Monday, July 10, 2017

गॉंवों के स्कूलों में जातिवाद - हमारी कहानी, हमारी जुबानी

जाति भारत के समाज की वो सच्चाई है जिसे कोई नकार नहीं सकता है। जाति आधारित भेदभाव निकृष्टतम हिन्दू संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। जाति आधारित बस्तियाँ, गालियाँ, अत्याचार, शोषण-बलात्कार जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति की पहचान है। स्कूलों की क़िताबों और इतिहासकारों के लेखों और कहानियों में भारत के गांव बहुत सुन्दर दिखाई देते है लेकिन हक़ीक़त ये है कि इन तथाकथित मुख्यधारा के इतिहासकारों, कहानीकारों और सरकारों ने कभी भारत के गाँवों का सजीव चित्रण किया ही नहीं है। भारत में जातियों का एक ऐसा जाल है जिसमे हर क्षेत्र के हर स्तर पर बटवारा है, भेदभाव है। निकृष्टतम जाति व्यवस्था पर आधारित सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक संरचना भारत के मनुवादी वैदिक सनातनी जातिवादी ब्राह्मणी हिन्दू समाज की मुख्य पहचान है।

गॉव के स्कूलों में जाति आधारित संरचना बहुत ही प्रबल और प्रखर रूप से दिखाई पड़ती है। शिक्षा से जागरूकता विकसित कर आने वाली पीढ़ियों में जाति के उन्मूलन का बीज बोया जा सकता है लेकिन भारत के ब्राह्मण-सवर्ण व ब्राह्मणी रोग से ग्रसित घरों के साथ-साथ गांवों के स्कूलों में ही जाति व्यवस्था व इस पर आधारित सामाजिक संरचना को मजबूती प्रदान की जाती है। बच्चों को यहीं सिखाया जाता है कि कौन किस जाति से है। स्कूल में ही सिखाया जाता है कि किसके हाथ का बना खाना खाना चाहिए और किसके हाथ का नहीं। इन्हीं स्कूलों में बताया जाता है कि किसके साथ बैठकर खाना चाहिए और किसके साथ नहीं। इसका सबसे प्रखर उदहारण मिड-डे-मील में साफ-साफ दिखाई पड़ता है। मिड-डे-मील योजना में ब्राह्मण-सवर्ण, यहाँ तक कि ओबीसी बच्चों द्वारा बहिष्कृत समाज के रसोइये के हाथ से बना खाना खाने से इंकार कर देना, पिटाई कर देना, जातिसूचक गालियाँ देना, आदि बहुत ही आम है, सहज है। जहाँ कहीं रसोइया किसी सछूत समाज का होता है वहां पर ज़लालत और हिक़ारत के इस ब्राह्मणी हिन्दू तंत्र में बहिष्कृत समाज के बच्चे, जो कि आर्थिक रूप से सबसे ग़रीब होते है, कुपोषित होते है, कमजोर होते है, भी मिड-डे-मील से इंकार कर देते है क्योंकि इनको अलग कतार में बिठाकर खाना परोसा जाता है। ऐसे में बच्चे स्कूल मिड-डे-मील को छोड़ देना ज़्यादा पसंद करते है। बहिष्कृत जगत के इन बच्चों से स्कूलों के शौचालय, नाली आदि की सफाई कराई जाती है। कभी-कभी स्कूल का मास्टर जो बगल के ही गांव में रहता है, इन बच्चों से अपने शौचालयों और नालियों की सफाई भी करवाता है। ऐसे में गरीबी-लाचारी और ग़ुरबत के मारे ये बच्चे अक्सर बीच में ही पढाई छोड़ देते है।

