४ जुलाई २०१७ के नैशनल दस्तक़ की रिपोर्ट के अनुसार इन्जिनीरिंग छात्रों के एडमिशन के अन्तिम दिन एनआईटी-इलाहाबाद के अधिकारीयों ने नया जाति प्रमाणपत्र माँग लिया। जिसके चलते बहुतेरे एससी-एसटी-ओबीसी वर्ग के बच्चों को बहुत तकलीफ़ों का सामना करना पड़ा। उनका दाख़िला ख़तरे में पड़ गया। बहुजन बच्चों के सपनों पर पानी फ़िर गया। माँ-बाप के सपने ख़ाक में मिल गए। बच्चे-बच्चियाँ रो रहे थे, विलाप कर रहे थे। एनआईटी-इलाहाबाद के अधिकरियों को इतना ज्ञान तो होना ही चाहिए कि कुछ समय बाद आय तो बदल सकता है लेकिन जाति का ज़हर जैसा सदियों पहले था वैसा ही आज भी है। ये तो जग जाहिर है कि एनआईटी-इलाहाबाद के अधिकरियों का ये षड्यंत्रकारी कदम सिर्फ और सिर्फ बहुजन समाज के बच्चों को किसी तरह से दाखिले से रोकने के लिए उठाया गया था।
एनआईटी-इलाहाबाद में इस तरह से बहुजनों के प्रति नफ़रत कोई नयी बात नहीं है। ये वाकया हर दिन ऐसे सारे संस्थानों में आम है फिर चाहे वो हैदराबाद विश्वविद्यालय हो, जेएनयू हो, बाबा साहेब अम्बेडकर केंद्रीय विश्वविद्यालय लखनऊ हो, या एनआईटी-आईआईटी-आईआईएम हो। ये जातिवादी उत्पीड़न इन सभी संस्थानों में आम है, लाज़मी है क्योंकि ये सब संस्थाएं समाज के अपराधी जातियों के कब्ज़ें में है। हम सब जानते है कि बहुजन उत्पीड़न ही ब्राह्मणवादी संस्कृति है। हम खुद भी एनआईटी-इलाहाबाद के छात्र रह चुके है। इसलिए जातिवादी दर्द को हम आसानी से महसूस कर सकते है, औरों से बेहतर बयान कर सकते है।
बचपन में प्राइमरी पाठशाला में साइलेंट डिस्क्रिमिनेशन को पार करते हुए अपने गांव से एक किलोमीटर दूर प्राइवेट स्कूल में दाखिला हो गया। उसमे ब्राह्मण और ओबीसी समाज के अहीर, कुर्मी व कुम्हार ही अध्यापक थे। बाबू जी सरकारी सेवा में है इसलिए हमारे साथ कभी भी किसी ने भी हमें जातिसूचक शब्दों से नहीं पुकारा, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि साइलेंट डिस्क्रिमिनेशन नहीं था। हमारे साथ कभी किसी अध्यापक ने जातिसूचक शब्दावली का इस्तेमाल भले ही ना किया हो लेकिन हमारे गांव की ही लड़कियों और लड़कों को जातिसूचक शब्दों से पुकारना बहुत आम था। यहाँ तक कि बातों ही बातों में ये अध्यापक लड़कियों को वो सब कह जाते थे कि हम उसे यहाँ लिख नहीं सकते है। जातिसूचक शब्दों के साथ अपशब्द बहुत ही आम है या यूँ कहें कि उनका कल्चर है। सामान्य तौर पर वंचित जगत के सारे बच्चे बहुत ही शान्त स्वाभाव के होते है। लड़ाई-झगड़ा शायद ही कभी हुआ हो। इसलिए शरारत के लिए दण्ड मिलना बहुत मुश्किल था। लेकिन जब होमवर्क पूरा ना हो या टेस्ट में गलतियाँ मिल जाये तो हमारे हाथों पर गिरने वाली छड़ी की मार में वज़न अन्य की तुलना में ज्यादा ही होता था। ये और बात है कि उस दौर के उस स्कूल के टॉपर हम ही रहे है।
