बचपन में
घटी जातिवादी घटनाओं और एनआईटी-इलाहाबाद में सरेआम जातिवाद का सामने करने बाद, हमारा
मन इन्जिनीरिंग से पूरी तरह उखड गया। ये समझ में आ चुका था कि इंजिनियर बनकर सिर्फ
और सिर्फ अपना पेट पला जा सकता है लेकिन वो सम्मान हासिल नहीं किया जा सकता है जिसका
एक इन्सान को हक़ है। इसी के तहत हमारा झुकाव इन्जिनीरिंग के बजाय सामाजिक विज्ञानं
और हिन्दू धर्म शास्त्रों की तरह हो गया। पहले ही सेमेस्टर में हमने ये ठान लिया कि
कुछ ऐसा करना है जिससे कि हमें भी इन्सान को का इन्सानी हक़ मिल सके। एनआईटी-इलाहाबाद
में गुजरे चार सालों के दरमियान हमने इन्जिनीरिंग की किताबें पढ़ने के बजाय मनुस्मृति,
ऋग्वेद, पुराण पढ़ा जिसके परिणाम स्वरुप हिन्दू सामाजिक व्यवस्था से परिचित हो सका।
इस निकृष्ट सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति व व्यवस्था के इलाज़ ढूढ़ने
के क्रम में एक मात्र नाम जो सामने आता है वो है बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा प्रतीक
मानवता मूर्ति बाबा साहेब डॉ भीमराव रामजी अम्बेडकर का। एनआईटी-इलाहबाद में अम्बेडकर
दर्शन को पढ़ने, जानने के दरमियान मनुवादी ब्राह्मणी व्यवस्था का आधुनिक तोड़ संविधान
में मिला। बाबा साहेब के दर्शन व संविधान का ऐसा प्रभाव पड़ा कि हमें अम्बेडकर दर्शन
व बाबा साहेब रचित संविधान एक गहरा लगाव हो गया, या यूँ कहें की मोहब्बत हो गया। इन्जिनीरिंग
से मोहभंग व संविधान के प्रति जिज्ञासा के परिणाम स्वरुप हमने एक नयी दिशा में कदम
रखा और लखनऊ विश्वविद्यालय के विधि विभाग में एलएलबी के त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम में दाखिला
ले लिया।
लखनऊ विश्वविद्यालय
की मेरिटलिस्ट में हमारा नाम चौथे स्थान पर था। इसलिए चौथे नम्बर पर जल्दी से १० अगस्त
२०११ को एक बजे करीब लखनऊ विश्वविद्यालय के नवीन कैम्पस में स्थित विधि विभाग के एलएलबी
के त्रिवर्षीय पाठ्यक्रम में दाखिला हो गया। दाखिला होने के पश्चात् अपने कागज़ात को
समेटने के बाद हम घर के लिए बढ़ रहे थे कि लखनऊ विश्वविद्यालय के नवीन कैम्पस के में
गेट पर चार-पांच सीनियर छात्र खड़े गप्पें हाक रहे थे। हम जैसे ही गेट पर पहुँचे की
गले में भगवा गमछा लपेटे, ललाट पर तिलक लगाए एक भक्त में हमें बुलाया। हम भी बहुत शालीनता
के साथ उनके पास गये। उन लोगों ने पूँछा कि हम किस कोर्स के लिए आये थे। हमने भी जबाब
दिया एलएलबी कोर्स। फिर दूसरे ने हमारा नाम और जिला पूँछा। फिर हमने अपना नाम
"रजनीकान्त" और जिला "अम्बेडकरनगर" बताया। कुरता पहने गमछाधारी
तीसरे भक्त ने पूँछा कि हम किस कैटेगरी में आते है। हमने भी जबाब दिया - अनुसूचित जाति।
इतना सुनते ही तिलक वाले गमछाधारी भक्त, जिसने मुझे बुलाया था, ने एक पल भी गवायें
बिना तपाक से बोलै भंगी कैटेगरी में एडमिशन मिला होगा। तुरंत एकाएक एनआईटी-इलाहाबाद
के जातिवादी प्रो. एस एन पाण्डेय की याद ताज़ा हो गयी। ये सब निकृष्टतम सनातनी मनुवादी
वैदिक ब्राह्मणी अत्याचार, हमारे और हमारे समाज के बच्चों पर बहुत ही आम है। फ़िलहाल
हमने अपने आपको सभालते हुए तिलक वाले भक्त को जबाब दिया - लखनऊ युनिवर्सिटी की मेरिटलिस्ट
में चौथा स्थान है, लिस्ट लगी है आप चेक कर सकते है। ये सुनते ही वो लोग सकपका गये।
फिर एक सिम्पल ड्रेस में खड़ा छात्र हमारे पिछले एकैडमिक के बारे में पूँछा तो हमने
बताया कि हमने एनआईटी-इलाहाबाद से इन्जिनीरिंग में स्नातक की डिग्री पायी है। फिर तिलक
वाले भक्त ने पूँछा कि इतने बड़े कॉलेज से पढ़ने के बाद लॉ करने क्यों चले आये। हमने
वक्त गवाये बिना कहा कि आप नहीं समझेगें। फिर हम वहाँ से चल दिये।
कहने का मतलब