यदि आगे गौर करें तो हम पाते है कि स्कूल का मास्टर बहिष्कृत जगत के बच्चों को जातिवादी मानसिकता के चलते सिर्फ और सिर्फ पासिंग मार्क्स ही देता है, और फिर बहिष्कृत समाज के बच्चों के माँ-बाप से शिकायत करता है कि आपका बच्चा पढ़ने में बहुत कमजोर है, बेहतर होगा कि इसे किसी काम-धंधे पर लगा दिया जाय तो ऐसे में घर की आमदनी भी बढ़ जाएगी और वैसे भी ये पढ़-लिख कर कौन सा साहेब बन जायेगें। बहिष्कृत जगत के लोग आँख बंद करके इन स्कूल वालों पर विश्वास करते है जिसके तहत अक्सर देखा जाता है कि बहिष्कृत जगत के लोग अपने बच्चों को स्कूल से बाहर निकलकर उनकों किसी काम-धन्धे और मजदूरी में लगा देते है। ये आज के भारत की वो सच्चाई है जिससे लगभग हर नेता, अधिकारी और ब्राह्मणी रोग से बीमार समाज के लोग बिना सोचें-समझें ही सीधे इंकार कर जाते है। ब्राह्मणी मानसिक रोग से बीमार लोग किसी एक बहिष्कृत जगत के बच्चे को किसी अच्छे पद पर देख लेते है तो इनको लगता है कि बहिष्कृत जगत का हर बच्चा आगे निकल चुका है। इनको बहिष्कृत जगत का बढ़ता कदम रास नहीं आ रहा है। सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी रोग से पीड़ितों द्वारा वंचित जगत के समुचित स्वप्रतिनिधित व सक्रिय भागीदारी (तथाकथित आरक्षण) के विरोध का सबसे बड़ा कारण यही है।

आज सबसे बड़े दुःख की बात ये है कि ओबीसी वर्ग भी वंचित जगत के साथ उसी तरह से पेश आ रहा है जैसे कि ब्राह्मण। ओबीसी और एससी-एसटी दोनों ही भारत के पीड़ित समूह है। इनका शोषक एक ही है -ब्राह्मण और अन्य सवर्ण। इसके बावजूद एक जुट होकर अमानवीय ब्राह्मणी व्यवस्था और इसके रक्षकों से लड़ने के बजाय ओबीसी वर्ग बहिष्कृत जगत के लिए नव ब्राह्मण के रूप में सामने आ रहा है। 

हमारे ही गांव के एक यादव जी है, जो कि प्राइमरी में अध्यापक है, वो बताते है कि प्राइमरी स्कूलों में अध्यापक तास-पत्ती खेलते है। उनकों सिर्फ और सिर्फ वेतन से मतलब है। बच्चे क्या करते है, इससे उनकों कोई फर्क नहीं पड़ता है। यादव जी इसका कारण बताते हुए कहते है कि अध्यापकों का मानना है कि इनकों क्या पढ़ाना, ये सब चमार ही तो है। सामान्यतः आज के पिछड़ों की वंचित जगत के प्रति यही मानसिकता है, यही सच्चाई है। आज प्राइमरी स्कूल में लगभग ९५% बच्चे अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के ही है, जिनमे अधिकांश तादात में चमार, अन्य अछूत व अनुसूचित जाति के बच्चे है, क्योंकि सवर्णों और पिछड़ों के बच्चे कान्वेंट और पब्लिक स्कूल (ये बिडंबना है कि भारत में प्राइवेट स्कूल को पब्लिक स्कूल कहा जाता है) में जाते है। यादव जी के कहने का मतलब यह है कि प्राइमरी में यदि अध्यापक बच्चों का ख्याल नहीं रखता है, प्राइमरी में यदि पढाई-लिखाई नहीं होती है तो इसकी एक मुख्य वजह जाति है, एक जाति विशेष (चमार व अन्य अछूत-अनुसूचित जाति) के बच्चों का प्राइमरी स्कूलों मे पढ़ना है। 

ऐसे में इन ओबीसी समुदाय से आने वाले अध्यापकों को भी यही लगता है कि चमारों आदि को पढ़ना नहीं चाहिए। ये पढ़-लिख कर क्या करेगें? खुद मेरा एक सहपाठी, पिछड़े वर्ग की कुर्मी जाति से है, और जो प्राइमरी स्कूल में अध्यापक है, वो भी इसी मत का समर्थन करता है। इससे यह स्पष्ट होता है कि यदि प्राइमरी स्कूलों में सवर्णों के बच्चे होते तो ये ओबीसी अध्यापक बच्चों को पढ़ाते। 

हमारे विचार से हुक्मरानों को इन ज़मीनी हकीकतों से रू-ब-रू होना चाहिए। बेहतर होगा कि या तो सरकार प्राइमरी स्कूलों को बंद कर दे, और वंचित जगत के बच्चों को पढ़ने की फीस और उनके रहने के लिए आवास की व्यवस्था करते हुए इन बच्चों को पब्लिक स्कूलों (प्राइवेट-कॉन्वेन्ट स्कूलों) में दाखिला दिलाये या फिर सभी के बच्चों को प्राइमरी स्कूल में पढ़ने के लिए नीति लाये। संक्षेप में कहे तो पूरे भारत में एक सामान शिक्षा नीति कड़ाई के साथ लागू की जाये जिसमे पाठ्यक्रम, माहौल, आधारभूत संरचना, हॉस्टल और अन्य सभी चीजें हर समाज के हर बच्चे के लिए सामान हो। इस पूरी व्यवस्था में देश के हर तबके के समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी का पूरा ख्याल रखा जाय।

