आज भारत
में दहशत का आलम है। चारों तरफ साम्प्रदायिकता और जातीय हिंसा का माहौल है।
दलित-आदिवासी-पिछड़े और अल्पसंख्यकों को टारगेट किया जा रहा है। गाय-रक्षा और
देशभक्ति के नाम पर मॉब लींचिंग बहुत ही आम हो गया है। पिछले पांच सालों
में जातिगत हत्या, बलात्कार, लूट और भ्रष्टाचार में घातांकीय वृद्धि हुई है।
ब्राह्मणी सरकार ने भ्रष्टाचार की सारी हदें पार कर दी है। राफेल घोटाला,
ईबीएम घोटाला, नोटबादळी घोटाला, जनधन घोटाला, व्यापम घोटाला, बैंक घोटाला, सीबीआई
पतन, आरबीआई पतन, न्यायपालिका पतन, आर्मी का राजनीतिकरण आदि अलोकतांत्रिक,
असंवैधानिक, अवैध, अनैतिक और अमानवीय कृत्यों के बाद मौज़ूदा सरकार के कोई मुद्दा
नहीं बचा है जिस पर वह राजनीति कर सके।
आम
तौर पर लोग ये समझते है कि भारत में लड़ाई राजनैतिक सत्ता मात्र की है, लेकिन ऐसा
सोचना उचित निर्णय नहीं होगा। भारत के राजनैतिक फलक पर बहुत से राष्ट्रीय व
क्षेत्रीय दल है। सबके अपने-अपने एजेंडे है। लेकिन भारत का मुख्या एजेण्डा है
सामाजिक परिवर्तन है। ऐसे में हम भारत की राजनीति को दो दो हिस्सों में देखते
है।
एक,
वे लोग और उनके राजनैतिक दल है जो भारत में या तो सामाजिक यथास्थिति को बनाये
रखना चाहते है, या फिर वापस देश को पेशवाई ज़माने में ले जाना चाहते है। ये
लोग संविधान को बदलने की जद्दोजहद कर रहे है। मनुस्मृति को दुबारा कब्र से खोदकर
जीवित करने की अमानवीय कोशिस कर रहें है। ये लोग संविधान निहित समता को नकारकर
समरसता को स्थापित करना चाहते है। जिसका मतलब है कि ब्राह्मणी व्यवस्था, जातिवाद,
जाति-पाँति, ऊंच-नीच आदि को कायम रखना, अल्पसंख्यक समाज को दूसरे दर्जे का नागरिक
बनाकर रखना, नारी समाज को सीता जैसी गुलाम व दासी बनाकर रखना। ये लोग लोगों की
स्वतंत्रता को छीन कर उनकों गुलाम बनाना चाहते है, बंधुता को नकारकर वैमनस्य का
राज़ स्थापित करना चाहते है। ऐसे दल, संगठन मानवता का सन्देश देने वाले राष्ट्र ध्वज को
ब्राह्मणी आतंकवाद के प्रतीक भगवा ध्वज से रिप्लेस करना चाहते है। ये लोग देश
में सदा रक्तपात-दंगा-फसाद, क़त्ल-ए-आम और ब्राह्मणवाद जैसे भयानक सामाजिक कैंसर की
वकालत करते है। हुकूमत पर अलोकतांत्रिक और अवैधानिक रूप से कब्ज़ा जमाये बैठे इनके लोगों द्वारा हाल-फिलहाल में तमाम ऐसे निर्णय लिए गए है जिससे कि बहुजन समाज व बहुजन आन्दोलन का बहुत नुकसान हुआ है। जैसे कि एससी-एसटी
प्रिवेंसन ऑफ़ एट्रोसिटी एक्ट १९८९ को निष्प्रभावी बनाना, आदिवासियों को उनके ही
जमीन-जंगल व अन्य मूलभूत हकों से वंचित करना, बहुजनों के मनोबल को कुचलकर