यह है कि ब्राह्मणी रोग से पीड़ित लोग हर जगह मिल जायेगे क्योंकि एक नहीं, दो नहीं बल्कि
पूरा का पूरा तथाकथित हिन्दू समाज ही ब्राह्मणी रोग से ग्रसित है। दाखिले के दिन ही
इन रोगियों से हमारा साक्षात्कार हो गया। हम समझ गए कि यहाँ भी वही सब होना है जो एनआईटी-इलाहाबाद
में इन्जिनीरिंग के दौरान हुआ था।
हमने ये सारी
घटना अपने बाबू जी को बतायी तो उन्होंने कहा हर जगह ब्राह्मण और ब्राह्मणी रोग से पीड़ित
ग़ुलाम भरे पड़े है, आपका जिस मकसद के लिए वहाँ गए हो उस पर ध्यान लगाओं। हमने अपने मौसा
जी, जो कि हमारे लिए सबसे अच्छे दोस्त है, को बताई उन्होंने ने भी यही कहा कि आप अपने
मकसद पर ध्यान दो।
लखनऊ विश्वविद्यालय
और एनआईटी-इलाहाबाद दोनों के वातावरण में काफ़ी अंतर था। जहाँ एक तरफ़ एनआईटी-इलाहाबाद
में पब्लिक स्कूल (भारत में ये कैसी बिडंबना है कि प्राइवेट स्कूल पब्लिक स्कूल के
नाम से मशहूर है) के तथाकथित मेरिटधारी छात्र होते है, फ़र्राटेदार अंग्रेजी बोलते है,
पहनावा भी काफ़ी तथाकथित मॉडर्न होता है, इधर-उधर कटी-फ़टी जीन्स पैंट एनआईटीयन्स की
आधुनिकता का परिचय दे रही होती है, और तो और यदि कटी-फ़टी वाली जीन्स ना मिल रही हो
तो तथाकथित मॉडर्न छात्र अपनी जीन्स को खुद काट लेते थे, गुडमॉर्निंग, गुड आफ्टर नून, गुडइवनिंग, गुडनाइट, करते है वही
दूसरी तरफ लखनऊ विश्वविद्यालय में अधिकांश छात्र अवधी, भोजपुरी और खड़ी हिंदी बोलते
है, कुछ तथाकथित पब्लिक स्कूल के कटी-फ़टी जीन्स वाले तथाकथित मॉडर्न छात्र थोड़ा बहुत
अंग्रेजी में वार्तालाप करते है, जय श्रीराम, राधे-राधे, प्रमाण करते, चरणस्पर्श करते
है। तथाकथित पब्लिक स्कूल के कटी-फ़टी जीन्स वाले तथाकथित मॉडर्न छात्रों के कटे-फ़टे
जीन्स का रहस्य आज भी मेरी समझ से बाहर है। फ़िलहाल कहने का मतलब यह है माहौल बिलकुल
अलग था।
समय बीतता
गया और दिसंबर २०११ में फर्स्ट समेस्टर का एक्ज़ाम हुआ फिर जून २०१२ में सेकेण्ड समेस्टर
का। जैसा कि पहले ही लिख चुके है कि संविधान के प्रति जिज्ञासा ही हमें लखनऊ विश्वविद्यालय
में एलएलबी के लिए खींच कर लायी थी। सेकण्ड समेस्टर में एक सब्जेक्ट संविधान का भी
था। संविधान के प्रति जिज्ञासा और लगाव के कारण हमारा पूरा ध्यान संविधान पर ही रहता
था। इस लिए संविधान की अच्छी तैयारी भी थी और अभ्यास भी। हमारे लिए संविधान के प्रश्नपत्र
में पूँछे गए सारे प्रश्न बहुत ही आसान थे। हमने भी संविधान के प्रश्नपत्र में पूँछे
गए पाँच प्रश्नों का बेहरीन उत्तर लिखा। लेकिन जब रिजल्ट आया तो हम ही नहीं बल्कि हमारे
एलएलबी कोर्स के मित्र भी हैरान हो गए। हमें संविधान के प्रश्नपत्र में १०० में से
मात्र १७ मार्क्स मिले थे। किसी को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि रजनीकान्त को १००
में से मात्र १७ मार्क्स मिले है लेकिन हकीकत यही थी।हमारे कुछ साथी कह रह थे कि आप
कॉपी चेक कराने के लिए एप्लिकेशन लिखो तो कुछ लोग कह रहे थे कि इस प्रक्रिया में काफी
टाइम लग जाता है, अच्छा होगा कि आप बैक पेपर का दुबारा एक्ज़ाम दे दो। हमने भी वह कार्यरत
कर्मचारियों से पूछताछ की तो उन्होंने भी बैक पेपर का दुबारा एक्ज़ाम देने की सलाह दी।
हमने बाद में बैक पेपर का फॉर्म भरा और एक्ज़ाम दिया और १०० में से ६० मार्क्स के साथ
पास हो गये। हम दुबारे अच्छे मार्क्स के साथ पास तो हो गए लेकिन अभी तक समझ में नहीं
आ रहा था कि हमें १०० में से १७ मार्क्स मिला क्यों था ? ऐसे कैसे हो सकता है ? इसी
जद्दोजहद में उलझा रहा और आगे की पढाई चलती रही।
इसके बाद
इसी कड़ी में पांचवें समेस्टर का एक्ज़ाम फॉर्म भरने का समय आया जिसमे हमें वैकल्पिक
विषय का प्रावधान होता है। जैसा कि हम पहले भी लिख चुके है कि हमारे एलएलबी की पढ़ाई
