उच्चतम
न्यायालय के न्यायाधीशों द्वारा बसपा प्रमुख माननीय बहन जी, बहुजन महापुरुषों से जुड़े
स्मारकों और बसपा की योजनाओं पर टिप्पणी कोई नई बात नहीं है. जब तक बसपा सरकार रही
विपक्ष ने सरकार को बदनाम किया, अदालतों में मुकदमें दायर करवायें, यहाँ तक कि केन्द्र
की बहुजन विरोधी सरकारों ने सीबीआई आदि का इस्तेमाल करके बहन जी को निजी तौर पर भी
बहुत परेशान किया।
बहुजन
स्मारकों को ब्राह्मणवादी सोच रहने वाले व्यक्तियों से लेकर अदालतों तक ने सरकारी धन
की बर्बादी बताया, चुनाव आयोग ने तो लखनऊ के अम्बेडकर पार्क की हाथी मूर्तियों तक को
ढ़ँकने का तुगलकी फरमान जारी कर दिया था. ऐसे में सबसे अहम सवाल ये उठता है कि क्या
कभी किसी ने गांधी, नेहरू, पटेल आदि की मूर्तियों पर सवाल उठाया? यदि बहुजन महापुरूषों
की मूर्तियों का निर्माण जनता के धन की बर्बादी है तो 4200 करोड़ रूपये का कुम्भ बजट,
3000 करोड़ रूपये की पटेल मूर्ति, दिल्ली में सवर्ण नेताओं की समाधि इत्यादि धन की
बर्बादी क्यों नहीं है?
आज न्यायालय,
सरकार और ब्राह्मणवादी मानसिकता से ग्रस्त लोग बहन जी को बहुजन स्मारकों के खर्च को
वापस करने की बात कर रहे हैं लेकिन क्या कभी किसी अदालत ने ये पूछा कि बहुजन महापुरुषों
से जुड़े स्मारकों का निर्माण तो दूर, क्या वजह है कि बहुजनों के गौरवशाली इतिहास, बहुजन
क्रांतिकारियों की गौरवगाथाओं और बहुजनों के राष्ट्र-निर्माण में किये योगदान को स्कूल
के पाठ्यक्रमों तक में शामिल नहीं किया गया? क्या कभी किसी ने दिल्ली में बनी सवर्ण
नेताओं की समाधि पर खर्च हुए धन का हिसाब मांगा? बहुजन समाज को उसके इतिहास से दूर
क्यों रखा गया है?
बाबा
साहेब ने कहा था – “जो कौम अपना इतिहास नहीं जानती है वो कभी इतिहास नहीं बना सकती
है.” इसीलिए ब्राह्मणवादियों द्वारा साजिशन प्राइमरी पाठशाला के बाद जूनियर हाईस्कूल,
इण्टर कालेज और डिग्री कालेज का विकास उस स्तर पर नहीं किया गया कि ये बहुजनों की पहुँच
में हो. यदि भारत की शिक्षा संरचना पर नजर डाले तो हम पाते हैं कि प्राइमरी स्कूल के
बाद जिला स्तर पर एक जीईसी-जीजीआईसी, केन्द्रीय विद्यालय, नवोदय विद्यालय का ही निर्माण
हो सका जिस तक बहुजनों की पहुंच ना के बराबर है. इन विद्यालयों में पढने वाले बच्चे
लगभग सवर्ण ही होते थे. कालान्तर में प्राइवेट विद्यालय बने तो लेकिन उनका प्रबंधन
सामान्यत: ब्राह्मणों-सवर्णों के ही हाथों में रहा है. यहाँ पर यदि बहुजनों को दाखिला
मिल भी जाय तो जातिवादी शोषण इस कदर होता है कि बहुतायत में बहुजन बच्चे स्कूल छोड़
दिया करते थे. जिसके चलते बहुजन मेधा प्राइमरी के बाद दम तोड़ देती थी।
फिलहाल,
संविधान प्रदत्त अधिकारों, बहुजन महानायक मान्यवर कांशीराम, बहन कुमारी मायावती जी,