उनकों दास बनाना, बहुजनों को अन्धविश्वास-ढोंग-पाखण्ड-भगवान-भक्ति और धर्म में
उलझना, देश की शासन-सत्ता और संसाधन की संस्थाओं में समुचित
स्वप्रतिनिधित्व और सक्रिय भागीदारी को एक सिरे से खारिज करना आदि प्रमुख है। ये लोग,
ऐसे राजनैतिक दल और तमाम संगठन भारत में ब्राह्मणी आतंकवाद के जरिये भारत में
ब्राह्मणवाद को स्थापित करना चाहते है। ये ब्राह्मणवाद को स्थापित करने वाला रामराज्य लाना चाहते है। ये ब्राह्मणी
लोग, राजनैतिक दल और संगठन कोई और नहीं, बल्कि जय श्रीराम वाले ही
है।
दूसरे,
ये वो लोग और वह राजनैतिक दल है जो भारत में संविधान का शासन स्थापित
करना चाहते है। लोगों के ज़हन में समता-स्वतंत्रता-बन्धुता की भावना
जगाना चाहते है, देश के हर तबके को देश के शासन-सत्ता और संसाधन के हर क्षेत्र के
हर पायदान पर उनकों उनका समुचित स्वप्रतिनिधित्व व सक्रिय भागीदारी दिलाना चाहते
है, अन्धविश्वास-पाखण्ड-भगवान्-भक्ति-धर्म की जहर को नेस्तनाबूद करके शिक्षा-तर्क की भावना स्थापित
करना चाहते है। समाज में स्थापित हो चुके ब्राह्मणी मानसिक रोग का इलाज
करके समाज में पुनः मानवता, तर्कवाद और वैज्ञानिकता को स्थापित करना चाहते है। ये
लोग खून-खराबे की नहीं, बल्कि कलम-किताब की सभ्यता सत्यापित करना चाहते है। ये लोग समाज में हर किसी को
मान-सम्मान, प्यार और भाईचारा देना चाहते है। ये लोग भारत में ही नहीं दुनिया में शांति-समृद्धि का साम्राज्य कायम करना चाहते है। ये लोग
बुद्ध-रैदास-कबीर-फुले-बाबा साहेब डॉ अम्बेडकर-पेरियार-काशीराम को अपना आदर्श
मानते है। ये लोग जय भीम वाले है।
ऐसे
में देखा जाय तो भारत में सामाजिक द्वन्द चल रहा है। एक तरफ
नफ़रत-लूटमार-हत्या-बलात्कार-जाति-पाँति-भेदभाव-ऊंच-नीच-अमानवीयता-क्रूरता-गुलाम
पसन्द जय श्रीराम वाले है, तो दूसरी तरफ समता-स्वतंत्रता-बन्धुता-प्रेम-ज्ञान-शिक्षा-क्षमा-दया-करुणा-ममता-मानवता
प्रतीक जय भीम वाले है। हालाँकि ये द्वन्द कोई नया नहीं है। ये द्वन्द पहले बुद्धिज़्म बनाम ब्राह्मणवाद था। आज भी वही द्वन्द जारी है। फ़िलहाल १९४७ के बाद भारत के हर क्षेत्र के हर पायदान पर लड़ी जा
रही हर लड़ाई ब्रह्मनिज़्म बनाम बुद्धिज़्म ही है जिसे आज के सन्दर्भ में जय श्रीराम बनाम जय भीम कह सकते है। अब तय इस देश की जनता को करना है कि वो
अपने लिए, अपने आने वाली नश्लों के लिए, कैसी विचारधारा, कैसी सभ्यता, कैसा समाज चाहते
है? इसलिए अब निर्णय आपके हाथ में है कि आप जय श्रीराम के साथ
हैं या फिर जय भीम के।
रजनीकान्त इन्द्रा, इतिहास छात्र, इग्नू-नई दिल्ली
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