का मकसद संविधान को और बेहतरी जानना, संविधान निहित मूलभूत मानवधिकारों को गहराई से
समझना। ऐसे में हमने लखनऊ विश्वविद्यालय के
त्रिवर्षीय एलएलबी कोर्स के पाँचवे समेस्टर की परीक्षा में सातवें पेपर के लिए
"वूमन एण्ड लॉ रिलेटेड टू चिल्ड्रन" को चुना। इस पेपर को चुनने के पीछे वजह
ये थे कि ये विषय संविधान निहित मूलभूत मानवाधिकारों से डायरेक्टली जुड़ा हुआ है। इस
प्रश्नपत्र में भी हमारी तैयारी बेहतरीन थी। प्रश्नपत्र में सवाल बहुत ही विश्लेषणात्मक
व निबन्ध टाइप के पूँछे गये थे। हमने भी बेहतरीन उत्तर लिखा। लेकिन जब रिजल्ट आया तो
यहाँ भी हमें १०० में से मात्र ३५ मार्क्स मिले थे, जस्ट पासिंग मार्क्स। हमारे एक
मित्र ने कहा कि रजनी भाई संविधान आपका पसंदीदा विषय था लेकिन उसमे आपको १०० से १७
मार्क्स मिले, संविधान निहित मूलभूत मानवाधिकारों से जुड़े "वूमन एण्ड लॉ रिलेटेड
टू चिल्ड्रन" भी आपका अपना विषय है लेकिन इसमें भी आपको १०० में से मात्र ३५ मार्क्स
मिले, जस्ट पासिंग मार्क्स। हम भी हैरान थे। फिर हमारे साथी ने कॉपी दुबारा चेक कराने
की सलाह दी। हम भी इस बार चुप बैठने वालों में से नहीं थे। कॉपी को देखने के लिए प्रार्थना
पात्र दे दिया, उस समय इसके भी रूपये ३०० लगते थे। तकरीबन १५ दिन बाद हमें फोन करके
सोचित किया किया गया और कॉपी देखने के लिए बुलाया गया।
हम भी बताये
गए दिनाँक पर कॉपी देखने के लिए पहुंचे। बहुत सारे बच्चे आ जा रहे थे। हम ऑफिस के अंदर
गए। वहां तीन बड़ी-बड़ी मेजे लगी हुई थे। कुर्सियाँ लगी हुई थी। एक मौजूद अधिकारी को
हमने अपना परिचय दिया और कॉपी देखने के बारे में बताया। उस अधिकारी ने हमसे थोड़ा इंतज़ार
करने को कहा और हम बगल की कुर्सी पर बैठकर इंतज़ार करने लगे। कुछ समय के बाद प्रो. मिश्रा,
जो कि विधि विभाग के डीन भी रह चुके है, और एक दूसरे प्रोफ़ेसर आये। इसके पश्चात् उन
तीनों अधिकारियों के सामने हमारी कॉपी निकलवाई गयी। कॉपी हमारे हाथ में देने से पहले
प्रो. मिश्रा ने हमें साफ-साफ तीन निर्देश दिया -
१) यदि मार्क्स
को जोड़ने में कोई गलती हुई होगी तो उसे सुधर दिया जायेगा।
२) यदि भूल
बस कोई उत्तर जाँचने से रह गया है तो उसे जाँच
कर उसका मार्क्स जोड़कर दे दिया जायेगा।
३) इसके आलावा
यहाँ कुछ और संभव नहीं है, जाँचे गए उत्तर को दुबारा नहीं जाँचा जायेगा।
हमने भी हाँ
में सर हिलाते हुए कॉपी अपने हाथ में ले लिया। पहले मार्क्स की काउंटिंग की। काउन्टिंग
बिलकुल सही थी। कुल ३५ मार्क्स ही आ रहे थे। सारे उत्तर चेक किये हुए थे। सभी पर कुछ
ना कुछ मार्क्स दिए गए थे। करीब १५ मिनट के पश्चात् प्रो मिश्रा ने पूँछा कि काउंटिंग
सही है, सारे उत्तर चेक हुए है ? हमने भी हाँ में सर हिला दिया। तो फिर उन्होंने कॉपी
जमा करने की बात कही तो हमने कहा कि सर उत्तर लिखने में गलती कहाँ हुई है ये समझ ने
नहीं आ रहा है। फिर प्रो. मिश्रा ने कहा कि आप पास तो हो ही गए हो, अगर नम्बर बढ़वाना
चाहते हो तो बैक पेपर का फॉर्म भरकर दुबारा परीक्षा दे देना, नम्बर बढ़ जायेगें। इसकी
फीस करीब रूपये १००० होगी, जाकर प्रशासनिक भवन वाली बिल्डिंग में पताकर लेना। हमने
उनसे कहा कि सर कॉपी को देखने में अभी हमें समय लगेगा। फिर प्रो. मिश्रा ने कहा आराम
से देखों कोई जल्दी नहीं है। हमने भी सर को धन्यवाद दिया और फिर कॉपी के पन्ने पलटने
लगे।
हम कॉपी के
पन्ने पलट जरूर रहे थे लेकिन समझ में कुछ नहीं आ रहा था कि उत्तर लिखने में गलती कहाँ
हुई है। फिर हमने सारे उत्तर को एक तरफ से पढ़ने लगा, हमें कोई ऐसी गलती नज़र ही नहीं
आ रही थी। हमारी लिखावट भी काफी साफ-सुथरी और सुन्दर थी। फिर भी इतने काम मार्क्स!