फ़िलहाल हमें यहाँ दुःख यह हो रहा है कि यदि ब्राह्मण-सवर्ण समाज के लोग अपने ब्राह्मणी मानसिक रोग के चलते चमार-अछूत-वंचित जगत से नफरत करे तो समझ आता है लेकिन खुद पीड़ित पिछड़ा वर्ग भी वंचित जगत का विरोध कर रहा है, या यूँ कहें कि अधिकांश ओबीसी के लोग भी वंचित जगत के लोगों से छुआछूत व नफ़रत करते है। ये भी नहीं चाहते है कि वंचित जगत के बच्चे भी पढ़े-लिखे और आगे बढ़े। अपने आपको उच्च जाति का बनाने के लिए आज का ओबीसी वर्ग वंचित जगत के लिए एक नव ब्राह्मण के रूप में सामने आ रहा है। ये ओबीसी हमारे भारतीय मूलनिवासी समाज के घर में पैदा हुआ ब्राह्मणी मानसिक रोग से ग्रसित ब्राह्मण है। इसलिए ये ओबीसी, जो कि नव ब्राह्मण है, सवर्णों से भी ज़्यादा ख़तरनाक है। इसमें जागरूकता लाने की नितांत आवश्यकता है। न्याय-स्वतंत्रता-समता-बंधुत्व पर आधारित भारत के निर्माण के लिए इस नव ब्राह्मण (ओबीसी) वर्ग के लिए फुले-अम्बेडकरी दर्शन का ज्ञान आवश्यक है।

फ़िलहाल, अब हम अपने स्कूल के कहानी को आगे बढ़ाये तो हमारा स्कूल भी इसी जातिवादी व्यवस्था का शिकार रहा है। जब हम अपने प्राइमरी पाठशाला की ओर रुख करते है तो हम पाते है कि उस समय ब्राह्मणों, ठाकुरों, बनियों, शूद्रों और बहिष्कृत जगत के बच्चे प्राइमरी पाठशाला में ही पढ़ते थे, लेकिन इन बच्चों के बैठने में वही व्यवस्था थी जो आज है। हर वर्ग के बच्चों की कतारे अलग-अलग होती थी। मास्टर ब्राह्मण जाति से था। उसका बच्चों की पढाई से कोई वास्ता नहीं था। बच्चों से क्यारी की गुड़ाई, सफाई कार्य में बड़ी लगन से लगाया जाता था। हमें ये याद नहीं है कि हमने कभी किसी ब्राह्मण-ठाकुर-बनिया के बच्चों को क्यारी की गुड़ाई या सफाई करते हुए देखा हो। इस कार्य में लगभग सभी बहिष्कृत जगत के ही बच्चे होते थे।

फ़िलहाल प्राइमरी पाठशाला से आगे चल कर जब हम जूनियर हाई स्कूल की तरफ रुख करते है तो जातिवादी टिप्पणी तथा भेदभाव प्रबल और प्रखर रूप से सामने आती है। इस स्कूल में अधिकतर अध्यापक ओबीसी वर्ग (अहीर, कुर्मी, कुम्हार) के थे। इसके अलावा तीन ब्राह्मण, एक ठाकुर भी था। इस स्कूल में भी लिपाई-पुताई का कार्य आम था। इस स्कूल में भी हमने कभी किसी ब्राह्मण-सवर्ण की लड़की को लिपाई-पुताई करते नहीं देखा है। अक्सर जब कभी साफ-सफाई और लिपाई-पुताई की बात होती थी तो सवर्णों की लड़कियाँ अनुपस्थित होती थी। स्कूल का मास्टर पहले ही गोबर लाने और लिपाई करने वालों को उनकी जिम्मेदारी सौप देता था। ये जिम्मेदारी हमेशा शूद्रों के बच्चों पर ही होती थी। सवर्णों के बच्चों को भूलकर भी स्कूल के मास्टर उन्हें इस कार्य में नहीं लगतें थे, लेकिन यदि शूद्र और वंचित जगत के बच्चे इस कार्य में कोई भी हीला-हवाली करते थे तो उनकी पिटाई निश्चित थी। 

