Wednesday, May 6, 2020

बहुजन समाज का सामाजिक नकलची होना उसके गले का फ़ांस हैं

बहुजन समाज का सामाजिक नकलची होना उसके गले का फ़ांस हैं
प्रस्तावना
उत्तर प्रदेश में प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी में अध्यनरत छात्रों में इस बात को लेकर बहुत रोष हैं कि श्री अजय कुमार बिष्ट के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार अब BDO[1] और EO[2] (नगर पालिका) के पदों को प्रतिनियुक्ति के आधार भरने जा रही है। इसके पहले इन पदों पर रिक्तियों की पूर्ति लोक सेवा आयोग द्वारा आयोजित परीक्षाओं के आधार किया जाता रहा हैं। फ़िलहाल, इससे बहुत दिक्कत नहीं है क्योंकि यदि लोग प्रमोट होगें तो दूसरी जगहों पर रिक्तियां बढ़ेंगी। 
बहुजनों की ये समस्या सिर्फ कार्यपालिका तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि उच्च न्यायपालिका, मीडिया, विधायिका, विश्वविद्यालय, उद्योगलय और सरकारी व गैर-सरकारी फण्ड से संचालित एनजीओ और सिविल सोसाइटी में भी इससे भी ज्यादा भयानक रूप में विद्यमान हैं। यहाँ पर बहुजनों का संवैधानिक व लोकतान्त्रिक मूलभूत अधिकार पूरी तरह से शून्य हैं। ऐसे में बहुजन समाज को चंद प्रतियोगी परीक्षाओं तक सीमित होने के बजाय पूरी की पूरी व्यवस्था का मुआयना करना चाहिए। जाति आधरित जनगणना की मांग कर उसके मुताबिक देश के हर तबके को सत्ता व संसाधन के क्षेत्र के हर पायदान समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी के लिए अपनी आवाज़ बुलन्द करनी चाहिए। संवैधानिक व लोकतान्त्रिक तरीके से सत्ता अपने हाथों में लेकर देश के ८५ फीसदी आबादी वाले बहुजन समाज के मूलभूत संवैधानिक व लोकतान्त्रिक हक़ों को लागू करना चाहिए।
देश के विभिन्न संवैधनिक व सरकारी एवं गैर-सरकारी पदों पर नियुक्तियों के सन्दर्भ में बहुजन समाज की मांग सिर्फ यह हैं कि प्रक्रिया, सरकार चाहें जो अपनायें बस शर्त यही है कि बहुजन समाज के मूलभूत संवैधानिक व लोकतान्त्रिक अधिकार संविधान सम्मत मंशा के अनुरूप मिलने ही चाहिए। मतलब कि देश के तमाम संवैधानिक, सरकारी व गैर-सरकारी रिक्त जगहों की पूर्ति समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी के सिद्धांत पर ही होनी चाहिए जिससे कि बहुजन समाज को उसका वाज़िब हक़ मिल सके। फिलहाल सरकार की मंशा ठीक इसके विपरीत हैं जो कि इसके कार्यकाल के तमाम सरकारी नौकरियों के विज्ञापनों से साबित हो चुका हैं। ऐसे में सवाल यह हैं कि क्या इसकी जड़ें राजनीति में ही हैं या फिर कहीं और भी हैं? क्या इसके लिए सिर्फ सरकार ही जिम्मेदार हैं?