धड़कन बढ़ रही थी, समझ में कुछ नहीं आ रहा था। करीब २०-२५ मिनट के पश्चात् हमारी नज़र
४ मार्क्स वाले प्रश्न पर पड़ी जिसमे स्त्रीधन के बारे में हमने उत्तेर लिखा था। इस
प्रश्न के उत्तर में हमने बाकायदा हिन्दू धर्म ग्रन्थों का उल्लेख करके स्त्रीधन के
सम्बन्ध में लिखा था। इस उत्तर पर हमें ४ में से ३ १/२ (३.५) मार्क्स मिले थे। फिर
हमने दीर्घ उत्तरीय प्रश्न की तरफ रूख किया, जो कि १५ मार्क्स के होते है, उसमे एक
प्रश्न "आज़ादी से पहले और आज़ादी के बाद भारत में महिलाओं की स्थिति" के बारे
में पूँछा गया था। हमने बेहतरीन उत्तर लिखा था लेकिन हमें १५ में से ४ मार्क्स मिले
थे। इन दोनों प्रश्नों को देखने के बाद हमें, हमारे सवाल का जबाब मिल गया कि क्यों
४ मार्क्स वाले लघु उत्तरीय प्रश्न के उत्तर पर ३.५ मार्क्स मिले है और क्यों १५ मार्क्स
वाले दीर्घ उत्तरीय प्रश्न के उत्तर पर सिर्फ ४ मार्क्स मिले है और कैसे कुल १०० में
से सिर्फ और सिर्फ ३५ मार्क्स मिले है, जस्ट पासिंग मार्क्स ?
प्रो. मिश्रा
ने पहले ही हिदायत दे दी थी कि रीचेकिंग नहीं हो सकती है। इसलिए रीचेकिंग की कोई बात
ही नहीं थी। हमने वहाँ बैठे अन्य दो अधिकारियों के समक्ष प्रो मिश्रा से अपना उत्तर
पढ़ने के लिए विनती की लेकिन प्रो. मिश्रा ने रीचेकिंग संबन्धी हिदायत को दोहराते हुए
पढ़ने से इंकार कर दिया, और कहा कि आपके उत्तर को मेरे पढ़ने से कोई फायदा नहीं होगा,
इससे कोई मार्क्स नहीं बढ़ने वाले है। हमने प्रोफ़ेसर सर से कहा कि सर हम आपसे मार्क्स
बढ़ाने के लिए बिलकुल नहीं कहेगें, केवल आप हमारे किसी भी एक उत्तर को पढ़ लीजिए, बस। हम तुरन्त यहाँ से चले जायेगें। हमारे बार-बार मिन्नतें
करने के बाद उन दोनों अधिकारियों ने प्रो. मिश्रा से कहा तो प्रो मिश्रा राज़ी हो गये।
उन्होंने उन दोनों अधिकारियों के समक्ष प्रो मिश्रा जी ने "आज़ादी से पहले और आज़ादी
के बाद भारत में महिलाओं की स्थिति" वाले उत्तर को ही पढ़ा। उत्तर पढ़ने के पश्चात्
प्रो मिश्रा ने कहा - "बेटा, कॉपी जांचने वाले प्रोफ़ेसर ने या तो आपका उत्तर सही
से पढ़ा नहीं या तो.....।" दूसरा "या तो" बोलने के पश्चात् प्रो सर कुछ
बोल नहीं पाये, वही रूक गये। कुछ देर तक दूसरे उत्तरों पर सरसरी नज़र से देखते हुए पन्ने
पलटते रहे। फिर बोले, " बेटा, यदि आपको मार्क्स बढ़वाने हो तो बैक पेपर का फॉर्म
भरकर फिर से परीक्षा दे दो, नंबर बढ़ जायेगें। आप इस सब चक्करों में ना फँसों, आपकी
लिखावट, आपके उत्तर और लिखने शैली बहुत अच्छी है। मेरे ख्याल से आपको सिविल सर्विसेस
के लिए पढ़ाई करनी चाहिए।" वहां बैठे दोनों अधिकारीयों ने भी हाँ में सर हिलाते
हुए प्रोफ़ेसर सर के सलाह का समर्थन किया। उनके सलाह को सुनकर हमने उन सबको धन्यवाद
दिया। और, कहा, सर हम कोई बैक पेपर नहीं भरेगें, पासिंग मार्क्स ही सही, लेकिन हम पास
हो गये है। सर, हमें कोई मार्क्स नहीं बढ़वाना है। हमें हमारा मार्क्स मिल गया। आपने
ना चाहते हुए भी ना सिर्फ आपने हमारी कॉपी चेक की बल्कि उस पर मार्क्स भी दे दिया।
हमने एक बार फिर उन सबको धन्यवाद दिया और ऑफिस से बाहर आ गये।
ऑफिस से बाहर
आने के बाद हमने अपने दोस्तों को बताया कि हम जातिवाद के शिकार हुए है। इस लिए हमें
काम ही नहीं बल्कि जस्ट पासिंग मार्क्स दिए गए है। दोस्तों को विश्वास नहीं हुआ। उनमे
से एक ने कहा हमारी कॉपी पर सिर्फ रोल नम्बर लिखा जाता है तो कोई प्रोफ़ेसर कैसे आपकी