स्कूल में प्रतिस्पर्धा दो बच्चों में थी जो कि पिछड़े वर्ग से आते थे। सुनने में आया कि टॉपर को इनाम में साईकिल मिलने वाला था, प्रस्ताव पारित हो गया। जातिवादियों के दुर्भाग्य से टॉप हम कर गये। इनाम का प्रस्ताव पारित होकर निरस्त हो गया।
ये भेदभाव सिर्फ जातिसूचक शब्दों और गालियों आदि तक ही सीमित नहीं था। गृह विज्ञान के तहत जब हमारे स्कूल में खाना-खज़ाना का कार्यक्रम होता था, जिसमे लड़कियाँ पकवान बनती थी, उसमे हम कभी उपस्थित नहीं रहे क्योंकि इस कार्यक्रम में हमारी भागीदारी नहीं होती थी। ये एलाउड ही नहीं था। हाँ, यदि गलती से या जिज्ञासा के चलते हमारे समाज का कोई छात्र उपस्थित हो जाता था तो उसको खाने को मिल जाता था।
खाना-खज़ाना के इस कार्यक्रम के तहत बर्तन सिर्फ और सिर्फ सवर्णों के घर से ही या फिर ओबीसी के घर के बच्चों से ही मगाया जाता था। राशन भी उन्हीं के घरों से आता था। हमारे समाज के लड़कियों को अपने घर बर्तन और राशन लाना एलाउड नहीं था। इसलिए हमारे (बहिष्कृत) समाज की लड़कियां और लड़के अनुपस्थित ही रहते थे। यदि कुछ लड़कियां जिज्ञासा व लालसा बस आ भी जाती थी तो वे लड़कियाँ सिर्फ और सिर्फ लिपाई-पुताई तक ही सीमित कर दी गयी थी। हमारी बड़ी बहन दीपशिखा इन्द्रा उर्फ़ अंकिता, जो कि हम से छोटी है, एक बार अपने घर से बर्तन लेकर गयी थीं लेकिन ब्राह्मण अध्यापक ने अपने हाथों से उसकी थाली उठाकर बाहर फेंक दिया। वो नन्हीं बच्ची ये सब कहाँ समझ पाती कि उस ब्राह्मण अध्यापक ने उसकी थाली क्यों फेंक दिया? लेकिन आज वो सब कुछ जानती है, समझती है। शायद इसीलिए अपने स्तर पर लड़ रही है। हम और हमारे समाज के लोग इन सब को जानते थे कि इस तरह के खाने-ख़जाने के कार्यक्रमों में हमारी भागीदारी एलाउड नहीं, ऐसे कार्यक्रम में उपस्थित होना, अपना अपमान खुद करवाना होता है। इसलिए हम और हमारे समाज के बच्चे ऐसे कार्यक्रमों में अनुपस्थित ही रहते थे।
ये भेदभाव सिर्फ और सिर्फ अध्यापकों द्वारा ही नहीं किया जाता है बल्कि अपने इन बर्तावों से ये निकृष्ट ब्राह्मणी रोगी अध्यापक अन्य बच्चों को साइलेंटली ये समझा देते थे कि हमारे (बहिष्कृत) समाज की बच्चियाँ और बच्चे उनसे नीची जाति के है। फिर ये बच्चे हमारे साथ वही व्यवहार करते थे जो अध्यापक ने उन्हें अपने कृत्यों द्वारा सिखाया था। इसके बाद सवर्णों व पिछड़ों के बच्चे हमारे साथ बैठकर खाना भी खाना पसंद नहीं करते। ये सब उन बच्चों के बर्ताव में परिवर्तन आ जाता है।