सामाजिक ताने-बाने में छिपा हैं रहस्य
आज बहुजन त्रस्त हैं लेकिन त्रस्त करने वालों के खिलाफ बहुजन आवाज उठाने के बजाय उसकी "हाँ में हाँ" इसलिए मिलाता हैं क्योकि आज भी वो "पुरोहित जी - बाबूसाहब" को जमींदार और खुद को बधुआ मजदूर समझने की मानसिकता से निजात नहीं पा सका हैं। देश का बहुजन समाज आज भी "पुरोहित जी कहिन हैं, बाबूसाहब कहिन हैं तो सही ही होगा" सिंड्रोम से ग्रसित हैं। आज भी देश की ऊर्ध्वाधर ग़ैर-बराबरी वाली समाजिक व्यवस्था में निम्न पायदान पर बैठा समाज यही सोचता हैं कि "पुरोहित जी कहिन हैं तो ठीक ही होगा, बाबूसाहेब ने कहिन हैं तो ठीक होगा"। ये तबका इस सिंड्रोम से इस कदर ग्रसित हैं कि अपने ही समाज के विचारकों, बुद्धिजिवियों, चिंतकों आदि तक को नकार जाता हैं। कहने का तात्पर्य यह हैं देश का बहुजन समाज आज भी ज़हनी तौर पर गुलाम हैं, ब्राह्मणी रोग से बीमार हैं
  इस समस्या के तमाम कारणों में बहुजन समाज का सामाजिक नकलची[3] होना भी एक महत्वपूर्ण कारण हैं। किसी भी समाज का सामाजिक नक़लचीपन सिर्फ उसके आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक पहलू को ही प्रभावित नहीं हैं बल्कि उसकी राजनैतिक अस्मिता व मताधिकार के इस्तेमाल तक को प्रभावित करता हैं। परिणामस्वरूप सत्ता में कौन होगा, सत्ता किसके हाथ में होगी, सत्ता किसके लिए कार्य करेगी, उस सत्ता में बहुजनों की अहमियत क्या होगी, बहुजन इन सवालों को सोच भी नहीं पाता हैं। जबकि उसके भविष्य की ज्योति इसी राजनैतिक सत्ता से होकर निकलनी हैं। इसीलिए बाबा साहेब ने राजनैतिक पॉवर को मास्टर चाबी और मान्यवर साहेब गुरु किल्ली कहते हैं। फिलहाल, अपने समुचित स्वप्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी के जिस सवाल को लेकर देश का बहुजन समाज सदियों से जद्दोजहद कर रहा हैं, परेशान हैं वो समुचित स्वप्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी का प्रावधान बहुजन समाज द्वारा सत्ता प्राप्त करके ही किया जा सकता हैं। दुःखद हैं कि बहुजन सामाजिक नकलची होने की वजह से भी सत्ता अपने पोषक को सौपने के बजाय अपने शोषक को सौंप कर अपनी किस्मत को दोष देकर विलाप करता हैं।
सामाजिक नकलचीपन
ये ध्यान देने योग्य है कि सामाजिक व्यवस्था के पायदान पर जो समाज ऊंचाई पर बैठा होता है उसे सारे बेनिफिट बॉय डिफाल्ट ही मिल जाते है। ऊर्ध्वाधर ग़ैर-बराबरी वाली सामजिक व्यवस्था के निम्न पायदान पर बैठा समाज अपने ऊपर वाले को आदर्श मानकर उसकी नकल करता है क्योंकि वह उसे अच्छा मानता है। नकल करना ग़लत नहीं है। अच्छाइयों की नकल होनी चाहिए। परन्तु, नक़ल करते समय विवेक का इस्तेमाल भी जरूरी हैं। 
परन्तु समाज की सच्चाई यह हैं कि ऊर्ध्वाधर ग़ैर-बराबरी वाली समाजिक व्यवस्था में निम्न पायदान पर बैठा समाज अपने से ऊपर वाले समाज की अच्छाइयों के साथ-साथ उसकी बुराइयों को भी उसी या यूं कहें कि उससे अधिक सिद्दत से ग्रहण कर लेता है। ऐसे लोगों को सामाजिक नकलची कहते हैं। इस प्रकिया को ही है सामाजिक नकलचीपन कहते हैं।