जाति जान सकता है ? बात बिलकुल सही है। कॉपी पर सिर्फ और सिर्फ हमारा रोल नम्बर अंकित
होता है तो इसके बेसिस पर जाती जानना और फिर जातिवादी भेदभाव करना असम्भव है।
फिर हमने
जान-बूझकर कुछ देर के लिए इस बात को किनारे करते हुए दूसरी बात छेड़ दी। हमने संविधान
और बाबा साहेब से सम्बंधित बात करने लगे। फिर हमने उन लोगों से बाबा के बारे में कुछ
भी एक-दो वाक्य बोलने को कहा। उनमे से सवर्ण, ओबीसी कैटेगरी में आने वाले दोस्तों ने
एक-दो वाक्य बाबा साहेब से सम्बंधित बोला। फिर हमने उनके द्वारा बोले गए वाक्य को दुबारा
दोहराया। हमने उनको याद दिलाया कि सवर्ण दोस्त ने अपने वाक्य में "अम्बेडकर"
शब्द का इस्तेमाल किया था, ओबीसी दोस्त ने "डॉ अम्बेडकर" शब्द का इस्तेमाल
किया था। और खुद हमने (वंचित जगत के छात्र ने) अपने उत्तर पुस्तिका में "बाबा
साहेब अम्बेडकर", शब्द का और बाबा साहेब के उद्वरण का लगभग कर उत्तर के हर पेज
पर लिखा था।
फिर हमने
अपने दोस्तों से पूँछा कि सेकण्ड समेस्टर के "संविधान" वाले प्रश्नपत्र व
पांचवे समेस्टर के "वूमन एण्ड लॉ रिलेटेड टू चिल्ड्रन" वाले प्रश्नपत्र के
उत्तर में आपने बाबा साहेब का नाम या उनके द्वारा कहें तथ्यों को आपने कितनी बार इस्तेमाल
किया था? जबाब में सवर्ण दोस्त ने कहा कि हमने एक-दो बार अम्बेडकर के नाम का इस्तेमाल
किया था, ओबीसी दोस्त ने कहा कि उसने चार-पांच बार डॉ अम्बेडकर शब्द का इस्तेमाल किया
था। लेकिन हमारा निजी तौर पर ये मानना था कि यदि भारत में संविधान, कानून, अधिकारों
और महिला सशक्तिकरण की बात की जाय तो वह बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के जिक्र के बगैर नहीं
की जा सकती है। हमारा मानना है कि भारत में सामाजिक परिवर्तन, समाज सुधार, महिला सशक्तिकरण
इत्यादि जैसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर सही मायने में यदि किसी ने कार्य किया है तो वे
एक मात्र बाबा साहेब डॉ आंबेडकर ही है। भारत में बहुत से महात्मा, संत, समाज सुधारक
आदि आये लेकिन इन सबने गाल बजाने के सिवा कुछ नहीं किया लेकिन बाबा साहेब ने सदियों
से गुलामी में जी रहे वंचित जगत, आदिवासी जगत, पिछड़ों संग देश की आधी आबादी मतलब की
महिलाओं को ब्राह्मणवादी कानून से हमेशा-हंमेशा के लिए आज़ाद करा दिया। सबकों मानवीय
जीवन दिया। हमारा मानना है कि भारत में तथाकथित महात्मा गाँधी एण्ड कम्पनी का आन्दोलन
भारत की आज़ादी के लिए नहीं बल्कि बल्कि सत्ता की बागडोर अंग्रेजों से हथियाकर ब्राह्मणों
व उनके गुलाम सवर्णों के हाथों में सौपना मात्र था। यही हुआ भी बाबा साहेब के इतने
परिश्रम और संघर्ष के बाद भी वंचित जगत, आदिवासी, पिछड़ों और अल्पसंख्यक को अधिकार तो
जरूर मिल गए लेकिन सामाजिक बराबरी का अधिकार आज भी मुकम्मल नहीं हो पाया है। महिला
आज़ादी के हिन्दू कोड बिल, जो कि सबसे अहम् था, ब्राह्मणों और उनके सवर्ण गुलामों पारित
नहीं होने दिया। इस तरह से हमारा पूरी दृढ़ता संग यही मानना है कि यदि भारत में वंचित
जगत, आदिवासी, पिछड़ों और अल्पसंख्यक के मानवीय हकों के लिए कोई एक इन्सान लड़ा है तो
वो बाबा साहेब ही है। इस लिए चाहे विषय संविधान का हो, मानवाधिकारों का हो, महिला सशक्तिकरण
का हो या फिर ओवरऑल समाज सुधार का हो, भारत पुनरुत्थान व भारत निर्माण का हो, ये सारे
विषय बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के जिक्र के बिना अधूरे है।