हमने देखा है कि स्कूलों में गोबर लाने में शूद्रों के बच्चे जरूर होते थे लेकिन लिपाई-पुताई के कार्य में शूद्रों की लड़कियाँ कभी-कभार ही होती थी, और यदि होती भी थी तो वो बहिष्कृत-अछूत-वंचित जगत की लड़कियों से अलग ग्रुप बनाकर कार्य करती थी। मतलब कि साफ-सफाई, लिपाई-पुताई, कूड़े-कचरे आदि की सफाई अछूत-बहिष्कृत समाज की बच्चियों के ही जिम्मे रहती थी। और आज भी तमाम स्कूलों में ये सब काम इसी चमार-अछूत-वंचित वर्ग की बच्चियों से ही कराया जाता है। फ़िलहाल, वो शूद्रों की बच्चियां, वंचित जगत की बच्चियों से मिलना-जुलना नहीं चाहती थी क्योकि प्राइमरी स्कूलिंग के दौरान ही उनकों अच्छी तरह से समझा दिया गया होता है कि तुम्हारे मित्र कौन होगें, किसके साथ तुम्हें रहना है, किसके साथ कार्य करना है, और किसके साथ व किसके हाथ का खाना खाना है, पानी पीना है इत्यादि।

इसी कड़ी में सत्र के अंत समय में गृह विज्ञान विषय के तहत होने वाले खाना-खज़ाना कार्यक्रम के दौरान जाति सर्वाधिक प्रखर रूप से सामने आती थी। अध्यापक बिल्कुल साफ तौर पर कह देता था कि कौन छात्र और छात्रा कौन-सा बर्तन लेकर आएगी, किसके घर से आटा आएगा और किसके घर से चावल। अध्यापक इन निर्देशों को देते समय अपनी ब्राह्मणी गुलामी का पूरा ख्याल रखते थे। कभी भी कोई भी बर्तन वंचित जगत के बच्चों से लाने को नहीं कहा गया है। खाना बनाने के दौरान वंचित जगत के बच्चियों की भागीदारी पूर्णता शून्य होती है। वंचित जगत की इन लड़कियों को स्कूल की लिपाई-पुताई और झाड़ू तक सीमित कर दिया जाता है। इसके अलावा बहिष्कृत जगत की छात्राओं को कोई आज़ादी नहीं थी, सिवाय अपने लिपाई-पुताई, झाड़ू-कटका के मेहनताना के, जो उन्हें बने पकवान के रूप में दिया जाता था। इस तरह के सामाजिक गैर-बराबरी जातिवादी भेदभाव के चलते वंचित जगत की छात्राएं अक्सर इस दिन अनुपस्थिति रहना पसन्द करती थी। यदि आ भी गयी तो मार्क्स की लालच में अपनी ड्यूटी करके बिना कुछ खाये, मतलब कि लिपाई-पुताई, झाड़ू-कटका का मेहनताना लिए बगैर, कोई बहाना करके घर चली जाती थी।

इसी कड़ी में, एक वाकया और है जो जातिवाद को बयां करता है। बात उस समय की है जब हम सातवीं में पढ़ते थे और हमारी नन्हीं प्यारी व घर की लाड़ली बहन (दीपशिखा इन्द्रा उर्फ़ अंकिता) उस समय तीसरी ज़मात में पढ़ती थी। छोटी-नन्हीं बच्ची थी। समाज के ठेकेदारों की नीच उच्चता की उसे कहाँ समझ थी। इसी खाने खज़ाने के कार्यक्रम के तहत अंकिता अपने मन से घर से थाली लेकर आयी थी। काफी उत्साहित थी लेकिन जैसे ही ब्राह्मण अध्यापक को पता चला उसने उससे पूछा तुम्हारी थाली कौन है? जैसे ही अंकिता ने बताया उस ब्राह्मण अध्यापक ने तुरन्त अंकिता की थाली उठाकर बाहर फेंक दिया। अंकिता उस समय ये नहीं समझ पायी थी कि उसके साथ ऐसा बर्ताव क्यों किया गया? हम सब अच्छी तरह से जानते है कि अध्यापकों के विचारों और बर्ताव का बच्चों पर बहुत गहरा असर पड़ता है। और, इस प्रकार के ब्राह्मणी कृत्यों से ही बच्चा जातिवाद, छुआछूत, ऊंच-नीच की बर्ताव सीखता है।

