न्याय चाहिए तो हुक्मरान बनों
बिजनेस
स्टैण्डर्ड के अप्रैल ०५, २०१८ की रिपोर्ट के मुताबिक २००६ से २०१६ तक दौरान
देश में दलितों और आदिवासियों के साथ हुए अत्याचारों के कुल ४२२७९९ और
८१३२२ मामले दर्ज हुए हैं। इस दरमियान दलितों पर अत्याचार के मामले
में आठ राज्यों (गोवा, केरल, दिल्ली, गुजरात, बिहार, महाराष्ट्र, झारखण्ड और
सिक्किम) ने और आदिवासियों पर अत्याचार के मामले में केरल, कर्नाटक और बिहार में
ने शीर्ष स्थान प्राप्त किया हैं। २००६ से २०१६ तक में देश की कुल आबादी के १६.६%
हिस्सा वाले दलितों के खिलाफ हुए अत्याचारों की दर में ७४६% और देश की
कुल आबादी के ८.६% हिस्सा वाले आदिवासी समाज के साथ हो रहे अत्याचारों में
११६०% की बढोत्तरी दर्ज की गयी हैं। जबकि इसी समयान्तराल में पोलिस जाँच में
लम्बित मामलों में दलितों और आदिवासियों में सन्दर्भ में क्रमशः ९९% और ५५% की
बढ़ोत्तरी दर्ज की गयी हैं। इससे भी अधिक भयभीत करने वाली बात ये हैं कि इसी
समयांतराल में आदिवासियों और दलितों के खिलाफ हुए मुकदमों में सजा दर में क्रमशः
०७% और ०२% की घटोत्तरी पायी गयी हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरों के मुताबिक
२०१४ में दलितों के साथ हुए कुल अपराधों का १३.९% अपराध दलित समाज के महिलाओं
के साथ हुए बलात्कार का हैं। इसी तरह से २०१६ में आदिवासियों पर भी हुए कुल
अत्याचार कर १४.८ % रेप के मामले दर्ज हुए।
फिलहाल, ये सब
वे मामले हैं जिनका पंजीकरण हो सका। जबकि छोटे-मोटे अपराधों को तो पुलिस दर्ज भी
नहीं करती हैं। यदि दलितों और आदिवासियों पर होने वाले सारे मामले दर्ज हो
जाये तो भारत के शासन-प्रशासन और न्याय व्यवस्था पूरी तरह से बेनकाब हो जायेगा। ये
सदियों से स्थापित सत्य हैं कि भारत में दर्ज होने वाले एफआईआर और न्याय
मिलने में पीड़ित के सामाजिक पृष्ठिभूमि (जाति) का योगदान सबसे बड़ा होता हैं। दलित-आदिवासी और अन्य पिछड़े वर्ग के साथ घटित होने वाले अपराधों में दलितों-आदिवासियों में राजनैतिक हैं। दलित-आदिवासी समाज के लोग जैसे-जैसे जागरूक हो रहें वैसे-वैसे वे अपने अधिकारों की बात कर रहें हैं, अपनी सामाजिक अस्मिता को पुनः स्थापित कर रहें हैं, जो ब्राह्मणो-सवर्णों को गवारा नहीं हैं। ऐसे में पितृसत्तात्मक व्यवस्था में यदि एक दलित-आदिवासी नारी अपने अधिकारों और अस्मिताओं की पैरवी करे तो हिंदुत्व की नींव ही चरमरा जाती हैं। हिंदुत्व के ठेकेदार अपनी नारीविरोधी जातिवादी सामंती वैदिक ब्राह्मणी हिन्दू की अमानवीय संस्कृति द्वारा देश की लगभग ९३% आबादी (सकल बहुजन समाज और सवर्ण नारी समाज) को गुलाम बनाये रखने के लिए इस अमानवीय व्यवस्था के खिलाफ मानवता की आवाज बुलंद करने वाले दलित समाज के साथ लगातार जघन्यतम अपराधों को अंजाम दे रहें हैं। ये और बात हैं कि उनकी इस व्यवस्था की उम्र के कुछ दशक ही बचें हैं।
सरकारी और अन्य संवैधानिक संस्थाओं पर काबिज जातिवादियों के रुख की पड़ताल करे तो हम पाते हैं कि दिल्ली में १६ दिसम्बर को जब एक सवर्ण लड़की का बलात्कार होता हैं तो सरकार की
बुनियाद हिल जाती हैं, वर्मा कमिटी का गठन कर तत्काल संसद द्वारा कानून पास कर
दिया जाता हैं। मिडिया लगातार इसे राष्ट्रिय मुद्दा बनाकर पेश करती हैं। अंत में,
२१ मार्च २०२० को दोषियों को फाँसी लटकाकर तथाकथित इंसाफ कर दिया जाता हैं।
हैदराबाद में भी एक सवर्ण लड़की के साथ रेप होता हैं तो पोलिस इस कदर हरकत में
आती हैं कि तथाकथित अपराधियों का इनकाउंटर कर खुद ही इन्साफ कर देती हैं,
कोर्ट की जरूरत ही नहीं पड़ती हैं। लेकिन कठुआ केस के सवर्ण अपराधियों के पक्ष
में जुलुस निकला जाता हैं, चिन्मयानंद के केस में पीड़िता को ही अपराधी करार कर
दिया गया। डेल्टा मेघवाल का ब्लात्कार कर उसकी हत्या हो जाती हैं। इन सब मामलों
में ना तो सरकार कोई सुध लेती हैं, और ना ही अदालते हैं। भारत में स्थापित सत्य
हैं कि न्याय होता नहीं, न्याय बिकता हैं। और, सिर्फ बिकता ही नहीं हैं जाति देखकर
बिकता हैं।
भ्रष्टाचार के
इस संदर्भ में बाबा साहेब कहते हैं कि अधिकारी सिर्फ भ्रष्ट नहीं होते हैं बल्कि
