Sunday, July 2, 2017

बुलंदशहर की तथाकथित लेडी सिंघम का राज़

ब्राह्मणी आरएसएस के नेतृत्व वाली ब्राह्मणी बीजेपी की उत्तर प्रदेश सरकार ने सूबे से संविधान का राज़ हटाकर मनुस्मृति का शासन लागू कर दिया है। आला दर्जे के अफसर, विद्वान, विचारक, व्यापारी संग सकल वंचित, आदिवासी, पिछड़ा, अल्पसंख्यक वर्ग डर के साये में जी रहा है। वंचित जगत पर लगातार जातिवादी हमले हो रहे है। ये हमले इस कदर आम हो गए है कि अब ये खबरें मुख्यधारा के अखबरों व पत्रिकाओं में छपना तक बंद हो गयी है। समाज की रक्षा के लिए जिम्मेदार पुलिस, खुद खौफ में है।
आज उत्तर प्रदेश में ही नहीं बल्कि ब्राह्मणी बीजेपी शासित हर प्रान्त में यही हालात है। तथाकथित हिन्दू उच्चजाति के लोगों को छोड़कर कोई भी सुरक्षित नहीं है। सरकारी दफ्तरों व नौकरशाही की बात करे तो उत्तर प्रदेश में हालत ये है कि यदि चपरासी हिन्दू उच्चजाति का है तो वह सुरक्षित है, नहीं तो फिर गोरखपुर की पुलिस अधीक्षिका निगम भी सुरक्षित नहीं है।
गोरखपुर की पुलिस अधीक्षिका निगम का सरेआम अपमान हो, सहारनपुर में वंचितों पर ब्राह्मणी रोग से पीड़ित गुलाम ठाकुरों का हमला हो या फिर खुलेआम ब्राह्मणी हिन्दू आतंकवादियों द्वारा खुद पुलिस की कुटाई हो, आज उत्तर प्रदेश में, ये सब बहुत आम बात है।
तारीख गवाह है, उत्तर प्रदेश में ब्राह्मणी हिन्दू आतंकवाद चरम पर है। वंचितों, आदिवासियों, पिछड़ों, अल्पसंख़्यकों और महिलाओं पर आये दिन हमले हो रहे है। यहाँ तक कि खुद सीडीओ और पुलिस अधीक्षक के बेडरूम में खुसकर हमले किये जा रहे है, धमकी दी जा रही है, सीनियर पुलिस इंस्पेक्टर की हत्या और पुलिस वालों की कुटाई आम बात हो गयी है, गोरखपुर की लेडी पुलिस अधीक्षक निगम को सारेआम चौराहे पर इस कदर बेज्ज़त किया जाता कि उसकी आखों में आँसू भर जाते है, तो फिर कैसे, एक लेडी सीओ सिंघम बन जाती है, वो भी महिला.........कैसे ? ब्राह्मणी आतंकवाद के इस घिनौने दौर में जब ब्राह्मणी आतंकवादियों के सामने खुद जिलाधिकारी व पुलिस अधीक्षक इतने बेबस-लाचार और पक्षपाती हो गए है कि वे अपने पद-निहित दायित्वों को भूलकर खुद ब्राह्मणी हिन्दू आतंकवादियों का साथ दे रहे है तो फिर कैसे एक लेडी सीओ सिंघम की तरह गरजने लगती है........कैसे ? जिस उत्तर प्रदेश में कायम आतंकवादी राज में खुद पुलिस अधीक्षक तक सुरक्षित नहीं है, वहाँ पर एक लेडी सीओ चौराहे पर खड़ी होकर सिंघम बन जाती है, क्या ये आश्चर्यजनक नहीं लगता है ? तुलसी के ब्राह्मणी समाज में लेडी सिंघम, विश्वास नहीं होता है। रामराज्य में, ये सब आश्चर्यजनक लगता है।   
छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश दोनों ही सूबों में आरएसएस के नेतृत्व वाली ब्राह्मणी बीजेपी की ही सरकार है, लेकिन ये कैसे सम्भव हो जाता है कि छत्तीसगढ़ के दलित-वंचित-आदिवासी समुदाय पर पुलिस द्वारा हो रहे जघन्यतम अत्याचार के खिलाफ विद्रोह करने वाली वर्षा डोंगरे संस्पेंड हो जाती है, लेकिन खुद बीजेपी के नेताओं के खिलाफ कार्यवाही करने वाली पुलिस सीओ लेडी सिंघम बन जाती है.......कैसे ? 