आगे इसी कड़ी में, अंकिता एक बार अपने साथ पढ़ने वाली लड़कियों के संग उन्हीं में से एक लड़की, जो कि शूद्र वर्ण के कुर्मी जाति के तहत आती है, के साथ उसके घर गयी थी। उसके घर पहुँचने पर उसके घर वालों ने सबको पानी का साफ-सुथरा गिलास दिया और अंकिता को एक गन्दे गिलास में पानी दिया जिसमे से बास आ रही थी। अंकिता ने तुरन्त पानी पीने से इंकार कर दिया। उस समय अंकिता की उम्र बहुत कम थी, इतनी समझ नहीं थी कि ऐसा क्यों हो रहा है, लेकिन क्या हो रहा है इसकी समझ थी। इसलिए अंकिता ने पानी पीने सा इंकार कर दिया। भारत के घरों-गांवो और समाज के हर स्तर पर ये जातिवादी छुआछूत का भेदभाव बहुत सहज व आम है।

बहिष्कृत जगत की बच्चियों के साथ ये सामान्य जातिवाद ही नहीं, इसके अलावा असैसिनेशन ऑफ़ प्राइवेसी एण्ड सेक्सुअल हरैसमेंट इन क्लासरूम बहुत ही आम है। राजस्थान की बहुजन लाड़ली डेल्टा मेघवाल के साथ घटी घटना इसका सबसे चर्चित व पुख़्ता प्रमाण है। इसी तरह से हमारे स्कूल में भी बहिष्कृत जगत की बच्चियों की साथ अभद्र टिप्पणी बहुत ही आम था, या यूं कहें कि अध्यापकों ने इसे स्कूल का कल्चर ही बना दिया था।

आज के स्वतंत्र भारत में हमारे ओबीसी बाहुल्य स्कूलों में भी बहिष्कृत जगत की बच्चियों के साथ वही सामंतवादी ब्राह्मणी बर्ताव हो रहा है जो सदियों से वंचित जगत के साथ ब्राह्मणी व्यवस्था के तहत होता आ रहा है। ये उस समय की बात है जब हम आठवीं कक्षा में पढ़ते थे। इस दौरान लड़कियों की उम्र कम से कम १४ वर्ष की होती है। गावों में तो देर से दाखिला होने की वजह से आठवीं ज़मात तक लड़कियों की उम्र १६-१७ साल तक हो जाती है। इस उम्र में छात्राओं के शारीरिक बनावट में काफी परिवर्तन आ चुका होता है। ये हमारे आठवीं के कक्षा की घटना है जिसे आप उस स्कूल की संस्कृति भी कह सकते है। जब बहिष्कृत जगत की छात्राएं अध्यापक के पास गृह-कार्य की कॉपी चेक कराने जाती थी तो अध्यापक उनके कलाई मरोड़ देता था। अध्यापक इन वंचित जगत की छात्राओं की कलाई तब तक मरोड़ता था जब तक छात्राएं नीचे की तरफ पूरी तरह से झुक नहीं जाती थी। इसके पश्चात अध्यापक बहिष्कृत जगत की इन छात्रों के कमीज़ के अन्दर झांककर कहता था कि तुम्हारे ज़ीरों तो काफी बड़े हो गए है। कल मैंने तुझें गन्ने के खेत के पास देखा था। तुम वहां क्या कर रही थी? किसी से बात कर रही थी? कौन था वो? लगता है उसने मदद की है, इसीलिए तुम्हारे ज़ीरों काफी बड़े हो गए है। इस तरह की टीका-टिप्पणी करने बाद इन वंचित जगत की छात्राओं को ज़ीरो मार्क्स ही अवार्ड मिलता है। हालाँकि वंचित जगत की छात्रएं बहुत ही प्रबल और प्रखर रूप से इसका विरोध करती थी लेकिन हमारे सवाल ये है कि ये सब वंचित समाज की छात्राओं के साथ ही क्यों होता था ? उसी क्लॉस में ब्राह्मणों की लड़कियाँ पढ़ती थी, ठाकुरों की लड़कियाँ थी, अन्य सवर्णों की लड़कियाँ थी, खुद शूद्र वर्ग के अहीरों, कुर्मियों आदि की लड़कियाँ भी थी लेकिन उनके साथ किसी भी अध्यापक ने ऐसा कभी नहीं किया जबकि ज़ीरों तो ब्राह्मणों-सवर्णों और शूद्रों की लड़कियों के भी बड़े हो चुके थे, बल्कि कुछ ज़्यादा ही बड़े थे।