हमारी बड़ी बहन, दीपशिखा इन्द्रा उर्फ़ अंकिता, की एक कुर्मी जाति की सहेली एक बार उसको अन्य सहेलियों के साथ अपने घर ले गयी। सब के लिए पीने का पानी आया। बाबू जी दूर-दूर तक लोग जानते थे। इसलिए बड़ी बहन को भी लोग पहचानते है। सिस्टर इन्द्रा को देखते ही उसकी माँ पहचान गयी और उसने अपनी बेटी से अंकिता को दूसरे गिलास में पानी दिलवाया। अंकिता को वो सब आज भी ऐसे याद है जैसे कि ये अभी कल की ही बात हो। अंकिता कहती हैं कि गिलास से बहुत बुरी तरह से बास आ रही थी। अंकिता कहती है कि मुझे समझ नहीं आ रहा था कि उसकी अन्य सहेलियों के गिलास अच्छे और साफ-सुथरे थे लेकिन उसका ही गिलास गन्दा क्यों था? उसने पानी उठाया किया पानी रख दिया।
ये सब सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति का अभिन्न अंग है। ये घटनाएँ सिर्फ हमारे साथ ही नहीं घटती है बल्कि हमारे समाज के हर इंसान के साथ ऐसा ही बर्ताव होता है। ये और बात है कि कोई चुपचाप सहन कर लेता है, कोई इन सब पर सोचता है तो कोई विद्रोह कर देता है।
हर गांव में सवर्णों-पिछड़ों द्वारा हमारे लोगों के साथ इस तरह का छुआछूत बहुत ही आम है। गांव के पास के स्कूलों में इस तरह के बर्तावों ने बिना किसी संदेह के ये साबित कर दिया कि आज का ओबीसी वर्ग भी वंचित समाज के लिए किसी ब्राह्मण से कम नहीं है। आज का ओबीसी वर्ग वंचित वर्ग के लिए एक नया ब्राह्मण (नव ब्राह्मण) बन बैठा है लेकिन ये बात भी सत्य है कि जैसे-जैसे ओबीसी अपने वज़ूद को पहचान रहा है, बाबा साहेब को जान रहा उसके साथ-साथ उसके बर्ताव में परिवर्तन आ रहा है, ओबीसी वर्ग भी अब सोच रहा है लेकिन इनमे आने वाले परिवर्तन की गति इतनी मन्द है कि सामान्यतः ये परिवर्तन नज़र ही नहीं आता है।
यहाँ गौर करने वाली बात यह है कि यदि हमारे साथ उन अध्यापकों ने उतना बुरा बर्ताव डायरेक्टली नहीं किया जितना कि हमारे समाज के अन्य बच्चे और बच्चियों के साथ किया। मतलब कि डायरेक्ट जातिवादी अटैक से अन्य बच्चों के तुलना हम थोड़ा महफूज़ थे तो इसके एक मात्र कारण हमारे बाबू जी थे। फ़िलहाल ये दौर चलता रहा। हम बाबू जी शिकायत भी करते थे। तब बाबू जी कहते थे ये लोग जातिवादी है, जाहिल है। जब आप बड़े स्कूलों में पढ़ने जाओगें तो वहां पर अच्छे लोग होते है, शिक्षित होते है। वहां ये सब नहीं होगा। हम भी खुश हो जाते थे। इसी ख़ुशी के चलते इन सारे डायरेक्ट और इंडियरेक्ट डिस्क्रिमिनेशन को झेलते हुए हम २००६ में सुप्रसिद्ध एनआईटी-इलाहाबाद पहुँचें।
एनआईटी-इलाहाबाद में एडमिशन मिलना बहुत ख़ुशी की बात थी। इंजिनियर बनने का सपना साकार हो रहा था। एनआईटी-इलाहाबाद में पहला दिन अपने आप में एक अनोखा एहसास था। इसी तरह से दिन बीतते गए और तक़रीबन ४५ दिन के बाद फर्स्ट-मिड-सेमेस्टर एग्जाम हुआ। इंजिनीरिंग मैथ की कापियाँ थी। कॉपिया क्लास में ही सबके सामने एक-एक को बुलाकर जांची जा रही थी। इसी दरमियान प्रोफ़ेसर साहेब सबका परिचय भी ले रहे थे।
पहला बच्चा आया -
प्रोफ़ेसर साहब - आपका नाम क्या है ?