वे जातिवादी और भ्रष्ट होते हैं। यदि वे सिर्फ भ्रष्ट हो तो उन्हें कोई भी
खरीद सकता हैं लेकिन जब वे जातिवादी भ्रष्ट होते हैं तो उन्हें सिर्फ उनकी जाति
वाला ही खरीद सकता हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता हैं कि शासन-प्रशासन और
न्यायपालिका आदि में भ्रष्टाचार उतनी बड़ी समस्या नहीं हैं जितनी कि इन सभी
संस्थाओं में व्याप्त जातिवाद। यहाँ ये उल्लेख करने की जरूरत नहीं हैं कि
न्यायपालिका और मीडिया में लगभग सौ फीसदी ब्राह्मणो-सवर्णों का ही कब्ज़ा हैं,
जबकि शासन-प्रशासन के सभी उच्च पदों पर भी इन्हीं ब्राह्मणो-सवर्णों का शत-प्रतिशत
कब्ज़ा हैं। प्रिवी काउन्सिल ने तो पहले ही स्पष्ट कर दिया हैं की ब्राह्मणो
में न्यायिक चरित्र नहीं होता हैं। ये लोग सिर्फ भ्रष्ट ही नहीं बल्कि जातिवादी
भ्रष्ट होते हैं। इसका अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता हैं कि भारत से लूट कर
विदेश जाने माल्या से लेकर नीरव मोदी तक और अन्य सभी छोटे-बड़े लूटेरे किसी
दलित-वंचित-आदिवासी-पिछड़े समाज से नहीं बल्कि सवर्ण तबके से ही आते हैं। कोरोना
प्रकोप के दौरान भारत में २० रूपये में मिलने वाले मास्क को १५० रूपये में बेचने
कोई और यहीं ब्राह्मण-सवर्ण तबके के ही लोग हैं। ऐसी आपदा में जब पूरी दुनिया
त्राहि-त्राहि कर रही हैं ऐसे में मानवता की लाश से भी मुनाफे कमाने वाला तबके में
आप मानवीय चरित्र की कल्पना नहीं कर सकते हैं।
कहने का
तात्पर्य यह हैं कि भारत के हिन्दू सामाजिक व्यवस्था में अन्याय हो या न्याय
(राजनैतिक हो, आर्थिक हो, सामाजिक हो, सांस्कृतिक हो, शैक्षणिक हो, धार्मिक,
आध्यात्मिक हो) ये सब जाति के आधार पर ही होता है। संविधान में निहित मूल्यों की
तब तक कोई अहमियत नहीं हैं जब तक कि संविधान को चलने लोग पीड़ित वर्ग के नहीं
होगें।
यहीं वजह थी
दशकों पूर्व बाबा साहेब बहुजन समाज के गौरवशाली इतिहास और
मौजूदा समस्याओं के सन्दर्भ में स्पष्ट करते हुए बहुजनों से कहते हैं कि
जाओं अपने घरों की दीवारों पर लिख दो कि तुम इस देश की शासक जमात हो।
संविधान निहित प्रावधानों और लोकतान्त्रिक व्यवस्था से देश की राजनीती में एक
इंसान, एक वोट और एक वोट, एक मूल्य के सिद्धांत के आधार पर बाबा
साहेब डॉ अम्बेडकर कहते हैं कि हिंदुत्व अमानवीय व्यवस्था में यदि मानवता के
कल्याण के लिए अवसर के सारे दरवाजे खोलना चाहते हो तो सत्ता पर कब्ज़ा करों।
बाबा साहेब की
इसी बात से प्रभावित होकर मान्यवर काशीराम साहेब ने कहा कि यदि न्याय चाहिए तो
शासक जमात बनों। लोकतंत्र के महानायक मान्यवर काशीराम साहेब के साथ कदम
से कदम मिलाकर संघर्ष करने वाली भारत में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका बहन
मायावती जी ने भारत की सर्वाधिक आबादी वाले उतर प्रदेश की सरजमीं पर ऐसी हुकूमत कि
सम्राट अशोक के बाद ऐसी मिशाल भारत के इतिहास में नहीं हैं।
बहुजन समाज (पिछड़े-दलित-आदिवासी-अल्पसंख्यक) की इस
बसपा सरकार में ना सिर्फ अपराधों में भरी गिरावट दर्ज़ हुई बल्कि अपराधी या तो
जेल के अंदर पहुँच गए या फिर उत्तर प्रदेश से बाहर चले गए। सकल नारी समाज के
साथ-साथ दलित-वंचित-पिछड़े-अल्पसख्यक समाज ने पहली बार संविधान के महत्त्व व इसकी
हुकूमत को एहसास किया।
सत्ता और
संशाधन के हर क्षेत्र के हर पायदान पर देश के हर तबकी की उसके जनसख्या के मुताबिक
समुचित स्वप्रतिनिधित्व व भागीदारी को सुनिश्चित करने के लिए बहुजनों का
सत्तारूढ़ होना देश में मानवता की जरूरत हैं। यहीं भारत में संविधान निहित
मूल्यों पर आधारित लोकतंत्र होगा। लोकतंत्र के महानायक मान्यवर साहेब के शब्दों
में -
जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी भागीदारी।
ऐसे में स्पष्ट
हैं कि यदि बहुजन समाज के लोग संविधान सम्मत सत्ता और सबके लिए राजनैतिक,
आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, आध्यात्मिक और धार्मिक न्याय चाहते
हैं तो बहुजनों को खुद हुक्मरान बनना ही होगा।
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रजनीकान्त इन्द्रा=======
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