इसलिए संविधान
और वुमन एण्ड लॉ रिलेटेड टू चिल्ड्रेन जैसे विषयों के पेपर्स में हमारे लिए बाबा साहेब
के नाम व उनके उद्वरण का जिक्र ना सिर्फ सहज है बल्कि जरूरी भी लगता है। हमने इन पेपर्स
के प्रश्नों के उत्तर में बाबा साहेब उद्वरण को लगभग हर पेज पर लिखा। हमने अपने दोस्तों
को बताया और सिद्ध किया सवर्ण कैटेगरी वाला बाबा साहेब के नाम व उनके उद्वरण को बहुत
ही अपरिहार्य स्थिति में ही इस्तेमाल करता है, वो भी "अम्बेडकर" के अनुसार
वाली भाषा-शैली में। मण्डल कमीशन के बाद से पिछड़े वर्ग वाला थोड़ा सा बाबा साहेब के
प्रति थोड़ा सम्मान दिखाते हुए "डॉ अम्बेडकर" के अनुसार वाली भाषा शैली का
इस्तेमाल करता है जबकि वंचित जगत का हर इन्सान, हर बच्चा बाबा साहेब का नाम बोलने व
लिखने के लिए अम्बेडकर शब्द लिखे या ना लिखे लेकिन "बाबा साहेब" का इस्तेमाल
जरूर करता है। बाबा साहेब के प्रति ये शब्द सम्मान भाव का बोध करता है। जैसे-जैसे हम
अम्बेडकर, डॉ अम्बेडकर से बाबा साहेब की तरफ बढ़ाते जाते है वैसे-वैसे बाबा साहेब के
प्रति सम्मान भाव बढ़ता जाता है। भारत के ब्राह्मणी सामाजिक व्यवस्था में बाबा साहेब
के लिए "अम्बेडकर" शब्द का इस्तेमाल सिर्फ और सिर्फ बाबा साहेब और वंचित
जगत ने नफ़रत करने वाला सवर्ण समाज ही करता है। मण्डल कमीशन लागू होने के बाद से
"डॉ" अम्बेडकर शब्द का इस्तेमाल पिछड़ा वर्ग करने लगा है, मतलब कि मण्डल कमीशन
लागू होने के बाद पिछड़े वर्ग के लोगों में बाबा साहेब के प्रति सम्मान बढ़ा है, पिछड़ा
वर्ग ब्राह्मणी भाषा-शैली "अम्बेडकर" से आगे निकल कर बाबा साहेब के प्रति
सम्मान भाव रखते हुए बाबा साहेब के लिए "डॉ "अम्बेडकर का इस्तेमाल करने लगा
है। लेकिन वंचित जगत शुरू से ही बाबा साहेब का नाम बोलने व लिखने के लिए अम्बेडकर शब्द
बोले या ना बोले, लिखे या ना लिखे लेकिन "बाबा साहेब" शब्द जरूर बोलता है,
लिखता है। इसके पश्चात् हमारे सवर्ण दोस्त ने कहा, हां रजनी भाई, लगता है आपकी कॉपी
किसी ब्राह्मण या फिर ब्राह्मणी रोग से गुलाम ब्राह्मण या अन्य सवर्ण के हाथ लग गयी
थी।
इसके पश्चात्
ये पूरा वाकया हमने अपने बाबू जी और अपने मौसा जी को बताया तो दोनों लोगों ने कहा कि
आज भी हर जगह वही ब्राह्मण और उनके गुलाम सवर्ण ही बैठे है। वे नहीं चाहते है कि वंचित
जगत के लोग पढ़े-लिखे और आगे बढे। इसके बाद बाबू जी और मौसा जी दोनों ने कि अब आपको
परीक्षा में अपना उत्तर बाबा साहेब का नाम लिखे बगैर सिर्फ उनके लिखे-बोले वाक्यों
को अपनी भाषा में लिखना चाहिए। क्योकि यहाँ हमारा मकसद परीक्षा पास करना है, जहाँ तक
रही बात साहेब और उनके मिशन की तो आप अपने लेख, ब्लॉग और सामाजिक सरोकारों से आगे ले
ही जा रहे हो। इसलिए अबकी बार किसी भी परीक्षा में बाबा साहेब का नाम लिखे बगैर उनके
विचारों को अपनी भाषा लिखना, और आगे हमने ऐसा ही किया। इसे हमारी मजबूरी समझिये या
फिर ब्राह्मणों का शिक्षण संस्थानों पर अवैध कब्ज़ा व आतंकवाद। हमारी ये मजबूरी कायरता
नहीं है। ये सब शिक्षित बनों मन्त्र को जमीन पर उतरने के लिए कुछ पल मात्र के लिए किये
गए समझौते के सिवा कुछ नहीं है, क्योंकि पढाई भी तो पूरी करनी है। हमारे समाज के लोगों
को कभी ना कभी चाहें-अनचाहें रूप में ऐसे छोटे-मोटे समझौते करने ही पड़ते है।
फ़िलहाल, इस