छात्र - कखग कौल
प्रोफ़ेसर साहेब - कहाँ के रहने वाले हो ?
कखग कौल - जम्मू
प्रोफ़ेसर साहेब - पिता जी क्या करते है ? जम्मू में मुस्लिम कितने है ? इत्यादि।
इसी तरह से दूसरा, तीसरा, चौथा बच्चा आता गया जिसमे कोई त्यागी था तो कोई अग्रवाल, कोई शर्मा था तो कोई गुप्ता, कोई सिंह था तो कोई वाश्र्णेय, कोई दूबे तो कोई मिश्रा था इत्यादि। प्रोफ़ेसर साहब भी बिना कॉपी देखे नीचे कलम चला रहे है और ऊपर बच्चों से पूरी लगन व तन्मयता से बात-चीत कर रहे थे। मतलब साफ है कि प्रोफ़ेसर साहब का ध्यान कॉपी पर नहीं, बल्कि छात्रों की पृष्ठिभूमि को जानने में था, विशेषकर सामाजिक पृष्ठिभूमि। इस तरह से प्रोफ़ेसर साहब कॉपी जाँचते रहे और २० में किसी को १७, किसी को १६, किसी को १५, किसी को १४, किसी को १३ और न्यूनतम १२ मार्क बाँटते रहे। यही सिलसिला कुछ देर चलता रहा फिर हमारा भी नंबर आया। प्रोफ़ेसर साहब ने वही सारे सवाल दुहराये।
प्रोफ़ेसर साहब - आपका नाम क्या है ?
हम - सर जी, रजनीकान्त
प्रोफ़ेसर साहब - पूरा नाम क्या है ?
हम - रजनीकान्त
प्रोफ़ेसर साहब - अरे भाई, रजनीकान्त के आगे-पीछे भी कुछ है ? (असल में प्रोफ़ेसर साहब हमारी जाति जानना चाहते थे लेकिन डायरेक्टली पूँछ नहीं पा रहे थे।)
हम - नहीं सर, यही हमारा पूरा नाम है।
प्रोफ़ेसर साहब - आप कहाँ के रहने वाले है ?
हम - सर, अकबरपुर, अम्बेडकरनगर
प्रोफ़ेसर साहब - यूपी वाला अकबरपुर, अम्बेडकरनगर ?
हम - जी सर
प्रोफ़ेसर साहब - अच्छा-अच्छा, मायावती वाले हो, चमार हो ?
हम - जी सर
प्रोफ़ेसर साहब साहब हमारी इस बातचीत के दरमियान पूरी तरह से हमारी जाति जानने में तल्लीन थे। लेकिन जैसे ही हमने उनके अंतिम सवाल का उनका मनचाहा जबाब दिया, प्रोफ़ेसर साहब ने बिना एक भी लाइन देखे, बिना पढ़े एक झटके में हमारी उत्तर पुस्तिका के हर पेज पर क्रॉस लगते हुए, मुख्य पृष्ठ पर शून्य बटा बीस (००/२०) लिख दिया। ये देखते ही हमारी आखें आंसुओं से भर गयी। हमें विश्वास नहीं हो रहा था कि ऐसा भी होता है। जातिवादी भेदभाव तो बचपन से देखा था लेकिन इस कदर खुलेआम जातिवादी भेदभाव का हमारा पहला अनुभव था जिसने हमें रुला दिया। हम ब्लैकबोर्ड की तरफ़ चेहरा करके आँसू पोंछ रहे थे कि प्रोफ़ेसर साहब ने कहा कि देखों, आज तक अपने पूरे कॅरियर में मैंने किसी को शून्य मार्क नहीं दिया है, इसलिए आधा मार्क (१/२) हमारी तरफ से। इस तरह से प्रोफ़ेसर साहब ने हमें बीस में से कुल आधा मार्क दिया। ये स्वघोषित शिक्षित व विद्वान प्रोफ़ेसर कोई और श्रीमान एस एन पाण्डेय जी थे। बीएचयू से पढ़े थे। एनआईटी-इलाहबाद में इन्जिनीरिंग गणित पढ़ते थे। अब सेवानिवृत्ति हो चुके होगें।