सामाजिक नकलची होने का दुष्परिणाम झेल रहा हैं बहुजन समाज
यहां महत्त्वपूर्ण ये है कि ऊर्ध्वाधर ग़ैर-बराबरी वाली समाजिक व्यवस्था में उच्च पायदान पर बैठा समाज सही और गलत का निर्धारण अपने निजी स्वार्थ के अनुसार करता है। लेकिन सामाजिक नकलची होने की वजह से ही निम्न वर्ग (व जल्द ही आर्थिक तौर पर थोड़ा समृद्धि हुआ निम्न जाति का तबका) सामाजिक संरचना में अपने से ऊँचें पायदान वाले की नक़ल की करते समय ऊँचें तबके वाले के स्वार्थ और अपने अनहित में अंतर नहीं कर पाता हैं। और, वह भी वही करने लगता हैं। उसे ही मानने लगता हैं। ऐसा करने से वो ख़ुशी का एहसास करता हैं क्योंकि उसे अपनी जड़े के  कटने उसे भान हीं नहीं होता हैं। 
आज भी किसी भी मुद्दे पर सामाजिक नकलचियों का खुद के विवेक से विकसित किया हुआ कोई नजरिया नहीं होता हैं। ये लोग यह जानते हुए भी कि मनुवादी मीडिया अफवाह, नफ़रत, अन्धविशवास, ढोंग, पाखंड, भ्रम परोसती हैं, फिर सामाजिक नक़लची मनुवादी मीडिया पर भरोसा करते हैं। और, इसी मनुवादी मिडिया के अनुसार ही किसी मुद्दे, किसी व्यक्ति के चरित्र, संस्था की निष्पक्षता और ईमानदारी आदि पर अपना दृष्टिकोण विकसित करते हैं।
उदहारण के तौर पर - ब्राह्मणों-सवर्णों ने भ्रम फैला दिया हैं कि बहन जी बाबा साहेब के मिशन से भटक गयी हैं, बहन जी दौलत की बेटी हैं, बसपा सिर्फ चमारों की पार्टी हैं, बहन जी टिकट बेंचती हैं, बहन जी को आंबेडकर पार्क की जगह अस्पताल बनवाना चाहिए था, श्री सतीश चंद्र मिश्रा ने बसपा पर कब्ज़ा कर लिया हैं आदि। सामाजिक नक़लची होने की वजह से ही देश के पिछड़े वर्ग के लोग बहुजन विरोधी ब्राह्मणों-सवर्णों द्वारा फैलाई इन अफवाहों पर भरोसा कर लेते हैं। और, मनुवादी पार्टियों के चंगुल में फंस कर अपने अधिकारों की बलि खुद ही चढ़ा देते हैं। यहीं मैजूदा समय में भारत के बहुसंख्यक (देश के ८५% आबादी वाले बहुजन समाज) समाज की सच्चाई हैं।
आज भी बहुजन समाज के लोग अपने-अपने मताधिकार तक का प्रयोग सामाजिक पायदान पर सबसे अपर बैठे वर्ग की मंशा के ही अनुरूप करते हैं। हाँ, प्रभावित होने का तरीका जरूर बदला हैं। जहाँ पहले पुरोहित जी - बाबूसाहेब की एक हाँक पर पूरा बहुजन गांव उनके कहें अनुसार वोट कर देता था, आज वही हाँक पुरोहित जी - बाबूसाहेब टेलीविजन चैनलों और बहुजन विरोधी अख़बारों पत्र-पत्रिकाओं द्वारा लगाते हैं। कौन देश के लिए बेहतर सरकार हैं, किस पार्टी को वोट करना हैं, किस बहुजन नेता को भ्रष्ट बताना हैं, किस बहुजन नेता का चरित्र हनन करना हैं, अपने किस चमचे[4] को बहुजन समाज के नए नेता के रूप में थोपना हैं, किसको रातों-रात मैन्युफैक्चर कर दलितों का जोशीला, युवा और कर्मठ नेता घोषित कर दलितों को गुमराह हैं, ये सब आज भी वही पुरोहित जी - बाबूसाहेब अपने ही टेलीविजन चैनलों और बहुजन विरोधी अख़बारों पत्र-पत्रिकाओं द्वारा करते हैं। ऐसा करने में बहुजन विरोधी लोग सफल हो जाते हैं क्योकि बहुजन समाज आज भी सामाजिक नक़लचीपन के रोग से ग्रसित हैं। 