तरह से एक अनुभवी प्रोफ़ेसर के लिए अम्बेडकर, डॉ आंबेडकर और बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर
जैसे शब्दों को देखकर, पढ़कर इन शब्दों को बोलने व लिखने वाले की जाति तय करना बहुत
ही सहज है। मतलब कि सामान्य तौर पर यदि कोई बाबा साहेब के लिए "अम्बेडकर"
शब्द का इस्तेमाल करता है तो वो सवर्ण होगा, यदि कोई "डॉ अम्बेडकर" शब्द
का इस्तेमाल करता है तो वह पिछड़े वर्ग से होगा, और यदि कोई "बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर"
शब्द का इस्तेमाल करता है तो वह वंचित जगत से होगा। इस तरह से सामान्य तौर पर किसी
के लेख को पढ़कर उसकी जाति-वर्ण तय की जा सकती है।
बाबा साहेब
और वंचित जगत के प्रति एन्टीनाधारी स्वघोषित विद्वानों (ब्राह्मणों व अन्य ब्राह्मणी
रोगियों) के अन्दर भरे नफ़रत का एक वकया हमने जेएनयू के एक छात्र के थीसिस के सम्बन्ध
में पढ़ा था, जिसमे साफ-साफ बाबा साहेब व वंचित जगत के प्रति गाइड (प्रोफ़ेसर) की नफ़रत
साफ-साफ झलकती है। जेएनयू के एक छात्र, जो कि वंचित जगत से था, उसने अपने थीसिस में
"बाबा साहेब" शब्द का प्रयोग किया था। इस पर उसके गाइड ने उससे कहा कि एकैडमिक
वर्क में बाबा साहेब आदि जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं करते है। आप इसकों एडिट करके लाइये।
उस छात्र के बाद दूसरे छात्र का नंबर आया तो उस छात्र ने गाइड से कहा कि सर मैंने भी
वही गलती की है। इसलिए मुझे भी एडिट करना होगा, मै एडिट करके दुबारा लाता हूँ। इस पर
गाइड (प्रोफ़ेसर) ने पूंछा कि आपने क्या लिखा है। इस पर उस छात्र ने कहा- सर, मैंने
अपनी थीसिस में जवाहरलाल नेहरू शब्द के बजाय पण्डित नेहरू शब्द का इस्तेमाल किया है।
इस पर गाइड (प्रोफ़ेसर) ने कहा, "कोई बात नहीं, बड़ों का सम्मान करना चाहिए।"
अब सोचने
वाली बात ये है कि जब एक छात्र ने अपनी थीसिस में बाबा साहेब शब्द का इस्तेमाल किया
तो उससे कहा गया कि एकेडेमिक वर्क इस तरह के शब्द प्रयोग नहीं करते है जबकि वही पर
दूसरे छात्र ने जवहेलाल नेहरू के पंडित नेहरू शब्द का इस्तेमाल किया तो इसे बड़ों का
सम्मान कहा गया। अब हमारा सवाल ये है कि उस गाइड प्रोफ़ेसर ने ऐसा क्यों किया? पढाई-लिखाई,
दूरदृष्टि, दार्शनिकता, पत्रकारिता, शासन-प्रशासन,
संविधान-कानून-वकालत, आर्थिक क्षेत्र, समाज सुधार, भारत पुनरुत्थान, भारत निर्माण,
सामाजिक सरोकार या अन्य कोई भी क्षेत्र हो, बाबा साहेब का मुकाबला कौन कर सकता है।
क्या बोधिसत्व, विश्वरत्न, शिक्षा प्रतीक, मानवता मूर्ति महानतम महामानव, नव बुद्ध,
आधुनिक बुद्ध, आधुनिक भारत के पिता, संविधान शिल्पी, प्रख्यात इतिहासकार, मानवता महानायक,
लेखक, एंथ्रोपोलॉजिस्ट, राजनेता, समाज सुधारक, सिम्बल ऑफ़ नॉलेज, ज्ञान सूर्य, वंचित
जगत-महिला जगत के उद्धारक आदि नामों से सुप्रसिद्ध, प्रख्यात, बाबा साहेब से बड़ा और
महानतम और कौन हो सकता है। इन साड़ी घटनाओं से ब्राह्मणों व अन्य गुलाम सवर्णों के ज़हन
में बाबा साहेब और वंचित जगत के प्रति इनके मन कूट-कूट कर भरी नफ़रत साफ-साफ झलकती है,
दिखाई देती है, प्रमाणित होती है।
हमारे कहने
का मतलब साफ है कि निकृष्ट सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति, धर्म व
व्यवस्था में, किसी प्रोफ़ेसर के लिए किसी भी छात्र की किसी परीक्षा में उसकी उत्तर
पुस्तिका पढ़ कर, किसी का लेख पढ़कर, किसी का भाषण सुनकर और सामान्य बातचीत में किसी
