतावादी (यथास्थितिवादी) लोग समता (परिवर्तनवादी) के लिए खतरा हैं। समरसतावादियों
ने पहले बुद्धिज़्म को निगल लिया हैं और अब बाबा साहेब को निगलने के लिए कार्यरत
हैं।
बुद्धिज़्म के मानने वालों को ये सोचने की
जरूरत हैं कि आज बुद्धिज़्म में जितना कर्मकाण्ड (ढोंग-पाखण्ड) प्रवेश कर
चुका हैं क्या वाकई उसको बुद्ध ने बनाया था? क्या बुद्ध के पास इतना वक्त रहा कि
वे नित नए नियम बनाये। यदि धम्म को कानून की किताबों में ही बांधना था तो बुद्ध ने
कुरान, बाइबिल, गीता आदि की तरह कोई एक पवित्र ग्रन्थ क्यों नहीं सृजित करवाया?
हमारा स्पष्ट मानना हैं कि बुद्ध ने कुछ मूल सिंद्धांत जैसे कि त्रिशरण,
पंचशील, अष्टांगिक मार्ग बताया होगा। इसको समझने के लिए अलग-अलग उदहारण दिए होगें।
समयानुसार कुछ अनुशासन बताये होगें। लेकिन बुद्ध ने कर्मकाण्डों को कभी बल
नहीं दिया होगा। ऐसे में हमारा स्पष्ट मत हैं कि जितने भी कर्मकाण्ड
बुद्धिज़्म में व्याप्त हो गए हैं ये सब बुद्धिज़्म में पैदा हुए पण्डों की वजह से
हैं।
समरसतावादी पंडों से पूछने पर
वे कहते हैं कि बाबा साहेब ने खुद कहा हैं कि "मैं आप लोगों को एक
कठिन धम्म दे रहा हूँ"। ये समरसतावादी पंडे जिस तरह से बाबा साहेब का नाम
उछाल कर खुद को जस्टिफाई कर रहें हैं उससे स्पष्ट हैं की बाबा साहेब ने ऐसा कुछ
नहीं कहा होगा। और यदि कहा भी होगा तो उस संदर्भ में बिलकुल नहीं कहा होगा जिस
संदर्भ में ये पंडे कह रहें हैं।
बौद्ध धम्म में पैदा हुए इन
पंडों से यदि आप ज्यादा सवाल जबाब करेगें तो ये आप को दोषी करार कर देगें
क्योकि आपने उनकी और उनके जैसों की लिखी किताबों नहीं पढ़ा हैं। आप फेसबुक पर उनसे
ज्यादा सवाल करते हैं, इसलिए वे आपको फेसबुकिया विद्वान कहते हैं। वे आपके
सवाल और आपकी असहमति पसंद नहीं करते हैं। वे चाहते हैं कि आप उनकी व उनके जैसों की
किताबें पढ़िए। क्योकि यदि आपने उनकी व उन जैसों को चार-छह किताबें पढ़ ली तो आप
सवाल ही नहीं करेगें। आप उनके जैसे ही बन जायेगें। यहीं वे चाहते हैं। नतीजा -
धम्म में पंडों की सत्ता और धम्म के मूल तत्वों की हानि। फिलहाल भारत
में धम्म के डूबने और १९५६ के बाद वांछित प्रसार ना होने की एक
मुख्य वजह ये समरसतावादी बौद्ध पंडे हैं।
फिलहाल बाबा साहेब का नाम लेकर बौद्ध
धम्म में पैदा हुए समरसतावादी बौद्ध पंडों द्वारा धम्म को जो कठिन बताया
जा रहा हैं, इसमें समरसतावादी पंडों ने यहाँ पर "कठिन" की परिभाषा
क्या हैं, ये स्पष्ट नहीं किया। क्या बाबा साहेब देश की अशिक्षित जनता को
कठिनता में झोंककर धम्म का प्रसार कर सकते थे? बिलकुल नहीं। इस लिए बौद्ध धम्म
कठिन नहीं हो सकता हैं। यदि कठिन होता तो दुनिया में फ़ैल ही नहीं सकता था।
हमारा विचार हैं कि धम्म सरल,
सुगम सुखद व समृद्ध बनाने वाली जीवन शैली थी। इसलिए धम्म ने दुनिया के
कोने-कोने में अपने आपको स्थापित कर लिया। दूसरी बात ये भी हैं कि यदि बाबा साहेब
ने धम्म कोकठिन कहा भी होगा तो उसका मतलब भारत के लोगों के संदर्भ में और
ब्राह्मणी व्यस्था के संदर्भ में रहा होगा। क्योकि ब्राह्मणी धर्म का पालन
करना सबसे आसान हैं।
आप किसी की भी पूजा कर लीजिये। आप ईश्वर को
मानिये या नकार दीजिये। आपने कोई हिन्दू ग्रन्थ पढ़ा हो या न पढ़ा हो। कोई फर्क नहीं
पड़ता हैं। स्पष्ट हैं कि ब्राह्मणी धम्म एक अनुशासनहीन धर्म हैं,
जिसका पालन करना बहुत आसान हैं। और आज के समय में भारतीय लोग इस अनुशासनहीन
ब्राह्मणी धर्म के आदी हो चुके हैं। ऐसे में अनुशासनहीन को किसी सरलतम अनुशासन में
रखना भी बहुत कठिन कार्य है। इस संदर्भ में बाबा साहेब ने बुद्धिज़्म को कठिन
बताया होगा, ये संभव हैं। लेकिन जिस तरह से बाबा साहेब का नाम लेकर बौद्ध पंडों ने
लोगों को गुमराह करने का कार्य किया हैं वो ना सिर्फ निंदनीय हैं बल्कि बुद्धिज़्म
को शर्मसार करने वाला भी हैं।
ऐसे में स्पष्ट हैं कि बुद्धिज़्म को ब्राह्मणी ब्राह्मणों
से तो बचाया जा सकता हैं लेकिन बुद्धिज़्म में पैदा हो चुके ब्राह्मणों से
बुद्धिज़्म को बचाना कठिन हैं।
फिलहाल भारत में बुद्ध धम्म के मूल स्वरुप में
आये बदलाव और कर्मकाण्डों व रीति-रिवाजों की पड़ताल के संदर्भ में 26 मई 1950
के दिन "सीलोन बुद्धिस्ट कांग्रेस" द्वारा सीलोन की
पुरानी राजधानी काण्डी में "विश्व बुद्ध परिषद" में बाबा
साहेब कहते हैं कि -
रजनीकान्त इन्द्रा
एमएएच इग्नू-नई दिल्ली
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