लेडी सीओ के अच्छे कार्यों की हम सराहना करते है लेकिन जब भारत की जातिवादी गैर-बराबरी वाली सामाजिक व्यवस्था को देखते है तो ऊपर लिखे सवाल सहज की ज़हन में आ जाते है। ब्राह्मणी व्यवस्था में इस कदर एक महिला का ब्राह्मणी व्यवस्था के रखवालों से लड़ना और सफलता पूर्वक निकल जाना आश्चर्यजनक लगता है क्योंकि आज उत्तर प्रदेश में पुलिस वालों की कुटाई आम बात है, एसपी तक को खुलेआम धमकी रोजमर्रा की खबर लगती है। इसलिए बुलंदशहर की तथाकथित सिंघम वाली घटना पर आश्चर्य होता है।
यदि भारत की जातिवादी गैर-बराबरी वाली सामाजिक व्यवस्था को ज़हन रखकर देखे तो हमारे विचार से, बुलंदशहर की तथाकथित लेडी सिंघम का राज़ उस तथाकथित लेडी सिंघम के नाम में ही छिपा है, जाति को बयान करता उसका नाम - श्रेष्ठा ठाकुर। मतलब साफ़ है, श्रेष्ठा सवर्ण है तो उनका सिंघम बनना लाज़मी है, और जेलर वर्षा डोंगरे एक दलित समुदाय से है तो उनका सस्पेंड होना भी पूरी तरह से लाज़मी और हिंदुत्व की विचारधारा पर खरा और जायज है। ठाकुर मुख्यमंत्री के आतंकवादी राज़ में ब्राह्मण-ठाकुर-बनिया सिंघम नहीं होगें, तो क्या वंचित, आदिवासी, पिछड़े और अल्पसंख्यक होगें ? 
शेक्सपियर कहते है कि नाम में क्या रखा है। ये कथन उस समाज में सही फिट होता है जहाँ पर सामाजिक समानता हो लेकिन भारत के गैर-बराबरी वाले समाज में नाम में छिपे जाति सूचक शब्द से ही योग्यता तय होती है। आज भी भारत के शासन-प्रशासन, न्यायपालिका और अन्य सभी क्षेत्रों में जाति को देखकर ही सेलेक्शन होते, चुनावी जंग होती है, यहाँ तक कि इंटरव्यू के प्रश्न व मिलने वाले मार्क्स तक जाति से ही तय होते है। भारत में आज भी किसी भी क्षेत्र में सफलता और रोजमर्रा के कार्यों के होने या ना होने की गारण्टी जाति पर निर्भर करती है। हमारे विचार से, शेक्सपियर का कथन भारत की ब्राह्मणी व्यवस्था वाले समाज में पूरी तरह से अप्रांसगिक है। 
मुख्य मुद्दों से ध्यान भटकाने वाली सिंघम जैसी घटनाये ब्राह्मणी सरकार के षड्यंत्र का हिस्सा है, एक वर्ग विशेष - सवर्ण अधिकारीयों व कर्मचारियों को मीडिया की निगाह में हीरो बनाकर पेश करने का। ये साजिश है, कानून-व्यवस्था की विफलता को छिपाने का। ये चाल है, वंचितों पर हो रहे हमलों से देश- समाज का ध्यान भटकने की। ये कैसी बिडंबना है कि देश की मीडिया और आम जनता भक्ति-भाव में इस कदर डूबी हुई है कि लगातार हो रहे जातिवादी हमलों को भूलकर सिंघम-सिंघम कर रही है।
ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति व सामाजिक व्यवस्था, दुनिया की एक मात्र ऐसी संस्कृति व सामाजिक व्यवस्था है जहाँ पर योग्यता जन्म के साथ ही तय हो जाती है। स्वतन्त्र भारत में आज भी जाति को ही योग्यता का मापदण्ड समझा जाता है। देश की हर नीति पर जाति का प्रबल व प्रखर असर ब्राह्मणी सरकारों की नीतियों का प्रमुख अंग है। तथाकथित हिन्दू उच्चजाति का होना ही ब्राह्मणी व्यवस्था में योग्यता, शौर्य, पराक्रम, सफलता और महानता का पैमाना है। जातिगत योग्यता के इसी पैमाने की बदौलत निकृष्ट ब्राह्मण, धर्म और समाज का ठेकेदार बन गया, भगोड़ा सावरकर "वीर" बन गया और जातिवादी पाखण्डी गाँधी "महात्मा" बन गया। इसलिए रामराज्य के इस दौर में, बुलंदशहर की तथाकथित लेडी सिंघम की सफलता का राज़ भी यही है - जाति।
रजनीकान्त इन्द्रा
इतिहास छात्रइग्नू
जुलाई ०२२०१७

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