बहुजन समाज के सामजिक नकलची होने का एक बहुत बड़ा दुष्परिणाम यह भी हैं कि बहुजन समाज की इसी कमजोरी की वजह से बहुजन समाज के नेतृत्व को पुरोहित जी - बाबूसाहेब की मदद लेने को मजबूर होना पड़ता हैं जिसके परिणामस्वरूप उन्हें राजनैतिक क्रमचय-संचय करना पड़ता हैं जिसे बहुजन समाज में जन्मे चमचे किस्म के नेता और उनके भक्त बाबा साहेब और मान्यवर साहेब के मिशन से भटक जाना कहते हैं।
जैसी जनता, वैसा नेतृत्व     
बहुजन समाज के लोगों को अपने साथ हो रहे जातिगत भेदभाव से निजात पाने के लिए उनकों भारत के हिन्दू धर्म की बुनियाद यानि कि जाति व्यवस्था पर आधारित सामाजिक सरचना को भी समझना होगा। साथ ही साथ इस सामाजिक संरचना का राजनीति ही नहीं, बल्कि जीवन के हर आयाम पर पड़ने वाले असर से भी मुखातिब होना होगा हैं।
भारत में लोकतंत्र के महानायक मान्यवर काशीराम साहेब कहते हैं कि जैसा समाज होता हैं उसको वैसे ही नेता मिलते हैं। जैसा कि स्पष्ट हैं कि कोरोना लॉकडाउन-3.0 में शराब के लिए थोड़ी छूट क्या मिली लोग अपनी और अपने परिवार की हिफाजत तक को ताख पर रखकर डब्लूएचओ के "फिजिकल डिस्टेंसिंग"[5] तक को भूल गए। ऐसे समाज का परिणाम ही तो हैं मौजूदा भारत सरकार और मौजूदा उत्तर प्रदेश सरकार। 
आगे बढ़ रहे बहुजन समाज को फिर हाशिये पर धकेलने की साज़िश 
बहुजन समाज के लिए श्री अजय कुमार बिष्ट के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार से ऐसी कोई उम्मीद रखना खुद को खुद ही धोखा देना है। विदित हो कि "रिजर्वेशन इन प्रमोशन" की अनुपस्थति में बहुजन समाज के लोग उच्च पदों की तैनाती से पहले ही बहार किये जा चुके हैं। अब इस प्रकरण से सरकार की मंशा एक बार फिर से स्पष्ट हो जाती हैं कि सरकार द्वारा BDO और EO (नगर पालिका) के रिक्त पदों को प्रतिनियुक्ति के आधार पर इसलिए भरा जा रहा है ताकि बहुजन विरोधी सरकार आगे बढ़ रहें बहुजन समाज को फिर से हाशिए पर धकेल कर रिक्त पदों पर अपने लोगों को बैठा सके। मौजूदा सरकार के लोग कौन-कौन हैं, या फिर सरकार में बैठे लोग किस समाज के हैं, उनकी मंशा कैसी हैं, उनकी गैर-बराबरी और बहुजन विरोधी सिद्धांत सर्वविदित है। जनता इनके गुणा-गणित से समाज बखूबी वाकिफ हैं।
इतना सब होने के बावजूद भी ब्राह्मणी मीडिया श्री अजय कुमार बिष्ट के नेतृत्व वाली इस सरकार को जातिवादी नहीं कहेगी, क्योंकि बहुजन विरोधी मीडिया और बहुजन विरोधी नेताओं, बुद्धिजीवियों और  विचारकों द्वारा जातिवाद फैलाने[6] का दोष पहले ही मान्यवर कांशीराम साहबबहन जी और अन्य बहुजन समाज के नेताओं के सर पहले से ही मढ़ा जा चुका है ताकि देश की गैर-बराबरी की हिमायती बहुजन विरोधी हुकूमतें इस दोष से मुक्त रहकर अपने जातिवादी मंसूबों को आसानी से अन्जाम दे सके। ये और बात है कि जाति व्यवस्था बनाकर समाज को बांटने का काम इन्हीं बहुजन विरोधियों ने किया है। यहीं लोग भारत राष्ट्र निर्माण में बाधक जाति व्यवस्था के पोषक भी हैं। 