ये ब्राह्मण और ब्राह्मणी रोग से ग्रसित मानसिक रोगी अपनी जातिवादी मानसिकता को छिपाने के लिए पूरा नाम पूँछते है, क्योंकि शर्मा, वर्मा, यादव, पाण्डेय, दुबे, सिंह इत्यादि सरनेम से ये जाति का अंदाज़ा लगाते है, जो कि लगभग ९९% सही साबित होता है। ये जातिवादी लोग बिना जाति पूँछे जाति जानना चाहते है, और अपनी जातिवादी मानसिकता और अपने ब्राह्मणी मानसिक रोग को छिपाने का असफल प्रयास करते हुए खुद को प्रोग्रेसिव बुद्धिजीवी भी बताना चाहते है।
फ़िलहाल, हमने अपने बाबू जी से शिकायत की कि आप तो कहते थे कि हायर एजुकेशन वाले संस्थानों में जातिवादी भेदभाव नहीं होता है। बाबू जी के पास कोई जबाब नहीं था। उन्होंने कहा आप अपनी डिग्री पूरी करके निकलों, ये समाज में हर जगह ऐसे ही होता है।
फ़िलहाल, जातिवादी भेदभाव तो हमने प्राइमरी पाठशाला से लेकर जीवन के हर मोड़ पर देखा, फिर चाहे वो साथ पढ़ने वालों की बात हो या फिर अन्य सभी मौकों पर। लेकिन एनआईटी-इलाहबाद में घटी इस घटना ने हमारे जीवन के रास्ते को ही बदल दिया। इस घटना ने हमें सोचने पर मजबूर कर दिया। ज़हन में अनेक सवाल थे। ज़हन में समाज के खिलाफ बगावत हुंकार भरने लगी। इसी कड़ी में अब समाज को एक नए सिरे से जानने की जिज्ञासा प्रबल और प्रखर होने लगी।
ऐसे में एनआईटी-इलाहबाद की सेन्ट्रल लाइब्रेरी और कम्प्यूटर सेंटर का योगदान सबसे अहम् है। जहाँ एक तरफ एनआईटी-इलाहबाद की सेन्ट्रल लाइब्रेरी ने हिन्दुधर्म शास्त्रों को आसानी से उपलब्ध कराया वही दूसरी तरफ एनआईटी-इलाहबाद के कम्प्यूटर सेंटर ने बोधिसत्व विश्वरत्न शिक्षा प्रतीक मानवता मूर्ती बाबा साहेब डॉ भीमराव रामजी अम्बेडकर से हमारा परिचय कराया। बचपन में बाबा साहेब का नाम सुना था। बुआ और दादा जी ने बताया था कि आज हमारे बाबू जी पढ़-लिख सके है तो सिर्फ और सिर्फ बाबा साहेब की वजह से, लेकिन बाबा साहेब से असली परिचय, या यूँ कहें कि अम्बेडकर दर्शन से परिचय एनआईटी-इलाहबाद के कम्प्यूटर सेंटर ने ही कराया।
साथ घटी इन अमानवीय घटनाओं, निकृष्ट हिन्दू धर्म शास्त्रों और महान बाबा साहेब के दर्शन ने हमें हिन्दू सामाजिक व्यवस्था से रू-ब-रू कराया। इन सब की वजह से हमारा इन्जिनीरिंग की दुनिया से मोहभंग हो गया। हमें ये समझ मिली कि इंजिनियर बनकर सिर्फ अपना पेट पाल सकते है, लेकिन समाज में अपना सम्मान-स्वाभिमान और हक़ नहीं पा सकते है।