की जातीय कैटेगरी का पता लगाना कठिन नहीं बल्कि बहुत आसान है। हाँ, हम शेर की खाल पहेने
भेड़ियों का अपवाद हम सहर्ष स्वीकार करते है जैसे कि निकृष्ट ब्राह्मणी आरएसएस, बीजेपी,
कांग्रेस और अन्य सभी ब्राह्मण व ब्राह्मणी रोग से ग्रसित ब्राह्मणों के गुलाम आदि।
फ़िलहाल अब
ये बिना किसी संदेह के पूरी तरह से सिद्ध हो चुका है कि कैसे हमारे साथ लखनऊ विश्वविद्यालय
में जातिवादी भेदभाव हुआ। ये घटना लखनऊ विशविद्यालय से जरूर जुडी हुई है लेकिन भारत
के हर संस्थान की कहानी है। ये निकृष्ट सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति,
धर्म व सामाजिक व्यवस्था की सच्चाई है। ये वो सच्चाई जी भारत का ब्राह्मण व अन्य सवर्ण
जानता है, अपने जिंदगी में हर पल इस्तेमाल करता है, इसे रोग के साथ जीता है और एक दिन
मर भी जाता है लेकिन मानाने को तैयार नहीं होता है। ये निकृष्टतम व्यवहार ब्राह्मणो
व अन्य सवर्णों को बचपन से ही अकथित, अघोषित रूप से सीखा दिया जाता है, उनके चारित्र
में शामिल कर दिया जाता है। इसे उसकी जीवन-शैली बना दी जाती है जिसके परिणाम स्वरुप
वो इस निकृष्टता को अपने जीवन का केंद्र बिन्दु समझने लगता है। इसको नकार नहीं पाता
है। ये उसके जीवन का एक ऐसा हिस्सा बन जाता है कि उसे यही उचित व न्यायपूर्ण लगाने
लगता है। इस तरह से वह सारे भेदभाव पूर्ण व्यव्हार को अपने जीवन में उतारने के बावजूद
इसे मानने से साफ-साफ इन्कार कर देता है। निकृष्टतम सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी
हिन्दू धर्म व सस्कृति एक निकृष्टतम व अमानवीय बुराई है, रोग है। महानतम सामाजिक रोग
विशेषज्ञ डाक्टर बाबा साहेब द्वारा की गयी सर्वश्रेठ डायग्नोसिस के बावजूद भयंकर व
निकृष्टतम सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू रोग से पीड़ित ब्राह्मण-सवर्ण व अन्य
रोगी अपने आपको रोगी मानने से साफ-साफ इन्कार करते रहे है। नतीजा, गाय-गोबर-गौमूत्र
में उलझा निकृष्टतम सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू समाज इस निकृष्टतम व अमानवीय
ब्राह्मणी भयंकर रोग को दैवीय समझकर जिए जा रहा है।
हम बहुजन
छात्रों व छात्राओं से यही अपील कटे है कि आप सब को इन्हीं ब्राह्मणों व ब्राह्मणी
रोगियों के बीच में रहकर अपनी पढाई-लिखाई पूरी करना है। इसके पश्चात् हमें अपने अनुभव,
ज्ञान और तर्कशक्ति से इस निरकिष्टतम सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति,
धर्म व सामाजिक व्यवस्था को हमेशा-हमेशा के लिए नेस्तनाबूद करके स्वतंत्रता-समता-बंधुत्व
पर आधारित एक नवीन, मानवतावादी और वैज्ञानिक समाज का सृजन है। इस महानतम कार्य को पूरा
करने के लिए आज हमारे पास बुद्ध-फुले-अम्बेडकर का दर्शन है। यही हमारा हथियार है। यही
हमारे जीवन का आधार है। यही हमारे जीवन का लक्ष्य है। यही हमारे नवीन समाज का आधार
भी होगा।
हमारी जंग
कठिन जरूर है लेकिन इसका परिणाम पहले से निश्चित व अटल है-"बहुजन की जीत, स्वतंत्रता-समता-बंधुत्व
पर आधारित नवीन समाज का सृजन"। हमें ये याद रखने की जरूरत है कि निकृष्टतम सनातनी
मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू धर्म-संस्कृति व सामाजिक व्यवस्था के खिलाफ इस महासंग्राम
में हमारे पास खोने को कुछ नहीं है लेकिन पाने को सारा जहां है।
जय भीम, जय भारत!
रजनीकान्त इन्द्रा
इतिहास छात्र,
इग्नू-नई दिल्ली
जुलाई ०६,
२०१७
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