लालू यादव आदि के चलते बहुजनों की शिक्षा का मार्ग प्रशस्त हुआ. इसी शिक्षा की बदौलत
आज बहुजन समाज के बच्चे विश्वविद्यालयों में ब्राह्मणवाद की कब्र खोद रहे हैं, अपना
इतिहास खोज रहे हैं. इसी गौरवशाली इतिहास के चलते बहुजन महानायिका ने बहुजन महानायकों
की गौरवगाथाओं को स्मारकों व मूर्तियों के रूप में दर्ज कर अपने इतिहास को दुनिया के
सामने स्थापित कर दिया।
हमारे
निर्णय में, बहुजन स्मारक अपने आप में एक ऐसा विश्वविद्यालय है जो उनको भी पढाता है
जिन्होंने कभी स्कूल का मुँह तक नहीं देखा, कलम-किताब को कभी छुआ तक नहीं है. ये बहुजन
स्मारक बहुजनों के लिए प्रेरणा स्रोत हैं. ये बहुजनों के मार्गदर्शक हैं. यही वजह है
कि इन बहुजन स्मारकों को बदनाम किया जा रहा है।
बहुजन
स्मारकों का विरोध, बाबा साहेब की तोड़ी जाती प्रतिमाएँ, उच्चतम न्यायालय की टिप्पणी
ये बताती है कि भारतीय समाज में लोगों की जातिवादी सोच और बहुजन समाज के प्रति नकारात्मक
मानसिकता आजादी के सात दशक बाद भी नहीं बदली है. देश को, देश की अदालतों को ये जानकारी
होनी चाहिए कि बहन जी के कार्यकाल में बने सभी बहुजन स्मारक कैबिनेट द्वारा प्रस्तावित
और विधानसभा द्वारा पारित हैं. संवैधानिक प्रावधानों के अनुसार यह सिर्फ और सिर्फ विधायिका
का अधिकार है कि करारोपण या अन्य माध्यमों से राजस्व कैसे प्राप्त किया जाये और उसे
कहाँ खर्च किया जाये. यह न्यायपालिका के अधिकार क्षेत्र में नहीं आता कि विधायिका को
वह यह निर्देश दे कि उसे पैसे कहाँ और कैसे खर्च करने हैं. क्या सुप्रीम कोर्ट के माननीय
न्यायाधीश संविधान के अनुच्छेद 50 से परिचित नहीं हैं जो सरकार और न्यायपालिका कि हदों
का निर्धारण करता है? यदि हैं तो फिर उनके इस फैसले का क्या अर्थ निकाला जाना चाहिए।
इस तरह
की टिप्पणी बहुजन समाज के बढ़ते कारवां व बहन जी को बदनाम कर बहुजनों के मन में बहन
जी के प्रति आक्रोश भरने की साजिश मात्र है. हालांकि सच्चाई तो ये है कि इस तरह की
टिप्पणी व हरकतों से बहुजन समाज और जुड़ेगा, टूटेगा नहीं. जिससे बहन जी व बहुजन कारवां
को और अधिक मजबूती मिलेगी.
फिलहाल
बहुजन स्मारकों व बहुजन महानायकों की प्रतिमाओं के संदर्भ में हमारा स्पष्ट मत है कि
“जब-जब हमारे इतिहास को, महानायकों व उनकी गौरवगाथाओं को इतिहास के पन्नों से मिटाने
की कोशिश की जायेगी तब-तब हम अपने इतिहास, महानायकों व उनकी गौरवगाथाओं को संगमरमर
के निर्दयी कठोर पत्थरों पर दर्ज करने को मजबूर होगें. इतिहास में यही सम्राट अशोक
ने किया था, और आज यही भारत में सामाजिक परिवर्तन की महानायिका ने भी किया है।”
रजनीकान्त इन्द्रा, इतिहास छात्र, इग्नू, नई दिल्ली
(Published on Bahishkrit Bharat web portal on Feb. 11,
2019)
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