इसी तहत हमने इन्जिनीरिंग में स्नातक पूरा करने के पश्चात् इन्जिनीरिंग के क्षेत्र को छोड़कर लखनऊ विश्वविद्यालय से एलएलबी किया (लखनऊ विश्वविद्यालय में हमारे साथ हमारी परीक्षा कॉपी की चेकिंग में जातिवाद कैसे होता है, ये वाकया अगले लेख में बतायेगें, फ़िलहाल एनआईटी-इलाहाबाद पर ही फ़ोकस करते है), फिर मानवाधिकार में पीजीडीएचआर, सस्टेनेबल डेवेलपमेंट में एमएससी और अब इग्नू विश्वविद्यालय से इतिहास में एमएएच कर रहे है। इसी दरमियान दो बार यूजीसी-नेट भी क़्वालिफ़ाइ किया है। बैंक में सीनियर शाखा प्रबंधक के पद पर किया, बाद में इलाहबाद हाईकोर्ट इलाहबाद में समीक्षा अधिकारी पर चयन हो गया। इस तरह से जीवन संघर्ष चल है।
हमारी विविधितपूर्ण एकेडेमिक पृष्ठिभूमि अक्सर इंटरव्यू में हमारे सामने ये सवाल लाकर कड़ी कर देती है कि हमारी एकैडमिक पृष्ठिभूमि इतनी विविधतापूर्ण क्यों है ? आखिर हम करना क्या चाहते है ? ऐसे सवालों को इंटरव्यू बोर्ड में समझाना थोड़ा मुश्किल होता है कि क्यों हमारी एकेडेमिक पृष्ठिभूमि इतनी डाइवर्स क्यों है ? तो माननीय बोर्ड के सदस्यों को हमारा एक ही जबाब होता है कि हम समाज को अलग-अलग एंगल से जानना, समझना चाहते है। इसलिए समाज हमारे सामने जैसी-जैसी परिस्थियाँ परोसता गया हम भी उन परिस्थितियों का सामना करते हुए आगे बढ़ते रहे, पढ़ते रहे और इस तरह से हम अपने बहुत ही विविधितपूर्ण एकैडमिक पृष्ठिभूमि को संवारते रहे। अगला सवाल बोर्ड का होता है कि इसका आपको कैसे फायदा होगा ? हमारा सिम्प्ल सा जबाब होता है कि इन सब के दौरान किताबी जानकारी से हटकर जो अनुभव मिले है, समाज से जो साक्षात्कार हुआ वो हमारे लिए ज्यादा महत्वपूर्ण और फलदायक है। किताबों में लिखी बातें अक्सर भूल जाती है लेकिन एहसास और अनुभव, ज्ञान और विश्लेषण व तर्क करने की फितरत हमारे ज़हन में बस जाता है और यही हमें जीवन के हर मोड़ पर, हर बुरी परिस्थिति में काम आता है।
फ़िलहाल एनआईटी-इलाहाबाद के जातिवादी माहौल ने हमें रुलाया जरूर लेकिन इस दरमियान हमें जो संघर्ष मिला उसने हमें पहले से बहुत बेहतर और अलग इन्सान बना दिया। हम एक सफल सॉफ्टवेयर इंजीनियर तो नहीं बन पाए लेकिन सामाजिक इंजीनियरिंग जरूर जान गए। आज हमें अपने इस सामाजिक इन्जिनीरिंग की पढाई पर नाज़ है।
अंत में हम यही कहना चाहते है कि एनआईटी-इलाहाबाद हो या अन्य कोई संस्थान ब्राह्मणवादी रोग ने सबको बीमार कर रखा है। हम सोचते थे कि ब्राह्मणवादी रोग से बीमार समाज को शिक्षा के संस्थान शिक्षा रुपी दवा से स्वास्थ करेगें लेकिन हकीकत ये है कि भारत के शिक्षण संस्थान, शिक्षा व्यवस्था, पाठ्यक्रम, प्रोफ़ेसर, अध्यापक से लेकर सारा भारत खुद इस ब्राह्मणी रोग से बीमार है।