इस तरह से एक अध्यापक द्वारा किसी भी छात्राओं के साथ छेड़छाड़, छीटाकसी और टीका-टिप्पणी पूरी तरह से ग़लत है, अमानवीय है। फ़िलहाल हम यहाँ पर ग़लत-सही की बात ना करके ये कहना चाहते है कि इस तरह का बर्ताव एक खास तबके, चमार-अछूत-वंचित-बहिष्कृत समाज, की छात्राओं के साथ ही क्यों ? यदि यही बर्ताव ब्राह्मणों-सवर्णों और शूद्र छात्राओं के साथ होता तो मामला दूसरा बन जाता लेकिन ऐसा असैसिनेशन ऑफ़ प्राइवेसी एण्ड सेक्सुअल हरैसमेंट इन क्लासरूम एक खास तबके की छात्राओं के साथ होना सिर्फ और सिर्फ जाति की वजह से ही है। इसी तरह जब होमवर्क पूरा ना हो या टेस्ट में गलतियाँ मिल जाये तो अछूत-वंचित जगत के बच्चों के हाथों पर गिरने वाली छड़ी की मार में वज़न अन्य की तुलना में ज्यादा ही होता था।

राजस्थान सरकार द्वारा सम्मनित नन्ही बच्ची डेल्टा मेघवाल का स्कूल में बलात्कार, और फिर हत्या इसी जातिवादी ब्राह्मणी संस्कृति के दायरे में आता है। ये सारे के सारे अत्याचार, शोषण और असैसिनेशन ऑफ़ प्राइवेसी एण्ड सेक्सुअल हरैसमेंट इन क्लासरूम, एट वर्क प्लेस अराउंड कंट्री साइड आदि जाति की वजह से ही होते है। इसी मानसिकता के चलते देश में हर रोज तमाम वंचित जगत की महिलाओं के साथ छेड़छाड़, बलात्कार व हत्या जैसे निकृष्टतम व जघन्यतम जुर्म होते है।

जिस उम्र में हमारे लोगों के साथ ये सब हो रहा था, बुरा तो बहुत लगता था लेकिन समझ भी कम थी, जानकारी भी नहीं थी, और अच्छे बच्चे अध्यापक की बात नहीं काटते है जैसे ब्राह्मणी पॉलिसी के तहत हम कभी भी इन सब का विरोध नहीं कर पाये। लेकिन यही सब बाते अब याद आती है और बहुत तकलीफ देती है। दिन-प्रतिदिन घटित हो रही घटनायें हमें झकझोर कर रख देती है, आँखों से नींद गायब हो जाती है, शायद इसीलिए ये आपबीती लिख रहे है, अपनी पीड़ा, अपनी वेदना बयां कर रहे है, और चीत्कार कर कह रहे है कि यही निकृष्टतम जातिवादी सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति, धर्म और सामाजिक व्यवस्था की सच्चाई है।

सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू संस्कृति, धर्म और सामाजिक व्यवस्था जैसी निकृष्टतम व अमानवीय संस्कृति, धर्म और सामाजिक व्यवस्था शायद ही दुनिया के किसी कोने में मौजूद होगी। इस देश की सनातनी मनुवादी वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में बहिष्कृत जगत के छात्र-छात्राओं को बहुत ही निकृष्टतम जटिलतम जघन्यतम और अमानवीय परिस्थितयों से गुजर कर अपनी शिक्षा पूरी करनी पड़ती है लेकिन ख़ुशी की बात यह है कि ये बहिष्कृत भारत के बच्चे ऐसी परिस्थितियों में भी पढ़-लिखकर आगे ही नहीं आ रहे है बल्कि प्रबल, प्रखर और तीव्र वेग के साथ आगे आ रहे है। हमारा दृढ विश्वास है कि ऐसी जघन्यतम और अमानवीय परिस्थितयों में पढ़-लिखकर आगे आ रहा वंचित जगत ही न्याय-समता-स्वतंत्रता-बंधुत्व पर आधारित बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर के सपनों के सुन्दर भारत निर्माण करेगा।
रजनीकान्त इन्द्रा
इतिहास छात्र, इग्नू, नई दिल्ली
जुलाई १०, २०१७

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