बहुजन विरोधी मीडियातंत्र के सहयोग से बहुजन विरोधी केंद्र व राज्य सरकारें देश की ८५ फीसदी आबादी वाले बहुजन समाज को हाशिये पर धकेलने के अपने मंसूबे को पूरी सिद्धत के साथ अंजाम दे रहीं, अपने हिंदुत्व के एजेंडे को अमलीजामा पहना रहीं हैं। इस पूरे प्रकरण में सिर्फ बीजेपी सरकार को दोष देना उसके साथ नाइंसाफी होगी क्योंकि उसके एजेंडे और उसके मंसूबे चुनाव से पहले ही स्पष्ट थे। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सरकार देश के मंशा की प्रतिबिम्ब होती हैं। लोकतान्त्रिक व्यवस्था में सरकार वैसी ही होती हैं जैसा उस मुल्क की आवाम चाहती हैं।
उपसंहार 
सामाजिक नक़लचीपन से निजात पाने के लिए देश के बहुजन समाज को अपनी स्वतंत्र सामाजिक सांस्कृतिक आर्थिक शैक्षणिक राजनैतिक अस्मिता को स्थापित करना होगा। बुद्ध-फुले-अम्बेडकरी वैचारिकी पर आधारित समतामूलक समाज का सृजन करना होगा। यहीं एकमात्र रास्ता हैं। इसके लिए राजनैतिक सत्ता की मास्टर चाबी (गुरु किल्ली) अपने हाथों में लेनी ही होगी।
यदि बहुजन समाज सामाजिक नकलचीपन के रोग से छुटकारा पा लेता हैं तो वह संविधान निहित अपने हक़ों के प्रति ना सिर्फ प्रखरता के साथ खड़ा हो जायेगा बल्कि पूरी प्रबलता से सत्ता-संसाधन के हर क्षेत्र के हर पायदान पर अपने समुचित स्वप्रतिनिध्त्व व सक्रिय भागीदारी के संवैधानिक लोकतान्त्रिक मूलभूत हक़ को छीनकर भारत राष्ट्र निर्माण करेगा, क्योंकि आरक्षण देश में बौद्धिकता को बढ़ावा देता हैं, सबकों समान अवसर उपलब्ध कराता हैं, नागरिक गतिशीलता को वेग देता हैं, हर तबके को मुख्यधारा में लाकर लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत करता हैं, मानव-मानव को हर तरह की गुलामी से स्वतंत्रता दिलाकर समता के प्लेटफॉर्म पर लाकर उनमे आपस में बंधुत्व को स्थापित कर भारत राष्ट्र निर्माण का महत्वपूर्ण कार्य करता हैं।
रजनीकान्त इन्द्रा
इतिहास छात्र, इग्नू - नई दिल्ली 




[1] अमर उजाला (हिंदी अखबार), प्रयागराज; ०१ मई, २०२०; पीसीएस अभ्यर्थियों को झटका, प्रतिनियुक्ति से भरे जाएंगे बीडीओ के 
      पद, नई भर्तियां फंसीं
[2] हिंदुस्तान (हिंदी अखबार), प्रयागराज; ०४ मई, २०२०; UP PCS प्रतियोगियों की चिंता: ईओ के पद पर भी हो रही प्रतिनियुक्ति
[3] कँवल भारती, मिस मेयो कैथरीन की बहुचर्चित कृति मदर इण्डिया २०१९संस्करण,  पृष्ठ संख्या-८७
[4] मान्यवर काशीराम साहेब, चमचा युग, चतुर्थ संस्करण - २०११, सिद्धार्थ बुक्स, पृष्ठ संख्या - ७१ 
[5] दैनिक जागरण, ०५ मई २०२०; रागनगर में फिजिकल डिस्टेंसिंग की धज्जियां उड़ीं, बाजार में उमड़ी भीड़
     नई दुनिया, ०४ मई २०२०; Liquor Shop खुलते ही टूट पड़े लोग, नियमों की उड़ी धज्जियां, फैसले पर उठे सवाल
     beforeprint.in ०४ मई २०२०; शराब की दुकानें खुलते ही दौड़ पड़े शौकीन, फिजिकल डिस्टेंसिंग की उड़ीं धज्जियां
[6] अभय कुमार, फॉरवर्ड प्रेस, १ मार्च २०१५; सामाजिक सुधार की अनिवार्यता
      https://www.forwardpress.in/2015/03/samajik-sudhar-ki-anivaryata/

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