ऐसी परिस्थिति में यदि एनआईटी-इलाहाबाद के अधिकारी अंतिम समय पर बहुजन बच्चों से जाति-प्रमाण माँगते है तो इसमें कोई नई बात नहीं है। ये सब ब्राह्मणी रोगी है, कुछ भी कह सकते है, कर सकते है। ये सब एक ही रोग से बीमार है - ब्राह्मणवाद। यही नहीं, दाखिला मिलने के पश्चात् यदि बहुजन बच्चों को ज़ीरो मार्क दिया जाय, वायबा में कम मार्क्स मिले तो घबराने की जरूरत नहीं। ये सब ब्राह्मणी रोग के लक्षण है जो कि कभी-कभी विकराल रूम में सामने आ जाते है, और अख़बारों के पन्नों में कभी-कभी दर्ज़ हो जाते है।
बहुजन छात्रों के प्रति ये भेदभाव सिर्फ मार्क्स तक ही सीमित नहीं है। जब हम हॉस्टल की तरफ रूख करते है तो हम पाते है की अक्सर वंचित और आदिवासी जगत के छात्रों को एक साथ और हॉस्टल में एक तरफ रखा जाता है जबकि सवर्णों को एक तरफ़। हम खुद चार सालों में शुरू के दो सालों में, जब छात्र को तनहा रूम नहीं दिया जाता है, हमारे रूममेट वंचित जगत वाले ही थे। अंतिम दो सालों में हमें तनहा रूम मिले लेकिन हमारे आस-पास के रूम में जो भी लोग थे वे सब वंचित जगत से ही थे। यदि रैण्डम रूम अलॉटमेंट होता है तो फिर ये वंचित जगत के बच्चों को एक साथ ही रूम कैसे अलॉट हो जाता है ? ये सब साइलेंटली साइलेन्ट डिस्क्रिमिनेशनल पॉलिसी के तहत वंचित जगत के लोगों को तथाकथित मुख्यधारा के लोगों अलग रखने के लिए एक षड्यंत्र के तहत किया जाता है। इंस्टीट्यूट ऑफ़ नैशनल इम्पॉर्टैंस, एनआईटी-इलाहाबाद और अन्य सभी संस्थानों और विश्वविद्यालयों में ये सब बहुत आम है। हमारा समाज और हमारे लोग अब इसके आदि हो चुके है। ये दुर्व्यवहार और साइलेन्ट डिस्क्रिमिनेशन इतना आम हो गया है कि सामान्यतः लोगों को ध्यान ही नहीं जाता है। आज भी ब्राह्मणवाद से बीमार भारतीय शिक्षण संस्थानों व अन्य सभी जगहों पर इस तरह की व्यवस्था व मानसिकता का होना आम बात है।
हम वंचित और पिछड़े जगत के बच्चों से अपील करते है कि हमें अपनी पढ़ाई इन्हीं परिस्थितियों में पूरी करना है। इसके पश्चात् अपने इसी अनुभव व ज्ञान का इस्तेमाल करके भारत में सदियों से जड़ जमाये बैठी ब्राह्मणी संस्कृति व व्यवस्था को हमेशा के लिए उखाड़ फेंकना होगा। इन ब्राह्मणी मानसिक रोगियों का इलाज़ कठिन जरूर है लेकिन ये ब्राह्मणी रोग अब लाइलाज़ नहीं है क्योकि अब हमारे पास अम्बेडकरिज़्म नाम की वो दवा है जो इन रोगियों को हमेशा के लिए ब्राह्मणी रोग मुक्त कर देगी।
हमारी जंग कठिन जरूर है लेकिन ख़ुशी की बात ये है कि इस वैचारिक-सामाजिक-सांस्कृतिक महासंग्राम का परिणाम पहले से ही निश्चित है। मतलब कि बहुजन विचारधारा की जीत, बुद्ध-फुले-अम्बेडकर के दर्शन की जीत, सामाजिक न्याय की जीत। ये याद रखने की जरूरत है कि इस महासंग्राम में हमारे पास खोने को कुछ भी नहीं है लेकिन पाने को सारा जहां है।
जय भीम, जय भारत !
रजनीकान्त इन्द्रा
इतिहास छात्र,
इग्नू, नई दिल्ली
जुलाई ०६, २०१७
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